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गांधी जयंती

gandhi jayanti

संजय कुंदन

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गांधी जयंती

संजय कुंदन

और अधिकसंजय कुंदन

    “अरे! प्रभुदयाल तो मंत्री बन गया। पिताजी ने अख़बार से सिर निकालकर कहा।

    “प्रभुदयाल! मैं चौंका।

    “यह वही है न, जो तुम्हारे साथ पढ़ता था? इसकी फ़ोटो देखो।” पिताजी ने मेरी ओर अख़बार बढ़ाया।

    राज्य के नए मंत्रिमंडल के शपथ लेने का समाचार था। मंत्रियों की तस्वीरें छपी थीं जिसमें एक फ़ोटो थी डिप्टी मिनिस्टर प्रभुदयाल की। हाँ, यह वही प्रभुदयाल था, मेरे हाईस्कूल का सहपाठी।

    मुझे पिताजी की याददाश्त पर आश्चर्य हुआ। इधर वह हर बात भूलने लगे थे। लेकिन उन्हें प्रभुदयाल का चेहरा याद था जबकि उन्होंने उसे सालों पहले बस एक बार देखा था।

    “वही है न?” पिताजी ने पूछा।

    “हाँ-हाँ, वही है।” मैंने कहा और चाय पीने लगा।

    “मंत्री बन गया...!” पिताजी बुदबुदाए, फिर अख़बार रखकर उन्होंने अपनी चाय उठाई।

    क़रीब दस वर्षों में प्रभुदयाल के चेहरे में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया था। हो सकता है उसे सामने देखें तो वह थोड़ा अलग नज़र आए।

    “वह पॉलिटिक्स में कब गया?” पिताजी ने चाय की चुस्की लेकर पूछा।

    “मुझे ठीक-ठीक मालूम नहीं। उसका एक दोस्त मिला था साल भर पहले। वही बता रहा था कि प्रभुदयाल अपने गाँव का सरपंच बन गया है।

    “अच्छा... सरपंच से सीधा मंत्री! इतने कम समय में इतनी तरक़्क़ी... ऐसे ही लोगों का ज़माना है।” यह कहकर पिताजी सामने देखने लगे, फिर कहीं खो गए।

    मैंने प्रभुदयाल की तस्वीर पर नज़र डाली। लगा जैसे वह मुझे घूर रहा हो। उसकी आँखों में पहले जैसी ही विरक्ति नज़र आई। क्या अब भी वह मेरे प्रति मन में उतनी ही नफ़रत रखता होगा जितनी स्कूल में रखता था?

    वह क्लास में सबसे पीछे बैठने वाले लड़कों में से था। सिर्फ़ बेंच पर बल्कि पढ़ाई में भी वह सबसे पीछे रहा था। जबकि मैं क्लास में अव्वल रहता था।

    मेरा-उसका संवाद एक अप्रिय प्रसंग से शुरू हुआ था। मैं क्लास का मॉनीटर था। कक्षा में शांति बनाए रखने की ज़िम्मेवारी मेरी थी। टीचर जब नहीं होते या क्लास-वर्क चेक कर रहे होते तो मैं इस बात का ध्यान रखता कि कोई बातचीत करे। जो बच्चे बात करते मैं उनके नाम ब्लैक बोर्ड पर लिख देता था। एक दिन मैंने प्रभुदयाल को बात करते हुए देखा। तब मुझे उसका नाम मालूम नहीं था। मैंने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?

    “क्यों? उसने मुँह बनाकर कहा।

    “तुम बात कर रहे हो।” मैंने कहा।

    हम बात नहीं कर रहे हैं।

    “ठीक है। अब बात मत करना, लेकिन अपना नाम तो बता दो।

    “मेरा नाम प्रभुदयाल है।” उसने फिर उसी तरह मुँह बनाया।

    उसने मेरी सलाह नहीं मानी और उसी तरह बातें करता रहा। मैंने उनका नाम ब्लैक बोर्ड पर लिख दिया। टीचर ने उसे दो छड़ी जमाई।

    लंच ब्रेक में मैं झूला झूल रहा था। प्रभुदयाल ने पीछे से झूला पकड़ लिया और बोला, “मॉनीटर बन गए तो अपने आपको बड़ा क़ाबिल समझते हो।”

    मैंने झूले से उतरकर कहा, “प्रभुदयाल, ऐसी कोई बात नहीं है। मुझे तुमसे कोई दुश्मनी थोड़े ही है! जो बात करता है, मैं उसका नाम लिखता हूँ। तुम बात क्यों कर रहे थे?

    उसने कहा, तुम हमको ठीक से जानते नहीं हो न। स्कूल से बाहर निकलो तब बताएँगे।

    मैं भौंचक रह गया। आज तक किसी ने मुझसे इस तरह बात नहीं की थी। मेरे जी में आया कि जाकर क्लास टीचर को बता दें। फिर सोचा कि प्रभुदयाल इस स्कूल में नया है, जल्दी ही यहाँ के तौर-तरीक़े सीख जाएगा।

    दो-तीन दिनों के बाद फिर ऐसा ही कुछ हो गया। मैं शाम को सब्ज़ी लाने बाज़ार गया था। पान की दुकान पर मुझे प्रभुदयाल दो-तीन लड़कों के साथ दिखाई पड़ा। मुझे उसकी धमकी याद आई। मैं थोड़ा सहमा।

    तभी मैंने देखा कि प्रभुदयाल और उसके दोस्तों ने सिगरेट सुलगाई और दुकान के पीछे जाकर कश लेने लगे।

    मैं यह भूल गया कि मैं बाज़ार में हूँ। मुझे लगा कि क्लास में हूँ और मॉनीटर होने के नाते प्रभुदयाल को ग़लत काम करने से रोकना मेरा फ़र्ज़ है।

    यह सोचकर मैं उन लोगों के पास पहुँच गया। प्रभुदयाल मुझे देखकर हैरान रह गया। वह कुछ बोलता इससे पहले ही मैंने कहा, “तुम सिगरेट पी रहे हो?”

    “नहीं, हुक्का पी रहे हैं।” उसने जवाब दिया। उसके दोस्त हँस पड़े।

    मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसे यह बात किस तरह समझाऊँ कि धूम्रपान बुरी बात होती है। इसी उम्र से सिगरेट पीना घातक है।

    “तुमको भी पीना है क्या?” प्रभुदयाल ने पूछा।

    “देखो, अगर यह बात तुम स्कूल में किसी से बताओगे तो टाँग चीर देंगे।” प्रभुदयाल ने फिर धमकी दी।

    “ठीक है नहीं बताऊँगा। लेकिन मेरी एक बात मान लो। यह बुरी आदत है, छोड़ दो इसे। इससे नुक़सान तुम्हारा ही होगा।”

    “अच्छा!” प्रभुदयाल मुस्कुराया, “तू गाँधी जी है क्या... सबको सुधारने चला है।”

    इसको भी पिलाओ रे।” यह कहकर उसके एक दोस्त ने मेरे मुँह से सिगरेट सटाने की कोशिश की। तंबाकू की गंध और धुएँ से मुझे उबकाई आने लगी। मैं तेज़ी से भागा।

    दूसरे दिन वह मुझे पहली घंटी से ही घूरता रहा। शायद उसे डर था कि मैं सिगरेट वाली बात कहीं टीचर को बता दें। लेकिन मैंने उसकी शिकायत नहीं की। छुट्टी के बाद जब मैं निकलने लगा तो वह मेरे पास आया। मेरे कान से अपना मुँह सटाकर बोला, “क्या गाँधी जी!” मैंने कुछ नहीं कहा, चुपचाप चला गया।

    प्रभुदयाल पढ़ने में फिसड्डी था, लेकिन खेल-कूद में उसकी काफ़ी रुचि थी। वह स्पोर्ट्स और पीटी टीचर की नज़र में चढ़ गया। पीटी टीचर ने उसे कमांडर बना दिया। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को हमारी परेड का नेतृत्व वही करता था। सामान्य दिनों में भी हमारी परेड वही कराता था। अक्सर पीटी टीचर सारी ज़िम्मेदारी उसके ऊपर छोड़कर चले जाते थे। तब वह किसी किसी बहाने मुझे परेशान करने की कोशिश करता। वह जब-तब मुझसे कहता, “गाँधीजी जरा ठीक से खड़ा होइए... तन के। पैर ठीक से मिलाइए गाँधीजी।” एक दिन वह इसी तरह ड्रिल करा रहा था। चूँकि स्कूल कंपाउंड छोटा था, इसलिए हम लोग बाहर सड़क पर परेड कर रहे थे। प्रभुदयाल ने हमें आदेश दिया, 'विश्राम' सारे लड़के हाथ पीछे कर विश्राम की अवस्था में खड़े हो गए।

    उस समय सड़क पर एक लड़की चली जा रही थी। अचानक प्रभुदयाल लड़की की तरफ़ मुड़ गया और उसके साथ चलने लगा। प्रभुदयाल के हाथ में एक छड़ी थी जिसे वह परेड कराते समय अपने साथ रखता था। उसने छड़ी से लड़की की चुन्नी खींच ली और उसे छड़ी में झंडे की तरह लपेटकर ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद' करने लगा। लड़की का चेहरा रुआँसा हो गया। उसने चुन्नी माँगी तो प्रभुदयाल ने उसके गाल पर चिकोटी काट ली। मुझसे रहा नहीं गया। मैं क़तार से बाहर निकला और प्रभुदयाल की छड़ी से चुन्नी निकालकर लड़की को दे दी। वह चुन्नी लेकर भागी। तुम लाइन से बाहर कैसे गए?” प्रभुदयाल गरजा।

    “और तुम क्या कर रहे थे? तुम्हें ज़रा भी शर्म नहीं आई? तुम परेड कराते-कराते छेड़खानी करने लगे।” मैंने भी ज़ोर से कहा।

    तभी पीटी टीचर पहुँचे। उन्हें देखते ही प्रभुदयाल सँभल गया। उसने लड़कों को आदेश दिया, “सावधान। आगे बढ़।” लड़के मार्च करने लगे। मैं भी लाइन में घुस गया। परेड ख़त्म करके सभी क्लास में आए पर प्रभुदयाल कोई बहाना बनाकर घर चला गया।

    लड़के उसी घटना की चर्चा कर रहे थे। कोई प्रभुदयाल को ग़लत नहीं ठहरा रहा था। सब उसके साहस पर चकित थे। उसकी हीरो की छवि बन गई थी। लेकिन मैं दु:खी था।

    उस दिन क्लास ख़त्म होने के बाद जो कुछ हुआ, उसे शायद जीवन भर नहीं भूल पाऊँगा।

    मेरा घर स्कूल से तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर था। जब मैं साइकिल से लौट रहा था तो रास्ते में मुझे प्रभुदयाल मिला। मैंने उसे दूर से ही देख लिया था। ऐसा लग रहा था जैसे वह मेरा ही इंतज़ार कर रहा हो।

    मैं ज्यों ही क़रीब पहुँचा वह एकदम मेरे सामने खड़ा हुआ। उसने हैंडल पकड़ ली।

    नीचे उतर।” प्रभुदयाल ने तैश में कहा।

    उतरकर मैंने साइकिल स्टैंड पर चढ़ा दी।

    “तुम जल्दी गए...।” मैंने स्थिति को सामान्य बनाने की कोशिश की।

    “तू अपना गाँधीपना छोड़ेगा कि नहीं? यह कहकर उसने मेरा कॉलर पकड़ लिया।

    “मतलब...? मैं और कुछ कह सका।

    “अबे गाँधी की औलाद...।” यह कहकर उसने एक घूँसा मेरे जबड़े पर जमा दिया। मैं दर्द से कराह उठा। लगा जैसे सारे दाँत हिल गए।

    मैं जब तक सँभलता, वह चला गया। मैं अपमान की तेज़ाबी नदी में इस तरह कभी नहीं गिरा था। मारने की बात तो दूर, मुझे आज तक किसी ने डाँटा तक नहीं था, घर में स्कूल में। मुहल्ले में एक शरीफ़ और प्रतिभाशाली छात्र के रूप में मेरी प्रतिष्ठा थी, इसलिए प्रभुदयाल का यह आघात मुझे अंदर तक हिला गया।

    मेरे मुँह से ख़ून निकल आया था। यह देखकर मैं रो पड़ा। घर जाने की इच्छा नहीं हो रही थी। साइकिल पर बैठने की बजाय मैं उसे लुढ़काता हुआ बड़ी देर बाद घर पहुँचा।

    मैंने सबसे पहले कुल्ला किया। ख़ून बंद हो गया था, इसलिए निश्चिंत हुआ। सोचा कि यह बात किसी को नहीं बताऊँगा, हालाँकि मैं पिताजी से कुछ भी छुपाता नहीं था। लेकिन रात में पिताजी को मेरा लटका मुँह देखकर शक हो गया। उन्होंने बार-बार पूछा तो मैं अपने को रोक नहीं पाया। सब कुछ बता डाला। उन्होंने कहा, मैं कल तुम्हारे स्कूल चलूँगा।”

    मैं डर गया। मुझे लगा कहीं बात और बिगड़ जाए। इसलिए मैंने उनसे विनती की कि वह ऐसा करें। मगर वह नहीं माने।

    मैं समझ नहीं पा रहा था कि पिताजी का इरादा क्या है। प्रिंसिपल से शिकायत करने पर प्रभुदयाल और भी भड़क सकता था। वह मुझे और परेशान कर सकता था।

    हम दोनों स्कूल पहुँचे। तब घंटी नहीं लगी थी, मैंने देखा कि प्रभुदयाल वालीबॉल खेल रहा है। मैंने पिताजी को इशारे से बताया कि वही प्रभुदयाल है।

    पिताजी ने मुझे उसे बुलाकर लाने को कहा। मैं उसके पास जाने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। पिताजी समझ गए। वे ख़ुद उसके पास चले गए। उन्होंने पहले उसे बुलाया, फिर मुझे। प्रभुदयाल ने पिताजी को उसी तरह घूरा जैसे मुझे घूरता था। पिताजी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “बेटे, आप ही प्रभुदयाल हैं?

    उसने सिर हिलाया। पिताजी ने फिर पूछा, “आप लोगों में झगड़ा क्यों हो गया था?

    “इसको समझा दीजिए... ये बहुत बक-बक करता है।

    प्रभुदयाल ने उसी अंदाज़ में कहा जिस तरह मुझे धमकाया करता था। पिताजी ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, “जब साथ पढ़ते हो तो मिल-जुलकर रहा करो... तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं?

    “ठेकेदारी करते हैं।” प्रभुदयाल यह कहकर मुझे देखने लगा।

    “आप लोग प्रेम से रहा कीजिए। पिताजी ने दुहराया।

    प्रभुदयाल की मुख-मुद्रा से लगा जैसे उसके लिए पिताजी की यह बात बकवास के सिवा और कुछ हो। तभी घंटी बज गई। पिताजी चले गए। क्लास में पहुँचने के रास्ते में प्रभुदयाल ने मुझसे कहा, “ख़ुद निपटने का दम नहीं है रे... बाप को बुलाकर लाया था।

    शाम को दफ़्तर से लौटकर घर पहुँचते ही पिताजी ने पूछा, “क्या उस लड़के ने फिर कुछ कहा था?”

    मेरे ‘नहीं' कहने पर वह आश्वस्त हुए। प्रभुदयाल से मिलकर पिताजी काफ़ी खिन्न थे। उन्होंने हिदायत दी, “देखो, उस जैसे लड़कों से एकदम दूर रहो। वह एक बिगड़ैल लड़का है। उसके पास कोई संस्कार है, तमीज़। वह ठेकेदार का लड़का है। उसे भी बड़ा होकर ठेकेदार बनना है, लेकिन तुम्हें तो पढ़ना-लिखना है, बड़ा आदमी बनना है।”

    वह कुछ भी कहे, कुछ भी करे—उस पर ध्यान मत दो। अपना जीवन बनाओ। तुम बुराई को रोक नहीं सकते तो कम से कम उससे दूर तो रह सकते हो। और हाँ, क्लास की मॉनिटरी छोड़ो। इससे कुछ मिलेगा तो नहीं, कुछ लोगों को दुश्मन ज़रूर बना लोगे तुम।”

    मैंने दूसरे ही दिन क्लास मॉनिटरी छोड़ दी। फिर प्रभुदयाल से किसी बात पर तकरार नहीं हुई। मैं चुपचाप सिर झुकाए स्कूल पहुँचता। क्लास ख़त्म होते ही साइकिल उठाकर घर पहुँच जाता। लंच ब्रेक में प्रभुदयाल सामने पड़ता तो मैं अपना रास्ता बदल लेता या सिर झुकाकर निकल जाता। वह भी मुझसे कुछ नहीं कहता था। लेकिन उसके भीतर मेरे प्रति कड़वाहट पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई थी।

    एक दिन मैं अनजाने ही उसके मुहल्ले पहुँच गया। उस समय आटा के पैकेट का चलन बहुत ज़्यादा नहीं था। लोग गेहूँ ख़रीद कर आटा चक्की में पिसवाते थे। हमारे घर में यह ड्यूटी पिताजी की थी, लेकिन एक दिन यह काम मुझे सौंपा गया। पिताजी ने मुझे चक्की का पता बताया। मैं साइकिल पर गेहूँ लादकर पहुँच गया। मैंने चक्की वाले को गेहूँ थमाया और उसके पिसे जाने का इंतज़ार करने लगा। तभी एक आवाज़ सुनाई पड़ी, “अरे गाँधीजी!” मुझे कानों पर विश्वास नहीं हुआ। थोड़ी देर बाद फिर वही आवाज़ आई। मैं इधर-उधर देखने लगा। मैंने महसूस किया कि यह आवाज़ किसी छत से रही है। ज़रूर प्रभुदयाल है, नहीं तो मुझे और कौन गाँधीजी कह सकता है।

    मेरा गेहूँ पिस गया। मैंने आटा लिया और झोला लादकर चलने लगा, तभी देखा कि एक मकान का गेट खोलकर प्रभुदयाल चला रहा है। मैंने सोचा कि उससे बात करना बेकार है। मैंने साइकिल तेज़ कर दी। तभी पीछे से उसकी आवाज़ आई, डर कर भाग गया रे! अरे डरपोक गाँधी।

    मैंने तय किया कि अब कभी इस चक्की पर नहीं आऊँगा, लेकिन कुछ दिनों बाद फिर आना ही पड़ा। मैं रास्ते भर मनाता रहा कि प्रभुदयाल से सामना हो। इस बार जो हुआ वह मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था।

    मैं चक्की पर ज्यों ही पहुँचा वहाँ पास ही कंचे खेल रहे कुछ लड़के मुझे घूरने लगे। उनमें से कुछ काफ़ी छोटे थे। वे मेरी ओर इशारा करके आपस में कुछ बातें करते और हँसते थे। जब मैं आटा लेकर जाने लगा तो उनमें से एक ने धीरे से कहा, ”ऐ गाँधी।

    मैंने जब उसकी ओर देखा तो वह भाग खड़ा हुआ। फिर दूसरे और तीसरे ने भी ऐसा ही किया। मैं बिना कुछ कहे चल पड़ा। वे सब मेरी साइकिल के पीछे-पीछे दौड़े और गाने लगे : “अरे गाँधी घोंचू, करता ढेंचू ढेंचू।” मैं हैरान रह गया कि ये लड़के यह सब कैसे जानते हैं। क्या प्रभुदयाल ने पूरे मुहल्ले में यह सब प्रचारित कर रखा है? आख़िर वह चाहता क्या है? मैं बड़े भारी मन से घर लौटा। आते ही मैंने सबसे कह दिया कि मैं गेहूँ पिसवाने नहीं जाऊँगा, चाहे घर में रोटी पके या नहीं।

    प्रभुदयाल ने बाद में स्कूल आना काफ़ी कम कर दिया था। स्कूल में उसके ग्रुप के कुछ लड़कों की बातचीत कभी-कभार कानों में पड़ जाती थी। वे लोग बखान करते कि प्रभुदयाल की शहर के नामी गुंडों से जान-पहचान है। एक बार एक बड़े व्यापारी के यहाँ डाका पड़ा तो पुलिस प्रभुदयाल को पूछताछ के लिए ले गई थी। वे लोग यह भी बताते कि प्रभुदयाल के पिताजी का उठना-बैठना बड़े-बड़े नेताओं के साथ होता है।

    कभी-कभी प्रभुदयाल स्कूल के गेट के बाहर दिखाई पड़ता। उसके दोस्त उसे घेरे रहते। प्रभुदयाल अक्सर स्कूल के सामने की चाय की दुकान पर बैठा रह जाता, लेकिन क्लास नहीं करता। एक दिन सुना कि उसने गणित के शिक्षक शर्मा जी की पिटाई कर दी। उस घटना का मेरे ऊपर अजीब असर पड़ा। मैं कई दिनों तक सपने में देखता रहा कि प्रभुदयाल ने शर्मा जी को उसी तरह रोका जैसे मुझे रोका था। फिर “अरे गाँधी की औलाद” कहते हुए एक ज़ोरदार घूँसा शर्मा जी के जबड़े पर जमा दिया। शर्मा जी के मुँह से ख़ून निकला, ठीक मेरी तरह।

    कुछ दिनों बाद उसने स्कूल छोड़ दिया। पता चला कि बोर्ड की परीक्षा वह अपने गाँव के किसी स्कूल से देगा। कॉलेज के दिनों में उसके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं मिली। पिछले साल एक लड़के ने बताया कि वह अपने गाँव का सरपंच बन गया है।

    इस बीच एम.ए. करने के बाद मैं कई प्रतियोगिता परीक्षाओं में बैठा, पर नाकाम रहा। कुछ जगहों पर इंटरव्यू देने गया तो वहाँ पहले ही रिश्वत की माँग की गई, इसलिए मामला गड़बड़ा गया। पिताजी राज्य सरकार के एक निगम की नौकरी से रिटायर हुए थे। निगम की वित्तीय हालत ख़राब हो चुकी थी।

    इसलिए पिछले कुछ वर्षों से पिताजी को वेतन भी नहीं मिल पाता था। अब पेंशन के नाम पर कुछ पैसे तीन-चार महीने पर मिल जाते थे। अपने बकाया पैसे सरकार से वसूलने के लिए पिताजी भागदौड़ करके थक चुके थे। मेरी छोटी बहन शादी के लायक़ हो गई थी। घर की इस हालत ने मुझे ट्यूशन करने के लिए मजबूर कर दिया था। मैं सुबह से शाम तक ट्यूशन पढ़ाने में लगा रहता था।

    मैं अब मुहल्ले के लोगों से नज़रें चुराने लगा था। उनकी आँखों में मुझे हर वक़्त कुछ सवाल दिखते थे। वह शायद यह जानना चाहते थे कि हमेशा पढ़ाई में अव्वल रहने के बावजूद मैं अभी तक क्यों बेरोज़गार बैठा हैं, जबकि सुबह-शाम सड़क नापते रहने वाले मेरी उम्र के अधिकतर लड़के रोजी-रोज़गार पा चुके थे। उनके घर बस गए थे।

    क्या सोच रहे हो? पिताजी ने पुछा।

    कुछ नहीं।” मैंने उनकी ओर देखे बग़ैर कहा। मैं अपने अतीत से बड़ी मुश्किल से बाहर निकला।

    मुझे लगता है कि...!” पिताजी कहते-कहते रुक गए। मैंने उनकी ओर देखा।

    मुझे लगता है तुम्हें प्रभुदयाल से मिलना चाहिए।”

    मुझे हँसी गई उनके इस मज़ाक पर।

    “आप भी न...!” यह कहकर मैं अख़बार पलटने लगा।

    “सुनो...। उन्होंने मुझसे अख़बार छीनते हुए कहा, मैं सीरियसली कह रहा हूँ।

    मुझे विश्वास नहीं हुआ। पिताजी ऐसा कैसे कह सकते हैं! आज से क़रीब एक दशक पहले की एक रात उन्होंने प्रभुदयाल को जम कर कोसा था। उसे नाली का कीड़ा बताया था। मुझे उससे दूर रहने की हिदायत दी थी। पर आज क्या हो गया है इनको?

    मैं वहाँ से उठकर दूसरे कमरे में चला गया, जहाँ मेरी बहन सोनी रेडियो सुन रही थी। मुझे देख वह थोड़ा सकपकाई। उसने रेडियो की आवाज़ धीमी कर दी। पिताजी भी मेरे पीछे-पीछे चले आए। उन्होंने सोनी को डाँटा, “रेडियो बंद करो। हर समय गाना सुनती रहती है।”

    मैं समझ नहीं पाया कि पिताजी अचानक तनाव में क्यों गए। उन्होंने मुझसे कहा, “तुम मेरी बात सुन क्यों नहीं रहे हो? तुम्हें प्रभुदयाल के पास जाना चाहिए।

    “किसलिए?

    उसे बधाई देने के लिए। वह मंत्री बन गया है न।”

    “यह बात आप कह रहे हैं?

    “हाँ, मैं कह रहा हूँ।

    यह मेरे लिए एक झटके की तरह था। मैंने कहा, इससे क्या हो जाएगा?

    “इससे तुम्हारी दोस्ती फिर से ज़िंदा हो जाएगी।

    “मेरी इससे दोस्ती कब थी?

    “तुम लोग साथ पढ़े हो भाई!

    आपको अच्छी तरह पता है कि उससे मेरी कभी नहीं बनी। वह मुझे सख़्त नापसंद करता था। वह मुझसे और मेरे जैसे हर आदमी से घृणा करता है।”

    “अरे वह सब तो बचपन की बातें थीं। लड़कपन में तो वह सब होता ही रहता है।

    “लेकिन वह तो मुझे भूल भी गया होगा। वह भला मुझे क्यों याद रखेगा?

    “तुम उसे याद दिलाओ। मुझे विश्वास है उसे याद जाएगा।”

    “लेकिन क्यों... यह सब मैं क्यों करूँ?” मैं झल्ला उठा।

    पिताजी ने मेरी आँखों में देखा जैसे कुछ टटोल रहे हों। थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा, “हमें उसकी ज़रूरत है।” यह बात उन्होंने मुझसे कही या अपने आपसे, मैं समझ नहीं पाया। वह चुपचाप बाहर के कमरे में चले गए।

    पिछले कुछ दिनों से मैं महसूस करने लगा था कि पिताजी में एक बदलाव गया है। उनके भीतर की मस्ती और अक्खड़पन ने जाने कहाँ मुँह छिपा लिया था। वह अक्सर बोलते-बोलते कहीं खो जाते थे या अपने आपसे बातें करने लगते थे।

    अब तक अभावों और मुश्किलों को हमारा परिवार उनकी हँसी के सहारे झेलता आया था। उनकी हँसी एक नाव थी जिसमें बैठकर हम दु:खों की उफनती नदी को पार किया करते थे। वह नैया अब थरथराने लगी थी।

    पिताजी ने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा। वह विनम्रता में झुकते थे। किसी से कुछ प्राप्ति की आशा में नहीं। उन्हें सत्ता और संपन्नता के मद में चूर या चापलूस लोग पसंद नहीं थे। हमारे कई रिश्तेदारों से, जो बड़े पदों पर थे, उनकी नहीं बन पाती थी। वह ऐसे लोगों का मज़ाक उड़ाते हुए कहते, “उसके मुँह से उसका पैसा बोल रहा है।” उनके इसी स्वभाव के कारण सोनी की शादी तय नहीं हो पा रही थी। वह रिश्ता लेकर जाते तो लड़के वालों की डिमांड सुनते ही भड़क जाते और उन लोगों को लालच और मनुष्यता जैसे विषय पर एक लंबा लेक्चर पिलाकर लौट जाते थे।

    प्रभुदयाल से मिलने की उनकी सलाह मेरे लिए एक आघात की तरह थी। मैं इसे पचा नहीं पा रहा था। जो आदमी राजनेताओं की चर्चा मात्र से बिदक जाता था, वही अब मुझे एक पॉलिटीशियन के पास जाने को कैसे कह रहा है!

    एक बार जब मेरी नौकरी के लिए रिश्वत की माँग की गई थी तो पिताजी काफ़ी विचलित हो गए थे। उस दिन वह बड़ी देर तक देश के लीडरों को कोसते रहे थे। उन्हें पहली बार मैंने गाली देते हुए सुना। आज उस आदमी का रवैया इतना कैसे बदल गया?

    प्रभुदयाल से मुलाक़ात की कल्पना ही मुझे असहज बना रही थी। पिताजी कैसे सोचते हैं कि हमारी तथाकथित दोस्ती फिर से जीवित हो जाएगी। आख़िर प्रभुदयाल मेरी बात सुनेगा क्यों? इस बीच उसके कितने दोस्त बन गए होंगे, कितने ही दरबारी...।

    तभी पिताजी की आवाज़ कानों में पड़ी। वह माँ से मेरे बारे में कह रहे थे, यह मेरी बात समझ क्यों नहीं रहा है! यह मेरी तरह बनना चाहता है... मेरी तरह। क्या मिला मुझे...?”

    मैं भी उनके पास चला गया। मुझे देखते ही वह चुप हो गए। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, “आपको क्या लगता है कि मैं जाऊँगा और प्रभुदयाल मुझे गले से लगा लेगा? फिर उससे मिलना इतना आसान नहीं है। क्या आप नहीं जानते कि एक साधारण आदमी का एक मंत्री से मिलना कितना कठिन होता है?

    “मुश्किल तो है, लेकिन मिलने वाले मिल ही आते हैं। लोग कहाँ-कहाँ से नहीं चले आते हैं... दूर का कोई कोई रिश्ता निकालकर। तुम तो उसके साथ पढ़े हो, उसके दोस्त हो।” पिताजी बोलते-बोलते चुप हो गए। थोड़ी देर बाद कुछ सोचकर उन्होंने कहा, “अगर तुम नहीं जाओगे तो मैं जाऊँगा।” इस बात से मैं सहम गया। मुझे वह दिन याद गया, जब वह प्रभुदयाल से मिलने मेरे स्कूल गए थे। मैं नहीं चाहता था कि एक बार फिर वह अपमानित हों।

    मैंने कहा, ठीक है, मैं चला जाऊँगा। लेकिन मैं उससे कहूँगा क्या?

    पिताजी बोले, “कहोगे क्या, उसे बधाई देना। कहना कि वह तुम्हें याद रखे, तुम्हारा ख़याल रखे। हाथ जोड़कर प्रणाम करना और कहना कि...।” यह कहकर वह खो गए।

    मैं रुआँसा हो गया। अगर आज हमारी हालत ठीक-ठाक रहती तो पिताजी ऐसा क्यों सोचते? क्यों वह अपनी आत्मा से इस तरह लड़ते?

    पिताजी अपने कमरे में आए और आँखें बंद कर लेट गए। उनके चेहरे पर बेचारगी झलक रही थी। वह एक कटे हुए पेड़ की तरह नज़र रहे थे। कभी इसी पेड़ की खोखल में हमने जीवन के सबसे सुखद दिन गुज़ारे थे।

    मुझे प्रभुदयाल से मिलने जाना ही होगा। मैं कपड़े बदलकर तैयार होने लगा, तभी माँ गई। बोली, “जा रहे हो क्या?

    “हाँ, वहीं जा रहा हूँ।”

    ''अगर मन नहीं है तो मत जाओ। तेरे पिताजी तो बस ऐसे ही कहते रहते हैं।

    “चला जाता हूँ, ट्राई करने में क्या हर्ज है।

    खाने के समय तक जाओगे न?

    “पता नहीं।” मैंने जूते का फीता बाँधते हुए कहा।

    पिताजी की नाक बजने लगी थी। एक अजीब सों-सों की आवाज़ रही थी, करुण पुकार की तरह।

    मैं निकल पड़ा। पिताजी ने कहा कि उसे प्रणाम करूँ, उससे हाथ जोड़कर बात करूँ।

    “मंत्री जी, मुझे नौकरी दिला दीजिए। मेरी बहन की शादी करा दीजिए मिनिस्टर साहब। पिताजी के बक़ाया पैसे दिलवा दीजिए...।” मैंने देखा अपने आप को प्रभुदयाल से यह सब कहते हुए। यह मैं क्या कर रहा हूँ। मैं ऐसा कर सकता हूँ? मैंने आज तक किसी को यह भनक नहीं लगने दी कि हम लोग कष्ट में हैं। मैंने अपनी ओर से पूरी कोशिश की कि मेरे चेहरे पर शिकन तक आए।

    मैं उस आदमी के सामने कैसे गिड़गिड़ा सकता हूँ जिसने मेरा और मेरे पिता का अपमान किया, जिसने मेरे प्रिय शिक्षक की पिटाई की, जिसने हर वक़्त मुझे घृणा की नज़र से देखा।

    मैं प्रभुदयाल के मुहल्ले में खड़ा था। यहाँ सब कुछ बदला-बदला नज़र आया। आटा चक्की की जगह पीसीओ और मोबाइल की दुकान खुल गई थी। प्रभुदयाल का घर भी कहीं नहीं दिख रहा था। उस जगह पर एक बड़ा अपार्टमेंट खड़ा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसका मकान आख़िर गया कहाँ!

    तभी एक आदमी पर मेरी नज़र पड़ी। मैंने उससे पूछा, “प्रभुदयाल जी का घर कहाँ है?

    उस सज्जन ने उसी अपार्टमेंट की ओर इशारा करके कहा, “यह उन्हीं का है। लेकिन वह रहते हैं शास्त्रीनगर वाले मकान में, हालाँकि दो-तीन दिन बाद तो वो सरकारी बंगले में चले जाएँगे।”

    “शास्त्रीनगर में कहाँ? मैंने पूछा।

    उसने मुझे ग़ौर से देखा। फिर पता बताया। मैंने सोचा क्यों आज जाने का इरादा छोड़ दिया जाए। कल चला जाऊँगा, लेकिन तभी पिताजी का चेहरा याद गया।

    मैं रिक्शे पर बैठा और शास्त्रीनगर पहुँच गया। प्रभुदयाल का घर ढूँढ़ने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। देखकर ही समझ में गया कि यह किसी मंत्री का घर होगा। घर के बाहर कई गाड़ियाँ खड़ी थीं। कई लोग आ-जा रहे थे।

    मैं कैसे इस तिलिस्म में दाख़िल हो पाऊँगा? जीवन में पहली बार किसी राजनेता के घर पहुँचा था। उनसे मिलने के लिए क्या नियम-क़ायदे होते हैं, मुझे नहीं मालूम।

    यहाँ हर तरह के लोग दिख रहे थे। गाँव के ठेठ लोग, कुछ मुस्टंडे तो कुछ भद्र पुरुष। इतने सारे लोगों को पारकर मैं कैसे पहुँच पाऊँगा प्रभुदयाल के पास? मैं साहस करके भीतर अहाते में आया। वहाँ कुर्सियाँ लगी थीं। कुछ लोग उन पर बैठे गप्प मार रहे थे। क्या ये लोग प्रभुदयाल के परिवार के लोग हैं या मेरी तरह याचक?

    मैं बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता रहा। कुछ लोग बाहर से आते थे और सीधा अंदर घुस जाते थे, फिर कुछ देर बाद अंदर से कुछ लोग बाहर निकलते थे। मैंने सोचा मुझे अंदर चले जाना चाहिए, नहीं तो मैं इसी तरह इंतज़ार करता रह जाऊँगा।

    यह सोचकर मैं बरामदे से होकर एक गलियारे में चला आया। तभी मेरी पीठ पर किसी ने हाथ रखा। मैंने मुड़कर देखा तो एक लंबा-चौड़ा, बड़ी दाढ़ी वाला आदमी खड़ा था। उसने भारी आवाज़ में पूछा, “कहाँ जा रहे हैं?”

    “अंदर।” मैंने कहा।

    “क्या काम है?” वह उसी अंदाज़ में बोला।

    “प्रभुदयाल जी से मिलना है।” मैंने कहा।

    उसने थोड़ा आश्चर्य से मुझे देखा फिर बोला, “वह नहीं मिलेंगे। बाद में आइए।”

    ''मैं उनका दोस्त हूँ। हम लोग एक ही स्कूल में पढ़ते थे।” मैंने सोचा इसका उस पर प्रभाव पड़ेगा मगर ऐसा नहीं हुआ, वह उसी तरह बोला, “वह मना किए हैं किसी से मिलने से।

    तभी एक और शख़्स पहुँचा जो उसके विपरीत दुबला-पतला मरियल था। उसने हाथ में एक रजिस्टर पकड़ रखा था। वह चेहरे-मोहरे से इस मोटे आदमी की तुलना में थोड़ा पढ़ा-लिखा लग रहा था। उसने पूछा, “क्या बात है?

    “ये नेताजी से मिलना चाहते हैं। मोटा आदमी बोला।

    मैंने तपाक से कहा, मैं उनका दोस्त हैं। हम लोग एक ही स्कूल में...।”

    “अरे मिलवा दो एक मिनट के लिए!” दुबले आदमी ने कुछ इस तरह कहा जैसे मेरे ऊपर कृपा कर रहा हो। मोटे ने मुझे अपने साथ आने का इशारा किया। गलियारा पार कर मुझे एक कमरे में ले गया। वहाँ एक सोफ़े पर कुछ लोग बैठे थे। हर किसी के हाथ में कुछ कुछ था। कोई माला लेकर आया था तो कोई बुके या बड़ा-सा डिब्बा लेकर... मुझे भी कुछ लेकर आना चाहिए था। शायद ख़ाली हाथ देखकर ही उस मोटे ने मुझे संदेह भरी नज़रों से देखा।

    मैं प्रभुदयाल से मिलने की बात सोचकर रोमांचित हो उठा। पता नहीं कैसा दिखता होगा! क्या वह अख़बार में छपी फ़ोटो जैसा ही नज़र आता होगा या उससे अलग?

    मैं सोफ़े के आख़िरी सिरे पर बैठा था जहाँ एक खिड़की थी। बीच-बीच में पंखे की तेज़ हवा में खिड़की का परदा हिलता था और बग़ल के कमरे का नज़ारा दिख जाता था। जल्दी ही समझ में गया कि प्रभुदयाल इसी में बैठा है। मैंने कमरे के भीतर नज़रें टिका दीं।

    कमरे में दीवान पर दो मसनद के बीच प्रभुदयाल बैठा था, बिल्कुल नवाबी अदा के साथ। उसके चेहरे में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया था, बस आँखों के नीचे का कालापन थोड़ा और गहरा गया था। उसके गले में चेन चमक रही थी। प्रभुदयाल के ठीक बग़ल में बेंत की कुर्सी पर प्रभुदयाल जैसे दिखने वाले दो लोग बैठे थे। वे ज़रूर उसके चमचे होंगे। उनके चेहरे से प्रभुदयाल की तरह ही मूर्खता और अहंकार टपक रहा था। प्रभुदयाल कुछ कहता तो वे ज़ोर-ज़ोर से हँसते थे। प्रभुदयाल से मिलने आने वाले लोग सामने सोफ़े पर बैठते थे। मैंने देखा कि एक महिला उस पर बैठी हुई है। प्रभुदयाल ने इशारा किया तो वह दीवान पर उसके क़रीब आकर बैठ गई। उसने एक काग़ज़ प्रभुदयाल को थमाया। प्रभुदयाल एक हाथ में काग़ज़ पकड़कर पढ़ने लगा और दूसरे हाथ से महिला की पीठ थपथपाने लगा। फिर उस काग़ज़ पर प्रभुदयाल ने कुछ लिखा और महिला को पकड़ाया। वह काग़ज़ लेकर चली गई। मुझे लगा वह हमारे कमरे से होकर निकलेगी, लेकिन वह कहीं और चली गई। शायद बाहर निकलने का कोई और भी रास्ता था।

    मैंने परदे को हटाकर अंदर के दृश्य को थोड़ा और स्पष्ट रूप से देखने की कोशिश की। मैंने देखा कि नाटे क़द का एक आदमी हाथ जोड़े प्रभुदयाल के सामने खड़ा था।

    “इनको पहचान रहे हैं न? मास्टर साब हैं।” एक चमचे ने प्रभुदयाल से कहा।

    प्रभुदयाल ने उस आदमी को ग़ौर से देखा फिर ख़ुश होकर बोला, “अरे मास्टर साब। आप तो एकदम बदल गए हैं जी!”

    ये पाजामा में दो बम ले के चलते हैं।'' दूसरे चमचे ने कहा और ज़ोर से हँसा।

    प्रभुदयाल ने चमचे को घूरा फिर उसका आशय समझ ज़ोर से हँसा। वह मास्टर साब भी ‘हो... हो' करके हँसने लगे।

    थोड़ी देर बाद जब ठहाके का स्वर मंद पड़ा तो प्रभुदयाल ने कहा, “अरे तो ऑपरेशन काहे नहीं करवा लेते हैं। साँड़ जइसन डोलाते हुए घूम रहे हैं।”

    मास्टर साब ने हाथ जोड़े हुए कहा, “अरे अब आप मंत्री बन गए हैं तो सब कुछ करवा लेंगे।

    पहला चमचा बोला, “सब कुछ करवा लेंगे?

    इस पर भी हँसी का फ़व्वारा फूटा। मास्टर साब ने कहा, “प्रभुदयाल जी, मेरा ट्रांसफर कर दिया गया है। अब इस उमर में कहाँ जाएँगे परिवार को लेकर!

    “हाँ भाई कहाँ जाइएगा बम लेकर। आप यहीं रहिए।” प्रभुदयाल के ऐसा कहने पर सिर्फ़ मास्टर साब हँसे और अपना सिर नीचे कर लिया। अचानक प्रभुदयाल ने उसी तरह आँखें नचाईं जैसे बचपन में नचाया करता था। फिर बोला, “ज़रा दौड़ के दिखाइए न, बड़ा मज़ा आएगा।”

    “हाँ-हाँ दौड़िए न!” चमचों ने कहा।

    “ज़रा वह फ़ोटो छू कर आइए तो।”

    मैं समझ नहीं सका कि मास्टर साब को कितना दौड़ना है, क्योंकि मुझे पूरा कमरा नहीं दिख रहा था। मुझे लगा कि प्रभुदयाल मज़ाक कर रहा है। लेकिन अगले ही क्षण मैंने देखा कि मास्टर साब पलटे और आगे बढ़े। वह पल भर के लिए ओझल हुए और तेज़ी से वापस आकर प्रभुदयाल के बेड पर गिर गए। वह ज़ोर-ज़ोर से हाँफ रहे थे। प्रभुदयाल और चमचे पेट पकड़कर हँस रहे थे।

    मेरे लिए यह सब बर्दाश्त करना मुश्किल था। मेरे भीतर प्रभुदयाल और उसके चमचों के प्रति घृणा की एक आग भभक उठी। मुझे लगा जैसे मेरा सिर घूम रहा है।

    मैं बाहर भागा। मुझे एक टैंपो दिखा। मैं जल्दी से उसमें बैठ गया। मैं यहाँ से किसी भी क़ीमत पर निकल जाना चाहता था।

    घर पहुँचा तो सारे लोग बाहर खड़े थे। उनकी उत्सुकता देख साहस नहीं कर पाया कि उन्हें वह सब कुछ बताऊँ जो मैंने देखा।

    “मिल आए न?” पिताजी की आँखों में चमक थी।

    “हाँ!” उन सबके लिए मुझे झूठ बोलना ही पड़ेगा।

    “कुछ खिलाया भी उसने?” माँ ने पूछा।

    “नहीं, बस चाय...।” मैंने अपने को सामान्य बनाने की कोशिश की।

    “जल्दी से हाथ-मुँह धोकर आओ।” पिताजी ने कहा।

    मैं हाथ-मुँह धोने लगा। रसोई से तेल की झाँस आने लगी। कुछ तला जा रहा था।

    कितने दिनों बाद आज दो तरह की सब्जियाँ बनी थीं, ऊपर से पकौड़े भी। लेकिन क्यों? प्रभुदयाल से मिलने की ख़ुशी में? इन्हें क्या मालूम कि सच्चाई क्या है!

    “वह तुम्हें देखते ही पहचान गया होगा।” पिताजी बोले।

    “हूँ।” मैंने उनकी ओर देखे बग़ैर कहा और खाने लगा।

    “वह पुरानी बातें भूल गया होगा न?

    “हूँ।” मैंने उसी तरह कहा। पता नहीं पिताजी ने क्या-क्या सोच लिया है।

    “अरे मैंने तो पहले ही कहा था कि वह सब लड़कपन की बातें थीं।” पिताजी बोले जा रहे थे, “उसने हाल-चाल पूछा होगा। है न? तुमने बता दिया कि मेरा पैसा फँसा हुआ है अब भी। वह मंत्री है एक फ़ोन कर देगा, सारी कार्रवाई तुरंत-फुरत हो जाएगी। और तुमने यह भी बता दिया कि तुमने दो-दो जगह इंटरव्यू दे रखा है। वह थोड़ी-सी मदद कर देगा तो तुम्हारा मामला सेट हो जाएगा।”

    मैं कुछ कहता इससे पहले ही माँ ने कहा, “यह सब बात बाद में कीजिएगा। पहले खा तो लीजिए।”

    अगले दिन पिताजी ने सुबह-सुबह ऐलान किया कि वे घर की सफ़ेदी कराएँगे। मैं हैरान रह गया। पिछले कई वर्षों से पैसे की कमी के कारण यह काम टलता जा रहा था। पिताजी ने पिछली दीवाली पर कहा था कि अब सोनी की शादी में ही दीवारों की रंगाई होगी। रंगाई-पुताई हो पाने के कारण दीवार से कहीं-कहीं चूना गिरने लगा था। नमी के कारण कई जगहों पर अजीब-ओ-ग़रीब आकृतियाँ बन गई थीं।

    कुछ ही देर बाद पिताजी ने कहा कि वह बढ़ई को भी बुलाएँगे। असल में कुछ खिड़कियों के पल्ले झूल रहे थे। यहाँ तक कि शौचालय के दरवाज़े को नीचे से कीड़ों ने कुतर लिया था। हम लोग उस हिस्से पर गत्ता चिपका कर काम चला रहे थे। इसलिए घर को बढ़ई की प्रतीक्षा काफ़ी दिनों से थी, पर सवाल यह था कि इन सबके लिए पैसे कहाँ से आएँगे। मैं ट्यूशन से जो कुछ लाता था, वह सब राशन-पानी पर ख़र्च हो जाता था। बैंक में कुछ पैसे थे जिन्हें सोनी की शादी पर ख़र्च किया जाना था।

    शाम में पिताजी ने एक और घोषणा करके सबको चौंका दिया। उन्होंने कहा कि वह सोनी के रिश्ते के लिए फिर अयोध्या बाबू के यहाँ जाएँगे। वह अयोध्या बाबू के घर से नाराज़ होकर सिर्फ़ इसलिए चले आए थे, क्योंकि उन्होंने अपने ख़ानदान की संपन्नता का बखान किया था, जबकि वह दहेज भी नहीं माँग रहे थे। संपन्नता की चर्चा पिताजी को नागवार गुज़री थी।

    पिताजी ने कहा कि वह अयोध्या बाबू से माफ़ी माँगने को तैयार हैं। यह सब मेरे लिए अप्रत्याशित था। कोई आदमी इतना बदल सकता है क्या? पिताजी के बदलते व्यवहार से मेरे भीतर का अपराधबोध गहरा रहा था। बार-बार यह ख़याल आता था कि उन्हें सब कुछ सच-सच बता हूँ। मैं साफ़ कह दूँ कि मेरा तो प्रभुदयाल से सामना हुआ ही नहीं।

    दूसरा रास्ता यह था कि प्रभुदयाल से मिल ही आऊँ, किसी भी तरह। लेकिन बार-बार वह दृश्य सामने जाता था। मास्टर साब की आँखें याद जातीं। कई बार मैं ख़ुद को उनकी जगह देखने लगता था, कभी-कभी पिताजी को।

    माँ के व्यवहार में भी काफ़ी परिवर्तन गया था। वह पिछले कुछ समय से काफ़ी गुमसुम रहने लगी थीं। मगर अब उसमें थोड़ी स्फूर्ति दिखने लगी। एक दिन मैंने उसे पड़ोस की एक महिला से कहते सुना, “हमारे लड़के का दोस्त मिनिस्टर बन गया है न! एक दिन बुलाया था इसको। यह गया था मिलने।”

    मैं दंग रह गया यह सुनकर कि माँ ने कैसे इस कहानी में एक नया एंगल डाल दिया था। सोनी का भी यही हाल था। वह एक बार फिर सजने-धजने पर ध्यान देने लगी थी। एक दिन उसकी कुछ सहेलियाँ मिलने आईं। सोनी ने बड़े गर्व के साथ प्रभुदयाल और मेरी दोस्ती की चर्चा की। उसकी एक सहेली ने दिलचस्प टिप्पणी की, “मंत्री जी तुम्हारे भइया को अपना पीए बना सकते हैं या कोई पोस्ट दे सकते हैं।

    मैं प्रभुदयाल से मिलने की योजनाएँ बनाने लगा। ट्यूशन पढ़ाने के बाद मैं शास्त्रीनगर के चक्कर काट आया। मगर कोई चीज़ थी जो मुझे रोक देती थी। प्रभुदयाल के घर के सामने आते ही पैरों में झिनझिनी होने लगती थी और मैं ठिठक जाता।

    एक दिन अख़बार के 'राजधानी के कार्यक्रम' कॉलम ने मेरा ध्यान खींचा। उस दिन दो अक्टूबर था और शहर भर के गाँधी जयंती समारोहों की सूचना थी। उनमें से एक सूचना पढ़कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना रहा। मेरे स्कूल में भी गाँधी जयंती मनाई जाने वाली थी। सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि कार्यक्रम का मुख्य अतिथि प्रभुदयाल था।

    हमारे समय में स्कूल में जो भी आयोजन होते थे, उनमें प्रायः किसी साहित्यकार या शिक्षाविद् को मुख्य अतिथि बनाया जाता था। आज तक किसी राजनेता को नहीं बुलाया गया। लगता है इन दिनों कोई चालू आदमी हेडमास्टर बन गया है। जो भी हो, यह मेरे लिए एक अवसर था। अपने स्कूल में प्रभुदयाल से मिलना आसान होगा। मैं उससे कहूँगा, “मुझे माफ़ कर दे यार, मैं अब वह नहीं रह गया हूँ।”

    “गांधी जयंती के मौके पर मैं उससे कहूँगा कि मैं अपना गाँधीपना छोड़ रहा हूँ।”

    मैंने पिताजी को यह जानकारी दी तो वह बड़े ख़ुश हुए। अगर उनकी तबीयत थोड़ी ढीली होती तो वह भी जाने को तैयार हो जाते। एक कुशल निर्देशक की तरह वह मुझे मेरा पार्ट समझाने लगे, “तुम फंक्शन से एक घंटा पहले ही पहुँच जाओ। वहाँ जाकर बताना कि तुम स्कूल के पुराने विद्यार्थी हो। वैसे तुम्हें जानने वाले कई लोग होंगे ही। वहाँ सारे इंतज़ाम तुम अपने हाथ में ले लेना। कोई ऐसा बहाना सोचो कि प्रभुदयाल से आगे मिलने की बात उसी दिन तय हो जाए।”

    मैंने शाम होने का इंतज़ार किया। शाम में मुझे दो ट्यूशन पढ़ाने थे। मैंने अपने छात्रों को फ़ोन करके बताया कि मैं आज नहीं पाऊँगा। पिताजी बार-बार घड़ी देख रहे थे। वह मुझसे भी ज़्यादा उतावले हो रहे थे। मैं समय से काफ़ी पहले ही निकल गया। चलते समय पिताजी ने वे सारी बातें याद दिलाईं जो उन्होंने दिन में कही थीं।

    वर्षों बाद अपने स्कूल को देखना सुखद अनुभव था। स्कूल बिल्डिंग का रंग बदल गया था, झूले ग़ायब हो गए थे। मुझे एक भी पुराना चेहरा नहीं दिखा। टीचर, चपरासी, दरबान। स्कूल के इर्द-गिर्द की दुकानों का ताना-बाना भी बदला हुआ था।

    अहाते में शामियाना लगाया गया था, जिसमें एक छोटा-सा मंच बना था। मंच पर एक कोने में महात्मा गाँधी की एक तस्वीर लगी थी, जिसके आगे चाँदी का एक दीप रखा गया था।

    हो सकता है मुझे कुछ पुराने दोस्त मिल जाएँ। वे भी चले आए मेरी ही तरह। पता नहीं कैसे दिखते होंगे वे अब! जाने कौन क्या करता होगा! कौन अपने सपने के कितना क़रीब पहुँचा होगा!

    हम सब क्या-क्या नहीं सोचते थे। हममें से कोई आईएएस तो कोई प्रोफ़ेसर बनने का ख़्वाब देखता था। सब कुछ कुछ बन ही गए होंगे। मैं क्या कहूँगा अपने बारे में? यही कि रोड इंस्पेक्टरी कर रहा हूँ या ख़ाक छान रहा हूँ।

    मुझे यह सब नहीं सोचना चाहिए। मुझे अपना ध्यान प्रभुदयाल पर लगाना चाहिए। पिताजी ने कहा है कि ऐसा कुछ करूँ कि मिलने-मिलाने का सिलसिला चल निकले।

    मैं सारे इंतज़ाम अपने हाथ में कैसे ले लूँ? मुझे तो कोई जानता नहीं, ही मैं किसी को... कुछ देर इधर-उधर चक्कर काटने के बाद एक आदमी से पूछा, ''आप यहाँ टीचर हैं?”

    “हाँ, कहिए क्या बात है?” उसने जवाब दिया।

    “मैं भी यहाँ का स्टूडेंट रहा हूँ।” मैंने कहा।

    “अच्छा-अच्छा, बैठिए।” उसने कहा और कुर्सियाँ लगवाने के काम में व्यस्त हो गया। बातचीत के अंदाज़ से वह शिक्षक जैसा नहीं लग रहा था। मेरे अधिकतर शिक्षक तो काफ़ी शिक्षित और सुसंस्कृत थे। क्या अब वैसे शिक्षक नहीं होते? आख़िर मेरे ज़माने के सारे अध्यापक गए कहाँ? सब के सब रिटायर तो नहीं हो गए होंगे। हो सकता है उनका तबादला हो गया हो।

    एक समय था जब मैं विद्यालय के सबसे लोकप्रिय छात्रों में से था। सारे आयोजनों में छात्रों की ओर से मैं ही भाषण देता था। गाँधी जयंती पर कई बार बोल चुका था। एक बार मैंने गाँधीजी पर कविता सुनाई थी। मगर आज मैं अपने स्कूल में एक अजनबी की तरह घूम रहा था।

    मैं बाहर चला आया और पास की उन सड़कों पर घूमने लगा जिन पर कभी हम परेड किया करते थे। तब ये सड़कें एकदम ख़ाली रहा करती थीं। कभी-कभार इक्का-दुक्का गाड़ियाँ ही नज़र आती थीं। यहीं परेड के दौरान प्रभुदयाल ने एक लड़की के साथ बदसलूकी की थी।

    मैं लौट आया। इस बीच गेट पर बैनर टंग गया था। यह बैनर थोड़ा अजीब था। इस पर ऊपर लिखा था : गांधी जयंती समारोह। उसके नीचे लिखा था—उद्घाटन : प्रभुदयाल, सहकारिता मंत्री। गाँधीजी से कहीं ज़्यादा बड़े अक्षरों में प्रभुदयाल का नाम लिखा था। दूर से देखने वालों को प्रभुदयाल का नाम तो साफ़ दिखाई पड़ जाता, पर ‘गाँधी' नाम को पढ़ने में मशक़्क़त करनी पड़ती।

    लोग आने लगे थे। उनमें से कोई परिचित नहीं दिखा। हेड मास्टर जैसा दिखने वाला एक शख़्स गेट पर खड़ा हो गया। वह कई लोगों को बार-बार कुछ निर्देश दे रहा था। कुछ विद्यार्थी सीने पर वालंटियर का बिल्ला लगाए इधर-उधर घूम रहे थे और आगंतुकों को कुर्सियों पर बिठा रहे थे। कुछ पुलिस वाले भी गेट पर गए थे। सब बार-बार घड़ी देख रहे थे। कार्यक्रम का समय हो चुका था, मगर मुख्य अतिथि प्रभुदयालजी अभी नहीं पधारे थे।

    कुछ देर बाद दो वालंटियर मेरे पास आए और बोले, चलिए बैठ जाइए।

    मैंने उनकी बात अनसुनी की तो उनमें से एक ने थोड़ा ज़ोर देकर कहा, “अरे भाई, चलकर बैठ जाइए।

    बैठ जाऊँगा भाई, बैठ जाऊँगा।” मैंने कहा। इस पर हेडमास्टर दिखने वाले शख़्स ने कहा, “आप लोग गेट पर भीड़ मत लगाइए।”

    मैंने सोचा उन्हें अपना परिचय दें, शायद इससे कोई फ़ायदा हो जाए। मैंने उन्हें नमस्कार करके कहा, “सर मैं इस स्कूल का पुराना छात्र हूँ। मैं प्रभुदयाल जी का बैचमेट रहा हूँ।” इस बात का उन पर ख़ास असर नहीं पड़ा।

    तभी दो-तीन सफ़ेद अम्बेस्डर कारें सामने आकर रुकीं। पुलिसवाले सक्रिय हो गए। उन्होंने मुझे और मेरे साथ खड़े लोगों को पीछे धकेला।

    एक गाड़ी से प्रभुदयाल उतरा। उसके साथ उस जैसे ही दिखने वाले दोनों चमचे उतरे। प्रभुदयाल के सामने हेडमास्टर साहब ने उसी तरह सिर झुकाया जिस तरह उसके घर पर उस मास्टर साब ने सिर नवाया था। सब लोग तेज़ी से मंच की ओर बढ़े। मैं देखता रह गया। प्रभुदयाल के क़रीब या उसके सामने होने की कोई संभावना ही नहीं बनी।

    मैं दर्शकों की सबसे आख़िरी पंक्ति में बैठ गया। कुछ ही क्षणों में प्रभुदयाल मंच पर बैठा नज़र आया। चमचे उसके पीछे खड़े थे।

    हेडमास्टर ने बोलना शुरू किया, “इस विद्यालय ने एक-से-एक विभूतियों को पैदा किया है। यह हम सबका सौभाग्य है कि माननीय मंत्रीजी भी इसी विद्यालय के छात्र रहे हैं। उन्होंने छात्र जीवन में ही अपनी असाधारण प्रतिभा से सबको अभिभूत कर दिया था। उस समय से ही उनमें समाज तथा देश सेवा का संकल्प नज़र आता था...।”

    ऐसा लगा जैसे यह गाँधी जयंती नहीं, प्रभुदयाल सम्मान समारोह हो। मुझे हँसी गई। मैं ज़ोर से हँसा। सब लोग मुड़-मुड़कर देखने लगे। दो वालंटियर दौड़े आए। जब मेरी हँसी रुकी तो मैंने हेडमास्टर साहब को कहते सुना, “अब माननीय मंत्रीजी से अनुरोध है कि वह राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की तस्वीर को माला पहनाएँ और दीप प्रज्वलित करें।”

    प्रभुदयाल माला लेकर गाँधीजी की तस्वीर की तरफ़ बढ़ा। चमचे उसके साथ चले। अचानक कानों में प्रभुदयाल की आवाज़ गूँजी, “गाँधीजी बनता है रे... अपना गाँधीपना छोड़ेगा कि नहीं?”

    अरे यह क्या! प्रभुदयाल और चमचे गा रहे थे, अरे गाँधी घोंचूऽऽ... करता ढेंचू-ढेंचू।”

    मेरे भीतर कुछ फट पड़ा जैसे। मैं खड़ा हुआ और चिल्लाया, रोको इन्हें... देखो ये क्या कर रहे हैं। मेरे स्कूल में गाँधीजी का यह अपमान...! लेकिन मेरी बातों का किसी के ऊपर कोई असर नहीं हुआ। मैं असमंजस में पड़ गया। यह सपना है या सच?

    मैं फिर चिल्लाया पर कोई असर नहीं...। कहीं मेरी आवाज़ मेरे ही भीतर चक्कर तो नहीं काट रही? मैं चीखा... और चीख़ा।

    मुझे चारों ओर धुआँ-धुआँ-सा दिखने लगा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय कुंदन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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