फाटक पार करते ही जिस ओर सबसे पहले हमारा ध्यान गया, वे थे पेड़ों पर लटकते हुए अलूचों से मिलते-जुलते किसी फल के गुच्छे। मकान के भीतर घुसने के बदले हम उस ओर दौड़े। कई पेड़ थे जिन पर वे लटक रहे थे। परंतु उछल-उछल कर कूदने पर भी किसी के हाथ में एक भी दाना नहीं आ सका। मैं सबसे लंबा था, लेकिन मेरा हाथ भी उन्हें छूते-छूते रह जाता। हमारा शोर सुन कर बड़ी बहन भीतर से आईं।
‘यह तोड़ दीजिए, न जाने कौन-सा फल है! शायद अलूचे या आलू-बुख़ारा या ख़ूबानी…’ हम सब चिल्लाने लगे।
बहन धीमी चाल से हमारी ओर आने लगीं। हमें क्रोध आया कि वे ऐसे मौक़े पर भाग कर क्यों नहीं आतीं। लेकिन भय था कि कहीं उनसे जल्दी आने के लिए कहें तो वे वापस न लौट जाएँ।
‘क्या हैं ये...।’ उन्होंने ऊपर पेड़ की ओर देखते हुए कहा।
‘शायद अलूचे ही हैं। तोड़ दीजिए जल्दी।’
‘कोई जंगली फल है शायद?’ वे बोलीं।
‘नहीं-नहीं जंगली नहीं है,’ हम चिल्लाए, ‘एक तोड़ कर मुझे दीजिए…’
हमारी ओर बिना ध्यान दिए वे ऊपर लटकते गुच्छों को देख रही थीं, फिर एक दाना तोड़ा और उसे घुमा-फिरा कर देखती रहीं। ‘पता नहीं क्या है? ऐसा फल तो कभी किसी पहाड़ पर देखा नहीं।’
हम उनके आस-पास एक दायरा बना कर खड़े हो गए थे और अब उस एक दाने को लेने के लिए छीना-झपटी करने लगे।
‘नहीं, यह खाना नहीं होगा। कौन जानता है, इसमें ज़हर हो! पहले माली से पूछेंगे।’ फिर मेरी ओर देख कर बोलीं, ‘सुनो, कोई नहीं तोड़ेगा इन्हें!’ यह कह कर वे फिर धीमी चाल से मकान की ओर चली गईं।
उनके आदेश का कोई विरोध नहीं कर सकता, यह सोच कर सब मन मसोस कर रह गए। लेकिन उस शाम सारे बाग़ में घूम-घूम कर हमने उन पेड़ों को गिना। दूसरे पेड़ भी थे लेकिन उनका महत्व नहीं के बराबर ही था। यह पहला मौक़ा था कि किसी पहाड़ में अपने ही बाग़ में किसी फल के इतने पेड़ मिले हों। कभी एक-आध अलूचे, ख़ूबानी या सेब का पेड़ मिल जाता था, या फिर क़रीब ही किसी दूसरे मकान में इन पेड़ों को देख कर चुपके से कभी कुछ तोड़ लेते, लेकिन इस बार अपने ही बाग़ में इतने पेड़… हमारे उत्साह की सीमा नहीं थी।
अंदर बहन ने वह दाना पिता के सामने रख कर कहा, ‘पता नहीं कौन-सा फल है? बाग़ में लगा है।’
पिता उसे देखते ही बोले, ‘यह तो चेरी है, अभी पकी नहीं।’
चेरी का नाम सुनते ही हमारा उत्साह और भी बढ़ गया। हमने आज तक चेरी का पेड़ नहीं देखा था और अब अपने ही बाग़ में पंद्रह-बीस चेरी के पेड़ है, जिन्हें तोड़ने से कोई नहीं रोकेगा, जिन पर पूर्ण रूप से हमारा अधिकार होगा।
हम उस एक विषय में इतने मग्न थे कि उस साल कमरों को ले कर झगड़ा नहीं हुआ। हर साल पहले दिन यह समस्या जब सामने आती—कौन-सा कमरा किसका होगा, तो हम आपस में झगड़ते थे, हाथापाई भी होती थी और ग़ुस्से में पिता भी एक-आध को पीट देते थे। लेकिन इस बार बहन ने जहाँ जिसका सामान रख दिया, उसका विरोध किसी ने नहीं किया।
रात को बहन हमारे कमरे में आईं, मैं एक किताब में तस्वीरें देख रहा था।
‘सोया नहीं?’
‘नींद नहीं आई।’ मैं बोला। छोटे भाई-बहन सो गए थे।
‘मुझे भी नए घर में पहली रात को नींद नहीं आती।’
वे खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गईं। खिड़की बंद थी लेकिन एक शीशा टूटा हुआ था जिसमें से वे बाहर झाँकने लगीं। दो महीने पूर्व जब से उनकी सगाई हुई वे बहुत चुप-चुप-सी रहने लगी थीं। अगले जाड़ों मे उनका विवाह हो जाएगा, उनके विवाह की कल्पना से ही हमारा उत्साह बढ़ जाता। लेकिन विवाह के बाद वे इस घर में नहीं रहेंगी, सोचकर दुख भी होता।
‘यह देखो।’ उन्होंने धीमे स्वर में कहा।
‘क्या है?’
‘इधर आओ?’ खिड़की से अपना चेहरा सटाए ही वे बोलीं।
मैं उनके पास जाकर खड़ा हो गया। खिड़की के दूसरे शीशे से बाहर देखा, लेकिन अँधेरे में सामने वाले पहाड़ के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं दिया।
उन्होंने धीरे से खिड़की की चिटखनी खोली और अपना सिर बाहर निकाल लिया।
‘क्या है?’ मैंने बे-सब्री से पूछा।
‘वो देखो, कितने तारे छिटके हुए हैं।’
मुझे बहुत निराशा हुई। मैं सोच रहा था कि शायद उन्होंने कोर्इ जंगली जावनर देखा हो, ‘तारे तो सब जगह दिखाई देते हैं।’ मैंने खीझकर कहा।
‘तारे इतने पास कभी दिखाई नहीं देते। लगता है जैसे हाथ ऊपर उठाते ही हम उन्हें छू लेंगे।
मैंने फिर आकाश की ओर दे, मुझे भी लगा जैसे तारे बहुत नीचे उतर आए हों।
‘पहाड़ों पर तारे नज़दीक दिखाई देते हैं। हम ऊँचाई पर आ जाते हैं न, इसीलिए।’
‘नहीं, यह बात नहीं है। पिछले साल मसूरी में वे इतने पास कभी दिखाई नहीं दिए, नैनीताल में...’
मुझे इस विषय में अधिक दिलचस्पी नहीं थी।
‘मैंने कहीं पढ़ा था कि यहाँ तारे बहुत पास दिखाई देते हैं।’ वे बोलीं।
खुली खिड़की से ठंडी हवा भीतर आ रही थी। मैं अपनी चारपाई पर आ गया और लिहाफ़ से अपना शरीर ढँक लिया। वे कुछ देर तक खिड़की पर झुकी रहीं, फिर अपने कमरे में चली गईं। मैं फिर तस्वीरें देखने लगा।
अगले दिन प्रातः उठते ही हम चेरी के पेड़ों के पास पहुँच गए। कोई किसी पेड़ के पास जा कर दूसरों को आवाज़ लगाता, ‘देखो, ऊपर की डाल पर चेरी कितनी पीली हो गई है।’ किस पेड़ की चेरी सबसे बड़ी है, किसकी छोटी इन सबकी जाँच-पड़ताल हमने तुरंत कर डाली। एक पेड़ की कुछ टहनियाँ नीचे की ओर झुकी हुई थीं, लेकिन बहुत उछलने के बावजूद हाथ उन तक नहीं पहुँचा। फिर छोटा भाई घुटनों के बल बैठा और मैं उसकी पीठ पर चढ़ कर चेरी तोड़ने लगा। केवल चार दाने ही हाथ में आए। एक-एक सबको दिया, लेकिन छोटी बहन के लिए नहीं बची। वह रोने लगी, मैंने उसे अपनी आधी चेरी देने का वायदा किया, लेकिन उसने इनकार कर दिया। वह बहन से शिकायत करेगी, यह धमकी दे कर वह रोती-रोती घर की ओर भागी।
कुछ देर बाद बहन हमारे पास आईं, ‘ये कच्ची चेरी क्यों तोड़ी? इन्हें खा कर क्या बीमार पड़ना है?’ फिर मेरी ओर देख कर बोलीं, ‘अगर किसी ने अब एक भी चेरी खाई, तो उसे कड़ी सज़ा मिलेगी। कच्चा फल तोड़ने में पाप चढ़ता है।’
वे लौट गईं। अब बहन के मना कर देने पर किसी को फिर चेरी खाने का साहस नहीं होगा। यदि छिप कर ऐसा किया भी और बहन को पता चल गया, तो उसका क्या परिणाम निकलेगा- इसकी कल्पना से ही डर लगने लगा। वे कभी किसी को पीटती नहीं थीं, अधिक क्रोध आने पर डाँटतीं भी नहीं, उनकी सज़ा होती थी- क़ुसूरवार से बोलचाल बंद। यह सज़ा असहनीय बन जाती थी, मार-पीट और डाँट से भी अधिक, जिससे हम सब घबराते थे।
खाते समय जब साथ बैठते तो हम इसी एक विषय पर बातें करते थे।
‘अब तो गुलाबी होने लगी हैं।’
‘ऊपर की डालियों पर तो लाल हो गई हैं।’
‘अब दो हफ्तों तक तैयार हो जाएँगी, फिर जी भर कर खाना।’ पिता कहते।
बहन कहतीं, ‘इनका बस चले तो ये कच्ची ही खा जाएँ। इस बार तो ये घर से बाहर ही नहीं निकलते।...बस चेरी-चेरी...और कोई बात ही नहीं।’
माँ को बहन के विवाह की चिंता लगी हुई थी। जब घर का काम न रहता तो पिता के साथ वे इस विषय पर कितनी ही बातें किया करती थीं। पिता एक कापी में माँ की बतलाई हुई लिस्टें लिखा करते थे—क्या सामान मँगवाना होगा, कितना गहना बनेगा, कितनी साड़ियाँ, बारात कहाँ ठहरेगी?
इस चर्चा से बहन का चेहरा और भी गंभीर हो आता।
हर चेरी के पेड़ के तने पर मैंने चाकू की नोक से सबके नाम लिख दिए थे। पेड़ पर जिसका नाम होगा, वही उसकी चेरी तोड़ेगा और खाएगा। सब अपने-अपने पेड़ों के नीचे खड़े हो कर अपनी चेरी की प्रशंसा करते और दूसरे पेड़ों की निंदा। हर एक का दावा रहता कि उसके पेड़ों की चेरी बहुत तेज़ी से पक रही हैं।
उस दिन एक व्यक्ति हमारे बाग़ में आया और चेरी के पेड़ों के चक्कर लगाने लगा। हर पेड़ के पास जाता और शाख़ाओं को इधर-उधर हटा कर ऊपरी सिरे तक देखता, कभी एक पेड़ की चेरी तोड़ कर खाता, कभी दूसरे पेड़ की। इतना बेधड़क हो कर वह बाग़ में घूम रहा था जैसे यह उसी का घर हो। हम झुंड बना कर उसकी ओर देखते रहे, उसके व्यवहार पर क्रोध आ रहा था, परंतु उससे कुछ भी कहने का साहस हममें से किसी में नहीं था। अपना काम ख़त्म करके उसकी नज़र हमारी ओर गई और वह मुस्कुराने लगा जिसमें हमें उसके ऊपर के दो बड़े-बड़े पीले-से दाँत दिखाई दिए।
‘आप लोग इस बँगले में रहते हैं?’
‘हाँ, यह हमारा मकान है।’ मैंने साहस से कहा।
पिता से मिलने की इच्छा प्रकट करने पर हम उसे पितावाले कमरे में ले गए। हमें उसके चेहरे से घृणा हो रही थी और यह जानने का कौतूहल भी था कि वह कौन है। उसके जाने के बाद हम पिता के पास गए।
‘यह ठेकेदार था जिसने चेरी के पेड़ मकान-मालिक से ख़रीद लिए हैं। कल से उसका आदमी इन पेड़ों की रखवाली करेगा।’ पिता बोले।
हम में से कोई उस ठेके की बात समझा, कोई समझ नहीं सका।
‘हम तो समझ रहे थे कि ये हमारे पेड़ हैं, हमारे बाग़ के अंदर हैं, कोई दूसरा उन्हें कैसे ख़रीद सकता है।’ मैं बोला।
पिता हँसने लगे, ‘हमने मकान किराए पर लिया है। पेड़ों पर मकान-मालिक का ही हक़ रहता है।’
‘अब हम चेरी नहीं तोड़ सकते हैं?’
‘चेरी ठेकेदार की हैं, हम कैसे तोड़ सकते हैं?’
उस रात को हममें से किसी ने भी चेरी के विषय में एक भी शब्द नहीं कहा। किसी ने भूले से कुछ कहा तो सबको चुप देख कर उसे अपनी ग़लती का तुरंत अहसास हो गया। मुझे बहुत देर तक नींद नहीं आई। खिड़की से बाहर बाग़ की ओर देखा, चेरी के छोटे-छोटे पेड़ भार से झुके हुए सोए जान पड़े। जिन पर कल हम अपना अधिकार समझते थे, वे अब अपने नहीं जान पड़े। मैं बहन से इस विषय में और भी कई बातें पूछना चाहता था, परंतु वे उस रात हमारे कमरे में नहीं आईं।
अगले दिन सुबह ठेकेदार के साथ एक बूढ़ा भी आया। वे अपने साथ रस्सियों के ढेर, टूटे हुए पुराने कनस्तर और बाँस की चटाइयाँ लाए। बाग़ के दूसरे सिरे पर चटाइयों से उन दोनों ने एक झोंपड़ी तैयार की, झोंपड़ी के भीतर एक दरी बिछाई, एक कोने में बूढ़े ने हुक्का रख दिया। हम थोड़ी दूर से सब कुछ देखते रहे। दो चटाइयों को मिला कर झोंपड़ी जितनी जल्दी तैयार हो गई, उससे हमें बहुत आश्चर्य हुआ। वे दोनों कभी-कभी हमारी ओर देख कर मुस्कुराने लगते लकिन हमने उनका कोई जवाब नहीं दिया। छोटे भाई ने कहा कि हमारे शत्रु हैं और हमारी ही ज़मीन पर अपने ख़ेमे गाड़ रहे हैं।
कनस्तरों में छोटे-छोटे पत्थर भरे गए और रस्सियों की सहायता से उन्हें कुछ पेड़ों पर बाँध दिया गया। उन रस्सियों के सिरे झोंपड़ी के पास एक खूँटे में बाँध दिए गए। बूढ़ा रस्सी के सिरे को झटके के साथ हिलाता तो कनस्तर में पड़े पत्थर बजने लगते और एक कर्कश-सी आवाज़ सारे बाग़ में गूँज उठती। हमारा कौतूहल बढ़ता जा रहा था।
कुछ देर बाद सारा प्रबंध करके ठेकेदार चला गया। रह गया वह बूढ़ा जो झोंपड़ी के पास एक पत्थर पर बैठा हुक्का गुड़गुड़ाने लगा। ठेकेदार की अपेक्षा उस बूढ़े के चेहरे पर हमें मैत्री भाव दिखाई दिया। हम धीरे-धीरे उसके पास पहुँच गए। उसने बड़े प्यार से हमें अपने पास बिठाया। हमारे पूछने पर उसने बतलाया कि ये कनस्तर परिंदों को भगाने के लिए बाँधे गए हैं, बहुत-से परिंदे—विशेषकर बुलबुल- चेरी पर चोंचें मारते हैं जिससे वह सड़ जाती है। अगर उन्हें न भगाया जाए तो पेड़-के-पेड़ ख़त्म हो सकते हैं।
‘लेकिन कनस्तर सब चेरी के पेड़ों पर क्यों नहीं बाँधे गए?’
‘चार-पाँच पेड़ों के लिए एक कनस्तर की आवाज़ काफ़ी है।’ वह बोला।
‘क्या तुम रात को भी यहीं सोओगे?’
‘हाँ, रात को भी डर रहता है कि कोई आदमी चेरी न तोड़ ले।’
सबसे छोटी बहन का ध्यान हुक्के की ओर था। उसने पूछा, ‘यह क्या है?’
हम हँस पड़े। ‘यह इनकी सिगरेट है,’ छोटा भाई बोला।
धीरे-धीरे बूढ़े की उपस्थिति से सब अभ्यस्त हो गए। रस्सी खींच कर कनस्तरों को बजाना, ‘हा-हू,हा-हू’ या सीटी बजा कर परिंदों को उड़ाना—इन सब आवाज़ों को सुनने की आदत पड़ गई। चेरी के भार से डालियाँ इतनी झुक गई थीं कि उछल कर आसानी से मैं दो-चार दाने तोड़ सकता था, परंतु बूढ़े की नज़रें हर समय चौकन्नी हो कर चारों ओर घूमती रहती, इसलिए साहस नहीं होता था।
माँ दूसरे-तीसरे दिन बूढ़े को चाय का गिलास भिजवा देतीं। वह भी कभी-कभी कुछ पकी हुई चेरी तोड़ कर हमें दे देता। लेकिन पेड़ पर चढ़ कर तोड़ना, फिर खाना—जिसकी हमने शुरू में कल्पना की थी, वह साध मन में ही रह गई। जब कभी कोई चिड़िया पेड़ पर चेरी खा रही होती और बूढ़े को पता न चलता तो हमें बहुत प्रसन्नता होती। हमारा वश चलता तो सारे पेड़ परिंदों का खिला देते। लेकिन चिड़ियाँ चुपचाप चेरी नहीं खातीं, एक-दो दाने खा कर जब वे दूसरी डाल पर उड़तीं तो बूढ़े को पता चल जाता और वह रस्सी खींच कर कनस्तर बजा देता।
बहन दिन-भर किसी पेड़ के नीचे कुरसी बिछा कर हम में से किसी का पुलोवर बुनती रहतीं। इस साल गर्मियों की छुट्टियों में उन्होंने किसी किताब को हाथ तक नहीं लगाया, नहीं तो हर बार वे अपने कोर्स की कोई किताब पढ़ती रहती थीं। कुछ दिन पूर्व उनका इंटरमीडिएट का परिणाम निकला था और वे फ़र्स्ट डिवीजन में पास हुई थीं। वे और पढ़ना चाहती थीं परंतु माँ को उनके विवाह की जल्दी थी।
हमारे घर से थोड़ी दूर एक चश्मा बहता था जहाँ हम दूसरे-तीसरे दिन नहाने चले जाते थे। कभी बाज़ार, कभी सिनेमा, कभी पार्क-धीरे-धीरे हमारी दिनचर्या में दूसरे आकर्षण आते गए। यह शायद पहला अवसर था कि बड़ी बहन ने किसी में भाग नहीं लिया। पहाड़ों में वे हमारे बहुत क़रीब आ जाती थीं। रात को खाने के बाद चारपाइयों में दुबके हम उनसे कहानियाँ सुना करते थे, शाम को सबको अपने साथ घुमाने ले जाती थीं और पिकनिकों की तो कोई गिनती ही नहीं होती थी। इस बार वे बहुत कम घर से निकलीं और जब बाहर जातीं भी तो अकेली ही जातीं। माँ की किसी बात का असर उन पर नहीं हुआ।
एक दिन सुबह आँख खुलते ही बाहर बाग़ में कई लोगों की आवाज़ें सुनाई दीं। मैं चारपाई पर लेटा-लेटा कुछ देर तक आश्चर्य से इस शोरग़ुल के बारे में ही सोचता रहा। खिड़की से झाँक कर बाहर देखने ही वाला था जब बहन किसी काम से कमरे में आई।
‘यह शोर कैसा है?’ मैंने पूछा।
‘वे लोग आ गए।’
‘कौन लोग?’ मैंने आश्चर्य से पूछा।
‘वही, ठेकेदार के आदमी, चेरी तोड़ने के लिए,’ वे बोलीं।
मैं झट से बाहर दौड़ा। पेड़ों पर टोकरियाँ लिए ठेकेदार के आदमी चढ़े हुए थे। दोनों हाथों से ऊपर-नीचे की शाख़ाओं से चेरी तोड़ कर टोकरियों में भरते जा रहे थे। किसी दूर की शाख़ा को पकड़ कर अपने पास घसीटने पर ‘चर्र-चर्र’ की आवाज़ें गूँजने लगतीं। सारे बाग़ में शोरग़ुल था।
हम धीरे-धीरे बाग़ के चक्कर लगाने लगे। हर पेड़ के पास कुछ देर तक खड़े रह कर ऊपर चढ़े आदमी को देखते। लग रहा था जैसे आज हमारी पराजय का अंतिम दिन हो।
हर पेड़ के नीचे काफ़ी चेरी गिरी हुई थीं। छोटी बहन ने लपक कर एक गुच्छा उठा लिया तो भाई ने उसके हाथ से छीन कर फेंक दिया, ‘जानती नहीं कि बहन ने क्या कहा है?’
‘कोई एक भी चेरी मुँह में नहीं रखेगा।’
झोंपड़ी के पास ठेकेदार अन्य चार-पाँच व्यक्तियों के साथ चुन-चुन कर चेरी एक पेटी में रख रहा था। उसके पास ही कई ख़ाली पेटियाँ पड़ी थीं और दरी पर दिखाई दिया तोड़ी हुई चेरियों का ढेर। वे सब बहुत तेज़ी से काम कर रहे थे। हमें खड़े देख कर ठेकेदार ने एक-एक मुट्ठी चेरी हम सबको देनी चाही, लेकिन हमने इंकार कर दिया।
हम लोग बाग़ में ही घूमते रहे। घर से कहीं बाहर जाने की इच्छा नहीं हुई। चेरी के पेड़ धीरे-धीरे ख़ाली हुए जा रहे थे। उस दिन कनस्तर बजाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। बुलबुल और दूसरे पक्षी पेड़ों के ऊपर ही चक्कर लगाते रहे, किसी पेड़ पर बैठने का साहस नहीं था।
‘यह देखो, उस पेड़ के नीचे क्या पड़ा है?’ छोटी बहन ने एक पेड़ की ओर संकेत करके कहा।
हमने उस ओर देखा, परंतु जान नहीं सके कि वह क्या है? पास जाने पर पेड़ के नीचे एक मरी हुई बुलबुल दिखाई दी। उसकी गर्दन पर ख़ून जमा हुआ था। हम कुछ देर तक चुपचाप देखते रहे। मैंने उसका पाँव पकड़ कर हिलाया, लेकिन उसमें जान बाक़ी नहीं बची थी।
‘यह कैसे मर गई?’
‘किसी ने इसकी गर्दन पर पत्थर मारा है।’
‘इन्हीं लोगों ने मारा होगा।’
‘तभी कोई बुलबुल पेड़ पर नहीं बैठ रही।’
हमने ठेकेदार और उसके आदमियों को जी भर कर गालियाँ दीं। उन लोगों पर पहले ही बहुत क्रोध आ रहा था, अब बुलबुल की हत्या देख कर तो उनसे बदला लेने की भावना बहुत तीव्र हो उठी। कितनी ही योजनाएँ बनाईं, परंतु हर बार कोई कमी उसमें नज़र आ जाती जिससे उसे अधूरा ही छोड़ देना पड़ता। फिर यह सोच कर कि यदि यह बुलबुल यहीं पड़ी रही तो कोई बिल्ली या कुत्ता इसे खा जाएगा, हमने पास ही एक गड्ढा खोदा और उसमें बुलबुल को लिटा कर ऊपर से मिट्टी डाल दी।
उस दिन बड़ी बहन ने बाग़ में पैर तक नहीं रखा। उन्होंने न मरी हुई बुलबुल देखी, न पेड़ों से चेरी का टूटना। उन्हें पेड़ों से फल तोड़ना अच्छा नहीं लगता।
‘फूल, पौधों और फलों में भी जान होती है। उन्हें तोड़ना भी उतना ही बुरा है जितना किसी जानवर को मारना। ‘वे हमसे कहा करती थीं।
वे लोग शाम को बहुत देर तक चेरी तोड़ते रहे। फिर एक लारी रुकी जिसमें सब पेटियाँ लाद दी गईं और वे सब चले गए। बाग़ में अचानक सन्नाटा हो गया, रह गए केवल चेरी के नंगे पेड़, जिन पर एक भी चेरी दिखाई नहीं देती थी। हवा तेज़ थी और रह-रह कर पेड़ों की शाख़ाएँ हिल उठती थीं जैसे आख़िरी साँसे ले रही हों। नीचे बिखरी हुई थीं अनगिनत पत्तियाँ और कुछ डालियाँ जो चेरी तोड़ते वक़्त नीचे गिर गई थीं। शाम हमें बहुत सूनी-सूनी-सी लगी और पेड़ों से डर-सा लगने लगा।
खाते वक़्त हम दिन भर की घटनाओं की चर्चा करते रहे, मरी हुई बुलबुल का क़िस्सा भी सुनाया। लेकिन बड़ी बहन ने ज़रा भी दिलचस्पी नहीं ली, उनके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला। लगा जैसे वे हमारी बातें न सुन रही हों। खाना भी उन्होंने बहुत कम खाया।
रात को देर तक नींद नहीं आई, न कोई किताब पढ़ने में ही मन लगा। छोटे भाई-बहन दिन भर की थकान से चारपाई पर लेटते ही सो गए। थकान से मेरा शरीर भी टूट रहा था, लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी नींद नहीं आ सकी।
कुछ देर बाद मैं खिड़की के पास जा कर खड़ा हो गया। अचानक आकाश में बहुत-से तारे एक साथ चमक उठे। तारे यहाँ सचमुच बहुत क़रीब दिखाई देते हैं। क्यों? केवल छह हज़ार फ़ीट ही तो ऊँचा यह स्थान है और तारे तो मीलों दूर हैं। फिर इतने पास कैसे दिखाई देते हैं? मैं सोचने लगा। तभी बाग़ में पेड़ों के नीचे किसी की परछाईं दिखाई दी। मुझे डर-सा लगा। लेकिन कुछ देर बाद पता लगा कि वे बहन हैं। वे अभी तक सोईं नहीं...
मैं भी दबे पाँव बाहर आया। वे चेरी के पेड़ों के नीचे टहल रही थीं, उनका आँचल नीचे तक झूल रहा था।
‘अभी तक सोए नहीं?’ बिना मेरी ओर देखे उन्होंने पूछा।
उनकी आवाज़ सुन कर मैं चौंक पड़ा। मेरा अनुमान था कि उन्हें मेरे बाहर आने का पता नहीं चला। मैंने धीमे स्वर में कहा, ‘नहीं, अभी नींद नहीं आई।’
उनके पैरों के नीचे पत्ते दबते तो सर्र-सर्र जैसी आवाज़ रात के सन्नाटे में गूँज जाती। हवा और तेज़ हो गई थी।
‘आज बहुत अँधेरा है।’ मैं बोला।
‘आजकल अँधेरी रातें हैं।’
कभी-कभी अपनी नज़र ऊपर उठा कर वे किसी पेड़ को देखतीं जिसकी शाख़ाओं के बीच से आकाश में चमकते तारे दिखाई देते।
‘आज तारे बहुत क़रीब दिखाई दे रहे हैं।’ मैंने कहा।
उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया।
phatak par karte hi jis or sabse pahle hamara dhyan gaya, we the peDon par latakte hue aluchon se milte julte kisi phal ke guchchhe makan ke bhitar ghusne ke badle hum us or dauDe kai peD the jin par we latak rahe the parantu uchhal uchhal kar kudne par bhi kisi ke hath mein ek bhi dana nahin aa saka main sabse lamba tha, lekin mera hath bhi unhen chhute chhute rah jata hamara shor sun kar baDi bahan bhitar se ain
ye toD dijiye, na jane kaun sa phal hai! shayad aluche ya alubukhara ya khubani… hum sab chillane lage
bahan dhimi chaal se hamari or aane lagin hamein krodh aaya ki we aise mauqe par bhag kar kyon nahin atin lekin bhay tha ki kahin unse jaldi aane ke liye kahen to we wapas na laut jayen
kya hain ye unhonne upar peD ki or dekhte hue kaha
shayad aluche hi hain toD dijiye jaldi
koi jangali phal hai shayad? we bolin
nahin nahin jangali nahin hai, hum chillaye, ek toD kar mujhe dijiye…
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hum us ek wishay mein itne magn the ki us sal kamron ko le kar jhagDa nahin hua har sal pahle din ye samasya jab samne ati—kaun sa kamra kiska hoga, to hum aapas mein jhagaDte the, hathapai bhi hoti thi aur ghusse mein pita bhi ek aadh ko peet dete the lekin is bar bahan ne jahan jiska saman rakh diya, uska wirodh kisi ne nahin kiya
raat ko bahan hamare kamre mein ain, main ek kitab mein taswiren dekh raha tha
soya nahin?
neend nahin i main bola chhote bhai bahan so gaye the
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ye dekho unhonne dhime swar mein kaha
kya hai?
idhar ao? khiDki se apna chehra sataye hi we bolin
main unke pas jakar khaDa ho gay khiDki ke dusre shishe se bahar dekha, lekin andhere mein samnewale pahaD ke atirikt aur kuch dikhai nahin diya
unhonne dhire se khiDki ki chitakhni kholi aur apna sir bahar nikal liya
kya hai? mainne be sabri se puchha
wo dekho, kitne tare chhitke hue hain
mujhe bahut nirasha hui main soch raha tha ki shayad unhonne kori jangali jawnar dekha ho, tare to sab jagah dikhai dete hain mainne khijhkar kaha
tare inte pas kabhi dikhai nahin dete lagta hai jaise hatha upar uthate hi hum unhen chhu lenge
mainne phir akash ki or de, mujhe bhi laga jaise tare bahut niche utar aaye hon
pahaDon par tare nazdik dikhai dete hain hum unchai par aa jate hain na, isiliye
nahin, ye baat nahin hai pichhle sal masuri mein we itne pas kabhi dikhai nahin diye, nainital mein
mujhe is wishay mein adhik dilchaspi nahin thi
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agle din prata uthte hi hum cheri ke peDon ke pas pahunch gaye koi kisi peD ke pas ja kar dusron ko awaz lagata, dekho, upar ki Dal par cheri kitni pili ho gai hai kis peD ki cheri sabse baDi hai, kiski chhoti in sabki jaanch paDtal hamne turant kar Dali ek peD ki kuch tahniyan niche ki or jhuki hui theen, lekin bahut uchhalne ke bawjud hath un tak nahin pahuncha phir chhota bhai ghutnon ke bal baitha aur main uski peeth par chaDh kar cheri toDne laga kewal chaar dane hi hath mein aaye ek ek sabko diya, lekin chhoti bahan ke liye nahin bachi wo rone lagi, mainne use apni aadhi cheri dene ka wayada kiya, lekin usne inkar kar diya wo bahan se shikayat karegi, ye dhamki de kar wo roti roti ghar ki or bhagi
kuch der baad bahan hamare pas ain, ye kachchi cheri kyon toDi? inhen kha kar kya bimar paDna hai? phir meri or dekh kar bolin, agar kisi ne ab ek bhi cheri khai, to use kaDi saza milegi kachcha phal toDne mein pap chaDhta hai
we laut gain ab bahan ke mana kar dene par kisi ko phir cheri khane ka sahas nahin hoga yadi chhip kar aisa kiya bhi aur bahan ko pata chal gaya, to uska kya parinam niklega iski kalpana se hi Dar lagne laga we kabhi kisi ko pitti nahin theen, adhik krodh aane par Dantatin bhi nahin, unki saza hoti thi qusurwar se bolachal band ye saza asahniy ban jati thi, mar peet aur Dant se bhi adhik, jisse hum sab ghabrate the
khate samay jab sath baithte to hum isi ek wishay par baten karte the
ab to gulabi hone lagi hain
upar ki Daliyon par to lal ho gai hain
ab do haphton tak taiyar ho jayengi, phir ji bhar kar khana pita kahte
bahan kahtin, inka bus chale to ye kachchi hi kha jayen is bar to ye ghar se bahar hi nahin nikalte bus cheri cheri auar koi baat hi nahin
man ko bahan ke wiwah ki chinta lagi hui thi jab ghar ka kaam na rahta to pita ke sath we is wishay par kitni hi baten kiya karti theen pita ek kapi mein man ki batlai hui listen likha karte the—kya saman mangwana hoga, kitna gahna banega, kitni saDiyan, barat kahan thahregi?
is charcha se bahan ka chehra aur bhi gambhir ho aata
har cheri ke peD ke tane par mainne chaku ki nok se sabke nam likh diye the peD par jiska nam hoga, wahi uski cheri toDega aur khayega sab apne apne peDon ke niche khaDe ho kar apni cheri ki prashansa karte aur dusre peDon ki ninda har ek ka dawa rahta ki uske peDon ki cheri bahut tezi se pak rahi hain
us din ek wekti hamare bagh mein aaya aur cheri ke peDon ke chakkar lagane laga har peD ke pas jata aur shakhaon ko idhar udhar hata kar upri sire tak dekhta, kabhi ek peD ki cheri toD kar khata, kabhi dusre peD ki itna bedhaDak ho kar wo bagh mein ghoom raha tha jaise ye usi ka ghar ho hum jhunD bana kar uski or dekhte rahe, uske wywahar par krodh aa raha tha, parantu usse kuch bhi kahne ka sahas hammen se kisi mein nahin tha apna kaam khatm karke uski nazar hamari or gai aur wo muskurane laga jismen hamein uske upar ke do baDe baDe pile se dant dikhai diye
ap log is bangale mein rahte hain?
han, ye hamara makan hai mainne sahas se kaha
pita se milne ki ichha prakat karne par hum use pitawale kamre mein le gaye hamein uske chehre se ghrina ho rahi thi aur ye janne ka kautuhal bhi tha ki wo kaun hai uske jane ke baad hum pita ke pas gaye
ye thekedar tha jisne cheri ke peD makan malik se kharid liye hain kal se uska adami in peDon ki rakhwali karega pita bole
hum mein se koi us theke ki baat samjha, koi samajh nahin saka
hum to samajh rahe the ki ye hamare peD hain, hamare bagh ke andar hain, koi dusra unhen kaise kharid sakta hai main bola
pita hansne lage, hamne makan kiraye par liya hai peDon par makan malik ka hi haq rahta hai
ab hum cheri nahin toD sakte hain?
cheri thekedar ki hain, hum kaise toD sakte hain?
us raat ko hammen se kisi ne bhi cheri ke wishay mein ek bhi shabd nahin kaha kisi ne bhule se kuch kaha to sabko chup dekh kar use apni ghalati ka turant ahsas ho gaya mujhe bahut der tak neend nahin i khiDki se bahar bagh ki or dekha, cheri ke chhote chhote peD bhaar se jhuke hue soe jaan paDe jin par kal hum apna adhikar samajhte the, we ab apne nahin jaan paDe main bahan se is wishay mein aur bhi kai baten puchhna chahta tha, parantu we us raat hamare kamre mein nahin ain
agle din subah thekedar ke sath ek buDha bhi aaya we apne sath rassiyon ke Dher, tute hue purane kanastar aur bans ki chataiyan laye bagh ke dusre sire par chataiyon se un donon ne ek jhonpaDi taiyar ki, jhonpaDi ke bhitar ek dari bichhai, ek kone mein buDhe ne hukka rakh diya hum thoDi door se sab kuch dekhte rahe do chataiyon ko mila kar jhonpaDi jitni jaldi taiyar ho gai, usse hamein bahut ashchary hua we donon kabhi kabhi hamari or dekh kar muskurane lagte lakin hamne unka koi jawab nahin diya chhote bhai ne kaha ki hamare shatru hain aur hamari hi zamin par apne kheme gaD rahe hain
kanastron mein chhote chhote patthar bhare gaye aur rassiyon ki sahayata se unhen kuch peDon par bandh diya gaya un rassiyon ke sire jhonpaDi ke pas ek khunte mein bandh diye gaye buDha rassi ke sire ko jhatke ke sath hilata to kanastar mein paDe patthar bajne lagte aur ek karkash si awaz sare bagh mein goonj uthti hamara kautuhal baDhta ja raha tha
kuch der baad sara parbandh karke thekedar chala gaya rah gaya wo buDha jo jhonpaDi ke pas ek patthar par baitha hukka guDaguDane laga thekedar ki apeksha us buDhe ke chehre par hamein maitri bhaw dikhai diya hum dhire dhire uske pas pahunch gaye usne baDe pyar se hamein apne pas bithaya hamare puchhne par usne batlaya ki ye kanastar parindon ko bhagane ke liye bandhe gaye hain, bahut se parinde—wisheshkar bulbul cheri par chonchen marte hain jisse wo saD jati hai agar unhen na bhagaya jaye to peD ke peD khatm ho sakte hain
lekin kanastar sab cheri ke peDon par kyon nahin bandhe gaye?
chaar panch peDon ke liye ek kanastar ki awaz kafi hai wo bola
kya tum raat ko bhi yahin sooge?
han, raat ko bhi Dar rahta hai ki koi adami cheri na toD le
sabse chhoti bahan ka dhyan hukke ki or tha usne puchha, ye kya hai?
hum hans paDe ye inki cigarette hai, chhota bhai bola
dhire dhire buDhe ki upasthiti se sab abhyast ho gaye rassi kheench kar kanastron ko bajana, ha hu,ha hoo ya siti baja kar parindon ko uDana—in sab awazon ko sunne ki aadat paD gai cheri ke bhaar se Daliyan itni jhuk gai theen ki uchhal kar asani se main do chaar dane toD sakta tha, parantu buDhe ki nazren har samay chaukanni ho kar charon or ghumti rahti, isliye sahas nahin hota tha
man dusre tisre din buDhe ko chay ka gilas bhijwa detin wo bhi kabhi kabhi kuch paki hui cheri toD kar hamein de deta lekin peD par chaDh kar toDna, phir khana—jiski hamne shuru mein kalpana ki thi, wo sadh man mein hi rah gai jab kabhi koi chiDiya peD par cheri kha rahi hoti aur buDhe ko pata na chalta to hamein bahut prasannata hoti hamara wash chalta to sare peD parindon ka khila dete lekin chiDiyan chupchap cheri nahin khatin, ek do dane kha kar jab we dusri Dal par uDtin to buDhe ko pata chal jata aur wo rassi kheench kar kanastar baja deta
bahan din bhar kisi peD ke niche kursi bichha kar hum mein se kisi ka pulowar bunti rahtin is sal garmiyon ki chhuttiyon mein unhonne kisi kitab ko hath tak nahin lagaya, nahin to har bar we apne course ki koi kitab paDhti rahti theen kuch din poorw unka intarmiDiyet ka parinam nikla tha aur we pharst Diwijan mein pas hui theen we aur paDhna chahti theen parantu man ko unke wiwah ki jaldi thi
hamare ghar se thoDi door ek chashma bahta tha jahan hum dusre tisre din nahane chale jate the kabhi bazar, kabhi cinema, kabhi park dhire dhire hamari dincharya mein dusre akarshan aate gaye ye shayad pahla awsar tha ki baDi bahan ne kisi mein bhag nahin liya pahaDon mein we hamare bahut qarib aa jati theen raat ko khane ke baad charpaiyon mein dubke hum unse kahaniyan suna karte the, sham ko sabko apne sath ghumane le jati theen aur pikanikon ki to koi ginti hi nahin hoti thi is bar we bahut kam ghar se niklin aur jab bahar jatin bhi to akeli hi jatin man ki kisi baat ka asar un par nahin hua
ek din subah ankh khulte hi bahar bagh mein kai logon ki awazen sunai deen main charpai par leta leta kuch der tak ashchary se is shorghul ke bare mein hi sochta raha khiDki se jhank kar bahar dekhne hi wala tha jab bahan kisi kaam se kamre mein i
ye shor kaisa hai? mainne puchha
we log aa gaye
kaun log? mainne ashchary se puchha
wahi, thekedar ke adami, cheri toDne ke liye, we bolin
main jhat se bahar dauDa peDon par tokariyan liye thekedar ke adami chaDhe hue the donon hathon se upar niche ki shakhaon se cheri toD kar tokariyon mein bharte ja rahe the kisi door ki shakha ko pakaD kar apne pas ghasitne par charr charr ki awazen gunjne lagtin sare bagh mein shorghul tha
hum dhire dhire bagh ke chakkar lagane lage har peD ke pas kuch der tak khaDe rah kar upar chaDhe adami ko dekhte lag raha tha jaise aaj hamari parajay ka antim din ho
har peD ke niche kafi cheri giri hui theen chhoti bahan ne lapak kar ek guchchha utha liya to bhai ne uske hath se chheen kar phenk diya, janti nahin ki bahan ne kya kaha hai?
koi ek bhi cheri munh mein nahin rakhega
jhonpaDi ke pas thekedar any chaar panch wyaktiyon ke sath chun chun kar cheri ek peti mein rakh raha tha uske pas hi kai khali petiyan paDi theen aur dari par dikhai diya toDi hui cheriyon ka Dher we sab bahut tezi se kaam kar rahe the hamein khaDe dekh kar thekedar ne ek ek mutthi cheri hum sabko deni chahi, lekin hamne inkar kar diya
hum log bagh mein hi ghumte rahe ghar se kahin bahar jane ki ichha nahin hui cheri ke peD dhire dhire khali hue ja rahe the us din kanastar bajane ki zarurat nahin paDi bulbul aur dusre pakshi peDon ke upar hi chakkar lagate rahe, kisi peD par baithne ka sahas nahin tha
ye dekho, us peD ke niche kya paDa hai? chhoti bahan ne ek peD ki or sanket karke kaha
hamne us or dekha, parantu jaan nahin sake ki wo kya hai? pas jane par peD ke niche ek mari hui bulbul dikhai di uski gardan par khoon jama hua tha hum kuch der tak chupchap dekhte rahe mainne uska panw pakaD kar hilaya, lekin usmen jaan baqi nahin bachi thi
ye kaise mar gai?
kisi ne iski gardan par patthar mara hai
inhin logon ne mara hoga
tabhi koi bulbul peD par nahin baith rahi
hamne thekedar aur uske adamiyon ko ji bhar kar galiyan deen un logon par pahle hi bahut krodh aa raha tha, ab bulbul ki hattya dekh kar to unse badla lene ki bhawna bahut teewr ho uthi kitni hi yojnayen banain, parantu har bar koi kami usmen nazar aa jati jisse use adhura hi chhoD dena paDta phir ye soch kar ki yadi ye bulbul yahin paDi rahi to koi billi ya kutta ise kha jayega, hamne pas hi ek gaDDha khoda aur usmen bulbul ko lita kar upar se mitti Dal di
us din baDi bahan ne bagh mein pair tak nahin rakha unhonne na mari hui bulbul dekhi, na peDon se cheri ka tutna unhen peDon se phal toDna achchha nahin lagta
phool, paudhon aur phalon mein bhi jaan hoti hai unhen toDna bhi utna hi bura hai jitna kisi janwar ko marana we hamse kaha karti theen
we log sham ko bahut der tak cheri toDte rahe phir ek lari ruki jismen sab petiyan lad di gain aur we sab chale gaye bagh mein achanak sannata ho gaya, rah gaye kewal cheri ke nange peD, jin par ek bhi cheri dikhai nahin deti thi hawa tez thi aur rah rah kar peDon ki shakhayen hil uthti theen jaise akhiri sanse le rahi hon niche bikhri hui theen anaginat pattiyan aur kuch Daliyan jo cheri toDte waqt niche gir gai theen sham hamein bahut suni suni si lagi aur peDon se Dar sa lagne laga
khate waqt hum din bhar ki ghatnaon ki charcha karte rahe, mari hui bulbul ka qissa bhi sunaya lekin baDi bahan ne zara bhi dilchaspi nahin li, unke munh se ek bhi shabd nahin nikla laga jaise we hamari baten na sun rahi hon khana bhi unhonne bahut kam khaya
raat ko der tak neend nahin i, na koi kitab paDhne mein hi man laga chhote bhai bahan din bhar ki thakan se charpai par lette hi so gaye thakan se mera sharir bhi toot raha tha, lekin bahut koshish karne par bhi neend nahin aa saki
kuch der baad main khiDki ke pas ja kar khaDa ho gaya achanak akash mein bahut se tare ek sath chamak uthe tare yahan sachmuch bahut qarib dikhai dete hain kyon? kewal chhah hazar feet hi to uncha ye sthan hai aur tare to milon door hain phir itne pas kaise dikhai dete hain? main sochne laga tabhi bagh mein peDon ke niche kisi ki parchhain dikhai di mujhe Dar sa laga lekin kuch der baad pata laga ki we bahan hain we abhi tak soin nahin
main bhi dabe panw bahar aaya we cheri ke peDon ke niche tahal rahi theen, unka anchal niche tak jhool raha tha
abhi tak soe nahin? bina meri or dekhe unhonne puchha
unki awaz sun kar main chaunk paDa mera anuman tha ki unhen mere bahar aane ka pata nahin chala mainne dhime swar mein kaha, nahin, abhi neend nahin i
unke pairon ke niche patte dabte to sarr sarr jaisi awaz raat ke sannate mein goonj jati hawa aur tez ho gai thi
aj bahut andhera hai main bola
ajkal andheri raten hain
kabhi kabhi apni nazar upar utha kar we kisi peD ko dekhtin jiski shakhaon ke beech se akash mein chamakte tare dikhai dete
aj tare bahut qarib dikhai de rahe hain mainne kaha
unhonne koi uttar nahin diya
phatak par karte hi jis or sabse pahle hamara dhyan gaya, we the peDon par latakte hue aluchon se milte julte kisi phal ke guchchhe makan ke bhitar ghusne ke badle hum us or dauDe kai peD the jin par we latak rahe the parantu uchhal uchhal kar kudne par bhi kisi ke hath mein ek bhi dana nahin aa saka main sabse lamba tha, lekin mera hath bhi unhen chhute chhute rah jata hamara shor sun kar baDi bahan bhitar se ain
ye toD dijiye, na jane kaun sa phal hai! shayad aluche ya alubukhara ya khubani… hum sab chillane lage
bahan dhimi chaal se hamari or aane lagin hamein krodh aaya ki we aise mauqe par bhag kar kyon nahin atin lekin bhay tha ki kahin unse jaldi aane ke liye kahen to we wapas na laut jayen
kya hain ye unhonne upar peD ki or dekhte hue kaha
shayad aluche hi hain toD dijiye jaldi
koi jangali phal hai shayad? we bolin
nahin nahin jangali nahin hai, hum chillaye, ek toD kar mujhe dijiye…
hamari or bina dhyan diye we upar latakte guchchhon ko dekh rahi theen, phir ek dana toDa aur use ghuma phira kar dekhti rahin pata nahin kya hai? aisa phal to kabhi kisi pahaD par dekha nahin
hum unke aas pas ek dayara bana kar khaDe ho gaye the aur ab us ek dane ko lene ke liye chhina jhapti karne lage
nahin, ye khana nahin hoga kaun janta hai, ismen zahr ho! pahle mali se puchhenge phir meri or dekh kar bolin, suno, koi nahin toDega inhen! ye kah kar we phir dhimi chaal se makan ki or chali gain
unke adesh ka koi wirodh nahin kar sakta, ye soch kar sab man masos kar rah gaye lekin us sham sare bagh mein ghoom ghoom kar hamne un peDon ko gina dusre peD bhi the lekin unka mahatw nahin ke barabar hi tha ye pahla mauqa tha ki kisi pahaD mein apne hi bagh mein kisi phal ke itne peD mile hon kabhi ek aadh aluche, khubani ya seb ka peD mil jata tha, ya phir qarib hi kisi dusre makan mein in peDon ko dekh kar chupke se kabhi kuch toD lete, lekin is bar apne hi bagh mein itne peD… hamare utsah ki sima nahin thi
andar bahan ne wo dana pita ke samne rakh kar kaha, pata nahin kaun sa phal hai? bagh mein laga hai
pita use dekhte hi bole, ye to cheri hai, abhi paki nahin
cheri ka nam sunte hi hamara utsah aur bhi baDh gaya hamne aaj tak cheri ka peD nahin dekha tha aur ab apne hi bagh mein pandrah bees cheri ke peD hai, jinhen toDne se koi nahin rokega, jin par poorn roop se hamara adhikar hoga
hum us ek wishay mein itne magn the ki us sal kamron ko le kar jhagDa nahin hua har sal pahle din ye samasya jab samne ati—kaun sa kamra kiska hoga, to hum aapas mein jhagaDte the, hathapai bhi hoti thi aur ghusse mein pita bhi ek aadh ko peet dete the lekin is bar bahan ne jahan jiska saman rakh diya, uska wirodh kisi ne nahin kiya
raat ko bahan hamare kamre mein ain, main ek kitab mein taswiren dekh raha tha
soya nahin?
neend nahin i main bola chhote bhai bahan so gaye the
we khiDki ke pas ja kar khaDi ho gain khiDki band thi lekin ek shisha tuta hua tha jismen se we bahar jhankne lagin do mahine poorw jab se unki sagai hui we bahut chup chup si rahne lagi theen agle jaDon mae unka wiwah ho jayega, unke wiwah ki kalpana se hi hamara utsah baDh jata lekin wiwah ke baad we is ghar mein nahin rahengi, sochkar dukh bhi hota
ye dekho unhonne dhime swar mein kaha
kya hai?
idhar ao? khiDki se apna chehra sataye hi we bolin
main unke pas jakar khaDa ho gay khiDki ke dusre shishe se bahar dekha, lekin andhere mein samnewale pahaD ke atirikt aur kuch dikhai nahin diya
unhonne dhire se khiDki ki chitakhni kholi aur apna sir bahar nikal liya
kya hai? mainne be sabri se puchha
wo dekho, kitne tare chhitke hue hain
mujhe bahut nirasha hui main soch raha tha ki shayad unhonne kori jangali jawnar dekha ho, tare to sab jagah dikhai dete hain mainne khijhkar kaha
tare inte pas kabhi dikhai nahin dete lagta hai jaise hatha upar uthate hi hum unhen chhu lenge
mainne phir akash ki or de, mujhe bhi laga jaise tare bahut niche utar aaye hon
pahaDon par tare nazdik dikhai dete hain hum unchai par aa jate hain na, isiliye
nahin, ye baat nahin hai pichhle sal masuri mein we itne pas kabhi dikhai nahin diye, nainital mein
mujhe is wishay mein adhik dilchaspi nahin thi
mainne kahin paDha tha ki yahan tare bahut pas dikhai dete hain we bolin
khuli khiDki se thanDi hawa bhitar aa rahi thi main apni charpai par aa gaya aur lihaf se apna sharir Dhank liya we kuch der tak khiDki par jhuki rahin, phir apne kamre mein chali gain main phir taswiren dekhne laga
agle din prata uthte hi hum cheri ke peDon ke pas pahunch gaye koi kisi peD ke pas ja kar dusron ko awaz lagata, dekho, upar ki Dal par cheri kitni pili ho gai hai kis peD ki cheri sabse baDi hai, kiski chhoti in sabki jaanch paDtal hamne turant kar Dali ek peD ki kuch tahniyan niche ki or jhuki hui theen, lekin bahut uchhalne ke bawjud hath un tak nahin pahuncha phir chhota bhai ghutnon ke bal baitha aur main uski peeth par chaDh kar cheri toDne laga kewal chaar dane hi hath mein aaye ek ek sabko diya, lekin chhoti bahan ke liye nahin bachi wo rone lagi, mainne use apni aadhi cheri dene ka wayada kiya, lekin usne inkar kar diya wo bahan se shikayat karegi, ye dhamki de kar wo roti roti ghar ki or bhagi
kuch der baad bahan hamare pas ain, ye kachchi cheri kyon toDi? inhen kha kar kya bimar paDna hai? phir meri or dekh kar bolin, agar kisi ne ab ek bhi cheri khai, to use kaDi saza milegi kachcha phal toDne mein pap chaDhta hai
we laut gain ab bahan ke mana kar dene par kisi ko phir cheri khane ka sahas nahin hoga yadi chhip kar aisa kiya bhi aur bahan ko pata chal gaya, to uska kya parinam niklega iski kalpana se hi Dar lagne laga we kabhi kisi ko pitti nahin theen, adhik krodh aane par Dantatin bhi nahin, unki saza hoti thi qusurwar se bolachal band ye saza asahniy ban jati thi, mar peet aur Dant se bhi adhik, jisse hum sab ghabrate the
khate samay jab sath baithte to hum isi ek wishay par baten karte the
ab to gulabi hone lagi hain
upar ki Daliyon par to lal ho gai hain
ab do haphton tak taiyar ho jayengi, phir ji bhar kar khana pita kahte
bahan kahtin, inka bus chale to ye kachchi hi kha jayen is bar to ye ghar se bahar hi nahin nikalte bus cheri cheri auar koi baat hi nahin
man ko bahan ke wiwah ki chinta lagi hui thi jab ghar ka kaam na rahta to pita ke sath we is wishay par kitni hi baten kiya karti theen pita ek kapi mein man ki batlai hui listen likha karte the—kya saman mangwana hoga, kitna gahna banega, kitni saDiyan, barat kahan thahregi?
is charcha se bahan ka chehra aur bhi gambhir ho aata
har cheri ke peD ke tane par mainne chaku ki nok se sabke nam likh diye the peD par jiska nam hoga, wahi uski cheri toDega aur khayega sab apne apne peDon ke niche khaDe ho kar apni cheri ki prashansa karte aur dusre peDon ki ninda har ek ka dawa rahta ki uske peDon ki cheri bahut tezi se pak rahi hain
us din ek wekti hamare bagh mein aaya aur cheri ke peDon ke chakkar lagane laga har peD ke pas jata aur shakhaon ko idhar udhar hata kar upri sire tak dekhta, kabhi ek peD ki cheri toD kar khata, kabhi dusre peD ki itna bedhaDak ho kar wo bagh mein ghoom raha tha jaise ye usi ka ghar ho hum jhunD bana kar uski or dekhte rahe, uske wywahar par krodh aa raha tha, parantu usse kuch bhi kahne ka sahas hammen se kisi mein nahin tha apna kaam khatm karke uski nazar hamari or gai aur wo muskurane laga jismen hamein uske upar ke do baDe baDe pile se dant dikhai diye
ap log is bangale mein rahte hain?
han, ye hamara makan hai mainne sahas se kaha
pita se milne ki ichha prakat karne par hum use pitawale kamre mein le gaye hamein uske chehre se ghrina ho rahi thi aur ye janne ka kautuhal bhi tha ki wo kaun hai uske jane ke baad hum pita ke pas gaye
ye thekedar tha jisne cheri ke peD makan malik se kharid liye hain kal se uska adami in peDon ki rakhwali karega pita bole
hum mein se koi us theke ki baat samjha, koi samajh nahin saka
hum to samajh rahe the ki ye hamare peD hain, hamare bagh ke andar hain, koi dusra unhen kaise kharid sakta hai main bola
pita hansne lage, hamne makan kiraye par liya hai peDon par makan malik ka hi haq rahta hai
ab hum cheri nahin toD sakte hain?
cheri thekedar ki hain, hum kaise toD sakte hain?
us raat ko hammen se kisi ne bhi cheri ke wishay mein ek bhi shabd nahin kaha kisi ne bhule se kuch kaha to sabko chup dekh kar use apni ghalati ka turant ahsas ho gaya mujhe bahut der tak neend nahin i khiDki se bahar bagh ki or dekha, cheri ke chhote chhote peD bhaar se jhuke hue soe jaan paDe jin par kal hum apna adhikar samajhte the, we ab apne nahin jaan paDe main bahan se is wishay mein aur bhi kai baten puchhna chahta tha, parantu we us raat hamare kamre mein nahin ain
agle din subah thekedar ke sath ek buDha bhi aaya we apne sath rassiyon ke Dher, tute hue purane kanastar aur bans ki chataiyan laye bagh ke dusre sire par chataiyon se un donon ne ek jhonpaDi taiyar ki, jhonpaDi ke bhitar ek dari bichhai, ek kone mein buDhe ne hukka rakh diya hum thoDi door se sab kuch dekhte rahe do chataiyon ko mila kar jhonpaDi jitni jaldi taiyar ho gai, usse hamein bahut ashchary hua we donon kabhi kabhi hamari or dekh kar muskurane lagte lakin hamne unka koi jawab nahin diya chhote bhai ne kaha ki hamare shatru hain aur hamari hi zamin par apne kheme gaD rahe hain
kanastron mein chhote chhote patthar bhare gaye aur rassiyon ki sahayata se unhen kuch peDon par bandh diya gaya un rassiyon ke sire jhonpaDi ke pas ek khunte mein bandh diye gaye buDha rassi ke sire ko jhatke ke sath hilata to kanastar mein paDe patthar bajne lagte aur ek karkash si awaz sare bagh mein goonj uthti hamara kautuhal baDhta ja raha tha
kuch der baad sara parbandh karke thekedar chala gaya rah gaya wo buDha jo jhonpaDi ke pas ek patthar par baitha hukka guDaguDane laga thekedar ki apeksha us buDhe ke chehre par hamein maitri bhaw dikhai diya hum dhire dhire uske pas pahunch gaye usne baDe pyar se hamein apne pas bithaya hamare puchhne par usne batlaya ki ye kanastar parindon ko bhagane ke liye bandhe gaye hain, bahut se parinde—wisheshkar bulbul cheri par chonchen marte hain jisse wo saD jati hai agar unhen na bhagaya jaye to peD ke peD khatm ho sakte hain
lekin kanastar sab cheri ke peDon par kyon nahin bandhe gaye?
chaar panch peDon ke liye ek kanastar ki awaz kafi hai wo bola
kya tum raat ko bhi yahin sooge?
han, raat ko bhi Dar rahta hai ki koi adami cheri na toD le
sabse chhoti bahan ka dhyan hukke ki or tha usne puchha, ye kya hai?
hum hans paDe ye inki cigarette hai, chhota bhai bola
dhire dhire buDhe ki upasthiti se sab abhyast ho gaye rassi kheench kar kanastron ko bajana, ha hu,ha hoo ya siti baja kar parindon ko uDana—in sab awazon ko sunne ki aadat paD gai cheri ke bhaar se Daliyan itni jhuk gai theen ki uchhal kar asani se main do chaar dane toD sakta tha, parantu buDhe ki nazren har samay chaukanni ho kar charon or ghumti rahti, isliye sahas nahin hota tha
man dusre tisre din buDhe ko chay ka gilas bhijwa detin wo bhi kabhi kabhi kuch paki hui cheri toD kar hamein de deta lekin peD par chaDh kar toDna, phir khana—jiski hamne shuru mein kalpana ki thi, wo sadh man mein hi rah gai jab kabhi koi chiDiya peD par cheri kha rahi hoti aur buDhe ko pata na chalta to hamein bahut prasannata hoti hamara wash chalta to sare peD parindon ka khila dete lekin chiDiyan chupchap cheri nahin khatin, ek do dane kha kar jab we dusri Dal par uDtin to buDhe ko pata chal jata aur wo rassi kheench kar kanastar baja deta
bahan din bhar kisi peD ke niche kursi bichha kar hum mein se kisi ka pulowar bunti rahtin is sal garmiyon ki chhuttiyon mein unhonne kisi kitab ko hath tak nahin lagaya, nahin to har bar we apne course ki koi kitab paDhti rahti theen kuch din poorw unka intarmiDiyet ka parinam nikla tha aur we pharst Diwijan mein pas hui theen we aur paDhna chahti theen parantu man ko unke wiwah ki jaldi thi
hamare ghar se thoDi door ek chashma bahta tha jahan hum dusre tisre din nahane chale jate the kabhi bazar, kabhi cinema, kabhi park dhire dhire hamari dincharya mein dusre akarshan aate gaye ye shayad pahla awsar tha ki baDi bahan ne kisi mein bhag nahin liya pahaDon mein we hamare bahut qarib aa jati theen raat ko khane ke baad charpaiyon mein dubke hum unse kahaniyan suna karte the, sham ko sabko apne sath ghumane le jati theen aur pikanikon ki to koi ginti hi nahin hoti thi is bar we bahut kam ghar se niklin aur jab bahar jatin bhi to akeli hi jatin man ki kisi baat ka asar un par nahin hua
ek din subah ankh khulte hi bahar bagh mein kai logon ki awazen sunai deen main charpai par leta leta kuch der tak ashchary se is shorghul ke bare mein hi sochta raha khiDki se jhank kar bahar dekhne hi wala tha jab bahan kisi kaam se kamre mein i
ye shor kaisa hai? mainne puchha
we log aa gaye
kaun log? mainne ashchary se puchha
wahi, thekedar ke adami, cheri toDne ke liye, we bolin
main jhat se bahar dauDa peDon par tokariyan liye thekedar ke adami chaDhe hue the donon hathon se upar niche ki shakhaon se cheri toD kar tokariyon mein bharte ja rahe the kisi door ki shakha ko pakaD kar apne pas ghasitne par charr charr ki awazen gunjne lagtin sare bagh mein shorghul tha
hum dhire dhire bagh ke chakkar lagane lage har peD ke pas kuch der tak khaDe rah kar upar chaDhe adami ko dekhte lag raha tha jaise aaj hamari parajay ka antim din ho
har peD ke niche kafi cheri giri hui theen chhoti bahan ne lapak kar ek guchchha utha liya to bhai ne uske hath se chheen kar phenk diya, janti nahin ki bahan ne kya kaha hai?
koi ek bhi cheri munh mein nahin rakhega
jhonpaDi ke pas thekedar any chaar panch wyaktiyon ke sath chun chun kar cheri ek peti mein rakh raha tha uske pas hi kai khali petiyan paDi theen aur dari par dikhai diya toDi hui cheriyon ka Dher we sab bahut tezi se kaam kar rahe the hamein khaDe dekh kar thekedar ne ek ek mutthi cheri hum sabko deni chahi, lekin hamne inkar kar diya
hum log bagh mein hi ghumte rahe ghar se kahin bahar jane ki ichha nahin hui cheri ke peD dhire dhire khali hue ja rahe the us din kanastar bajane ki zarurat nahin paDi bulbul aur dusre pakshi peDon ke upar hi chakkar lagate rahe, kisi peD par baithne ka sahas nahin tha
ye dekho, us peD ke niche kya paDa hai? chhoti bahan ne ek peD ki or sanket karke kaha
hamne us or dekha, parantu jaan nahin sake ki wo kya hai? pas jane par peD ke niche ek mari hui bulbul dikhai di uski gardan par khoon jama hua tha hum kuch der tak chupchap dekhte rahe mainne uska panw pakaD kar hilaya, lekin usmen jaan baqi nahin bachi thi
ye kaise mar gai?
kisi ne iski gardan par patthar mara hai
inhin logon ne mara hoga
tabhi koi bulbul peD par nahin baith rahi
hamne thekedar aur uske adamiyon ko ji bhar kar galiyan deen un logon par pahle hi bahut krodh aa raha tha, ab bulbul ki hattya dekh kar to unse badla lene ki bhawna bahut teewr ho uthi kitni hi yojnayen banain, parantu har bar koi kami usmen nazar aa jati jisse use adhura hi chhoD dena paDta phir ye soch kar ki yadi ye bulbul yahin paDi rahi to koi billi ya kutta ise kha jayega, hamne pas hi ek gaDDha khoda aur usmen bulbul ko lita kar upar se mitti Dal di
us din baDi bahan ne bagh mein pair tak nahin rakha unhonne na mari hui bulbul dekhi, na peDon se cheri ka tutna unhen peDon se phal toDna achchha nahin lagta
phool, paudhon aur phalon mein bhi jaan hoti hai unhen toDna bhi utna hi bura hai jitna kisi janwar ko marana we hamse kaha karti theen
we log sham ko bahut der tak cheri toDte rahe phir ek lari ruki jismen sab petiyan lad di gain aur we sab chale gaye bagh mein achanak sannata ho gaya, rah gaye kewal cheri ke nange peD, jin par ek bhi cheri dikhai nahin deti thi hawa tez thi aur rah rah kar peDon ki shakhayen hil uthti theen jaise akhiri sanse le rahi hon niche bikhri hui theen anaginat pattiyan aur kuch Daliyan jo cheri toDte waqt niche gir gai theen sham hamein bahut suni suni si lagi aur peDon se Dar sa lagne laga
khate waqt hum din bhar ki ghatnaon ki charcha karte rahe, mari hui bulbul ka qissa bhi sunaya lekin baDi bahan ne zara bhi dilchaspi nahin li, unke munh se ek bhi shabd nahin nikla laga jaise we hamari baten na sun rahi hon khana bhi unhonne bahut kam khaya
raat ko der tak neend nahin i, na koi kitab paDhne mein hi man laga chhote bhai bahan din bhar ki thakan se charpai par lette hi so gaye thakan se mera sharir bhi toot raha tha, lekin bahut koshish karne par bhi neend nahin aa saki
kuch der baad main khiDki ke pas ja kar khaDa ho gaya achanak akash mein bahut se tare ek sath chamak uthe tare yahan sachmuch bahut qarib dikhai dete hain kyon? kewal chhah hazar feet hi to uncha ye sthan hai aur tare to milon door hain phir itne pas kaise dikhai dete hain? main sochne laga tabhi bagh mein peDon ke niche kisi ki parchhain dikhai di mujhe Dar sa laga lekin kuch der baad pata laga ki we bahan hain we abhi tak soin nahin
main bhi dabe panw bahar aaya we cheri ke peDon ke niche tahal rahi theen, unka anchal niche tak jhool raha tha
abhi tak soe nahin? bina meri or dekhe unhonne puchha
unki awaz sun kar main chaunk paDa mera anuman tha ki unhen mere bahar aane ka pata nahin chala mainne dhime swar mein kaha, nahin, abhi neend nahin i
unke pairon ke niche patte dabte to sarr sarr jaisi awaz raat ke sannate mein goonj jati hawa aur tez ho gai thi
aj bahut andhera hai main bola
ajkal andheri raten hain
kabhi kabhi apni nazar upar utha kar we kisi peD ko dekhtin jiski shakhaon ke beech se akash mein chamakte tare dikhai dete
aj tare bahut qarib dikhai de rahe hain mainne kaha
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।