सुगना जब-जब कोठरी के अंदर-बाहर जाती, दरवाज़े के पीछे लटकी कठपुतलियाँ उससे टकरा जातीं… उसे रोकतीं अपनी कजरारी, तीखी, फटी-फटी आँखों से, चमाचम गोटे के लहँगों वाली रानियाँ, नर्तकियाँ, और अंगरखे-साफे वाले, आँके-बाँके, राजा-महाराजा और घोड़े पर सवार सेनापति। ढोलकी वाला विदूषक और सारंगी वाली उसकी साथिन। दीवाना मजनूँ और नक़ाब वाली उसकी लैला। कभी सुगना उदास होती तो इन कठपुतलियों को एक साथ ढेर बनाकर ताक पर रख देती और साँकल लगाकर गुदड़ी पर ढह जाती। कभी ग़ुस्सा होती तो ज़ोर से झिंझोड़ देती सबके धागे। कुछ मटक जातीं, एक दूसरे में अटक जातीं। किसी नर्तकी की गर्दन उसी के हाथों में उलझ जाती। कोई राजा डोर से टूट मुँह के बल गिरा होता। ढीठ मालिन टोकरी समेत उसके ऊपर। प्यार आता तो… उनके धागे सुलझाती, टूटे जेवर ठीक करती, उधड़े गोटे-झालर सीती या नए कपड़े बनाती।
कभी-कभी वह अपने हाथ-पैर देखती तो उसे लगता उनमें भी एक अदृश्य डोर बँधी है। उसे महसूस होता कि ये जो वक़्त है न, नौ से चार बजे का। वह दो प्रस्तुतियों के बीच परदा डाल के मंच के पीछे लटका दी गई कठपुतली के आराम का समय है। अब होती हैं न, कुछ दीवानी कठपुतलियाँ, देह के साथ-साथ मन भी पसारने वाली। वह भी वैसी ही एक बाँवरी कठपुतली है जो डोरों से मन को विलग कर नया खेल रचती है। सूत्रधार की समझ से परे का खेल। कुछ मौलिक, कुछ अलग जो जीवन को विस्तार दे जिसमें उसकी अलग भूमिका हो—इंतज़ार करती बीवी, बच्चे पालती माँ से एकदम अलग। अपनी देहगंध से बौराती, अपने मन से संसर्ग का साथी चुनती एक आदिम औरत की-सी भूमिका। वह इन अनचाहे रिश्तों के डोरों से उलझकर थक गई है। ये रिश्ते जो उसके ख़ून तक के नहीं हैं। उसके ख़ून के रिश्ते तो कहीं दूर छिटक कर गिर गए हैं। छोटका भाई याद आता, किसी और की ड्योढ़ी नाते बैठी माँ याद आती। ऐसी ड्योढ़ी जहाँ से उसे कभी कोई बुलावा नहीं आने वाला। बापू होता तो उसकी कोई तीज यूँ सासरे में बीतती?
कितना हँसी थीं उसकी सहेलियाँ, जब उन्हें पता चला था कि उसका ब्याह गाँव-गाँव जाकर, स्कूलों, मेलों और त्यौहारों, शादी-ब्याह में कठपुतली का खेल दिखाने वाले के साथ तय हुआ है।
“तुझे भी नचाएगा वो लँगड़ा कठपुतली बनाकर।” कहकर उसकी पक्की सहेली रूनकी हँसते-हँसते रो पड़ी थी।
''धाक धिना धिन धा… चीं… चीं…चीं… अब आ रही है तुर्क के तैमूर लंग की सवारी… चूँऽऽच्यूँऽऽ धिन धिन धा…''
बापू तो कहीं और बात तय कर गए थे, वह जोगेंदर था… दसवीं फेल था। जींस की पैंट और लाल क़मीज़ पहनता और धूप का चश्मा लगाता। सब जोगी कहते। पर उनके आँखें मूँदते ही लेन-देन की बात पर बाई ने तीन साल पुराना रिश्ता तोड़ दिया। रिश्ता टूट गया तो ज़ेहन में गूँजता नाम भी पीछे छूट गया। तेरह साल की सुगना बाई का ब्याह तीस बरस के अपाहिज और विधुर कठपुतली वाले रामकिसन से हो गया। सुगना के सपने में पैर कटी कठपुतलियाँ आने लगीं। बापू के मरने के दो साल के अंदर ही उसकी बाई ख़ुद जाके पास के गाँव के एक खेती-किसानी वाले दूसरी जात के आदमी के घर नाते बैठ गई थी और अपने संबंध की जल्दी में सुगना का गौना पंद्रह साल की होने से पहले ही कर दिया, बिना सगुन-सात, लगभग ख़ाली हाथ भेज दिया सासरे। ज़मीन-घर सब बेच के छोटके को लेकर वह चली गई।
घूँघट में से उसने ऊँटगाड़ी से उतरकर चलते हुए रामकिसन को देखा था, बलिष्ठ देह के होते हुए भी एक पैर पोलियो की मार ने पतला कर दिया था सो एक हाथ गोड़े पे टिका के हचक-हचक कर चलता था। यूँ साइकिल भी चला लेता थ, एक पैर से तेज़-तेज़ पैडल मारता, दूसरा पैर सहारे के लिए दूसरे पैडल पर बस ज़रा-ज़रा टिकाता… यह छोटा पैर पहुँचता भी नहीं था दूसरे पैडल तक। पर साइकिल की गति में कमी नहीं आती।
पंद्रह बरस की सुगना, सात और चार बरस के बंसी और नंदू, जिनकी वो माँ बन गई थी। तोते की तरह ‘माँऽ’, ‘बाईऽऽ’ रटते नंदू-बंसी। वह सोचती कि वो और उसका छोटका भाई तो बाई के सगे बालक थे…जब वो बाई के आगे पीछे ‘माँएँ’ या ‘बाई ऽएऽ’ कहते हुए घूमते तो बाई कितना रीस जाती… चिल्लाती…“ चोऽऽप!” सुगना खीझती नहीं थी, पर सुनती भी नहीं थी। वह सोचती कि ये मुझे नहीं, बादलों के पार जा के बसी अपनी माँ को पुकारते हैं अभागे।
सहज और अनुभवी रामकिसन ने कोई जल्दबाज़ी नहीं की—इस उनमुक्त आत्मा को बाँधने में। रामकिसन कठपुतलियों के डोरे कसने में माहिर था, पर यह कठपुतली तो अद्भुत ही थी। दिन भर तो सोती, रात में भी आठ बजे ही सो जाती…रीत के चलते सात-आठ दिन तो सास ने घर का काम सँभाला नवें दिन मेहँदी फीकी होते ही सास चली गई अपनी ढाणी पे। सुगना पर पूरी गृहस्थी का भार आ पड़ा। किसी तरह वह कच्चा-पक्का खाना बनाती, हाथ जलाती… छाछ ढोलती, साबुन दो दिन में ख़त्म कर डालती। टाबरों को देर में चाय मिलती तो स्कूल छूट जाता। रामकिसन ने धैर्य नहीं खोया। ख़ुद जल्दी उठकर आधे काम निपटा देता, दोनों टाबरों को स्कूल छोड़कर अपना खाना बाँध के, नई कठपुतलियों के सुलझे डोर साइकिल में लटकाता और लँगड़ाते हुए साइकिल पर उचक के बैठता और नौ बजे किसी गाँव, मेले या फिर सम की ढाणी में टूरिस्टों के डेरों की राह लेता।
सुगना की हँसी बहुत मोहक थी। उसकी हँसी को डँस लिया था, शतरंज के घोड़े की तरह टेढ़ी चाल चलने वाले सर्प ने। सुगना अपने आप में एक प्राकृतिक मरूस्थलीय सौंदर्य से भरा-पूरा दृश्य थी। रेतीले धोरों से उठती-ढहती देह की लहरें। लंबी क़द-काठी, सुता हुआ पेट। उस पर गहरे कुएँ-सी नाभि। मीलों दूर से, सिर पर एक के ऊपर एक तीन गगरियाँ उठाकर लाने के अभ्यास से चाल की धज देखते बनती थी। लंबी, पतली आँखों में काजल की खिंची हुई लकीर जहाँ जाकर ख़त्म होती थी, वहीं टिके थे गोदने के तीन नीले बिंदु… रूखे भूरे केशों में लगी चमकीली रंगीन चिमटियाँ। आगे के बालों में चोटी में गूँथा गया लाख का बोरला। पीछे चोटी में गिलट की चेन और घुँघरू वाली चोटी पिन। कस के बँधे बालों को भी उड़ा लिए जाती थी मरूधरा की बाँवरी हवा। चेहरे पर आ जाते बाल… वह खीझ जाती।
बात देह की ही तो नहीं थी। मन भी उसका हरा-भरा नख़लिस्तान था। कम बोलती, हँसती ज़्यादा। अतिरिक्त संवेदना उसके मन को आर्द्र करती थी… इसलिए बात-बात पर आँसू की झड़ी लग जाती। इसी अतिरिक्त संवेदना के चलते वह रूँखड़ों, पंछियों और डाँगरों से बातें करती। उसे चिड़ियों की आवाज़ पार्श्व का स्वर नहीं लगती थी… दृश्य का मुख्य स्वर लगती थी और वह जब-तब इस लोक से कट जाती। आकाश के रंग देख भूल जाती कि वह धरती पर खड़ी है। घर उसे काटने को दौड़ता। वह हर दो मिनट में खुले की ओर भागती, कोठरी और रसोई से निकल कर। घर की रसोई से भला उसे घर के आँगन में लगा इकलौता खेजड़े का पेड़ लगता। वह आटे की परात, काचरियों-फलियों और हरे साग की टोकरी और दँराती लेकर पेड़ के नीचे बने इस चौंतरे पर आ बैठती और खाना बनाने की पूरी तैयारी यहीं करती। लगन के तुरंत बाद, मेहँदी छूटते ही, पहला जो काम उसने किया, वह यही था कि एक पक्की, एक कच्ची कोठरी वाले घर के आँगन में लगे इस खेजड़े के पेड़ को चारों तरफ़ भाटे लगाकर, चूना-गारा थोप कर, ऊपर से लीप कर उसने गोल सुघड़ चौंतरा बना लिया था। खेजड़े पर पंछी आते तो वह ख़ुश हो जाती। मटके के टूटे पेंदे में पानी भर के टाँग दिया था, खेजड़े की एक डाल पर प्यासे पंछियों के लिए। मुट्ठी भर बाजरा आँगन में बिखेर देती तो वे चहचहाते हुए नीचे उतर आते।
बंसी का बापू हँस दिया था, उसकी इस हरकत पर। तब उसने उसकी तरफ पहली बार घूँघट हटाकर, उसकी ओर देखकर, हँसकर कहा था, ''इस घर को अपना बना रही हूँ।” उसी रात उसने अपना आप, बिना नखरों के उस तीस बरस के मनख को सौंप दिया था। सुगना बहुत डरपोक थी। वह माँ बनने से डरती थी। उसकी चिंता का समाधान रामकिसन ने कर दिया था।
“बंसी की पहली माँ के सामने ही ढाणी में जैसलमेर के डाकदर-नरस आए थे… कैंप लगा था… जिस-जिसके दो-दो टाबर थे सबकी नसबंदी कर दी, जोर-जबर करके, पुलिस का डर दिखाके।”
“और आप…?”
“हाँ… पर डाकदर साब कहते थे कि आपरेसन उलट भी सकता है।”
“ना… मत उलटवाना, बंसी-नंदू हैं तो। बच्चे दो ही अच्छे।” सुगना हँसी तो उसकी नाभि में एक गहरा भँवर पड़ गया।
सुगना और रामकिसन की गृहस्थी पटरी पर आ गई थी। रामकिसन गाँव-गाँव भटकता तब कहीं गिरस्ती का और बालकों के स्कूल का ख़र्चा चलता। उसे ऐसा लगता जैसे वह काठ की पुतली बन गई है और अदृश्य डोरे रामकिसन ने सुघड़ता से, बिना उसे महसूस करवाए बाँध ही दिए हैं। गृहस्थी के कामों को अब वह एक लय में कर डालती है। वह अब छाछ कम ढोलती, हाथ कम जलाती। साबुन बचा-बचाकर इस्तेमाल करती। धरती की बहुमूल्य देन से विहीन इस गाँव में आकर पानी के छपाकों से मुँह धोने की आदत छोड़ दी, बूँद-बूँद पानी बचाती। टाबर ‘माँ ए’ बुलाते तो बिना चिहुँके, यंत्रवत समझ लेती। टाबरों को समय पर बाजरे के रोट और गुड़ का नाश्ता करा… दिन का खाना काग़ज़ में लपेटकर, स्कूल का बस्ता थमाकर वह घर से भेजती और किवाड़ मूँदती तो ऐसा लगता कि अब जाके उसके डोरे ढीले हो गए हैं। अब सुगना नाम की कठपुतली के शांत लटके रहने का समय है—दो प्रस्तुतियों के बीच का समय।
वह धम्म से गुदड़ी पर सुन्न होकर पड़ जाती। अपने वजूद को, अपनी देह को हाथ से टटोलती। सोचती-उलझती, लेकिन समझ नहीं आता... रात किस मुहाने पर जाकर उफन पड़ी थी वह कि रामकिसन एकदम कुंठित हो गया और छिटक गया उससे दूर। पहले देह जब शांत नदी-सी पड़ी रहती थी तो वह मीलों तैर जाता था। अब जब वह नैसर्गिक आकांक्षाओं से भरपूर नदी में बदल जाती है और इन्हीं आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु प्रसन्न-प्रछन्न क्षमताओं से परिपूर्ण होकर बहती है—प्रबल-प्रगल्भ, तो रामकिसन के लिए मुश्किल हो जाता है इस उफनती नदी को बाँहों में भर कर तैरना। बहुत डरपोक थी सुगना, इस बात से भी डर गई। उसने ख़ुद को काठ कर लिया। अब रामकिसन चाहे जैसे नचाए। वह जब तृप्ति की डकार लेता तो वह जूठन के इधर-उधर गिरे टुकड़े समेट भूखी ही उठ जाती। फिर भी ज़िंदगी तो चल ही रही थी। रामकिसन अपने कर्तव्यों से कहीं पीछे न हटा। न सुगना ही ने हार मानी। बंसी-नंदू उसे सगी माँ से ज़्यादा चाहने लगे थे।
सब कुछ ठीक ही चलता तो कठपुतली वाले रामकिसन की लुगाई सुगना की कहानी चार दिशाओं में क्यों भागती? धणी-धोरे, टाबरों और सासरे वालों के चलते… सुगना यूँ अकेली पड़ जाती? वो गई ही क्यों कुलधरा के उन खंडहर मकानों और मंदिरों की तरफ़? उस दिन भी टाबरों को स्कूल भेजकर, सुगना धम्म से कठपुतलियों वाले कोने में गुदड़ियों के ढेर पर ढह गई थी। ऊपर कठपुतलियाँ हिलती-डुलती लटकती रहीं… इन कठपुतलियों का पहरा नहीं मानती वह। बाक़ी वक़्त तो एक पहरा-सा वह स्वयं पर महसूस करती ही थी, उसे लगता कि उसकी आत्मा तक पर कुछ जोड़ी आँखें गड़ी हैं। लेकिन यहाँ इस कोने में कठपुतलियों की फटी-फटी कई जोड़ी आँखों से स्वयं को ढक कर वह अपनी काँचली ढीली करती और देह के इस स्वस्थ मरुस्थल के बियाबाँ धोरों की लहरों पर आँख मूँदकर भटकती… अजीब-अजीब सपने देखती, जब आँख खुलती तो धूप आँगन के बीचों-बीच खड़ी, उसे पुकार रही होती।
“बींदणीऽऽ पाणी!”
धापू री बाई! उस दिन उसे देर लग गयी किवाड़ खोलने में, काँचली के उलझी डोरी सुलझा कर कसते-कसते।
“आँख लग गई थी माँ सा। आज तो पाणी ख़त्म…”
“गैला हो गया राम किसन… जो इस जोबन की मारी को ब्याह लाया। दिन चढ़े… कोठरी बंद कर पता नहीं क्या करती है। एक वो थी, कोसल्या… पाँच बजे ही तीन कोस दूर पानी के लिए निकल जाती…”
बुढ़िया की गालियाँ खाती, वह इडोणी, चरू-चरी, मटका लेकर अकेली भागी—पानी मिलने के अनजान लक्ष्य की तरफ़… अपनी ढाणी का कुआँ और ट्यूबवेल तो पिछले बरस ही सूख चुका था। पास की ढाणी में लगा सरकारी नल कबसे बंद हो गया होगा। वह भागी पिछले दिन जहाँ धापू उसे साथ लेकर पानी लेने ले गई थी—कुलधरा के खंडहरों की तरफ़, उस सूनी बावड़ी की दिशा में… पानी से छलछल करती उस चार मील दूर की बावड़ी की तरफ़ तो मुसीबत आने पर ही गाँव की कोई ही लुगाई जाती है। वह भी इतनी धूप चढ़े तो कोई नहीं।
जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा, वह हड़बड़ाती हुई बावड़ी पर पहुँची। दोनों चरू-चरी, मटका भर लिए। ठंडा पानी देख नहा लेने का मन हो आया। तीन दिन हो गए थे, नहाए। रामकिसन तो बहुत कहा-सुनी होने पर सात दिन में एक बार रात के बचे दो लोटे पानी से नहाता है। वह कहता है, ''सुगनी, पानी मत ढोलजे ज़्यादा। यहाँ हमारी ढाणी में रेत से ही स्नान का रिवाज है।''
बताया न, सुगनी बहुत डरपोक है, बात-बात पर ठंडा पसीना बहाती है, सर पर साँय-साँय करते बड़ के पेड़ और उसकी लटकती जटाओं से डर गई। जैसे-तैसे लुगड़ा हटाकर, लँहगा और कुर्ती पहने-पहने, एक चरू अपने ऊपर उलटा और नहा ली… पानी पर पड़ते अपने हिलते-डुलते प्रतिबिंब को देखकर उसे मालन कठपुतली याद आई... मेरा नाम है चमेली… मैं हूँ मालन अलबेली, चली आई हूँ अकेली बीकानेर से… रामचंदर उस शोख कठपुतली को नचाता हुआ बड़ी सुरीली तान में गाता है। वह भी गुनगुनाने लगी। प्रतिबिंब फिर हिला। उजाले में अपनी देह देखे बरसों–बरस हो गए। घाघरा ऊँचा कर पैर देखे, गेहुँआ पैर, सुनहरे रोओं वाली पिंडलियाँ। पानी की धाराओं से टपकती देह को सुखाने पेड़ के नीच रखे पत्थर पर बैठ गई। पल भी तो न बीता था कि धप्प से पीठ पीछे कोई गिरा, सुगनी की चीख़ हलक में… अर् र् र… डाकी बंदर है कि कोई भूत? उसका कलेजा छाती फाड़कर बाहर ही आने को था।
“ओळखे कोनी कईह्य पहचानती नहीं है क्या? हृ?”
मनख-माणस की भारी आवाज़ सुन सुगना ने झट गीला घूँघट काढ़ लिया।
“कुण?”
“ऐ सुगना… भूलगी कै? जोगी, जोगींदर।”
अब वह उठ खड़ी हुई। हठात् घूँघट हटा दिया। वही जींस की पैंट। गोरा चेहरा। बलिष्ठ बाजू।
“यहाँ?”
“अँग्रेज़ों को कुलधरा दिखाने लाना था न। गाइड की लाइन पकड़ ली है, जैसलमेर किल्ला में अपणा ओफिस है। दूर से पैचाण लिया था मैंने… पर तूने नईं पैचाणा। हैं!”
सुगना ने मुंडी हिला दी। भीगी हुई देह पर चिपके लुगड़े को बार-बार खींच रही थी।
“और घर में सब ठीक… टाबर-टूबर?” उसकी देह पर बार-बार तितली-सी जा बैठती नज़र को हटाकर, मुँह फेरकर औपचारिक हो गया जोगी।
“हाँ!”
“तू नहीं बदली… वैसी च है…। मैं…?”
सुगना ने ध्यान से जोगी को देखा। गबरू! एक ही शब्द निकल कर आत्मा पर जा बिंधा। वह उठ गई और चरू-मटका उठाने के लिए हल्का घूँघट खींच सर पर ईडोणी रख कर जोगी को उठवाने के लिए इशारा किया। जोगी ने मटका, कलसी और चरू सुगना के सिर पर रखी इडोनी पर आहिस्ता से एक-एक कर रखे, वह नाक तक घूँघट निकाले, पलकें झुकाए, एक सुनिश्चित ताल में लहराती हुई-सी सीढ़ियाँ चढ़ गई। जोगी हतप्रभ देखता रह गया। रेतीले टीबों वाला छोटा रास्ता पकड़ने को उसके पैर जितना जल्दी चलना चाहते, मन उतना पीछे को लौटता।
बाई गाली-गलौज के साथ झगड़ी न होती, लेन-देन की बात पर जोगी का बाप न अटका होता तो जोगी उसका पति होता। उसकी पक्की सहेली रूनकी ने कहा तो था, ''सुगनी मैंने सुना… रामकिसन ने दो हज़ार उलटे तेरी बाई के ही हाथ पे रखे हैं।'' तभी तो जोगी जैसा बाँका जवान छुड़ा के लँगड़ा रामकिसन…'' उसे स्वयं पर ग़ुस्सा आया विरोध क्यों नहीं किया माँ का? काठ की पुतली ही रही रे तू सुगनी।
“अँग्रेज़ों को बस में बिठा के मिलता हूँ।” वह पीछे दौड़कर आया।
सुगना का चेहरा तटस्थता से पथरीला हो रहा था। वह कुछ नहीं बोली तो नहीं ही बोली, बस एक नज़र भर उसे और देखा और गहरी साँस ली। जोगी की आँखों की परिधियों से कोई जंगल शुरू हो रहा था। एक छवि उभरी, मौर बाँधे, किराए की तलवार लटकाए घोड़े पे बैठा जोगी। या फिर दूध-हल्दी भरी परात में अँगूठी खोजते दो जोड़ी हाथ, उसके घूँघट पर पड़ती उस उद्दाम पौरुष की छाँह। पुराने तेल पिए काले काठ के पलंग पर रेशमी बिछौना, आले में रखा दिया, बालों भरी छाती जो उसकी सफ़ेद क़मीज़ के खुले बटन से झाँकती बस अभी देखी है। रेगिस्तान की जलती रेत पर तीन गागर उठाए चल रही थी वह और मन की केसरिया क्यारियों में अपूर्ण इच्छाओं के जामुनी फूल एक-एक कर खिले जा रहे थे। चाँदनी बिछ गई थी पैरों में… सिर पर जैसे बादल रखे थे।
उसकी गेहुँआ देह पसीने से लथपथ हो गई थी—आधा कोस चलकर ही। अचानक पश्चिम की तरफ़ के आसमान का कोना धुँधलाया, उसी कोने की धरा से रेत ऊपर को उठी, मानो नीले आसमान ने जबरन धरा को बाज़ुओं में भरना चाहा हो और महज गुबार हाथ आए हों। जब वह बावड़ी से चली थी तो आँधी के कोई आसार नहीं थे। साफ़ आसमान से देह को झुलसाती धूप बरस रही थी। हवाओं की चीख़ से रेत में जाने कहाँ जड़ धँसाए खड़े खेजड़े के पेड़ काँपे। कुलधरा गाँव के दूर तक फैले खंडहरों के पत्थर तक सहम गए। बौरा गई थी हवा… बगूले ही बगूले गोल-गोल चक्कर काटते। धापू सही कहती थी, ये जगह भुतहा है। आँखें किरकिरी हुईं, फिर चेहरा… होंठ, यहाँ तक कि साँसें और भीगी हुई ज़ुबान तक किरकिरा गई। सुगना एक ठूँठ-से खेजड़े के नीचे ठिठक गई। चरू-कलशी उसने नीचे मोटे भाटे के सहारे टिका दिए। सर से लुगड़ा उखड़ कर फरफराने लगा। कुर्ती-काँचली में अटका छोर छूट गया, बस घाघरे में अटका छोर छुड़ा पाता तो यह लुगड़ा तेज़ हवाओं के साथ कहीं परदेस ही जा उड़ता। गुलाबी छींट का लुगड़ा। किसी मूमल का या किसी मारू का। उसने उसे खींच कर मुँह पर लपेट लिया पेड़ से चिपक कर खड़ी हो गई। सामने वाले धोरे से दो ऊँटवाले आनन-फानन में उतर रहे थे, सुगना ने मुँह फेर लिया। एक भेड़ चराने वाला किशोर चरवाहा, उसी के पास आ खड़ा हुआ। उसकी भेड़ें पेड़ के पास गोल झुंड बनाकर, गोले के केंद्र में… मेमनों को रख, मुँह छिपा कर अनुशासित हो बैठ गईं। तेज़ चक्रवात से रेत की लहरों में हुई उथल-पुथल से न जाने कितने रेतीले रेंगने वाले जानवर निकल कर लंबी घास की तरफ़ भागे। एक टेढ़ा-टेढ़ा रेंगने वाला… रेत का पीला सर्प लहराकर भेड़ों के झुंड की तरफ़ बढ़ा। भेड़ों का शांत झुंड उठकर मिमियाने लगा किशोर चरवाहा आँधी में ही अपनी भेड़ों को पुकारता इधर-उधर भागने लगा। वो दोनों ऊँट वाले न केवल उस मासूम पर हँसने लगे, उसके बारे में भी अश्लील बातें करने लगे। वह स्तब्ध खड़ी थी। बुरी तरह आशंकित।
अचानक दो बाज़ुओं ने उसे खींचकर पेड़ से दूर किया। वह पीला सर्प खेजड़े की डाल पर अटका हुआ लटक रहा था। उसकी चीख़ निकल गई।
“चलो यहाँ से।” धुँधलके में उसने देखा, जोगी था।
“जोगी! पर कहाँ?”
“ कहीं भी…”
“नहीं…आँधी थमते ही घर का रास्ता लेना है। पैले ही देर हो गई।”
“अरे! गैली हुई है क्या? इन ऊँटवाले समगलरों के साथ, यहाँ अकेली तूफ़ान में क्या करेगी?”
वह उसके चरी-मटके उठाकर चलता गया। सुगना उसके पीछे-पीछे। अनजान पगडंडियों पर चलते-चलते, वे ढेर सारे नीम के पेड़ों से घिरे, सुनसान पड़े एक भैरूँ बाव जी के मंदिर के खंडहर तक पहुँचे।
“ये जगह ठीक है सुगना? चल यहीं इंतज़ार करें आँधी थमने का।” वह उसका हाथ थाम ऊँची-ऊँची सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। “मैं अँग्रेज़ों को बस में बिठा ही रहा था कि आँधी सुरू… मैं समझ गया कि तू फँसी होगी इस पीली आँधी में।” सुगना की साँस अब तक तेज़ चल रही थी।
जोगी की आँखों का जंगल करवटें ले रहा था। जहाँ घनी लताएँ थीं, बहता पानी था, भागते कस्तूरी मृग थे। एक अपनी ख़ुशबु थी जंगल की। भूख जग आई थी… सुबह से खाया ही क्या… पास के झाड़ से टिमरू तोड़ने लगी। जोगी तूफ़ान से नीचे गिर पड़े शहद के छत्ते की तरफ बढ़ा। मक्खियाँ अब तक भिनभिना रही थीं।
“ऐ मत खा ये जंगली फल… ले यह शहद…” जोगी के हाथ में एक टूटे छत्ते का खोखल था, जिसमें से शहद टपक रहा था।
''खा न, ये वनमाखी का काढ़ा हुआ नीम का शहद है। वनमाखी जितना तेज़ काटती है, उतना मीठा शहद बनाती है। पर यह मीठा शहद पीछे से एक तीतापन छोड़ जाता है।”
आँधी तो रुक गई थी, मगर शहद और तुर्शी दोनों के मिश्रित स्वाद के लालच की एक ही डोर से दोनों बँधे रह गए। सुगना के अंदर की कठपुतली साँस लेने लगी थी। जोगी ने वह छत्ते का टूटा खोखल हाथ से ऊँचा किया और सुगना के सूखे होंठों पर शहद की टपकती धार डालने लगा। उसके होंठ शहद से भीग गए थे। खोखल से शहद जगह-जगह से टपक रहा था। चेहरा, गर्दन, काँचली के गले की काट का वह छोर… जहाँ से फिर जंगल…। जोगी बेशर्मी से हँसने लगा। शहद का छत्ता… एक घना जंगल, गले में किरकिराती रेत… अनजानी पगडंडियाँ… घने जंगल में छिपा झरना। खुलकर भूख लगी थी। फिर टिमरू तोड़ के खा लिए सुगना ने पास के झाड़ से। जहरीले थे या नहीं वे जंगली फल, नशीले ज़रूर थे। सुगना का होश खोने लगा।
उसके बिवाई फटे पैर के अँगूठे को चूम ही रहा था जोगी कि उसे ज़ोर की उबकाई आई, जोगी ने घबरा कर उसके गले में अपनी दो उँगलियाँ डाल उल्टी करवा दी—
“मना किया था न…टिमरू, जंगली टिमरू में फरक होता है।”
“तुझे सूगह्यघिनहृ नहीं आती कभी पैर का अँगूठा… कभी मेरी उल्टी...”
“तुझसे सूग? तू तो केवड़े का झाड़ है… कँटीला मगर महकता हुआ सुगंध से। एक बार सुगनी बस ग़लती हो गई कि तुझे भगा के नहीं ले जा सका… अब तुझे नहीं छोड़ना है।”
“क्यों तेरा भी तो ब्याव-गौना हुआ है, मैंने सुना।”
“वो अपनी जगह रहे… सासरे में… तुझे जैसलमेर रखूँगा।”
कसके, घने बालों वाली छाती से उसे चिपकाता रहा जोगी। जिसके छाती के बालों के डंक पूरी देह पर लेकर लौटी थी सुगना। शहद और डंक… दंश की एक तीक्ष्णता देह दुखा रही थी… वहीं शहद का तीतापन… दंश लगे हिस्सों पर जलन पैदा कर रहा था।
जब वह घर पहुँची रास्ता ढूँढ़ती हुई और रेत से किरकिराता हुआ पानी मटकों में लेकर तो बहुत देर हो चुकी थी…साँझ ढलने को आई थी। दोनों टाबर बस्ता बाहर ही छोड़ कर भूखे-प्यासे रेत में खेल रहे थे। उसे देखते ही ‘बाई!’ कहकर लिपट गए। साइकिल बाहर खड़ी थी, जिसके हैंडिल में उलझी हुई, रेत भरी कठपुतलियाँ यूँ ही लटकी हुई थीं, उन्हें उतार कर कोठरी तक में नहीं रखा गया था। रामकिसन आँगन के चूल्हे से जूझता हुआ, हाँडी में बाजरे की राबड़ी पका रहा था। बहुत ठंडी आवाज़ और लाल आँखों से उसने पूछा, ''कहाँ रह गई थी?''
“कुलधरा की तरफ पानी लेने गई थी। रास्ते में तूफ़ान आ गया फिर रस्ता भी भूल गई।”
“सच में ही तूफ़ान आ गया और रास्ता भूलगी? ह्य उसके कहे में सच में व्यंग्य था या सुगना ही दूसरा व्यंजित अर्थ पकड़ रही थी।हृकुलधरा! वो भुतैली बावड़ी? पागल हुई क्या? किसने बताया तुझे उधर का रस्ता?”
“धापू…”
“धापू! वाह री धापू की बहना! किस तूफ़ान में फँस गी जाके तू?” फिर व्यंग्य! सुगना का मन हल्के-हल्के काँप रहा था। किसी ने देखा क्या? इसको कुछ कहा क्या?
रामकिसन की अप्रत्याशित चुप्पी या फिर व्यंग्य से सने दो-एक वाक्य सुनते-सहते, स्वयं को भुलाकर उसने आँधी से बिखरा पूरा घर बुहारा-समेटा…। भीतर से वह अपने आप को भी समेटने का असफल यत्न कर रही थी। रात को टाबरों को खाट पे सुलाकर, हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदलने को हुई तो देखा जहाँ-जहाँ शहद गिरा था, वहाँ-वहाँ कुर्ती का रंग उड़ गया था। काँख चिपचिपा रही थी, कान तक के अंदर चिपचिप! तीन चार लोटे… पानी के भी कम थे, उस चिपचिपाहट के लिए।
“इतना पानी क्यों ढोल री है? रेत ही तो है… कीचड़-कादा थोड़े है।” अपनी सूखी ओढ़नी से अच्छी तरह से कान के अंदर तक पोंछकर आँगन की लालटेन धीमी कर, कोठरी के आले में रखा दिया बुझा कर, दरवाज़े की दरारों में कपड़े ठूँस कर वह रामकिसन की बग़ल में ज़मीन पर बिछी गुदड़ी पर जा लेटी। तमाम व्यंग्य-बाणों के बीच भी रामकिसन का नीचे बिस्तर बिछाना उसे समझ नहीं आया। जब टाबरों को ऊपर प्यार से सुला, रामकिसन नीचे उसकी गुदड़ी बिछाकर लेटता है तो उसका मंतव्य सुगना तुरंत समझ जाती है। उस रात रामकिसन उसके प्रति निर्मम था, उसी दौरान दो जोड़ी शहद के रंग की आँखें और मुड़ी हुई पलकों की वह अधखुली चिलमन उस पर बिना झँपे तारी न हो गई होतीं, तो वह उस एक जंगल से कैसे गुज़रती? न गुज़रती उस जंगल से तो यह सरासर बलात्कार होता। सह गई वह रामकिसन की सारी निर्ममता, अपने भीतर करवटें लेते जंगल के चलते। उसने कब देखा था घनेरा जंगल, बस मीलों-मील फैले मरुस्थल देखे थे… पीली और काली आँधियों में भी उन पर टिके पुराने खंडहर जैसे-तैसे साँस लेते थे। इन खंडहरों में लटके वनमाखी के मीठे शहद भरे छत्ते…
“मीठा तो होता है इसका सहद पर तीतापन पीछे छोड़ जाता है।” यही कहता था न जोगीड़ा!
रामकिसन का गाँव-गाँव जाकर कठपुतली का खेल दिखाना नहीं रुका, कुलधरा से उसका पानी लाना नहीं रुका। जोगी का विदेशी और देसी टूरिस्टों को कुलधरा रोज़ लाना कैसे रुकता?
कुलधरा के रहस्यमय खंडहर अँग्रेज़ हैरानी से देखते… कैसे पूरा का पूरा गाँव एक ही रात में ग़ायब हो गया था। जलते चूल्हे… चलती चक्कियाँ छोड़, दरवाज़े खुले छोड़… अनाज भरे कुठार यूँ के यूँ छोड़ गाँव का गाँव ग़ायब हो गया… कहाँ? पता नहीं। बहुत रहस्यमय है जैसलमेर जिले का यह कुलधरा गाँव। जोगी टूटी-फूटी अँग्रेज़ी और पर्यटन विभाग के छपे पन्नों से उन्हें बताता, ''सर… लुक हियर मैडम… दोज विलेजर्स वर पालीवाल ब्राहमिन्स… वन डे सडनली दे लेफ़्ट द विलेज… इन सेम कंडीसन, सेम एज यू आर लुकींग हियर…''
जल्द ही गर्भवती होने का एहसास… चींटियों-सा उसे काटने लगा था। रामकिसन के पार्श्व में लेटे हुए उसे लगता गर्म रेत पर लेटी है वह। देह के आकार का वाष्प और तरल भरा गड्ढा भर है वह। पंडित का फ़िक़रा गूँजा, “विधवा, गाभण… रितुमती औरताँ, छोड़ी हुई लुगायाँ हवन सूँ आप ही उठ के चली जावो…बुरो मत मानजो सा… भगवान री बनाई रीत है… आरती में कोई भेदभाव नी… आरती के टेम वापस आ सको… अपनी अपनी श्रद्धा सूँ भेंट चढ़ा सको।” अनवरत चल रही आहुतियों के यज्ञ में पति के वामांग बैठी सुगना ठिठकी, सुगना के पेट में चक्रवात उठा… रामकिसन ने मासूम मगर धारदार होने की हद तक ईमानदार बड़ी-बड़ी आँखों से प्रश्न किया और पैर के अँगूठे से उसकी जाँघों को कुरेद कर पूछा, “क्या हुआ?” वह ढीठ बन गई और रामकिसन के बलिष्ठ हाथ पर अपना हाथ रखकर, यज्ञ में आहुतियाँ दे आई। बाबा रामदेवजी के मंदिर की ही बात है, वह यज्ञ। बाबा रामदेवजी का मेला भरा था। मन्नत पूरी हुई थी रामकिसन की। रामकिसन को जयपुर के एक लोक कला केंद्र में कठपुतली के खेल दिखाने वाले की स्थायी, सरकारी नौकरी मिल गई थी। वह गाँव छोड़ के जाने का मन बना चुका था। सुगना की आत्मा कटघरे में खड़ी थी, अपने आपसे दरियाफ़्त करती हुई। सुन्न चेतना क्या उत्तर देती? हालात की क्या समीक्षा करती? जोगी का कई दिनों से कुछ पता नहीं था। वह कई बार कुलधरा जाकर ख़ाली हाथ लौट आई। चींटियों का कोई एक गहरा बिल खुल गया था… कहीं कच्ची, पोली निष्ठा में। वे दिन-रात उसकी आत्मा और देह पर रेंगा करतीं।
क्या उत्तर देगी पति को? तीसरा महीना चढ़ गया है। कैसा आलस घेरता है, आजकल उसे। ज़रा चल कर थक जाती है। मन कहीं गहरे गर्त में डूब गया है जाके, पर देह यंत्रवत लगी रहती है काम में… जो खाती वह तुरंत उलट देती। पड़ोसन धापू कुछ-कुछ समझ रही थी… कुछ रामकिसन भी। दोनों के दोनों उसकी तुलना में अनुभवी!
“तो ये तूफ़ान था? ऐसी गैल भूलगी थी तूँ। धापू अच्छा कुलधरा के खंडहरों वाली बावड़ी का रास्ता बताया तूने! अब तू ही इसे इसकी माँ के घर पटक आ। इस ढोलकी का अब मैं क्या करूँ?”
“वहाँ कौन बैठा है इसका? तेरा ही बच्चा है ये, कभी प्रेसन ख़राब हो जाते हैं। इसके मायके में कौन है अब? माँ तो ख़ुद नाते बैठी है किसी के। कहाँ जाएगी रामकिसन ये?”
“इसे भी बिठा दे नाते किसी के कहना… रख ले बच्चे समेत। बोल दे इसे कि चली जाए उसके पास जिससे ये ढोल गले में बँधा के लाई है। ये कौव्वे और कोयल वाली कहानी खेलने को रामकिसन कठपुतली वाले का ही घर बचा था राँड?” लँगड़ा कर वह घिसटा सुगना की तरफ़, हाथ भी उठे रामकिसन के सुगना की पीठ पर बरसने को पर अगले पल ही गिर गए… “साले रामकिसन… लँगड़े… तू आग नहीं बुझा सका इस राँड की?” कह कर रामकिसन क्रोध में मेड़ की झरती दीवार पर अपना हाथ मारने लगा, आँख से आँसू बहते थे… मुँह से लार।
बात छिपी नहीं। ससुराल की ढाणी तक पहुँची। वहाँ आकर बवंडर उठा दिया सास ने। सुगना कहती रही यह बच्चा रामकिसन का ही है, तो जाति के पंचों को इकट्ठा करके अग्निपरीक्षा की बात करने लगी सास। रामकिसन जितना चाहता था कि यह मामला तूल न पकड़े, उतनी ही बात घर से बाहर आग की तरह फैल गई थी। किसी का भी हो चाहे सुगनी के गर्भ का बच्चा, वह सुगना को नहीं छोड़ सकता। यह निश्चित था कि बच्चा उसका नहीं है। लेकिन कठपुतली नचाते-नचाते रामकिसन जान गया था कि उसकी यह जो मायाविनी-जीवंत कठपुतली है—‘सुगना’—वह मुक्त भी है, अनुरक्त भी। उसमें त्याग भी है, मोह भी। न सही सतीधर्म, लेकिन सेवा है, सहिष्णुता है। उसमें जीवन है, जीवन की हलचल है। मादकता है तो अथाह ममता भी।
वह अंत तक कहता रहा, “बाई, रहने दे मेरा घर उजड़ जाएगा दूसरी बार।” पर सास अडिग थी—अग्निपरीक्षा को लेकर। राजस्थान के मरुस्थलीय इलाक़ों के अंदरूनी हिस्से में जहाँ जातिगत पंचायत ही समस्त कानून व्यवस्था का काम करती है, वहाँ पुलिस या घरेलू अदालत का क्या काम? समाज को इकट्ठा कर अग्निपरीक्षा का यह प्रपंच सास के इशारों पर था, रामकिसन कठपुतली वाला तो आज स्वयं कठपुतली था। सास चाहती थी कि फ़ैसले के बाद ही रामकिसन नौकरी पर जाए। टाबरों की चिंता न करे… वह सँभाल लेगी। ऐसी कौन-सी रूपसी है सुगना… छोड़ देना। मरद है, नाते रख लेना किसी को। बस उस राँड के प्रेमी का पता चल जाए। उससे धरवाएँगे हरजाना… पूरे चार हज्जार!
फ़ैसला होने तक सुगना को पंचायत के एक झोंपड़े में अकेले रहना था तीन दिन, शायद पश्चाताप के लिए या ठंडे दिमाग़ से बिना किसी प्रभाव के अपने निर्णय पर सोचने के लिए। दिन में धापू खाना रख जाती। रात को वह उपवास रखती। मटके का ठंडा पानी पीती। दिन भर जैसे वह सुन्न-सी, पालथी मार बैठी रहती, वैसे ही गर्भ का पंछी भी शांत रहता। लेकिन झोंपड़े में रात का अँधेरा जब गहरा और नीरव होता जाता और फूस के फ़र्श पर खेस बिछाकर लेटे हुए उसकी चेतना जाग उठती, तो गर्भ में वह नन्हा चूज़ा हल्के-हल्के पंख फड़फड़ाता। एक नन्ही बच्ची की तमन्ना हौले से जागती, फिर उसे रामकिसन की नई रची कहानी की कठपुतलियाँ याद आतीं जो उसने बनाई थीं—जेल में पड़ी देवकी और जोगमाया की कठपुतलियाँ। कितना भोला चेहरा जोगमाया का।
रात की नीरवता में बाहर और भीतर के स्पंदन और सजग हो जाते। कभी दूर कहीं झाड़ी में मादा गोडावण की चूज़ों को दी गई पुचकार भरी झिड़की तक सुनाई देती तो कभी विषधर की सरसराहट स्पष्ट सुनाई पड़ती और रोंगटे खड़े हो जाते। दूर कहीं किसी ढाणी में रात्रि-उत्सव में बजती थालियाँ और अलगोजे की टेर यूँ लगती जैसे पास से आ रही हो। रात की सूक्ष्मग्राही निस्तब्धता से उसका यह पहला परिचय था। वह रात भर जाग कर सब कुछ सुनती—शराब पीकर लौटे गाँव के छोरों का शोर, किसी आवारा बंजारन की कामुक हँसी, सियारों की हूक।
नवंबर माह की फीकी-सी सुबह थी। झोंपड़े के बाहर सारा ढोली समाज इकट्ठा था, धापू उसके साथ थी। वह हैरान रह गई जब धापू ने बताया कि जोगी भी भीड़ में खड़ा है। उसने एक छेद से झाँका—पति की आहत नज़र, प्रेमी का भयभीत चेहरा, नंदू-बंसी के कुम्हलाए बदन, ससुराल के लोगों की हिक़ारत भरी मुद्राएँ; कौतूहल से तमाशा देखते, कानाफूसियाँ करते, मज़ाक़ उड़ाते उसकी ही जात के लोग-लुगाई...।
“धापूड़ी, जाके कहदे उस जोगी को, भग जाए यहाँ से। किसी को अंदाज़ भी पड़ गया तो हरजाने की बात तो है ही… कूट भी डालेंगे उसे मेरे सासरे वाले।”
फ़ैसला जो होना हो… हो। वह लगातार यही कहेगी कि बच्चा रामकिसन का ही है, और किसी का हो ही नहीं सकता। सुगना की आँख फिर एक छेद से होकर जोगी पर जा टिकीं। वह ढीठ तो धापू के साथ इधर ही आ रहा था और रामकिसन आशंकित हो लगातार उस जोगी को घूरे जा रहा है। माजरा समझ रहा है क्या?
“यहाँ से चला जा… जोगीड़ा!” उसने जोगी के भारी पैरों की आहट सुनते ही, झोंपड़ी के अंदर से ही, खड़े होने की कोशिश में, देह के बोझ तले डूबते हुए कहा।
“तू बैठ जा अभी। थक जाएगी। पंच मसवरा कर रहे हैं कि अग्निपरीक्षा कैसे लें। जोगी तू बाहर ही रुक।” धापू ने उसके साथ भीतर आते जोगी को हाथ से ठेल दिया।
“सुगना! सुन, मैं हरजाने के चार हज़ार लाया हूँ… दो हज़ार में छीनी थी न तू मुझसे उसने… मैं दुगना हरजाना भरूँगा। उसे बोल, छाती ठोक के कह दे कि बच्चा तेरा-मेरा है। कोई ज़रूरत नहीं गरम तेल में हाथ डालने की या गरम ईंट पकड़ने की। ये पंच अपना फ़ायदा देखते हैं ऐसी चीज़ों में। औरत का चरितर ख़राब निकले तो भी पंचों की चाँदी, न निकले तो भी उनकी चाँदी। दोनों तरफ़ का पैसा उनको तो मिलता ही है।” वह दरवाज़े पर मुँह रख फुसफुसाया।
सुगना का मुँह कसैला हो गया। वह कुछ नहीं बोली, पर जोगी, वह तो तन-मन-धन का जोखिम उठा कर उसे लेने आया है… न सही धर्म, पर उसका राग बँधा था सुगना से। वह फिर तड़फड़ाया, “बाहर फटफटी खड़ी है, रोड पे… चुपचाप बाहर आ जा… झोंपड़ी के पीछे लंबी घास है… छिपकर पहुँच रोड पे। सुगना, ए सुगनीऽऽ क्या कहती है? क्या कहेगी पंचों से?”
“हाँ, जा-जा, जा के तू अपना काम देख। मुझे जो कहना होगा, कह दूँगी। अच्छा तो यह है कि रामकिसन और उसके घरवाले तुझे पैचाने उससे पहले ही चला जा।”
“मैं नहीं डरता उस लँगड़े और उसके घरवालों से। अब भी कह रहा हूँ।”
“जोगी तू जा, देख पंच तैयार खड़े हैं, फ़ैसले के लिए।”
“सुगनी, मत पकड़ना रे गरम ईंट… फफोले तो पड़ेंगे ही। चाहे तू सही हो के गल्त।” चीखते जोगी को धापू ने दूर तक ठेल दिया।
“इतनी बड़ी बातें बना रहा है, अब तक कहाँ था रे तू ?”
“अरे! गाइड हूँ, आज यहाँ तो कल टूरिस्ट जहाँ ले जावे उसके साथ।”
तभी बंसी भागता हुआ आया, “बाई तू हमारे साथ चल न। नंदू तो खाना नहीं खाता, तेरे बिना रोता रहता है। एक माँ भगवान ने छीनी अब ये दूसरी ये राँड दादी… इसी की करतूत है, बापू तो तुझे चाहता है बाई, रात को रोता था दादी के आगे।” सुगना ने अपना चेहरा घुटनों में छिपा लिया।
“बाई देख न इधर… ये बापू ने भेजा है… तेल है ये… क़ब्रों पर उगने वाले ग्वारपाठे और रेत की छिपकली का तेल मल ले हाथ पे… हाथ नहीं जलेगा, न फफोले होंगे। परसों चार घंटे साइकिल चलाकर सीमा पार के नज़दीक डटे हुए गाडियालोहारों से लाया है, बापू।”
लंबी शीशी के मुँह में ठुँसा कपड़ा खोल के ढेर सारा भूरा बदबूदार तेल सुगना की दोनों हथेलियों पर मलने लगा, बारह बरस का किशोर बंसी। आँधी में अपनी भेड़ें टेरता वो चरवाहा याद आ गया, यही कातरता थी स्वर में। सुगना की आँख भर आई।
पंचों ने आवाज़ लगाई। गर्भभार से क्लांत, पीले चेहरे वाली सुगना को देख रामकिसन सिसक उठा। सास उसे लानत भेजती रही।
पंचों ने सुगना को गरम ईंट पकड़ाने से पहले दरियाफ़्त की, “सुगना बाई… कठपुतली वाले रामकिसन के घरवालों का कहना है कि यह बच्चा उसका नहीं है… तुम क्या कहती हो?”
“यह बच्चा बंसी का ही भाई या बहन है। मुझे बंसी के बापू के साथ ही रहना है, और आप ही कहो क्या कहूँ?” सुगना ने दम बटोरकर कहा। रामकिसन ने गहरी साँस ली। जोगी ने अपने सिर को झटका दिया, और बड़बड़ाता हुआ बड़े-बड़े डग भरता हुआ पीछे को चला गया, जहाँ उसकी काली राजदूत फटफटी खड़ी थी—सुगना को ले जाने के लिए।
“कहो कि 'मैंने जो कहा वह सच है, मुझे मंज़ूर है अग्निपरीक्षा।’ सुगना बाई यह अग्निपरीक्षा औरत की मर्ज़ी से ही ली जाती है।” एक पंच बोला।
“बाई, अब नहीं करनी अग्निपरीक्षा, मैं मानता हूँ, यह बच्चा मेरा ही होगा।” रामकिसन बीच में आ खड़ा हुआ।
“चुपकर रे… रामकिसना… नसबंदी के ऑप्रेसन के बाद कोई बच्चा होता है? अग्निपरीक्षा तो होने दे। हाथ पे फफोले पड़े तो इसके मायके वाले या इसका प्रेमी या तो इसे ले जाएँ या चार हज़ार जुर्माना दें।” सास ने रामकिसन को यूँ धकियाया कि वह गिरते-गिरते बचा।
“तो मंज़ूर है सुगना बाई?”
सुगना ने उत्तर में तेल मले हाथ आगे कर दिए। एक पंच ने पान का एक-एक पत्ता उन नाज़ुक हथेलियों पर रखा और उन पर लाल, गरम ईंट रख दी गई… एक दो तीन पूरे सात मिनट… आठवें मिनट पर ईंट ज़मीन पर फेंक कर सुगना नीचे बैठ कर उल्टियाँ करने लगी। पान का पत्ता जलकर काला हो गया था। पास पड़ी पानी की बाल्टी में पाँच मिनट डुबो कर हथेलियाँ ऊपर उठा दीं उसने… फफोले नहीं पड़े थे…पर हथेलियाँ ताज़ी रची मेहँदी की तरह लाल सुर्ख़ थीं।
रेत का गुबार उड़ाती भीड़, शोर के साथ लौटने लगी। पंच फटकार रहे थे सास को।
बाई-बाई करके नंदू और बंसी आकर उसकी पीठ से चिपक गए। धीरे-धीरे हचक कर चलता हुआ रामकिसन उसकी ओर बढ़ रहा था।
रोड पर रफ़्तार से जाती फटफटी की आवाज़ सुगना के कानों में देर तक गूँजती रही।
- पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (2000-2010 ) (पृष्ठ 30)
- संपादक : कमला प्रसाद
- रचनाकार : मनीषा कुलश्रेष्ठ
- प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड
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