मेरी पाँच बरस की छोटी लड़की मिनी क्षण-भर भी बात किए बिना नहीं रह सकती। जन्म लेने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ़ एक ही साल लगाया होगा। उसके बाद जब तक वह जगी रहती है अपना एक मिनट का समय भी मौन में नष्ट नहीं करती। उसकी माँ अकसर डाँटकर उसका मुँह बंद कर देती है, किंतु मैं ऐसा नहीं कर पाता। मिनी का चुप रहना मुझे इतना अस्वाभाविक लगता है कि मैं ज़्यादा देर तक सहन नहीं कर पाता और यही कारण है कि मेरे साथ वह कुछ ज़्यादा उत्साह से ही बातचीत किया करती है।
सुबह मैंने अपने उपन्यास के सत्रहवें परिच्छेद को लिखना शुरू ही किया था कि मिनी आ गई और बोलने लगी, “बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वो काक को कौआ कहता था—वह कुछ जानता नहीं न बाबूजी?”
दुनिया की भाषाओं की भिन्नता के बारे में मेरे कुछ कहने के पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया, “देखो बाबूजी, भोला कहता था, आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ की बकवास बहुत करता है न? ख़ाली बक-बक किया करता है, रात-दिन बकता रहता है।”
इस विषय में मेरी राय जानने के लिए ज़रा भी इंतज़ार न करके वह चट से बड़े नरम स्वर में एक जटिल सवाल पूछ बैठी, “अच्छा बाबूजी, माँ तुम्हारी कौन लगती है?”
मैंने मन ही मन कहा, 'साली'। और मुँह से बोला, “मिनी, तू जा, जाकर भोला के साथ खेल। मुझे अभी कुछ काम है, अच्छा।”
तब उसने मेरी टेबल के बग़ल में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटनों और हाथों को हिला-हिलाकर जल्दी-जल्दी मुँह चलाकर 'अटकन-बटकन दही चटकन' खेलना शुरू कर दिया, जबकि मेरे उपन्यास के सत्रहवें परिच्छेद में प्रताप सिंह उस समय कंचनमाला को लेकर अँधेरी रात में कारागार के ऊँचे झरोखे से नीचे बहती हुई नदी में कूद रहा था।
मेरा घर सड़क के किनारे पर है। सहसा मिनी 'अटकल-बटकन' खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, “काबुलीवाला! ओ काबुलीवाला!”
मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर साफ़ा बाँधे, कंधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में दो-चार अँगूर की पिटारियाँ लिए एक लंबा-सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर बेटी के मन में कैसा भावोदय हुआ, यह बताना कठिन है। उसने ज़ोर से उसे पुकारना शुरू कर दिया। मैंने सोचा, अभी झोली कंधे में लटकाए एक आफ़त सिर पर आ खड़ी होगी और मेरा सत्रहवाँ परिच्छेद आज भी पूरा होने से रह जाएगा।
लेकिन मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी तरफ़ मुँह फेरा और वह मकान की तरफ़ आने लगा, त्यों ही मिनी जानबूझकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहाँ ग़ायब हो गई। उसके मन में एक अंधविश्वास-सा बैठ गया था कि उस झोली के अंदर तलाश करने पर उसकी जैसी और भी दो-चार जीती-जागती लड़कियाँ निकल आएँगी।
इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे सलाम किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, यद्यपि प्रतापसिंह और कंचनमाला की हालत अत्यंत संकटपूर्ण है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ न ख़रीदना अच्छा न होगा।
कुछ सामान ख़रीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। अब्दुर्रहमान, रूस, अंग्रेज़, सीमांत-रक्षा इत्यादि विषयों में गपशप होने लगी।
अंत में उठकर जाते वक़्त, उसने अपनी खिचड़ी भाषा में मुझसे पूछा, “बाबू साब, आपकी बिटिया कहाँ गई?”
मिनी के मन से बेकार का डर दूर करने के इरादे से मैंने उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिलकुल सटकर काबुली के मुँह और झोली की तरफ़ संदिग्ध दृष्टि से देखती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और ख़ूबानी निकालकर मिनी को देना चाहा, परंतु उसने कुछ भी नहीं लिया, बल्कि वह दूने संदेह के साथ मेरे घुटनों से चिपक गई। पहला परिचय कुछ इस तरह हुआ।
कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे किसी ज़रूरी काम से मैं बाहर जा रहा था। अचानक देखता हूँ कि मेरी बिटिया दरवाज़े के पास बेंच पर बैठी हुई काबुली से ख़ूब बातें कर रही है। काबुली उसके पैरों के पास बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ ध्यान से सब सुन रहा है और बीच-बीच में प्रसंगानुसार अपना मतामत भी खिचड़ी भाषा में व्यक्त करता जा रहा है। मिनी को अपने पाँच साल के जीवन में 'बाबूजी' के अलावा ऐसा धीरज वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो! देखा तो उसका छोटा-सा आँचल बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा, “इसे यह सब क्यों दिए? अब मत देना।” यह कहकर जेब से एक अठन्नी निकालकर उसे दे दी। उसने बिना किसी संकोच के अठन्नी लेकर अपनी झोली में डाल ली।
घर लौटकर मैंने देखा कि मेरी उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है। मिनी की माँ एक सफ़ेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए मिनी से पूछ रही है, “तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?”
मिनी ने रोने की तैयारी करते हुए कहा, “मैंने माँगी नहीं थी, उसने अपने आप दी है।”
मैंने आकर मिनी की उस आसन्न विपत्ति से रक्षा की और उसे बाहर ले आया।
पता चला कि उस काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही मुलाक़ात हो, ऐसी बात नहीं है। इस बीच वह रोज़ आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे-से हृदय पर उसने काफ़ी अधिकार जमा लिया है।
देखा कि इन दोनों मित्रों में कुछ बँधी हुई बातें और हँसी मौजूद है। जैसे रहमत को देखते ही मेरी बेटी हँसती हुई पूछती, “काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला, तुम्हारी झोली में क्या है?”
रहमत एक अनावश्यक चंद्रबिंदु जोड़कर हँसता हुआ उत्तर देता, “हाथी!” उसके परिहास का मर्म अत्यंत सूक्ष्म हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी इससे इन दोनों को ज़रा विशेष कौतुक होता लगता और शरद् ऋतु के प्रभाव में एक सयाने और एक बच्चे की सरल हँसी देखकर मुझे भी काफ़ी अच्छा लगता।
उनमें और भी एक-आध बातें सामान्य तौर पर होती थीं। रहमत मिनी से कहता, “तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा!”
हमारे यहाँ की लड़कियाँ जन्म से ही 'ससुराल' शब्द से परिचित होती हैं, किंतु हम लोग ज़रा कुछ नए ज़माने के होने के कारण छोटी-सी बच्ची को ससुराल के संबंध में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, इसलिए रहमत का अनुरोध वह साफ़-साफ़ नहीं समझ पाती थी, फिर भी किसी बात का जवाब दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिलकुल विरुद्ध था। उलटे वह रहमत से ही पूछती, “तुम ससुराल कब जाओगे?”
रहमत काल्पनिक ससुर के लिए अपना ज़बरदस्त मोटा घूँसा तानकर कहता, “हम ससुर को मारेगा।”
यह सुनकर मिनी किसी ससुर नामक अपरिचित जीव की दुरवस्था की कल्पना करके ख़ूब हँसती।
देखते-देखते शुभ्र शरऋतु आ पहुँची। प्राचीनकाल में इसी समय राजा-महाराजा दिग्विजय के लिए निकलते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसलिए मेरा मन पृथ्वी-भर में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर के कोने में चिरप्रवासी हूँ, बाहर की दुनिया के लिए मेरा मन सर्वदा चंचल रहता है। किसी विदेश का नाम सुनते ही मेरा चित्त वहीं के लिए दौड़ने लगता है। इसी तरह विदेशी आदमी को देखते ही तुरंत मेरा मन नदी-पर्वत-वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वाधीन जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।
दूसरी तरफ़ मैं ऐसा स्थावर प्रकृति हूँ कि अपना कोना छोड़कर घर से बाहर निकलने के नाम से मेरा शरीर काँपने लगता है। यही वजह है कि सवेरे के वक़्त अपने छोटे-से कमरे में टेबल के सामने बैठकर उस काबुली से बातें करके मैं बहुत कुछ भ्रमण का आनंद ले लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों तरफ़ ऊबड़-खाबड़ जले हुए लाल रंग के ऊँचे दुर्गम पहाड़ हैं और रेगिस्तानी सँकरा रास्ता—उस पर लदे हुए ऊँटों की क़तार जा रही है। साफ़ा बाँधे हुए सौदागर और मुसाफ़िर हैं। कोई ऊँट पर सवार है तो कोई पैदल ही जा रहा है। किसी के हाथ में बरछा है तो कोई बाबाआदम के ज़माने की पुरानी बंदूक़ लिए हुए है। मेघ गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपनी खिचड़ी भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।
मिनी की माँ का स्वभाव बड़ा शंकालु है। रास्ते में कोई शोरगुल हुआ नहीं कि उसने मान लिया कि दुनिया भर के सारे मतवाले-शराबी हमारे ही मकान की तरफ़ दौड़े आ रहे हैं। उसकी समझ से यह दुनिया इस छोर से लेकर उस छोर तक चोर-डकैत, मतवाले-शराबी, साँप-बाघ, मलेरिया, सूँआँ, तिलचट्टे और गोरों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए (बहुत ज़्यादा दिन नहीं हुए) इस दुनिया में रहते हुए फिर भी उसके मन का यह संशय दूर नहीं हुआ।
ख़ासकर रहमत काबुली की तरफ़ से वह पूरी तरह निश्चित नहीं थी। उस पर विशेष दृष्टि रखने के लिए मुझसे वह बार-बार कहती रहती। जब मैं उसका संदेह हँसी में उड़ा देना चाहता तो वह मुझसे एक साथ कई सवाल कर बैठती, “क्या कभी किसी का लड़का चुराया नहीं गया?” “क्या काबुल में ग़ुलाम नहीं बेचे जाते?” “एक लंबे-मोटे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे से बच्चे को चुरा ले जाना क्या बिलकुल असंभव बात है?” इत्यादि।
मुझे मानना पड़ता कि यह बात बिलकुल असंभव हो, ऐसा तो नहीं, परंतु विश्वास-योग्य नहीं। विश्वास करने की शक्ति सबमें समान नहीं होती, इसलिए मेरी पत्नी के मन में डर रह ही गया, लेकिन सिर्फ़ इसलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने मकान में आने से मैं मना नहीं कर सका।
हर वर्ष माघ के महीने में रहमत अपने देश चला जाता है। इस समय वह अपने ग्राहकों से रुपए वसूल करने के काम में बड़ा उद्विग्न रहता है। उसे घर-घर घूमना पड़ता है, मगर फिर भी वह मिनी से एक बार मिल ही जाता है। देखने में तो ठीक ऐसा ही लगता है कि दोनों में कोई षड्यंत्र चल रहा हो। जिस दिन वह सवेरे नहीं आ पाता, उस दिन शाम को हाज़िर हो जाता। अँधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने झोला-झोली वाले लंबे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में सहसा एक आशंका-सी पैदा हो जाती है।
परंतु जब देखता हूँ कि मिनी ‘काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला' पुकारती हँसती-हँसती दौड़ी आती है और दो अलग-अलग उम्र के असम मित्रों में वही पुराना सरल परिहास चलने लगता है तब मेरा संपूर्ण हृदय प्रसन्न हो उठता है।
एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ अपनी नई पुस्तक का प्रूफ़ देख रहा था। जाड़ा विदा होने से पहले दो-तीन दिनों से ख़ूब ज़ोरों से पड़ रहा था। जहाँ देखो वहाँ जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप टेबल के नीचे पैरों पर आ पड़ी तो उसकी गरमी मुझे आनंद-विभोर कर गई। क़रीब आठ बजे होंगे। सिर में गुलूबंद लपेटे प्रातः भ्रमण करने वाले अपना भ्रमण समाप्त करके लोग अपने-अपने घर की तरफ़ लौट रहे थे। ठीक इसी समय सड़क पर एक ज़ोरदार शोर सुनाई दिया।
देखता हूँ, अपने उसे रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए चले जा रहे हैं। उसके पीछे बहुत से कुतूहली लड़कों का झुंड चला जा रहा है। रहमत के कुरते पर ख़ून के दाग़ हैं और एक सिपाही के हाथ में ख़ून से सना हुआ छुरा। मैंने दरवाज़े से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया। पूछा, “क्या बात है?”
कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से रामपुरी चादरें ख़रीदी थीं। उसके कुछ रुपए उसकी तरफ़ बाक़ी थे, जिन्हें वह देने से नट गया। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर उसको भोंक दिया।
रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए तरह-तरह की अश्राव्य गालियाँ सुना रहा था। इतने में 'काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला' पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।
रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से प्रफुल्ल हो उठा। उसके कंधे पर आज झोली नहीं थी, इसलिए झोली के बारे में दोनों मित्रों में अभ्यस्त परिहास न चल सका। मिनी ने आते ही उससे पूछा, “तुम ससुराल जाओगे?”
रहमत ने हँसकर कहा, “हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।”
रहमत ताड़ गया कि उसका यह उत्तर मिनी के चेहरे पर हँसी नहीं ला सका है और तब उसने हाथ दिखाकर कहा, “ससुर को मारता, पर क्या करूँ, हाथ बँधे हुए हैं।”
छुरा चलाने के क़सूर में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।
काबुली का ख़याल धीरे-धीरे मन से बिलकुल उतर गया। हम लोग जब अपने घर में बैठकर हमेशा की आदत के अनुसार नित्य का काम-धंधा करते हुए आराम से दिन बिता रहे थे, तब एक स्वाधीन पर्वतारोही पुरुष जेल की दीवारों के अंदर बैठा कैसे साल पर साल बिता रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी आई ही नहीं।
और चंचल-हृदया मिनी का आचरण तो और भी लज्जाजनक था, यह बात उसके बाप को भी माननी पड़ी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ने लगी, वैसे-वैसे सखाओं के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगीं। और तो और अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी नहीं दिखाई देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ संबंध ही टूट गया है।
कितने ही साल बीत गए। सालों बाद आज फिर एक शरद् ऋतु आई है। मिनी की सगाई पक्की हो गई है। पूजा की छुट्टियों में ही उसकी शादी हो जाएगी। कैलासवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनंदमयी मिनी भी माँ-बाप के घर में अँधेरा करके सास-ससुर के घर चली जाएगी।
प्रभात का सूर्य बड़ी सुंदरता से उदित हुआ। वर्षा के बाद शरद् ऋतु की यह नई धुली धूप मानो सुहागे में पिघले निर्मल सोने की तरह रंग दे रही है। कलकत्ता की गलियों के भीतर परस्पर सटे हुए पुराने ईंट झरे गंदे मकानों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक तरह का अनुपम लावण्य फैला दिया है।
हमारे घर आज सुबह से ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे वह मेरे कलेजे की पसलियों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी आसन्न विच्छेद-व्यथा को शरद् ऋतु की धूप के साथ संपूर्ण विश्व जगत् में व्याप्त किए दे रही हो।
मेरी मिनी का आज ब्याह है।
सवेरे से भागदौड़ शुरू है। हर वक़्त लोगों का आना-जाना जारी है। आँगन में बाँस बाँधकर मंडप छाया जा रहा है। हर एक कमरे में और बरामदे में झाड़ लटकाए जा रहे हैं और उनकी टन-टन की आवाज़ मेरे कमरे में आ रही है। 'चलो रे', 'जल्दी करो', 'इधर आओ' की आवाज़ें गूँज रही हैं।
मैं तब अपने लिखने-पढ़ने के कमरे मैं बैठा हुआ ख़र्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और सलाम करके खड़ा हो गया।
पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी, न वैसे लंबे-लंबे बाल थे और न चेहरे पर पहले जैसा तेज़ ही था। अंत में उसकी मुस्कराहट देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।
मैंने पूछा, “क्यों रहमत, कब आए?”
उसने कहा, “कल शाम को जेल से छूटा हूँ।'
सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी ख़ूनी को मैंने कभी आँखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया। मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में यह आदमी यहाँ से चला जाए तो अच्छा हो।
मैंने उससे कहा, “आज हमारे घर में एक ज़रूरी काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ—फिर आना।”
मेरी बात सुनकर वह उसी समय जाने को तैयार हो गया। पर दरवाज़े के पास जाकर कुछ इधर-उधर करके बोला, “बच्ची को ज़रा नहीं देख सकता?”
शायद उसे विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा कि मिनी अब भी पहले की तरह 'काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला' चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के उस पुराने कौतुकजन्य हास्यालाप में किसी तरह की रुकावट नहीं होगी। यहाँ तक कि पहले की मित्रता याद करके वह एक पेटी अँगूर और एक काग़ज़ के दौनों में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग- मूँगकर लेता आया था। उसकी पहले की वह झोली उसके पास नहीं थी।
मैंने कहा, “आज घर में बहुत काम है। आज किसी से मुलाक़ात न हो सकेगी।”
मेरा जवाब सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। ख़ामोशी के साथ उसने एक बार मेरे मुँह की ओर स्थिर दृष्टि से देखा, फिर “सलाम बाबू साब,” कहकर दरवाज़े के बाहर निकल गया।
मेरे हृदय में न जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा तो वह ख़ुद ही आ रहा है।
पास आकर बोला, “ये अँगूर और कुछ किसमिस-बादाम बच्ची के लिए लाया था—उसको दे दीजिएगा।”
मैंने उसके हाथ से सामान लेकर उसे पैसे देने चाहे, पर उसने मेरा हाथ थाम लिया, कहने लगा, “आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साब, हमेशा याद रहेगी...पैसे रहने दीजिए।” ज़रा ठहरकर फिर बोला, “बाबू साब, आपकी जैसी मेरी भी देश में एक लड़की है। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं तो यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।”
कहते-कहते उसने अपने ढीले-ढाले कुरते के अंदर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला काग़ज़ का टुकड़ा निकाला और बड़े जतन से उसकी तह खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी टेबल पर रख दिया।
देखा कि काग़ज़ पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फ़ोटो नहीं, तैलचित्र नहीं, सिर्फ़ हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर काग़ज़ के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी लड़की की इस याददाश्त को छाती से लगाकर रहमत हर साल कलकत्ता की गली-कूचों में सौदा बेचने आता है, और तब यह कालिख-चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल स्पर्श उसके बिछुड़े हुए विशाल वक्षस्थल में सुधा उँड़ेलता रहता है।
देखकर मेरी आँखें भर आईं। और फिर इस बात को मैं बिलकुल ही भूल गया कि वह एक काबुली मेवावाला है और मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मैं महसूस करने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है, मैं भी एक बाप हूँ। उसकी पर्वतवासिनी छोटी-सी पार्वती के हाथ की निशानी मुझे मेरी ही मिनी की याद दिला दी। मैंने उसी वक़्त मिनी को बाहर बुलवाया। हालाँकि इस पर भीतर बहुत आपत्ति की गई, किंतु मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। ब्याह की पूरी पोशाक और ज़ेवर-गहने पहने हुए बेचारी वधू-वेशिनी मिनी मारे शर्म के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।
उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया, उससे पहले जैसी बातचीत करते न बना।
बाद में वह हँसता हुआ बोला, “लल्ली, सास के घर जा रही है क्या?”
मिनी अब सास के मानी समझने लगी है, लिहाज़ा अब उससे पहले की तरह जवाब देते न बना। रहमत की बात सुनकर मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा। उसने मुँह फेर लिया। मुझे उस दिन की बात याद आ गई, जब काबुली के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन में एक व्यथा-सी जाग उठी।
मिनी के चले जाने पर एक गहरी उसाँस भरकर वह ज़मीन पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी लड़की भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी होगी। शायद उसे अब वह ठीक पहले की-सी वैसी की वैसी न पाएगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने! सवेरे के वक़्त शरद् की स्निग्ध सूर्य-किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफ़ग़ानिस्तान के मरुपर्वत का दृश्य देखने लगा।
मैंने एक सौ का नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, “रहमत, तुम अपने देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।”
रहमत को रुपए देने के बाद ब्याह के हिसाब में से मुझे उत्सव समारोह के दो-एक अंग छाँटकर निकाल देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेज़ी बाजे भी नहीं आए। घर में औरतें ख़ूब नाराज़ हुईं। सब कुछ हुआ, फिर भी, मेरा ख़याल है कि आज एक अपूर्व मंगल प्रकाश से हमारा शुभ उत्सव उज्ज्वल हो उठा।
meri paanch baras ki chhoti laDki mini kshan bhar bhi baat kiye bina nahin rah sakti. janm lene ke baad bhasha sikhne mein usne sirf ek hi saal lagaya hoga. uske baad jab tak wo jagi rahti hai apna ek minat ka samay bhi maun mein nasht nahin karti. uski maan aksar Dantakar uska munh band kar deti hai, kintu main aisa nahin kar pata. mini ka chup rahna mujhe itna asvabhavik lagta hai ki main zyada der tak sahn nahin kar pata aur yahi karan hai ki mere saath wo kuch zyada utsaah se hi batachit kiya karti hai.
subah mainne apne upanyas ke satrahven parichchhed ko likhna shuru hi kiya tha ki mini aa gai aur bolne lagi, “babuji, ramadyal darban hai na, wo kaak ko kaua kahta tha—vah kuch janta nahin na babuji?”
duniya ki bhashaon ki bhinnata ke bare mein mere kuch kahne ke pahle hi usne dusra prsang chheD diya, “dekho babuji, bhola kahta tha, akash mein hathi soonD se pani phenkta hai isi se barsa hoti hai. achchha babuji, bhola jhooth mooth ki bakvas bahut karta hai na? khali bak bak kiya karta hai, raat din bakta rahta hai. ”
is vishay mein meri raay janne ke liye zara bhi intzaar na karke wo chat se baDe naram svar mein ek jatil saval poochh baithi, “achchha babuji, maan tumhari kaun lagti hai?”
mainne man hi man kaha, sali. aur munh se bola, “mini, tu ja, jakar bhola ke saath khel. mujhe abhi kuch kaam hai, achchha. ”
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mera ghar saDak ke kinare par hai. sahsa mini atkal batkan khel chhoDkar khiDki ke paas dauD gai aur baDe zor se chillane lagi, “kabulivala! o kabulivala!”
maile kuchaile Dhile kapDe pahne, sir par safa bandhe, kandhe par mevon ki jholi latkaye, haath mein do chaar angur ki pitariyan liye ek lamba sa kabuli dhimi chaal se saDak par ja raha tha. use dekhkar beti ke man mein kaisa bhavoday hua, ye batana kathin hai. usne zor se use pukarna shuru kar diya. mainne socha, abhi jholi kandhe mein latkaye ek aafat sir par aa khaDi hogi aur mera satrahvan parichchhed aaj bhi pura hone se rah jayega.
lekin mini ke chillane par jyon hi kabuli ne hanste hue uski taraf munh phera aur wo makan ki taraf aane laga, tyon hi mini janbujhkar bhitar bhaag gai. phir uska pata hi nahin laga ki kahan ghayab ho gai. uske man mein ek andhvishvas sa baith gaya tha ki us jholi ke andar talash karne par uski jaisi aur bhi do chaar jiti jagti laDkiyan nikal ayengi.
idhar kabuli ne aakar muskrate hue mujhe salam kiya aur khaDa ho gaya. mainne socha, yadyapi prtapsinh aur kanchanmala ki haalat atyant sankatpurn hai, phir bhi ghar mein bulakar isse kuch na kharidna achchha na hoga.
kuch saman kharida gaya. uske baad main usse idhar udhar ki baten karne laga. abdurrahman, roos, angrez, simant raksha ityadi vishyon mein gapshap hone lagi.
mini ke man se bekar ka Dar door karne ke irade se mainne use bhitar se bulva liya. wo mujhse bilkul satkar kabuli ke munh aur jholi ki taraf sandigdh drishti se dekhti hui khaDi rahi. kabuli ne jholi mein se kismis aur khubani nikalkar mini ko dena chaha, parantu usne kuch bhi nahin liya, balki wo dune sandeh ke saath mere ghutnon se chipak gai. pahla parichay kuch is tarah hua.
kuch din baad ek din savere kisi zaruri kaam se main bahar ja raha tha. achanak dekhta hoon ki meri bitiya darvaze ke paas bench par baithi hui kabuli se khoob baten kar rahi hai. kabuli uske pairon ke paas baitha baitha muskrata hua dhyaan se sab sun raha hai aur beech beech mein prsanganusar apna matamat bhi khichDi bhasha mein vyakt karta ja raha hai. mini ko apne paanch saal ke jivan mein babuji ke alava aisa dhiraj vala shrota shayad hi kabhi mila ho! dekha to uska chhota sa anchal badam kismis se bhara hua hai. mainne kabuli se kaha, “ise ye sab kyon diye? ab mat dena. ” ye kahkar jeb se ek athanni nikalkar use de di.
usne bina kisi sankoch ke athanni lekar apni jholi mein Daal li.
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pata chala ki us kabuli ke saath mini ki ye dusri hi mulaqat ho, aisi baat nahin hai. is beech wo roz aata raha hai aur pista badam ki rishvat de dekar mini ke chhote se hriday par usne kafi adhikar jama liya hai.
dekha ki in donon mitron mein kuch bandhi hui baten aur hansi maujud hai. jaise rahmat ko dekhte hi meri beti hansti hui puchhti, “kabulivala, o kabulivala, tumhari jholi mein kya hai?”
rahmat ek anavashyak chandrbindu joDkar hansta hua uttar deta, “hathi!” uske parihas ka marm atyant sookshm ho, aisa to nahin kaha ja sakta, phir bhi isse in donon ko zara vishesh kautuk hota lagta aur sharad ritu ke prabhav mein ek sayane aur ek bachche ki saral hansi dekhkar mujhe bhi kafi achchha lagta.
unmen aur bhi ek aadh baten samanya taur par hoti theen. rahmat mini se kahta, “tum sasural kabhi nahin jana, achchha!”
hamare yahan ki laDkiyan janm se hi sasural shabd se parichit hoti hain, kintu hum log zara kuch ne zamane ke hone ke karan chhoti si bachchi ko sasural ke sambandh mein vishesh gyani nahin bana sake the, isliye rahmat ka anurodh wo saaf saaf nahin samajh pati thi, phir bhi kisi baat ka javab diye bina chup rahna uske svbhaav ke bilkul viruddh tha. ulte wo rahmat se hi puchhti, “tum sasural kab jaoge?”
rahmat kalpanik sasur ke liye apna zabardast mota ghunsa tankar kahta, “ham sasur ko marega. ”
ye sunkar mini kisi sasur namak aprichit jeev ki durvastha ki kalpana karke khoob hansti.
dekhte dekhte shubhr sharritu aa pahunchi. prachinkal mein isi samay raja maharaja digvijay ke liye nikalte the. main kalkatta chhoDkar kabhi kahin nahin gaya, shayad isliye mera man prithvi bhar mein ghuma karta hai. yani, main apne ghar ke kone mein chiraprvasi hoon, bahar ki duniya ke liye mera man sarvada chanchal rahta hai. kisi videsh ka naam sunte hi mera chitt vahin ke liye dauDne lagta hai. isi tarah videshi adami ko dekhte hi turant mera man nadi parvat van ke beech mein ek kutir ka drishya dekhne lagta hai aur ek ullaspurn svadhin jivan yatra ki baat kalpana mein jaag uthti hai.
dusri taraf main aisa sthavar prkriti hoon ki apna kona chhoDkar ghar se bahar nikalne ke naam se mera sharir kanpne lagta hai. yahi vajah hai ki savere ke vaqt apne chhote se kamre mein tebal ke samne baithkar us kabuli se baten karke main bahut kuch bhrman ka anand le liya karta hoon. mere samne kabul ka pura chitr khinch jata. donon taraf uubaD khabaD jale hue laal rang ke uunche durgam pahaD hain aur registani sankra rasta—us par lade hue uunton ki qatar ja rahi hai. safa bandhe hue saudagar aur musafir hain. koi uunt par savar hai to koi paidal hi ja raha
hai. kisi ke haath mein barchha hai to koi babaadam ke zamane ki purani banduk liye hue hai. megh garjan ke svar mein kabuli log apni khichDi bhasha mein apne desh ki baten kar rahe hain.
mini ki maan ka svbhaav baDa shankalu hai. raste mein koi shorgul hua nahin ki usne maan liya ki duniya bhar ke sare matvale sharabi hamare hi makan ki taraf dauDe aa rahe hain. uski samajh se ye duniya is chhor se lekar us chhor tak chor Dakait, matvale sharabi, saanp baagh, maleriya, sunan, tilchatte aur goron se bhari paDi hai. itne din hue (bahut zyada din nahin hue) is duniya mein rahte hue phir bhi uske man ka ye sanshay door nahin hua.
khaskar rahmat kabuli ki taraf se wo puri tarah nishchit nahin thi. us par vishesh drishti rakhne ke liye mujhse wo baar baar kahti rahti. jab main uska sandeh hansi mein uDa dena chahta to wo mujhse ek saath kai saval kar baithti, “kya kabhi kisi ka laDka churaya nahin gaya?” “kya kabul mein ghulam nahin beche jate?” “ek lambe mote tagDe kabuli ke liye ek chhote se bachche ko chura le jana kya bilkul asambhav baat hai?” ityadi.
mujhe manna paDta ki ye baat bilkul asambhav ho, aisa to nahin, parantu vishvas yogya nahin. vishvas karne ki shakti sabmen saman nahin hoti, isliye meri patni ke man mein Dar rah hi gaya, lekin sirf isliye bina kisi dosh ke rahmat ko apne makan mein aane se main mana nahin kar saka.
har varsh maagh ke mahine mein rahmat apne desh chala jata hai. is samay wo apne grahkon se rupe vasul karne ke kaam mein baDa udvign rahta hai. use ghar ghar ghumna paDta hai, magar phir bhi wo mini se ek baar mil hi jata hai. dekhne mein to theek aisa hi lagta hai ki donon mein koi shaDyantr chal raha ho. jis din wo savere nahin aa pata, us din shaam ko hazir ho jata. andhere mein ghar ke kone mein us Dhile Dhale jama pajama pahne jhola jholi vale lambe tagDe adami ko dekhkar sachmuch hi man mein sahsa ek ashanka si paida ho jati hai.
parantu jab dekhta hoon ki mini ‘kabulivala, o kabulivala pukarti hansti hansti dauDi aati hai aur do alag alag umr ke asam mitron mein vahi purana saral parihas chalne lagta hai tab mera sampurn hriday prasann ho uthta hai.
ek din savere main apne chhote kamre mein baitha hua apni nai pustak ka proof dekh raha tha. jaDa vida hone se pahle do teen dinon se khoob zoron se paD raha tha. jahan dekho vahan jaDe ki hi charcha hai. aise jaDe pale mein khiDki mein se savere ki dhoop tebal ke niche pairon par aa paDi to uski garmi mujhe anand vibhor kar gai. qarib aath baje honge. sir mein guluband lapete praatः bhrman karne vale apna bhrman samapt karke log apne apne ghar ki taraf laut rahe the. theek isi samay saDak par ek zordar shor sunai diya.
dekhta hoon, apne use rahmat ko do sipahi bandhe liye chale ja rahe hain. uske pichhe bahut se kutuhali laDkon ka jhunD chala ja raha hai. rahmat ke kurte par khoon ke daagh hain aur ek sipahi ke haath mein khoon se sana hua chhura. mainne darvaze se bahar nikalkar sipahi ko rok liya. puchha, “kya baat hai?”
kuch sipahi se aur kuch rahmat ke munh se suna ki hamare paDos mein rahne vale ek adami ne rahmat se ramapuri chadren kharidi theen. uske kuch rupe uski taraf baki the, jinhen wo dene se nat gaya. bas, isi par donon mein baat baDh gai aur rahmat ne chhura nikalkar usko bhonk diya.
rahmat us jhuthe beiman adami ke liye tarah tarah ki ashravya galiyan suna raha tha. itne mein kabulivala, o kabulivala pukarti hui mini ghar se nikal aai.
rahmat ka chehra kshan bhar mein kautuk hasya se praphull ho utha. uske kandhe par aaj jholi nahin thi, isliye jholi ke bare mein donon mitron mein abhyast parihas na chal saka. mini ne aate hi usse puchha, “tum sasural jaoge?”
rahmat ne hansakar kaha, “haan, vahin to ja raha hoon. ”
rahmat taaD gaya ki uska ye uttar mini ke chehre par hansi nahin la saka hai aur tab usne haath dikhakar kaha, “sasur ko marta, par kya karun, haath bandhe hue hain. ”
chhura chalane ke qasur mein rahmat ko kai saal ki saza ho gai.
kabuli ka khayal dhire dhire man se bilkul utar gaya. hum log jab apne ghar mein baithkar hamesha ki aadat ke anusar nitya ka kaam dhandha karte hue aram se din bita rahe the, tab ek svadhin parvatarohi purush jel ki divaron ke andar baitha kaise saal par saal bita raha hoga, ye baat hamare man mein kabhi aai hi nahin.
aur chanchal hridya mini ka achran to aur bhi lajjajanak tha, ye baat uske baap ko bhi manni paDi. usne sahj hi apne purane mitr ko bhulkar pahle to nabi sais ke saath mitrata joDi, phir kramshah jaise jaise uski umr baDhne lagi, vaise vaise sakhaon ke badle ek ke baad ek uski sakhiyan jutne lagin. aur to aur ab wo apne babuji ke likhne ke kamre mein bhi nahin dikhai deti. mera to ek tarah se uske saath sambandh hi toot gaya hai.
kitne hi saal beet ge. salon baad aaj phir ek sharad ritu aai hai. mini ki sagai pakki ho gai hai. puja ki chhuttiyon mein hi uski shadi ho jayegi. kailasvasini ke saath saath abki baar hamare ghar ki anandamyi mini bhi maan baap ke ghar mein andhera karke saas sasur ke ghar chali jayegi.
parbhat ka surya baDi sundarta se udit hua. varsha ke baad sharad ritu ki ye nai dhuli dhoop mano suhage mein pighle nirmal sone ki tarah rang de rahi hai. kalkatta ki galiyon ke bhitar paraspar sate hue purane iint jhare gande makanon ke uupar bhi is dhoop ki aabha ne ek tarah ka anupam lavanya phaila diya hai.
hamare ghar aaj subah se hi shahnai baj rahi hai. mujhe aisa lag raha hai jaise wo mere kaleje ki pasaliyon mein se ro rokar baj rahi ho. uski karun bhairavi ragini mano meri asann vichchhed vyatha ko sharad ritu ki dhoop ke saath sampurn vishv jagat mein vyaapt kiye de rahi ho.
meri mini ka aaj byaah hai.
savere se bhagdauD shuru hai. har vaqt logon ka aana jana jari hai. angan mein baans bandhakar manDap chhaya ja raha hai. har ek kamre mein aur baramde mein jhaaD latkaye ja rahe hain aur unki tan tan ki avaz mere kamre mein aa rahi hai. chalo re, jaldi karo, idhar aao ki avazen goonj rahi hain.
main tab apne likhne paDhne ke kamre main baitha hua kharch ka hisab likh raha tha. itne mein rahmat aaya aur salam karke khaDa ho gaya.
pahle to main use pahchan hi na saka. uske paas na to jholi thi, na vaise lambe lambe baal the aur na chehre par pahle jaisa tez hi tha. ant mein uski muskrahat dekhkar pahchan saka ki wo rahmat hai.
mainne puchha, “kyon rahmat, kab aye?”
usne kaha, “kal shaam ko jel se chhuta hoon.
sunte hi uske shabd mere kanon mein khat se baj uthe. kisi khuni ko mainne kabhi ankhon se nahin dekha tha, use dekhkar mera sara man ekayek sikuD sa gaya. meri yahi ichchha hone lagi ki aaj ke is shubh din mein ye adami yahan se chala jaye to achchha ho.
mainne usse kaha, “aaj hamare ghar mein ek zaruri kaam hai, so aaj main usmen laga hua hoon. aaj tum jao—phir aana. ”
meri baat sunkar wo usi samay jane ko taiyar ho gaya. par darvaze ke paas jakar kuch idhar udhar karke bola, “bachchi ko zara nahin dekh sakta?”
shayad use vishvas tha ki mini ab tak vaisi hi bachchi bani hai. usne socha ki mini ab bhi pahle ki tarah kabulivala, o kabulivala chillati hui dauDi chali ayegi. un donon ke us purane kautukjanya hasyalap mein kisi tarah ki rukavat nahin hogi. yahan tak ki pahle ki mitrata yaad karke wo ek peti angur aur ek kaghaz ke daunon mein thoDi si kismis aur badam, shayad apne desh ke kisi adami se maang mungakar leta aaya tha. uski pahle ki wo jholi uske paas nahin thi.
mainne kaha, “aaj ghar mein bahut kaam hai. aaj kisi se mulaqat na ho sakegi. ”
mera javab sunkar wo kuch udaas sa ho gaya. khamoshi ke saath usne ek baar mere munh ki or sthir drishti se dekha, phir “salam babu saab,” kahkar darvaze ke bahar nikal gaya.
mere hriday mein na jane kaisi ek vedna si uthi. main soch hi raha tha ki use bulaun, itne mein dekha to wo khud hi aa raha hai.
paas aakar bola, “ye angur aur kuch kismis badam bachchi ke liye laya tha—usko de dijiyega. ”
mainne uske haath se saman lekar use paise dene chahe, par usne mera haath thaam liya, kahne laga, “apaki bahut mehrbani hai babu saab, hamesha yaad rahegi. . . paise rahne dijiye. ” zara thaharkar phir bola, “babu saab, apaki jaisi meri bhi desh mein ek laDki hai. main uski yaad kar karke apaki bachchi ke liye thoDi si meva haath mein le aaya karta hoon. main to yahan sauda bechne nahin aata. ”
kahte kahte usne apne Dhile Dhale kurte ke andar haath Dalkar chhati ke paas se ek maila kuchaila kaghaz ka tukDa nikala aur baDe jatan se uski tah kholkar donon hathon se use phailakar meri tebal par rakh diya.
dekha ki kaghaz par ek nanhen se haath ke chhote se panje ki chhaap hai. foto nahin, tailachitr nahin, sirf haath mein thoDi si kalikh lagakar kaghaz ke uupar usi ka nishan le liya gaya hai. apni laDki ki is yadadasht ko chhati se lagakar rahmat har saal kalkatta ki gali kuchon mein sauda bechne aata hai, aur tab ye kalikh chitr mano uski bachchi ke haath ka komal sparsh uske bichhuDe hue vishal vakshasthal mein sudha unDelata rahta hai.
dekhkar meri ankhen bhar ain. aur phir is baat ko main bilkul hi bhool gaya ki wo ek kabuli mevavala hai aur main ek uchch vansh ka rais hoon. tab main mahsus karne laga ki jo wo hai, vahi main hoon. wo bhi ek baap hai, main bhi ek baap hoon. uski parvatvasini chhoti si parvati ke haath ki nishani mujhe meri hi mini ki yaad dila di. mainne usi vaqt mini ko bahar bulvaya. halanki is par bhitar bahut apatti ki gai, kintu mainne us par kuch bhi dhyaan nahin diya. byaah ki puri poshak aur zevar gahne pahne hue bechari vadhu veshini mini mare sharm ke sikuDi hui si mere paas aakar khaDi ho gai.
use dekhkar rahmat kabuli pahle to sakapka gaya, usse pahle jaisi batachit karte na bana.
baad mein wo hansta hua bola, “lalli, saas ke ghar ja rahi hai kyaa?”
mini ab saas ke mani samajhne lagi hai, lihaza ab usse pahle ki tarah javab dete na bana. rahmat ki baat sunkar mare sharam ke uska munh laal ho utha. usne munh pher liya. mujhe us din ki baat yaad aa gai, jab kabuli ke saath mini ka pratham parichay hua tha. man mein ek vyatha si jaag uthi.
mini ke chale jane par ek gahri usaans bharkar wo zamin par baith gaya. shayad uski samajh mein ye baat ekayek aspasht ho uthi ki uski laDki bhi itne dinon mein baDi ho gai hogi, aur uske saath bhi use ab phir se nai jaan pahchan karni hogi. shayad use ab wo theek pahle ki si vaisi ki vaisi na payega. in aath varshon mein uska kya hua hoga, kaun jane! savere ke vaqt sharad ki snigdh surya kirnon mein shahnai bajne lagi aur rahmat kalkatta ki ek gali ke bhitar baitha hua afghanistan ke maruparvat ka drishya dekhne laga.
mainne ek sau ka not nikalkar uske haath mein diya aur kaha, “rahmat, tum apne desh chale jao, apni laDki ke paas. tum donon ke milan sukh se meri mini sukh payegi. ”
rahmat ko rupe dene ke baad byaah ke hisab mein se mujhe utsav samaroh ke do ek ang chhantakar nikal dene paDe. jaisi man mein thi, vaisi roshni nahin kara saka, angrezi baje bhi nahin aaye. ghar mein aurten khoob naraz huin. sab kuch hua, phir bhi, mera khayal hai ki aaj ek apurv mangal parkash se hamara shubh utsav ujjval ho utha.
meri paanch baras ki chhoti laDki mini kshan bhar bhi baat kiye bina nahin rah sakti. janm lene ke baad bhasha sikhne mein usne sirf ek hi saal lagaya hoga. uske baad jab tak wo jagi rahti hai apna ek minat ka samay bhi maun mein nasht nahin karti. uski maan aksar Dantakar uska munh band kar deti hai, kintu main aisa nahin kar pata. mini ka chup rahna mujhe itna asvabhavik lagta hai ki main zyada der tak sahn nahin kar pata aur yahi karan hai ki mere saath wo kuch zyada utsaah se hi batachit kiya karti hai.
subah mainne apne upanyas ke satrahven parichchhed ko likhna shuru hi kiya tha ki mini aa gai aur bolne lagi, “babuji, ramadyal darban hai na, wo kaak ko kaua kahta tha—vah kuch janta nahin na babuji?”
duniya ki bhashaon ki bhinnata ke bare mein mere kuch kahne ke pahle hi usne dusra prsang chheD diya, “dekho babuji, bhola kahta tha, akash mein hathi soonD se pani phenkta hai isi se barsa hoti hai. achchha babuji, bhola jhooth mooth ki bakvas bahut karta hai na? khali bak bak kiya karta hai, raat din bakta rahta hai. ”
is vishay mein meri raay janne ke liye zara bhi intzaar na karke wo chat se baDe naram svar mein ek jatil saval poochh baithi, “achchha babuji, maan tumhari kaun lagti hai?”
mainne man hi man kaha, sali. aur munh se bola, “mini, tu ja, jakar bhola ke saath khel. mujhe abhi kuch kaam hai, achchha. ”
tab usne meri tebal ke baghal mein pairon ke paas baithkar apne donon ghutnon aur hathon ko hila hilakar jaldi jaldi munh chalakar atkan batkan dahi chatkan khelna shuru kar diya, jabki mere upanyas ke satrahven parichchhed mein pratap sinh us samay kanchanmala ko lekar andheri raat mein karagar ke uunche jharokhe se niche bahti hui nadi mein kood raha tha.
mera ghar saDak ke kinare par hai. sahsa mini atkal batkan khel chhoDkar khiDki ke paas dauD gai aur baDe zor se chillane lagi, “kabulivala! o kabulivala!”
maile kuchaile Dhile kapDe pahne, sir par safa bandhe, kandhe par mevon ki jholi latkaye, haath mein do chaar angur ki pitariyan liye ek lamba sa kabuli dhimi chaal se saDak par ja raha tha. use dekhkar beti ke man mein kaisa bhavoday hua, ye batana kathin hai. usne zor se use pukarna shuru kar diya. mainne socha, abhi jholi kandhe mein latkaye ek aafat sir par aa khaDi hogi aur mera satrahvan parichchhed aaj bhi pura hone se rah jayega.
lekin mini ke chillane par jyon hi kabuli ne hanste hue uski taraf munh phera aur wo makan ki taraf aane laga, tyon hi mini janbujhkar bhitar bhaag gai. phir uska pata hi nahin laga ki kahan ghayab ho gai. uske man mein ek andhvishvas sa baith gaya tha ki us jholi ke andar talash karne par uski jaisi aur bhi do chaar jiti jagti laDkiyan nikal ayengi.
idhar kabuli ne aakar muskrate hue mujhe salam kiya aur khaDa ho gaya. mainne socha, yadyapi prtapsinh aur kanchanmala ki haalat atyant sankatpurn hai, phir bhi ghar mein bulakar isse kuch na kharidna achchha na hoga.
kuch saman kharida gaya. uske baad main usse idhar udhar ki baten karne laga. abdurrahman, roos, angrez, simant raksha ityadi vishyon mein gapshap hone lagi.
mini ke man se bekar ka Dar door karne ke irade se mainne use bhitar se bulva liya. wo mujhse bilkul satkar kabuli ke munh aur jholi ki taraf sandigdh drishti se dekhti hui khaDi rahi. kabuli ne jholi mein se kismis aur khubani nikalkar mini ko dena chaha, parantu usne kuch bhi nahin liya, balki wo dune sandeh ke saath mere ghutnon se chipak gai. pahla parichay kuch is tarah hua.
kuch din baad ek din savere kisi zaruri kaam se main bahar ja raha tha. achanak dekhta hoon ki meri bitiya darvaze ke paas bench par baithi hui kabuli se khoob baten kar rahi hai. kabuli uske pairon ke paas baitha baitha muskrata hua dhyaan se sab sun raha hai aur beech beech mein prsanganusar apna matamat bhi khichDi bhasha mein vyakt karta ja raha hai. mini ko apne paanch saal ke jivan mein babuji ke alava aisa dhiraj vala shrota shayad hi kabhi mila ho! dekha to uska chhota sa anchal badam kismis se bhara hua hai. mainne kabuli se kaha, “ise ye sab kyon diye? ab mat dena. ” ye kahkar jeb se ek athanni nikalkar use de di.
usne bina kisi sankoch ke athanni lekar apni jholi mein Daal li.
ghar lautkar mainne dekha ki meri us athanni ne baDa bhari upadrav khaDa kar diya hai. mini ki maan ek safed chamkila golakar padarth haath mein liye mini se poochh rahi hai, “tune ye athanni pai kahan se, bata?”
mini ne rone ki taiyari karte hue kaha, “mainne mangi nahin thi, usne apne aap di hai. ”
mainne aakar mini ki us asann vipatti se raksha ki aur use bahar le aaya.
pata chala ki us kabuli ke saath mini ki ye dusri hi mulaqat ho, aisi baat nahin hai. is beech wo roz aata raha hai aur pista badam ki rishvat de dekar mini ke chhote se hriday par usne kafi adhikar jama liya hai.
dekha ki in donon mitron mein kuch bandhi hui baten aur hansi maujud hai. jaise rahmat ko dekhte hi meri beti hansti hui puchhti, “kabulivala, o kabulivala, tumhari jholi mein kya hai?”
rahmat ek anavashyak chandrbindu joDkar hansta hua uttar deta, “hathi!” uske parihas ka marm atyant sookshm ho, aisa to nahin kaha ja sakta, phir bhi isse in donon ko zara vishesh kautuk hota lagta aur sharad ritu ke prabhav mein ek sayane aur ek bachche ki saral hansi dekhkar mujhe bhi kafi achchha lagta.
unmen aur bhi ek aadh baten samanya taur par hoti theen. rahmat mini se kahta, “tum sasural kabhi nahin jana, achchha!”
hamare yahan ki laDkiyan janm se hi sasural shabd se parichit hoti hain, kintu hum log zara kuch ne zamane ke hone ke karan chhoti si bachchi ko sasural ke sambandh mein vishesh gyani nahin bana sake the, isliye rahmat ka anurodh wo saaf saaf nahin samajh pati thi, phir bhi kisi baat ka javab diye bina chup rahna uske svbhaav ke bilkul viruddh tha. ulte wo rahmat se hi puchhti, “tum sasural kab jaoge?”
rahmat kalpanik sasur ke liye apna zabardast mota ghunsa tankar kahta, “ham sasur ko marega. ”
ye sunkar mini kisi sasur namak aprichit jeev ki durvastha ki kalpana karke khoob hansti.
dekhte dekhte shubhr sharritu aa pahunchi. prachinkal mein isi samay raja maharaja digvijay ke liye nikalte the. main kalkatta chhoDkar kabhi kahin nahin gaya, shayad isliye mera man prithvi bhar mein ghuma karta hai. yani, main apne ghar ke kone mein chiraprvasi hoon, bahar ki duniya ke liye mera man sarvada chanchal rahta hai. kisi videsh ka naam sunte hi mera chitt vahin ke liye dauDne lagta hai. isi tarah videshi adami ko dekhte hi turant mera man nadi parvat van ke beech mein ek kutir ka drishya dekhne lagta hai aur ek ullaspurn svadhin jivan yatra ki baat kalpana mein jaag uthti hai.
dusri taraf main aisa sthavar prkriti hoon ki apna kona chhoDkar ghar se bahar nikalne ke naam se mera sharir kanpne lagta hai. yahi vajah hai ki savere ke vaqt apne chhote se kamre mein tebal ke samne baithkar us kabuli se baten karke main bahut kuch bhrman ka anand le liya karta hoon. mere samne kabul ka pura chitr khinch jata. donon taraf uubaD khabaD jale hue laal rang ke uunche durgam pahaD hain aur registani sankra rasta—us par lade hue uunton ki qatar ja rahi hai. safa bandhe hue saudagar aur musafir hain. koi uunt par savar hai to koi paidal hi ja raha
hai. kisi ke haath mein barchha hai to koi babaadam ke zamane ki purani banduk liye hue hai. megh garjan ke svar mein kabuli log apni khichDi bhasha mein apne desh ki baten kar rahe hain.
mini ki maan ka svbhaav baDa shankalu hai. raste mein koi shorgul hua nahin ki usne maan liya ki duniya bhar ke sare matvale sharabi hamare hi makan ki taraf dauDe aa rahe hain. uski samajh se ye duniya is chhor se lekar us chhor tak chor Dakait, matvale sharabi, saanp baagh, maleriya, sunan, tilchatte aur goron se bhari paDi hai. itne din hue (bahut zyada din nahin hue) is duniya mein rahte hue phir bhi uske man ka ye sanshay door nahin hua.
khaskar rahmat kabuli ki taraf se wo puri tarah nishchit nahin thi. us par vishesh drishti rakhne ke liye mujhse wo baar baar kahti rahti. jab main uska sandeh hansi mein uDa dena chahta to wo mujhse ek saath kai saval kar baithti, “kya kabhi kisi ka laDka churaya nahin gaya?” “kya kabul mein ghulam nahin beche jate?” “ek lambe mote tagDe kabuli ke liye ek chhote se bachche ko chura le jana kya bilkul asambhav baat hai?” ityadi.
mujhe manna paDta ki ye baat bilkul asambhav ho, aisa to nahin, parantu vishvas yogya nahin. vishvas karne ki shakti sabmen saman nahin hoti, isliye meri patni ke man mein Dar rah hi gaya, lekin sirf isliye bina kisi dosh ke rahmat ko apne makan mein aane se main mana nahin kar saka.
har varsh maagh ke mahine mein rahmat apne desh chala jata hai. is samay wo apne grahkon se rupe vasul karne ke kaam mein baDa udvign rahta hai. use ghar ghar ghumna paDta hai, magar phir bhi wo mini se ek baar mil hi jata hai. dekhne mein to theek aisa hi lagta hai ki donon mein koi shaDyantr chal raha ho. jis din wo savere nahin aa pata, us din shaam ko hazir ho jata. andhere mein ghar ke kone mein us Dhile Dhale jama pajama pahne jhola jholi vale lambe tagDe adami ko dekhkar sachmuch hi man mein sahsa ek ashanka si paida ho jati hai.
parantu jab dekhta hoon ki mini ‘kabulivala, o kabulivala pukarti hansti hansti dauDi aati hai aur do alag alag umr ke asam mitron mein vahi purana saral parihas chalne lagta hai tab mera sampurn hriday prasann ho uthta hai.
ek din savere main apne chhote kamre mein baitha hua apni nai pustak ka proof dekh raha tha. jaDa vida hone se pahle do teen dinon se khoob zoron se paD raha tha. jahan dekho vahan jaDe ki hi charcha hai. aise jaDe pale mein khiDki mein se savere ki dhoop tebal ke niche pairon par aa paDi to uski garmi mujhe anand vibhor kar gai. qarib aath baje honge. sir mein guluband lapete praatः bhrman karne vale apna bhrman samapt karke log apne apne ghar ki taraf laut rahe the. theek isi samay saDak par ek zordar shor sunai diya.
dekhta hoon, apne use rahmat ko do sipahi bandhe liye chale ja rahe hain. uske pichhe bahut se kutuhali laDkon ka jhunD chala ja raha hai. rahmat ke kurte par khoon ke daagh hain aur ek sipahi ke haath mein khoon se sana hua chhura. mainne darvaze se bahar nikalkar sipahi ko rok liya. puchha, “kya baat hai?”
kuch sipahi se aur kuch rahmat ke munh se suna ki hamare paDos mein rahne vale ek adami ne rahmat se ramapuri chadren kharidi theen. uske kuch rupe uski taraf baki the, jinhen wo dene se nat gaya. bas, isi par donon mein baat baDh gai aur rahmat ne chhura nikalkar usko bhonk diya.
rahmat us jhuthe beiman adami ke liye tarah tarah ki ashravya galiyan suna raha tha. itne mein kabulivala, o kabulivala pukarti hui mini ghar se nikal aai.
rahmat ka chehra kshan bhar mein kautuk hasya se praphull ho utha. uske kandhe par aaj jholi nahin thi, isliye jholi ke bare mein donon mitron mein abhyast parihas na chal saka. mini ne aate hi usse puchha, “tum sasural jaoge?”
rahmat ne hansakar kaha, “haan, vahin to ja raha hoon. ”
rahmat taaD gaya ki uska ye uttar mini ke chehre par hansi nahin la saka hai aur tab usne haath dikhakar kaha, “sasur ko marta, par kya karun, haath bandhe hue hain. ”
chhura chalane ke qasur mein rahmat ko kai saal ki saza ho gai.
kabuli ka khayal dhire dhire man se bilkul utar gaya. hum log jab apne ghar mein baithkar hamesha ki aadat ke anusar nitya ka kaam dhandha karte hue aram se din bita rahe the, tab ek svadhin parvatarohi purush jel ki divaron ke andar baitha kaise saal par saal bita raha hoga, ye baat hamare man mein kabhi aai hi nahin.
aur chanchal hridya mini ka achran to aur bhi lajjajanak tha, ye baat uske baap ko bhi manni paDi. usne sahj hi apne purane mitr ko bhulkar pahle to nabi sais ke saath mitrata joDi, phir kramshah jaise jaise uski umr baDhne lagi, vaise vaise sakhaon ke badle ek ke baad ek uski sakhiyan jutne lagin. aur to aur ab wo apne babuji ke likhne ke kamre mein bhi nahin dikhai deti. mera to ek tarah se uske saath sambandh hi toot gaya hai.
kitne hi saal beet ge. salon baad aaj phir ek sharad ritu aai hai. mini ki sagai pakki ho gai hai. puja ki chhuttiyon mein hi uski shadi ho jayegi. kailasvasini ke saath saath abki baar hamare ghar ki anandamyi mini bhi maan baap ke ghar mein andhera karke saas sasur ke ghar chali jayegi.
parbhat ka surya baDi sundarta se udit hua. varsha ke baad sharad ritu ki ye nai dhuli dhoop mano suhage mein pighle nirmal sone ki tarah rang de rahi hai. kalkatta ki galiyon ke bhitar paraspar sate hue purane iint jhare gande makanon ke uupar bhi is dhoop ki aabha ne ek tarah ka anupam lavanya phaila diya hai.
hamare ghar aaj subah se hi shahnai baj rahi hai. mujhe aisa lag raha hai jaise wo mere kaleje ki pasaliyon mein se ro rokar baj rahi ho. uski karun bhairavi ragini mano meri asann vichchhed vyatha ko sharad ritu ki dhoop ke saath sampurn vishv jagat mein vyaapt kiye de rahi ho.
meri mini ka aaj byaah hai.
savere se bhagdauD shuru hai. har vaqt logon ka aana jana jari hai. angan mein baans bandhakar manDap chhaya ja raha hai. har ek kamre mein aur baramde mein jhaaD latkaye ja rahe hain aur unki tan tan ki avaz mere kamre mein aa rahi hai. chalo re, jaldi karo, idhar aao ki avazen goonj rahi hain.
main tab apne likhne paDhne ke kamre main baitha hua kharch ka hisab likh raha tha. itne mein rahmat aaya aur salam karke khaDa ho gaya.
pahle to main use pahchan hi na saka. uske paas na to jholi thi, na vaise lambe lambe baal the aur na chehre par pahle jaisa tez hi tha. ant mein uski muskrahat dekhkar pahchan saka ki wo rahmat hai.
mainne puchha, “kyon rahmat, kab aye?”
usne kaha, “kal shaam ko jel se chhuta hoon.
sunte hi uske shabd mere kanon mein khat se baj uthe. kisi khuni ko mainne kabhi ankhon se nahin dekha tha, use dekhkar mera sara man ekayek sikuD sa gaya. meri yahi ichchha hone lagi ki aaj ke is shubh din mein ye adami yahan se chala jaye to achchha ho.
mainne usse kaha, “aaj hamare ghar mein ek zaruri kaam hai, so aaj main usmen laga hua hoon. aaj tum jao—phir aana. ”
meri baat sunkar wo usi samay jane ko taiyar ho gaya. par darvaze ke paas jakar kuch idhar udhar karke bola, “bachchi ko zara nahin dekh sakta?”
shayad use vishvas tha ki mini ab tak vaisi hi bachchi bani hai. usne socha ki mini ab bhi pahle ki tarah kabulivala, o kabulivala chillati hui dauDi chali ayegi. un donon ke us purane kautukjanya hasyalap mein kisi tarah ki rukavat nahin hogi. yahan tak ki pahle ki mitrata yaad karke wo ek peti angur aur ek kaghaz ke daunon mein thoDi si kismis aur badam, shayad apne desh ke kisi adami se maang mungakar leta aaya tha. uski pahle ki wo jholi uske paas nahin thi.
mainne kaha, “aaj ghar mein bahut kaam hai. aaj kisi se mulaqat na ho sakegi. ”
mera javab sunkar wo kuch udaas sa ho gaya. khamoshi ke saath usne ek baar mere munh ki or sthir drishti se dekha, phir “salam babu saab,” kahkar darvaze ke bahar nikal gaya.
mere hriday mein na jane kaisi ek vedna si uthi. main soch hi raha tha ki use bulaun, itne mein dekha to wo khud hi aa raha hai.
paas aakar bola, “ye angur aur kuch kismis badam bachchi ke liye laya tha—usko de dijiyega. ”
mainne uske haath se saman lekar use paise dene chahe, par usne mera haath thaam liya, kahne laga, “apaki bahut mehrbani hai babu saab, hamesha yaad rahegi. . . paise rahne dijiye. ” zara thaharkar phir bola, “babu saab, apaki jaisi meri bhi desh mein ek laDki hai. main uski yaad kar karke apaki bachchi ke liye thoDi si meva haath mein le aaya karta hoon. main to yahan sauda bechne nahin aata. ”
kahte kahte usne apne Dhile Dhale kurte ke andar haath Dalkar chhati ke paas se ek maila kuchaila kaghaz ka tukDa nikala aur baDe jatan se uski tah kholkar donon hathon se use phailakar meri tebal par rakh diya.
dekha ki kaghaz par ek nanhen se haath ke chhote se panje ki chhaap hai. foto nahin, tailachitr nahin, sirf haath mein thoDi si kalikh lagakar kaghaz ke uupar usi ka nishan le liya gaya hai. apni laDki ki is yadadasht ko chhati se lagakar rahmat har saal kalkatta ki gali kuchon mein sauda bechne aata hai, aur tab ye kalikh chitr mano uski bachchi ke haath ka komal sparsh uske bichhuDe hue vishal vakshasthal mein sudha unDelata rahta hai.
dekhkar meri ankhen bhar ain. aur phir is baat ko main bilkul hi bhool gaya ki wo ek kabuli mevavala hai aur main ek uchch vansh ka rais hoon. tab main mahsus karne laga ki jo wo hai, vahi main hoon. wo bhi ek baap hai, main bhi ek baap hoon. uski parvatvasini chhoti si parvati ke haath ki nishani mujhe meri hi mini ki yaad dila di. mainne usi vaqt mini ko bahar bulvaya. halanki is par bhitar bahut apatti ki gai, kintu mainne us par kuch bhi dhyaan nahin diya. byaah ki puri poshak aur zevar gahne pahne hue bechari vadhu veshini mini mare sharm ke sikuDi hui si mere paas aakar khaDi ho gai.
use dekhkar rahmat kabuli pahle to sakapka gaya, usse pahle jaisi batachit karte na bana.
baad mein wo hansta hua bola, “lalli, saas ke ghar ja rahi hai kyaa?”
mini ab saas ke mani samajhne lagi hai, lihaza ab usse pahle ki tarah javab dete na bana. rahmat ki baat sunkar mare sharam ke uska munh laal ho utha. usne munh pher liya. mujhe us din ki baat yaad aa gai, jab kabuli ke saath mini ka pratham parichay hua tha. man mein ek vyatha si jaag uthi.
mini ke chale jane par ek gahri usaans bharkar wo zamin par baith gaya. shayad uski samajh mein ye baat ekayek aspasht ho uthi ki uski laDki bhi itne dinon mein baDi ho gai hogi, aur uske saath bhi use ab phir se nai jaan pahchan karni hogi. shayad use ab wo theek pahle ki si vaisi ki vaisi na payega. in aath varshon mein uska kya hua hoga, kaun jane! savere ke vaqt sharad ki snigdh surya kirnon mein shahnai bajne lagi aur rahmat kalkatta ki ek gali ke bhitar baitha hua afghanistan ke maruparvat ka drishya dekhne laga.
mainne ek sau ka not nikalkar uske haath mein diya aur kaha, “rahmat, tum apne desh chale jao, apni laDki ke paas. tum donon ke milan sukh se meri mini sukh payegi. ”
rahmat ko rupe dene ke baad byaah ke hisab mein se mujhe utsav samaroh ke do ek ang chhantakar nikal dene paDe. jaisi man mein thi, vaisi roshni nahin kara saka, angrezi baje bhi nahin aaye. ghar mein aurten khoob naraz huin. sab kuch hua, phir bhi, mera khayal hai ki aaj ek apurv mangal parkash se hamara shubh utsav ujjval ho utha.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 60-69)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : रबिन्द्रनाथ टैगोर
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
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