काली इटैलियन का बारीक लाल गोटेवाला चूड़ीदार पायजामा और हरे फूलोंवाला गुलाबी लंबा कुर्ता वह पहने हुई थी। गोटलगी कुसुंभी (लाल) रंग की ओढ़नी के दोनों छोर बड़ी लापरवाही से कंधे के पीछे पड़े थे, जिससे कुर्ते के ढीलेपन में उसकी चौड़ी छाती और उभरे हुए उरोजों की पुष्ट गोलाई झलक रही थी। अपनी लंबी मज़बूत मांसल कलाई से मूसली उठाए वह दबादब हल्दी कूट रही थी। कलाई में फँसी मोटी हरी चूड़ियाँ और चाँदी के कड़े और पछेलियाँ बार-बार झनक रही थीं। उन्हीं की ताल पर वह गा रही थी—
‘हुलर-हुलर दूध गेरे मेरी गाय...आज मेरा मुन्नीलाल जीवेगा कि नाय।’
बड़ा लोच था उसके स्वर में। इस गवाँरू गीत की वह पंक्ति उस तीखी दुपहरी में भी कानों में मिश्री की बूँदों के समान पड़ रही थी। कुछ देर मैं छज्जे की आड़ में खड़ी सुनती रही। न उसने कूटना बंद किया और न वह गीत की पंक्ति ‘हुलर-हुलर...।’
धूप में पैर बहुत जलने लगे, तो मैं लौटने को ही थी कि पीछे से भाभी ने आ कर ज़ोर से कहा, ‘खुदैजा, अरी देख, यह रही हमारी बीबी जी। चोरी-चोरी तेरा गीत सुन रही थीं।’
उसने तुरंत मूसली छोड़ कर ऊपर नज़र उठाई और हँस पड़ी। फिर हाथ माथे पर रख कर बोली— ‘सलाम बीबीजी! बड़े भाग जो आज तेरे दरसन हो गए।’
मैं झेंप गई। पिछवाड़े वाले मकान में नए पड़ोसियों को आए पंद्रह दिन हो गए होंगे। भाभी से कई बार खुदैजा का ज़िक्र सुन कर भी और यह जान कर भी कि मुझसे मिलना-बोलना चाहती है, मैं कभी उससे परिचय करने न आई थी। मैं सोचती थी, उस ठेठ गँवार छोकरी से मैं किस विषय पर और क्या बातें करूँगी? अपनी झेंप मिटाने को मैं जल्दी से बोली— ‘भाभी तुम्हारा गला तो बड़ा मीठा है; अपना गीत ज़रा फिर तो गाओ!’
‘के, बीबी जी, मेरा गला! भला तुम तो बाजे पर गानेवाली ठहरीं, मेरा गीत भावेगा?’ उसने उत्तर दिया। उसके बोलने में तकल्लुफ़ नहीं, हार्दिकता थी।
‘नहीं नहीं, तुम गाओ...पूरा गाओ,’ मैंने ज़ोर दिया।
बिना दोबारा इसरार कराए वह गाने लगी, उसी धीमी मीठी आवाज़ में—
‘हुलर हुलर दूध गेरे मेरी गाय।
आज मेरा मुन्नीलाल जीवेगा कि नाय।
इस सासू की नज़र बुरी है, मेरी माय।
आज मेरा मुन्नीलाल जीवेगा कि नाय।’
मुझे लगा, कि वह स्वर दबा कर गा रही है।
‘भाभी, पूरा गला खोल कर गाओ,’ मैंने अनुरोध किया।
उसने कुटी हल्दी को छलनी में उलट कर नीचे आँगन की ओर उँगली दिखा कर कहा— ‘फुफ्फी लड़ेगी!’
भाभी ने कहा, ‘मरने दे फुफ्फी को। बीबीजी, खुदैजा नाचती भी बहुत अच्छा है। ओ खुदैजा, ज़रा नाच ते सही।’
वह थोड़ा शरमा गई। ओढ़नी मुँह में दबा कर हँसने लगी।
‘अच्छा भाभी! तुम्हें नाचना भी आता है। तब तो ज़रूर नाच कर दिखाओ,’ भाभी की शह पा कर मैंने भी कहा।
परंतु वह नाचेगी, ऐसे मुझे ज़रा भी आशा नहीं थीं। भला शहरों में जब हम पढ़ी-लिखी लड़कियों के आगे कोई बार-बार हारमोनियम-तबला रखता है, कई-कई बार इसरार करता है, तब पहले तो हम लोग नज़ाकत से गाना न आने की दलीलें पेश करती हैं, इस पर भी जब वे लोग प्रमाण देते हैं कि आपने अमुक के जन्मदिवस पर और फलाँ की शादी में अमुक गाना गाया था, तब गला ख़राब होने का बहाना किया जाता है। जब देखते हैं कि किसी तरह पीछा नहीं छूटेगा, तब कहीं खाँस-खखार कर एक आधी गत बजाई और बाजा परे सरका कर कहा, ‘देखिए, कहीं आता भी है। आप फ़िज़ूल ही पीछे पड़े हुए हैं।’ अरे बस यों हमारा गाना ख़त्म हो जाता है।
‘खुदैजा, नाच दे न। अच्छा बीबीजी की बात भी नहीं माननी?’ भाभी ने कहा, ‘ले, मैं तो जाती हूँ।’
वह हड़बड़ा कर उठ बैठी— ‘न न, जावे मत। तुझे अल्लाह पाक की क़सम सरसुती। ले, मैं नाच दूँगी, पर बीबीजी के पसंद आवेगा मेरा नाच?’
उसके पैर के कड़े-छड़े यद्दपि उसकी मांसल पिंडली और टखनों से चिपटे हुए थे, फिर भी गिनती में कई होने से आपस में खनक कर झनक उठे। ओढ़नी सिर पर ले, तनिक-सा घूँघट निकाल कर वह खड़ी हो गई। फिर मुझे देख कर हँस पड़ी, बोली, ‘नाचूँ?’
‘हाँ, हाँ!’
‘के गाऊँ सरसुती।’
‘कुछ भी गा ले। वही गीत गा— ‘लटक रहती बबुआ...’
उसने गाया—
‘लटक रहती बबुआ तोरे बँगले में,
जो मैं होती बाग़ों की कोयल,
कूक रहती, बबुआ तोरे बँगले में।’
किसी शास्त्र के अंतर्गत उसका नाच नहीं था। न कत्थक, न कथकली, न मनीपुरी, न उड़ीसी और न भरतनाट्यम्! बाहुओं के संचालन में कोई गहराई भी न थी, पर उस सीधेपन में एक लय थी, गति थी...तेज़ और प्रवाहमयी... जीवन से भरपूर। अस्थायी के मोड़ पर नाचती हुई, वह दो फुट ऊपर उछल जाती और फिर धरती पर पाँव लगते ही थिरकने लगता, क्या मजाल, जो ज़रा पंजा रुकता हो। साढ़े पाँच फुट लंबी भरी देह की उस युवती का गठन एकदम गिन्नी-गोल्ड की डली जैसा था— लाली लिए हुए रंग का ऐसा सोना, जिसमें क़यामत का लोच हो।
गीत पूरा हुआ और वह नाच बंद कर लंबी-लंबी साँस लेने लगी।
‘शाबाश, भाभी!’ मैंने उत्साह से कहा, ‘सचमुच बहुत अच्छा नाचती हो।’
‘सच्ची! तुम्हें मेरा नाच अच्छा लगा!’ उसकी बिल्लौरी शीशे-सी आँखों में उत्साह छलक पड़ा। भोलेपन से उसने पूछा — ‘और नाचूँ?’
‘हाँ-हाँ!’ छज्जे की आड़ में भी मेरे पाँव जले जा रहे थे, फिर भी नीचे जाने को मन न होता था।
उसने दुपट्टे से मुँह का पसीना पोंछा और पैर से ठुमका लिया ही था कि नीचे से किसी ने धीमी पर तीखी क्रोधभरी आवाज़ में कहा, ‘ओ घोड़ी! कूदना बंद कर दे! शफ़ीक़ का अब्बा आ गया है।’
खुदैजा के पाँव रुक गए, जैसे किसी तेज़ चाल से घूमते हुए लट्टू पर कोई अचानक हाथ रख दे। मुँह पर उदासी की छाया-सी आ गई, किंतु भाभी से दृष्टि मिलते ही वह मुस्कुरा पड़ी और बोली, ‘देखा मचने लगा न शोर! फुफ्फी का बस चले, तो मुझे बक्स में बंद करके रक्खे।’ फिर होंठों में ही किसी गीत की कड़ी गुनगुनाती हुई वह ओढ़नी के पल्ले से मुँह पर हवा करने लगी।
नीचे से सीढ़ियाँ चढ़ती हुई उसकी सास कहती आ रही थी, ‘खुदैजा, तूने ते सारी हया-शरम घोल कर पी डाली! अरी, तू क्या नटनी की धी है? कंजरियों की तरह हर वक़्त गाती रहती है, बेहया कहीं की...!’
खुदैजा चमक पड़ी। ग़ुस्से से उसके चेहरे का गेहुँआ रंग एकदम गहरा सिंदूरी हो उठा।
‘बस, फुफ्फी, अपना ज़बान बंद रख! नटनी होगी तू, तेरी धी!! कंजरी-वंजरी बनाएगी, तो देख ले मैं अपनी-तेरी जान एक कर दूँगी...!
‘या परवरदिगार,’ फूफी ऊपर आ चुकी थी। आसमान की तरफ़ दोनों हाथ उठा कर बोली, ‘अल्लाह का क़हर पड़े तेरे ऊपर...! ख़ुदा करे, तेरे भाई की मैयत निकले! तूने हमारे ख़ानदान की नाक काट ली। मेरे शफ़ीक़ के लिए तू ही धरी थी। हाय अल्लाह, कैसी ज़ुबान-दराज़ है। जी चाहता है ज़ुबान खींच लूँ इसकी...’
और फूफी तब नाक के स्वर में रो-रो कर अल्लाह को पुकारने लगी। मैं भाभी का हाथ पकड़ कर उन्हें खींचती हुई नीचे ले आई। तिरस्कार से मैंने कहा, ‘यही है तुम्हारी सहेली!’
भाभी ने चिढ़ कर कहा, ‘सहेली का क्या क़सूर बीबीजी? तुम्हें ही अगर कोई जेलख़ाने में बंद करके बाप-भाइयों को गालियाँ दे, तो कहाँ तक सुनोगी? वह तो रोहतक के किसी ठेठ गाँव की लड़की है। शहरों के, मुँह में राम बग़ल में छुरीवाली सभ्यता तो जानती नहीं। उसे तुम ‘तू’ कहोगी, तो ‘तू’ सुनोगी भी! वैसे दिल की इतनी अच्छी है कि ज़रा-सा किसी का दुख नहीं देख सकती। ग़ुरूर-मिजाज तो वह जानती तक नहीं।’— और भाभी कुछ अप्रसन्न-सी हो कर बाहर चली गई।
दूसरे दिन सिर धो कर बाल सुखाने मैं पिछवाड़े के छज्जे पर गई। खुदैजा को देखने का लोभ भी इसका एक कारण था। वह अपनी देहरी पर बैठी कुछ सी रही थी, साथ ही कोई गीत भी गुनगुनाती जा रही थी। मैंने हल्के से खाँसा। आहट पा कर सिर उसने ऊँचा किया। मुझे देखते ही उसका मुँह प्रसन्नता से गुलाब की भाँति खिल उठा। फ़ौरन हाथ माथे पर रख कर बोली, ‘सलाम बीबीजी! राज़ी तो हो?’
‘सलाम!’ मैंने जवाब दे कर पूछा, ‘क्या सी रही हो?’
‘के बताऊँ बीबीजी! बिचारी फुफ्फी के हाथों में तो खुजली हो रही है। अल्लाह मारा ऐसा रोग है कि आदमी अपने हाथ से खा भी न सके। उसका पैजामा फट गया है, उसी में टाँके लगा रही हूँ।’
मुझे कल की घटना याद हो आई। धीरे से पूछा, ‘मेल हो गया सास से?’
खुदैजा हँसी, बोली, ‘सास-बहू की के लड़ाई बीबी जी! पर मने कोई गाली दे हैं, तो बस म्हैं तो ऊपर से तले तक बल उठूँ हूँ।’
‘पर भाभी, इन लोगों से तुम्हारी पटती नहीं। तुम्हारे बाप ने तुम्हें क्यों शहर में ब्याह दिया?’
खुदैजा का स्वर कुछ बोझिल हो गया, बोली, ‘बीबीजी, मेरा बाप तो ग़रीब आदमी है। अब्बा (ससुर) ने मने कहीं गाँव में देख ली थी, सो मेरे चाचा से माँगी। वो सीधा आदमी, बातों में आ गया, उसे के ख़बर थी कि शहरों में घर जेलख़ानों जैसे होवै हैं।’
‘तुम्हारे गाँव में क्या परदा नहीं होता था?’ मैंने पूछा।
‘बीबीजी, परदा वहाँ करे, जहाँ पाप बसता हो। गाँव में सब भैन-बेटियाँ समझे हैं। परदा करें तो फिर खेत-क्यार का काम कैसे चले?’
‘तभी तुम्हें इतने गीत याद हैं,’ मैंने मज़ाक़ किया, ‘घर-घर गाती हुई घूमती होगी।’
और यह सुनते ही किसी सुखद स्मृति से पुलक उठी, ‘बीबीजी, सावन के महीने में हम सब छोरियाँ नीम में झूला डालतीं, आधी रात तक पेंगें बढ़ातीं और गाती-नाचती। ब्याह-शादी में रात-रात भर चाँदनी में नाच-गाना होता, बहू-बेटी गातीं और बड़े-बूढ़े चौपाल में सुना करते।’
‘बहुएँ भी परदा नहीं करती थीं?’
‘अरे के परदा!’ उसने ओढ़नी से मुँह ढँक कर कहा, ‘ऐसे, बस परदा हो गया...कोई बोल-चाल का परदा होता है? घूँघट मार लिया और गाती रहीं।’
‘अच्छा!’ मैं चुप हो गई। सच है, हेड कांसटेबिल के बेटे की बहू पर बड़ा तरस आ रहा था। बेचारी बड़ी बुरी फँसी थी।
‘बीबीजी, एक गीत गाऊँ?’
‘गाओ,’ मैंने ख़ुश हो कर कहा।
और सब कुछ भूल, अपने स्वर को पंचम तक पहुँचा कर उसने गाया—
‘कोठे ऊपर कोठरी, जिसमें तपे तनूर,
गिन-गिन लाऊँ रोटियाँ मेरा खानेवाला दूर री,
मेरी बाली का बाला जोबनवा बटवा गूँथन दे...!’
‘अरी खुदैजा’ नीचे से उसकी सास ने पुकारा, ‘कमबख़्त! आने दे तेरे यार को, उसी से तुझे ठीक कराऊँगी...कल शफ़ीक़ दौरे से लौट आवे, तब तेरी मरम्मत कराऊँगी।’
और फिर दोनों सास-बहुओं में ठन गई।
दूसरे दिन मैं छत पर न गई। परंतु तीसरे पहर भाभी ने जब नीचे आ कर बताया कि खुदैजा छत पर बैठी रो रही है, उसके पति ने रात उसे लकड़ी से मारा था, तो मैं अपने को रोक न सकी। ऊपर जा कर देखा, खुदैजा छत पर खपरैल तले खटोले पर पड़ी रो रही थी।
‘भाभी!’ मैंने धीरे से उसे पुकारा।
वह चमक कर उठ बैठी। मुझे देख कर अपनी आँसू भरी आँखों से ही हँस पड़ी, ‘बड़ी उमर बीबीजी, मैं तो तुमे ही याद कर रही थी, सलाम।’
सलाम का उत्तर दे, मैंने पूछा, ‘रात क्या गुज़री?’
‘गुज़री के!’ उसने तपे हुए स्वर में कहा, ‘तेरा भाई आया था। फूफी ने जाने के सिखा दिया। आते ही उसने लाठी पकड़ ली,’ कहते-कहते उसका स्वर ठंडा हो गया, हँसी की पुट भी आ गई, ‘बीबीजी, बोल्ला न चाल्ला, अल्लाह क़सम, दो लकड़ी जमा दी,’ और उसने अपनी पीठ दिखाई, जो रीढ़ के पास छिल गई थी।
सहानुभूति से मैंने कहा, ‘राम-राम, बड़ा क़साई है!’
हँस पड़ी खुदैजा। बोली, ‘बीबीजी, के बताऊँ...मने दुनिया की शरम खा गई कि लोग कहेंगे कि ख़सम को मारा, नहीं तो लकड़ी समेत टाँगों में ऐसे दबा लेती...चूँ करके रह जाता। सारी सिपाहीगीरी लिकड़ जाती,’ और उसने अपने पुष्ट हाथों से मरोड़ देने का अभिनय किया।
खुदैजा की बातें छोड़ कर जाने की इच्छा न होती थी। जिस निष्कपट सरल भाव से वह बातें कर रही थी, उनके प्रभाव से मन-मस्तिष्क पर एक नशा-सा छा जाता था। आधी रात के सन्नाटे में भी उसके गले की मिठास कानों में गूँजती थी। काश, उसे अगर कुछ दिन संगीत सिखाया जाता। अचानक मुझे ध्यान आया कि कहीं मुझसे बातें करने में वह गाना न सुनाने लगे, तो फिर उस पर मार पड़े। इसलिए ‘अभी आती हूँ,’ कह कर मैं झटपट नीचे उतर गई।
आते-आते सुना कि वह पुकार कर कह रही थी, ‘अल्लाह की क़सम बीबीजी, जल्दी आइओ! ज़रा अपना बाजा भी उठा लाइयो। मैं भी देखूँ, कैसे बजे हैं।’
कई दिनों से मेरी भाभी बीमार थीं। और छोटी भतीजी कुसुम भी अचानक सर्दी खा गई और तेज़ बुख़ार हो गया। पास-पड़ोस से स्त्रियाँ उन्हें देखने-पूछने आती रहती थीं। घर का काम सब मेरे ऊपर था। इसी से सैर करने जाना तो दूर, छत पर जाना भी नहीं हुआ। खुदैजा ने कई बार अपने नन्हें देवर को भेज कर बुलवाया कि मैं तनिक देर को छत पर हो जाऊँ, पर इच्छा होने पर भी न जा सकी।
चराग़ जले उसकी सास बुरका ओढ़ कर छोटे लड़के को साथ ले कर आई। लड़के द्वारा पहले पुछवा लिया था कि घर में कोई मर्द तो नहीं, तब बेचारी कमरे में घुसी।
‘कैसी तबीअत है, बहू?’
‘अब तो ज़रा ठीक हूँ,’ भाभी ने कहा, ‘आइए— बीबीजी, ज़रा कुर्सी दे जाना।’
‘सच मानो बहू, खुदैजा पर तो तुमने जादू कर दिया है।’ फूफी कुर्सी पर बैठ कर बोलीं, ‘जब से सुना है, मछली-सी तड़फ रही है। वह मुर्दो तो बुरका उठाए चली आ रही थी, मुश्किलों रोका...तुम जानों बहू, हम लोगों में हिंदुओं की तरह चादर बग़ल में दबाई और घर-घर घूमने चल दिए वाली बात तो होती नहीं। जो ऐसा करती हैं, वे बदनाम हो जाती है, ख़ैर, तुमसे तो अपनों जैसा मेल हो गया है। रात को लाऊँगी उसे भी।’
‘फूफीजी, जो बड़े-बड़े अमीर-उमरा होते हैं, उनकी लड़कियाँ तो हमारी ही तरह बाहर आती-जाती हैं।’— भाभी दबे स्वर में बोलीं।
‘तुम उन लोगों पर! वह मुसलमाननी क्या जिसके पैर का नाख़ून भी किसी ग़ैर मर्द ने देख लिया? शहरी तहज़ीब-कायदा तो यही है, नीच क़ौमों और गँवारों की बात छोड़ दो।’
आगे बहस फ़िज़ूल थी। भाभी ने दूसरी बातें छेड़ दीं।
रात को दस बजे खुदैजा आई। साथ में फूफी, दोनों देवर और ननदें भी थीं। आते ही भाभी के गले से लिपट गई, फिर मेरे से। कुसुम को तो छोड़ती न थी, ‘अरे मेरे मुन्नीलाल, तुझे किस सौकण (सौत) की नज़र लग गई! मेरे कुलसुम...। क्यों ऐ सरसुती, तूने छोरी भी बीमार कर दी?’
‘अरी खुदैजा! धीरे बोल।’ फूफी दबे स्वर में ग़ुर्राई, ‘कुलसुम का अब्बा बैठक में सो रहा है।
‘के फूफ्की!’ खुदैजा ने झनक कर कहा, ‘तेरी धीरे-धीरे ने तो जान खा डाली। अब के हाँड़ी में मुँह करके बोलूँ?’
‘तोबा!’ फूफी ख़ून का-सा घूँट पी कर रह गईं।
खुदैजा को पढ़ने का शौक़ सवार हुआ था। उर्दू का क़ायदा मँगा कर देवर से पढ़ने लगी। छत पर होती, तो मुझे बुलवा कर पूछती। परंतु अक्षर उसे याद न रहते। अलिफ़ बे की अपेक्षा गाने की तर्ज़ें उसे जल्दी याद हो जाती थीं। फूफी अगर इत्तिफ़ाक़ से अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ चली जाती, तो फिर छत पर गाने-नाचने का तूफ़ान उठा देती; चाहे शाम को लड़ाई-झगड़े और मार-पीट की ही नौबत क्यों न आवे।
वर्णमाला उसे याद नहीं हुई। इतनी दूर से पढ़ाई हो भी न सकती थी। फिर उसे घर का काफ़ी काम भी रहता, क्योंकि उसे मोटी-ताज़ी देख कर फूफी और उनकी नाज़ुक शहराती लड़कियाँ तो कुछ करके न देती थीं। और मुझे अपनी पढ़ाई-लिखाई और गृहस्थी का काम रहता था। फिर मैं तो कुछ सामाजिक और राजनैतिक कार्यों में भी हिस्सा लेती थी। शहर में एक जुलूस निकलने वाला था। मैं जा रही थी।
‘बीबीजी, कहाँ चली?’ उसने छत से पुकारा।
‘जुलूस में!’ मैं जल्दी से बोली, ‘आज बड़ा भारी जुलूस निकलेगा।’
‘हाय, बीबीजी! मैं क्यों कर निकलूँ इस जेल खाने से।’ उसके स्वर में तड़प थी।
‘अच्छा सलाम!’ मैं हाथ उठा कर चल पड़ी। पर मन में खुदैजा का वह स्वर कचोटें भर रहा था, ‘मैं क्यों कर निकलूँ इस जेलखाने से...!’
दस बजे जुलूस और मीटिंग समाप्त होने पर मैं घर लौटी, तो सुना पिछवाड़े बड़ा गुलगपाड़ा मच रहा था। भाभी ने द्वार खोल कर कहा, ‘बीबीजी, आज न जाने खुदैजा पर क्या बीतेगी। फूफी अपने मामू के यहाँ गई थी। वह मेरे नन्हें को चार पैसों का लालच दे कर उसके साथ चुपके से जुलूस देखने चली गई।’
और भाभी घबराहट में ज़्यादा कह न पाई।
मैं भी डर गई। हम दोनों छत पर कान लगाए सुनती रहीं। उसके ससुर बार-बार कह रहे थे, ‘आज मेरी पगड़ी इसने पैरों तले रौंद डाली...इस पड़ौस में आ कर यह एकदम बिगड़ गई है। कल ही यह मकान छोड़ दूँगा। इस बार तो दोहरी डेवढ़ी का मकान लेना पड़ेगा।’
दो दिन बाद पिछवाड़े का मकान ख़ाली हो गया। खुदैजा रो-रो कर बिदा हुई हमसे। पालकी में बैठी भी ऊँचे स्वर में रो रही थी।
खुदैजा की कोई ख़बर न लगी। चार-पाँच साल निकल गए। अब मेरे भी एक नन्हीं बच्ची थी। मैं माँ थी। घूमना-फिरना कम हो गया था। बंधनवश नहीं, यही गृहस्थी और बच्ची की देख-भाल की वजह से। फिर भी, इस बार थोड़ी फ़ुरसत निकाल कर देहली घूमने आई थी। लाल क़िले भी गई। शाही हम्माम में कुछ बुरक़ेवालियाँ दिखाई दीं।
‘बीबीजी!’ अकस्मात् धीरे से उनमें से एक ने आ कर मेरा कंधा छुआ।
मैंने आश्चर्य से देखा, खुदैजा थी!— लंबी, पीली, गालों की हड्डियाँ उभरी हुई, आँखों में गड्ढे पड़े हुए- खुदैजा ही थी।
‘अरे भाभी तुम, वाह...!’ मैंने उसका हाथ पकड़ लिया।
‘राज़ी रहीं बीबीजी! अच्छा, शादी हो गई? मुबारिक।’ उसने फुसफुसा कर कहा।
और सिर्फ़ पहचान करने-कराने को उसने जो बुरका उठा दिया था उसे फिर डाल लिया, हालाँकि उस समय वहाँ कोई मर्द न था। खुदैजा के इस व्यवहार पर मुझे आश्चर्य हुआ। स्वच्छंद हिरनी अब खूँटे से बँधी बकरी थी।
‘वाह, अब तुम एकदम बंदगोभी हो गई, भाभी!’
‘हमेशा ही बेवक़ूफ़ थोड़ी ही बनी रहूँगी,’ उसने धीमे से उत्तर दिया, ‘अब तो अक़्ल आ गई है।’
‘अच्छा, अक़्ल आ गई है? अब तो बड़ी उर्दूदाँ बन गई हो। हमें तो भई नहीं आई अक़्ल। उसी तरह बेलगाम घूमती हूँ...।’
उसने जाली में से एक बार देखा और पलकें झुका लीं। उसकी साथिनें बाहर पहुँच चुकी थीं। नन्हें ने जो अब बारह-तेरह साल का हो गया था, रक़ीब की तरह पुकारा- ‘भाभी!’
और खुदैजा उम्र-क़ैदी की तरह मुड़-मुड़ कर पीछे देखती हुई चली गई।
kali itailiyan ka barik lal gotewala chuDidar payajama aur hare phulonwala gulabi lamba kurta wo pahne hui thi gotalgi kusumbhi (lal) rang ki oDhni ke donon chhor baDi laparwahi se kandhe ke pichhe paDe the, jisse kurte ke Dhilepan mein uski chauDi chhati aur ubhre hue urojon ki pusht golai jhalak rahi thi apni lambi mazbut mansal kalai se musali uthaye wo dabadab haldi koot rahi thi kalai mein phansi moti hari chuDiyan aur chandi ke kaDe aur pachheliyan bar bar jhanak rahi theen unhin ki tal par wo ga rahi thi —
hular hular doodh gere meri gay aaj mera munnilal jiwega ki nay
baDa loch tha uske swar mein is gawanru geet ki wo pankti us tikhi dupahri mein bhi kanon mein mishri ki bundon ke saman paD rahi thi kuch der main chhajje ki aaD mein khaDi sunti rahi na usne kutna band kiya aur na wo geet ki pankti hular hular
dhoop mein pair bahut jalne lage, to main lautne ko hi thi ki pichhe se bhabhi ne aa kar zor se kaha, khudaija, ari dekh, ye rahi hamari bibi ji chori chori tera geet sun rahi theen
usne turant musali chhoD kar upar nazar uthai aur hans paDi phir hath mathe par rakh kar boli — salam bibiji! baDe bhag jo aaj tere darsan ho gaye
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ke, bibi ji, mera gala! bhala tum to baje par ganewali thahrin, mera geet bhawega? usne uttar diya uske bolne mein takalluf nahin, hardikta thi
nahin nahin, tum gao pura gao, mainne zor diya
bina dobara israr karaye wo gane lagi, usi dhimi mithi awaz mein
hular hular doodh gere meri gay
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aj mera munnilal jiwega ki nay
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usne kuti haldi ko chhalni mein ulat kar niche angan ki or ungli dikha kar kaha — phuphphi laDegi!
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wo thoDa sharma gai oDhni munh mein daba kar hansne lagi
achchha bhabhi! tumhein nachna bhi aata hai tab to zarur nach kar dikhao, bhabhi ki shah pa kar mainne bhi kaha
parantu wo nachegi, aise mujhe zara bhi aasha nahin theen bhala shahron mein jab hum paDhi likhi laDkiyon ke aage koi bar bar harmonium tabla rakhta hai, kai kai bar israr karta hai, tab pahle to hum log nazakat se gana na aane ki dalilen pesh karti hain, is par bhi jab we log praman dete hain ki aapne amuk ke janmadiwas par aur phalan ki shadi mein amuk gana gaya tha, tab gala kharab hone ka bahana kiya jata hai jab dekhte hain ki kisi tarah pichha nahin chhutega, tab kahin khans khakhar kar ek aadhi gat bajai aur baja pare sarka kar kaha, dekhiye, kahin aata bhi hai aap fizul hi pichhe paDe hue hain are bus yon hamara gana khatm ho jata hai
khudaija, nach de na achchha bibiji ki baat bhi nahin manni? bhabhi ne kaha, le, main to jati hoon
wo haDbaDa kar uth baithi — na na, jawe mat tujhe allah pak ki qas sarasuti le, main nach dungi, par bibiji ke pasand awega mera nach?
uske pair ke kaDe chhaDe yaddapi uski mansal pinDli aur takhnon se chipte hue the, phir bhi ginti mein kai hone se aapas mein khanak kar jhanak uthe oDhni sir par le, tanik sa ghunghat nikal kar wo khaDi ho gai phir mujhe dekh kar hans paDi, boli, nachun?
han, han!
ke gaun sarasuti
kuch bhi ga le wahi geet ga — latak rahti babua
usne gaya —
latak rahti babua tore bangale mein,
jo main hoti baghon ki koel,
kook rahti, babua tore bangale mein
kisi shastr ke antargat uska nach nahin tha na katthak, na kathakli, na manipuri, na uDisi aur na bharatnatyam! bahuon ke sanchalan mein koi gahrai bhi na thi, par us sidhepan mein ek lai thi, gati thi tez aur prwahamyi jiwan se bharpur asthayi ke moD par nachti hui, wo do phut upar uchhal jati aur phir dharti par panw lagte hi thirakne lagta, kya majal, jo zara panja rukta ho saDhe panch phut lambi bhari deh ki us yuwati ka gathan ekdam ginni gold ki Dali jaisa tha — lali liye hue rang ka aisa sona, jismen qayamat ka loch ho
geet pura hua aur wo nach band kar lambi lambi sans lene lagi
shabash, bhabhi! mainne utsah se kaha, sachmuch bahut achchha nachti ho
sachchi! tumhein mera nach achchha laga! uski billauri shishe si ankhon mein utsah chhalak paDa bholepan se usne puchha — aur nachun?
han han! chhajje ki aaD mein bhi mere panw jale ja rahe the, phir bhi niche jane ko man na hota tha
usne dupatte se munh ka pasina ponchha aur pair se thumka liya hi tha ki niche se kisi ne dhimi par tikhi krodhabhri awaz mein kaha, o ghoDi! kudna band kar de! shafiq ka abba aa gaya hai
khudaija ke panw ruk gaye, jaise kisi tez chaal se ghumte hue lattu par koi achanak hath rakh de munh par udasi ki chhaya si aa gai, kintu bhabhi se drishti milte hi wo muskura paDi aur boli, dekha machne laga na shor! phuphphi ka bus chale, to mujhe baks mein band karke rakkhe phir honthon mein hi kisi geet ki kaDi gungunati hui wo oDhni ke palle se munh par hawa karne lagi
niche se siDhiyan chaDhti hui uski sas kahti aa rahi thi, khudaija, tune te sari haya sharam ghol kar pi Dali! ari, tu kya natni ki dhi hai? kanjariyon ki tarah har waqt gati rahti hai, behaya kahin ki !
khudaija chamak paDi ghusse se uske chehre ka gehuna rang ekdam gahra sinduri ho utha
bus, phuphphi, apna zaban band rakh! natni hogi tu, teri dhee!! kanjri wanjri banayegi, to dekh le main apni teri jaan ek kar dungi !
ya parwardigar, phuphi upar aa chuki thi asman ki taraf donon hath utha kar boli, allah ka qahr paDe tere upar ! khuda kare, tere bhai ki maiyat nikle! tune hamare khandan ki nak kat li mere shafiq ke liye tu hi dhari thi hay allah, kaisi zuban daraz hai ji chahta hai zuban kheench loon iski
aur phuphi tab nak ke swar mein ro ro kar allah ko pukarne lagi main bhabhi ka hath pakaD kar unhen khinchti hui niche le i tiraskar se mainne kaha, yahi hai tumhari saheli!
bhabhi ne chiDh kar kaha, saheli ka kya qasu bibiji? tumhein hi agar koi jelkhane mein band karke bap bhaiyon ko galiyan de, to kahan tak sunogi? wo to rohtak ke kisi theth ganw ki laDki hai shahron ke, munh mein ram baghal mein chhuriwali sabhyata to janti nahin use tum too kahogi, to too sunogi bhee! waise dil ki itni achchhi hai ki zara sa kisi ka dukh nahin dekh sakti ghurur mijaj to wo janti tak nahin — aur bhabhi kuch aprasann si ho kar bahar chali gai
dusre din sir dho kar baal sukhane main pichhwaDe ke chhajje par gai khudaija ko dekhne ka lobh bhi iska ek karan tha wo apni dehri par baithi kuch si rahi thi, sath hi koi geet bhi gungunati ja rahi thi mainne halke se khansa aahat pa kar sir usne uncha kiya mujhe dekhte hi uska munh prasannata se gulab ki bhanti khil utha fauran hath mathe par rakh kar boli, salam bibiji! razi to ho?
salam! mainne jawab de kar puchha, kya si rahi ho?
ke bataun bibiji! bichari phuphphi ke hathon mein to khujli ho rahi hai allah mara aisa rog hai ki adami apne hath se kha bhi na sake uska paijama phat gaya hai, usi mein tanke laga rahi hoon
mujhe kal ki ghatna yaad ho i dhire se puchha, mel ho gaya sas se?
khudaija hansi, boli, sas bahu ki ke laDai bibi jee! par mane koi gali de hain, to bus mhain to upar se tale tak bal uthun hoon
par bhabhi, in logon se tumhari patti nahin tumhare bap ne tumhein kyon shahr mein byah diya?
khudaija ka swar kuch bojhil ho gaya, boli, bibiji, mera bap to gharib adami hai abba (sasur) ne mane kahin ganw mein dekh li thi, so mere chacha se mangi wo sidha adami, baton mein aa gaya, use ke khabar thi ki shahron mein ghar jelkhanon jaise howai hain
bibiji, parda wahan kare, jahan pap basta ho ganw mein sab bhain betiyan samjhe hain parda karen to phir khet kyar ka kaam kaise chale?
tabhi tumhein itne geet yaad hain, mainne mazaq kiya, ghar ghar gati hui ghumti hogi
aur ye sunte hi kisi sukhad smriti se pulak uthi, bibiji, sawan ke mahine mein hum sab chhoriyan neem mein jhula Daltin, aadhi raat tak pengen baDhatin aur gati nachti byah shadi mein raat raat bhar chandni mein nach gana hota, bahu beti gatin aur baDe buDhe chaupal mein suna karte
bahuwen bhi parda nahin karti theen?
are ke parda! usne oDhni se munh Dhank kar kaha, aise, bus parda ho gaya koi bol chaal ka parda hota hai? ghunghat mar liya aur gati rahin
achchha! main chup ho gai sach hai, head kanstebil ke bete ki bahu par baDa taras aa raha tha bechari baDi buri phansi thi
bibiji, ek geet gaun?
gao, mainne khush ho kar kaha
aur sab kuch bhool, apne swar ko pancham tak pahuncha kar usne gaya —
kothe upar kothari, jismen tape tanur,
gin gin laun rotiyan mera khanewala door ri,
meri bali ka bala jobanwa batwa gunthan de !
ari khudaija niche se uski sas ne pukara, kambakht! aane de tere yar ko, usi se tujhe theek karaungi kal shafiq daure se laut aawe, tab teri marammat karaungi
aur phir donon sas bahuon mein than gai
dusre din main chhat par na gai parantu tisre pahar bhabhi ne jab niche aa kar bataya ki khudaija chhat par baithi ro rahi hai, uske pati ne raat use lakDi se mara tha, to main apne ko rok na saki upar ja kar dekha, khudaija chhat par khaprail tale khatole par paDi ro rahi thi
bhabhi! mainne dhire se use pukara
wo chamak kar uth baithi mujhe dekh kar apni ansu bhari ankhon se hi hans paDi, baDi umar bibiji, main to tume hi yaad kar rahi thi, salam
salam ka uttar de, mainne puchha, raat kya guzri?
guzri ke! usne tape hue swar mein kaha, tera bhai aaya tha phuphi ne jane ke sikha diya aate hi usne lathi pakaD li, kahte kahte uska swar thanDa ho gaya, hansi ki put bhi aa gai, bibiji, bolla na challa, allah qas, do lakDi jama di, aur usne apni peeth dikhai, jo reeDh ke pas chhil gai thi
sahanubhuti se mainne kaha, ram ram, baDa qasai hai!
hans paDi khudaija boli, bibiji, ke bataun mane duniya ki sharam kha gai ki log kahenge ki khasam ko mara, nahin to lakDi samet tangon mein aise daba leti choon karke rah jata sari sipahigiri likaD jati, aur usne apne pusht hathon se maroD dene ka abhinay kiya
khudaija ki baten chhoD kar jane ki ichha na hoti thi jis nishkapat saral bhaw se wo baten kar rahi thi, unke prabhaw se man mastishk par ek nasha sa chha jata tha aadhi raat ke sannate mein bhi uske gale ki mithas kanon mein gunjti thi kash, use agar kuch din sangit sikhaya jata achanak mujhe dhyan aaya ki kahin mujhse baten karne mein wo gana na sunane lage, to phir us par mar paDe isliye abhi aati hoon, kah kar main jhatpat niche utar gai
ate aate suna ki wo pukar kar kah rahi thi, allah ki qas bibiji, jaldi aio! zara apna baja bhi utha laiyo main bhi dekhun, kaise baje hain
kai dinon se meri bhabhi bimar theen aur chhoti bhatiji kusum bhi achanak sardi kha gai aur tez bukhar ho gaya pas paDos se striyan unhen dekhne puchhne aati rahti theen ghar ka kaam sab mere upar tha isi se sair karne jana to door, chhat par jana bhi nahin hua khudaija ne kai bar apne nanhen dewar ko bhej kar bulwaya ki main tanik der ko chhat par ho jaun, par ichha hone par bhi na ja saki
charagh jale uski sas burka oDh kar chhote laDke ko sath le kar i laDke dwara pahle puchhwa liya tha ki ghar mein koi mard to nahin, tab bechari kamre mein ghusi
kaisi tabiat hai, bahu?
ab to zara theek hoon, bhabhi ne kaha, aiye — bibiji, zara kursi de jana
sach mano bahu, khudaija par to tumne jadu kar diya hai phuphi kursi par baith kar bolin, jab se suna hai, machhli si taDaph rahi hai wo murdo to burka uthaye chali aa rahi thi, mushkilon roka tum janon bahu, hum logon mein hinduon ki tarah chadar baghal mein dabai aur ghar ghar ghumne chal diye wali baat to hoti nahin jo aisa karti hain, we badnam ho jati hai, khair, tumse to apnon jaisa mel ho gaya hai raat ko laungi use bhi
phuphiji, jo baDe baDe amir umara hote hain, unki laDkiyan to hamari hi tarah bahar aati jati hain — bhabhi dabe swar mein bolin
tuph un logon par! wo musalmanani kya jiske pair ka nakhun bhi kisi ghair mard ne dekh liya? shahri tahjib kayda to yahi hai, neech qaumon aur ganwaron ki baat chhoD do
age bahs fizul thi bhabhi ne dusri baten chheD deen
raat ko das baje khudaija i sath mein phuphi, donon dewar aur nanden bhi theen aate hi bhabhi ke gale se lipat gai, phir mere se kusum ko to chhoDti na thi, are mere munnilal, tujhe kis saukan (saut) ki nazar lag gai! mere kulsum kyon ai sarasuti, tune chhori bhi bimar kar dee?
ari khudaija! dhire bol phuphi dabe swar mein ghurrai, kulsum ka abba baithak mein so raha hai
ke phuphki! khudaija ne jhanak kar kaha, teri dhire dhire ne to jaan kha Dali ab ke hanDi mein munh karke bolun?
toba! phuphi khoon ka sa ghoont pi kar rah gain
khudaija ko paDhne ka shauq sawar hua tha urdu ka qayda manga kar dewar se paDhne lagi chhat par hoti, to mujhe bulwa kar puchhti parantu akshar use yaad na rahte alif be ki apeksha gane ki tarzen use jaldi yaad ho jati theen phuphi agar ittifaq se apne kisi rishtedar ke yahan chali jati, to phir chhat par gane nachne ka tufan utha deti; chahe sham ko laDai jhagDe aur mar peet ki hi naubat kyon na aawe
warnamala use yaad nahin hui itni door se paDhai ho bhi na sakti thi phir use ghar ka kafi kaam bhi rahta, kyonki use moti tazi dekh kar phuphi aur unki nazuk shahrati laDkiyan to kuch karke na deti theen aur mujhe apni paDhai likhai aur grihasthi ka kaam rahta tha phir main to kuch samajik aur rajanaitik karyon mein bhi hissa leti thi shahr mein ek julus nikalne wala tha main ja rahi thi
bibiji, kahan chali? usne chhat se pukara
julus mein! main jaldi se boli, aaj baDa bhari julus niklega
hay, bibiji! main kyon kar niklun is jel khane se uske swar mein taDap thi
achchha salam! main hath utha kar chal paDi par man mein khudaija ka wo swar kachoten bhar raha tha, main kyon kar niklun is jelkhane se !
das baje julus aur meeting samapt hone par main ghar lauti, to suna pichhwaDe baDa gulagpaDa mach raha tha bhabhi ne dwar khol kar kaha, bibiji, aaj na jane khudaija par kya bitegi phuphi apne mamu ke yahan gai thi wo mere nanhen ko chaar paison ka lalach de kar uske sath chupke se julus dekhne chali gai
aur bhabhi ghabrahat mein ziyada kah na pai
main bhi Dar gai hum donon chhat par kan lagaye sunti rahin uske sasur bar bar kah rahe the, aaj meri pagDi isne pairon tale raund Dali is paDaus mein aa kar ye ekdam bigaD gai hai kal hi ye makan chhoD dunga is bar to dohri DewDhi ka makan lena paDega
do din baad pichhwaDe ka makan khali ho gaya khudaija ro ro kar bida hui hamse palaki mein baithi bhi unche swar mein ro rahi thi
khudaija ki koi khabar na lagi chaar panch sal nikal gaye ab mere bhi ek nanhin bachchi thi main man thi ghumna phirna kam ho gaya tha bandhanwash nahin, yahi grihasthi aur bachchi ki dekh bhaal ki wajah se phir bhi, is bar thoDi fursat nikal kar dehli ghumne i thi lal qile bhi gai shahi hammam mein kuch burqewaliyan dikhai deen
bibiji! akasmat dhire se unmen se ek ne aa kar mera kandha chhua
mainne ashchary se dekha, khudaija thee! — lambi, pili, galon ki haDDiyan ubhri hui, ankhon mein gaDDhe paDe hue khudaija hi thi
are bhabhi tum, wah ! mainne uska hath pakaD liya
razi rahin bibiji! achchha, shadi ho gai? mubarik usne phusphusa kar kaha
aur sirf pahchan karne karane ko usne jo burka utha diya tha use phir Dal liya, halanki us samay wahan koi mard na tha khudaija ke is wywahar par mujhe ashchary hua swachchhand hirni ab khunte se bandhi bakri thi
wah, ab tum ekdam bandgobhi ho gai, bhabhi!
hamesha hi bewaquf thoDi hi bani rahungi, usne dhime se uttar diya, ab to aql aa gai hai
achchha, aql aa gai hai? ab to baDi urdudan ban gai ho hamein to bhai nahin i aql usi tarah belagam ghumti hoon
usne jali mein se ek bar dekha aur palken jhuka leen uski sathinen bahar pahunch chuki theen nanhen ne jo ab barah terah sal ka ho gaya tha, raqib ki tarah pukara bhabhi!
aur khudaija umraqaidi ki tarah muD muD kar pichhe dekhti hui chali gai
kali itailiyan ka barik lal gotewala chuDidar payajama aur hare phulonwala gulabi lamba kurta wo pahne hui thi gotalgi kusumbhi (lal) rang ki oDhni ke donon chhor baDi laparwahi se kandhe ke pichhe paDe the, jisse kurte ke Dhilepan mein uski chauDi chhati aur ubhre hue urojon ki pusht golai jhalak rahi thi apni lambi mazbut mansal kalai se musali uthaye wo dabadab haldi koot rahi thi kalai mein phansi moti hari chuDiyan aur chandi ke kaDe aur pachheliyan bar bar jhanak rahi theen unhin ki tal par wo ga rahi thi —
hular hular doodh gere meri gay aaj mera munnilal jiwega ki nay
baDa loch tha uske swar mein is gawanru geet ki wo pankti us tikhi dupahri mein bhi kanon mein mishri ki bundon ke saman paD rahi thi kuch der main chhajje ki aaD mein khaDi sunti rahi na usne kutna band kiya aur na wo geet ki pankti hular hular
dhoop mein pair bahut jalne lage, to main lautne ko hi thi ki pichhe se bhabhi ne aa kar zor se kaha, khudaija, ari dekh, ye rahi hamari bibi ji chori chori tera geet sun rahi theen
usne turant musali chhoD kar upar nazar uthai aur hans paDi phir hath mathe par rakh kar boli — salam bibiji! baDe bhag jo aaj tere darsan ho gaye
main jhenp gai pichhwaDe wale makan mein nae paDosiyon ko aaye pandrah din ho gaye honge bhabhi se kai bar khudaija ka zikr sun kar bhi aur ye jaan kar bhi ki mujhse milna bolna chahti hai, main kabhi usse parichai karne na i thi main sochti thi, us theth ganwar chhokri se main kis wishay par aur kya baten karungi? apni jhenp mitane ko main jaldi se boli — bhabhi tumhara gala to baDa mitha hai; apna geet zara phir to gao!
ke, bibi ji, mera gala! bhala tum to baje par ganewali thahrin, mera geet bhawega? usne uttar diya uske bolne mein takalluf nahin, hardikta thi
nahin nahin, tum gao pura gao, mainne zor diya
bina dobara israr karaye wo gane lagi, usi dhimi mithi awaz mein
hular hular doodh gere meri gay
aj mera munnilal jiwega ki nay
is sasu ki nazar buri hai, meri may
aj mera munnilal jiwega ki nay
mujhe laga, ki wo swar daba kar ga rahi hai
bhabhi, pura gala khol kar gao, mainne anurodh kiya
usne kuti haldi ko chhalni mein ulat kar niche angan ki or ungli dikha kar kaha — phuphphi laDegi!
bhabhi ne kaha, marne de phuphphi ko bibiji, khudaija nachti bhi bahut achchha hai o khudaija, zara nach te sahi
wo thoDa sharma gai oDhni munh mein daba kar hansne lagi
achchha bhabhi! tumhein nachna bhi aata hai tab to zarur nach kar dikhao, bhabhi ki shah pa kar mainne bhi kaha
parantu wo nachegi, aise mujhe zara bhi aasha nahin theen bhala shahron mein jab hum paDhi likhi laDkiyon ke aage koi bar bar harmonium tabla rakhta hai, kai kai bar israr karta hai, tab pahle to hum log nazakat se gana na aane ki dalilen pesh karti hain, is par bhi jab we log praman dete hain ki aapne amuk ke janmadiwas par aur phalan ki shadi mein amuk gana gaya tha, tab gala kharab hone ka bahana kiya jata hai jab dekhte hain ki kisi tarah pichha nahin chhutega, tab kahin khans khakhar kar ek aadhi gat bajai aur baja pare sarka kar kaha, dekhiye, kahin aata bhi hai aap fizul hi pichhe paDe hue hain are bus yon hamara gana khatm ho jata hai
khudaija, nach de na achchha bibiji ki baat bhi nahin manni? bhabhi ne kaha, le, main to jati hoon
wo haDbaDa kar uth baithi — na na, jawe mat tujhe allah pak ki qas sarasuti le, main nach dungi, par bibiji ke pasand awega mera nach?
uske pair ke kaDe chhaDe yaddapi uski mansal pinDli aur takhnon se chipte hue the, phir bhi ginti mein kai hone se aapas mein khanak kar jhanak uthe oDhni sir par le, tanik sa ghunghat nikal kar wo khaDi ho gai phir mujhe dekh kar hans paDi, boli, nachun?
han, han!
ke gaun sarasuti
kuch bhi ga le wahi geet ga — latak rahti babua
usne gaya —
latak rahti babua tore bangale mein,
jo main hoti baghon ki koel,
kook rahti, babua tore bangale mein
kisi shastr ke antargat uska nach nahin tha na katthak, na kathakli, na manipuri, na uDisi aur na bharatnatyam! bahuon ke sanchalan mein koi gahrai bhi na thi, par us sidhepan mein ek lai thi, gati thi tez aur prwahamyi jiwan se bharpur asthayi ke moD par nachti hui, wo do phut upar uchhal jati aur phir dharti par panw lagte hi thirakne lagta, kya majal, jo zara panja rukta ho saDhe panch phut lambi bhari deh ki us yuwati ka gathan ekdam ginni gold ki Dali jaisa tha — lali liye hue rang ka aisa sona, jismen qayamat ka loch ho
geet pura hua aur wo nach band kar lambi lambi sans lene lagi
shabash, bhabhi! mainne utsah se kaha, sachmuch bahut achchha nachti ho
sachchi! tumhein mera nach achchha laga! uski billauri shishe si ankhon mein utsah chhalak paDa bholepan se usne puchha — aur nachun?
han han! chhajje ki aaD mein bhi mere panw jale ja rahe the, phir bhi niche jane ko man na hota tha
usne dupatte se munh ka pasina ponchha aur pair se thumka liya hi tha ki niche se kisi ne dhimi par tikhi krodhabhri awaz mein kaha, o ghoDi! kudna band kar de! shafiq ka abba aa gaya hai
khudaija ke panw ruk gaye, jaise kisi tez chaal se ghumte hue lattu par koi achanak hath rakh de munh par udasi ki chhaya si aa gai, kintu bhabhi se drishti milte hi wo muskura paDi aur boli, dekha machne laga na shor! phuphphi ka bus chale, to mujhe baks mein band karke rakkhe phir honthon mein hi kisi geet ki kaDi gungunati hui wo oDhni ke palle se munh par hawa karne lagi
niche se siDhiyan chaDhti hui uski sas kahti aa rahi thi, khudaija, tune te sari haya sharam ghol kar pi Dali! ari, tu kya natni ki dhi hai? kanjariyon ki tarah har waqt gati rahti hai, behaya kahin ki !
khudaija chamak paDi ghusse se uske chehre ka gehuna rang ekdam gahra sinduri ho utha
bus, phuphphi, apna zaban band rakh! natni hogi tu, teri dhee!! kanjri wanjri banayegi, to dekh le main apni teri jaan ek kar dungi !
ya parwardigar, phuphi upar aa chuki thi asman ki taraf donon hath utha kar boli, allah ka qahr paDe tere upar ! khuda kare, tere bhai ki maiyat nikle! tune hamare khandan ki nak kat li mere shafiq ke liye tu hi dhari thi hay allah, kaisi zuban daraz hai ji chahta hai zuban kheench loon iski
aur phuphi tab nak ke swar mein ro ro kar allah ko pukarne lagi main bhabhi ka hath pakaD kar unhen khinchti hui niche le i tiraskar se mainne kaha, yahi hai tumhari saheli!
bhabhi ne chiDh kar kaha, saheli ka kya qasu bibiji? tumhein hi agar koi jelkhane mein band karke bap bhaiyon ko galiyan de, to kahan tak sunogi? wo to rohtak ke kisi theth ganw ki laDki hai shahron ke, munh mein ram baghal mein chhuriwali sabhyata to janti nahin use tum too kahogi, to too sunogi bhee! waise dil ki itni achchhi hai ki zara sa kisi ka dukh nahin dekh sakti ghurur mijaj to wo janti tak nahin — aur bhabhi kuch aprasann si ho kar bahar chali gai
dusre din sir dho kar baal sukhane main pichhwaDe ke chhajje par gai khudaija ko dekhne ka lobh bhi iska ek karan tha wo apni dehri par baithi kuch si rahi thi, sath hi koi geet bhi gungunati ja rahi thi mainne halke se khansa aahat pa kar sir usne uncha kiya mujhe dekhte hi uska munh prasannata se gulab ki bhanti khil utha fauran hath mathe par rakh kar boli, salam bibiji! razi to ho?
salam! mainne jawab de kar puchha, kya si rahi ho?
ke bataun bibiji! bichari phuphphi ke hathon mein to khujli ho rahi hai allah mara aisa rog hai ki adami apne hath se kha bhi na sake uska paijama phat gaya hai, usi mein tanke laga rahi hoon
mujhe kal ki ghatna yaad ho i dhire se puchha, mel ho gaya sas se?
khudaija hansi, boli, sas bahu ki ke laDai bibi jee! par mane koi gali de hain, to bus mhain to upar se tale tak bal uthun hoon
par bhabhi, in logon se tumhari patti nahin tumhare bap ne tumhein kyon shahr mein byah diya?
khudaija ka swar kuch bojhil ho gaya, boli, bibiji, mera bap to gharib adami hai abba (sasur) ne mane kahin ganw mein dekh li thi, so mere chacha se mangi wo sidha adami, baton mein aa gaya, use ke khabar thi ki shahron mein ghar jelkhanon jaise howai hain
bibiji, parda wahan kare, jahan pap basta ho ganw mein sab bhain betiyan samjhe hain parda karen to phir khet kyar ka kaam kaise chale?
tabhi tumhein itne geet yaad hain, mainne mazaq kiya, ghar ghar gati hui ghumti hogi
aur ye sunte hi kisi sukhad smriti se pulak uthi, bibiji, sawan ke mahine mein hum sab chhoriyan neem mein jhula Daltin, aadhi raat tak pengen baDhatin aur gati nachti byah shadi mein raat raat bhar chandni mein nach gana hota, bahu beti gatin aur baDe buDhe chaupal mein suna karte
bahuwen bhi parda nahin karti theen?
are ke parda! usne oDhni se munh Dhank kar kaha, aise, bus parda ho gaya koi bol chaal ka parda hota hai? ghunghat mar liya aur gati rahin
achchha! main chup ho gai sach hai, head kanstebil ke bete ki bahu par baDa taras aa raha tha bechari baDi buri phansi thi
bibiji, ek geet gaun?
gao, mainne khush ho kar kaha
aur sab kuch bhool, apne swar ko pancham tak pahuncha kar usne gaya —
kothe upar kothari, jismen tape tanur,
gin gin laun rotiyan mera khanewala door ri,
meri bali ka bala jobanwa batwa gunthan de !
ari khudaija niche se uski sas ne pukara, kambakht! aane de tere yar ko, usi se tujhe theek karaungi kal shafiq daure se laut aawe, tab teri marammat karaungi
aur phir donon sas bahuon mein than gai
dusre din main chhat par na gai parantu tisre pahar bhabhi ne jab niche aa kar bataya ki khudaija chhat par baithi ro rahi hai, uske pati ne raat use lakDi se mara tha, to main apne ko rok na saki upar ja kar dekha, khudaija chhat par khaprail tale khatole par paDi ro rahi thi
bhabhi! mainne dhire se use pukara
wo chamak kar uth baithi mujhe dekh kar apni ansu bhari ankhon se hi hans paDi, baDi umar bibiji, main to tume hi yaad kar rahi thi, salam
salam ka uttar de, mainne puchha, raat kya guzri?
guzri ke! usne tape hue swar mein kaha, tera bhai aaya tha phuphi ne jane ke sikha diya aate hi usne lathi pakaD li, kahte kahte uska swar thanDa ho gaya, hansi ki put bhi aa gai, bibiji, bolla na challa, allah qas, do lakDi jama di, aur usne apni peeth dikhai, jo reeDh ke pas chhil gai thi
sahanubhuti se mainne kaha, ram ram, baDa qasai hai!
hans paDi khudaija boli, bibiji, ke bataun mane duniya ki sharam kha gai ki log kahenge ki khasam ko mara, nahin to lakDi samet tangon mein aise daba leti choon karke rah jata sari sipahigiri likaD jati, aur usne apne pusht hathon se maroD dene ka abhinay kiya
khudaija ki baten chhoD kar jane ki ichha na hoti thi jis nishkapat saral bhaw se wo baten kar rahi thi, unke prabhaw se man mastishk par ek nasha sa chha jata tha aadhi raat ke sannate mein bhi uske gale ki mithas kanon mein gunjti thi kash, use agar kuch din sangit sikhaya jata achanak mujhe dhyan aaya ki kahin mujhse baten karne mein wo gana na sunane lage, to phir us par mar paDe isliye abhi aati hoon, kah kar main jhatpat niche utar gai
ate aate suna ki wo pukar kar kah rahi thi, allah ki qas bibiji, jaldi aio! zara apna baja bhi utha laiyo main bhi dekhun, kaise baje hain
kai dinon se meri bhabhi bimar theen aur chhoti bhatiji kusum bhi achanak sardi kha gai aur tez bukhar ho gaya pas paDos se striyan unhen dekhne puchhne aati rahti theen ghar ka kaam sab mere upar tha isi se sair karne jana to door, chhat par jana bhi nahin hua khudaija ne kai bar apne nanhen dewar ko bhej kar bulwaya ki main tanik der ko chhat par ho jaun, par ichha hone par bhi na ja saki
charagh jale uski sas burka oDh kar chhote laDke ko sath le kar i laDke dwara pahle puchhwa liya tha ki ghar mein koi mard to nahin, tab bechari kamre mein ghusi
kaisi tabiat hai, bahu?
ab to zara theek hoon, bhabhi ne kaha, aiye — bibiji, zara kursi de jana
sach mano bahu, khudaija par to tumne jadu kar diya hai phuphi kursi par baith kar bolin, jab se suna hai, machhli si taDaph rahi hai wo murdo to burka uthaye chali aa rahi thi, mushkilon roka tum janon bahu, hum logon mein hinduon ki tarah chadar baghal mein dabai aur ghar ghar ghumne chal diye wali baat to hoti nahin jo aisa karti hain, we badnam ho jati hai, khair, tumse to apnon jaisa mel ho gaya hai raat ko laungi use bhi
phuphiji, jo baDe baDe amir umara hote hain, unki laDkiyan to hamari hi tarah bahar aati jati hain — bhabhi dabe swar mein bolin
tuph un logon par! wo musalmanani kya jiske pair ka nakhun bhi kisi ghair mard ne dekh liya? shahri tahjib kayda to yahi hai, neech qaumon aur ganwaron ki baat chhoD do
age bahs fizul thi bhabhi ne dusri baten chheD deen
raat ko das baje khudaija i sath mein phuphi, donon dewar aur nanden bhi theen aate hi bhabhi ke gale se lipat gai, phir mere se kusum ko to chhoDti na thi, are mere munnilal, tujhe kis saukan (saut) ki nazar lag gai! mere kulsum kyon ai sarasuti, tune chhori bhi bimar kar dee?
ari khudaija! dhire bol phuphi dabe swar mein ghurrai, kulsum ka abba baithak mein so raha hai
ke phuphki! khudaija ne jhanak kar kaha, teri dhire dhire ne to jaan kha Dali ab ke hanDi mein munh karke bolun?
toba! phuphi khoon ka sa ghoont pi kar rah gain
khudaija ko paDhne ka shauq sawar hua tha urdu ka qayda manga kar dewar se paDhne lagi chhat par hoti, to mujhe bulwa kar puchhti parantu akshar use yaad na rahte alif be ki apeksha gane ki tarzen use jaldi yaad ho jati theen phuphi agar ittifaq se apne kisi rishtedar ke yahan chali jati, to phir chhat par gane nachne ka tufan utha deti; chahe sham ko laDai jhagDe aur mar peet ki hi naubat kyon na aawe
warnamala use yaad nahin hui itni door se paDhai ho bhi na sakti thi phir use ghar ka kafi kaam bhi rahta, kyonki use moti tazi dekh kar phuphi aur unki nazuk shahrati laDkiyan to kuch karke na deti theen aur mujhe apni paDhai likhai aur grihasthi ka kaam rahta tha phir main to kuch samajik aur rajanaitik karyon mein bhi hissa leti thi shahr mein ek julus nikalne wala tha main ja rahi thi
bibiji, kahan chali? usne chhat se pukara
julus mein! main jaldi se boli, aaj baDa bhari julus niklega
hay, bibiji! main kyon kar niklun is jel khane se uske swar mein taDap thi
achchha salam! main hath utha kar chal paDi par man mein khudaija ka wo swar kachoten bhar raha tha, main kyon kar niklun is jelkhane se !
das baje julus aur meeting samapt hone par main ghar lauti, to suna pichhwaDe baDa gulagpaDa mach raha tha bhabhi ne dwar khol kar kaha, bibiji, aaj na jane khudaija par kya bitegi phuphi apne mamu ke yahan gai thi wo mere nanhen ko chaar paison ka lalach de kar uske sath chupke se julus dekhne chali gai
aur bhabhi ghabrahat mein ziyada kah na pai
main bhi Dar gai hum donon chhat par kan lagaye sunti rahin uske sasur bar bar kah rahe the, aaj meri pagDi isne pairon tale raund Dali is paDaus mein aa kar ye ekdam bigaD gai hai kal hi ye makan chhoD dunga is bar to dohri DewDhi ka makan lena paDega
do din baad pichhwaDe ka makan khali ho gaya khudaija ro ro kar bida hui hamse palaki mein baithi bhi unche swar mein ro rahi thi
khudaija ki koi khabar na lagi chaar panch sal nikal gaye ab mere bhi ek nanhin bachchi thi main man thi ghumna phirna kam ho gaya tha bandhanwash nahin, yahi grihasthi aur bachchi ki dekh bhaal ki wajah se phir bhi, is bar thoDi fursat nikal kar dehli ghumne i thi lal qile bhi gai shahi hammam mein kuch burqewaliyan dikhai deen
bibiji! akasmat dhire se unmen se ek ne aa kar mera kandha chhua
mainne ashchary se dekha, khudaija thee! — lambi, pili, galon ki haDDiyan ubhri hui, ankhon mein gaDDhe paDe hue khudaija hi thi
are bhabhi tum, wah ! mainne uska hath pakaD liya
razi rahin bibiji! achchha, shadi ho gai? mubarik usne phusphusa kar kaha
aur sirf pahchan karne karane ko usne jo burka utha diya tha use phir Dal liya, halanki us samay wahan koi mard na tha khudaija ke is wywahar par mujhe ashchary hua swachchhand hirni ab khunte se bandhi bakri thi
wah, ab tum ekdam bandgobhi ho gai, bhabhi!
hamesha hi bewaquf thoDi hi bani rahungi, usne dhime se uttar diya, ab to aql aa gai hai
achchha, aql aa gai hai? ab to baDi urdudan ban gai ho hamein to bhai nahin i aql usi tarah belagam ghumti hoon
usne jali mein se ek bar dekha aur palken jhuka leen uski sathinen bahar pahunch chuki theen nanhen ne jo ab barah terah sal ka ho gaya tha, raqib ki tarah pukara bhabhi!
aur khudaija umraqaidi ki tarah muD muD kar pichhe dekhti hui chali gai
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।