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केएनटी की कार

ke.enTii kii kaar

संजय कुंदन

संजय कुंदन

केएनटी की कार

संजय कुंदन

और अधिकसंजय कुंदन

    शाम छह बजे ऑडिटोरियम में सबको इकट्ठा होना था जनरल मीटिंग के लिए। जनरल मीटिंग के एजेंडे को लेकर कोई दुविधा किसी के भीतर थी। इस अख़बार में जनरल मीटिंग का एजेंडा एक तरह से तय ही होता है किसी—संपादक की विदाई, नए संपादक का स्वागत या वेतन-वृद्धि की घोषणा।

    यह बात पिछले कुछ दिनों से एक कान से दूसरे कान तक पहुँच गई थी कि संपादक चिंतामणि से मैनेजमेंट संतुष्ट नहीं है और उन्हें हटाना चाहता है। चिंतामणि पर अकर्मण्यता का आरोप था। कहा जा रहा था कि अख़बार की प्रसार-संख्या लगातार गिर रही थी, विज्ञापन मिलने कम हो गए थे। अख़बार में बदलते समय के अनुरूप कोई बदलाव नहीं पा रहा था। हालाँकि उसके पीछे एक बात और भी थी जो शायद ज़्यादा बड़ी थी। वह यह कि केंद्र में अब एक दक्षिणपंथी सरकार गई थी और चिंतामणि वामपंथी रुझान के थे। मैनेजमेंट अब कोई दक्षिणपंथी संपादक चाहता था। कहा तो यहाँ तक जा रहा था कि प्रधानमंत्री कार्यालय से संपादक का नाम तय किया गया था।

    संपादकीय विभाग में खुसुर-पुसुर हो रही थी। आज किसी का काम में मन नहीं लग रहा था। लोग डेस्क पर खुलेआम चर्चा करने से कतरा रहे थे। दो-तीन लोगों का एक गुट निकलता और कैंटीन में जमता, फिर दूसरा और तीसरा चाय, समोसे और सिगरेट का दौर चलने लगता। पूरी कैंटीन में सिगरेट के धुएँ की तरह अटकलें भी उड़ रही थीं।

    सबसे ज़्यादा तनाव में थे कमल नारायण तिवारी उर्फ़ केएनटी। वह आज संपादकीय के लोगों की नज़रों का निशाना बने हुए थे। जब एक गुट उनके पास से गुज़रता तो लोग उन्हें देखकर आपस में खुसुर-पुसुर करते और मुस्कुराते।

    इस अख़बार में यही होता था। जब भी किसी संपादक की छुट्टी की जाती उसके क़रीबी लोग अपने साथियों का निशाना बन जाते। लोग ये क़यास लगाने लगते कि अब उनका क्या होगा, क्योंकि होता यही था कि नया संपादक पुराने संपादक के क़रीबी लोगों को ‘शंट' कर देता था।

    हालाँकि केएनटी को इस बात पर सख़्त आपत्ति थी कि वह चिंतामणि के सबसे क़रीबी आदमी हैं। वह अक्सर यह सफ़ाई देते, “मैं चिंतामणि जी के कवि रूप का प्रशंसक हूँ। उनके संपादक के रूप से मुझे कुछ लेना-देना नहीं।”

    यह सफ़ाई किसी के गले नहीं उतरती थी। कुछ महीने पहले जबसे उन्होंने सेकेंड हैंड कार ख़रीदी है, तबसे उन्हें संपादकीय विभाग में ‘चमचा नंबर वन' कहा जाने लगा है। लोगों का कहना है कि चिंतामणि ने तिकड़म करके उनकी कार ख़रीदवाई है, वरना हिंदी का एक चिरकुट पत्रकार, वह भी डेस्क पर काम करने वाला, कार कैसे ख़रीद सकता है। चिंतामणि की कृपा से ही केएनटी को डेस्क पर होने के बावजूद पेट्रोल का ख़र्च मिल रहा था।

    छह बजने से दस मिनट पहले ही संपादकीय के लोग ऑडिटोरियम की ओर जाने लगे। केएनटी उठे और बाथरूम में घुस गए। वह सबसे अंत में जाना चाहते थे। उनकी योजना थी कि सबसे आख़िरी पंक्ति में बैठेंगे और मीटिंग ख़त्म होते ही वहाँ से तुरंत कट लेंगे। असल में वह इस बात से डरे हुए थे कि कहीं चिंतामणि सबके सामने उन्हें टोक दें या बुलाकर बात करने लगे। हालाँकि आज से पहले तक यही सब उन्हें बहुत अच्छा लगता था।

    छह बजते-बजते जब ऑडिटोरियम भर गया तब मंच पर महाप्रबंध अग्रवाल साहब और उनके पीछे-पीछे चिंतामणि ने प्रवेश किया। चिंतामणि कुछ इस तरह चल रहे थे जैसे वह क़ैदी हों और उन्हें ज़बरदस्ती खींचकर लाया जा रहा हो।

    हॉल में फुसफुसाहट हुई। आख़िरी पंक्ति में बैठे केएनटी ने सुना, कोई कह रहा था, “बुड्डा बहुत दुखी है। लगता है उसकी पिटाई हुई है।”

    किसी और ने कहा, “घर में या दफ़्तर में?

    घर में यार। उसकी बीवी ने उसकी पिटाई की होगी। उसे पता चल गया होगा कि बुड्डे की नौकरी जाने वाली है।

    चिंतामणि की उम्र यूँ तो पचपन साल थी पर देखने में वह सत्तर से कम नहीं लगते थे। इसलिए सब उन्हें बुड्डा कहते थे। वह एक बुड्डे की तरह चलते, बोलते और सोचते थे।

    “साथियो!” माइक पर अग्रवाल साहब की आवाज़ गूँजी, “आज हम सब एक ख़ास मक़सद से यहाँ इकट्ठा हुए हैं। हम सबके लिए यह एक दुखद ख़बर है कि हमारे अख़बार के संपादक माननीय श्री चिंतामणि जी ने सेवामुक्त होने का निर्णय किया है। अब वह स्वतंत्र रूप से साहित्य की सेवा करना चाहते हैं। पर प्रबंधन की इच्छा है कि वह सलाहकार के रूप में जुड़े रहकर इस अख़बार को अपना अमूल्य योगदान करते रहें।

    अग्रवाल साहब एक-एक शब्द को च्युइंगम की तरह चबा रहे थे। उनके हर शब्द से काँइयाँपन टपकता था। जब चिंतामणि बोलने के लिए खड़े हुए, केएनटी ने नज़रें नीची कर लीं। एक अजीब थरथराहट उनके भीतर रेंग गई।

    चिंतामणि ने बोलना शुरू किया, मित्रो, आप सबका जो स्नेह मुझे मिला है, वह मैं भूल नहीं सकता। जीवन में कई बार कई मोड़ पर आदमी ऐसे निर्णय करता है जो दूसरों को अप्रत्याशित लग सकता है...।”

    किस निर्णय की बात कर रहे हैं वह, केएनटी ने सोचा। यह निर्णय उन्होंने नहीं किया है। यह निर्णय उन पर थोपा गया है। उनसे जबरन इस्तीफ़ा लिया गया है। कितना धूर्त है प्रबंधन। एक आदमी को समारोहपूर्वक सड़क पर फेंका जा रहा है।

    केएनटी यह सब सोचते हुए इस तरह खो गए कि उन्हें पता भी नहीं चला कि कब चिंतामणि का भाषण समाप्त हो गया। उन्हें अचानक तालियों की आवाज़ सुनाई पड़ी। उन्होंने देखा कि अग्रवाल साहब और चिंतामणि मंच से बाहर जा रहे हैं।

    लोग उठ गए थे। ऐसे मौकों पर ऑडिटोरियम के बाहरी हिस्से में चाय और नाश्ते का प्रबंध रहता था। सभी लोग बाहर निकलने लगे। वे निराश थे, क्योंकि नए संपादक के नाम की घोषणा नहीं हुई थी।

    केएनटी चाय-नाश्ता छोड़कर निकल पड़े। वे ऑडिटोरियम की सीढ़ियों से तेज़ी से उतरे। उन्होंने पीछे मुड़ कर आश्वस्त होना चाहा कि कहीं उन्हें कोई देख तो नहीं रहा।

    वह नीचे आए, जहाँ उनकी कार खड़ी थी। उन्होंने देखा, कार की बोनेट पर एक सफ़ेद लिसलिसी-सी चीज़ गिरी हुई है। उन्हें समझते देर लगी कि किसी चिड़िया ने बीट कर दिया है। वह पास खड़े दरबान पर गरमाए, “तुम लोग यहाँ खड़े-खड़े करते क्या हो।

    दरबान पास आकर बोला, “क्या हुआ सर?”

    केएनटी ने बीट की ओर इशारा करते हुए कहा, “ये क्या है?”

    “ये मैंने नहीं किया है।” यह कहकर दरबान चला गया।

    केएनटी ने पास ही पड़े एक काग़ज़ से उसे पोंछा फिर थोड़ा झुककर उसका निरीक्षण किया। वह सफ़ाई से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने दरबान को फिर आवाज़ दी, ''ऐ, पानी लेकर आओ।

    यह मेरी ड्यूटी नहीं है। किसी पिऊन को बोलिए।“ दरबान ने कहा।

    सारे पिऊन ऑडिटोरियम में व्यस्त थे। केएनटी इधर-उधर देखने लगे। फिर वह लौटकर ऑडिटोरियम गए। वहाँ चाय-नाश्ते का दौर शुरू हो चुका था। उन्हें इस बार यह ख़याल रहा कि कोई उन्हें देख लेगा तो क्या होगा या कहीं चिंतामणि ही मिल जाएँ। वह तेज़ी से ऊपर आए और एक ग्लास पानी लेकर नीचे पहुँचे और बीट साफ़ किया। फिर गिलास को वहीं पटका और गाड़ी स्टार्ट कर चल पड़े।

    आजकल केएनटी की आत्मा उनकी कार में निवास कर रही है। एक धब्बा भी इस कार पर नज़र आए, यह उन्हें बर्दाश्त नहीं। वह इसे सुंदर और स्वच्छ रखना चाहते हैं। हालाँकि यह एक सेकेंड हैंड कार थी जो लगभग डेढ़ साल पुरानी थी, लेकिन केएनटी ने इसका कायाकल्प कर दिया है। अब यह उनकी है, सिर्फ़ उनकी।

    कार ड्राइव करते समय वह अपने आपको बेहद ख़ुशनसीब और सर्वाधिक सफल आदमी मान रहे होते। यह क्या मामूली बात है कि बिहार सरकार के सांख्यिकी विभाग के हेड क्लर्क बाबू हरदयाल तिवारी का बेटा दिल्ली की मस्त सड़कों पर मस्ती से कार चला रहा है, उस हरदयाल तिवारी का बेटा जिन्होंने जीवन में कभी साइकिल भी नहीं चलाई और जिनके लिए स्कूटर भी विलासिता का प्रतीक था।

    केएनटी के मन में कार ख़रीदने की तमन्ना उसी दिन से मचल रही थी, जब उनके जिगरी दोस्त संत कुमार की शादी हुई और उसे दहेज में मारुति कार मिली।

    संत कुमार उनके सहपाठी थे। दोनों बचपन से ही साथ पढ़ते थे। वर्षों तक वे एक दूसरे के पूरक बने रहे। संत कुमार एक रईस परिवार के थे, पर अपने नाम के विपरीत एकदम असंत थे। वे दोनों स्कूल में एक ही बेंच पर बैठते। संत कुमार अपने टिफिन से स्वादिष्ट नाश्ता केएनटी को कराते। मिठाई, फल, पेस्ट्री—इन सबमें केएनटी का हिस्सा तय होता। केएनटी के टिफिन में रोटी और तले हुए आलू होते जिसे कई बार वह अपने क्लास की खिड़की से बाहर फेंक देते। इस स्वादिष्ट नाश्ते के बदले संत कुमार केएनटी की कॉपी से उतार कर लिखा करते। परीक्षाओं में भी वह केएनटी की कॉपी से नक़ल करते।

    संत कुमार अक्सर अपने पिता की जेब साफ़ करते। फिर वह चाट-पकौड़ी खाते और कोल्ड ड्रिंक पीते। इनमें भी केएनटी का हिस्सा तय था। फिर जब वे बड़े हुए तो फ़िल्म देखने का चस्का लगा। संत कुमार ने केएनटी के सहयोग से मैट्रिक की परीक्षा पास की और केएनटी ने संत कुमार के सहयोग से अपने प्रिय अभिनेता अमिताभ बच्चन की कुछ फ़िल्में दस बार देखीं।

    मैट्रिक पास करने के बाद केएनटी आर्ट्स पढ़ने लगे जबकि संत कुमार ने साइंस में दाख़िला लिया। संत कुमार आईएससी में दो बार फेल हुए। तीसरी बार किसी तरह पास हुए और दक्षिण भारत के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में डेढ़ लाख डोनेशन देकर एडमिशन लिया। एडमिशन लेते ही उनकी शादी एक प्रशासनिक अधिकारी की बेटी से तय हो गई और दहेज में डेढ़ लाख कैश तथा ढेर सारे साज-ओ-सामान के साथ मिली एक चमचमाती हुई मारुति कार। कार को देखकर संत कुमार से कहीं ज़्यादा केएनटी प्रसन्न हुए जैसे वह उन्हें ही मिली हो।

    छुट्टियों में जब संत कुमार पटना आते तो सुबह-सुबह कार लेकर केएनटी के घर पहुँचते। कार का हॉर्न सुनते ही केएनटी घर से बाहर निकलते। बाहर निकलकर वह इधर-उधर देखते। जब उन्हें पड़ोस की खिड़की से कोई झाँकता हुआ नज़र आता तो वह ख़ुशी से भर उठते। वह इस भाव से कार की ओर बढ़ते जैसे वह कार उनकी ही हो और संत कुमार उनका ड्राइवर हो।

    वह एक निम्न मध्यवर्गीय लोगों का मोहल्ला था जिसमें बाबू टाइप लोग रहा करते थे। मोहल्ले में जब भी किसी दरवाज़े पर कोई कार खड़ी होती पड़ोसियों की नज़र एक बार ज़रूर उस दरवाज़े पर टिक जाती। केएनटी को अच्छा लगता कि उनके पड़ोसी उन्हें संत कुमार की गाड़ी में बैठते हुए देख रहे हैं।

    संत कुमार और केएनटी पटना की सड़कों पर गाड़ी से चक्कर लगाते। संत कुमार की एक आदत थी कि ज्यों ही वे लड़कियों का झुंड देखते उससे ठीक सटाकर गाड़ी धीरे कर देते और फिर ज़ोर से हॉर्न बजाते हुए गाड़ी तेज़ कर देते। लड़कियाँ जब चौंककर देखतीं तो केएनटी को मज़ा जाता। कई बार ऐसा भी होता कि कोई साइकिलवाला या रिक्शावाला गाड़ी के सामने जाता और काफ़ी देर हॉर्न बजाने के बाद भी हटने में थोड़ी देर लगाता तो केएनटी खिड़की से गर्दन निकालकर साइकिल या रिक्शावाले को ज़ोर से हड़काते। कई बार गालियों की बौछार करते। यह देखकर संत कुमार सिर्फ़ मुस्कुराते। वह सिनेमा देखते और रेस्टोरेंट में खाना खाते। बिल चुकाने का ज़िम्मा तो संत कुमार का था, लेकिन रेस्टोरेंट के बाहर निकलने पर दरबान सलामी ठोंकता तो केएनटी अपनी जेब से दस रुपए बख़्शीश देते हुए गर्व से भर उठते।

    एक दिन जब वह घूम-फिर कर देर से घर लौटे तो बाबू हरदयाल तिवारी उबल पड़े, “क्या समझ रहे हो तुम, घर है कि होटल है, जब मन किया चले आए, जब मन किया चले गए। जा के रहो संतवे के घर। संतवा बिगाड़ के रख दिया तुमको। बाप के पास पइसा था, इंजीनियर बन गया, तुम क्या करोगे। परमुंडे फलहार जो कर रहे हो, अइसा कब तक चलेगा। जुल्फ़ी काढ़ के दूसरा के गाड़ी में कब तक घूमोगे। अरे अइसा कुछ बनो कि गाड़ी ख़ुद ख़रीद सको।

    केएनटी के मन में यह बात चुभ गई थी। बाबू हरदयाल तिवारी आमतौर पर केएनटी से कुछ नहीं कहते थे। लेकिन जब भी वह कुछ कहते, केएनटी उसे सीरियसली लेते थे। उन्होंने मन ही मन तय कर लिया कि संतवा से पीछे नहीं रहना है। संतवा तो बाप के पैसे से बड़ा आदमी बना है, पर वह ख़ुद अपने बल पर कुछ करके रहेंगे।

    संत कुमार अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने चले गए और केएनटी भिड़ गए प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी में। सुबह से शाम तक पढ़ाई करते। अँधेरा होता तो चुपचाप बाहर निकलते, चौराहे तक जाते फिर लौट आते। बाबू हरदयाल तिवारी अपने मित्रों के बीच चौड़े होकर बोलते, “लड़का कम्पटीशन दे रहा है।”

    पर ज्यों-ज्यों परीक्षाएँ हुईं और रिज़ल्ट आने लगे, केएनटी के साथ-साथ बाबू हरदयाल तिवारी के भी होश उड़ने लगे। तीन बार यूपीएससी और पीसीएस में लगातार फेल हो गए केएनटी। जीवन के प्रति गहरी निराशा से वह भर उठे। उन्हें लगा कि अब कार-वार का स्वप्न देखना छोड़ देना चाहिए। एक दिन बाबू हरदयाल तिवारी ने समझाया, “तुम्हारा तो तरीक़ा ही ग़लत है। मद्रासी लोगों को देखो पहले लोग क्लर्क बन जाता है फिर सब बड़का परीक्षा देता है। तुम भी क्लर्क के लिए प्रयास करो।”

    अपने पिता की आज्ञा मानते हुए केएनटी ने धड़ाधड़ बैंक, सचिवालय और रेलवे की क्लर्क स्तर की परीक्षाएँ दे डालीं। इस बार एक तीर निशाने पर लगा और वह रेलवे की रिटेन परीक्षा में क्वालीफाई कर गए। केएनटी को राहत मिली। जैसे डूबते को तिनके का सहारा। मुरझाया हुआ स्वप्न फिर से हरा होने लगा।

    वह सोचने लगे, रेलवे में क्लर्क होना भी क्या कम है। आरक्षण के इस ज़माने में उनकी बिरादरी में सरकारी नौकरी ही कितनों को मिल पाती है। बाबू हरदयाल तिवारी तो अभी से जीभ पिजाए हुए हैं कि बबुआ की शादी में यह लेना है, वह लेना है। वह तो पहले ही कह देंगे कि उन्हें कुछ नहीं चाहिए। कहेंगे कि सब जोड़-जाड़ के एक ठो कार दे दीजिए। हो सके तो सेकेंड हैंड ही दीजिए।

    केएनटी का इंटरव्यू ज़ोरदार रहा। वह प्रसन्न मन से ज्यों ही बाहर निकले, एक क्लर्कनुमा आदमी ने पकड़ लिया, “क्यों भाई साहब, कैसा रहा इंटरव्यू।

    “बहुत अच्छा।” केएनटी ने जवाब दिया।

    “फ़ाइनल सलेक्शन चाहते हैं तो परसों तक साठ हज़ार ले आइए।”

    केएनटी ने हरदयाल तिवारी को जब यह बताया तो वह सोच में पड़ गए, बोले, “आख़िर कहाँ से आएगा इतना रुपया।”

    “कहीं से लाइए, मेरी नौकरी का सवाल है।

    “कहाँ से लावें? तुम्हारी बहन की शादी में इतना ख़र्च हुआ है। कर्ज़ में डूबे हुए हैं।

    “तो ज़मीन बेच दीजिए न।

    ''तुम्हारा दिमाग़ तो नहीं ख़राब हो गया है। गाँव में जो दू कट्ठा ज़मीन है। भी बेचिए दें तो रिटायर करके हम जाएँगे कहाँ? शूद्दर (शूद्र) सबका सरकार है। कहेगा कि पेंशने नहीं देंगे, तब हम लोग खाएँगे क्या?

    अपने पिता के सामने केएनटी की दाल गली नहीं। वह समझ नहीं पा रहे थे कि इस आदमी को अपने बेटे के भविष्य की चिंता क्यों नहीं है। तभी उन्हें संत कुमार का ख़याल आया।

    संत कुमार उनसे एकदम कट से गए थे। पिछले दो तीन सालों में उनकी एकाध चिट्ठी आई थी। अब वह जमशेदपुर में सार्वजनिक क्षेत्र की एक कंपनी में काम करने लगे थे। नौकरी दिलाने में उनके ससुर की महत्वपूर्ण भूमिका थी। केएनटी ने सोचा, संत कुमार के लिए साठ हज़ार रुपए की व्यवस्था करना कोई मुश्किल काम नहीं है।

    उन्होंने रात में जमशेदपुर की बस पकड़ी और सुबह-सुबह संत कुमार के पास पहुँचे। संत कुमार उन्हें देखकर बड़े प्रसन्न हुए। दोनों दोस्त गले मिले। चाय-नाश्ते के बाद केएनटी ने आने का प्रयोजन बताया तो संत कुमार गंभीर हो गए फिर अचानक प्रवचन शुरू कर दिया, “क्या तुम भी रेलवे क्लर्क बनने चले हो। अरे उन लोगों का जीवन भी कोई जीवन है। लाल-लाल दड़बे की तरह क्वार्टर में रहते हैं। मुझे तो देखकर आश्चर्य होता है कैसे साँस लेते होंगे वे।”

    केएनटी को संत कुमार का यह प्रलाप अच्छा नहीं लगा। अब तक केएनटी उन पर चढ़े रहते थे। आज संत कुमार उन पर चढ़ बैठे थे। केएनटी झुँझलाकर बोले, नौकरी तो नौकरी है यार। रेलवे क्लर्की भी अब मामूली बात नहीं रह गई है।”

    संत कुमार ने पैंतरा बदला, “वो तो ठीक है यार। लेकिन क्या घूस देना अच्छी बात है। तुम तो इन सब चीज़ों के विरोधी रहे हो। ज़रा सोचो, तुम घूस देकर नौकरी प्राप्त करोगे। फिर तुम ख़ुद भी घूस लोगे। अगर हर आदमी ऐसा ही करने लगे। तो देश का क्या होगा।

    केएनटी को जैसे झटका लगा। यह चूतिया तो देश की बात करने लगा। जिस आदमी ने उन्हीं की कॉपी से नक़ल मारकर परीक्षाएँ पास कीं, डोनेशन देकर इंजीनियर बना और पैरवी से नौकरी हासिल की, वही उन्हें आदर्श पिला रहा है। वाह।

    केएनटी ने ज़ोर से कहा, “पैसा देना है कि नहीं?

    तुम तो रंगबाज़ी पर उतर आए। ऐसा लग रहा है जैसे मैंने तुम्हारा क़र्ज़ा खाया है।”

    “मैं भी तुमसे क़र्ज़ा ही माँग रहा हूँ, भीख नहीं, समझे।”

    ''हमारे पास पइसा फलता है क्या, जो अचानक आए और साठ हज़ार का फ़रमाइश कर दिए।”

    “ठीक है यार, नहीं दो। लेकिन भाषण मत झाड़ो।”

    केएनटी ने यह कहा और तैयार होने लगे। संत कुमार थोड़ा शांत हुए। बोले, ''अरे यार, तुम तो नाराज़ हो गए एकदम, हमारी भी तो मजबूरी समझो।” केएनटी ने कुछ नहीं कहा और ब्रीफ़केस उठा कर चल पड़े। संत कुमार ने अपनी पत्नी से कहा, “ये तो नाराज़ होकर जा रहे हैं।”

    अंदर से पत्नी की आवाज़ आई, “जाने दीजिए न। हम लोग तो बुलाए नहीं थे।

    केएनटी जब बाहर निकले तो उनकी नज़र संत कुमार की कार पर पड़ी। उनके अंदर हूक-सी उठी। उन्हें कुछ पुराने दिन याद आए फिर आँखों में आँसू भर आए। उन्होंने हाथ हिला कर विदा कहा, संत कुमार को नहीं, उनकी कार को।

    वे बड़े अजीब दिन थे। बार-बार हताशा की गर्त में गिर जाते केएनटी। एक नौकरी हाथ में आते-आते रह गई थी। अपने आप पर कई बार शर्म आती उन्हें। उन्होंने घर से बाहर निकलना तक छोड़ दिया। वे घर में बैठ कर लगातार मनन करते रहते।

    काफ़ी सोच-विचार कर आख़िरकार उन्होंने दिल्ली आने का निश्चय किया। बाबू हरदयाल तिवारी इसमें भी अड़ंगा लगा रहे थे। लेकिन केएनटी टस से मस नहीं हुए। उन्होंने साफ़ ऐलान किया—अब जीना या मरना है दिल्ली में ही। उन्होंने तय कर लिया था कि प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करेंगे। बाबू हरदयाल तिवारी ने हिसाब लगाया कि कम से कम तीन महीने तो उनके बेटे को जूते घिसने ही पड़ेंगे, तब जाकर शायद नौकरी मिल पाए। उन्होंने दो हज़ार प्रतिमाह के हिसाब से छह हज़ार रुपए नक़द केएनटी को दिए। इसके अलावा तीन महीने का साबुन, दूध पेस्ट, शेविंग क्रीम, ब्लेड,सत्तू, चिवड़ा, गुड़ इत्यादि लादकर केएनटी दिल्ली पहुँचे।

    दिल्ली के मुखर्जी नगर में उनके कॉलेज के कुछ जूनियर लड़के रहते थे। उन्हें केएनटी ने पढ़ाया था। नोट्स दिए थे। वे सब केएनटी का सम्मान करते थे। उन्हीं के साथ केएनटी कमरा शेयर करने लगे। उन्हीं में से एक था मनोज। वह अपने प्रिय ‘कमल भइया' के लिए नौकरी तलाश करने लगा। सबसे पहले एक रिसर्च ग्रुप में काम मिला—पचास रुपए प्रतिदिन के हिसाब से। दिल्ली के कुछ रिहायशी इलाक़ों में घूम-घूम कर सर्वे करना था कि कौन-सा साबुन सबसे ज़्यादा पॉपुलर है।

    अपने काम के पहले ही दिन बीमार पड़ गए केएनटी। दिन भर धूप में भटकने का यह उनका पहला अनुभव था। वैसे भी वे सुकुमार आदमी थे। मेहनत करने की आदत थी उन्हें, कोई भारी सामान उठाते तो थर-थर काँपने लगते।

    केएनटी को एक सौ चार बुख़ार में तपते देख मनोज बोला, “भइया, काम आपके बस का नहीं है।”

    केएनटी फिर हताश हो गए। लगा, जीवन में कुछ नहीं हो सकता उनसे। ऐसा जीवन जीने से क्या लाभ। लेकिन मनोज ने ही फिर रास्ता सुझाया, “भइया आप लिखने-पढ़ने वाले आदमी हैं। क्यों नहीं अख़बार में लिखते हैं?

    केएनटी को यह बात जँच गई। उन्होंने मनोज को भेजकर ढेर सारी पत्रिकाएँ मँगवाई। सोचा कुछ इधर-उधर से मारकर लेख लिखेंगे। तभी उनकी नज़र एक विज्ञापन पर पड़ी—उप संपादक चाहिए।

    वह पहुँचे राष्ट्रीय दैनिक के दफ़्तर। उस दिन पहली बार वह मिले चिंतामणि से। उन्हें उस समय इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं था कि यह आदमी जो सामने बैठा है, उनकी ज़िंदगी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है।

    आप पत्रकारिता में क्यों आना चाहते हैं।” चिंतामणि ने पूछा।

    “मुझे नौकरी चाहिए।” केएनटी ने कहा।

    ''यानी आपकी पत्रकारिता में रुचि नहीं है।”

    “रुचि तो मेरी इस ज़िंदगी में भी नहीं है। लेकिन क्या करूँ, जीना तो है ही।”

    चिंतामणि मुस्कराए और बोले, “आपने अब तक कुछ लिखा है?

    “लिखने के नाम पर बस दो कविताएँ लिखी हैं। केएनटी ने कहा।

    चिंतामणि ने कविता सुनाने को कहा। केएनटी ने कविताएँ सुनाईं। चिंतामणि प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने पूछा, “आप अनुवाद कर सकते हैं?”

    “आज तक किया तो नहीं पर कोशिश कर सकता हूँ।

    उन्हें तत्काल चिंतामणि ने एक अँग्रेज़ी अख़बार से एक पैराग्राफ़ अनुवाद करने को दिया। केएनटी ने अनुवाद में ज़्यादा वक़्त नहीं लिया। चिंतामणि ने उनका अनुवाद देखा और बोले, “आपको ट्रायल पर रख सकते हैं। अगर आपका काम जँचा तो हम आपको रख लेंगे नहीं तो जितने दिन आप ट्रायल में रहेंगे उसका पैसा दे देंगे।

    केएनटी ने सोचा भी नहीं था कि सिर्फ़ अनुवाद करने से अख़बार में नौकरी मिल जाएगी। उन्हें यह भी समझ में नहीं रहा था कि चिंतामणि उन पर इतने कृपालु क्यों हैं? उन्होंने सिर्फ़ नौकरी दी बल्कि बड़े कम समय में दो-दो प्रोन्नति दी जो इस अख़बार के लिए एक बड़ी घटना थी और एक दिन इसी चिंतामणि ने केएनटी के वर्षों पुराने दबे-कुचले स्वप्न को तहख़ाने से निकालकर सामने ला खड़ा किया। वे उस दिन मज़ाक के मूड में थे। बोले, “तुम अब कार ख़रीद लो।”

    “कार!” केएनटी को मुँह खुला का खुला रह गया।

    “हाँ, हाँ इसमें इतना चौंकने की क्या बात है?

    “क्या मैं कार अफोर्ड कर सकता हूँ सर?”

    बिल्कुल कर सकते हो। पहले डिसाइड तो करो कि तुम्हें कार ख़रीदनी है।” चिंतामणि ने उन्हें कार ख़रीदने के दो तीन रास्ते बताए। पहला तो यह कि वह क़िस्त पर ख़रीदें और पाँच साल तक क़िस्त भरते रहें या फिर सेकेंड हैंड कार ख़रीद लें। इसके लिए कुछ पैसे तो वह पीएफ़ से निकाल सकते हैं, बाक़ी का इंतज़ाम ख़ुद कर लें।

    “लेकिन सर, पेट्रोल का ख़र्चा कहाँ से आएगा। वेतन से कुछ बचता ही कहाँ है।

    “वो भी मिल जाएगा।”

    लेकिन कहाँ से?”

    “मैं दिलवा दूँगा। कंपनी देगी तुम्हें। फ़ीचर के लिए लेखकों से सीधे संपर्क करने का काम अब तुम्हीं करोगे। इस काम पर तुम्हें उतना कन्वेंस दिया जा सकता है जो एक रिपोर्टर को मिलता है।

    केएनटी को दूसरा विकल्प पसंद आया। रात में जब उन्होंने पत्नी को अपनी योजना बताई तो वह असमंजस में पड़ गई। बोली, “हमें तो मकान की ज़रूरत ज़्यादा है। तीन-तीन हज़ार किराया देना अखर जाता है।

    ''यही टिपिकल बिहारी मेंटलिटी है। घुड़के केएनटी। फिर उन्होंने कार के पक्ष में एक-एक करके कई तर्क प्रस्तुत किए फिर उसे सपने दिखाने लगे, “ज़रा सोचो, कितना मज़ा आएगा। अपनी सोसाइटी के और लोगों की तरह हम भी रात में चलेंगे इंडिया गेट। वहाँ आइसक्रीम खाएँगे। बच्चे कितने ख़ुश होंगे। अभी वे दूसरे बच्चों को देख-देखकर ललचाते होंगे। छुट्टी के दिन हम लांग ड्राइव पर निकल जाएँगे, सूरजकुंड चलेंगे।”

    पत्नी धीरे-धीरे उनके पक्ष में आने लगी। असल में पत्नी को पटाना ज़रूरी था क्योंकि उनके नाम से केएनटी के ससुर ने इंदिरा विकास पत्र ख़रीदा था, जो अब मेच्योर होने वाला था। तीस हज़ार तक मिलने की उम्मीद थी। दहेज के नाम पर उन्हें यही मिला था। केएनटी ने मर्म पर चोट की, “अब देखो जी, मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि हम लोग बस के धक्के खाएँ, इसी कारण हम लोग कहीं घूमने नहीं जा पाते। बस में जब लोग तुम्हें घूर-घूर कर देखने लगते हैं तो मुझे अच्छा नहीं लगता। बच्चे भी कितने परेशान होते हैं।

    “तो स्कूटर ख़रीद लो न।” पत्नी ने कहा।

    “कैसी बात करती हो। आदमी ऊपर जाने के बारे में सोचता है। तुम नीचे ले जाना चाहती हो।“

    “ठीक है, जैसा तुम सोचो। हमारे पास कार हो, ये मुझे क्यों बुरा लगेगा। मैं तो सिर्फ़ पैसे को लेकर सोच रही थी।

    “वह सब हो जाएगा। डोंट वरी।

    केएनटी हिसाब जोड़ने लगे। पचास हज़ार पीएफ से निकल आएगे, तीस हज़ार इंदिरा विकास पत्र से गए तो हुए अस्सी हज़ार। पिछले दिनों वह लाजपत नगर के सेकेंड हैंड कार बाज़ार में गए थे तो एक लाख में बड़ी अच्छी कंडीशन वाली कार मिल रही थी। उसे देखकर कोई कह भी नहीं सकता कि वह सेकेंड हैंड होगी। लेकिन उनके लिए बीस हज़ार और चाहिए। बीस हज़ार कहाँ से आएगे? पिताजी से माँगा जाए? वे चाहें तो दे ही सकते हैं। पर कार ख़रीदने के लिए क़तई नहीं देंगे। जिस आदमी ने ज़िंदगी में साइकिल तक नहीं चलाई, वह कार ख़रीदने के लिए क्यों पैसे देगा। हाँ, किसी बहाने से पैसा माँगा जा सकता है। बाद में कह देंगे कि दफ़्तर से कार मिली है। अगर नहीं तो पत्नी का गहना भी बेचा जा सकता है। अगर यह भी नहीं हो पाया तो अस्सी हज़ार हैं ही, थोड़ी ख़राब कंडीशन की कार ली जा सकती है।

    आख़िरकार केएनटी का वर्षों पुराना स्वप्न साकार हुआ। उन्हें लगा कि अब जाकर जीवन की गाड़ी पटरी पर आई है। उनके जी में आया कि संत कुमार के पास जाएँ और कहें, “अबे साले! अब मेरे पास भी कार है। जा, चल अब मैं तुम्हें घुमाता हूँ।”

    फिर उन्हें लगा कि वह एक उभरते हुए राष्ट्रीय दैनिक के वरिष्ठ पत्रकार हैं। संत कुमार जैसे मामूली आदमी पर दिमाग़ खपाना बेकार है। कार ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। एक नया आत्मविश्वास भर दिया उनके भीतर। अब एक नए केएनटी का जन्म हो रहा था।

    वह केएनटी अब डर-डर कर नहीं जीता था। उन्हें लगता था कि दिल्ली के एक नए समाज में उन्होंने जगह बना ली है। उनका भी एक स्टेटस है, उनकी भी पहचान है।

    उन्होंने कार पर मोटे मोटे अक्षरों में ‘प्रेस' लिखवाया था। शाम को जब वह लौटते तो परिवार को लेकर इंडिया गेट जाते और वहाँ आइसक्रीम खाते। अब वह हर तरह का निमंत्रण स्वीकार करते। शादी-ब्याह में ज़रूर जाते और वहाँ भी किसी किसी बहाने कार की चर्चा छेड़ देते। ख़ासकर उन लोगों के सामने जो ‘कारवाले' नहीं थे। वह अक्सर यह बताने लगते कि सेकेंड हैंड कार ख़रीदने के कितने फ़ायदे हैं और नई कार में पैसा फँसाना तो बेवकूफ़ी है।

    अपनी पत्नी से भी वह कार की ही चर्चा करते थे। गहरे आत्मीय क्षणों में भी कार हावी रहती। वह पत्नी को छेड़ते, “तुम तो कार की तरह नख़रा करती हो। जल्दी स्टार्ट ही नहीं हो रही हो।”

    दफ़्तर पहुँचते ही उनका कार-प्रसंग शुरू हो जाता। वह कहते, “देखिए, हमारा फ़ीचर पेज कितना अच्छा निकल रहा है। अगर मेरे पास कार होती तो यह पेज इतना अच्छा कभी नहीं निकलता। मेरे पास कार है, तभी तो मैं अच्छे-अच्छे लेख ला रहा हूँ।”

    हालाँकि सच्चाई यह थी कि वह सप्ताह में एकाध बार उन्हीं लेखकों से रचनाएँ लाते जो उनकी सोसाइटी या पास की कॉलोनी में रहते थे। एक दिन उन्होंने कहा, “मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ कि मेरे पास कार नहीं होती तो मैं कैसे ज़िंदा रहता।”

    कार की चर्चा करते हुए उन्हें अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती थी। उन्होंने ग़ौर किया था कि जबसे उन्होंने कार ख़रीदी है, तब से उनके साथ काम करने वाली तनुजा कुछ ज़्यादा ही सज-सँवर कर आने लगी है और उनसे बात करते हुए शरमाने लगी है।

    यह सब उन्होंने हासिल किया था चिंतामणि की कृपा से। उनके गॉडफादर थे चिंतामणि। पर आज केएनटी अपने गॉडफादर से नज़रें चुरा रहे हैं।

    उन्हें मिलना चाहिए चिंतामणि से। उनके घर जाना चाहिए, उन्हें दिलासा देना चाहिए पर केएनटी को एक अजीब झिझक-सी महसूस हो रही थी। इस संस्थान में अतीत की जितनी कथाएँ उन्होंने सुनी थीं, उन सबका निष्कर्ष यही था कि डूबते हुए सूरज और जाते हुए संपादक का मोह ठीक नहीं। पिछले पाँच वर्षों में इस संस्थान में नौकरी करते हुए केएनटी ने प्रैक्टिकल बनना सीख लिया था।

    दूसरे दिन जब केएनटी दफ़्तर पहुँचे तो पता चला कि नया संपादक चुका है। उसका नाम था संजीव भटनागर। उसकी उम्र चालीस के आस-पास थी, यानी वह केएनटी का हमउम्र था। गोरे रंग का क्लीन शेव्ड, नाटा और थुलथुल आदमी था वह। लाल रंग का टीका लगाता था। देखने में वह किसी पंडे जैसा लगता था। उसकी पहुँच प्रधानमंत्री कार्यालय तक थी और उसी ने भटनागर की नियुक्ति यहाँ कराई थी। चर्चा तो यहाँ तक थी कि भटनागर दो महीने पहले चिंतामणि से नौकरी माँगने आया था, पर चिंतामणि ने उसका मज़ाक उड़ाकर उसे भगा दिया था। अब बाज़ी पलट गई थी।

    संजीव भटनागर की हर बात से लगता था कि वह चिंतामणि से नफ़रत करता है। उसने आते ही संपादकीय के कुछ लोगों को बुलाकर बात की। उसने कहा कि कवियों और कम्युनिस्टों ने हिंदी पत्रकारिता का नाश कर दिया। शायद चिंतामणि उसके लिए सभी कवियों और कम्युनिस्टों के प्रतिनिधि थे। उसने कहा कि अख़बार घाटे में है और इस घाटे से उबरने के लिए वह अनाप-शनाप ख़र्च कम करेगा। उसने संकेत किया कि कुछ कर्मचारियों को बाहर का रास्ता भी दिखाया जा सकता है।

    अगले दिन एकाउंट सेक्शन से केएनटी को फ़ोन करके बताया गया कि संस्थान अब उनके टेलीफ़ोन और पेट्रोल का ख़र्च नहीं उठा सकता। केएनटी का तो जैसे सारा ख़ून ही सूख गया। वह अपनी डेस्क से उठे और संपादक के चेंबर तक आए। लेकिन साहस नहीं हुआ, अंदर जाने का।

    चिंतामणि का जमाना होता तो वह बेहिचक दरवाज़ा खोलकर घुस जाते। पर आज साहस नहीं हुआ। केएनटी लौट आए। वह इतना अपसेट हो गए कि उनसे कुछ काम हो नहीं पा रहा था। आख़िरकार उन्होंने अपने जूनियर राकेश को काम समझाया और तबीयत ख़राब होने की बात कहकर निकल पड़े। रास्ते में दो-दो बार टक्कर मारते-मारते बचे। घर पहुँचे तो बच्चे ख़ुशी से चिल्लाने लगे। पर केएनटी का उतरा मुँह देखकर पत्नी को कुछ शक हुआ। उन्होंने पूछा, “क्या बात है। तबीयत ठीक है न?

    तभी उनकी बेटी उनके कंधे पर लटकने की कोशिश करती हुई बोली, ''पापा, अच्छा हुआ आप जल्दी गए। अब हम लोग मैकडोनाल्ड चलेंगे।”

    केएनटी ने खीझकर उसे एक तमाचा जड़ दिया। पत्नी ने उन्हें आश्चर्य से देखा, क्योंकि वह बच्चों को बिलकुल नहीं पीटते थे। वह बेटी को दूसरे कमरे में ले गई। केएनटी कपड़ा बदलकर चुपचाप लेट गए। पत्नी चाय बनाकर ले आई। केएनटी चुपचाप छत की ओर ताकते रहे।

    पत्नी ने टोका, “चाय क्यों नहीं पी रहे? हुआ क्या है आख़िर?

    केएनटी उठे और चाय पीने लगे।

    “सिर में चक्कर गया क्या? पत्नी ने पूछा।

    “हूँ। केएनटी ने अनमने तरीक़े से जवाब दिया।

    ''बात कुछ और भी है ज़रूर।

    केएनटी के हर भाव और मुद्रा को उनकी पत्नी ताड़ लेती थी। अपनी पत्नी से किसी बात को छिपा सकना केएनटी के वश की बात भी नहीं थी।

    जब से चिंतामणि जी गए हैं तुम उखड़े-उखड़े से लग रहे हो। पत्नी ने हँसकर कहा, “उनके ग़म में तबीयत ख़राब होती जा रही है।

    केएनटी सीरियस रहे। कुछ देर बाद उन्होंने कहा, नए संपादक ने तो आते ही अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया।”

    “क्या किया उसने?

    “टेलीफ़ोन और पेट्रोल का बिल रोक दिया उसने।”

    “अच्छा-अच्छा।” पत्नी ने सिर हिला दिया। केएनटी को शक हुआ कि पत्नी ने शायद बात समझी नहीं। वह ज़ोर से बोले, “मेरा टेलीफ़ोन और पेट्रोल का बिल रोक दिया उसने।

    “क्या?” इस बार बात समझ गई पत्नी।

    वह चिंतित होकर बोली, “अब क्या होगा?”

    “पता नहीं।“

    “लेकिन ऐसा क्यों किया उसने?”

    दुश्मनी निकाल रहा है।”

    “कैसी दुश्मनी? तुमसे क्या दुश्मनी है उसकी?”

    ''मुझसे नहीं चिंतामणि जी से। वह मुझे चिंतामणि जी का आदमी समझता है।

    “हो सकता है उसने सबका बिल रोका हो।”

    “नहीं, उलटे विनोद तिवारी को वह रिपोर्टर बना रहा है। उसे मोबाइल दे रहा है।

    पत्नी चुप हो गई। केएनटी भी कुछ बोले। इस घर में कार आने से जो चमक गई थी, वह अचानक फीकी पड़ती हुई नज़र आई। कुछ देर बाद अचानक ही केएनटी उठे और कपड़े बदलने लगे।

    पत्नी ने चौंककर पूछा, “कहाँ जा रहे हो?

    “ऑफ़िस।” केएनटी ने उसकी ओर बग़ैर देखे ही जवाब दिया।

    “ऑफ़िस... लेकिन तुम्हारी तबीयत।

    ''मेरी तबीयत ठीक है।

    “अचानक हुआ क्या। अभी आए, अभी जा रहे हो।

    केएनटी ने टेबल से कार की चाबी उठाई और चल पड़े। उन्होंने अपनी बच्ची को प्यार किया और बोले, “मैं अभी थोड़ी देर में रहा हूँ। फिर मैकडोनाल्ड चलेंगे।

    केएनटी ने एक महत्वपूर्ण फ़ैसला किया था। वह उस पर तत्काल अमल करना चाहते थे।

    उन्होंने तय किया था कि वह संपादक से मिलेंगे और बात करेंगे। आख़िर विनोद तिवारी उसे सेट कर सकता है तो वह क्यों नहीं कर सकते। यह सेटिंग का चक्कर उन्हें आज तक समझ में नहीं आया। इस संस्थान में इस तरह के अनेक क़िस्से प्रचलित थे। कई लोगों के बारे में ऐसा कहा जाता था कि वह रातोंरात निष्ठा बदल लेते थे। ऐसे लोग हर संपादक के विश्वासपात्र बन जाते थे। लेकिन सफलता का मूल मंत्र क्या था, केएनटी को आज तक समझ में नहीं आया। वह भी चिंतामणि के क़रीबी थे। पर इसके लिए उन्होंने प्रयास नहीं किया था। वह तो महज़ एक इत्तेफ़ाक़ था। लेकिन उन्हें भी सफलता का यह मंत्र सीखना होगा। उन्हें भी नए संपादक को सेट करना होगा चाहे इसके लिए जो करना पड़े। आज उनका पेट्रोल और फ़ोन बिल रोक लिया। कल नौकरी पर भी आफ़त सकती है। कुछ भी हो सकता है। अगर सफल होना है तो यह सब करना ही होगा। यहाँ सफल लोगों की ही क़द्र है। कोई यह नहीं देखता कि सफलता मिली कैसे है। कोई यह नहीं पूछता कि सफल आदमी मल से भरे रास्ते से आया है या काँच के टुकड़ों पर चलकर।

    केएनटी ने बहुत जल्दी में कार पार्क की और संपादकीय विभाग में पहुँचे। वह संपादक के केबिन के सामने आकर थोड़ा ठिठके। फिर साहस करके दरवाज़े को धकेला। अंदर संजीव भटनागर वाकमैन सुनता नज़र आया। उसका सिर धीरे-धीरे हिल रहा था। उसने केएनटी को देखते ही सिर हिलाना बंद किया, फिर हाथ से इशारा किया कि केएनटी बाहर बैठे।

    केएनटी के लिए यह पहला अनुभव था। उनके जैसे वरिष्ठ को कोई संपादक बाहर बैठा देगा, यह उनकी कल्पना से परे था। लेकिन आज उन्होंने तय कर लिया था कि संजीव भटनागर नामक इस जीव से डायलॉग बनाकर रहेंगे।

    वह चुपचाप संपादक की केबिन के बाहर के सोफ़े पर आगंतुक की तरह इंतज़ार करने लगे। संपादकीय के लोग उन्हें आश्चर्य से देख रहे थे। कुछ कानाफूसी कर रहे थे। थोड़ी ही देर बाद चपरासी ने आकर कहा, “जाइए, आपको सर बुला रहे हैं।

    केएनटी सहमे हुए अंदर घुसे। संजीव भटनागर ने बैठने का इशारा किया। केएनटी की नज़र उसकी उँगलियों पर पड़ी। उन्होंने देखा कि भटनागर ने लाल और नीले रंग की अँगूठियाँ पहन रखी थीं। केएनटी ने उसकी शर्ट के नीचे ग़ौर किया। वहाँ उसने रुद्राक्ष की माला पहन रखी थी।

    केएनटी सोच ही रहे थे कि कुछ बोलें, तब तक भटनागर ने पूछा, “आप ही फ़ीचर देखते हैं?

    “हाँ। केएनटी थोड़ा लड़खड़ाए फिर सामान्य होने की कोशिश की।

    “क्या निकाल रहे हैं आप लोग, एकदम कूड़ा।

    केएनटी को इस तरह की टिप्पणी की ज़रा भी आशा नहीं थी। भटनागर बोले जा रहा था, कौन पढ़ेगा इस तरह के फ़ीचर। लग रहा है कि जैसे मध्यकाल का पन्ना है। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई। कंप्यूटर युग में हैं हम लोग। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया हम पर चढ़ा जा रहा है। भाषा कैसी छप रही है हमारे यहाँ, कठिन से कठिन साहित्यिक शब्द। रीडर के भेजे में अँटेगा ही नहीं कुछ। इन साहित्यकारों ने नाश कर दिया है पत्रकारिता का।” यह कहकर वह पानी पीने लगा।

    केएनटी ने अपने को काफ़ी नियंत्रित करके कहा, “सर अब आप गए हैं तो जैसा गाइड करेंगे वैसा हम लोग करेंगे।”

    पानी पीकर डकार लेने के बाद भटनागर ने कहा, “फ़िल्म पर सामग्री बढ़ाइए। बड़े-बड़े सेक्सी फ़ोटो छापिए। रीडर यही सब पसंद करता है। साहित्य बंद कीजिए। कौन पढ़ेगा साहित्य आजकल। तुलसीदास का ज़माना नहीं है अब।

    केएनटी को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था, पर वह लगातार मुस्कुराने की कोशिश में लगे रहे।

    भटनागर का प्रवचन जारी था, “बुड्ढे ने तो अख़बार का सत्यानाश कर दिया। विज्ञापन मिलने बंद हो गए। अगर हम लोगों ने कुछ नहीं किया तो मालिक अख़बार बंद कर देगा। यह याद रखिए कि जो लोग मुझे फ़ॉलो नहीं करेंगे, उन्हें बदला भी जा सकता है।

    केएनटी उसका इशारा समझ गए थे। लेकिन वह जल्दी से अपने असली मुद्दे पर जाना चाहते थे, “सर, मेरा टेलीफ़ोन और पेट्रोल बिल...।”

    “हाँ-हाँ, अब फ़िज़ूलख़र्ची बिल्कुल बंद करनी है।”

    “लेकिन सर, मैं तो लेखकों से संपर्क...।”

    ''मत कीजिए संपर्क। इंटरनेट से लेख डाउनलोड कीजिए और उनका अनुवाद छापिए।”

    अब इसके बाद कुछ कहने के लिए बचा ही नहीं था। लेकिन केएनटी ने धैर्य नहीं छोड़ा। बोले, “सर, आपकी गाइडेंस चाहिए।”

    ''हाँ-हाँ, ठीक है। मैं फ़ीचर पेज को लेकर जल्दी ही मीटिंग करूँगा, ओ.के.।”

    केएनटी को जाने का इशारा मिल गया। वह निकल गए। बड़े भारी क़दमों से वह सीढ़ियों से उतरे। रात में उन्होंने डरावना सपना देखा। देखा कि उनकी सोसाइटी में एक नक़ाबपोश रहा है। धीरे-धीरे चलता हुआ वह उनकी कार तक आया और उसे एक हाथ में उठा लिया।

    केएनटी चीखे, “ऐ क्या कर रहे तुम!

    नक़ाबपोश ने ठहाका लगाया और बोला, “साले, कार चलाओगे। औक़ात है चलाने की। बड़े आए कार वाले।”

    अचानक कार छोटी होते-होते खिलौने की तरह हो गई। नक़ाबपोश ने उसे अपनी जेब में रख लिया और आकाश की ओर उठने लगा। केएनटी उसके पीछे लपके और चिल्लाने लगे, “चोर-चोर।”

    तभी उनकी नींद खुल गई। उनकी पत्नी भी हड़बड़ाकर उठ गई।

    केएनटी ने खिड़की से झाँका। उनका मकान पहली मंज़िल पर था। वह अपनी कार ठीक सामने खड़ी करते थे। उन्होंने देखा कि उनकी कार से अड़कर चौकीदार खड़ा है। उन्हें पता नहीं क्या सूझा, वह नीचे आए। उन्होंने चौकीदार से डपटकर कहा, “ये गाड़ी से अलग हटो, टूट जाएगी।”

    “क्या बात करते हो साब। मेरे सट जाने से गाड़ी टूट जाएगी।” चौकीदार ने हँसते हुए कहा।

    केएनटी चुपचाप ऊपर चले आए। पत्नी पता नहीं क्या-क्या बड़बड़ा रही थी। उनके आते फिर सो गई।

    उन्हें नींद नहीं रही थी। बार-बार करवट बदल रहे थे। रह-रहकर संजीव भटनागर का चेहरा सामने घूम रहा था। उसने खलनायक की तरह उनकी ज़िंदगी में प्रवेश किया था।

    यह अब तय हो गया था कि अगले महीने से केएनटी की कार का चल पाना काफ़ी मुश्किल है। उन्हें दो हज़ार का नुकसान होने वाला था और उनके बजट में पेट्रोल के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची थी। किसी से अब क़र्ज़ लेना संभव नहीं था। वह अपने रिश्तेदारों और कुछ क़रीबी मित्रों से पहले ही काफ़ी क़र्ज़ ले चुके थे।

    जब तक वह अतिरिक्त दो हज़ार नहीं कमा लेते, तब तक पेट्रोल की व्यवस्था संभव नहीं थी। दो हज़ार रुपए की व्यवस्था कहाँ से की जाए? अगर पत्नी के नाम से अन्य अख़बारों में लेख लिखे जाएँ तो भी इतने पैसे नहीं आएँगे। पेमेंट मिलेगा भी तीन महीने बाद। तब तक क्या किया जाए? फिर लिखने-पढ़ने का काम केएनटी के लिए आसान नहीं था। रात में लिखने बैठते तो थक जाते, लिख नहीं पाते। सुबह बच्चे देह पर लद जाते। बेटी क़लम छीन लेती तो बेटा काग़ज़। उनकी धमाचौकड़ी में कुछ नहीं हो पाता था। एक बार वह अनुवाद का काम लाए पर एक पेज से ज़्यादा नहीं कर पाए।

    वैसे लिखने का उनका स्वभाव था भी नहीं। उन्होंने विद्यार्थी जीवन में दो कविताएँ लिखी थीं। उसी के बल पर वह पत्रकार बन गए। अख़बार में आने के बाद उन्होंने किसी तरह अँग्रेजी अख़बारों से मार कर दो तीन-लेख लिखे थे। इसलिए लिख कर कमाना केएनटी के लिए संभव नहीं था। अगर पत्नी की नौकरी लगवा दी जाए तो बात बन सकती है, पर केएनटी इसको लेकर आश्वस्त नहीं थे क्योंकि उसकी पत्नी महीने में बीस दिन बीमार ही रहती थी। उस दौरान दिन का खाना केएनटी को बनाना पड़ता था, जबकि रात का खाना वह ऑफिस की कैंटीन से लाते थे।

    कुल मिलाकर उपाय यही था कि कुछ दिन गाड़ी चलाई जाए और संपादक को सेट करने का अभियान जारी रखा जाए। अगर वह अभियान सफल हो गया तो एक क्या दो-दो गाड़ियाँ चलने लगेंगी। इस निष्कर्ष पर पहुँचते ही केएनटी की आँख लग गई। उधर सवेरा हो रहा था।

    केएनटी ने भारी मन से यह निर्णय किया कि वह कार से दफ़्तर नहीं जाएँगे। उन्होंने इस बात पर काफ़ी मंथन किया कि लोगों के सामने सफ़ाई कैसे दी जाए।

    उन्होंने तय किया कि कार प्रकरण पर कम से कम बोलेंगे। कोई पूछेगा तो कहेंगे उनका छोटा भाई आया हुआ है। उसे उन्होंने कार दे रखी है। आख़िर छोटा भाई है। पहली बार दिल्ली आया है, बस में थोड़े ही घूमेगा। हाँ, यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने भाई के लिए ड्राइवर ले रखा है। इससे तो भाव और भी बढ़ जाएगा। साले और जलेंगे सब। लेकिन यह बहाना कितने दिन चलेगा। भाई आख़िर कब तक रहेगा? ठीक है, उसके बाद कह दिया जाएगा कि गाड़ी ख़राब है, सर्विसिंग में गई हुई है। कुछ दिन इससे काम चलेगा। फिर यह कह दिया जाएगा कि जीजा जी आए हुए हैं। हालाँकि उसके बाद यह भी कहा जा सकता है कि श्रीमती जी कार सीख रही हैं। वह गाड़ी छोड़ती ही नहीं। इन बहानों से एक दो महीने तो काटे ही जा सकते हैं।

    उस दिन जब केएनटी बस स्टॉप के लिए चले तो उनसे चला ही नहीं जा रहा था। लग रहा था जैसे पैरों से कोई भारी चीज़ बाँधकर लटका दी गई हो। ऊपर से तेज़ धूप। पसीने से तरबतर हो गए वह। पसीने की एक बूंद 'टप' से उनकी आँख में घुस गई। लगा जैसे आँख में किसी ने नमक छिड़क दिया हो। उन्होंने आँख मूँद ली और बीच सड़क पर रुक गए। तभी एक कार ज़ोर से हॉर्न बजाती हुई बग़ल से गुज़री।

    केएनटी ने आँख खोली। कोई लड़का कार चला रहा था। उसने घूरकर केएनटी को देखा। केएनटी चिल्लाए, “अबे घूरता क्या है? मेरे पास भी कार है। ऐसा वैसा मत समझो मुझे।

    जब केएनटी बस में चढ़े तो उन्हें एक क्षण के लिए लगा कि लुच्चे-लफंगों के बीच चले आए हैं। बस में भीड़ थी और बीच में खड़े हुए वह अपना संतुलन नहीं बना पा रहे थे। कोई उनसे सटता तो उन्हें अजीब लगता। वह रुआँसे होते चले जा रहे थे।

    दफ़्तर में मुख्य गेट से घुसने का वह साहस ही नहीं जुटा पाए जैसे उनसे कोई अपराध हो गया हो। कल तक वह कार से आते थे और गेट खोलने में दरबान ज़रा भी देर करता तो फट पड़ते पर आज वह पिछले गेट से घुसे, दबे पाँव बिल्ली की तरह। वह इधर-उधर देख रहे थे। कहीं संपादकीय का कोई आदमी देख तो नहीं रहा।

    अगले ही दिन केएनटी एक ज्योतिषी के पास गए। ज्योतिषी ने कहा कि केएनटी पर इन दिनों शनि की ढैया चल रही है अर्थात शनि कुछ भी उत्पात कर सकता है। उसने सलाह दी कि केएनटी सुबह-सुबह स्नान कर पीपल में जल चढ़ाएँ और काले चने का दान करें। संभव हो तो वे महामृत्युंजय का भी जाप कर लें।

    केएनटी इन सब चीजों के विरुद्ध थे। अपने घर में नियमित होने वाली सत्यनारायण भगवान की कथा पर हमेशा मुँह बिचकाकर वह बाबू हरदयाल तिवारी से ‘कुलनाशी' की उपाधि पाते रहते थे। अपने मित्रों के बीच धार्मिक कर्मकांड और ज्योतिष शास्त्र का विरोध कर वह अपनी एक ‘प्रोग्रेसिव' छवि बना चुके थे। चिंतामणि के साथ चर्चा में भी वह इन सब चीजों को ख़ूब गरियाया करते। पर यह कार जो कराए।

    केएनटी की दिनचर्या काफ़ी बदल गई थी। वह काफ़ी जल्दी उठ जाते और स्नान करते। फिर एक ग्लास में पानी लेकर अपनी सोसाइटी से थोड़ी दूर पर एक पीपल के पेड़ में पानी डाल आते। वहाँ महिलाएँ और लड़कियाँ जल चढ़ाने आती थीं। इस तरह सुबह-सुबह जो नेत्र सुख मिलता था, उससे गदगद हो जाते थे। हालाँकि शुरू में उन्हें मिनी स्कर्ट पहनने वाली, फू फां अँग्रेजी में बोलने वाली लड़कियों का पीपल पर जल चढ़ाना थोड़ा अजीब ज़रूर लगा था।

    जल चढ़ाकर आने के बाद केएनटी अपने वस्त्र बदलते। कुर्ता-पायजामा उतारकर फिर शार्ट्स में नज़र आते। एक बाल्टी में वाशिंग पाउडर घोलकर बाहर आते और एक कपड़ा भिगोकर अपनी कार को बड़े मनोयोग से साफ़ करते रहते जैसे किसी लंबी यात्रा की तैयारी हो रही हो। इस बीच उनकी पत्नी अपनी बेटी को प्ले स्कूल छोड़कर चुकी होती। केएनटी अपने बेटे को पीठ पर बिठाए, हाथ में नाश्ते की प्लेट लिए और अख़बार दबाए कार में बैठते। बच्चा कार में खेलता रहता। केएनटी अख़बार पढ़ते और जब थक जाते तो स्टीयरिंग पर हाथ रखे कुछ सोचने लगते। कई बार तो पत्नी भी आकर कार में ही बैठ जाती। रात में खाना खाकर केएनटी कुछ घंटे कार में ही बिताते। कार अब उनकी बैठक का काम कर रही थी। धीरे-धीरे उनके पड़ोसी इस चीज़ को ग़ौर करने लगे थे। एक दिन ग्राउंड फ्लोर पर रहने वाले तनेजा ने टोक ही दिया, “क्या कमल जी, आजकल गाड़ी से ऑफ़िस नहीं जाते हो क्या?” नहीं आजकल तो ऑफ़िस की गाड़ी से जा रहा हूँ।” यह बहाना बनाकर थोड़ डरे केएनटी। कहीं तनेजा ने उन्हें कभी बस से उतरते देख लिया तो...।

    अगले दिन तनेजा ने जिस समय उनके घर का कॉलबेल बजाया उस वक़्त केएनटी रोज की तरह कार में बैठे थे। उनकी पत्नी ने शरमाते हुए कहा, “वह कार में हैं, रुकिए बुला लाती हूँ।

    तनेजा ने पहले ठहाका लगाया फिर कहा, “मैं वहीं मिल लेता हूँ।

    तनेजा ने कार के पास पहुँचकर देखा कि केएनटी बाक़ायदा स्टीयरिंग घुमा रहे हैं जैसे एक व्यस्त सड़क पर ड्राइव कर रहे हों, आँखें चौकन्नी हैं और चेहरे पर तनाव। तनेजा ने कार के सामने आकर झुक कर शीशे से झाँका। केएनटी ने खिड़की से सिर हिलाकर कहा, “अरे भाई साहब हटिए।” केएनटी ने इस तरह घबराकर कहा था जैसे कार के धक्के से तनेजा गिरने ही वाला हो। लेकिन अगले ही पल उन्हें होश आया और वह झेंपते हुए बाहर निकले, “भाई साहब, मैं तो मज़ाक कर रहा था।

    “तुम्हारा बचपना अब भी नहीं गया।” तनेजा बोला।

    “आइए न, घर में बैठते हैं।” केएनटी तनेजा से नज़र नहीं मिला पा रहे थे।

    “नहीं, मुझे कहीं जाना है। एक बात कहनी थी यार। तुम तो इस कार का यूज़ कर नहीं रहे हो तो क्यों इसे पीछे में पार्क कर दो, टंकी के पास।

    “लेकिन क्यों? यहाँ स्पेस की कोई प्राॅब्लम है नहीं।”

    “असल में मेरी मिसेज भी कार ले रही हैं। कल परसों में जाएगी। तब स्पेस की प्राॅब्लम हो सकती है। तुम पिछवाड़े में खड़ी करो न।”

    वाह! मैं पिछवाड़े में क्यों खड़ी करूँ। वहाँ कोई पार्ट पुर्ज़ा खोल ले जाएगा तो।”

    कैसी बातें कर रहे हो। चौकीदार नहीं है क्या। कई खटारा गाड़ियाँ वहीं खड़ी रहती हैं।”

    “मेरी गाड़ी कोई खटारा गाड़ी नहीं है तनेजा।” इस बार केएनटी उत्तेजित हो गए।

    “खटारा ही तो है। जब गाड़ी चलती ही नहीं तो ख़ामखाँ हमारा स्पेस क्यों खा रहे हो यार। एक तो ऐसे ही सोसाइटी छोटी है और पार्किंग के लिए प्राॅपर स्पेस नहीं है।”

    “इसमें मेरा क्या क़सूर है! मैं तो अपने घर के सामने ही पार्क करूँगा न।”

    “भइया सोच ले मेरा काम तो कहना था। बाद में कोई पंगा हो।” यह कहकर तनेजा अपने घर में घुस गया। उसकी बातों से धमकी की बू रही थी। पर वह उनसे अपनी कार हटाने को कह क्यों रहा है? अगर एक और कार ही जाती है तो क्या उसे यहाँ पार्क नहीं किया जा सकता? कहीं इसके पीछे तनेजा की कोई और मंशा तो नहीं?

    तनेजा शुरू से ही केएनटी को एक संदिग्ध व्यक्ति नज़र आता था। वह एक बड़ा प्रापर्टी डीलर था। लेकिन देखने में वह गैंगस्टर लगता था। लंबा-चौड़ा शरीर, उस पर काला चश्मा। उसके यहाँ विचित्र-विचित्र लोग आते-जाते थे। उसकी पत्नी ब्यूटी पॉर्लर चलाती थी। सोसाइटी के कुछ लोग कहते कि ब्यूटी पॉर्लर की आड़ में वहाँ धंधा होता है, हालाँकि केएनटी को इस बात पर कभी विश्वास नहीं हुआ।

    तनेजा रोज़ शाम को पीकर आता था और अपनी पत्नी से झगड़ा करता था। एक दिन तो उसने सबके सामने ही पत्नी को पीटना शुरू कर दिया। पर थोड़ी देर में यह क्रम उलट गया और उसकी पत्नी ने उसकी जमकर धुनाई कर दी। तनेजा ने आज जो कहा उससे केएनटी के मन में कई तरह की आशंकाएँ पैदा हुईं फिर उन्होंने इस बात को भूलने की कोशिश की।

    उनके सामने सबसे बड़ा एजेंडा था संजीव भटनागर नामक प्राणी को समझना और उसके क़रीब जाना। पर यह एक भगीरथ प्रयत्न साबित हो रहा था। वह पुट्टे पर हाथ रखने ही नहीं दे रहा था।

    केएनटी किसी किसी बहाने उसके पास चले जाते और प्रशंसा शुरू कर देते, सर, आपके आने के बाद अख़बार में गुणात्मक परिवर्तन रहा है।”

    पर इसका कोई असर भटनागर पर नहीं पड़ता। वह बहुत घाघ आदमी था। संपादक के रूप में केएनटी ने सिर्फ़ चिंतामणि को जाना था जो कि तमाम कमज़ोरियों के बावजूद भले इंसान थे। पर अब हिंदी पत्रकारिता अपना रूप बदल रही थी। अब घाघ लोगों का दौर रहा था और इस दौर में भी प्रासंगिक बने रहना चाहते थे केएनटी।

    उन्हें अब यह एहसास होने लगा था कि छोटे-मोटे प्रयासों से काम नहीं चलने वाला है। अब अटैक करना होगा।

    क्यों उसे दारू पिलाई जाए। यह बहाना बनाया जा सकता है कि उन्हें कहीं से मुफ़्त की दारू मिला करती है और चूँकि वह ख़ुद नहीं पीते इसलिए उसे दे रहे हैं। महीने में ढाई तीन सौ रुपए इस पर ख़र्च किए जा सकते हैं।

    क्यों इससे दमदार तरीक़ा सोचा जाए। क्या हो सकता है वह? लड़की... हाँ लड़की। लेकिन कौन? उन्हें याद आया जब वह अपनी ससुराल गए थे, तब उनकी साली दिल्ली आने के लिए ज़िद कर रही थी। उन्होंने ही टाल दिया था। वह स्मार्ट लड़की है। वह उससे अपने अख़बार में नौकरी दिलाने की बात कहेंगे। इसके लिए वह उसे लेकर बार-बार भटनागर के पास जाएँगे। फिर वह उसे अकेले भेजेंगे। नहीं नहीं कुछ ऐसा-वैसा हो गया तो...।

    केएनटी की छाती धक-धक करने लगी। वह क्या से क्या सोचे चले जा रहे हैं। पर ऐसा भी तो हो सकता है कि भटनागर को औरतों में कोई दिलचस्पी हो। कहीं होमोसेक्सुअल हो साला। अचानक एक घुटन का एहसास हुआ उन्हें। जैसे एक अँधेरे बंद कमरे में उन्हें किसी ने अचानक ला पटका हो। उन्हें लगा जैसे उसमें से निकलने के लिए वह हाथ-पैर मार रहे हों।

    आख़िरकार वह उस भँवर से बाहर निकले और एक मध्यमार्गी फ़ॉर्मूले के लिए अपने को तैयार किया। उन्होंने तय किया कि वह उसे रिश्वत का लालच देंगे। वह एक प्रस्ताव रखेंगे कि क्यों एक कॉलम शुरू किया जाए जिसमें उदीयमान व्यापारियों का इंटरव्यू छापा जाए और इसके लिए उनसे पाँच हज़ार रुपए लिए जाएँ। ये सारे पैसे चाहें तो भटनागर जी अपनी जेब में रख लें या टेन परसेंट केएनटी को भी दें। व्यापारियों से डीलिंग केएनटी करेंगे।

    केएनटी को याद आया कि कल ही पड़ोस की एक महिला वैष्णो देवी का प्रसाद दे गई है जो अभी तक रखा हुआ है। वह उसे ही लेकर जाएँगे।

    संजीव भटनागर की नोएडा में एक शानदार कोठी थी। भटनागर इससे पहले एक साधारण रिपोर्टर था। एक रिपोर्टर का इतनी शानदार कोठी में रहना सबके लिए आश्चर्य का विषय था। वैसे कुछ लोग यह कहते थे कि यह उसका पैतृक मकान है।

    रविवार को वह दफ़्तर जल्दी से जल्दी लौट आता था। उस दिन केएनटी की भी छुट्टी रहती थी। इसलिए उन्होंने तय किया कि रात नौ बजे तक उसे पकड़ लिया जाए।

    केएनटी भटनागर की कोठी के सामने पहुँचकर थोड़ा ठिठके फिर साहस कर फाटक खोला और अंदर पहुँचे। दरवाज़ा बंद था। उन्होंने थरथराते हाथों से कॉलबेल बजाया।

    थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला, सामने एक आदमी खड़ा था जो शायद नौकर था। उसने आँखों से ही पूछा, “क्या बात है।”

    “साहब हैं?”

    “आप कौन हैं?” नौकर ने पूछा।

    मैं कमल... कमल नारायण तिवारी। उनके ऑफ़िस से आया हूँ, ज़रूरी काम है।”

    “हूँ...।” नौकर ने अंदर आने का इशारा किया।

    केएनटी अंदर घुसे। नौकर ने उन्हें सोफ़े पर बैठने को कहा। एक भव्य ड्राइंगरूम था यह। उन्होंने सोचा, पता नहीं भटनागर के घर में कौन-कौन रहता है। जिस तरह की शांति थी उससे तो यह लग रहा था कि घर में शायद भटनागर अकेले ही हो।

    केएनटी काफ़ी घबराए हुए थे। इतनी घबराहट तो उस दिन भी नहीं हुई थी, जब वह पहली बार चिंतामणि के पास इंटरव्यू देने गए थे। नौकर अंदर चला गया था। केएनटी की नज़रें दीवार पर दौड़ रही थीं। कुछ देवी-देवताओं के कैलेंडर लगे थे। एक कैलेंडर पर गायत्री मंत्र लिखा हुआ था। केएनटी ने सोचा भटनागर वाक़ई धार्मिक आदमी है। उन्होंने अपनी जेब टटोली। उसमें पुड़िया में वैष्णो देवी का प्रसाद रखा था। इस प्रसाद का भटनागर पर ज़रूर अच्छा असर पड़ेगा। केएनटी ने सोचा अगर भटनागर से सेट हो गया तो वे वैष्णो देवी की यात्रा ज़रूर करेंगे।

    तभी भटनागर प्रकट हुआ मुस्कराता हुआ। इस तरह वह दफ़्तर में कभी नहीं मुस्कुराता था। केएनटी ने झुककर प्रणाम किया। भटनागर कुछ पूछता इससे पहले ही केएनटी शुरू हो गए, “प्रसाद बाँटने निकला हूँ सर। मेरे सास-ससुर वैष्णो देवी गए थे। सोचा शुरुआत आप ही से करूँ।”

    “लाओ, भाई लाओ।” भटनागर ने प्रसाद लिया और फाँक गया। फिर उसने केएनटी को बैठने को कहा और ख़ुद भी बैठ गया। केएनटी की घबराहट काफ़ी कम हो गई। उन्हें लगा यह भटनागर उतना हरामी नहीं है, जितना दफ़्तर में दिखता है। भटनागर ने नौकर को आवाज़ दी, ''शंभु, यहीं ले आओ।”

    नौकर दो प्लेटें ले आया। एक में पकौड़े और दूसरे में सलाद था। सलाद देखकर केएनटी को कुछ शक हुआ। पर वे चुप रहे। उन्हें समझ में नहीं रहा था कि जिस प्रस्ताव को लेकर वह आए हैं, उसे प्रस्तुत कैसे करें। तभी नौकर शराब की बोतल और दो ग्लास लेकर आया।

    “लीजिए कमल बाबू, गंगा जल ग्रहण कीजिए। भई, हम तो अपने मित्रों का स्वागत इसी से करते हैं।” भटनागर ने कहा।

    केएनटी ने आज तक बस एक बार पार्टी में शराब पी थी, उसका स्वाद उन्हें पसंद नहीं आया। उन्होंने तय किया कि अब कभी नहीं पिएँगे, पर आज भटनागर के साथ उन्हें पीना ही पड़ेगा। उन्होंने अपने को सामान्य बनाया और ग्लास उठा लिया। भटनागर के साथ ग्लास टकराते हुए उन्हें गर्व की अनुभूति हुई। फिर उन्होंने जल्दी-जल्दी ही घूँट ले ली।

    भटनागर ने पकौड़ा चबाते हुए कहा, “क्यों कमल, सुना है वह बुड्डा कुछ काम-वाम नहीं करता था।”

    केएनटी को लगा, यही मौक़ा है मत चूको। उन्होंने तुरंत कहा, “हाँ सर, एकदम काम नहीं करता था।

    दिन में भी ऊँघता रहता था।”

    भटनागर ने ठहाका लगाया फिर बोला, मैंने तो सुना है कि वह बहुत बड़ा लौंडियाबाज़ था। उसने एडीटोरियल की एक लड़की को रखैल बना रखा था। कौन है वह, कहीं तुम्हारी डेस्क वाली ही तो नहीं?”

    केएनटी को जैसे करंट लगा। चिंतामणि के बारे में वह इस तरह की बात सोच भी नहीं सकते थे। फिर एडीटोरियल में एक स्वस्थ माहौल था। किसी के बारे में लोग इस तरह से बात नहीं करते थे।

    “बताओ-बताओ, शरमा क्यों रहे हैं?” भटनागर ने उन्हें कुरेदा, “तुम भी उस बुढ़ऊ के साथ मिलकर मस्ती करते थे क्या?”

    केएनटी समझ नहीं पा रहे थे कि इस घटिया और बेहूदा सवाल पर किस तरह से रिएक्ट करें। तभी भटनागर का मोबाइल बजने लगा, केएनटी को राहत मिली। भटनागर ने टेबल पर पड़ा अपना मोबाइल उठाया और बात करने लगा, “हाँ मैडम, अरे किसी दिन आप आइए न, संडे को आइए मैं दिन में ख़ाली रहता हूँ। ...हाँ आपका काम याद है मुझे। अरे कैसा संयोग है। डॉक्टर साहब तो मेरे सामने ही बैठे हैं। रुकिए, मैं बात कराता हूँ।”

    भटनागर केएनटी के कान में फुसफुसाया, “लो बात करो। बस इतना कह दो कि आपका काम हो जाएगा।”

    केएनटी कुछ समझते इससे पहले ही भटनागर ने उन्हें अपना मोबाइल पकड़ा दिया। केएनटी ने धीरे से कहा, हैलो।”

    उधर से एक महिला की आवाज़ आई, “नमस्ते डॉक्टर साहब, मेरी प्रॉब्लम तो आप समझ ही रहे होंगे।”

    केएनटी ने कहा, “आपका काम हो जाएगा। आप चिंता मत कीजिए।”

    भटनागर ने केएनटी से मोबाइल ले लिया और स्विच ऑफ कर दिया। केएनटी को इस तरह झूठ बोलना बड़ा अजीब लगा।

    वह महिला काफ़ी जल्दी-जल्दी बोल रही थी। लगता था वह काफ़ी परेशान है। पता नहीं उसे क्या परेशानी है। कहीं यह भटनागर उसे ब्लैकमेल तो नहीं कर रहा। वह औरत कौन हो सकती है। केएनटी ने भटनागर को देखा, वह चपड़-चपड़ सलाद खा रहा था। उन्हें एक अजीब घिन-सी आई। भटनागर खुले बदन था, उसने सिर्फ़ नीचे पायजामा पहन रखा था। केएनटी को थोड़ी देर के लिए भटनागर का पूरा शरीर एक उजले डस्टबिन में बदलता नज़र आया जिसमें थूका जा सकता था, नाक छिड़की जा सकती थी। लेकिन यही डस्टबिननुमा आदमी उनका भाग्यनियंता था। उसी के हाथ में उनका भविष्य था और अब वह अपनी कृपा का हाथ उनकी ओर बढ़ा रहा था जिसे खोना नहीं चाहते थे केएनटी। उन्हें पता नहीं क्या सूझा वे अचानक हाथ जोड़कर उसके घुटने के पास झुक गए और भावुक होकर कहने लगे, भाई साहब, मेरे बारे में कोई ग़लतफहमी मत पालिए। मुझे आपके आशीर्वाद की सख़्त ज़रूरत है। यह कहते-कहते वह नीचे लुढ़क गए।

    भटनागर ने उन्हें उठाया और उनकी पीठ ठोंकी फिर गले लगाया और कहा, ''तू तो मेरा भाई है रे।”

    केएनटी ने सोचा, यहाँ से निकल लेना चाहिए नहीं तो और पीनी पड़ सकती है, फिर घर जाना मुश्किल हो जाएगा। भटनागर की कोठी से बाहर निकलते ही उनके जी में आया कि दोनों हाथ उठाकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाएँ, हिप-हिप हुर्रे।” उनका मिशन सफल रहा था। हालाँकि अपनी योजना के एक महत्वपूर्ण भाग पर वह अमल ही नहीं कर पाए थे। कॉलम शुरू करने का जो प्रस्ताव लेकर आए थे, उसके बारे में बात करना भूल गए थे।

    लेकिन इससे क्या... यह प्रस्ताव वे बाद में रखेंगे। भटनागर को तो पटा ही लिया उन्होंने। आख़िरकार भटनागर ने अपने घर बैठा कर दारू पिलाई उन्हें, उनकी पीठ ठोंकी और भाई कहा। इसका मतलब साफ़ है। प्रसन्न थे केएनटी। रिक्शा पर बैठे हुए गुनगुना रहे थे। लगता है सुबह-सुबह पीपल पर जल चढ़ाने का असर हो रहा है। लेकिन घर पहुँचते ही उनकी ख़ुशी हवा हो गई। वह जब अपनी सोसाइटी में घुसे तो उन्हें किसी की तेज़ आवाज़ सुनाई पड़ी। उन्हें पहचानते देर नहीं लगी। यह तो तनेजा की आवाज़ है।

    वह जब अपने घर के क़रीब पहुँचे तो देखा कि उनकी पत्नी और बच्चे खड़े हैं। तनेजा ऊँची आवाज़ में उनकी पत्नी से कुछ कह रहा है, पर समझ में नहीं आया केएनटी को। उन्होंने तनेजा के कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “क्या बात है?

    “आ गए तुम।” तनेजा ने पीछे घूमकर कहा, देख रहे हो, यहाँ खड़े होने की जगह भी नहीं बची। मेरी दूसरी कार खड़ी करने के बाद यहाँ बचा ही क्या। अपनी कार यहाँ से हटाओ।

    “क्यों हटाऊँ मैं?”

    “भइया, मैंने पहले ही कहा था कि कार चलानी नहीं है तो हटाओ यहाँ से।”

    “किसने कहा कि नहीं चलानी है। कल से चलाऊँगा मैं।”

    ''तू क्या चलाएगा बे कंगले। लोगों को दिखाने के लिए ख़रीद रखी है, जेब में पेट्रोल के लिए पैसे हैं नहीं...।”

    केएनटी का ख़ून खौल उठा। वह तेज़ी से तनेजा की ओर झपटे और उसका कॉलर पकड़ उसे धक्का दे दिया, वह गिर पड़ा। उनकी पत्नी चीख़ी। तनेजा के लिए यह अप्रत्याशित था, लेकिन वह तुरंत सँभल गया। वह उठा और उसने केएनटी के जबड़े पर एक घूँसा मारा। केएनटी दर्द से छटपटा उठे। उनके मुँह से ख़ून निकल गया। उन्होंने ख़ून पोंछा और बिजली की गति से सोसाइटी से निकलकर भागे। उनके पीछे सोसाइटी के कुछ लोग भी दौड़े। वह समझ नहीं पा रहे थे कि केएनटी जा कहाँ रहे हैं।

    केएनटी थाने पहुँचे जो उनकी सोसाइटी से थोड़ी ही दूर था। उन्होंने सबसे पहले अपना ‘आइडेंटिटी कार्ड' एसएचओ के सामने पटका और बोले, “आपके इलाक़े में पत्रकारों पर हमला हो रहा है।”

    एसएचओ ने विनम्रतापूर्वक पूछा, “बताइए, आपको क्या हुआ है?

    केएनटी ने झूठ का सहारा लिया, “हमारी सोसाइटी में एक क्रिमनल रहता है। वह हमारे अख़बार में एक झूठी ख़बर छपवाना चाहता था। मैंने मना कर दिया तो उसने मेरी पिटाई की और जान से मारने की भी धमकी दी।” यह कहते हुए केएनटी फफक पड़े।

    एसएचओ ने उन्हें पानी पिलाया फिर चाय मँगवाई और रिपोर्ट लिखने लगा।

    चाय पीकर केएनटी घर पहुँचे। बाहर गेट पर उनकी पत्नी और बच्चे रोते हुए मिले। सबको उन्होंने सांत्वना दी और कहा, “घबराओ नहीं, सब ठीक हो जाएगा। एक पत्रकार से टकराने का अंजाम नहीं मालूम, इस तनेजा को।

    थोड़ी ही देर में तनेजा गिरफ़्तार हो गया। वह घर से निकल चुका था, लेकिन पुलिस ने उसे उसकी दुकान से पकड़ लिया। यह ख़बर मिलते ही केएनटी को बड़ी राहत महसूस हुई। उनका सारा तनाव ख़त्म हो गया। वह संजीव भटनागर से हुई अपनी मुलाक़ात को याद करके फिर गुनगुनाने लगे—

    ''दिल का भँवर करे पुकार

    प्यार का राग सुनो

    प्यार का राग सुनो रे...''

    उनकी पत्नी उन्हें आश्चर्य से देख रही थी। कोई आदमी पिटाई खाने के बाद इस तरह गाना कैसे गा सकता है। उन्हें शक हुआ, कहीं उनके पति की दिमाग़ी हालत तो नहीं ख़राब हो रही है। वह किसी अनिष्ट की आशंका से काँप उठी।

    सुबह-सुबह टेलीफ़ोन की घंटी से ही केएनटी की नींद खुली। फ़ोन पर आवाज़ परिचित-सी लगी। अरे! यह तो संजीव भटनागर हैं। केएनटी उठ बैठे। वह अति प्रसन्न होकर बोले, अरे सर! आपने कैसे फ़ोन किया?”

    ये तुमने क्या किया।” भटनागर ने हड़का कर कहा।

    “सर, क्या बताऊँ। कल मारपीट हो गई। लेकिन मैंने उसे पुलिस के हवाले कर दिया।”

    “तुम्हारा दिमाग़ तो नहीं ख़राब हो गया।”

    क्यों?”

    “एक तो तुमने तनेजा साहब से मारपीट की और प्रेस की धौंस दिखाकर उन्हीं पर केस ठोंक दिया।”

    “उस आदमी ने सबके सामने मेरी पिटाई की। यह तो हमारे अख़बार की बेइज़्ज़ती है सर। लोग क्या कहेंगे कि इस अख़बार के एक सीनियर जर्नलिस्ट को दो टके के एक प्रॉपर्टी डीलर ने पीटा, ज़रा सोचिए।”

    बच्चों की तरह बात मत करो। तुम क्या जानते हो उन लोगों के बारे में। पता है उनके कितने लिंक्स हैं ऊपर तक। वे हमारे अख़बार के मालिकों से भी ताल्लुक़ रखते हैं। हो सकता है तुम्हें किसी दिन उस आदमी की जीवनी छापनी पड़े।”

    लेकिन वह एक गंदा आदमी है सर। हम लोग पत्रकार होकर उस तरह के लोगों के सामने झुकेंगे, तब तो हो गया सर।”

    बहस मत करो और अपनी रिपोर्ट वापस लो और तनेजा साहब से माफ़ी माँग लो। मैंने एसएचओ से भी बात कर ली है।”

    “लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है। रिपोर्ट वापस ले लेने पर तो वो मेरे ऊपर चढ़ जाएगा। मेरी बहुत बेइज़्ज़ती होगी।”

    “मैं जो कह रहा हूँ चुपचाप करो। जल्दी से थाने पहुँचो।” यह कहकर भटनागर ने फ़ोन पटक दिया।

    उद्विग्न हो उठे केएनटी। कितना फ़र्क़ था कल रात के संजीव भटनागर और सुबह के संजीव भटनागर में। कितना अजीब है कि एक सम्मानित राष्ट्रीय दैनिक का संपादक एक चिरकुट प्रॉपर्टी डीलर के पक्ष में इस तरह बोल रहा है, जैसे वह उसका दलाल हो।

    केएनटी कमरे में चक्कर लगाने लगे। कल रात भटनागर ने उनसे एक झूठा फ़ोन करवाया था। आज वह तनेजा के ख़िलाफ़ रिपोर्ट वापस लेने को कह रहा है, यह भी कि तनेजा से माफ़ी माँगो। फिर कहेगा तनेजा के पैर दबाओ। क्या हो रहा है साला ये सब। केएनटी की छाती धक-धक करने लगी।

    भटनागर से दोस्ती की क़ीमत अदा करनी होगी। उसके सामने दाँत निकालकर ‘हें हें हें' करना होगा जैसा कि कुछ लोग चिंतामणि जी के सामने किया करते थे, पर केएनटी ने ऐसा नहीं किया। अभी फ़ोन पर कितना हड़का कर बात कर रहा था भटनागर। साला रोज़ इस तरह बात करेगा क्या? केएनटी को उसकी हर बात में हाँ में हाँ मिलानी होगी। उससे हर समय सहमत होना पड़ेगा। वह कहेगा—उठ जा केएनटी। केएनटी उठ जाएँगे। वह कहेगा—बैठ जा केएनटी। केएनटी बैठ जाएँगे। वह कहेगा—नंगा हो जा केएनटी। केएनटी कपड़े उतारने लगेंगे। पर यह सब किसलिए? सिर्फ़ इसलिए कि वह रोज़ अपनी सेकेंड हैंड कार में बैठकर दफ़्तर जा सकें और उनका स्टेटस बना रहे?

    '‘भाड़ में जाए स्टेटस'' ...भुनभुनाए वह। अब वह और तेज़ी से चक्कर लगाने लगे। पत्नी उठकर बाथरूम चली गई थी और बच्चे अभी सोए थे।

    उनके सामने भटनागर और तनेजा के चेहरे घूम रहे थे। कभी भटनागर, कभी तनेजा, कभी... भटनागर... तनेजा... भटनागर... तनेजा... भटनागर...।

    इतना अपमानित उन्होंने आज तक महसूस नहीं किया था। उन्होंने इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि एक संपादक ऐसा व्यवहार भी कर सकता है। उन्होंने अपने आपको गिराया ज़रूर था, वह समझौते की राह पर चल निकले थे, पर इस रास्ते पर चलने की एक भारी क़ीमत अदा करनी होती है, इसका उन्हें अंदाज़ था। वह मान और अपमान का अर्थ समझते थे। वह झूठ और फ़रेब के कीचड़ में थोड़ी दूर ज़रूर चले आए थे, पर उसकी सड़ाँध को झेल पाना उनके वश की बात नहीं थी।

    केएनटी ने खिड़की से देखा। उनकी कार खड़ी थी और उससे सटी दो बड़ी कारें खड़ी थीं। ऐसा लग रहा था जैसे एक छोटी मछली को निगलने के लिए दो बड़ी मछलियाँ मुँह खोले खड़ी हों।

    सारा कुछ इसी कार ने कराया है। जब तक यह नहीं थी, तब तक सब कुछ ठीक ही चल रहा था। एक छोटी-सी खुशहाल दुनिया थी उनकी, जिसमें छोटी-छोटी इच्छाएँ थीं। पर इस कार ने उन्हें एक अजीब नशे में डुबो दिया। वह अपना स्वभाव भूल गए, अपनी ज़मीन भूल गए।

    ...नहीं वह अपनी जमीन पर लौटेंगे। तभी केएनटी को लगा जैसे पूरे कमरे में अँधेरा फैलता जा रहा है और सारा प्रकाश सामने की दीवार पर सिमटता जा रहा है। दीवार चमकने लगी है, प्रकाश तेज़ हो रहा है, दीवार हिलने लगी है—ठीक परदे की तरह।

    परदे पर एक फ़िल्म शुरू हो चुकी है। उसके नायक हैं केएनटी। केएनटी ने केएनटी को देखा। परदे पर केएनटी चले जा रहे हैं। उन्होंने कार बेच दी है और उसी पैसे से एक साप्ताहिक अख़बार निकालना शुरू कर दिया है। उनकी वेशभूषा बदल चुकी है—बढ़ी हुई दाढ़ी, कुर्ता-पायजामा पहने, गले में झोला टाँगे ये एक नए केएनटी हैं। वह अब दिल्ली से बाहर एक गाँव में रहते हैं। पत्नी और बच्चों को उन्होंने पटना भेज दिया है।

    वह स्वयं अपना अख़बार बाँटते चलते हैं। वह हॉकर भी हैं, संपादक भी, लेखक भी, प्रकाशक भी।

    उनकी क़लम आग उगलने लगी है। वह घंटों पैदल चलने लगे हैं। वह मज़दूरों-रिक्शावालों के साथ उठते-बैठते हैं। उनके दुःख-सुख में साथ हो गए हैं।

    उनके अख़बार ने भंडाफोड़ किया है, एक बड़े घोटाले का। सब शामिल हैं उसमें—ऊपर से नीचे तक के लोग मंत्री, अफ़सर, ठेकेदार, दलाल। हंगामा हो गया है। केएनटी के साप्ताहिक पत्र की धूम मच गई है। बड़े-बड़े अख़बारों ने केएनटी के अख़बार को उद्धृत किया है, उनका नाम छापा है। संसद में बवाल हो गया है, जाँच आयोग बैठाया गया है। एक भयावह रात है। कोहरे में कुछ नहीं दिखता। कोहरे की सुरंग में चले जा रहे हैं केएनटी। मफ़लर बाँधे, शाल लपेटे, हाथ में कुछ किताबें लिए घर लौट रहे हैं केएनटी। 'धप-धप'—लगता है कोई पीछे रहा है। पीछे मुड़कर देखते हैं केएनटी। कोहरे में कुछ भी दिखाई नहीं देता। तभी गूँजती है गोलियों की आवाज़। धड़ाम से गिरते हैं केएनटी। लाल होने लगती है सड़क। एक ट्रक तेज़ी से गुज़रता है—केएनटी को रौंदता हुआ।

    देश के बड़े अख़बारों में एक छोटी-सी ख़बर छपी है—जुझारू पत्रकार कमल नारायण तिवारी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु। केएनटी ने अपने आपको मरते हुए देखा। वह छटपटा भी नहीं पाए थे।

    यह आख़िरी सीन है शायद। दिल्ली से थोड़ी दूर एक गाँव में जुझारू पत्रकार केएनटी की मूर्ति लगाई गई है। स्थानीय विधायक मूर्ति का अनावरण कर रहे हैं। मुख्य अतिथि हैं संपादक संजीव भटनागर।

    केएनटी ने अपने को बुत में बदलते देखा। फ़िल्म समाप्त हो गई थी। दीवार पर प्रकाश कम होने लगा था। कमरे में अब भी अँधेरा था। केएनटी बुत की तरह खड़े थे। आँखें दीवार पर टिकी थीं। तभी पत्नी कमरे में आई और कहा, “इस तरह खड़े क्यों हो?

    केएनटी कुछ नहीं बोले। भला एक बुत के मुँह से आवाज़ कैसे निकलती।

    पत्नी को कुछ शक हुआ। उसने केएनटी को छुआ। उसे लगा जैसे उसने पत्थर को छुआ हो फिर उसने ज़ोर से केएनटी को धक्का दिया। केएनटी कटे पेड़ की तरह गिर पड़े।

    तब तक उनके बच्चे भी कमरे में चुके थे। उन्हें लगा उनके पापा कोई खेल दिखा रहे हैं। वे ताली बजाने लगे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय कुंदन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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