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हत्यारों की वापसी

hatyaron ki wapsi

मिथिलेश्वर

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हत्यारों की वापसी

मिथिलेश्वर

और अधिकमिथिलेश्वर

    रात के बारह बज रहे हैं। तेगा, सिगू और गनपत दबे पाँव आगे बढ़े जा रहे हैं। वे शहर की उस मुख्य सड़क को पार कर चुके हैं, जो रात-भर चलती रहती है। वे शहर के उन स्थानों और मुहल्लों को लाँघ चुके हैं, जहाँ रात होती ही नहीं—बिजली की दूधिया रोशनी और सरगर्मी बनी ही रहती है। अब वे शहर के पश्चिमी हिस्से की तरफ़ उस मुहल्ले में गए हैं, जो शहर का सबसे उपेक्षित मुहल्ला है। वहाँ की गलियों में रोशनी का कोई प्रबंध नहीं। रास्ते ऊबड़-खाबड़, कच्चे-पक्के मकान। बीच-बीच में कुछ झोंपड़ियाँ भी। सीलन-भरी गलियाँ। किनारे की नालियों से आती तीखी दुर्गंध। इस मुहल्ले में शहर के मज़दूर, मेहतर, रिक्शा-चालक तथा छोटी-छोटी नौकरियाँ करने वाले वे लोग रहते हैं, जो शहर के दूसरे मुहल्लों में ऊँचे किराए नहीं दे सकते।

    गनपत कल दिन में ही इस मुहल्ले में आया था। उसके साथ हाजी सेठ का एक आदमी भी था। वह गनपत को एक निश्चित जगह दिखाकर एक निश्चित व्यक्ति को पहचनवा चुका है। अब गनपत को क्या करना है, यह हाजी सेठ से उसे मालूम हुआ है। अक्सर इस तरह के कामों में गनपत, तेगा और सिगू को ज़रूर लेता है। दरअसल, सच्चाई तो यह है कि गनपत मोल-भाव करके कामों को तय करता है। योजना बनाता है। लेकिन असल काम तो तेगा और सिगू करते हैं।

    गनपत को उस पहचनवाए गए व्यक्ति के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं, देखने में वह गनपत को एक बहुत ही साधारण व्यक्ति मालूम पड़ा है। हाजी सेठ के यहाँ की बातों से वह यह जान पाया है कि वह व्यक्ति हाजी सेठ के पूरे परिवार के लिए चिंता का कारण बना हुआ है। शायद कहीं हाजी सेठ की कोई नई फ़ैक्टरी बन रही है, जहाँ वह व्यक्ति अड़ंगा डाल रहा है। बात क्या है, स्थिति क्या है, क्यों वह व्यक्ति हाजी सेठ से टकरा रहा है, इन सब बातों की विस्तृत जानकारी गनपत को नहीं है। उसने इन बातों की जानकारी के लिए कोशिश भी नहीं की है। असल में हाजी सेठ के कामों में वह अधिक छानबीन और पूछताछ नहीं करता है। हाजी सेठ जब भी काम कराता है, ऊँची रक़म देता है। इसीलिए गनपत आँख मूँदकर हाजी सेठ का काम पूरा करता है।

    अपने साथियों के साथ गनपत तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। लोग सो चुके हैं। घर के दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद हैं। रात के सन्नाटे में पूरे मुहल्ले का सूनापन गनपत को अच्छा लगता है। ऐसे में काम बड़ी आसानी से हो जाता है।

    गनपत को जब कभी रोशनी और सरगर्मी वाले मुहल्लों में काम करना होता है, तो बड़ी फ़ज़ीहत होती है। एक काम में कभी-कभी पूरा महीना लग जाता है। कितनी साज़िशें और कितने षड्यंत्र उसे रचने पड़ते हैं। लेकिन इन मुहल्लों में तो वह चुटकी बजाकर काम कर लेता है। गनपत को ये मुहल्ले शहर के गाँव जान पड़ते हैं। बिलकुल गाँवों की तरह ही बेरोशन, असुरक्षित और सामर्थ्यहीन!

    गनपत अपने साथियों के साथ निश्चित जगह पहुँच जाता है। यहाँ से लगभग दस-बारह क़दम के फ़ासले पर ही वह कोठरी है, जिसमें वह व्यक्ति रड़ता है। अभी वह अकेला है। परिवार साथ में नहीं रखा है। पता नहीं, कुँआरा है या बाल-बच्चे वाला? कहाँ का मूल निवासी है? गनपत को कुछ मालूम नहीं। कहीं का हो, इससे उसको क्या मतलब? काम करेगा। पैसे बनाएगा! दारू पिएगा। माँस खाएगा। हीराबाई के साथ मौज करेगा। और क्या!

    गनपत और उसके साथियों को यह देखकर भारी आश्चर्य होता है कि उस कमरे का दरवाज़ा खुला है। लालटेन जल रही है। मेज़-कुर्सी लगी है और वह व्यक्ति कुछ लिखने में तन्मय है। ठीक सामने मेज़ पर रखी लालटेन की रोशनी सीधे-सीधे उस व्यक्ति के चेहरे पर पड़ रही है, जिससे उसका चेहरा साफ़-साफ़ नज़र रहा है।

    इस पूरे मुहल्ले में जहाँ सभी के दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद है, वह व्यक्ति किवाड़ खोलकर लिख रहा है। हाजी सेठ से तकरार मोल लेकर भी उसे तनिक भय नहीं! एक क्षण के लिए गनपत और उसके साथियों का उत्साह बिलकुल ठंडा पड़ जाता है। वे किंकर्तव्यविमूढ़ गली के एक कोने में खड़े चुपचाप उसे देखने लगते हैं। फिर गनपत अपने साथियों को इशारा देकर आगे बढ़ाता है और उस गली की बग़ल में ही एक ढहे हुए पुराने मकान के मलबे के पास छिपकर बैठने की सलाह देता है।

    अब गनपत और उसके साथी मलबे के ढेर के पीछे छिपकर उकड़ूँ बैठ जाते हैं और उस व्यक्ति को घूरने लगते हैं। वहाँ से भी वह व्यक्ति साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है। तेगा को लगता है, उस व्यक्ति को उसने कहीं देखा है। शराब के नशे में उसे ठीक-ठीक याद नहीं रहा है। फिर भी वह याद करने की कोशिश करने लगता है।

    तेगा जब भी इस तरह के कामों में जाता है, शराब ख़ूब छककर पी लेता है। गनपत और सिगू भी पीते हैं। लेकिन उसकी तरह नहीं। तेगा जानता है, अगर वह छककर नहीं पीएगा, तो उससे काम नहीं होगा। ऐसे काम होश-हवास में रहने पर नहीं होते।

    गनपत फुसफुसाता है...एक ही साथ तीनों आदमी आगे बढ़कर तेज़ी से कोठरी में घुस चलें। सिगू उस व्यक्ति के दोनों हाथ पकड़ लेगा। मैं उसका मुँह बंद कर दूँगा। तेगा काम कर देगा। लेकिन देखना तेगा, वार सही स्थान पर होना चाहिए। मामला सफ़ाये का है।...

    तेगा कहता है, “अभी ठहरो...”

    तेगा उस व्यक्ति को याद कर रहा होता है।

    “सिगू उस व्यक्ति को देर तक घूरने के बाद फुसफुसाता है, देखने में वह व्यक्ति बहुत भला लग रहा है। पढ़ने-लिखने वाला व्यक्ति है। आख़िर हाजी क्यों उसका सफ़ाया करना चाहता है। मुझे तो वह व्यक्ति ग़लत नहीं लग रहा है।”

    गनपत ज़वाब देता है, “अपने को इससे क्या मतलब—वह सही हो या ग़लत? हाजी ने पूरे तीन हज़ार दिए हैं। तीनों को एक-एक हज़ार... कम पैसे नहीं हैं।”

    सिगू चुप हो जाता है। गनपत भी चुप है। तेगा कुछ सोच रहा है। नशे के भीतर उमके स्मृति-पटल पर अब वह व्यक्ति उभरने लगा है। परसाल तेगा के गाँव में हैजे की बीमारी फैली थी। तेगा का गाँव इस शहर के बिलकुल पास ही है—सिर्फ़ पाँच किलोमीटर के फ़ासले पर। लेकिन शहर की ओर से उसके गाँव को बचाने की कोई कोशिश नहीं की गई। फिर उसके गाँव की ख़बर सुनकर वह कोठरी वाला व्यक्ति पता नहीं कहाँ से गया था। उसके साथ नई उम्र के कुछ लड़के भी थे। उन सबने दौड़-दौड़कर गाँव और शहर को एक कर दिया था। लड़-झगड़कर, शोर मचाकर वे लोग शहर से ढेर सारी दवाइयाँ और कई डॉक्टरों को गाँव तक खींच लाए थे...तेगा का भतीजा मर जाता, अगर वह व्यक्ति समय पर पहुँचता।

    तेगा आँखें फाड़-फाड़कर उस व्यक्ति को निहारने लगता है। यह वही व्यक्ति है। तेगा उसे पूरी तरह पहचान लेता है। कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं छोड़ता है। पता नहीं, उसका क्या नाम है? गाँव के लड़के उसको पहचानते हैं। भइया, भइया कहते हैं।

    अब तेगा फुसफुसाता है, “गनपत, मैं उस व्यक्ति को पहचानता हूँ। मेरे गाँव में हैजा फैला था, तो उसने लोगों की जान बचाई थी। वह बहुत भला आदमी है। हाजी से कहो, बातचीत करके निबटारा कर ले।”

    गनपत तेगा को समझाता है, “हाजी ने तीन हज़ार दिए हैं...आधे से अधिक तो हम लोग ख़र्च कर चुके हैं। उसे क्या लौटाएँगे? कम रुपए नहीं हैं।”

    तेगा कहता है, “हाजी से बोल देना, उसका कोई दूसरा काम कर देंगे।”

    इससे पहले कि गनपत कुछ और कहता, अचानक नई उम्र के पाँच-सात लड़के गली को लाँघते तेज़ी से आते हैं और उस व्यक्ति की कोठरी में घुस जाते हैं।

    गनपत और उसके साथियों को उनकी आवाज़ें साफ़-साफ़ सुनाई देती हैं। वे हाँफ रहे हैं। चेहरे तैशपूर्ण हैं, “भइया! रात दस बजे के आसपास हाजी सेठ का ट्रक ईंटों से लदा आया था। हमने उस ज़मीन में ईंटा नहीं गिरने दिया। हाजी सेठ के आदमियों के साथ हम लोगों की काफ़ी तकरार हुई। वे बग़ल वाले थाने में पुलिस सहायता के लिए पहुँचे। हम भी वहाँ गए। हमने थानेदार से साफ़ कहा, “सर, आप तो जानते हैं, इस ज़मीन में आम गाछ के नीचे वर्षों से इस मुहल्ले के लड़के पढ़ते रहे हैं। अब हम लोगों ने चंदा करके इस ज़मीन में बच्चों की पाठशाला बनाने की नींव रखी है। यह ज़मीन हाजी सेठ की नहीं है। म्युनिसिपैलिटी की है। इससे पहले के जो चेयरमैन थे उन्होंने इस ज़मीन में पाठशाला बनाने की अनुमति दी थी। इस नए चेयरमैन से मिलकर हाजी सेठ इस ज़मीन को दख़ल करना चाहते हैं। सर, आपको मालूम होगा, भैया ने नए चेयरमैन के ख़िलाफ़ शहर में जुलूस निकाला था। जब तक कोई निर्णय नहीं हो जाता, आप हाजी सेठ की मदद करें। नहीं तो भैया थाने के खिलाफ़ भी जुलूस निकालेंगे।” और भैया, जब हमने आप द्वारा जुलूस निकालने की बात कही तो थानेदार ने अपने सिपाहियों को रोक लिया...बस, हमने हाजी सेठ के ट्रक को आगे बढ़वा दिया।

    सारी बात सुनकर वह व्यक्ति खड़ा होते हुए बोला, “बहुत ठीक किया तुम लोगों ने। बराबर उस ज़मीन पर तैनात रहना। कल हम सब नगर के कलेक्टर, एस.पी. और म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन से मिलेंगे। इस घटना पर शहर के लोगों में जनमत जगाएँगे। उस ज़मीन में वर्षों से हमारे बच्चे पढ़ते रहे हैं। वह ज़मीन हाजी सेठ के बाप की नहीं है।”

    वे आपस में यही सब बातें कर रहे थे। गनपत और उसके साथियों के ऊपर उनकी बातों की भयानक प्रतिक्रिया हुई। जिस पुलिस के डर से गनपत और उसके साथी कई-कई महीनों तक के लिए लापता हो जाते हैं, वह पुलिस उस व्यक्ति के नाम से डरती है। वे एक-दूसरे के कानों में फुसफुसाते हैं, “साले हाजी ने हमें ग़लत जगह भेजा है...यहाँ से लौट चलना चाहिए।”

    और वे दबे पाँव वहाँ से लौट जाते हैं। जिस रफ़्तार से आए थे, उससे तिगुनी रफ़्तार से वापस जाते हैं। उनसे एक क्षण के लिए भी अब वहाँ नहीं रुका जाता।

    सुबह हो गई है। गनपत और उसके साथी हाजी सेठ के कमरे में मौजूद हैं। यह जानकर हाजी सेठ का मन खीझ से भर गया है कि काम नहीं हुआ। हाजी सेठ गनपत को डाँटना चाहते हैं। लेकिन उसके साथियों की उपस्थिति में वे ऐसा नहीं कर पाते हैं। अक्सर काम होने से पहले या काम होने के बाद गनपत अकेले ही आकर हाजी सेठ से बातचीत करता था। लेकिन आज उसके साथी भी आए हैं...इसीलिए हाजी सेठ को लगता है, ज़रूर कोई ख़ास बात है। वे पूछते हैं, “कौन-सा विघ्न उपस्थित हो गया? काम क्यों नहीं हुआ?”

    इससे पहले कि गनपत कुछ कहता तेगा बोल उठता है, “सेठजी, वह आदमी ग़लत नहीं है...हम उसे नहीं मारेंगे...आप बातचीत करके निबटारा कर लीजिए, उसका सफ़ाया मत करवाइए।”

    तेगा की बात से एक क्षण के लिए हाजी सेठ के होशो-हवास गुम हो जाते हैं। लगता है, जैसे पर्वत की सबसे ऊँची चोटी से एकाएक लुढ़ककर वे नीचे गिरे हों। उन्होंने स्वप्न में भी ऐसा नहीं सोचा था कि गनपत और उसके साथी किसी आदमी के सही और ग़लत होने की बात भी कर सकते हैं। वे समझ नहीं पाते हैं। कि उस दुबले-पतले आदमी ने इन लोगों पर ऐसा कौन-सा जादू चला दिया है कि वे इस तरह से बात करने लगे हैं।

    हाजी सेठ कुछ क्षणों तक सोचते हैं फिर उन तीनों को लेकर अंदर चल देते हैं। एक भव्य कमरे में उन तीनों को बैठाते हैं। फिर सामने की अलमारी खोल देते हैं। रंग-बिरंगी बोतलें निकल आती हैं। नौकर काजू और कबाब की प्लेटें सजा देते हैं।

    गनपत और उसके साथियों को जीवन में इतनी अच्छी शराब कभी नहीं मिली थी। काजू और कबाब भी नहीं। डनलप के गद्दे पर ऊपर-नीचे लहराते हुए गनपत और उसके दोस्त खाने-पीने लगे हैं। अब हाजी सेठ बताना शुरू करते हैं, “वह व्यक्ति बहुत बदमाश है। गंदी बस्तियों के लोगों को बहला-फुसलाकर आंदोलन करवाता है। उन्हें मार खिलवाता है। जेल भिजवाता है। ख़ुद नेता बना हुआ है। नई उम्र के लड़कों को शागिर्दी में कर रखा है। मैंने उससे कहा था, कहो तो तुम्हें कोई नौकरी लगवा दें, यह सब धंधा छोड़ दो, नहीं माना। मैंने उसे रुपयों का भी लालच दिया। दो हज़ार ले लो। चार हज़ार ले लो। पाँच हज़ार ले लो। लेकिन वह तो महात्मा बनता है। सीधे-सीधे रुपया कैसे लेगा?”

    सेठ अभी अपनी बात पूरी तरह कह भी नहीं पाते हैं कि तेगा बीच में ही बोल उठता है, “बाक़ी सेठजी, वह आदमी ख़ुद गंदी बस्तियों में ही रहता है। लोगों को ठगता, तो ज़रूर अच्छी जगह रहता। मेरे गाँव में हैजा फैला था, तो उसने लोगों की जान बचाई थी। किसी से कुछ माँगा भी नहीं था।”

    “तुम नहीं समझोगे तेगा...वैसे लोगों को समझने में तुम्हें देर लगेगी...आख़िर मैं तुमसे ही पूछता हूँ, वह ऐसा क्यों करता है। मैं कुछ करता हूँ, धन-दौलत के लिए। दुनिया का हर आदमी धन-दौलत पाने के लिए ही कुछ कर रहा है। फिर वह ऐसे ही क्यों कुछ करेगा? बहुत बड़ा राज़ है। तुम नहीं समझोगे।”

    तेगा चुप हो जाता है। सेठजी उसे निरुत्तरित कर देते हैं। अब उसे कुछ भी समझ में नहीं आता है। फिर भी वह कहता है, “ठीक है सेठजी, लेकिन उस आदमी का सफ़ाया मत करवाइए...समझा-बुझाकर रास्ते से हटा दीजिए।”

    “मैं सबकुछ करके देख चुका हूँ तेगा। अंत में यह निर्णय किया है। तुम समझाकर देख लो। तुम्हारी सब बातें वह मान जाएगा। लेकिन जब असल बात पर आओगे तो तुम्हारी एक नहीं सुनेगा।” हाजी सेठ देर तक उस व्यक्ति को बदमाश, ग़लत और ओछा साबित करने लगते हैं। धीरे-धीरे तेगा और उसके साथियों पर शराब की खुमारी छाने लगी है। उनके अंदर की हिंसक प्रवृत्तियाँ जागने लगती हैं। उनके चेहरे के बदलते भावों को पढ़कर हाज़ी सेठ को ख़ुशी होती है कि उनकी बात उन पर असर करने लगी है। अब वे अपनी दूसरी आलमारी खोलते हैं। हरे, पीले नोटों की गड्डियाँ सामने जाती हैं। वे बोलते है, “गनपत, पिछली दफ़ा तीन हज़ार रुपए दिए थे न?”

    “हाँ।”

    “लो ये और छह हज़ार रुपए! आज रात काम हो जाना चाहिए।”

    गनपत और उसके साथियों को एक मुश्त इतनी बड़ी राशि कभी नहीं मिली थी। वे नोटों को छिपाकर रखने लगते हैं। फिर चल देते है। शराब का नशा अपने पूरे रंग में खिल चुका है। शराब भी इतनी उम्दा हो सकती है, उन्होंने पहले कभी नहीं सोचा था।

    दूसरी रात गनपत और उसके साथी पुनः उसी जगह पर पहुँच आए हैं। मलबे के ढेर के पीछे से छिपकर वे कल की ही भाँति देखते हैं। लेकिन आज दरवाज़ा बंद है। ग़ौर करने पर पाते हैं, दरवाज़ा भीतर से नहीं, बाहर से बंद है। ताला लटके रहा है। उन्हें लगता है, वह व्यक्ति कही चला गया है। सिगू कहता है, “आज ‘जतरा’ ठीक नहीं है। वह आदमी कहीं चला गया। शायद उसे मालूम हो गया।”

    गनपत कहता है, “नहीं...मालूम कैसे होगा? हम तीनों के सिवाय और कोई थोड़े ही जानता है। हाजी सेठ की बात किसी को मालूम नहीं होती। वह आदमी आता ही होगा। कल भी तो इतनी रात गए तक पढ़ रहा था।”

    तेगा नशे में जम्हाइयाँ लेता रहता है। कुछ क्षण बीत जाने के बाद तेगा कहता है, “गनपत, उस आदमी पर शुरू में वार नहीं किया जाएगा। उसे समझाया जाएगा। रुपयों का लालच दिया जाएगा। वह हत्या करने लायक़ आदमी नहीं है।”

    गनपत और सिगू, तेगा को समझाते हैं, चाहे जैसे भी हो, आज काम निबटाना ही होगा। हाजी ने जितने रुपए दिए हैं, उतने कोई और नहीं दे सकता।

    तेगा कहता है, “ठीक है। लेकिन मैं उस आदमी को धोखे से नहीं मारूँगा। उसे समझाऊँगा। अपनी बात मनवाऊँगा। नहीं मानेगा, लड़ाई-झगड़ा करने पर उतारू हो जाएगा, तब उसे मारूँगा।”

    गनपत को तेगा की यह योजना बिलकुल नई लगती है। इस तरह से तो उन्होंने कभी कोई काम नहीं किया है। लेकिन सिगू, तेगा की बात से सहमत है। गनपत चाहकर भी कुछ बोल नहीं पाता है। जानता है, बिना तेगा के वह कुछ भी नहीं कर सकता है।

    रात लगभग एक बजे के आसपास वह व्यक्ति आता है। ताला खोलकर अंदर घुसता है। लालटेन जलाता है। कपड़े बदलता है। फिर एक लोटे में पानी लेकर बाहर निकलता है। हाथ-मुँह धोता है। कुल्ला करता है। फिर अंदर चला जाता है।

    अब तेगा, सिगू और गनपत मलबे के ढेर के पीछे से उठकर चल देते हैं। ऐसे कामों में तेगा हमेशा चुपके मे जाता था और शंकित दृष्टि मे अगल-बग़ल ताकता रहता था। लेकिन इस बार वह बिलकुल निर्भीक होकर जा रहा है। लग ही नहीं रहा है कि वह किसी का सफ़ाया करने जा रहा है।

    दरवाज़े पर पहुँचकर अंदर बैठे उस व्यक्ति को संबोधित करते हुए तेगा कहता है, “भाई साहब, हम लोग आपसे कुछ बात करने आए हैं।”

    तेगा और उसके साथियों को लगता है कि यह सुनकर वह व्यक्ति डर जाएगा, क्योंकि इतनी रात गए बिलकुल अपरिचित लोगों का आना तो ठीक नहीं। लेकिन वह व्यक्ति तनिक भी डरता नहीं है। कहता है, “आप लोग अंदर जाइए।”

    तेगा और उसके साथी अंदर घुस जाते हैं। कमरा बहुत ही छोटा है। एक मेज़ और एक कुर्सी के अतिरिक्त बैठने-सोने के लिए और कुछ नहीं है। उस कमरे के आधे हिस्से में किताबें रखी हैं। तेगा और उसके साथियों ने किसी एक व्यक्ति के पास इतनी किताबें पहले कभी नहीं देखी थीं। वे हैरत से पहाड़ की तरह लगी किताबों के ढेर को देखते रहते हैं। किताबों के पास ही कमरे के शेष भाग में ज़मीन पर एक चटाई बिछी हुई है। चटाई पर एक दरी है। शायद वह व्यक्ति इसी पर सोता है।

    तेगा और उसके साथियों को वह व्यक्ति दरी पर बैठने का संकेत करता है। वे तीनों दरी पर बैठ जाते हैं। वह व्यक्ति भी कुर्सी से उतरकर उन तीनों के पास ही दरी पर जाता है। तेगा कहता है, “क्यों...आप कुर्सी पर बैठिए।”

    वह व्यक्ति जवाब देता है, “आप लोग उम्र में मुझसे बड़े हैं। मेरे बड़े भाई के बराबर हैं। आप लोगों के सामने मैं कुर्सी पर नहीं बैठूँगा। हम यहीं ज़मीन पर साथ-साथ बैठेंगे।”

    उस व्यक्ति की पहली बात तो तेगा के अंदर कहीं बहुत गहरे तक उतर जाती है। वह उस व्यक्ति के चेहरे को टकटकी लगाए देखने लगता है। गनपत और सिगू भी देखने लगते हैं। अचानक सिगू उस व्यक्ति को पहचान जाता है। एक डकैती के मामले में सिगू जेल गया था। वहाँ पहुँचने पर सिगू को वह व्यक्ति दिखा था। शायद पहले से ही वह जेल में था। लेकिन उसे अलग वार्ड मिला था। जेल में भी लोग उसकी इज्ज़त करते थे। क़ैदियों पर होने वाले ज़ुल्म के खिलाफ़ वह जेल में भी आंदोलन करता था। उस व्यक्ति को पहचान लेने के बाद सिगू का मन उसके प्रति श्रद्धा से भर जाता है। सिगू को याद है, जेल में वह उस व्यक्ति को देवता समझता था। सिगू मन ही मन तय कर लेता है, चाहे जो हो, इस व्यक्ति पर वह किसी को हाथ नहीं उठाने देगा।

    वह व्यक्ति पूछता है, “कहिए, आप लोगों का कैसे आगमन हुआ?”

    “सिगू गनपत की ओर ताकता है, गनपत तेगा की ओर। एक क्षण तक उनमें से कोई नहीं बोल पाता है। भीमपट्टी मुहल्ले में हाजी सेठ कोई कारख़ाना बनाना चाह रहे हैं। लेकिन आप उसे बनने नहीं दे रहे हैं।”

    इससे पहले कि तेगा कुछ और कहता, वह व्यक्ति बीच में ही बोल पड़ता है, “नहीं...ग़लत बात है। यह आरोप सिर्फ़ मेरे अकेले पर नहीं होना चाहिए। मैं कहता हूँ, आप लोगों ने रोक रखा है। मैं उस ज़मीन में अपना घर बनाने के लिए हाजी सेठ से नहीं लड़ रहा हूँ। उस ज़मीन में आपके, मेरे बच्चे पढ़ेंगे। आप जानते हैं, वह मुहल्ला इस मुहल्ले से भी गया-गुज़रा है। उस मुहल्ले में शहर की कोई सुविधा नहीं। अगर उम ज़मीन को हाजी सेठ दख़ल कर लेंगे तो फिर उस मुहल्ले में बच्चों के पढ़ने की कोई जगह नहीं रहेगी। शहर के दूर पड़ने वाले और महँगे स्कूलों में उस मुहल्ले के बच्चे कैसे पढ़ने जाएँगे? मैं जानता हूँ, आप लोग वैसे ही मुहल्लों के वासी हैं। हाजी सेठ के मुहल्ले में आप लोगों के घर नहीं हैं। हाजी सेठ आपके अपने हाथों से आपके घर को उजड़वाना चाहता है। सोचिए, उस मुहल्ले के बच्चे आख़िर कहाँ पढ़ेंगे? हाजी सेठ का लड़का विदेश में पढ़ता है। उनके जैसे लोगों के लिए शहर में रोज़ नए-नए स्कूल खुल रहे हैं। हम पर और आप पर कौन ध्यान दे रहा है? ग़रीबी, भुखमरी और बीमारी से हम मर रहे हैं। हमारे मुहल्ले के लोग पशुओं की ज़िंदगी जी रहे हैं। हाजी सेठ जैसे लोग कभी हमें इंसान की तरह नहीं जीने देंगे। हाजी सेठ आज उस स्कूल वाली ज़मीन को हड़प रहे हैं। कल हमारे और आपके घरों को उजड़वाएँगे। वहाँ अपने बँगले बनवाएँगे। तब हम भिखारी बन जाएँगे। सड़क के किनारे हमारा जीना-मरना होगा। आप लोगों ने स्टेशन के पास के कराहते-तड़पते भिखमंगों को ज़रुर देखा होगा। वे हाजी सेठ जैसे परिवारों के नहीं, हमारे और आप जैसे परिवारों के हैं। मैं शपथ खाकर कहता हूँ, अगर आप लोग उस ज़मीन में स्कूल नहीं बनने देना चाह रहे हैं तो नहीं बनेगा। मैं कौन होता हूँ बीच में बोलने वाला। आप लोग उसे मुहल्ले में जाकर पूछ लीजिए, उस मुहल्ले का बच्चा-बच्चा तैयार है कि यह ज़मीन हाजी सेठ को नहीं हड़पने देंगे। मैं अभी वहीं से रहा हूँ। कल सुबह फिर वहाँ एक आम सभा है। आप लोग जाकर देख लीजिए, आपके अपने बच्चे हैं, जो वहाँ सीना तानकर खड़े हैं। क्या मजाल कि हाजी सेठ उस ज़मीन पर पहुँच जाएँ।”

    वह व्यक्ति खड़ा हो जाता है। बोलते-बोलते उसका चेहरा लाल हो गया है। कमरे में धीरे-धीरे टहलते हुए वह बोलता जाता है, “हाजी सेठ मूर्ख हैं। मुझे पता चला है कि वे मेरा सफ़ाया कराना चाहते हैं। वे जानते हैं, मेरे बाद उन्हें कोई नहीं रोकेगा। लेकिन उन्हें नहीं मालूम, सारा मुहल्ला जाग उठा है। वे कितने लोगों का सफ़ाया करवाएँगे? मैं तो चाहता हूँ कि हाजी सेठ मुझे मरवा दें। आख़िर तो हमको, आपको, सबको एक दिन मरना ही है।”

    वह व्यक्ति देर तक बोलता ही रहता है; तेगा, सिगू और गनपत माथा झुकाए सुनते रहते हैं। उस व्यक्ति की बातों से वे एक अजीब-सी दुनिया में पहुँच आए हैं। आदमी ऐसे भी होते हैं, उन्हें पता नहीं था। उनके पास तो हाज़ी सेठ वाली व्याख्या थी कि हर आदमी धन-दौलत के लिए ही कुछ करता है, लेकिन उस व्यक्ति की व्याख्या कुछ और ही थी। तेगा को मन ही मन कुछ अफ़सोस हो रहा था कि वह क्यों आया? साला हाजी उनसे उनके अपने आदमी को मरवा रहा है। सिगू की आँखें छलछला आई थीं। काश! वह पहले जानता होता! गनपत को लग रहा था, अब काम नहीं होगा। हाजी को रुपए लौटाने होंगे, इतने सारे रुपए।

    वह व्यक्ति पूछता है, “आप लोग चुप क्यों हैं? कुछ बोलिए। जब तक आप कुछ कहेंगे नहीं, मैं कल से उस ज़मीन पर नहीं जाऊँगा।”

    तेगा माथा उठाता है। जीवन में पहले कभी उसकी आँखों में आँसू नहीं आए थे, लेकिन आज ये आँसू अचानक कहाँ से गए हैं? तेगा भर्राई हुई आवाज़ में कहता है, “हमें माफ़ कर दीजिए। हमें कुछ मालूम नहीं था। अज्ञानवश हम यहाँ चले आए हैं।”

    सिगू अब अपने को रोक नहीं पाता है। अपनी आँखें पोंछने लगता है। पहली दफ़ा गनपत भी आर्द्र हो उठता है। वह व्यक्ति बारी-बारी से उन सबको गले से लगाता है।

    अब तक रात के लगभग तीन बज चुके होते हैं। वह व्यक्ति कहता है, “मैंने अभी तक कुछ खाया नहीं। आप लोगों ने भी तो नहीं खाया होगा। मेरा खाना रखा है। बाँट-बाँटकर हम सभी खाएँगे।”

    और तेगा तथा उसके साथियों के लाख मना करने के बावजूद वह व्यक्ति कमरे के एक कोने में ढके अपने खाने को सामने लाता है। दिन की बनाई हुई छह रोटियाँ, जो सूख गई हैं। काग़ज़ की पोटली में थोड़ा नमक, एक हरी मिर्च और प्याज़ का एक टुकड़ा।

    वह व्यक्ति खाना बीच में रख देता है और उनके हाथ पकड़कर विनयपूर्वक खाने का आग्रह करता है। वे सब खाने लगते हैं। खाते हुए सोचते रहते हैं, हाजी कितना झूठा है। बोल रहा था, वह व्यक्ति गंदी बस्तियों के लोगों को फुसलाकर अपना मक़सद साधता है। मज़े मार रहा है। साला हाजी बेईमान! दग़ाबाज़!

    खाना खा चुकने के बाद वह व्यक्ति सबसे आग्रह करता है कि वे इस समय और कहीं जाएँ। चुपचाप यहीं सो रहें। सुबह जाएँगे।

    वह व्यक्ति और वे तीनों ज़मीन पर बिछाई गई चटाई और दरी को अलग-अलग कर उस पर सो रहते हैं। लालटेन बुझा दी जाती है। कोई किसी से कुछ नहीं बोलता है। लेकिन हरेक के अंतर में वार्तालाप चलता रहता है। वे आँखें मूँदे इस नई वास्तविकता में साक्षात्कार करते रहते हैं।

    सुबह, एकदम तड़के ही वे तीनों उस व्यक्ति को सोए छोड़ वहाँ से चल देते हैं। उस मुहल्ले को लाँघकर वे मुख्य सड़क पर जाते हैं। अपने मकान की बालकनी में टहलता हाजी उन्हें दूर से ही दिखाई पड़ने लगता है। परिणाम जानने के लिए वह उन्हीं का रास्ता देख रहा है। वे तीनों सीधे हाजी सेठ के पास पहुँचते हैं। उनके चेहरे को देखते ही हाजी सेठ को लगता है, आज फिर काम नहीं हुआ। इससे पहले कि हाजी सेठ कुछ बोलते, तेगा हाजी सेठ के दिए नोटों को उसके ऊपर फेंकते हुए कहता है, “हाजी सेठ! मैं तुमको चेतावनी देने आया हूँ। अगर उस आदमी को कुछ हो गया तो मैं तुझे ज़िंदा नहीं छोड़ूँगा।”

    हाजी सेठ चौंकते हुए पूछते हैं, “क्या बात है? क्या हुआ?”

    लेकिन वे तीनों वहाँ से चल देते हैं। कोई जवाब नहीं देता। हाजी सेठ पुकारते हैं, ज़रा रुको तो। मेरा सामान तो दे दो।”

    लेकिन उनमें से कोई नहीं ठहरता। गनपत भी नहीं। हाजी सेठ की चिंता और परेशानी एकाएक बढ़ जाती है। उन्होंने अपना विदेशी रिवॉल्वर काम करने के लिए इन्हें दिया था। इनके देशी हथियारों पर उन्हें विश्वास नहीं। लेकिन यह क्या? उनका हथियार लौटाए बिना सब चले जा रहे हैं।

    हाजी सेठ की समझ में नहीं रहा है कि यह सब कैसे हो रहा है? उनका वार कभी ख़ाली नहीं जाता था। इस काम के लिए उन्होंने सबसे अधिक रुपए फेंके थे। वह आदमी कैसा है? उसने कौन-सा तीर चला दिया है? आज उनका अपना एक हथियार भी ग़ायब हो गया। अचानक आज यह सब क्या हो रहा है?

    हाजी सेठ चिंता और परेशानी में डूबते-उतरते अपनी बालकनी में टहलते रहते हैं। ठीक उसी समय वह व्यक्ति उनकी ओर आता हुआ दिखाई पड़ता है। वे ग़ौर से उस व्यक्ति को देखने लगते हैं। वह हाजी सेठ की ओर ही रहा है। हाजी सेठ के पास आकर वह अपने झोले से हाजी सेठ का रिवॉल्वर निकालता है और उन्हें सौंपते हुए कहता है, “सेठजी, आपका हथियार आपके आदमी मेरे यहाँ छोड़ आए हैं। सोचा, आपको वापस कर दूँ।”

    सेठ अपना रिवॉल्वर ले लेता है। लेकिन सुबह के सर्द मौसम में भी उसके चेहरे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आती हैं। उसके हाथ काँपने-से लगते हैं। वह रिवॉल्वर सँभाल नहीं पाता है। पास ही रखी कुर्सी पर रख देता है।

    वह व्यक्ति वहाँ से चलने को होता है कि सेठ के मुँह से बोल फूट पड़ते हैं, “क्षमा कीजिएगा, मैं शर्मिंदा हूँ। आइए, ज़रा चाय पी लीजिए।”

    वह व्यक्ति आगे बढ़ते हुए कहता है, “मेरे पास समय नहीं सेठ जी, उस ज़मीन में आज लोगों की आम सभा है। मैं वहीं जा रहा हूँ।”

    सेठ कहता है, “ज़रा एक मिनट सुनिए तो। उस ज़मीन में अब कोई आम सभा मत करवाइए। मैंने फ़ैसला कर लिया है कि अब उस ज़मीन पर मैं नहीं जाऊँगा। अपनी ग़लती के लिए मुझे बहुत अफ़सोस है।”

    यह व्यक्ति पलटकर सेठ की ओर देखता है। सेठ सिर से पाँव तक पसीने से भीग गया है। वह फटी-फटी आँखों से उस व्यक्ति को देख रहा है, जिस व्यक्ति को वह एक निहायत तुच्छ और हल्का आदमी समझता था। उस व्यक्ति को चुटकियों में मसलकर ख़त्म कर देने की सामर्थ्य सेठ अपने अंदर रखता था, लेकिन आज उस आदमी के सामने सेठ को अपनी अट्टालिका और अपना व्यक्तित्व बहुत बौना मालूम पड़ने लगता है। सेठ किसी अज्ञात भय से काँपने-सा लगता है। सेठ की हालत देख उस व्यक्ति के होठों पर मुस्कान की एक हल्की रेखा उभर आती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी कहानी संग्रह (पृष्ठ 389)
    • रचनाकार : मिथिलेश्वर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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