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कबूतर

kabootar

आईज़ैक बेशविस सिंगर

और अधिकआईज़ैक बेशविस सिंगर

    जब उसकी पत्नी का देहांत हुआ, तब प्रोफ़ेसर व्लाडिस्लाव ईबश्चूट्स के पास सिर्फ़ उसकी पुस्तकें पक्षी बचे थे। उसने इतिहास के प्रोफ़ेसर पद से त्यागपत्र इसलिए दिया था कि वह जेलपोलस्की गिरोह से जुड़े छात्रों की दैनंदिन हरकतों के कारण बहुत परेशान हो गया था। वे छात्र कक्षा में अपनी अलग पहचान के लिए सोने की विशिष्ट क़सीदायुक्त टोपियाँ पहनकर हाथों में लोहे की ताड़ियाँ घुमाते हुए, हरदम लड़ने पर आमादा रहते थे। कुछेक कारणों से ईबश्चूट्स यह कभी समझ नहीं पाए कि इन छात्रों को यहूदियों से इतनी नफ़रत क्यों है? उनमें से कई छात्रों के आरक्त चेहरे, फुंसियों से भरी गर्दनें, चपटी नासिकाएँ और चौड़ी ठुड्डियाँ—मानो यहूदियों के प्रति नफ़रत ने उन्हें एक बिरादरी में बाँध दिया हो। यहूदी छात्रों के लिए अलग सीटों की माँग करने वाली उनकी आवाज़ भी एक-सी होती।

    व्लाडिस्लाव ईबश्चूट्स मामूली पेंशन लेकर रिटायर हो गए, जिससे मकान का किराया भोजन का ख़र्च निकालना भी मुश्किल था। किंतु बुढ़ापे में एक व्यक्ति को और क्या चाहिए? कमज़ोर आँखों वाली उसकी पोलिश नौकरानी टेकला एक खेतिहर महिला थी। प्रोफ़ेसर ने काफ़ी समय पहले ही उसकी तनख़्वाह बंद कर दी थी। दोनों के ही दाँत नदारद। इसलिए टेकला दोनों वक़्त सूप बना लेती। किसी को भी नए कपड़े नए जूतों की ज़रूरत नहीं थी। दिवंगत श्रीमती ईबश्चूट्स की पुरानी पोशाकें, सूट फरवाले गंदे कोट काफ़ी मात्रा में पड़े हुए थे, जिन्हें कीटनाशक गोलियों ने अब तक बचा रखा था।

    पिछले कुछ वर्षों में प्रोफ़ेसर का पुस्तकालय इतना बढ़ गया कि सभी अलमारियाँ किताबों से ठसाठस भर गईं। यहाँ तक कि कपड़ों की अलमारियों में, पेटियों में, तहख़ाने में, अटारियों पर किताबें ही किताबें। हस्तलिखित पांडुलिपियाँ भी। जब तक श्रीमती ईबश्चूट्स जीवित रही, तब तक वह किताबों को सलीक़े से रखती, साफ़ करती, उनकी मरम्मत भी करती, बेकार पांडुलिपियों को स्टोव में जला देती, किंतु उसकी मृत्यु उपरांत सब कुछ उपेक्षित पड़ा रहता। प्रोफ़ेसर ने पक्षियों के दर्जनों पिंजरे इकट्ठे कर लिए थे, जिनमें तोते, टुइयाँ-तोते और कनारी इत्यादि टिवटिव करते रहते। वे हमेशा से ही पक्षियों को बड़ा प्यार करते थे। पिंजरे हरदम खुले रहते ताकि वे जहाँ-तहाँ मनमरजी से उड़ सकें। टेकला शिकायत करती कि अब उससे इनकी बीट साफ़ नहीं होती। प्रोफ़ेसर मुस्कराकर कहते, पगली, भगवान् के जीवों में कैसा भेद? उनकी तो सब चीज़ें साफ़-सुथरी हैं।

    उनके लिए इतना ही काफ़ी नहीं था। वे नियमित रूप से गली के कबूतरों को दाना चुगाया करते। पड़ोसी नित साँझ-सवेरे उन्हें दानों का थैला हाथ में लिए बाहर निकलते देखते। वे बहुत ही छोटे क़द के व्यक्ति थे। पीठ झुकी हुई, छितरी दाढ़ी जो अब सफ़ेद से पीली होने लगी थी, टेढ़ी-मेढ़ी नाक, पिचका चेहरा। चश्मे के पीछे उनकी भौंहें और भी घनी नज़र आतीं। वे हमेशा हरे रंग का फ्रॉक कोट पहने रहते। घुमावदार पंजेनुमा प्लास्टिक के जूते, जो अब बाज़ार में मिलने बंद हो गए थे, उनके पाँवों में रहते। उनके खिचड़ीनुमा बाल गोल टोपी से इधर-उधर बाहर निकले रहते। वे आगे वाले दरवाज़े से बाहर नहीं पाते और उनकी आवाज़ सुनने से पहले ही कबूतर इकट्ठे हो जाते। वे ईंटवाले पुराने मकानों और चर्मरोग चिकित्सालय के आसपास लगे पेड़ों पर बैठे रहते। वह गली जिसमें प्रोफ़ेसर का मकान था, 'नौवी एवीएट बुलेवर्ड' से शुरू होती हुई ढलान से आगे 'विस्ट्चूला' जाती थी। गर्मी के मौसम के दौरान 'बटिया-पत्थरों' के बीच से घास निकलती थी। वाहनों का आवागमन कम था। कभी-कभार कोई अरथी आतशक या त्वचा के रोगियों की लाशें ढोती हुई नज़र जाती या कभी-कभार पुलिस की कोई गाड़ी रतिरोग से पीड़ित वेश्याओं को यहाँ से ले जाती हुई दीख पड़ती। कुछेक घरों के पिछवाड़ों में अभी तक हैंडपंप ही काम आते थे। बूढ़े मकान मालिक अपने घरों से यदा-कदा ही बाहर निकलते थे। कबूतर शहर के शोरगुल से बचे रहते थे।

    प्रोफ़ेसर टेकला से अकसर कहते कि उनके लिए कबूतरों को बहलाना गिरजाघर या किसी यहूदी सभागार में उपासना करने के समान है। दाना चुगने के लिए कबूतर हर रोज़ साँझ-सकारे आपका इंतज़ार करते रहें, इससे अच्छी पूजा और क्या हो सकती है! भगवान् के बनाए प्राणियों की सेवा करना ही सच्चा धर्म है। कबूतरों को दाना चुगाने से प्रोफ़ेसर को ख़ुशी तो होती ही थी, पर वे उनसे सीखते भी बहुत कुछ थे। उन्होंने एक बार 'तालमूड' के उद्धरण में पढ़ा कि कबूतर यूनानियों को बहुत पसंद करते थे और उन्हें हाल ही में उस तुलना का मर्म अच्छी तरह समझ में आया था। कबूतरों के पास अपनी जीविका-उपार्जन के निमित्त कोई उपकरण या हथियार नहीं होते। वे आज दिन तक अपने आपको लोगों द्वारा उछाले गए दानों के आसरे ही स्वस्थ-दुरुस्त रखे हुए हैं। उनकी ग़ुटरग़ूँ का संगीत अभी तक क़ायम है। कबूतरों को हर आवाज़ या आहट से डर लगता है। छोटे से पिल्ले को देखते ही वे एक साथ पाँखों को फड़फड़ाते हुए उड़ जाते हैं। वे उन मैनाओं को भी नहीं भगाते, जो इनका दाना चुराती हैं। यूनानियों की तरह कबूतर भी शांतिप्रिय या पवित्र इरादे लेकर फलते-फूलते रहे हैं, किंतु हर आचार-व्यवहार या नियम-कायदे का अपवाद भी होता है। जैसे यूनानियों में, वैसे कबूतरों में भी कोई कोई परियुद्धक नमूने मिलते हैं, जो अपनी आनुवंशिकता को अस्वीकार करते हैं। ऐसे कबूतर भी थे, जो दूसरे कबूतरों को भगा देते। चोंच मारकर छीना-झपटी करते। प्रोफ़ेसर ईबश्चूट्स ने सामी-विरोधी तथा यूनानी-साम्यवादी छात्रों की वजह से विश्वविद्यालय छोड़ दिया था, जो अपने स्वार्थ की ख़ातिर दूसरों को उत्पीड़ित करते थे।

    इतने वर्षों तक प्रोफ़ेसर ने अध्ययन अध्यापन किया, पुरालेखों को पढ़ा, उनकी छानबीन की और वैज्ञानिक पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे, पर इतिहास दर्शन के उस तथ्य के प्रति हमेशा ध्यान केंद्रित रखा जो यह समझाए कि मानव जाति किस दिशा में अग्रसर हो रही है? उसे लड़ने के लिए कौन बाध्य कर रहा है? एक समय ऐसा भी था कि जब घटनाओं के भौतिकवादी विश्लेषण की ओर प्रोफ़ेसर का ध्यान अधिक था। वे ल्यूक्रशियम, डिडरोट, वोग्ट, फ़्यूरबॉक के मुरीद थे। वे कुछ समय तक कार्लमार्क्स के भी प्रशंसक रहे। लेकिन वह युवावस्था जल्द ही गुज़र गई। अब प्रोफ़ेसर दूसरी ओर उन्मुख हुए। यह परिवर्तन प्रकृति के उद्देश्य की पड़ताल करने, तथाकथित सोद्देश्यों की सच्चाई जानने और विज्ञान के वर्जित क्षेत्र की ओर बढ़ने के लिए था। यद्यपि प्रकृति में निश्चित परियोजना परिलक्षित होती है, पर प्रोफ़ेसर को यह अव्यवस्थित नज़र आई। हम सभी ज़रूरतमंद थे—चाहे वह यूनानी हो, चाहे ईसाई या मुसलमान हो, चाहे महान सिकंदर, शारलेमैन, चाहे नेपोलियन या हिटलर हो। बिल्लियों के द्वारा चूहों का शिकार करवाकर, बाज—सिकरों के द्वारा ख़रगोशों को मरवाकर, भ्रातृत्व संघ द्वारा यूनानियों पर हमला करवाकर भगवान को क्या मिलेगा? उसे क्या सिद्धि प्राप्त होगी?

    तत्पश्चात् प्रोफ़ेसर ने इतिहास के अध्ययन से नाता तोड़ लिया। बुढ़ापे में वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सही मायने में उन्हें जीव और प्राणी—शास्त्र से ज़्यादा लगाव है। जिसकी सहज परिणति यह हुई कि उन्होंने कुछ ही समय में पशु-पक्षियों पर ढेरों पुस्तकें प्राप्त कर लीं। उन्हें अच्छी तरह पता था कि वह 'सबलवाय' से पीड़ित हैं और उनकी दाईं आँख बिलकुल बेकार है। फिर भी वे एक छोटी ख़ुर्दबीन ले आए। उनके अध्ययन-मनन का कोई व्यावसायिक लक्ष्य नहीं था। वे अपनी आत्मिक उन्नति के लिए उसी लगन से पढ़ते, जिस तरह धर्मपरायण लोग 'तालमूड' का पाठ करते हैं। और उन्हीं के उनमान सर हिलाकर गाना गाते। अपनी दाढ़ी का बाल तोड़कर उसे यत्नपूर्वक स्लाइड पर रखकर वे ख़ुर्दबीन से नीचे देखते। हर बाल की अपनी जटिल रचना होती है। टेकला के ख़ूबसूरत गुलदस्ते से शांतिमय वातावरण बनता, जिससे प्रोफ़ेसर की आत्मा पुनर्जीवित हो उठती। जब वे ख़ुर्दबीन के पास बैठकर अपने काम में मशग़ूल होते तो टुइयाँ-तोते चहचहाते, बोलते, घूमते, कनारी मीठे स्वर में गाती, तोते बातचीत करते, एक-दूसरे को बंदर, उल्लू या भुक्खड़ कहते—टेकला की गँवई बोली के लहज़े में। भगवान के परोपकार या उसकी करुणा पर विश्वास करना इतना आसान नहीं था, मगर उसका अस्तित्व कण-कण में व्याप्त था।

    टेकला भी छोटे क़द की थी। चेचकरू। बाल उसके बारीक थे, नुकीले, जिनमें सफ़ेदी झाँकने लगी थी। फीके रंग का पहनावा और टूटी-फूटी चप्पल। बिल्ली के उनमान, उसकी हरी आँखें गालों के ऊपर से दिखाई दे रही थीं। उसका एक पाँव जोड़ों के दर्द से पीड़ित था, जिस पर विलेप और मरहम लगा हुआ था, जो किसी परिचित हकीम ने निःशुल्क दिया था। अपने भगवान की आराधना करने के लिए वह गिरजाघर जाने वाली थी। उसने प्रोफ़ेसर के पास आकर कहा, “मैंने दूध गरम कर दिया है।”

    मुझे नहीं चाहिए।

    उसमें कॉफ़ी का एक चम्मच मिला दूँ?

    धन्यवाद टेकला, मुझे कुछ नहीं चाहिए।

    “तुम्हारा गला सूख जाएगा।

    यह कहाँ लिखा है कि गला गीला रखना ज़रूरी है?

    टेकला ने कोई जवाब नहीं दिया। किंतु वह गई नहीं। जब श्रीमती ईबश्चूट्स मरणासन्न थी, तब उसने मन ही मन क़सम खाई थी कि वह प्रोफ़ेसर का ख़याल रखेगी। थोड़ी देर बाद वे कुर्सी से उठे। वे एक विशेष तकिए पर बैठते थे ताकि उनकी 'हिमरोइड्स' में जलन हो।

    “क्या तुम अब तक यहीं हो, टेकला?” प्रोफ़ेसर ने मुँह बनाकर कहा, “तुम भी मेरी पत्नी की तरह ज़िद्दी हो। उसकी आत्मा को शांति मिले!”

    “प्रोफ़ेसर! दवाई का वक़्त हो गया है।”

    “कौन-सी दवाई? बेवक़ूफ़! कोई दिल हमेशा नहीं धड़क सकता।”

    प्रोफ़ेसर ने आवर्द्धक लेंस 'द बर्ड्स ऑफ़ पोलैंड' पुस्तक के खुले पन्नों पर रखा और अपने पक्षियों की देखभाल के लिए चल पड़े। गली के कबूतरों को दाना चुगाने में उन्हें सचमुच ख़ुशी होती थी। मगर खुले पिंजरों में रहने वाले पक्षियों का ख़्याल रखना बड़ी मेहनत तथा सतर्कता का काम था। टेकला के लिए एक भी दिन ऐसा नहीं गुज़रता जब उस पर विपत्ति आती हो। कभी कोई टुइयाँ-तोता किताब या किवाड़ के पीछे फँस जाता, उसको वहाँ से यत्नपूर्वक निकालना पड़ता। पर टुइयाँ-तोते आपस में लड़ते। प्रोफ़ेसर ने सभी चिड़ियों की नस्लों के लिए अलग-अलग व्यवस्था की थी। लेकिन टेकला भूल जाती और दरवाज़ा अधखुला छोड़ देती। एक बार वसंत का दौर था। खिड़कियाँ खोली नहीं जा सकती थीं। फलस्वरूप सीलन-भरी हवा से बीट की गंध रही थी। नियमानुसार पंछी रात को सोते थे, फिर भी कोई पखेरू दुःस्वप्न के कारण जाग उठता। अँधेरे में इधर-उधर फड़फड़ाता। रोशनी जलानी पड़ती ताकि पखेरू अपने आपको मार डाले। कुछ दानों के बदले ये पखेरू प्रोफ़ेसर को क्या सुख पहुँचाते? एक टुइयाँ-तोते ने बहुत सारे शब्द सीख लिए थे और कुछेक पूरे वाक्य भी। उसने अपना चक्कस प्रोफ़ेसर की गंजी खोपड़ी को बनाया। कान की लोलक में चोंच मारता। चश्मे की डंडी पर चढ़ जाता। कभी-कभार लिखते समय उनकी तर्जनी पर कलाबाज़ी करता। प्रोफ़ेसर को गहराई से यह एहसास होने लगा था कि ये पक्षी कितने समझदार हैं। कितना असाधारण है इनका आचरण। कितना उच्च है इनका व्यक्तित्व। इतने सालों से देखते रहने के बावजूद उन्हें आज भी इनकी हरकतों से कम आश्चर्य नहीं होता। प्रोफ़ेसर को यह जानकर बड़ी ख़ुशी होती कि इन जीवों को परोक्ष-अपरोक्ष रूप से इतिहास का कोई बोध नहीं है। ये परंपरा या अन्य संस्कारों से पूर्णतया मुक्त हैं। सारे साहसिक कार्यों को तुरंत भुला दिया जाता है। हर दिन इनकी एक नई शुरुआत होती है। फिर भी एक अपवाद अवश्य नज़र आया। उन्होंने एक बार देखा कि एक नर टुइयाँ-तोता अपने साथी के मरने पर गम में घुला जा रहा है। उदास है। पक्षियों को आकर्षित करने की प्रवृत्ति, घृणा, व्यवधान, बदले की भावना और आत्महत्या के दृष्टांत भी देखे। भगवान या क़ुदरत का दिया हुआ विवेक, पंखों की बनावट, अंडे देने का कौशल और रंग बदलने की निर्भीक प्रक्रिया इन सब में एक निहित उद्देश्य है। यह सब क्योंकर घटित होता है? आनुवंशिकता, गुणसूत्र या जीन्स? अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद प्रोफ़ेसर अपने आप से ही बातचीत करने लगे थे। कभी-कभार प्राचीन प्रतिभाओं के प्रति मतभेद भी उजागर होते रहे थे। वे डार्विन से कहते, नहीं चार्ल्स, नहीं, तुम्हारे सिद्धांत यह पहेली सुलझाने में सक्षम नही हैं। श्रीमान लेमार्क, तुम्हारे सिद्धांत भी अपर्याप्त हैं। फिर से सोचना ज़रूरी है।

    उस दुपहर अपनी दवाई लेने के बाद प्रोफ़ेसर ने एक थैले में अलसी, बाजरा सूखे मटर भरे और कबूतरों को चुग्गा डालने के लिए वे बाहर निकले। हालाँकि वह मई का महीना था। बारिश के कारण ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। फ़िलहाल 'विसट्यूला' में बरसात थम गई थी और धूप बादलों को चीरती हुई निकल आई थी, पारलौकिक कुल्हाड़ी के उनमान। ज्यों ही प्रोफ़ेसर बाहर आए चारों तरफ से कबूतर एक साथ झपटे। कुछ अतिरेक उतावली में टोपी के पास पंख फड़फड़ाने लगे। मानो टोपी नीचे गिराने की ख़ातिर खीज उठे हों। प्रोफ़ेसर को मालूम था कि थैले में पर्याप्त दाने नहीं हैं, इसलिए उन्होंने जल्दी-जल्दी चुग्गा उछालना शुरू किया। ताकि वे आपस में झगड़ें नहीं, किंतु तब तक तो छीना-झपटी का दौर चल पड़ा था। कुछ तो एक दूसरे के ऊपर चढ़कर दूर धकेलने की चेष्टा कर रहे थे। तिस पर गली काफ़ी सँकरी थी और कबूतरों का झुंड बहुत बड़ा था। वे होंठों ही होंठों में बुदबुदाए, 'बेचारे पक्षी कितने भूखे हैं!' उन्हें मालूम था कि कबूतरों को खिलाने में उनकी समस्या कभी नहीं सुलझेगी। वे जितना अधिक चुग्गा डालेंगे, कबूतरों की संख्या उतनी ही बढ़ती रहेगी। प्रोफ़ेसर ने पढ़ा था कि आस्ट्रेलिया में कबूतर इतने बढ़ गए हैं कि इनके वज़न से कई छतें तक ढह पड़ी हैं। इस अविराम दौड़-धूप में भला प्रकृति के नियमों की कौन अवहेलना कर सकता है? और ही इन जीवों को भूखे मरने के लिए कोई छोड़ सकता है।

    जिस हॉल में अनाज की बोरी रखी थी, वे लौटकर वहाँ आए। पूरा थैला भरा और मन ही मन बुदबुदाए, 'आशा करता हूँ कि वे रुके रहेंगे।' जब वे बाहर आए तो उनकी आशा के अनुरूप पक्षी वहीं पर ही मौजूद थे। 'धन्यवाद! धन्यवाद!' उन्होंने कहा और अतिशय धर्मोत्साह की वजह से कुछ परेशान भी हुए। वे इधर-उधर दाने उछालने लगे तो उनके हाथ-पाँव काँप उठे। मुट्ठियों से फिसलकर पाँवों के पास ही गिर पड़े। कबूतर बेसब्री से उनके कंधों पर, भुजाओं पर पाँखे फड़फड़ाते हुए उन्हें नोचने लगे। एक साहसी कबूतर तो थैले पर ही बैठकर अनाज खाने की कोशिश करने लगा।

    अचानक एक पत्थर प्रोफ़ेसर ईबश्चूट्स के ललाट पर लगा, यकायक तो उन्हें पता ही नहीं चला कि यह क्या हुआ? तब तक दो पत्थर और लगे। एक कुहनी पर और दूसरा गर्दन पर।

    सभी कबूतर एक साथ उड़े, मानो हवा का तूफ़ान उठा हो। वे किसी तरह घर के अंदर आने में कामयाब हुए। उन्होंने कई बार पत्रिकाओं में पढ़ा था कि यूनानियों पर सैक्सनी बग़ीचों में और उपनगरों में गुंडों द्वारा हमले किए जाते हैं। किंतु उनके साथ कभी ऐसा नहीं हुआ। वे असमंजस में थे कि उन्हें चोट कहाँ ज़्यादा लगी है? ललाट पर या उनके अहम पर! क्या हम इतने गिर चुके हैं? वे बुदबुदाए। टेकला खिड़की से सारा माजरा देख रही थी। वह ग़ुस्से में भुनभुनाती उनके पास आई। फुफकारते हुए उन दुष्टों को मार बददुआएँ देने लगी। फिर अचानक दौड़कर रसोई में अँगोछा भिगोने गई। प्रोफ़ेसर ने टोपी उतारकर ललाट के टीसते गूमड़े को छूकर देखा। तब तक टेकला गीला अँगोछा लेकर लौट आई। उन्हें सोने के कमरे में ले गई। कोट उतारकर लिटाया। उपचार करते समय भी उसका बड़बड़ाना जारी था, “भगवान उन्हें भरपूर दंड देना। उन पर फ़ालिज गिरे! उन्हें कोढ़ निकले!

    “बस टेकला, बस।

    “अगर यही हमारा पोलैंड है तो इसे आग लग जानी चाहिए।

    पोलैंड में अच्छे लोग भी रहते हैं।

    “तलछट, वेश्या, कोढ़ी, कुत्ते!

    टेकला बाहर गई। शायद पुलिस को बुलाने। किंतु प्रोफ़ेसर ने पड़ोसियों से शिकायत करते तथा चिल्लाते हुए उसे सुना। कुछ देर बाद सब कुछ शांत हो गया। जब टेकला अकेली ही वापस आई तो उन्होंने सोचा—नहीं, वह पुलिस को बुलाने नहीं गई। वह बेचैनी से बड़बड़ाती हुई रसोई में घूम रही थी। प्रोफ़ेसर ने अपनी आँखें बंद कर लीं। “देर-सबेर तुम्हें अपनी खाल पर सब कुछ सहन करना पड़ेगा। मैं दूसरे पीड़ित व्यक्तियों की अपेक्षा किस माने में श्रेष्ठ हूँ। यही इतिहास है। इतने बरसों तक मैंने यही दिमाग़ में भर रखा था।

    यहूदी शब्द उन्होंने काफ़ी समय से भुला दिया था। आज अचानक उनके दिमाग़ में कौंधा—रेशयिम, एक दुष्ट आदमी! वह दुष्ट ही है जो अपना इतिहास बनाता है।

    प्रोफ़ेसर एक मिनट के लिए स्तब्ध रह गए। इतने सालों से जिस उत्तर की उन्हें तलाश थी, वह एक क्षण में स्पष्ट हो गया। गुंडों द्वारा उन पर पत्थर फेंकने और न्यूटन द्वारा सेब को नीचे गिरते देखने में परस्पर कितना साम्य था। सूर्य के उजाले की तरह सच्चाई उनके सामने प्रज्वलित हो उठी, जो किसी भी समय के लिए अमान्य नहीं हो सकती। सभी विधानों की एक-सी परिणति होती है। हर पीढ़ी में कोई कोई आदमी ऐसा होता ही है, जो झूठ बोलता है, ख़ून-ख़राबा करता है, दंगा-फ़साद करता है। दुष्टता या बर्बरता कभी रुक नहीं सकती, चाहे वह युद्ध के रूप में हो, चाहे क्रांति के रूप में। चाहे अपने झंडे के नीचे लड़े या दूसरे झंडे के नीचे लड़े। चाहे कुछ भी नारा हो, कुछ भी वाद हो—मक़सद एक ही रहता—ख़ून बहाना, दूसरों को आतंकित करना, उत्पीड़ित करना। एक ही उद्देश्य ने मैसडोनिया के एलेक्ज़ेंडर, हेमिलकर, चंगेज़ ख़ाँ, शारलेमैन, शमीलनिट्सकी, नेपोलियन, रौबरस्पीयर और लेनिन को संगठित किया। इतना आसान।

    गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भी आसान था, इसलिए उसके आविष्कार में इतना समय लगा।

    व्लाडिस्लाव ईबश्चूट्स को शाम होते-होते नींद आने लगी। उन्होंने अपने आप से कहा, 'नहीं, यह इतना आसान नहीं हो सकता।' टेकला ने प्रोफ़ेसर के माथे पर बर्फ़ का सेंक किया। पूर्णतया आश्वस्त होने के लिए वह डॉक्टर को बुलाना चाहती थी, पर प्रोफ़ेसर ने मना कर दिया। उन्हें डॉक्टर पड़ोसियों के रूबरू होने में शर्म महसूस हो रही थी। टेकला ने जई का घोल करके उन्हें पिलाया। वे हमेशा सोने से पहले पिंजरों की सँभाल करते, उनमें ताज़ा पानी भरते, दाने सब्जियाँ डालते और मिट्टी भी बदलते, किंतु उस शाम प्रोफ़ेसर ने सब काम टेकला पर छोड़ दिया। उसने बत्तियाँ बुझा दीं। कुछ टुइयाँ-तोते प्रोफ़ेसर के कमरे में ही पिंजरों में बंद थे। कुछ पर्दे की डंडी पर सो गए। हालाँकि प्रोफ़ेसर थके हुए थे, फिर भी उन्हें तुरंत नींद नहीं आई। उनकी दुरुस्त आँख का ऊपरी हिस्सा सूज गया था, जिससे पलक झपकाने में उन्हें कठिनाई हो रही थी। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि कहीं वे पूरी तरह से अंधे हो जाएँ। अंधा होने की बजाय तो मर जाना ही बेहतर है। ऊँघ आते ही उन्होंने सपने में एक विचित्र धरती देखी—जहाँ एकदम नई प्राकृतिक छटा बिखरी पड़ी थी, जिसे उन्होंने पहले कभी नहीं देखा—हरे-भरे पहाड़, रहस्यमयी घाटियाँ, लुभावने बग़ीचे—गहर-घुमेर गाछ-बिरछों से आच्छादित और रंग-बिरंगे फूलों का बिछौना। मैं कहाँ हूँ?” वे नींद में बड़बड़ाए, इटली में”, “अफ़गानिस्तान में? नीचे की ज़मीन इस तरह खिसक रही थी, मानो हवाई जहाज़ में बैठे हों या अंतरिक्ष में लटके हुए हों। क्या मैं पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की पहुँच से परे हूँ? वे दुविधा में फँस गए कि आख़िर यह हुआ क्योंकर? यहाँ तो कोई वायुमंडल भी नहीं। वे फिर बुदबुदाए, “उफ्फ! कहीं मेरा दम घुट जाए। अकस्मात् उनकी नींद उचट गई। समझ नहीं पड़ा कि वे हैं कहाँ? माथे पर कुछ दबाव महसूस हुआ। हाथ से स्पर्श करते ही उन्हें आश्चर्य हुआ, मेरे सिर पर यह पट्टी क्यों बँधी है? इस प्रश्न के साथ ही अचानक उन्हें सब याद गया। “हाँ, इतिहास दुष्टों ने ही बनाया है। मैंने न्यूटन के इतिहास का सूत्र खोज लिया है। मुझे अपना शोधकार्य फिर से प्रारंभ करना होगा। ओह...। उन्हें अपने सीने में बाईं तरफ़ तीखा दर्द महसूस हुआ। वे लेटे-लेटे ही दिल की धड़कनें सुनते रहे।

    हृदय-शूल के लिए उनके पास गोलियाँ थीं, किंतु वे पढ़ने वाले कमरे की दराज़ में रखी हुई थीं। उनकी दिवंगत पत्नी स्टेफ़नी ने उन्हें एक छोटी-सी घंटी दे रखी थी। रात को जब भी उनकी तबीयत ख़राब हो तो वे घंटी बजाकर टेकला को बुला लें, किंतु प्रोफ़ेसर की इच्छा नहीं होती कि वे घंटी बजाएँ, यहाँ तक कि रात की हरी बत्ती तक जलाने में भी उन्हें हिचकिचाहट होती। पक्षियों को आवाज़ रोशनी से बड़ा डर लगता था।

    उन्होंने सोचा—टेकला दिन-भर के कामकाज से थक गई होगी। तिस पर इस अप्रिय घटना की वजह से वह ठीक तरह से सो भी नहीं पाई होगी। गुंडों के अचीते आक्रमण से वह उनकी अपेक्षा ज़्यादा परेशान हुई थी। चंद घड़ियों की नींद के अलावा बेचारी के पास और है ही क्या? कोई रिश्तेदार, कोई दोस्त और कोई संतान। प्रोफ़ेसर ने टेकला के नाम वसीयत तो लिख दी, लेकिन उन अप्रकाशित पांडुलिपियों का मूल्य ही क्या था, उसके लिए!

    एक नया सूत्र...।

    कुछ देर बाद प्रोफ़ेसर को लगा कि सीने का दर्द कम हो रहा है। किंतु फिर अचानक छुरी घोंपने जैसी असह्य पीड़ा उठी, जो कंधों, पसलियों बाँहों को झकझोर गई। उन्होंने घंटी बजाने के लिए हाथ बढ़ाया, पर अकारथ। वहाँ पहुँचने के पहले ही उनकी अँगुलियाँ शिथिल पड़ गईं। उन्होंने कभी सोचा तक नहीं था कि उन्हें इतनी भयंकर पीड़ा होगी, जैसे कोई तीखे पंजों से उनका हृदय भींच रहा हो। उनका दिल घुटने लगा। हाँफते समय उन्हें ख़याल आया कि उनके बाद कबूतरों का क्या होगा?

    अगले दिन सुबह जब टेकला उनके कमरे में आई तो उन्हें बड़ी मुश्किल से पहचान सकी। जो आकृति उसे नज़र आई, वह प्रोफ़ेसर की बजाय एक विरूप गुड़िया की थी। चिकनी माटी के उनमान पीला चेहरा। हड्डियाँ एकदम सख़्त। मुँह फटा हुआ, विकृत नाक, दाढ़ी ऊपर की ओर उठी हुई, एक आँख की पलकें चिपकी हुईं, दूसरी आँख अधखुली, मानो किसी अजनबी दुनिया से झाँक रही हो। मोम के सदृश अँगुलियाँ तकिए पर पसरी थीं।

    टेकला चिल्लाने लगी। घबराए पड़ोसी अंदर आए। किसी ने रोगी वाहन के लिए तक़ाज़ा किया तो बाहर उसके भोंपू की आवाज़ सुनाई दी। लेकिन जो अंतरंग डॉक्टर भीतर आया, उसने रोगी की सूरत देखते ही गर्दन हिला दी कि उसे अब कुछ भी मदद पहुँचाई नहीं जा सकती। उसने आँखें झुकाकर सीने पर क्रॉस का निशान बनाया।

    टेकला चीत्कार कर उठी, उन जानवरों ने इसे मार डाला। मार डाला। इस पर पत्थर फेंके। हैजा हो उन हरामज़ादों को। उन पर पागल कुत्ते छोड़े जाएँ। वे दुष्ट राक्षस! सत्यानाश हो उनका।

    “वे कौन हैं? डॉक्टर ने काँपती आवाज़ में पूछा।

    “वे अपने ही पॉलिश कसाई थे। गुंडे! जानवर! ख़ूनी!

    “हाँ, एक यहूदी!

    “ओह!

    जब प्रोफ़ेसर जीवित थे, तब उनकी कोई पूछ थी। किंतु उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी कीर्ति के अंबार लग गए। उनकी शोकसभा में विभिन्न संगठनों, अनेक संस्थाओं और विश्वविद्यालयों से लोग आए। मुँह लटकाए हुए उनकी अंत्येष्टि में शामिल हुए। कई प्रमुख प्रतिष्ठानों से तार आए कि वे अपने प्रतिनिधि भेज रहे हैं।

    प्रोफ़ेसर का घर फूलों से भर गया। बहुत सारे लेखक, प्राध्यापक, आचार्य छात्र अत्यंत सम्मान के साथ उनके पार्थिव शरीर को भीगी आँखों से देख रहे थे, क्योंकि प्रोफ़ेसर यूनानी थे, इसलिए यूनानी संस्थाओं ने भजन गाने के लिए दो गायकों को भेजा ताकि दिवंगत आत्मा को शांति मिले। घबराई हुई चिड़ियाँ एक दीवार से दूसरी दीवार पर बैठ रही थीं। उनकी पाँखों में अशांति की फड़फड़ाहट थी। उनकी चहचहाहट में उदासी भरी थी। एक किताब केस से दूसरे किताब केस पर, एक बल्ली से दूसरी बल्ली पर वे बौराई-सी उड़ रही थीं। टेकला ने उन्हें अपने-अपने पिंजरों में डालने का प्रयास किया, पर वह सफल नहीं हुई

    दो दरवाज़े और खिड़कियाँ लापरवाही से खुली रह गई थीं, उनसे कुछ चिड़ियाँ बाहर निकल आई थीं। एक तोता चिल्ला-चिल्लाकर टेकला को यह सूचित कर रहा था कि फ़ोन की घंटी बज रही है। पर टेकला तो अपना होश ही भूली हुई थी। यूनानी समुदाय के अधिकारी क़ब्रिस्तान के अग्रिम भुगतान के लिए तक़ाज़ा कर रहे थे और एक पॉलिश मेजर जो प्रोफ़ेसर का विद्यार्थी रह चुका था, उन्हें इसके भीषण परिणाम की सूचना दे रहा था।

    अगली सुबह एक यूनानी अरथी गली से निकली। काले कपड़ों में ढके शव की सिर्फ़ दो आँखें दिखाई दे रही थीं, मानो बादलों से छाए आसमान से विदा माँग रही हों। जब शव-यात्रा ‘टेक्की ऐवन्यू' से पुराने शहर की ओर बढ़ रही थी तो कबूतरों के झुंड उड़कर छतों पर बैठने लगे। उन कबूतरों की संख्या इतनी अधिक थी कि आसमान तथा इमारतों के बीच की गलियाँ उनसे पूरमपूर छा गईं। सँकरी गली तो शुरू से आख़िर तक इस क़दर धुँधला गई, ऐसा अँधेरा फैल गया, मानो सूरज पूरा अस्त हो गया हो। कबूतर थोड़ी देर के लिए ठौर प्रलंबित हुए, तत्पश्चात एक साथ सत्वर गति से शव-यात्रा को चारों ओर से घेरकर उड़ने लगे।

    जो प्रतिनिधि अरथी के नीचे गोल मालाएँ लेकर चल रहे थे, वे आश्चर्यचकित होकर ऊपर देखने लगे। गली के निवासी, क्या बूढ़े, क्या बीमार, अपनी अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए सीने पर सलीब का निशान बना रहे थे। कबूतरों के उस अप्रतिम करिश्मे को सभी आश्चर्य से देख रहे थे। टेकला ने अपने दोनों हाथ काली शाल से बाहर निकाले और फफक-फफक कर रोने लगी।

    कबूतरों का पूरा समूह तब तक अरथी के साथ-साथ चलता रहा, जब तक वह 'ब्रोवासी' गली में नहीं पहुँची। जिस कवायद से कबूतरों ने आकाश में गोल घेरा बनाया था, उसमें उनके अनेक पंख, धूप तथा छाँह के बीच में रहे थे। कभी लहू की तईं लाल तो कभी सीसे की तरह साँवले। यद्यपि उन पक्षियों की योजनाबद्ध उड़ान तो शव-यात्रा के आगे थी और पीछे। जब तक शव-यात्रा फ़रमानस्का और मैरियनस्टेट के प्रतिच्छेदक तक नहीं पहुँची, तब तक कबूतर अपनी गति से उड़ते रहे। फिर उन्होंने एक आख़िरी गोला बनाया और काफ़ी पीछे हो लिए। सभी पंखों वाले मेज़बान अपने संरक्षक की चिर-शांति के लिए फिर उसके साथ-साथ उड़ने लगे।

    जाने क्योंकर उन कबूतरों को यह इलहाम हो गया था कि उनके लिए अगली सुबह शरतकाल की तरह उबाऊ अवसाद-भरी होगी। उस दुःखद स्थिति के बाद ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे आकाश को जंग लग गया हो और वह जर्जरित होकर नीचे झुक आया हो। चिमनी का धुआँ वापस छत पर इकट्ठा होने लगा था। सुइयों की तरह पतली-पतली बारिश हो रही थी। रात के अँधेरे में प्रोफ़ेसर के दरवाज़े पर किसी ने 'स्वास्तिक' का चिह्न बना दिया था। दानों का थैला लेकर टेकला बाहर आई, पर कुछ ही कबूतर नीचे आए। वे सहमे-सहमे झिझकते हुए दाना चुग रहे थे। उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था कि प्रतिबंध की अवज्ञा करने पर वे पकड़े जाएँगे। नाली से जले कोयलों की दुर्गंध रही थी और आसपास चारों ओर बरबादी का आभास होने लगा था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 206)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : आईज़ैक बेशविस सिंगर
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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