बड़े-बड़े मकानों, बड़ी-बड़ी दूकानों, लंबी-चौड़ी सड़कों, एक से एक बढ़ के कारख़ानों और रोज़गारियों की बहुतायत ही के सबब से नहीं, बल्कि अंग्रेज़ो की कृपा से सैर तमाशे का घर बने रहने और समुद्र का पड़ोसी होने तथा जहाज़ी तिजारत की बदौलत आला दरजे की तरक़्क़ी पाते रहने के कारण इस समय कलकत्ता शहर जितना मशहूर और लक्ष्मी के कृपापात्रों का घर हो रहा है उतना बंबई के सिवा और कोई दूसरा शहर नहीं। साथ ही इसके इस शहर में जैसे अमीरों और बड़ी-बड़ी सड़कों और मकानों की भरमार है उसी तरह मज़दूरी पेशे वाले, दीन-लाचार तथा और तरह से औक़ात गुज़ारी करने वाले ग़रीबों और उनके रहने वाले छोटे-छोटे तंग, गंदे और पुराने मकानों तथा उसी ढब की गंदी गलियों की भी कमी नहीं है। अस्तु इस समय हम कलकत्ते की ख़ूबी और ख़राबी का बयान करने के लिए तैयार नहीं हैं जो यहाँ का ख़ुलासा हाल लिखकर पाठकों का अमूल्य समय नष्ट करें, बल्कि वहाँ के एक छोटे से फैक्ट को लिखकर पाठकों को एक अनूठा रहस्य दिखाना चाहते हैं।
कलकत्ते की एक तंग, अँधेरी और गंदी गली के अंदर पुराने और छोटे से मकान की नीचे वाली कोठड़ी में एक औरत को फटे-पुराने आसन पर बैठे हुए परमात्मा के ध्यान में निमग्न देख रहे हैं। इस मकान में यद्यपि इसी की तरह और भी कई ग़रीब किराएदार रहते हैं और उनकी बातचीत तथा आपस में झगड़े तकरार के कारण इस समय मकान में कोलाहल-सा हो रहा है मगर उस औरत का चित्त किसी तरह हिलता हुआ दिखाई नहीं देता और वह आँखें बंद किए माला जपती अपने ध्यान में लगी हुई है और उस कोठड़ी का दरवाज़ा अधखुला-सा दिखाई दे रहा है।
जब हम उसके सामान की तरफ़ ध्यान देते हैं तब उस औरत की ग़रीबी और लाचारी का अंदाज़ा सहज ही में मिल जाता है। एक कोने में फटे-पुराने कपड़े की छोटी अधखुली-सी गठड़ी, दूसरे कोने में पानी की एक ठिलिया और उसके पास ही छोटा-सा पीतल का गिलास पड़ा है। ऊपर की तरफ़ एक किल्ली के सहारे काली पेंदी की हाँडी टँगी हुई है जिससे मालूम होता था कि यही हाँडी नित्य चूल्हे पर चढ़ा करती है। पानी वाले घड़े के दाहिनी तरफ़ चूल्हा और उसके सहारे छोटी-छोटी दो रिकाबियाँ रखी हैं, वे भी साबुत नहीं है। बाईं तरफ़ (जहाँ औरत बैठी है) मिट्टी का छोटा-सा चौकूठा चबूतरा बना है जिस पर तुलसी जी का एक पेड़ है जिसके सामने वह औरत बैठी हुई इस कंगाली की अवस्था में भी बे-फ़िक्री के साथ उपासना कर रही है और उसके पास ही एक चक्की भी गड़ी हुई है।
इतना होने पर भी उस कोठड़ी में किसी तरह की गंदगी या मैलापन नहीं है, गोबर से लीपकर तमाम ज़मीन साफ़ और सुथरी बनाई हुई है।
स्त्री का जप पूरा हुआ और वह तुलसी जी को प्रणाम कर हाथ की माला रक्खा ही चाहती थी कि कोठड़ी का दरवाज़ा खुला और एक आठ या नौ वर्ष का बालक अंदर आता हुआ दिखाई दिया।
बालक, “माँ! तू पूजा कर चुकी?”
स्त्री, “हाँ बेटा कर चुकी।”
बालक, “बाहर हरी खड़ा है। कहता है, पाठशाला में जाने का समय हो गया। मुझे भूख लगी है; बिना खाए मैं पाठशाला में कैसे जाऊँ?”
स्त्री, “(लंबी साँस लेकर और माला रखकर) बेटा आज तो कुछ खाने को नहीं है, मैं दो-तीन जगह गई थी, कहीं से गेहूँ भी नहीं मिला जो पीसकर दे आती और मजूरी के दो पैसे लेकर तेरे खाने का इंतिज़ाम करती। नवीन की माँ ने गेहूँ देने के लिए दस बजे बुलाया था सो अब मैं जाती हूँ।”
बालक, “तो मैं पाठशाला में न जाऊँगा। मुझे बड़ी भूख लगी है। तू तो दिन-रात पूजा ही किया करती है, खाने को तो लाती नहीं।”
स्त्री, “बेटा क्या करूँ! तेरे ही लिए तो दिन-रात पूजा किया करती हूँ। ठाकुरजी से तेरे खाने के लिए माँगती हूँ।”
बालक, “क्या तेरे माँगने से ठाकुरजी खाने को दे देंगे?”
स्त्री, “क्यों न देंगे? तमाम दुनिया को देते हैं तो क्या मुझी को न देंगे?”
बालक, “तो देते क्यों नहीं? मुझे बता ठाकुर जी कहाँ हैं, मैं भी उनसे माँगूँ।”
स्त्री, “(डबडबाई आँखों से) ठाकुरजी बड़ी दूर रहते हैं, इसी से मेरी आवाज़ अभी तक उन्होंने नहीं सुनी।”
बालक, “तो दूसरों की आवाज़ कैसे सुनते हैं जिन्हें खाने को देते हैं?”
स्त्री, “(कुछ सोचकर) रोज़-रोज़ के पुकारने से सुन ही लेते हैं और जब सुन लेते हैं तो सब कुछ देते हैं।”
बालक, “हलुआ, जलेबी, लड्डू पेड़ा सब कुछ देते हैं?”
स्त्री, “हाँ बेटा, सब कुछ देते हैं।” इतना कहकर स्त्री ने पूजा समाप्त की और लड़के को गोद में लेकर आँचल से उसका मुँह पोंछने लगी और लड़के ने पुनः उससे पूछना शुरू किया।
बालक, “हाँ माँ, तो तू ठाकुरजी का ठिकाना तो बता दे।”
स्त्री, “बेटा! ठाकुर जी बैकुंठ में रहते हैं। वह सब राजों के राजा हैं, उनका ठिकाना क्या?”
बालक, “बैकुंठ कैसा है?”
स्त्री, “बैकुंठ बड़ा भारी मकान है। चारों तरफ़ हीरा-पन्ना, जवाहिरात जड़े हैं। वहाँ बड़ा आनंद रहता है।”
बालक, “हमेलटीन कंपनी की दुकान से भी ज़ियादा सजा हुआ है? वहाँ मैं नवीन भैया के साथ गया था। ख़ूब देखा, मगर चपरासी ने भीतर जाने नहीं दिया। कान पकड़ के निकाल दिया।”
स्त्री, “बेटा, मैं क्या जानूँ हमेलटीन कौन है और उसकी दुकान कहाँ है, पर ठाकुर जी के बराबर दुनिया में किसी का मकान न होगा।”
बालक, “ठाकुरजी का नाम ‘ठाकुरजी’ ही है या कोई और भी है? जैसे मेरा नाम गोपाल भी है, लल्लो भी है।”
स्त्री, “हाँ बेटा, तुम्हारे तो दो ही नाम हैं मगर उनके हज़ारों नाम हैं।”
बालक, “सबसे बड़ा नाम उनका कौन है?”
स्त्री, “लक्ष्मीनाथ। अच्छा बेटा, अब तू ज़रा यहाँ बैठ, मैं नवीन की माँ के पास से जा के पीसने के लिए गेहूँ ले आऊँ, तब तेरे खाने-पीने का भी बंद-ओ-बस्त करूँ। आज तू पाठशाले मत जा, कल जाइओ।”
बालक, “अच्छा माँ, तू जा, मैं यहाँ बैठा-बैठा लिखूँगा-पढ़ूँगा। मगर मुझे पानी पिलाती जा, कुछ तो पेट भर जाएगा।”
स्त्री की आँखें अच्छी तरह डबडबा आई। मगर उसने जल्दी से आँखें पोंछ डाली जिससे गोपाल को मालूम न हो और पानी पिलाकर घर के बाहर निकल गर्इ।
संध्या होने में अभी दो घंटे की देर है। कलकत्ते के बाज़ारों की रौनक़ पल-पल में बढ़ती जाती है। और बाज़ारों को छोड़कर हम अपने पाठकों को उस बाज़ार में ले चलते हैं जिसकी दोनों मंज़िलें सैर-तमाशे के शौक़ीनों के दिल में ठंढक देने और मनचलों की झुकी हुई गरदने ऊपर की तरफ़ उठा देने वाली हैं। इसी बाज़ार में हम एक दोहरे टपवाली (लैंडो) फिटिन, जिसके आगे बैलों की जोड़ी जुती हुई है, धीरे-धीरे जाते देखते हैं।
इस गाड़ी में एक अधेड़ उम्र का रईस बैठा हुआ है और उसके सामने की तरफ़ दो आदमी (जो उसके आश्रित होंगे) भी बैठे कभी-कभी कुछ बातें करते जाते हैं, रईस की निगाह दोनों तरफ़ की दुकानों और कोठों पर पड़कर उसके दिल में तरह-तरह के भाव पैदा करते जाते थे। अकस्मात् उस रईस की निगाह एक बालक के ऊपर जा पड़ी, जो सड़क के किनारे पर रखे हुए एक लेटर बक्स के अंदर चीठी डालने का उद्योग कर रहा था, मगर उसके मुँह तक हाथ न जाने के कारण वह बहुत ही दु:खी होकर तरह-तरह की तरकीबें कर रहा था। धीरे-धीरे यह फिटिन भी उसके पास तक जा पहुँची और उस लड़के की सूरत-शक्ल तथा इस समय की अवस्था पर रईस को बड़ी दया आई। उसने समझा कि यह ग़रीब लड़का, जिसके बदन पर साबुत कपड़ा तक नहीं है, शायद किसी दुकानदार का शागिर्द या नौकर है और उसी ने इस बेचारे को इसकी सामर्थ्य से बाहर काम करने की आज्ञा दी है और यह बेचारा डर के मारे अपना काम पूरा किए बिना यहाँ से टलना नहीं चाहता। रईस ने अपने एक मुसाहब को जो उसके सामने की तरफ़ बैठा हुआ था, गाड़ी से नीचे उतरकर उस लड़के की कठिनाई को दूर करने का इशारा किया। गाड़ी खड़ी की गई और वह मुसाहब नीचे उतरकर लड़के के पास गया। बोला, “ला तेरी चीठी मैं इस बम्बे में डाल दूँ।” इसके जवाब में लड़के ने सलाम करके चीठी उसके हाथ में दे दी। मुसाहब की निगाह जब लिफ़ाफ़े पर पड़ी तो चौंक पड़ा और वह लिफ़ाफ़ा रईस के पास नाम दिखाने के लिए ले आया। लड़के को यह बात कुछ बुरी मालूम हुई क्योंकि उसे अपनी चीठी के छिन जाने का भय हुआ। इसलिए वह भी उस मुसाहब के पीछे-पीछे गाड़ी के पास तक चला आया और रोनी सूरत से उस रईस के मुँह की तरफ़ देखने लगा। उसकी इस अवस्था पर रईस का दिल और भी हिल गया। उसने लिफ़ाफ़े पर एक नज़र डालने के बाद उस लड़के से कहा, “डरो मत, हम तुम्हारी चीठी ले न लेंगे, इस पर पता ठीक-ठीक नहीं लिखा है इसी से यह आदमी मुझे दिखाने के लिए ले आया है। कहो तो मैं इस पर अंग्रेज़ी में पता लिख दूँ जिसमें चीठी जल्द ठाकुर जी के पास पहुँच जाए।” लड़के ने ख़ुश होकर कहा, “हाँ, लिख दीजिए।”
उस चीठी पर यह लिखा हुआ था—श्री ठाकुरजी महाराज लक्ष्मीनाथ के पास चीठी पहुँचे।
स्थान—बैकुंठ।
रईस ने अंग्रेज़ी में उस पर यह लिख दिया- M. PRATAP NARAIN HARRISON ROAD, Calcutta,
लड़का अंग्रेज़ी नहीं जानता था इसलिए वह इस बात को कुछ समझ न सका। इसके बाद रईस ने उस लड़के से, जो बातचीत करने में बहुत तेज़ और ढीठ भी था, पूछा, “तुम्हारा मकान कहाँ पर है?”
लड़का, “(हाथ का इशारा करके) उस तरफ़, बड़ी दूर है।”
रईस, “(प्यार से उसका हाथ पकड़ के) आओ हमारी गाड़ी पर बैठ जाओ, हम तुम्हें तुम्हारे घर तक पहुँचा देंगे।”
लड़का गाड़ी पर सवार हो गया। रईस ने उसे अपने बग़ल में बैठा लिया, गाड़ी पुनः धीरे-धीरे रवाना हुई और रईस तथा उस लड़के में यूँ बातचीत होने लगी—
रईस, “यह चीठी तुमने अपने हाथ से लिखी है?”
लड़का, “हाँ।”
रईस, “किसके कहने से लिखी है?”
लड़का, “अपनी ख़ुशी से।”
रईस, “तुमने कैसे जाना कि ठाकुर जी किसी का नाम है?”
लड़का, “मेरी माँ रोज़ उनकी पूजा किया करती है। उसी से मैंने सब कुछ पूछा था।”
रईस, “तुम्हारी माँ ने तुम्हें धोखा दिया।”
लड़का, “मेरी माँ कभी झूठ नहीं बोलती, सब कोई कहते हैं कि लल्लो की माँ झूठ नहीं बोलती।”
रईस, “तो क्या यह चीठी तुमने अपनी माँ से छिपा के लिखी है?”
रईस, “(लड़के की पीठ पर हाथ फेर के) नहीं-नहीं, तुम डरो मत। हम तुम्हारी माँ से यह हाल न कहेंगे। हमारा कोई आदमी भी ऐसा न करेगा। अच्छा यह तो बताओ कि चीठी में तुमने क्या लिखा है?”
इसका जवाब लड़के ने कुछ भी न दिया। रईस ने दो-तीन दफ़े यही बात पूछी मगर कुछ जवाब न पाया। आख़िर यह सोचकर चुप हो रहा कि आख़िर वह चीठी मेरे यहाँ पहुँचेगी क्योंकि मैंने उस पर अपना पता लिख दिया है, अस्तु जो कुछ उसमें होगा मालूम हो जाएगा।
इतने ही में लड़का चौंक पड़ा और गद्दी पर से कुछ उठकर बोला, “वह मेरी गली आ गई, मुझे उतार दो।”
रईस की आज्ञानुसार गाड़ी खड़ी की गई और वह लड़का उतरकर अपने उसी मकान में चला गया जिसका परिचय हम पहिले बयान में दे आए हैं। मगर रईस का इशारा पाकर उसका एक आदमी लड़के के पीछे-पीछे गया और उसका मकान अच्छी तरह देख-भाल आया। इसके बाद गाड़ी वहाँ से रवाना होकर तेज़ी के साथ एक तरफ़ को चली गई।
हमारे परिचित रईस महाराज कुमार प्रतापनारायण की अवस्था आज कुछ निराले ही ढंग की हो रही है। वह ऊँचे दर्जे का अमीर और ज़मींदार था, वह हर तरह की ख़ुशी का सामान अपने चारों तरफ़ देखता था और बिना औलाद के रहकर भी वह दिन-रात अपने को प्रसन्न रखता था। मगर आज मालूम होता है कि उसकी तमाम बनावटी ख़ुशियों का ख़ून हो गया है और उसके अंदर किसी सच्ची ख़ुशी का दरिया जोश मार रहा है, जिसके सबब से उसकी बड़ी-बड़ी आँखें प्रेम के आँसुओं का सोता बहा रही हैं। गोपाल लड़के के हाथ की लिखी हुई कल वाली चीठी जिस पर उसने अपना पता लिखकर डाक के बंबे में छुड़वा दिया था, उसके हाथ में थी और वह अपने कमरे में अकेला बैठा हुआ उसे बारबार पढ़कर भी अपने दिल को संतोष नहीं दे सकता था। उस चिट्ठी का यह मज़मून था—
‘श्रीठाकुरजी महाराज! लक्ष्मीनाथ!’
मैंने अपनी माँ से सुना है कि तमाम दुनिया को तुम खाने के लिए देते हो, जो कोई जो कुछ माँगता है, तुम वही देते हो, तुम्हारे भंडार में सब कुछ भरा रहता है तो फिर मुझे क्यों नहीं देते? दयानिधान! आज मैं दिन भर का भूखा हूँ, मेरी माँ न मालूम कै दिन की भूखी है, मेरे घर का रोज़ ही यही हाल रहता है, कब तक मैं लिखा करूँगा? कृपा कर मेरे लिए दो सेर लड्डू का बंद-ओ-बस्त कर दीजिए जिससे मैं, मेरी माँ और मेरे साथ खेलने वाले लड़के भी रोज़ खा लिया करें, मैंने आज तक कभी नहीं खाया, मैं उसका स्वाद नहीं जानता...।’
पुनः पढ़कर उसने अपने कलेजे पर हाथ रखा और लंबी साँस लेकर कहा, “हा!! व्यर्थ ही इतने दिन भूल-भुलैये में घूमते हुए नष्ट किए। हाँ! एक दिन भी ऐसा सरल विश्वास भगवान् पर न हुआ! आज मालूम हुआ कि मैं कौन हूँ और मुझे क्या करना चाहिए! हे ईश्वर तू धन्य है, निःसंदेह तुझ पर जो भरोसा और विश्वास रखता है, उसी का बेड़ा पार है। अच्छा, पतितपावन! अब मैं भी तेरे दरवाज़े की ख़ाक छानूँगा और देखूगा कि तेरी लंबी भुजा के सहारे मुझ अधर्म का क्योंकर उद्धार होता है?”
इतने ही में कमरे का दरवाज़ा खुला और विपिनविहारी बाबू वकील हाईकोर्ट की सूरत दिखाई दी, जो बड़े ही नेक, भोले-भाले तबीअत के आदमी थे और जिन्हें महाराज कुमार प्रतापनारायण ने एक वसीयतनामा लिखने के लिए बुलाया था।
आओ देखें तो सही इस समय हमारा गोपाल कहाँ है और क्या कर रहा है। देखो वह अपनी माँ के पास बैठा हुआ मीठी-मीठी बातें कर रहा है। वह डरता-डरता कह रहा है—“माँ, मैंने ठाकुरजी को चीठी लिखी है। वह आज ज़रूर पहुँच गई होगी। तू कहती थी कि वह पल-भर में तमाम दुनिया की ख़बर ले लेते हैं, अगर ऐसा है तो बस अब थोड़ी ही देर में मेरे पास भी लड्डू की हाँड़ी पहुँचा चाहती है। आज तू मेरे खाने की फ़िक्र न कर।” इत्यादि और उसकी माँ अपनी आँखों से आँसुओं की धारा बहा रही है। इतने ही में दरवाज़े के बाहर से किसी ने गोपाल कहकर पुकारा, जिसे सुनकर गोपाल दौड़ता हुआ घर के बाहर चला गया। थोड़ी ही देर के बाद जब लौटकर अपनी माँ के पास आया तो उसके एक हाथ में लड्डू से भरी हुई एक हाँडी थी और दूसरे हाथ में एक चीठी। गोपाल ने ख़ुशी-ख़ुशी अपनी माँ से कहा, “देख माँ, मैं कहता था न...कि ठाकुर जी का आदमी लड्डू लेकर आता होगा। देख, कैसा बढ़िया लड्डू है, अहाहा।”
एक चीठी भी ठाकुरजी ने भेजी है। देख यह चीठी है—
गोपाल की बात सुनकर उसकी माँ भौचक-सी हो गई और वह तअज्जुब भरी निगाहों से गोपाल का मुँह देखने लगी। दिल के अंदर से उठे हुए जोश ने उसका गला भर दिया था और वह कुछ बोल नहीं सकती थी। जब गोपाल ने चीठी उसके हाथ में दी, तब वह खोलकर पढ़ने लगी। जिसका मतलब यह था—
“ठाकुर जी ने दो सेर लड्डू रोज़ तुम्हारे पास भेजने की आज्ञा दी है सो आज से बराबर तुम्हारे पास पहुँचा करेगा। ठाकुर जी ने तुम्हारे लिए और भी बहुत कुछ प्रबंध किया है जिसका हाल कुछ दिन बाद मालूम होगा।”
गोपाल की माँ को बड़ा ही आश्चर्य हुआ! वह तअज्जुब-भरी निगाहों से कभी गोपाल का मुँह देखती और कभी लड्डू तथा चीठी की तरफ़ ध्यान देती। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आता था कि यह क्या हुआ और क्योंकर हुआ। मगर गोपाल को इन सब सोच-विचारों से क्या संबंध था, वह उसी समय थोड़ा-सा लड्डू लेकर घर के बाहर निकल गया और अपने हमजोली तथा साथ खेलने वाले लड़कों को ख़ुशी से बाँटकर घर चला आया। इसके बाद ख़ुद भी लड्डू खाए और अपनी माँ को भी ज़िद कर के खिलाया।
पंद्रह दिन तक नित्य एक आदमी आकर गोपाल के घर पर लड्डू दे जाया करता और उसकी माँ तरह-तरह के सोच-विचारों में अपना समय बिताया करती।
इसके बाद सोलहवें दिन जब महाराज कुमार प्रतापनारायण की चीठी एक वसीयतनामे के साथ सरकारी वकील की मार्फ़त उसके पास पहुँची, तब उसे मालूम हुआ कि गोपाल के सच्चे प्रेम, विश्वास और भोलेपन ने उसकी हुर्मत और औक़ात तथा ज़िंदगी के ढंग का कैसा काया पलट कर डाला है और उसके घर पर लड्डू पहुँचाने वाले महाराज कुमार प्रतापनारायण के दिल पर उसका कितना बड़ा असर पड़ा कि उसने अपनी तमाम जायदाद का मालिक गोपाल को बनाकर इसलिए ब्रज-यात्रा की कि उसी भक्तवत्सल, पतितपावन बैकुंठनाथ के प्रेम में अपना जीवन समाप्त करके सच्चे सुख का लाभ करे।
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balak, man! tu puja kar chuki?
istri, han beta kar chuki
balak, bahar hari khaDa hai kahta hai, pathashala mein jane ka samay ho gaya mujhe bhookh lagi hai; bina khaye main pathashala mein kaise jaun?
istri, (lambi sans lekar aur mala rakhkar) beta aaj to kuch khane ko nahin hai, main do teen jagah gai thi, kahin se gehun bhi nahin mila jo piskar de aati aur majuri ke do paise lekar tere khane ka intizam karti nawin ki man ne gehun dene ke liye das baje bulaya tha so ab main jati hoon
balak, to main pathashala mein na jaunga mujhe baDi bhookh lagi hai tu to din raat puja hi kiya karti hai, khane ko to lati nahin
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rais ne angrezi mein us par ye likh diya m pratap narain harrison roaD, calcutta,
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rais, kiske kahne se likhi hai?
laDka, “apni khushi se
rais, tumne kaise jana ki thakur ji kisi ka nam hai?
laDka, “meri man roz unki puja kiya karti hai usi se mainne sab kuch puchha tha
rais, tumhari man ne tumhein dhokha diya
laDka, “meri man kabhi jhooth nahin bolti, sab koi kahte hain ki lallo ki man jhooth nahin bolti
rais, to kya ye chithi tumne apni man se chhipa ke likhi hai?
laDka, “han (roni surat se) agar meri man sunegi to mujhe maregi
rais, “(laDke ki peeth par hath pher ke) nahin nahin, tum Daro mat hum tumhari man se ye haal na kahenge hamara koi adami bhi aisa na karega achchha ye to batao ki chithi mein tumne kya likha hai?
iska jawab laDke ne kuch bhi na diya rais ne do teen dafe yahi baat puchhi magar kuch jawab na paya akhir ye sochkar chup ho raha ki akhir wo chithi mere yahan pahunchegi kyonki mainne us par apna pata likh diya hai, astu jo kuch usmen hoga malum ho jayega
itne hi mein laDka chaunk paDa aur gaddi par se kuch uthkar bola, wah meri gali aa gai, mujhe utar do
rais ki agyanusar gaDi khaDi ki gai aur wo laDka utarkar apne usi makan mein chala gaya jiska parichai hum pahile byan mein de aaye hain magar rais ka ishara pakar uska ek adami laDke ke pichhe pichhe gaya aur uska makan achchhi tarah dekh bhaal aaya iske baad gaDi wahan se rawana hokar tezi ke sath ek taraf ko chali gai
hamare parichit rais maharaj kumar prtapnarayan ki awastha aaj kuch nirale hi Dhang ki ho rahi hai wo unche darje ka amir aur zamindar tha, wo har tarah ki khushi ka saman apne charon taraf dekhta tha aur bina aulad ke rahkar bhi wo din raat apne ko prasann rakhta tha magar aaj malum hota hai ki uski tamam banawati khushiyon ka khoon ho gaya hai aur uske andar kisi sachchi khushi ka dariya josh mar raha hai, jiske sabab se uski baDi baDi ankhen prem ke ansuon ka sota baha rahi hain gopal laDke ke hath ki likhi hui kal wali chithi jis par usne apna pata likhkar Dak ke bambe mein chhoDwa diya tha, uske hath mein thi aur wo apne kamre mein akela baitha hua use barbar paDhkar bhi apne dil ko santosh nahin de sakta tha us chitthi ka ye mazmun tha—
shrithakurji maharaj! lakshminath!
mainne apni man se suna hai ki tamam duniya ko tum khane ke liye dete ho, jo koi jo kuch mangta hai, tum wahi dete ho, tumhare bhanDar mein sab kuch bhara rahta hai to phir mujhe kyon nahin dete? dayanidhan! aaj main din bhar ka bhukha hoon, meri man na malum kai din ki bhukhi hai, mere ghar ka roz hi yahi haal rahta hai, kab tak main likha karunga? kripa kar mere liye do ser laDDu ka band o bast kar dijiye jisse main, meri man aur mere sath khelnewale laDke bhi roz kha liya karen, mainne aaj tak kabhi nahin khaya, main uska swad nahin janta
punः paDhkar usne apne kaleje par hath rakha aur lambi sans lekar kaha, ha!! byarth hi itne din bhool bhulaiye mein ghumte hue nasht kiye han! ek din bhi aisa saral wishwas bhagwan par na hua! aaj malum hua ki main kaun hoon aur mujhe kya karna chahiye! he ishwar tu dhany hai, niःsandeh tujh par jo bharosa aur wishwas rakhta hai, usi ka beDa par hai achchha, patitpawan! ab main bhi tere darwaze ki khak chhanunga aur dekhuga ki teri lambi bhuja ke sahare mujh adharm ka kyonkar uddhaar hota hai?
itne hi mein kamre ka darwaza khula aur wipinawihari babu wakil haikort ki surat dikhai di, jo baDe hi nek, bhole bhale tabiat ke adami the aur jinhen maharaj kumar prtapnarayan ne ek wasiyatnama likhne ke liye bulaya tha
ao dekhen to sahi is samay hamara gopal kahan hai aur kya kar raha hai dekho wo apni man ke pas baitha hua mithi mithi baten kar raha hai wo Darta Darta kah raha hai—man, mainne thakurji ko chithi likhi hai wo aaj zarur pahunch gai hogi tu kahti thi ki wo pal bhar mein tamam duniya ki khabar le lete hain, agar aisa hai to bus ab thoDi hi der mein mere pas bhi laDDu ki hanDi pahuncha chahti hai aaj tu mere khane ki fir na kar ityadi aur uski man apni ankhon se ansuon ki dhara baha rahi hai itne hi mein darwaze ke bahar se kisi ne gopal kahkar pukara, jise sunkar gopal dauDta hua ghar ke bahar chala gaya thoDi hi der ke baad jab lautkar apni man ke pas aaya to uske ek hath mein laDDu se bhari hui ek hanDi thi aur dusre hath mein ek chithi gopal ne khushi khushi apni man se kaha, dekh man, main kahta tha na ki thakur ji ka adami laDDu lekar aata hoga dekh, kaisa baDhiya laDDu hai, ahaha
ek chithi bhi thakurji ne bheji hai dekh ye chithi hai—
gopal ki baat sunkar uski man bhauchak si ho gai aur wo tajjub bhari nigahon se gopal ka munh dekhne lagi dil ke andar se uthe hue josh ne uska gala bhar diya tha aur wo kuch bol nahin sakti thi jab gopal ne chithi uske hath mein di, tab wo kholkar paDhne lagi jiska matlab ye tha—
thakur ji ne do ser laDDu roz tumhare pas bhejne ki aagya di hai so aaj se barabar tumhare pas pahuncha karega thakur ji ne tumhare liye aur bhi bahut kuch prbandh kiya hai jiska haal kuch din baad malum hoga
gopal ki man ko baDa hi ashchary hua! wo tajjub bhari nigahon se kabhi gopal ka munh dekhti aur kabhi laDDu tatha chithi ki taraf dhyan deti uski samajh mein kuch bhi nahin aata tha ki ye kya hua aur kyonkar hua magar gopal ko in sab soch wicharon se kya sambandh tha, wo usi samay thoDa sa laDDu lekar ghar ke bahar nikal gaya aur apne hamjoli tatha sath khelne wale laDkon ko khushi se bantakar ghar chala aaya iske baad khu bhi laDDu khaye aur apni man ko bhi zid kar ke khilaya
pandrah din tak nity ek adami aakar gopal ke ghar par laDDu de jaya karta aur uski man tarah tarah ke soch wicharon mein apna samay bitaya karti
iske baad solahwen din jab maharaj kumar prtapnarayan ki chithi ek wasiyatname ke sath sarkari wakil ki marfat uske pas pahunchi, tab use malum hua ki gopal ke sachche prem, wishwas aur bholepan ne uski hurmat aur auqat tatha zindagi ke Dhang ka kaisa kaya palat kar Dala hai aur uske ghar par laDDu pahunchane wale maharaj kumar prtapnarayan ke dil par uska kitna baDa asar paDa ki usne apni tamam jayadad ka malik gopal ko banakar isliye braj yatra ki ki usi bhaktawatsal, patitpawan baikunthnath ke prem mein apna jiwan samapt karke sachche sukh ka labh kare
baDe baDe makanon, baDi baDi dukanon, lambi chauDi saDkon, ek se ek baDh ke karkhanon aur rozgariyon ki bahutayat hi ke sabab se nahin, balki angrezo ki kripa se sair tamashe ka ghar bane rahne aur samudr ka paDosi hone tatha jahazi tijarat ki badaulat aala darje ki taraqqi pate rahne ke karan is samay kalkatta shahr jitna mashhur aur lakshmi ke kripapatron ka ghar ho raha hai utna bambai ke siwa aur koi dusra shahr nahin sath hi iske is shahr mein jaise amiron aur baDi baDi saDkon aur makanon ki bharmar hai usi tarah mazduri peshe wale, deen lachar tatha aur tarah se auqat guzari karne wale gharibon aur unke rahne wale chhote chhote tang, gande aur purane makanon tatha usi Dhab ki gandi galiyon ki bhi kami nahin hai astu is samay hum kalkatte ki khubi aur kharabi ka byan karne ke liye taiyar nahin hain jo yahan ka khulasa haal likhkar pathkon ka amuly samay nasht karen, balki wahan ke ek chhote se phaikt ko likhkar pathkon ko ek anutha rahasy dikhana chahte hain
kalkatte ki ek tang, andheri aur gandi gali ke andar purane aur chhote se makan ki nichewali kothDi mein ek aurat ko phate purane aasan par baithe hue parmatma ke dhyan mein nimagn dekh rahe hain is makan mein yadyapi isi ki tarah aur bhi kai gharib kirayedar rahte hain aur unki batachit tatha aapas mein jhagDe takrar ke karan is samay makan mein kolahal sa ho raha hai magar us aurat ka chitt kisi tarah hilta hua dikhai nahin deta aur wo ankhen band kiye mala japti apne dhyan mein lagi hui hai aur us kothDi ka darwaza adhakhula sa dikhai de raha hai
jab hum uske saman ki taraf dhyan dete hain tab us aurat ki gharib aur lachari ka andaza sahj hi mein mil jata hai ek kone mein phate purane kapDe ki chhoti adhakhuli si gathDi, dusre kone mein pani ki ek thiliya aur uske pas hi chhota sa pital ka gilas paDa hai upar ki taraf ek killi ke sahare kali pendi ki hanDi tegi hui hai jisse malum hota tha ki yahi hanDi nity chulhe par chaDha karti hai pani wale ghaDe ke dahini taraf chulha aur uske sahare chhoti chhoti do rikabiyan rakhi hain, we bhi sabut nahin hai bain taraf (jahan aurat baithi hai) mitti ka chhota sa chaukutha chabutara bana hai jis par tulsi ji ka ek peD hai jiske samne wo aurat baithi hui is kangali ki awastha mein bhi be fikri ke sath upasna kar rahi hai aur uske pas hi ek chakki bhi gaDi hui hai
itna hone par bhi us kothDi mein kisi tarah ki gandgi ya mailapan nahin hai, gobar se lipkar tamam zamin saf aur suthari banai hui hai
istri ka jap pura hua aur wo tulsi ji ko parnam kar hath ki mala rakkha hi chahti thi ki kothDi ka darwaza khula aur ek aath ya nau warsh ka balak andar aata hua dikhai diya
balak, man! tu puja kar chuki?
istri, han beta kar chuki
balak, bahar hari khaDa hai kahta hai, pathashala mein jane ka samay ho gaya mujhe bhookh lagi hai; bina khaye main pathashala mein kaise jaun?
istri, (lambi sans lekar aur mala rakhkar) beta aaj to kuch khane ko nahin hai, main do teen jagah gai thi, kahin se gehun bhi nahin mila jo piskar de aati aur majuri ke do paise lekar tere khane ka intizam karti nawin ki man ne gehun dene ke liye das baje bulaya tha so ab main jati hoon
balak, to main pathashala mein na jaunga mujhe baDi bhookh lagi hai tu to din raat puja hi kiya karti hai, khane ko to lati nahin
istri, beta kya karun! tere hi liye to din raat puja kiya karti hoon thakurji se tere khane ke liye mangti hoon
balak, kya tere mangne se thakurji khane ko de denge?
istri, kyon na denge? tamam duniya ko dete hain to kya mujhi ko na denge?
balak, to dete kyon nahin? mujhe bata thakur ji kahan hain, main bhi unse mangun
istri, “(DabDabai ankhon se) thakurji baDi door rahte hain, isi se meri awaz abhi tak unhonne nahin suni
balak, to dusron ki awaz kaise sunte hain jinhen khane ko dete hain?
istri, “(kuchh sochkar) roz roz ke pukarne se sun hi lete hain aur jab sun lete hain to sab kuch dete hain
balak, “halua, jalebi, laDDu peDa sab kuch dete hain?
istri, han beta, sab kuch dete hain itna kahkar istri ne puja samapt ki aur laDke ko god mein lekar anchal se uska munh ponchhne lagi aur laDke ne punः usse puchhna shuru kiya
balak, han man, to tu thakurji ka thikana to bata de
istri, beta! thakur ji baikunth mein rahte hain wo sab rajon ke raja hain, unka thikana kya?
balak, baikunth kaisa hai?
istri, baikunth baDa bhari makan hai charon taraf hira panna, jawahirat jaDe hain wahan baDa anand rahta hai
balak, hameltin kampni ki dukan se bhi ziyada saja hua hai? wahan main nawin bhaiya ke sath gaya tha khoob dekha, magar chaprasi ne bhitar jane nahin diya kan pakaD ke nikal diya
istri, beta, main kya janun hameltin kaun hai aur uski dukan kahan hai, par thakur ji ke barabar duniya mein kisi ka makan na hoga
balak, thakurji ka nam thakurji hi hai ya koi aur bhi hai? jaise mera nam gopal bhi hai, lallo bhi hai
istri, han beta, tumhare to do hi nam hain magar unke hazaron nam hain
balak, sabse baDa nam unka kaun hai?
istri, lakshminath achchha beta, ab tu zara yahan baith, main nawin ki man ke pas se ja ke pisne ke liye gehun le aun, tab tere khane pine ka bhi band o bast karun aaj tu pathshale mat ja, kal jaio
balak, achchha man, tu ja, main yahan baitha baitha likhunga paDhunga magar mujhe pani pilati ja, kuch to pet bhar jayega
istri ki ankhen achchhi tarah DabDaba i magar usne jaldi se ankhen ponchh Dali jisse gopal ko malum na ho aur pani pilakar ghar ke bahar nikal gari
sandhya hone mein abhi do ghante ki der hai kalkatte ke bazaron ki raunaq pal pal mein baDhti jati hai aur bazaron ko chhoDkar hum apne pathkon ko us bazar mein le chalte hain jiski donon manzilen sair tamashe ke shauqinon ke dil mein thanDhak dene aur manachlon ki jhuki hui garadne upar ki taraf utha dene wali hain isi bazar mein hum ek dohre tapwali (lainDo) phitin, jiske aage bailon ki joDi juti hui hai, dhire dhire jate dekhte hain
is gaDi mein ek adheD umr ka rais baitha hua hai aur uske samne ki taraf do adami (jo uske ashrit honge) bhi baithe kabhi kabhi kuch baten karte jate hain, rais ki nigah donon taraf ki dukanon aur kothon par paDkar uske dil mein tarah tarah ke bhaw paida karte jate the akasmat us rais ki nigah ek balak ke upar ja paDi, jo saDak ke kinare par rakhe hue ek letter baks ke andar chithi Dalne ka udyog kar raha tha, magar uske munh tak hath na jane ke karan wo bahut hi duhkhi hokar tarah tarah ki tarkiben kar raha tha dhire dhire ye phitin bhi uske pas tak ja pahunchi aur us laDke ki surat shakl tatha is samay ki awastha par rais ko baDi daya i usne samjha ki ye gharib laDka, jiske badan par sabut kapDa tak nahin hai, shayad kisi dukanadar ka shagird ya naukar hai aur usi ne is bechare ko iski samarthy se bahar kaam karne ki aagya di hai aur ye bechara Dar ke mare apna kaam pura kiye bina yahan se talna nahin chahta rais ne apne ek musahab ko jo uske samne ki taraf baitha hua tha, gaDi se niche utarkar us laDke ki kathinai ko door karne ka ishara kiya gaDi khaDi ki gai aur wo musahab niche utarkar laDke ke pas gaya bola, “la teri chithi main is bambe mein Dal doon iske jawab mein laDke ne salam karke chithi uske hath mein de di musahab ki nigah jab lifafe par paDi to chaunk paDa aur wo lifafa rais ke pas nam dikhane ke liye le aaya laDke ko ye baat kuch buri malum hui kyonki use apni chithi ke chhin jane ka bhay hua isliye wo bhi us musahab ke pichhe pichhe gaDi ke pas tak chala aaya aur roni surat se us rais ke munh ki taraf dekhne laga uski is awastha par rais ka dil aur bhi hil gaya usne lifafe par ek nazar Dalne ke baad us laDke se kaha, Daro mat, hum tumhari chithi le na lenge, is par pata theek theek nahin likha hai isi se ye adami mujhe dikhane ke liye le aaya hai kaho to main is par angrezi mein pata likh doon jismen chithi jald thakur ji ke pas pahunch jaye laDke ne khush hokar kaha, han, likh dijiye
us chithi par ye likha hua tha—shri thakurji maharaj lakshminath ke pas chithi pahunche
sthan—baikunth
rais ne angrezi mein us par ye likh diya m pratap narain harrison roaD, calcutta,
laDka angrezi nahin janta tha isliye wo is baat ko kuch samajh na saka iske baad rais ne us laDke se, jo batachit karne mein bahut tez aur Dheeth bhi tha, puchha, tumhara makan kahan par hai?
laDka, (hath ka ishara karke) us taraf, baDi door hai
rais, (pyar se uska hath pakaD ke) aao hamari gaDi par baith jao, hum tumhein tumhare ghar tak pahuncha denge
laDka gaDi par sawar ho gaya rais ne use apne baghal mein baitha liya, gaDi punः dhire dhire rawana hui aur rais tatha us laDke mein yoon batachit hone lagi—
rais, yah chithi tumne apne hath se likhi hai?
laDka, “han
rais, kiske kahne se likhi hai?
laDka, “apni khushi se
rais, tumne kaise jana ki thakur ji kisi ka nam hai?
laDka, “meri man roz unki puja kiya karti hai usi se mainne sab kuch puchha tha
rais, tumhari man ne tumhein dhokha diya
laDka, “meri man kabhi jhooth nahin bolti, sab koi kahte hain ki lallo ki man jhooth nahin bolti
rais, to kya ye chithi tumne apni man se chhipa ke likhi hai?
laDka, “han (roni surat se) agar meri man sunegi to mujhe maregi
rais, “(laDke ki peeth par hath pher ke) nahin nahin, tum Daro mat hum tumhari man se ye haal na kahenge hamara koi adami bhi aisa na karega achchha ye to batao ki chithi mein tumne kya likha hai?
iska jawab laDke ne kuch bhi na diya rais ne do teen dafe yahi baat puchhi magar kuch jawab na paya akhir ye sochkar chup ho raha ki akhir wo chithi mere yahan pahunchegi kyonki mainne us par apna pata likh diya hai, astu jo kuch usmen hoga malum ho jayega
itne hi mein laDka chaunk paDa aur gaddi par se kuch uthkar bola, wah meri gali aa gai, mujhe utar do
rais ki agyanusar gaDi khaDi ki gai aur wo laDka utarkar apne usi makan mein chala gaya jiska parichai hum pahile byan mein de aaye hain magar rais ka ishara pakar uska ek adami laDke ke pichhe pichhe gaya aur uska makan achchhi tarah dekh bhaal aaya iske baad gaDi wahan se rawana hokar tezi ke sath ek taraf ko chali gai
hamare parichit rais maharaj kumar prtapnarayan ki awastha aaj kuch nirale hi Dhang ki ho rahi hai wo unche darje ka amir aur zamindar tha, wo har tarah ki khushi ka saman apne charon taraf dekhta tha aur bina aulad ke rahkar bhi wo din raat apne ko prasann rakhta tha magar aaj malum hota hai ki uski tamam banawati khushiyon ka khoon ho gaya hai aur uske andar kisi sachchi khushi ka dariya josh mar raha hai, jiske sabab se uski baDi baDi ankhen prem ke ansuon ka sota baha rahi hain gopal laDke ke hath ki likhi hui kal wali chithi jis par usne apna pata likhkar Dak ke bambe mein chhoDwa diya tha, uske hath mein thi aur wo apne kamre mein akela baitha hua use barbar paDhkar bhi apne dil ko santosh nahin de sakta tha us chitthi ka ye mazmun tha—
shrithakurji maharaj! lakshminath!
mainne apni man se suna hai ki tamam duniya ko tum khane ke liye dete ho, jo koi jo kuch mangta hai, tum wahi dete ho, tumhare bhanDar mein sab kuch bhara rahta hai to phir mujhe kyon nahin dete? dayanidhan! aaj main din bhar ka bhukha hoon, meri man na malum kai din ki bhukhi hai, mere ghar ka roz hi yahi haal rahta hai, kab tak main likha karunga? kripa kar mere liye do ser laDDu ka band o bast kar dijiye jisse main, meri man aur mere sath khelnewale laDke bhi roz kha liya karen, mainne aaj tak kabhi nahin khaya, main uska swad nahin janta
punः paDhkar usne apne kaleje par hath rakha aur lambi sans lekar kaha, ha!! byarth hi itne din bhool bhulaiye mein ghumte hue nasht kiye han! ek din bhi aisa saral wishwas bhagwan par na hua! aaj malum hua ki main kaun hoon aur mujhe kya karna chahiye! he ishwar tu dhany hai, niःsandeh tujh par jo bharosa aur wishwas rakhta hai, usi ka beDa par hai achchha, patitpawan! ab main bhi tere darwaze ki khak chhanunga aur dekhuga ki teri lambi bhuja ke sahare mujh adharm ka kyonkar uddhaar hota hai?
itne hi mein kamre ka darwaza khula aur wipinawihari babu wakil haikort ki surat dikhai di, jo baDe hi nek, bhole bhale tabiat ke adami the aur jinhen maharaj kumar prtapnarayan ne ek wasiyatnama likhne ke liye bulaya tha
ao dekhen to sahi is samay hamara gopal kahan hai aur kya kar raha hai dekho wo apni man ke pas baitha hua mithi mithi baten kar raha hai wo Darta Darta kah raha hai—man, mainne thakurji ko chithi likhi hai wo aaj zarur pahunch gai hogi tu kahti thi ki wo pal bhar mein tamam duniya ki khabar le lete hain, agar aisa hai to bus ab thoDi hi der mein mere pas bhi laDDu ki hanDi pahuncha chahti hai aaj tu mere khane ki fir na kar ityadi aur uski man apni ankhon se ansuon ki dhara baha rahi hai itne hi mein darwaze ke bahar se kisi ne gopal kahkar pukara, jise sunkar gopal dauDta hua ghar ke bahar chala gaya thoDi hi der ke baad jab lautkar apni man ke pas aaya to uske ek hath mein laDDu se bhari hui ek hanDi thi aur dusre hath mein ek chithi gopal ne khushi khushi apni man se kaha, dekh man, main kahta tha na ki thakur ji ka adami laDDu lekar aata hoga dekh, kaisa baDhiya laDDu hai, ahaha
ek chithi bhi thakurji ne bheji hai dekh ye chithi hai—
gopal ki baat sunkar uski man bhauchak si ho gai aur wo tajjub bhari nigahon se gopal ka munh dekhne lagi dil ke andar se uthe hue josh ne uska gala bhar diya tha aur wo kuch bol nahin sakti thi jab gopal ne chithi uske hath mein di, tab wo kholkar paDhne lagi jiska matlab ye tha—
thakur ji ne do ser laDDu roz tumhare pas bhejne ki aagya di hai so aaj se barabar tumhare pas pahuncha karega thakur ji ne tumhare liye aur bhi bahut kuch prbandh kiya hai jiska haal kuch din baad malum hoga
gopal ki man ko baDa hi ashchary hua! wo tajjub bhari nigahon se kabhi gopal ka munh dekhti aur kabhi laDDu tatha chithi ki taraf dhyan deti uski samajh mein kuch bhi nahin aata tha ki ye kya hua aur kyonkar hua magar gopal ko in sab soch wicharon se kya sambandh tha, wo usi samay thoDa sa laDDu lekar ghar ke bahar nikal gaya aur apne hamjoli tatha sath khelne wale laDkon ko khushi se bantakar ghar chala aaya iske baad khu bhi laDDu khaye aur apni man ko bhi zid kar ke khilaya
pandrah din tak nity ek adami aakar gopal ke ghar par laDDu de jaya karta aur uski man tarah tarah ke soch wicharon mein apna samay bitaya karti
iske baad solahwen din jab maharaj kumar prtapnarayan ki chithi ek wasiyatname ke sath sarkari wakil ki marfat uske pas pahunchi, tab use malum hua ki gopal ke sachche prem, wishwas aur bholepan ne uski hurmat aur auqat tatha zindagi ke Dhang ka kaisa kaya palat kar Dala hai aur uske ghar par laDDu pahunchane wale maharaj kumar prtapnarayan ke dil par uska kitna baDa asar paDa ki usne apni tamam jayadad ka malik gopal ko banakar isliye braj yatra ki ki usi bhaktawatsal, patitpawan baikunthnath ke prem mein apna jiwan samapt karke sachche sukh ka labh kare
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।