जब तक गाड़ी नहीं चली थी, बलराज जैसे नशे में था। यह शोर-गुल से भरी दुनिया उसे एक निरर्थक तमाशे के समान जान पड़ती थी। प्रकृति उस दिन उग्र रूप धारण किए हुए थी। लाहौर का स्टेशन। रात के साढ़े नौ बजे। कराची एक्सप्रेस जिस प्लेटफ़ार्म पर खड़ी थी, वहाँ हज़ारों मनुष्य जमा थे। ये सब लोग बलराज और उसके साथियों के प्रति, जो जानबूझकर जेल जा रहे थे, अपना हार्दिक सम्मान प्रकट करने आए थे। प्लेटफ़ार्म पर छाई हुई टीनों पर वर्षा की बौछारें पड़ रही थीं। धू-धू करके गीली और भारी हवा इतनी तेज़ी से चल रही थी कि मालूम होता था, वह इन सब संपूर्ण मानवीय निर्माणों को उलट-पुलट कर देगी, तोड़-फ़ोड़ डालेगी। प्रकृति के इस महान उत्पात के साथ-साथ जोश में आए हुए उन हज़ारों छोटे-छोटे निर्बल-से देहधारियों का जोशीला कंठस्वर, जिन्हें ‘मनुष्य’ कहा जाता है।
बलराज राजनीतिक पुरुष नहीं है। मुल्क की बातों से या कांग्रेस से उसे कोई सरोकार नहीं। वह एक निठल्ला कलाकार है। माँ-बाप के पास काफ़ी पैसा है। बलराज पर कोई बोझ नहीं। यूनिवर्सिटी से एम.ए. का इम्तिहान इज़्ज़त के साथ पास कर वह लाहौर में ही रहता है। लिखता-पढ़ता है, कविता करता है, तस्वीरें बनाता है और बेफ़िक्री से घूम-फिर लेता है। विद्यार्थियों में वह बहुत लोकप्रिय है। माँ-बाप मुफ़स्सिल में रहते हैं, और बलराज को उन्होंने सभी तरह की आज़ादी दे रखी है।
ऐसा निठल्ला बलराज कभी कांग्रेस-आंदोलन में सम्मिलित होकर जेल जाने की कोशिश करेगा, इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। किसी को मालूम नहीं कि कब और क्यों उसने यह अनहोनी बात करने का निश्चय कर लिया। लोगों को इतना ही मालूम है कि बारह बजे के क़रीब विदेशी कपड़े की किसी दुकान के सामने जाकर उसने दो-एक नारे लगाए, चिल्लाकर कहा कि विदेशी वस्त्र पहनना पाप है, और दो-एक भले मानसों से प्रार्थना की कि वे विलायती माल न खरीदें। नतीजा यह हुआ कि वह गिरफ़्तार कर लिया गया। उसी वक़्त उसका मामला अदालत में पेश हुआ और उसे छह महीने की सादी सज़ा सुना दी गई। बलराज के मित्रों को यह समाचार तब मालूम हुआ, जब एक बंद लारी में बैठाकर उसे मिंटगुमरी जेल में भेजने के लिए स्टेशन की ओर रवाना कर दिया गया था।
लोग—विशेषकर कॉलेजों के विद्यार्थी—बलराज के जय-जयकारों से आसमान गुँजा रहे थे; परंतु वह जैसे जागते हुए भी सो रहा था। चारों ओर का विक्षुब्ध वातावरण, आसमान से गाड़ी की छत पर अनंत वर्षा की बौछार और हज़ारों कंठों का कोलाहल बलराज के लिए जैसे यह सब निरर्थक था। उसकी आँखों में गहरी निराशा की छाया थी, उसके मुँह पर विषादभरी गहरी गंभीरता अंकित थी और उसके होंठ जैसे किसी ने सी दिए थे। उसके दोस्त उससे पूछते थे कि आख़िर क्या सोचकर वह जेल जा रहा है। परंतु वह जैसे बहरा था, गूँगा था, न कुछ सुनता था, न कुछ बोलता था।
कांग्रेस के उन पंद्रह-बीस स्वयंसेवकों में से बलराज एक को भी नहीं जानता था, और न उसके कपड़े खद्दर के थे। परंतु उन सब वालंटियरों में एक भी व्यक्ति उसके समान पढ़ा-लिखा, प्रतिभाशाली और संपन्न घराने का नहीं था। इससे वे सब लोग बलराज को इज़्ज़त की निगाह से देख रहे थे। गाड़ी चली तो उन सबसे मिलकर कोई गीत गाना शुरू किया और बलराज अपनी जगह से उठकर दरवाज़े के सामने आ खड़ा हुआ। डिब्बे की सभी खिड़कियाँ बंद थीं। बलराज ने दरवाज़े पर की खिड़की खोल डाली। एक ही क्षण में वर्षा के थपेड़ों से उसका संपूर्ण मुँह भीग गया, बाल बिखर गए, मगर बलराज ने इसकी परवा नहीं की। खिड़की खोले वह उसी तरह खड़े रहकर बाहर के घने अंधकार की ओर देखने लगा, जैसे इस सघन अंधकार में बलराज के लिए कोई गहरी मतलब की बात छिपी हुई हो।
एक स्वयंसेवक ने बड़ी इज़्ज़त के साथ बलराज से कहा— “आप बुरी तरह भीग रहे हैं। इच्छा हो तो आकर लेट जाइए।”
बलराज ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया। परंतु जिस निगाह से उसने उस स्वयंसेवक की ओर देखा, उससे फिर किसी को यह हिम्मत नहीं हुई कि वह उससे कोई और अनुरोध कर सके।
खिड़की में से सिर बाहर निकालकर बलराज देख रहा है। उस घने अंधकार में, न जाने किस-किस दिशा से आ-आकर वर्षा की तीखी-सी बूँदें उसके शरीर पर पड़ रही हैं। न जाने किधर सनसनाती हुई हवा उसके बालों को झटके दे-देकर कभी इधर और कभी उधर हिला रही है।
इस घने अंधकार में, जैसे बिना किसी बाधा के, बलराज ने एक गहरी साँस ली। उसकी इस बाधा-विहीन ठंडी साँस ने जैसे उसकी आँखों के द्वार भी खोल दिए। बलराज की आँखों में आँसू भर आए और प्रकृति-माता के आँचल का पानी मानो तत्परता के साथ उसके आँसुओं को धोने लगा।
इसके बाद बलराज को कुछ जान नहीं पड़ा कि किसने, कब और किस तरह धीरे से उसे एक सीट पर लिटा दिया। किसी तरह की आपत्ति किए बिना वह लेट गया, और उसी क्षण उसने आँखें मूँद ली।
(दो)
चार साल पहले की बात।
पहाड़ पर आए बलराज को अधिक दिन नहीं हुए। वह अकेला ही यहाँ चला आया था। अपने होटल का भोजन कर, रात की पोशाक पहन, वह अभी लेटा ही था कि उसे दरवाज़े पर थपथपाहट की आवाज़ सुनाई दी। बलराज चौंककर उठा और उसने दरवाज़ा खोल दिया। उसका ख़याल था कि शायद होटल का मैनेजर किसी ज़रूरी काम से आया होगा, अथवा कोई डाक-वाक होगी। मगर नहीं, दरवाज़े पर एक महिला खड़ी थी—बलराज की रिश्ते की बहन। वह यहाँ मौजूद है, यह तो बलराज को मालूम था, परंतु उसे बलराज का पता कैसे ज्ञात हो गया, इस संबंध में वह अभी कुछ भी सोच नहीं पाया था कि उसकी निगाह एक और लड़की पर पड़ी, जो उसकी बहन के साथ थी। बलराज खुली तबीअत का युवक नहीं है, फिर भी उस लड़की के चेहरे पर उसे एक ऐसी मुस्कान-सी दिखाई दी, जो मानो पारदर्शक थी। मुस्कराहट की ओट में जो हृदय था, उसकी झलक साफ़-साफ़ देखी जा सकती थी। बलराज ने अनुभव किया, जैसे इस लड़की को देखकर चित्त आह्लाद से भर गया है।
उसी वक़्त आग्रह के साथ वह उन दोनों को अंदर ले गया। कुशलक्षेम की प्रारंभिक बातों के बाद बलराज की बहन ने उस बालिका का परिचय दिया— “यह कुमारी ऊषा है। अभी दसवीं क्लास में पढ़ रही है।”
बलराज की बहन क़रीब एक घंटे तक वहाँ रही। सभी तरह की बातें उसने बलराज से कीं, परंतु ऊषा ने इस संपूर्ण बातचीत में ज़रा भी हिस्सा नहीं लिया। अपनी आँखें नीची करके और अपने मुँह को कोहनी पर टेककर वह लगातार मुस्कराती रही, हँसती रही और मानो फूल बिखेरती रही।
तीसरे दर्जे की लकड़ी की सीट पर लेटे-लेटे बलराज अर्द्ध-चेतना में देख रहा है, चार साल पहले के एक स्वच्छ दिन की दोपहरिया। होटल में सन्नाटा है। कमरे में तीन जने हैं। बलराज है, उसकी बहन है, और दसवीं जमात में पढ़ने वाली पंद्रह बरस की ऊषा है। बलराज अपने पलंग पर एक चादर ओढ़े बैठा है, उसकी बहन बातें कर रही है, और ऊषा मुस्करा रही है, और लगातार मुस्कराए जा रही है।
(तीन)
कुछ ही दिन बाद की बात है। ऊषा की माँ ने बलराज और उसकी बहन को अपने यहाँ चाय के लिए निमंत्रित किया। बलराज ने तब ऊषा को अधिक नज़दीक से देखा। उसकी बहन उसे ऊषा के कमरे में ले गई। तीसरी मंज़िल के बीचो-बीच साफ़-सुथरा छोटा-सा एक कमरा था, एक तरफ़ सितार, वायलिन आदि कुछ वाद्य-यंत्र रखे हुए थे। दूसरी ओर एक तिपाई पर कुछ किताबें अस्त-व्यस्त दशा में पड़ी थीं। इस तिपाई के पास एक कुर्सी रखी थी। बलराज को इस कुर्सी पर बैठाकर उसकी बहन और ऊषा पलंग पर बैठ गई।
चाय में अभी देर थी और ऊषा की अम्मा रसोईघर में थी। इधर बलराज की बहन ने पढ़ाई-लिखाई के संबंध में ऊषा से अनेक तरह के सवाल करने शुरू किए, उधर बलराज की निगाह तिपाई पर पड़ी हुई एक कापी पर गई। कापी खुली पड़ी थी। गणित के ग़लत या सही सवाल इन पन्नों पर हल किए गए थे। इन सवालों के आस-पास जो ख़ाली जगह थी, उस पर स्याही से बनाए गए अनेक चेहरे बलराज को नज़र आए—कहीं सिर्फ़ आँख थी, कहीं नाक और कहीं मुँह। जैसे आकृति-चित्रण का अभ्यास किया जा रहा है। बलराज ने यह सब एक उड़ती नज़र से देखा, और यह देखकर उसे सचमुच आश्चर्य हुआ कि पंद्रह बरस की ऊषा आकृति-चित्रण में इतनी कुशल कहाँ से हो गई।
हिम्मत कर बलराज ने कापी का पृष्ठ पलट दिया। दूसरे ही पृष्ठ पर एक ऐसा पोपला चेहरा अंकित था, जिसके सारे दाँत ग़ायब थे। चित्र सचमुच बहुत अच्छा बना था। उसके नीचे सुडौल अक्षरों में लिखा था—‘गणित मास्टर’। बलराज के चेहरे पर सहसा मुस्कराहट घूम गई। इसी समय ऊषा की भी निगाह बलराज पर पड़ी। उसी क्षण वह सभी कुछ समझ गई। बातचीत की ओर से उसका ध्यान हट गया और लज्जा से उसका मुँह नीचे की ओर झुक गया।
इसी समय बलराज की बहन ने अपने भाई से कहा— “ऊषा को लिखने का शौक़ भी है। तुमने भी उसकी कोई चीज़ पढ़ी है?”
बलराज ने उत्सुकतापूर्वक कहा— “कहाँ? ज़रा मुझे भी तो दिखाइए।”
ऊषा अभी तक इस बात का कोई जवाब दे नहीं पाई थी कि बलराज ने किताबों के ढेर में से एक कापी और खींच निकाली। यह कापी अंग्रेज़ी अनुवाद की थी। इस अनुवाद में भी ख़ाली जगह का प्रयोग हाथ, नाक, कान, मुँह आदि बनाने में किया गया था। बलराज पृष्ठ पलटता गया। एक जगह उसने देखा कि ‘मेरा घर’ शीर्षक एक सुंदर गद्य-कविता ऊषा ने लिखी है। बलराज ने इसे एक ही निगाह में पढ़ लिया। पढ़कर उसने संतोष की एक साँस ली। प्रशंसा के दो-एक वाक्य कहे और इस संबंध में अनेक प्रश्न ऊषा से कर डाले।
पंद्रह-बीस मिनट इसी प्रकार निकल गए। उसके बाद किसी काम से ऊषा को नीचे चले जाना पड़ा। बलराज ने तब एक और छोटी-सी नोटबुक उस ढेर से खोज निकाली। इस नोटबुक के पहले पृष्ठ पर लिखा था—‘निजी और व्यक्तिगत।’ मगर बलराज इस कापी को देख डालने के लोभ का संवरण न कर सका। कापी के सफे उसने पलटे। देखा एक जगह बिना किसी शीर्षक के लिखा था—
“ओ! मेरे देवता!”
“तुम कौन हो, कैसे हो, कहाँ हो— मैं यह सब कुछ भी नहीं जानती, मगर फिर भी मेरा दिल कहता है कि सिर्फ़ तुम्हीं मेरे हो, और मेरा कोई भी नहीं।”
“रात बढ़ गई है। मैंने अपनी खिड़की खोल डाली है। चारों ओर गहरा सन्नाटा है। सामने की ऊँची पहाड़ी की बर्फ़ीली चोटियाँ चाँदनी में चमक रही हैं। घर के सब लोग सो गए हैं। सारा नगर सो गया है, मगर मैं जाग रही हूँ। अकेली मैं। पढ़ना चाहती थी; मगर और नहीं पढ़ूँगी। पढ़ नहीं सकूँगी। सो भी नहीं सकूँगी, क्योंकि उन बर्फ़ीली चोटियों पर से तुम मुझे पुकार रहे हो। मैंने तो तुम्हारी पुकार सुन ली है; परंतु मन-ही-मन तुम्हारी उस पुकार का मैं जो जवाब दूँगी, उसे क्या तुम सुन सकोगे, मेरे देवता?”
वह पृष्ठ समाप्त हो गया। बलराज अगला पृष्ठ पलट ही रहा था कि ऊषा कमरे में आ पहुँची। बलराज के हाथों में वह कापी देखकर वह तड़प-सी उठी, सहसा बलराज के बहुत निकट आकर और अपना हाथ बढ़ाकर उसने कहा— “माफ़ कीजिए। यह कापी मैं किसी को नहीं दिखाती। यह मुझे दे दीजिए।”
बलराज पर मानो घड़ों पानी पड़ गया, और स्तब्ध-सी दशा में उसने वह कापी ऊषा के हाथों में पकड़ा दी।
अपनी उद्विग्नता पर मानो ऊषा अब लज्जित-सी हो उठी। उसने वह कापी बलराज की ओर बढ़ाकर ज़रा नरमी से कहा— “अच्छा, आप देख लीजिए, पढ़ लीजिए। मैं आपको नहीं रोकूँगी।” और यह कहकर वह नोटबुक उसने बलराज के सामने रख दी; मगर बलराज अब उस कापी को हाथ लगाने की भी हिम्मत नहीं कर सका।
उसके बाद बलराज ही के अनुरोध पर ऊषा ने गाकर भी सुना दिया। अनेक चुटकुले सुनाए। वह जी खोलकर हँसती भी रही, मगर पंद्रह बरस की इस छोटी-सी बालिका के प्रति, ऊपर की घटना से, बलराज के हृदय में सम्मानपूर्ण दशहत का जो भाव पैदा हो गया था, वह हट न सका।
***
वर्षा की बौछार के कुछ छींटे सोए हुए बलराज के नंगे पैरों पर पड़े। शायद उसे कुछ सर्दी-सी प्रतीत हुई। वह देखने लगा—सबसे ऊँची मंज़िल पर ठीक बीचो-बीच एक कमरा है। कमरे के मध्य में एक खिड़की है। इस खिड़की में से बलराज सामने की ओर देख रहा है। चाँदनी रात है। मकान में, सड़क पर, नगर में सभी जगह सन्नाटा है। सामने की पहाड़ी की बर्फ़ीली चोटी चाँदनी में चमक रही है। रह-रहकर ठंडी हवा के झोंके खिड़की की राह से कमरे से आते हैं और बलराज के शरीर भर में एक सिहरन-सी उत्पन्न कर जाते हैं। सहसा दूर पर वीणा की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ने लगी। बलराज ने देखा कि चमकती हुई बर्फ़ीली चोटी पर एक अस्पष्ट-सा चेहरा दिखाई देने लगा। यह चेहरा तो उसका देखा-भाला हुआ है। बलराज ने पहचाना—ओह, यह तो ऊषा है! आज की नहीं, आज से चार साल पहले की। वीणा की ध्वनि क्रमश: और भी अधिक करुण हो उठी। वह मानो पुकार-पुकारकर कहने लगी—‘ओ मेरे देवता! ओ मेरे देवता!’
(चार)
दूसरे ही दिन बलराज की बहन ने उसे सिनेमा देखने के लिए निमंत्रित किया। ऊषा भी साथ ही थी। भयानक रस का चित्र था। बोरिस कारलोफ़ का फ़्रैंकंस्टाइन। बलराज मध्य में बैठा। उसकी बहन एक ओर, और ऊषा दूसरी ओर। खेल शुरू होने में अभी कुछ देर थी। बातचीत में बलराज को ज्ञात हुआ कि ऊषा ने अभी तक अधिक फ़िल्में नहीं देखी हैं और न उसे सिनेमा देखने का कोई विशेष चाव ही है।
खेल शुरू हुआ। सचमुच डराने वाला। श्मशान से मुर्दा खोदकर लाया जाना; प्रयोगशाला में सूखे शव की मौजूदगी, अकस्मात् मुर्दे का जी उठना, यह सभी कुछ डराने वाला था। बालिका ऊषा का किशोर हृदय धक-धक करने लगा और क्रमश: वह अधिकाधिक बलराज के निकट होती चली गई।
आख़िरकार एक जगह वह भय से सिहर-सी उठी और बहुत अधिक विचलित होकर उसने बलराज का हाथ पकड़ लिया। फ़्रैंकंस्टाइन ने बड़ी निर्दयता से एक अबोध बालिका का ख़ून कर दिया था। ऊषा के काँपते हुए हाथ के स्पर्श से बलराज को ऐसा अनुभव हुआ, जैसे उसके शरीर भर में प्राणदायिनी बिजली-सी घूम गई हो। उसने बालिका के हाथ को बड़ी नरमी के साथ थोड़ा-सा दबाया। ऊषा ने उसी क्षण अपना हाथ वापस खींच लिया।
खेल समाप्त हुआ। बलराज ने जैसे इस खेल में बहुत कुछ पा लिया हो, परंतु प्रकाश में आकर जब उसने ऊषा का मुँह देखा, तो उसे साफ़ दिखाई दिया कि बालिका के चेहरे पर हल्की-सी सफ़ेदी आ जाने के अतिरिक्त और कोई भी अंतर नहीं आया। उसकी आँख उतनी ही पवित्र और अबोध थी, जितना खेल शुरू होने से पहले। उत्सुकता को छोड़कर और किसी का भाव उसके चेहरे पर लेशमात्र भी चिह्न नहीं था। बलराज ने यह देखा और देखकर जैसे वह कुछ लज्जित-सा हो गया।
* * *
गाड़ी एक स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई। बलराज कुछ उनींदा-सा हो गया। उसकी आँखें ज़रा-ज़रा खुली हुई थीं। सामने की सीट पर एक दढ़ियल सिपाही अजीब ढंग से मुँह बनाकर उबासियाँ ले रहा था। बलराज को ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे फ़्रैंकंस्टाइन का भूत सामने से चला आ रहा है। लैंप के निकट से एक छोटी-सी तितली उड़ी और बलराज के हाथ को छूती हुई नीचे गिर पड़ी। बलराज को अनुभव हुआ, मानो ऊषा ने उसका हाथ पकड़ा है। बहुत दूर से इंजन की सीटी सुनाई दी। बलराज को ऐसा जान पड़ा, जैसे ऊषा चीख़ उठी हो। उसके शरीर भर में एक कंपन-सा दौड़ गया। मुमकिन था कि बलराज की नींद उचट जाती, परंतु इसी समय गाड़ी चलने लगी और उसके हल्के-हल्के झूलों ने उसके उनींदेपन को दूर कर दिया।
(पाँच)
शर्मीली तबीअत का होते हुए भी बलराज काफ़ी सामाजिक है। अपरिचित या अल्प-परिचित लोगों से मिलना-जुलना और उन पर अच्छा प्रभाव डाल सकना उसे आता है; परंतु न जाने क्या कारण है कि ऊषा के सामने आकर वही बलराज कुछ भीगी बिल्ली-सा बन जाता है। ऊषा अब लाहौर के ही एक कॉलेज में एम.ए. में पढ़ रही है। अब वह सुसंस्कृत, सभ्य और सामाजिक नवयुवती बन गई है। बलराज अब किसी कॉलेज में नहीं पढ़ता, फिर भी स्थानीय कॉलेजों के विद्यार्थियों में अत्यधिक लोकप्रिय है और विद्यार्थियों का नेता है। सभा-सोसाइटियों में ख़ूब हिस्सा लेता है, बहुत अच्छा भाषण दे सकता है। वह कवि है, लेखक है, चित्रकार है और ऊषा भी जानती है कि वह सभी कुछ है। इसी कारण वह बलराज को विशेष इज़्ज़त की निगाह से देखती है। परंतु बलराज जब ऊषा के सामने पहुँचता है, तब वह बड़ी निराशा के साथ अनुभव करता है कि उसकी वह संपूर्ण प्रतिभा, ख्याति और वाक्-शक्ति न जाने कहाँ जाकर छिप गई है।
सूरज डूब चुका था और बलराज लारेंस बाग़ की सैर कर रहा था। अँधेरा बढ़ने लगा और सड़कों की बत्तियाँ एक साथ जगमगा उठीं। बाग़ में एक कृत्रिम पहाड़ी है। इस पहाड़ी के पीछे की सड़क पर अधिक आवागमन नहीं रहता। बलराज आज कुछ उदास और दु:खी था। वह धीरे-धीरे इसी सड़क पर बढ़ा चला जा रहा था।
इसी समय उसके नज़दीक से एक ताँगा गुज़रा। बलराज ने उड़ती निगाह से देखा, ताँगे पर दो युवतियाँ सवार हैं। अगले ही क्षण एक लड़की ने प्रणाम किया। बलराज के शरीर भर में आह्लाद की लहर-सी घूम गई। ओह, यह तो ऊषा है! बलराज ने ऊषा के प्रणाम का कुछ इस तरह जवाब दिया, जिससे उसने समझ लिया कि जैसे वह उसे ठहरने का इशारा कर रहा है। ताँगा कुछ दूर निकल गया था, ऊषा ने ताँगा ठहरवा लिया और स्वयं उतरकर बलराज के निकट चली आई। आते ही बड़े सहज भाव से उसने पूछा— “कहिए, क्या बात है?”
बलराज को कुछ भी नहीं सूझा। उसने ताँगा ठहरने का इशारा बिलकुल नहीं किया था, परंतु यह बात वह इस वक़्त किस तरह कह सकता था! नतीजा यह हुआ कि बलराज ऊषा के चेहरे की ओर ताकता ही रह गया।
ऊषा कुछ हतप्रभ-सी हो गई। फिर भी, बात चलाने की गरज़ से उसने कहा— “आपकी ‘सराय पर’ शीर्षक कविता मैंने कल ही पढ़ी थी। आपने कमाल कर दिया है।”
बलराज ने यों ही पूछ लिया— “आपको वह पसंद आई?”
“ख़ूब।”
इसके बाद बलराज फिर चुप हो गया। शायद उसके हृदय में अनेक भावों की आँधी-सी उठ खड़ी हुई कि कुछ भी व्यक्त कर सकना उसके लिए आसान नहीं था। जिस तरह तंग गले की बोतल ऊपर तक भर दी जाने के बाद, अपनी आंतरिक प्रचुरता के कारण ही, उलटा देने पर भी ख़ाली नहीं हो पाती, उसी तरह बलराज के हार्दिक भावों की घनता ही उसे मूक बनाए हुए थी। ऊषा प्रणाम करके लौटने ही लगी कि बहुत धीरे से बलराज ने पुकारा— “ऊषा!”
ऊषा घूमकर खड़ी हो गई। मुँह से उसने कुछ भी नहीं कहा, परंतु उसकी आँखों में एक बड़ा-सा प्रश्नवाचक चिह्न साफ़ तौर से पढ़ा जा सकता था।
बलराज ने बड़ी शिथिल आवाज़ में कहा— “आपको देखकर न जाने मुझे क्या हो जाता है!”
ऊषा यह सुनने के लिए तैयार नहीं थी। फिर भी वह चुपचाप खड़ी रही।
क्षण-भर रुककर बलराज ने कहा— “आप सोचती होंगी, यह अजब बेहूदा आदमी है। न हँसना जानता है, न बोलना जानता है, मगर सच मानिए...”
बीच ही में बाधा देकर ऊषा ने कहा— “मैं आपके बारे में कभी कुछ नहीं सोचती; मगर आपको यह होता क्या जा रहा है?”
बलराज के चेहरे पर हवाइयाँ-सी उड़ने लगीं। उसे ऊषा के स्वर में कुछ कठोरता-सी प्रतीत हुई। तो भी बड़े साहस के साथ उसने कहा— “मैं अपने आंतरिक भाव व्यक्त नहीं कर सकता।”
ऊषा ने चाहा कि वह इस गंभीरतम बात को हँसकर उड़ा दे; मगर कोशिश करने पर भी वह हँस नहीं सकी। वह कुछ भयभीत-सी हो गई। उसने कहा— “मैं जाती हूँ।” और वह घूमकर चल दी।
बलराज एक क़दम आगे बढ़ा। उसके जी में आया कि वह लपककर ऊषा का हाथ पकड़ ले, परंतु वह ऐसा न कर सका।
एक क़दम आगे बढ़कर वह पीछे की ओर घूम गया। उसी वक़्त ताँगे पर से एक नारी-कंठ सुनाई दिया— “ऊषा! ऊषा!”
(छः)
अभी परसों की ही बात है।
गर्मियों की इन छुट्टियों में लाहौर से विद्यार्थियों की दो टोलियाँ सैर के लिए चलने वाली थीं—एक सीमाप्रांत की ओर और दूसरी कुल्लू से शिमला के लिए। इस दूसरी टोली का संगठन बलराज ने किया था, और वही इस टोली का मुखिया भी था।
ऊषा के दिल में अभी तक बलराज के लिए आदर और सहानुभूति के भाव थे। बलराज के मानसिक अस्वास्थ्य को देखकर उसे सचमुच दु:ख होता था। वह अपने स्वाभाविक सहज व्यवहार द्वारा बलराज के इस मानसिक अस्वास्थ्य की चिकित्सा कर डालना चाहती थी। और संभवत: यही कारण था कि वह उसके साथ, अन्य दो-तीन लड़कियों समेत, कुल्लू यात्रा पर जाने को भी तैयार हो गई थी।
परंतु अभी परसों की ही बात है। शाम के समय बलराज ने अपनी पार्टी के सभी सदस्यों को चाय पर निमंत्रित किया। घंटे-दो-घंटे के लिए बलराज के यहाँ अच्छी चहल-पहल रही। हँसी-मज़ाक हुआ, गाना-बजाना हुआ और पर्वत-यात्रा के विस्तृत प्रोग्राम पर भी विचार होता रहा।
चाय के बाद, जब सभी लोग चले गए, बलराज ऊषा को उसके निवास-स्थान तक पहुँचाने के लिए साथ चल दिया। ऊषा ने इस बात पर कोई आपत्ति नहीं की।
माल रोड पर पहुँचकर बलराज ने प्रस्ताव किया कि ताँगा छोड़ दिया जाए और पैदल ही लारेंस बाग़ का चक्कर लगाकर घर जाया जाए। ऊषा ने यह प्रस्ताव भी बिना किसी बाधा के स्वीकार कर लिया।
दोनों जने ताँगे से उतरकर पैदल चलने लगे। ऊषा ने अनेक बार यह प्रयत्न किया कि कोई बात शुरू की जाए। बलराज भी आज अपेक्षाकृत कम उद्विग्न प्रतीत हो रहा था। फिर भी कोई भी बात मानो चली नहीं, पनप ही नहीं पाई।
क्रमश: वे दोनों नकली पहाड़ी के पीछे की सड़क पर जा पहुँचे। इस समय तक साँझ डूब चुकी थी, और सड़कों पर की बत्तियाँ जगमगाने लगी थीं।
इस निस्तब्धता में दोनों जने चुपचाप चले जा रहे थे कि मौलश्री के एक घने पेड़ के नीचे पहुँचकर बलराज सहसा रुक गया।
ऊषा ने भी खड़े होकर पूछा— “आप रुक क्यों गए?”
बलराज ने कहा— “उस दिन की बात याद है?”
उसका स्वर भारी होकर लड़खड़ाने लगा था। ऊषा कुछ घबरा-सी गई। बात टाल देने की गरज़ से उसने कहा, “चलिए वापस लौट चला जाए। देर हो गई है।”
मगर बलराज अपनी जगह से नहीं हिला। मालूम होता था कि उसके दिल में कोई चीज़ इतनी ज़ोर से समा गई कि वह उसका दम घोंटने लगी है। बलराज के चेहरे पर पसीने की बूँदें चमकने लगीं। काँपते हुए स्वर में उसने कहा— “ऊषा! अगर तुम जानतीं कि मैं दिन-रात क्या सोचता रहता हूँ!”
ऊषा अब भी चुप थी। उसके हृदय में विद्रोह की आग भभक पड़ी, मगर फिर भी वह चुपचाप खड़ी रही। सहन करती रही।
बलराज ने फिर से कहा— “ऊषा! तुम मुझ पर तरस खाओ। मुझ पर नाराज़ मत होओ।”
ऊषा ने कठोर और दृढ़ स्वर में कहा— “आपको नहीं मालूम क्या हो गया है। अगर आपने अब एक भी बात इस तरह की और कही, तो मैं आपसे कभी नहीं बोलूँगी।”
बलराज यह सुनकर भी सँभल नहीं सका। उसकी आँखों में आँसू भर आए और बड़े अनुनय के साथ उसने ऊषा का हाथ पकड़ लिया।
ऊषा ने तड़पकर अपना हाथ छुड़ा लिया और शीघ्रता से एक तरफ़ को बढ़ चली। चलते हुए, बहुत ही निश्चयपूर्ण स्वर में वह कहती गई— “मैं आपके साथ कुल्लू नहीं जाऊँगी।”
कुछ ही दूरी पर ऊषा को एक ख़ाली ताँगा मिला। उस पर सवार होकर वह अपने घर की ओर चली गई।
अगले दिन सुबह बलराज ने अपनी पार्टी के सभी सदस्यों के नाम इस बात की सूचना भेज दी कि वह कुल्लू नहीं जा सकेगा। किसी को मालूम भी नहीं हो पाया कि माज़रा क्या है और संपूर्ण पार्टी बर्ख़ास्त हो गई।
सीमा-प्रांत की ओर जाने वाली पार्टी सुबह की गाड़ी से ही पेशावर के लिए रवाना हुई है। अब से सिर्फ़ चौदह घंटे पहले। इस पार्टी को विदा देने के लिए बलराज भी स्टेशन पर पहुँचा था। ऊषा भी इसी पार्टी के साथ गई थी। अपने माँ-बाप से यात्रा पर जाने की अनुमति प्राप्त कर कहीं भी न जाना उसे उचित प्रतीत नहीं हुआ। आज सुबह लाहौर स्टेशन पर ही बलराज ने इस पार्टी को कई तरह की नसीहतें दी थीं। किसी को उसके आचरण में असाधारणता ज़रा भी प्रतीत नहीं हुई थी। परंतु गाड़ी चलने से पहले ही, चुपचाप सबसे पृथक होकर वह तीसरे दर्जे के मुसाफ़िरों की भीड़ में जा मिला ।
बलराज स्टेशन से बाहर आया, तो दुनिया जैसे उसके लिए अंधकारपूर्ण हो गई थी। आसमान में सूरज बिना किसी बाधा के चमक रहा था। सड़कों पर लोग सदा की तरह आ-जा रहे थे। दुनिया के सभी कारोबार उसी तरह जारी थे, परंतु बलराज के लिए जैसे सभी ओर सूनापन व्याप्त हो गया था। कहीं कुछ भी आकर्षण बाक़ी न रहा था। सभी कुछ नीरस, फीका— बिलकुल फीका हो गया था।
सड़क के किनारे फुटपाथ पर बलराज धीरे-धीरे बिलकुल निरुद्देश्य भाव से चला जा रहा था। हज़ारों, लाखों मनुष्यों से भरी यह नगरी बलराज के लिए जैसे बिलकुल निर्जन और सुनसान बन गई है। रह-रहकर जो इतने लोग उसके निकट से निकल जाते हैं, उसकी निगाह में जैसे बिलकुल व्यर्थ और निर्जीव हैं, चलती-फिरती पुतलियों से बढ़कर और कुछ भी नहीं।
एक ख़ाली ताँगा बड़ी धीमी रफ़्तार से चला आ रहा था। उसका कोचवान बड़ी मस्त और करुण-सी आवाज़ में गाता चला आता था—
“दो पहर अनाराँ दे!
फट मिल जाँदे, बोल न जाँदे याराँ दे!
दो पहर अनाराँ दे,
सड़ गई ज़िन्दड़ी, लग गए ढेर अँगाराँ दे!”
बलराज ने यह सुना और उसके दिल में एक गहरी हूक-सी उठ खड़ी हुई। निष्प्रयोजन वह धीरे-धीरे आगे बढ़ता चला गया, अंत में अनायास ही उसने अपने को विदेशी कपड़ों की एक दुकान के सामने पाया, जहाँ काँग्रेस के कुछ स्वयंसेवक पिकेटिंग कर रहे थे।
गाड़ी उड़ी चली जा रही है, और बलराज सपना देख रहा है। दुनिया के किसी एक कोने में मौलश्री का एक बहुत बड़ा पेड़ है। अकेला—बिलकुल अकेला। चारों ओर सघन अंधकार है। सिर्फ़ इसी वृक्ष के ऊपर नीचे, आसपास उजाला है। चारों तरफ़ क्या है, कुछ है भी या नहीं—कुछ नहीं मालूम। ठंडी, सनसनाती हुई हवा चल रही है। पेड़ के पत्ते ऊँची आवाज़ में इस तरह साँय-साँय कर रहे हैं, जैसे रेलगाड़ी भागी जा रही हो। इस पेड़ के नीचे सिर्फ़ दो ही व्यक्ति हैं—ऊषा और बलराज। ऊषा बलराज से बहुत दूर हटकर बैठना चाहती है, परंतु बलराज उसका पीछा करता है। वह जिधर जाती है, धीरे-धीरे उसी की ओर बढ़ने लगता है। ऊषा कहती है— “मेरे निकट मत आओ!” परंतु बलराज नहीं सुनता। वह बढ़ता चला जाता है, और अंत में लपककर ऊषा को पकड़ लेता है। ऊषा उससे बहुत नाराज़ हो गई। वह कहती है, मैं तुम्हें अकेला छोड़ जाऊँगी। सदा के लिए, अनंत काल के लिए। फिर कभी तुम्हारे पास न आऊँगी। बलराज उससे माफ़ी माँगता है, गिड़गिड़ाता है, परंतु वह नहीं सुनती। चल देती है एक तरफ़ को। गहरे अंधकार में। बलराज चिल्ला रहा है और ऊषा उसकी पुकार सुने बिना अंधकार में विलीन होती जा रही है।
गाड़ी की रफ़्तार बहुत धीमी हो गई है। उनींदी-सी दशा में बलराज बड़े ही कातर स्वर से धीरे से पुकार उठा— “ऊषा! ऊषा! तुम लौट आओ, ऊषा!”
इसी वक़्त एक सिपाही ने चिल्लाकर कहा, “उठो। मिन्टगुमरी का स्टेशन आ गया!”
बलराज चौंककर उठ बैठा। उसने देखा, रात के दो बजे हैं, और उसके हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी हुई हैं।
‘इंक़लाब ज़िंदाबाद!’ और ‘महात्मा गांधी की जय!’ के नारों से मिन्टगुमरी के रेलवे स्टेशन का प्लेटफ़ार्म रात के गहरे सन्नाटे में भी सहसा गूँज उठा।
(ek)
jab tak gaDi nahin chali thi, balraj jaise nashe mein tha ye shor gul se bhari duniya use ek nirarthak tamashe ke saman jaan paDti thi prakrti us din ugr roop dharan kiye hue thi lahore ka station raat ke saDhe nau baje karachi express jis pletfarm par khaDi thi, wahan hazaron manushya jama the ye sab log balraj aur uske sathiyon ke prati, jo janbujhkar jel ja rahe the, apna hardik samman prakat karne aaye the pletfarm par chhai hui tinon par warsha ki bauchharen paD rahi theen dhu dhu karke gili aur bhari hawa itni tezi se chal rahi thi ki malum hota tha, wo in sab sampurn manawiy nirmanon ko ulat pulat kar degi, toD foD Dalegi prakrti ke is mahan utpat ke sath sath josh mein aaye hue un hazaron chhote chhote nirbal se dehdhariyon ka joshila kanthaswar, jinhen manushya kaha jata hai—
balraj rajnitik purush nahin hai! mulk ki baton se ya kangres se use koi sarokar nahin wo ek nithalla kalakar hai man bap ke pas kafi paisa hai balraj par koi bojh nahin uniwersity se em e ka imtihan izzat ke sath pas kar wo lahore mein hi rahta hai likhta paDhta hai, kawita karta hai, taswiren banata hai aur befiri se ghoom phir leta hai widyarthiyon mein wo bahut lokapriy hai man bap mufassil mein rahte hain, aur balraj ko unhonne sabhi tarah ki azadi de rakhi hai
aisa nithalla balraj kabhi kangres andolan mein sammilit hokar jel jane ki koshish karega, iski ummid kisi ko nahin thi kisi ko malum nahin ki kab aur kyon usne ye anhoni baat karne ka nishchay kar liya logon ko itna hi malum hai ki barah baje ke qarib wideshi kapDe ki kisi dukan ke samne jakar usne do ek nare lagaye, chillakar kaha ki wideshi wastra pahanna pap hai, aur do ek bhale manson se pararthna ki ki we wilayati mal na khariden natija ye hua ki wo giraftar kar liya gaya usi waqt uska mamla adalat mein pesh hua aur use chhah mahine ki sadi saza suna di gai balraj ke mitron ko ye samachar tab malum hua, jab ek band lari mein baithakar use mintagumri jel mein bhejne ke liye station ki or rawana kar diya gaya tha
log—wisheshkar kaulejon ke widyarthi—balraj ke jay jaykaron se asman gunja rahe the; parantu wo jaise jagte hue bhi so raha tha charon or ka wikshaubdh watawarn, asman se gaDi ki chhat par anant warsha ki bauchhar aur hazaron kanthon ka kolahal balraj ke liye jaise ye sab nirarthak tha uski ankhon mein gahri nirasha ki chhaya thi, uske munh par wishadabhri gahri gambhirta ankit thi aur uske honth jaise kisi ne si diye the uske dost usse puchhte the ki akhir kya sochkar wo jel ja raha hai parantu wo jaise bahra tha, gunga tha, na kuch sunta tha, na kuch bolta tha
kangres ke un pandrah bees swyansewkon mein se balraj ek ko bhi nahin janta tha, aur na uske kapDe khaddar ke the parantu un sab walantiyron mein ek bhi wekti uske saman paDha likha, pratibhashali aur sampann gharane ka nahin tha isse we sab log balraj ko izzat ki nigah se dekh rahe the gaDi chali to un sabse milkar koi geet gana shuru kiya aur balraj apni jagah se uthkar darwaze ke samne aa khaDa hua Dibbe ki sabhi khiDkiyan band theen balraj ne darwaze par ki khiDki khol Dali ek hi kshan mein warsha ke thapeDon se uska sampurn munh bheeg gaya, baal bikhar gaye, magar balraj ne iski parwa nahin ki khiDki khole wo usi tarah khaDe rahkar bahar ke ghane andhkar ki or dekhne laga, jaise is saghan andhkar mein balraj ke liye koi gahri matlab ki baat chhipi hui ho
ek swyansewak ne baDi izzat ke sath balraj se kaha aap buri tarah bheeg rahe hain ichha ho to aakar let jaiye
balraj ne is baat ka koi jawab nahin diya parantu jis nigah se usne us swyansewak ki or dekha, usse phir kisi ko ye himmat nahin hui ki wo usse koi aur anurodh kar sake
khiDki mein se sir bahar nikalkar balraj dekh raha hai us ghane andhkar mein, na jane kis kis disha se aa aakar warsha ki tikhi si bunden uske sharir par paD rahi hain na jane kidhar sansanati hui hawa uske balon ko jhatke de dekar kabhi idhar aur kabhi udhar hila rahi hai
is ghane andhkar mein, jaise bina kisi badha ke, balraj ne ek gahri sans li uski is badha wihin thanDi sans ne jaise uski ankhon ke dwar bhi khol diye balraj ki ankhon mein ansu bhar aaye aur prakrti mata ke anchal ka pani mano tatparta ke sath uske ansuon ko dhone laga
iske baad balraj ko kuch jaan nahin paDa ki kisne, kab aur kis tarah dhire se use ek seat par lita diya kisi tarah ki apatti kiye bina wo let gaya, aur usi kshan usne ankhen moond li
(do)
chaar sal pahle ki baat
pahaD par aaye balraj ko adhik din nahin hue wo akela hi yahan chala aaya tha apne hotel ka bhojan kar, raat ki poshak pahan, wo abhi leta hi tha ki use darwaze par thapathpahat ki awaz sunai di balraj chaunkkar utha aur usne darwaza khol diya uska khayal tha ki shayad hotel ka manager kisi zaruri kaam se aaya hoga, athwa koi Dak wak hogi magar nahin, darwaze par ek mahila khaDi thi—balraj ki rishte ki bahan wo yahan maujud hai, ye to balraj ko malum tha, parantu use balraj ka pata kaise gyat ho gaya, is sambandh mein wo abhi kuch bhi soch nahin paya tha ki uski nigah ek aur laDki par paDi, jo uski bahan ke sath thi balraj khuli tabiat ka yuwak nahin hai, phir bhi us laDki ke chehre par use ek aisi muskan si dikhai di, jo mano paradarshak thi muskrahat ki ot mein jo hirdai tha, uski jhalak saf saf dekhi ja sakti thi balraj ne anubhaw kiya, jaise is laDki ko dekhkar chitt ahlad se bhar gaya hai
usi waqt agrah ke sath wo un donon ko andar le gaya kushlakshaem ki prarambhik baton ke baad balraj ki bahan ne us balika ka parichai diya yah kumari usha hai abhi daswin class mein paDh rahi hai
balraj ki bahan qarib ek ghante tak wahan rahi sabhi tarah ki baten usne balraj se keen, parantu usha ne is sampurn batachit mein zara bhi hissa nahin liya apni ankhen nichi karke aur apne munh ko kohni par tekkar wo lagatar muskrati rahi, hansti rahi aur mano phool bikherti rahi
****
tisre darje ki lakDi ki seat par lete lete balraj arddh chetna mein dekh raha hai, chaar sal pahle ke ek swachchh din ki dopahriya hotel mein sannata hai kamre mein teen jane hain balraj hai, uski bahan hai, aur daswin jamat mein paDhne wali pandrah baras ki usha hai balraj apne palang par ek chadar oDhe baitha hai, uski bahan baten kar rahi hai, aur usha muskra rahi hai, aur lagatar muskraye ja rahi hai
(teen)
kuch hi din baad ki baat hai usha ki man ne balraj aur uski bahan ko apne yahan chay ke liye nimantrit kiya balraj ne tab usha ko adhik nazdik se dekha uski bahan use usha ke kamre mein le gai tisri manzil ke bicho beech saf suthra chhota sa ek kamra tha, ek taraf sitar, wayalin aadi kuch wady yantr rakhe hue the dusri or ek tipai par kuch kitaben ast wyast dasha mein paDi theen is tipai ke pas ek kursi rakhi thi balraj ko is kursi par baithakar uski bahan aur usha palang par baith gai
chay mein abhi der thi aur usha ki amma rasoighar mein thi idhar balraj ki bahan ne paDhai likhai ke sambandh mein usha se anek tarah ke sawal karne shuru kiye, udhar balraj ki nigah tipai par paDi hui ek kapi par gai kapi khuli paDi thi ganait ke ghalat ya sahi sawal in pannon par hal kiye gaye the in sawalon ke aas pas jo khali jagah thi, us par syahi se banaye gaye anek chehre balraj ko nazar aye—kahin sirf ankh thi, kahin nak aur kahin munh jaise akriti chitran ka abhyas kiya ja raha hai balraj ne ye sab ek uDti nazar se dekha, aur ye dekhkar use sachmuch ashchary hua ki pandrah baras ki usha akriti chitran mein itni kushal kahan se ho gai
himmat kar balraj ne kapi ka prishth palat diya dusre hi prishth par ek aisa popala chehra ankit tha, jiske sare dant ghayab the chitr sachmuch bahut achchha bana tha uske niche suDaul akshron mein likha tha—ganait master balraj ke chehre par sahsa muskrahat ghoom gai isi samay usha ki bhi nigah balraj par paDi usi kshan wo sabhi kuch samajh gai batachit ki or se uska dhyan hat gaya aur lajja se uska munh niche ki or jhuk gaya
isi samay balraj ki bahan ne apne bhai se kaha usha ko likhne ka shauq bhi hai tumne bhi uski koi cheez paDhi hai?
balraj ne utsuktapurwak kaha “kahan? zara mujhe bhi to dikhaiye
usha abhi tak is baat ka koi jawab de nahin pai thi ki balraj ne kitabon ke Dher mein se ek kapi aur kheench nikali ye kapi angrezi anuwad ki thi is anuwad mein bhi khali jagah ka prayog hath, nak, kan, munh aadi banane mein kiya gaya tha balraj prishth palatta gaya ek jagah usne dekha ki mera ghar shirshak ek sundar gady kawita usha ne likhi hai balraj ne ise ek hi nigah mein paDh liya paDhkar usne santosh ki ek sans li prshansa ke do ek waky kahe aur is sambandh mein anek parashn usha se kar Dale
pandrah bees minat isi prakar nikal gaye uske baad kisi kaam se usha ko niche chale jana paDa balraj ne tab ek aur chhoti si notabuk us Dher se khoj nikali is notabuk ke pahle prishth par likha tha—‘niji aur wyaktigat magar balraj is kapi ko dekh Dalne ke lobh ka sanwran na kar saka kapi ke saphe usne palte dekha ek jagah bina kisi shirshak ke likha tha—
o! mere dewta!
tum kaun ho, kaise ho, kahan ho—main ye sab kuch bhi nahin janti, magar phir bhi mera dil kahta hai ki sirf tumhin mere ho, aur mera koi bhi nahin
raat baDh gai hai mainne apni khiDki khol Dali hai charon or gahra sannata hai samne ki unchi pahaDi ki barfili chotiyan chandni mein chamak rahi hain ghar ke sab log so gaye hain sara nagar so gaya hai, magar main jag rahi hoon akeli main paDhna chahti thee; magar aur nahin paDhungi paDh nahin sakungi so bhi nahin sakungi, kyonki un barfili chotiyon par se tum mujhe pukar rahe ho mainne to tumhari pukar sun li hai; parantu man hi man tumhari us pukar ka main jo jawab dungi, use kya tum sun sakoge, mere dewta?
wo prishth samapt ho gaya balraj agla prishth palat hi raha tha ki usha kamre mein aa pahunchi balraj ke hathon mein wo kapi dekhkar wo taDap si uthi, sahsa balraj ke bahut nikat aakar aur apna hath baDhakar usne kaha maf kijiye ye kapi main kisi ko nahin dikhati ye mujhe de dijiye
balraj par mano ghaDon pani paD gaya, aur stabdh si dasha mein usne wo kapi usha ke hathon mein pakDa di
apni udwignata par mano usha ab lajjit si ho uthi usne wo kapi balraj ki or baDhakar zara narmi se kaha achchha, aap dekh lijiye, paDh lijiye main aapko nahin rokungi aur ye kahkar wo notabuk usne balraj ke samne rakh dee; magar balraj ab us kapi ko hath lagane ki bhi himmat nahin kar saka
uske baad balraj hi ke anurodh par usha ne gakar bhi suna diya anek chutkule sunaye wo ji kholkar hansti bhi rahi, magar pandrah baras ki is chhoti si balika ke prati, upar ki ghatna se, balraj ke hirdai mein sammanpurn dashhat ka jo bhaw paida ho gaya tha, wo hat na saka
***
warsha ki bauchhar ke kuch chhinte soe hue balraj ke nange pairon par paDe shayad use kuch sardi si pratit hui wo dekhne laga—sabse unchi manzil par theek bicho beech ek kamra hai kamre ke madhya mein ek khiDki hai is khiDki mein se balraj samne ki or dekh raha hai chandni raat hai makan mein, saDak par, nagar mein sabhi jagah sannata hai samne ki pahaDi ki barfili choti chandni mein chamak rahi hai rah rahkar thanDi hawa ke jhonke khiDki ki rah se kamre se aate hain aur balraj ke sharir bhar mein ek siharan si utpann kar jate hain sahsa door par wina ki madhur dhwani sunai paDne lagi balraj ne dekha ki chamakti hui barfili choti par ek aspasht sa chehra dikhai dene laga ye chehra to uska dekha bhala hua hai balraj ne pahchana—oh, ye to usha hai! aaj ki nahin, aaj se chaar sal pahle ki wina ki dhwani kramshah aur bhi adhik karun ho uthi wo mano pukar pukarkar kahne lagi—o mere dewta! o mere dewta!
(chaar)
dusre hi din balraj ki bahan ne use cinema dekhne ke liye nimantrit kiya usha bhi sath hi thi bhayanak ras ka chitr tha boris karloph ka phrainkanstain balraj madhya mein baitha uski bahan ek or, aur usha dusri or khel shuru hone mein abhi kuch der thi batachit mein balraj ko gyat hua ki usha ne abhi tak adhik filmen nahin dekhi hain aur na use cinema dekhne ka koi wishesh chaw hi hai
khel shuru hua sachmuch Darane wala shmshan se murda khodkar laya jana; prayogashala mein sukhe shau ki maujudgi, akasmat murde ka ji uthna, ye sabhi kuch Darane wala tha balika usha ka kishor hirdai dhak dhak karne laga aur kramshah wo adhikadhik balraj ke nikat hoti chali gai
akhiraka ek jagah wo bhay se sihar si uthi aur bahut adhik wichlit hokar usne balraj ka hath pakaD liya phrainkanstain ne baDi nirdayta se ek abodh balika ka khoon kar diya tha usha ke kanpte hue hath ke sparsh se balraj ko aisa anubhaw hua, jaise uske sharir bhar mein prandayini bijli si ghoom gai ho usne balika ke hath ko baDi narmi ke sath thoDa sa dabaya usha ne usi kshan apna hath wapas kheench liya
khel samapt hua balraj ne jaise is khel mein bahut kuch pa liya ho, parantu parkash mein aakar jab usne usha ka munh dekha, to use saf dikhai diya ki balika ke chehre par halki si safedi aa jane ke atirikt aur koi bhi antar nahin aaya uski ankh utni hi pawitra aur abodh thi, jitna khel shuru hone se pahle utsukta ko chhoDkar aur kisi ka bhaw uske chehre par leshamatr bhi chihn nahin tha balraj ne ye dekha aur dekhkar jaise wo kuch lajjit sa ho gaya
* * *
gaDi ek station par aakar khaDi ho gai balraj kuch uninda sa ho gaya uski ankhen zara zara khuli hui theen samne ki seat par ek daDhiyal sipahi ajib Dhang se munh banakar ubasiyan le raha tha balraj ko aisa pratit hua, jaise phrainkanstain ka bhoot samne se chala aa raha hai lamp ke nikat se ek chhoti si titli uDi aur balraj ke hath ko chhuti hui niche gir paDi balraj ko anubhaw hua, mano usha ne uska hath pakDa hai bahut door se injan ki siti sunai di balraj ko aisa jaan paDa, jaise usha cheekh uthi ho uske sharir bhar mein ek kampan sa dauD gaya mumkin tha ki balraj ki neend uchat jati, parantu isi samay gaDi chalne lagi aur uske halke halke jhulon ne uske unindepan ko door kar diya
(panch)
sharmili tabiat ka hote hue bhi balraj kafi samajik hai aprichit ya alp parichit logon se milna julna aur un par achchha prabhaw Dal sakna use aata hai; parantu na jane kya karan hai ki usha ke samne aakar wahi balraj kuch bhigi billi sa ban jata hai usha ab lahore ke hi ek college mein em e mein paDh rahi hai ab wo susanskrit, sabhy aur samajik nawyuwti ban gai hai balraj ab kisi college mein nahin paDhta, phir bhi asthaniya kaulejon ke widyarthiyon mein atyadhik lokapriy hai aur widyarthiyon ka neta hai sabha sosaitiyon mein khoob hissa leta hai, bahut achchha bhashan de sakta hai wo kawi hai, lekhak hai, chitrkar hai aur usha bhi janti hai ki wo sabhi kuch hai isi karan wo balraj ko wishesh izzat ki nigah se dekhti hai parantu balraj jab usha ke samne pahunchta hai, tab wo baDi nirasha ke sath anubhaw karta hai ki uski wo sampurn pratibha, khyati aur wak shakti na jane kahan jakar chhip gai hai
suraj Doob chuka tha aur balraj larens bagh ki sair kar raha tha andhera baDhne laga aur saDkon ki battiyan ek sath jagmaga uthin bagh mein ek kritrim pahaDi hai is pahaDi ke pichhe ki saDak par adhik awagaman nahin rahta balraj aaj kuch udas aur duhkhi tha wo dhire dhire isi saDak par baDha chala ja raha tha
isi samay uske nazdik se ek tanga guzra balraj ne uDti nigah se dekha, tange par do yuwatiyan sawar hain agle hi kshan ek laDki ne parnam kiya balraj ke sharir bhar mein ahlad ki lahr si ghoom gai oh, ye to usha hai! balraj ne usha ke parnam ka kuch is tarah jawab diya, jisse usne samajh liya ki jaise wo use thaharne ka ishara kar raha hai tanga kuch door nikal gaya tha, usha ne tanga thaharwa liya aur swayan utarkar balraj ke nikat chali i aate hi baDe sahj bhaw se usne puchha kahiye, kya baat hai?
balraj ko kuch bhi nahin sujha usne tanga thaharne ka ishara bilkul nahin kiya tha, parantu ye baat wo is waqt kis tarah kah sakta tha! natija ye hua ki balraj usha ke chehre ki or takta hi rah gaya
usha kuch hataprabh si ho gai phir bhi, baat chalane ki garaz se usne kaha apaki saray par shirshak kawita mainne kal hi paDhi thi aapne kamal kar diya hai
balraj ne yon hi poochh liya apko wo pasand i?
khoob
iske baad balraj phir chup ho gaya shayad uske hirdai mein anek bhawon ki andhi si uth khaDi hui ki kuch bhi wyakt kar sakna uske liye asan nahin tha jis tarah tang gale ki botal upar tak bhar di jane ke baad, apni antrik prachurta ke karan hi, ulta dene par bhi khali nahin ho pati, usi tarah balraj ke hardik bhawon ki ghanta hi use mook banaye hue thi usha parnam karke lautne hi lagi ki bahut dhire se balraj ne pukara usha!
usha ghumkar khaDi ho gai munh se usne kuch bhi nahin kaha, parantu uski ankhon mein ek baDa sa prashnawachak chihn saf taur se paDha ja sakta tha
balraj ne baDi shithil awaz mein kaha apko dekhkar na jane mujhe kya ho jata hai!
usha ye sunne ke liye taiyar nahin thi phir bhi wo chupchap khaDi rahi
kshan bhar rukkar balraj ne kaha aap sochti hongi, ye ajab behuda adami hai na hansna janta hai, na bolna janta hai, magar sach maniye
beech hi mein badha dekar usha ne kaha main aapke bare mein kabhi kuch nahin sochti; magar aapko ye hota kya ja raha hai?
balraj ke chehre par hawaiyan si uDne lagin use usha ke swar mein kuch kathorta si pratit hui to bhi baDe sahas ke sath usne kaha main apne antrik bhaw wyakt nahin kar sakta
usha ne chaha ki wo is gambhirtam baat ko hansakar uDa de; magar koshish karne par bhi wo hans nahin saki wo kuch bhaybhit si ho gai usne kaha main jati hoon aur wo ghumkar chal di
balraj ek qadam aage baDha uske ji mein aaya ki wo lapakkar usha ka hath pakaD le, parantu wo aisa na kar saka
ek qadam aage baDhkar wo pichhe ki or ghoom gaya usi waqt tange par se ek nari kanth sunai diya usha! usha!
(chhः)
abhi parson ki hi baat hai
garmiyon ki in chhuttiyon mein lahore se widyarthiyon ki do toliyan sair ke liye chalne wali thin—ek simaprant ki or aur dusri kullu se shimla ke liye is dusri toli ka sangthan balraj ne kiya tha, aur wahi is toli ka mukhiya bhi tha
usha ke dil mein abhi tak balraj ke liye aadar aur sahanubhuti ke bhaw the balraj ke manasik aswasthy ko dekhkar use sachmuch duhakh hota tha wo apne swabhawik sahj wywahar dwara balraj ke is manasik aswasthy ki chikitsa kar Dalna chahti thi aur sambhawtah yahi karan tha ki wo uske sath, any do teen laDakiyon samet, kullu yatra par jane ko bhi taiyar ho gai thi
parantu abhi parson ki hi baat hai sham ke samay balraj ne apni party ke sabhi sadasyon ko chay par nimantrit kiya ghante do ghante ke liye balraj ke yahan achchhi chahl pahal rahi hansi mazak hua, gana bajana hua aur parwat yatra ke wistrit program par bhi wichar hota raha
chay ke baad, jab sabhi log chale gaye, balraj usha ko uske niwas sthan tak pahunchane ke liye sath chal diya usha ne is baat par koi apatti nahin ki
mal roD par pahunchakar balraj ne prastaw kiya ki tanga chhoD diya jaye aur paidal hi larens bagh ka chakkar lagakar ghar jaya jaye usha ne ye prastaw bhi bina kisi badha ke swikar kar liya
donon jane tange se utarkar paidal chalne lage usha ne anek bar ye prayatn kiya ki koi baat shuru ki jaye balraj bhi aaj apekshakrit kam udwign pratit ho raha tha phir bhi koi bhi baat mano chali nahin, panap hi nahin pai
kramshah we donon nakli pahaDi ke pichhe ki saDak par ja pahunche is samay tak sanjh Doob chuki thi, aur saDkon par ki battiyan jagmagane lagi theen
is nistabdhata mein donon jane chupchap chale ja rahe the ki maulashri ke ek ghane peD ke niche pahunchakar balraj sahsa ruk gaya
usha ne bhi khaDe hokar puchha aap ruk kyon gaye?
balraj ne kaha us din ki baat yaad hai?
uska swar bhari hokar laDkhaDane laga tha usha kuch ghabra si gai baat tal dene ki garaz se usne kaha, chaliye wapas laut chala jaye der ho gai hai
magar balraj apni jagah se nahin hila malum hota tha ki uske dil mein koi cheez itni zor se sama gai ki wo uska dam ghontne lagi hai balraj ke chehre par pasine ki bunden chamakne lagin kanpte hue swar mein usne kaha usha! agar tum jantin ki main din raat kya sochta rahta hoon!
usha ab bhi chup thi uske hirdai mein widroh ki aag bhabhak paDi, magar phir bhi wo chupchap khaDi rahi sahn karti rahi
balraj ne phir se kaha usha! tum mujh par taras khao mujh par naraz mat hoo
usha ne kathor aur driDh swar mein kaha aapko nahin malum kya ho gaya hai agar aapne ab ek bhi baat is tarah ki aur kahi, to main aapse kabhi nahin bolungi
balraj ye sunkar bhi sambhal nahin saka uski ankhon mein ansu bhar aaye aur baDe anunay ke sath usne usha ka hath pakaD liya
usha ne taDapkar apna hath chhuDa liya aur shighrata se ek taraf ko baDh chali chalte hue, bahut hi nishchaypurn swar mein wo kahti gai main aapke sath kullu nahin jaungi
kuch hi duri par usha ko ek khali tanga mila us par sawar hokar wo apne ghar ki or chali gai
agle din subah balraj ne apni party ke sabhi sadasyon ke nam is baat ki suchana bhej di ki wo kullu nahin ja sakega kisi ko malum bhi nahin ho paya ki mazra kya hai aur sampurn party barkhast ho gai
sima prant ki or jane wali party subah ki gaDi se hi peshawar ke liye rawana hui hai ab se sirf chaudah ghante pahle is party ko wida dene ke liye balraj bhi station par pahuncha tha usha bhi isi party ke sath gai thi apne man bap se yatra par jane ki anumti prapt kar kahin bhi na jana use uchit pratit nahin hua aaj subah lahore station par hi balraj ne is party ko kai tarah ki nasihten di theen kisi ko uske acharn mein asadharanta zara bhi pratit nahin hui thi parantu gaDi chalne se pahle hi, chupchap sabse prithak hokar wo tisre darje ke musafiron ki bheeD mein ja mila
balraj station se bahar aaya, to duniya jaise uske liye andhkarpurn ho gai thi asman mein suraj bina kisi badha ke chamak raha tha saDkon par log sada ki tarah aa ja rahe the duniya ke sabhi karobar usi tarah jari the, parantu balraj ke liye jaise sabhi or sunapan wyapt ho gaya tha kahin kuch bhi akarshan baqi na raha tha sabhi kuch niras, phika— bilkul phika ho gaya tha
saDak ke kinare phutpath par balraj dhire dhire bilkul niruddeshy bhaw se chala ja raha tha hazaron, lakhon manushyon se bhari ye nagri balraj ke liye jaise bilkul nirjan aur sunsan ban gai hai rah rahkar jo itne log uske nikat se nikal jate hain, uski nigah mein jaise bilkul byarth aur nirjiw hain, chalti phirti putaliyon se baDhkar aur kuch bhi nahin
ek khali tanga baDi dhimi raftar se chala aa raha tha uska kochawan baDi mast aur karun si awaz mein gata chala aata tha—
do pahar anaran de!
phat mil jande, bol na jande yaran de!
do pahar anaran de,
saD gai zindDi, lag gaye Dher angaran de!
balraj ne ye suna aur uske dil mein ek gahri hook si uth khaDi hui nishprayojan wo dhire dhire aage baDhta chala gaya, ant mein anayas hi usne apne ko wideshi kapDon ki ek dukan ke samne paya
***
gaDi uDi chali ja rahi hai, aur balraj sapna dekh raha hai duniya ke kisi ek kone mein maulashri ka ek bahut baDa peD hai akela—bilkul akela charon or saghan andhkar hai sirf isi wriksh ke upar niche, asapas ujala hai charon taraf kya hai, kuch hai bhi ya nahin—kuchh nahin malum thanDi, sansanati hui hawa chal rahi hai peD ke patte unchi awaz mein is tarah sanya sanya kar rahe hain, jaise relgaDi bhagi ja rahi ho is peD ke niche sirf do hi wekti hain—usha aur balraj usha balraj se bahut door hatkar baithna chahti hai, parantu balraj uska pichha karta hai wo jidhar jati hai, dhire dhire usi ki or baDhne lagta hai usha kahti hai mere nikat mat ao! parantu balraj nahin sunta wo baDhta chala jata hai, aur ant mein lapakkar usha ko pakaD leta hai usha usse bahut naraz ho gai wo kahti hai, main tumhein akela chhoD jaungi sada ke liye, anant kal ke liye phir kabhi tumhare pas na aungi balraj usse mafi mangta hai, giDgiData hai, parantu wo nahin sunti chal deti hai ek taraf ko gahre andhkar mein balraj chilla raha hai aur usha uski pukar sune bina andhkar mein wilin hoti ja rahi hai
gaDi ki raftar bahut dhimi ho gai hai unindi si dasha mein balraj baDe hi katar swar se dhire se pukar utha usha! usha! tum laut aao, usha!
isi waqt ek sipahi ne chillakar kaha, utho mintagumri ka station aa gaya!
balraj chaunkkar uth baitha usne dekha, raat ke do baje hain, aur uske hathon mein hathakaDiyan paDi hui hain
‘inqlab zindabad!’ aur mahatma gandhi ki jay! ke naron se mintagumri ke railway station ka pletfarm raat ke gahre sannate mein bhi sahsa goonj utha
(ek)
jab tak gaDi nahin chali thi, balraj jaise nashe mein tha ye shor gul se bhari duniya use ek nirarthak tamashe ke saman jaan paDti thi prakrti us din ugr roop dharan kiye hue thi lahore ka station raat ke saDhe nau baje karachi express jis pletfarm par khaDi thi, wahan hazaron manushya jama the ye sab log balraj aur uske sathiyon ke prati, jo janbujhkar jel ja rahe the, apna hardik samman prakat karne aaye the pletfarm par chhai hui tinon par warsha ki bauchharen paD rahi theen dhu dhu karke gili aur bhari hawa itni tezi se chal rahi thi ki malum hota tha, wo in sab sampurn manawiy nirmanon ko ulat pulat kar degi, toD foD Dalegi prakrti ke is mahan utpat ke sath sath josh mein aaye hue un hazaron chhote chhote nirbal se dehdhariyon ka joshila kanthaswar, jinhen manushya kaha jata hai—
balraj rajnitik purush nahin hai! mulk ki baton se ya kangres se use koi sarokar nahin wo ek nithalla kalakar hai man bap ke pas kafi paisa hai balraj par koi bojh nahin uniwersity se em e ka imtihan izzat ke sath pas kar wo lahore mein hi rahta hai likhta paDhta hai, kawita karta hai, taswiren banata hai aur befiri se ghoom phir leta hai widyarthiyon mein wo bahut lokapriy hai man bap mufassil mein rahte hain, aur balraj ko unhonne sabhi tarah ki azadi de rakhi hai
aisa nithalla balraj kabhi kangres andolan mein sammilit hokar jel jane ki koshish karega, iski ummid kisi ko nahin thi kisi ko malum nahin ki kab aur kyon usne ye anhoni baat karne ka nishchay kar liya logon ko itna hi malum hai ki barah baje ke qarib wideshi kapDe ki kisi dukan ke samne jakar usne do ek nare lagaye, chillakar kaha ki wideshi wastra pahanna pap hai, aur do ek bhale manson se pararthna ki ki we wilayati mal na khariden natija ye hua ki wo giraftar kar liya gaya usi waqt uska mamla adalat mein pesh hua aur use chhah mahine ki sadi saza suna di gai balraj ke mitron ko ye samachar tab malum hua, jab ek band lari mein baithakar use mintagumri jel mein bhejne ke liye station ki or rawana kar diya gaya tha
log—wisheshkar kaulejon ke widyarthi—balraj ke jay jaykaron se asman gunja rahe the; parantu wo jaise jagte hue bhi so raha tha charon or ka wikshaubdh watawarn, asman se gaDi ki chhat par anant warsha ki bauchhar aur hazaron kanthon ka kolahal balraj ke liye jaise ye sab nirarthak tha uski ankhon mein gahri nirasha ki chhaya thi, uske munh par wishadabhri gahri gambhirta ankit thi aur uske honth jaise kisi ne si diye the uske dost usse puchhte the ki akhir kya sochkar wo jel ja raha hai parantu wo jaise bahra tha, gunga tha, na kuch sunta tha, na kuch bolta tha
kangres ke un pandrah bees swyansewkon mein se balraj ek ko bhi nahin janta tha, aur na uske kapDe khaddar ke the parantu un sab walantiyron mein ek bhi wekti uske saman paDha likha, pratibhashali aur sampann gharane ka nahin tha isse we sab log balraj ko izzat ki nigah se dekh rahe the gaDi chali to un sabse milkar koi geet gana shuru kiya aur balraj apni jagah se uthkar darwaze ke samne aa khaDa hua Dibbe ki sabhi khiDkiyan band theen balraj ne darwaze par ki khiDki khol Dali ek hi kshan mein warsha ke thapeDon se uska sampurn munh bheeg gaya, baal bikhar gaye, magar balraj ne iski parwa nahin ki khiDki khole wo usi tarah khaDe rahkar bahar ke ghane andhkar ki or dekhne laga, jaise is saghan andhkar mein balraj ke liye koi gahri matlab ki baat chhipi hui ho
ek swyansewak ne baDi izzat ke sath balraj se kaha aap buri tarah bheeg rahe hain ichha ho to aakar let jaiye
balraj ne is baat ka koi jawab nahin diya parantu jis nigah se usne us swyansewak ki or dekha, usse phir kisi ko ye himmat nahin hui ki wo usse koi aur anurodh kar sake
khiDki mein se sir bahar nikalkar balraj dekh raha hai us ghane andhkar mein, na jane kis kis disha se aa aakar warsha ki tikhi si bunden uske sharir par paD rahi hain na jane kidhar sansanati hui hawa uske balon ko jhatke de dekar kabhi idhar aur kabhi udhar hila rahi hai
is ghane andhkar mein, jaise bina kisi badha ke, balraj ne ek gahri sans li uski is badha wihin thanDi sans ne jaise uski ankhon ke dwar bhi khol diye balraj ki ankhon mein ansu bhar aaye aur prakrti mata ke anchal ka pani mano tatparta ke sath uske ansuon ko dhone laga
iske baad balraj ko kuch jaan nahin paDa ki kisne, kab aur kis tarah dhire se use ek seat par lita diya kisi tarah ki apatti kiye bina wo let gaya, aur usi kshan usne ankhen moond li
(do)
chaar sal pahle ki baat
pahaD par aaye balraj ko adhik din nahin hue wo akela hi yahan chala aaya tha apne hotel ka bhojan kar, raat ki poshak pahan, wo abhi leta hi tha ki use darwaze par thapathpahat ki awaz sunai di balraj chaunkkar utha aur usne darwaza khol diya uska khayal tha ki shayad hotel ka manager kisi zaruri kaam se aaya hoga, athwa koi Dak wak hogi magar nahin, darwaze par ek mahila khaDi thi—balraj ki rishte ki bahan wo yahan maujud hai, ye to balraj ko malum tha, parantu use balraj ka pata kaise gyat ho gaya, is sambandh mein wo abhi kuch bhi soch nahin paya tha ki uski nigah ek aur laDki par paDi, jo uski bahan ke sath thi balraj khuli tabiat ka yuwak nahin hai, phir bhi us laDki ke chehre par use ek aisi muskan si dikhai di, jo mano paradarshak thi muskrahat ki ot mein jo hirdai tha, uski jhalak saf saf dekhi ja sakti thi balraj ne anubhaw kiya, jaise is laDki ko dekhkar chitt ahlad se bhar gaya hai
usi waqt agrah ke sath wo un donon ko andar le gaya kushlakshaem ki prarambhik baton ke baad balraj ki bahan ne us balika ka parichai diya yah kumari usha hai abhi daswin class mein paDh rahi hai
balraj ki bahan qarib ek ghante tak wahan rahi sabhi tarah ki baten usne balraj se keen, parantu usha ne is sampurn batachit mein zara bhi hissa nahin liya apni ankhen nichi karke aur apne munh ko kohni par tekkar wo lagatar muskrati rahi, hansti rahi aur mano phool bikherti rahi
****
tisre darje ki lakDi ki seat par lete lete balraj arddh chetna mein dekh raha hai, chaar sal pahle ke ek swachchh din ki dopahriya hotel mein sannata hai kamre mein teen jane hain balraj hai, uski bahan hai, aur daswin jamat mein paDhne wali pandrah baras ki usha hai balraj apne palang par ek chadar oDhe baitha hai, uski bahan baten kar rahi hai, aur usha muskra rahi hai, aur lagatar muskraye ja rahi hai
(teen)
kuch hi din baad ki baat hai usha ki man ne balraj aur uski bahan ko apne yahan chay ke liye nimantrit kiya balraj ne tab usha ko adhik nazdik se dekha uski bahan use usha ke kamre mein le gai tisri manzil ke bicho beech saf suthra chhota sa ek kamra tha, ek taraf sitar, wayalin aadi kuch wady yantr rakhe hue the dusri or ek tipai par kuch kitaben ast wyast dasha mein paDi theen is tipai ke pas ek kursi rakhi thi balraj ko is kursi par baithakar uski bahan aur usha palang par baith gai
chay mein abhi der thi aur usha ki amma rasoighar mein thi idhar balraj ki bahan ne paDhai likhai ke sambandh mein usha se anek tarah ke sawal karne shuru kiye, udhar balraj ki nigah tipai par paDi hui ek kapi par gai kapi khuli paDi thi ganait ke ghalat ya sahi sawal in pannon par hal kiye gaye the in sawalon ke aas pas jo khali jagah thi, us par syahi se banaye gaye anek chehre balraj ko nazar aye—kahin sirf ankh thi, kahin nak aur kahin munh jaise akriti chitran ka abhyas kiya ja raha hai balraj ne ye sab ek uDti nazar se dekha, aur ye dekhkar use sachmuch ashchary hua ki pandrah baras ki usha akriti chitran mein itni kushal kahan se ho gai
himmat kar balraj ne kapi ka prishth palat diya dusre hi prishth par ek aisa popala chehra ankit tha, jiske sare dant ghayab the chitr sachmuch bahut achchha bana tha uske niche suDaul akshron mein likha tha—ganait master balraj ke chehre par sahsa muskrahat ghoom gai isi samay usha ki bhi nigah balraj par paDi usi kshan wo sabhi kuch samajh gai batachit ki or se uska dhyan hat gaya aur lajja se uska munh niche ki or jhuk gaya
isi samay balraj ki bahan ne apne bhai se kaha usha ko likhne ka shauq bhi hai tumne bhi uski koi cheez paDhi hai?
balraj ne utsuktapurwak kaha “kahan? zara mujhe bhi to dikhaiye
usha abhi tak is baat ka koi jawab de nahin pai thi ki balraj ne kitabon ke Dher mein se ek kapi aur kheench nikali ye kapi angrezi anuwad ki thi is anuwad mein bhi khali jagah ka prayog hath, nak, kan, munh aadi banane mein kiya gaya tha balraj prishth palatta gaya ek jagah usne dekha ki mera ghar shirshak ek sundar gady kawita usha ne likhi hai balraj ne ise ek hi nigah mein paDh liya paDhkar usne santosh ki ek sans li prshansa ke do ek waky kahe aur is sambandh mein anek parashn usha se kar Dale
pandrah bees minat isi prakar nikal gaye uske baad kisi kaam se usha ko niche chale jana paDa balraj ne tab ek aur chhoti si notabuk us Dher se khoj nikali is notabuk ke pahle prishth par likha tha—‘niji aur wyaktigat magar balraj is kapi ko dekh Dalne ke lobh ka sanwran na kar saka kapi ke saphe usne palte dekha ek jagah bina kisi shirshak ke likha tha—
o! mere dewta!
tum kaun ho, kaise ho, kahan ho—main ye sab kuch bhi nahin janti, magar phir bhi mera dil kahta hai ki sirf tumhin mere ho, aur mera koi bhi nahin
raat baDh gai hai mainne apni khiDki khol Dali hai charon or gahra sannata hai samne ki unchi pahaDi ki barfili chotiyan chandni mein chamak rahi hain ghar ke sab log so gaye hain sara nagar so gaya hai, magar main jag rahi hoon akeli main paDhna chahti thee; magar aur nahin paDhungi paDh nahin sakungi so bhi nahin sakungi, kyonki un barfili chotiyon par se tum mujhe pukar rahe ho mainne to tumhari pukar sun li hai; parantu man hi man tumhari us pukar ka main jo jawab dungi, use kya tum sun sakoge, mere dewta?
wo prishth samapt ho gaya balraj agla prishth palat hi raha tha ki usha kamre mein aa pahunchi balraj ke hathon mein wo kapi dekhkar wo taDap si uthi, sahsa balraj ke bahut nikat aakar aur apna hath baDhakar usne kaha maf kijiye ye kapi main kisi ko nahin dikhati ye mujhe de dijiye
balraj par mano ghaDon pani paD gaya, aur stabdh si dasha mein usne wo kapi usha ke hathon mein pakDa di
apni udwignata par mano usha ab lajjit si ho uthi usne wo kapi balraj ki or baDhakar zara narmi se kaha achchha, aap dekh lijiye, paDh lijiye main aapko nahin rokungi aur ye kahkar wo notabuk usne balraj ke samne rakh dee; magar balraj ab us kapi ko hath lagane ki bhi himmat nahin kar saka
uske baad balraj hi ke anurodh par usha ne gakar bhi suna diya anek chutkule sunaye wo ji kholkar hansti bhi rahi, magar pandrah baras ki is chhoti si balika ke prati, upar ki ghatna se, balraj ke hirdai mein sammanpurn dashhat ka jo bhaw paida ho gaya tha, wo hat na saka
***
warsha ki bauchhar ke kuch chhinte soe hue balraj ke nange pairon par paDe shayad use kuch sardi si pratit hui wo dekhne laga—sabse unchi manzil par theek bicho beech ek kamra hai kamre ke madhya mein ek khiDki hai is khiDki mein se balraj samne ki or dekh raha hai chandni raat hai makan mein, saDak par, nagar mein sabhi jagah sannata hai samne ki pahaDi ki barfili choti chandni mein chamak rahi hai rah rahkar thanDi hawa ke jhonke khiDki ki rah se kamre se aate hain aur balraj ke sharir bhar mein ek siharan si utpann kar jate hain sahsa door par wina ki madhur dhwani sunai paDne lagi balraj ne dekha ki chamakti hui barfili choti par ek aspasht sa chehra dikhai dene laga ye chehra to uska dekha bhala hua hai balraj ne pahchana—oh, ye to usha hai! aaj ki nahin, aaj se chaar sal pahle ki wina ki dhwani kramshah aur bhi adhik karun ho uthi wo mano pukar pukarkar kahne lagi—o mere dewta! o mere dewta!
(chaar)
dusre hi din balraj ki bahan ne use cinema dekhne ke liye nimantrit kiya usha bhi sath hi thi bhayanak ras ka chitr tha boris karloph ka phrainkanstain balraj madhya mein baitha uski bahan ek or, aur usha dusri or khel shuru hone mein abhi kuch der thi batachit mein balraj ko gyat hua ki usha ne abhi tak adhik filmen nahin dekhi hain aur na use cinema dekhne ka koi wishesh chaw hi hai
khel shuru hua sachmuch Darane wala shmshan se murda khodkar laya jana; prayogashala mein sukhe shau ki maujudgi, akasmat murde ka ji uthna, ye sabhi kuch Darane wala tha balika usha ka kishor hirdai dhak dhak karne laga aur kramshah wo adhikadhik balraj ke nikat hoti chali gai
akhiraka ek jagah wo bhay se sihar si uthi aur bahut adhik wichlit hokar usne balraj ka hath pakaD liya phrainkanstain ne baDi nirdayta se ek abodh balika ka khoon kar diya tha usha ke kanpte hue hath ke sparsh se balraj ko aisa anubhaw hua, jaise uske sharir bhar mein prandayini bijli si ghoom gai ho usne balika ke hath ko baDi narmi ke sath thoDa sa dabaya usha ne usi kshan apna hath wapas kheench liya
khel samapt hua balraj ne jaise is khel mein bahut kuch pa liya ho, parantu parkash mein aakar jab usne usha ka munh dekha, to use saf dikhai diya ki balika ke chehre par halki si safedi aa jane ke atirikt aur koi bhi antar nahin aaya uski ankh utni hi pawitra aur abodh thi, jitna khel shuru hone se pahle utsukta ko chhoDkar aur kisi ka bhaw uske chehre par leshamatr bhi chihn nahin tha balraj ne ye dekha aur dekhkar jaise wo kuch lajjit sa ho gaya
* * *
gaDi ek station par aakar khaDi ho gai balraj kuch uninda sa ho gaya uski ankhen zara zara khuli hui theen samne ki seat par ek daDhiyal sipahi ajib Dhang se munh banakar ubasiyan le raha tha balraj ko aisa pratit hua, jaise phrainkanstain ka bhoot samne se chala aa raha hai lamp ke nikat se ek chhoti si titli uDi aur balraj ke hath ko chhuti hui niche gir paDi balraj ko anubhaw hua, mano usha ne uska hath pakDa hai bahut door se injan ki siti sunai di balraj ko aisa jaan paDa, jaise usha cheekh uthi ho uske sharir bhar mein ek kampan sa dauD gaya mumkin tha ki balraj ki neend uchat jati, parantu isi samay gaDi chalne lagi aur uske halke halke jhulon ne uske unindepan ko door kar diya
(panch)
sharmili tabiat ka hote hue bhi balraj kafi samajik hai aprichit ya alp parichit logon se milna julna aur un par achchha prabhaw Dal sakna use aata hai; parantu na jane kya karan hai ki usha ke samne aakar wahi balraj kuch bhigi billi sa ban jata hai usha ab lahore ke hi ek college mein em e mein paDh rahi hai ab wo susanskrit, sabhy aur samajik nawyuwti ban gai hai balraj ab kisi college mein nahin paDhta, phir bhi asthaniya kaulejon ke widyarthiyon mein atyadhik lokapriy hai aur widyarthiyon ka neta hai sabha sosaitiyon mein khoob hissa leta hai, bahut achchha bhashan de sakta hai wo kawi hai, lekhak hai, chitrkar hai aur usha bhi janti hai ki wo sabhi kuch hai isi karan wo balraj ko wishesh izzat ki nigah se dekhti hai parantu balraj jab usha ke samne pahunchta hai, tab wo baDi nirasha ke sath anubhaw karta hai ki uski wo sampurn pratibha, khyati aur wak shakti na jane kahan jakar chhip gai hai
suraj Doob chuka tha aur balraj larens bagh ki sair kar raha tha andhera baDhne laga aur saDkon ki battiyan ek sath jagmaga uthin bagh mein ek kritrim pahaDi hai is pahaDi ke pichhe ki saDak par adhik awagaman nahin rahta balraj aaj kuch udas aur duhkhi tha wo dhire dhire isi saDak par baDha chala ja raha tha
isi samay uske nazdik se ek tanga guzra balraj ne uDti nigah se dekha, tange par do yuwatiyan sawar hain agle hi kshan ek laDki ne parnam kiya balraj ke sharir bhar mein ahlad ki lahr si ghoom gai oh, ye to usha hai! balraj ne usha ke parnam ka kuch is tarah jawab diya, jisse usne samajh liya ki jaise wo use thaharne ka ishara kar raha hai tanga kuch door nikal gaya tha, usha ne tanga thaharwa liya aur swayan utarkar balraj ke nikat chali i aate hi baDe sahj bhaw se usne puchha kahiye, kya baat hai?
balraj ko kuch bhi nahin sujha usne tanga thaharne ka ishara bilkul nahin kiya tha, parantu ye baat wo is waqt kis tarah kah sakta tha! natija ye hua ki balraj usha ke chehre ki or takta hi rah gaya
usha kuch hataprabh si ho gai phir bhi, baat chalane ki garaz se usne kaha apaki saray par shirshak kawita mainne kal hi paDhi thi aapne kamal kar diya hai
balraj ne yon hi poochh liya apko wo pasand i?
khoob
iske baad balraj phir chup ho gaya shayad uske hirdai mein anek bhawon ki andhi si uth khaDi hui ki kuch bhi wyakt kar sakna uske liye asan nahin tha jis tarah tang gale ki botal upar tak bhar di jane ke baad, apni antrik prachurta ke karan hi, ulta dene par bhi khali nahin ho pati, usi tarah balraj ke hardik bhawon ki ghanta hi use mook banaye hue thi usha parnam karke lautne hi lagi ki bahut dhire se balraj ne pukara usha!
usha ghumkar khaDi ho gai munh se usne kuch bhi nahin kaha, parantu uski ankhon mein ek baDa sa prashnawachak chihn saf taur se paDha ja sakta tha
balraj ne baDi shithil awaz mein kaha apko dekhkar na jane mujhe kya ho jata hai!
usha ye sunne ke liye taiyar nahin thi phir bhi wo chupchap khaDi rahi
kshan bhar rukkar balraj ne kaha aap sochti hongi, ye ajab behuda adami hai na hansna janta hai, na bolna janta hai, magar sach maniye
beech hi mein badha dekar usha ne kaha main aapke bare mein kabhi kuch nahin sochti; magar aapko ye hota kya ja raha hai?
balraj ke chehre par hawaiyan si uDne lagin use usha ke swar mein kuch kathorta si pratit hui to bhi baDe sahas ke sath usne kaha main apne antrik bhaw wyakt nahin kar sakta
usha ne chaha ki wo is gambhirtam baat ko hansakar uDa de; magar koshish karne par bhi wo hans nahin saki wo kuch bhaybhit si ho gai usne kaha main jati hoon aur wo ghumkar chal di
balraj ek qadam aage baDha uske ji mein aaya ki wo lapakkar usha ka hath pakaD le, parantu wo aisa na kar saka
ek qadam aage baDhkar wo pichhe ki or ghoom gaya usi waqt tange par se ek nari kanth sunai diya usha! usha!
(chhः)
abhi parson ki hi baat hai
garmiyon ki in chhuttiyon mein lahore se widyarthiyon ki do toliyan sair ke liye chalne wali thin—ek simaprant ki or aur dusri kullu se shimla ke liye is dusri toli ka sangthan balraj ne kiya tha, aur wahi is toli ka mukhiya bhi tha
usha ke dil mein abhi tak balraj ke liye aadar aur sahanubhuti ke bhaw the balraj ke manasik aswasthy ko dekhkar use sachmuch duhakh hota tha wo apne swabhawik sahj wywahar dwara balraj ke is manasik aswasthy ki chikitsa kar Dalna chahti thi aur sambhawtah yahi karan tha ki wo uske sath, any do teen laDakiyon samet, kullu yatra par jane ko bhi taiyar ho gai thi
parantu abhi parson ki hi baat hai sham ke samay balraj ne apni party ke sabhi sadasyon ko chay par nimantrit kiya ghante do ghante ke liye balraj ke yahan achchhi chahl pahal rahi hansi mazak hua, gana bajana hua aur parwat yatra ke wistrit program par bhi wichar hota raha
chay ke baad, jab sabhi log chale gaye, balraj usha ko uske niwas sthan tak pahunchane ke liye sath chal diya usha ne is baat par koi apatti nahin ki
mal roD par pahunchakar balraj ne prastaw kiya ki tanga chhoD diya jaye aur paidal hi larens bagh ka chakkar lagakar ghar jaya jaye usha ne ye prastaw bhi bina kisi badha ke swikar kar liya
donon jane tange se utarkar paidal chalne lage usha ne anek bar ye prayatn kiya ki koi baat shuru ki jaye balraj bhi aaj apekshakrit kam udwign pratit ho raha tha phir bhi koi bhi baat mano chali nahin, panap hi nahin pai
kramshah we donon nakli pahaDi ke pichhe ki saDak par ja pahunche is samay tak sanjh Doob chuki thi, aur saDkon par ki battiyan jagmagane lagi theen
is nistabdhata mein donon jane chupchap chale ja rahe the ki maulashri ke ek ghane peD ke niche pahunchakar balraj sahsa ruk gaya
usha ne bhi khaDe hokar puchha aap ruk kyon gaye?
balraj ne kaha us din ki baat yaad hai?
uska swar bhari hokar laDkhaDane laga tha usha kuch ghabra si gai baat tal dene ki garaz se usne kaha, chaliye wapas laut chala jaye der ho gai hai
magar balraj apni jagah se nahin hila malum hota tha ki uske dil mein koi cheez itni zor se sama gai ki wo uska dam ghontne lagi hai balraj ke chehre par pasine ki bunden chamakne lagin kanpte hue swar mein usne kaha usha! agar tum jantin ki main din raat kya sochta rahta hoon!
usha ab bhi chup thi uske hirdai mein widroh ki aag bhabhak paDi, magar phir bhi wo chupchap khaDi rahi sahn karti rahi
balraj ne phir se kaha usha! tum mujh par taras khao mujh par naraz mat hoo
usha ne kathor aur driDh swar mein kaha aapko nahin malum kya ho gaya hai agar aapne ab ek bhi baat is tarah ki aur kahi, to main aapse kabhi nahin bolungi
balraj ye sunkar bhi sambhal nahin saka uski ankhon mein ansu bhar aaye aur baDe anunay ke sath usne usha ka hath pakaD liya
usha ne taDapkar apna hath chhuDa liya aur shighrata se ek taraf ko baDh chali chalte hue, bahut hi nishchaypurn swar mein wo kahti gai main aapke sath kullu nahin jaungi
kuch hi duri par usha ko ek khali tanga mila us par sawar hokar wo apne ghar ki or chali gai
agle din subah balraj ne apni party ke sabhi sadasyon ke nam is baat ki suchana bhej di ki wo kullu nahin ja sakega kisi ko malum bhi nahin ho paya ki mazra kya hai aur sampurn party barkhast ho gai
sima prant ki or jane wali party subah ki gaDi se hi peshawar ke liye rawana hui hai ab se sirf chaudah ghante pahle is party ko wida dene ke liye balraj bhi station par pahuncha tha usha bhi isi party ke sath gai thi apne man bap se yatra par jane ki anumti prapt kar kahin bhi na jana use uchit pratit nahin hua aaj subah lahore station par hi balraj ne is party ko kai tarah ki nasihten di theen kisi ko uske acharn mein asadharanta zara bhi pratit nahin hui thi parantu gaDi chalne se pahle hi, chupchap sabse prithak hokar wo tisre darje ke musafiron ki bheeD mein ja mila
balraj station se bahar aaya, to duniya jaise uske liye andhkarpurn ho gai thi asman mein suraj bina kisi badha ke chamak raha tha saDkon par log sada ki tarah aa ja rahe the duniya ke sabhi karobar usi tarah jari the, parantu balraj ke liye jaise sabhi or sunapan wyapt ho gaya tha kahin kuch bhi akarshan baqi na raha tha sabhi kuch niras, phika— bilkul phika ho gaya tha
saDak ke kinare phutpath par balraj dhire dhire bilkul niruddeshy bhaw se chala ja raha tha hazaron, lakhon manushyon se bhari ye nagri balraj ke liye jaise bilkul nirjan aur sunsan ban gai hai rah rahkar jo itne log uske nikat se nikal jate hain, uski nigah mein jaise bilkul byarth aur nirjiw hain, chalti phirti putaliyon se baDhkar aur kuch bhi nahin
ek khali tanga baDi dhimi raftar se chala aa raha tha uska kochawan baDi mast aur karun si awaz mein gata chala aata tha—
do pahar anaran de!
phat mil jande, bol na jande yaran de!
do pahar anaran de,
saD gai zindDi, lag gaye Dher angaran de!
balraj ne ye suna aur uske dil mein ek gahri hook si uth khaDi hui nishprayojan wo dhire dhire aage baDhta chala gaya, ant mein anayas hi usne apne ko wideshi kapDon ki ek dukan ke samne paya
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gaDi uDi chali ja rahi hai, aur balraj sapna dekh raha hai duniya ke kisi ek kone mein maulashri ka ek bahut baDa peD hai akela—bilkul akela charon or saghan andhkar hai sirf isi wriksh ke upar niche, asapas ujala hai charon taraf kya hai, kuch hai bhi ya nahin—kuchh nahin malum thanDi, sansanati hui hawa chal rahi hai peD ke patte unchi awaz mein is tarah sanya sanya kar rahe hain, jaise relgaDi bhagi ja rahi ho is peD ke niche sirf do hi wekti hain—usha aur balraj usha balraj se bahut door hatkar baithna chahti hai, parantu balraj uska pichha karta hai wo jidhar jati hai, dhire dhire usi ki or baDhne lagta hai usha kahti hai mere nikat mat ao! parantu balraj nahin sunta wo baDhta chala jata hai, aur ant mein lapakkar usha ko pakaD leta hai usha usse bahut naraz ho gai wo kahti hai, main tumhein akela chhoD jaungi sada ke liye, anant kal ke liye phir kabhi tumhare pas na aungi balraj usse mafi mangta hai, giDgiData hai, parantu wo nahin sunti chal deti hai ek taraf ko gahre andhkar mein balraj chilla raha hai aur usha uski pukar sune bina andhkar mein wilin hoti ja rahi hai
gaDi ki raftar bahut dhimi ho gai hai unindi si dasha mein balraj baDe hi katar swar se dhire se pukar utha usha! usha! tum laut aao, usha!
isi waqt ek sipahi ne chillakar kaha, utho mintagumri ka station aa gaya!
balraj chaunkkar uth baitha usne dekha, raat ke do baje hain, aur uske hathon mein hathakaDiyan paDi hui hain
‘inqlab zindabad!’ aur mahatma gandhi ki jay! ke naron se mintagumri ke railway station ka pletfarm raat ke gahre sannate mein bhi sahsa goonj utha
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।