एक किसान ने एक साधु की हत्या कर दी और जंगलों में भाग गया। वह भगोड़ा हो गया और उस पर इनाम घोषित कर दिया गया। जंगल में उसकी भेंट एक और भगोड़े से हुई जिस पर मछलियों का जाल चुराने का आरोप था। वह एक बाहरी टापू में रहने वाला मछुआरा था। वे दोनों साथी बन गए और उन्होंने एक गुफा काटकर उसमें अपना घर बना लिया। वे साथ-साथ जाल बिछाते, खाना पकाते, तीर बनाते और एक-दूसरे की पहरेदारी करते। किसान तो कभी जंगल से बाहर जा नहीं पाता था। लेकिन मछुआरे का अपराध कम गंभीर था, तो वह जब-तब अपने मारे हुए शिकार को अपनी पीठ पर लादकर गाँव के बाह्याँचल में बसे अपेक्षाकृत अकेले मकानों में रेंग जाता। वह अपनी मारी हुई चमकीले पंखों वाली जंगली मुर्गी, काले पहाड़ी मुर्गे, स्वादिष्ट हिरनी और लंबे कानों वाले ख़रगोश ले जाता और उनके बदले में दूध, मक्खन, बाण का अगला नुकीला हिस्सा और कपड़े ले आता।
उन्होंने जिस गुफा को अपना घर बनाया, वह पहाड़ में गहराई से काटकर बनाई गई थी। उसके मुँह पर चौड़े-चौड़े पत्थर और कँटीली झाड़ियाँ सुरक्षा के लिए लगाई गई थीं। पहाड़ के ऊपर चीड़ का एक विशाल वृक्ष था और उनकी भट्ठी की चिमनी इसकी कुंडलीदार जड़ों में छिपी हुई थी। इस तरह भट्ठी से उठने वाला धुआँ चीड़ की भारी लटकती शाखाओं में चला जाता था और सबकी नज़रों से ओझल हवा में घुल-मिल जाता था। अपनी गुफा तक पहुँचने के लिए उन दोनों को पहाड़ी की ढलान से निकलने वाली जलधारा से होकर जाना पड़ता था। उनका पीछा करने वालों में से कोई भी सुखद नदिया में उनका सुराग़ ढूँढ़ने की नहीं सोचता था। पहले तो उनकी इस तरह से खोज की गई, जैसे जंगली जानवरों की होती है। जनपद के किसान उनकी तलाश करने के लिए इस तरह इकट्ठे होते, जैसे किसी भेड़िए या भालू के लिए होते हैं। तीर-कमान लिए ग्रामवासी जंगल को घेर लेते और भाले लिए हुए लोग एक-एक झाड़ी और दर्रे को छान मारते। दोनों भगोड़े अपनी अंधेरी गुफा दुबक जाते और भय में हाँफते रहते और जब तलाश करने वाले लोग पहाड़ के ऊपर गुफा से शोर मचाते निकलते तो वे साँस रोककर सुनते रहते।
एक लंबे दिन तक युवा मछुआरा तो अचल लेटा रहा, लेकिन हत्यारे से और सहन नहीं हुआ और वह खुले में निकल गया, जहाँ से उसके दुश्मन दिखाई दे सकते थे। उन्होंने उसे देख लिया और उसके पीछे लग गए। लेकिन नपुंसक भय में चुपचाप पड़े रहने की अपेक्षा यह स्थिति उसे कहीं अधिक पसंद थी। वह अपना पीछा करने वालों के आगे से जलधाराओं को फलाँगता हुआ, चट्टानों से सरकता हुआ और चट्टान की सीधी खड़ी दीवार पर चढ़ता हुआ भागता रहा। ख़तरे ने तमाम उसकी अद्भुत शक्ति और कौशल को एड़ लगाकर उसमें ऊर्जा जगा दी। उसका शरीर इस्पात की कमानी-सा लचीला हो गया, उसके पाँव दृढ़ता से जमने लगे, उसके हाथों की पकड़ अचूक हो गई और उसकी आँख और कान दुगुने तेज़ हो गए। वह पेड़-पत्तों में होने वाली हरेक सरसराहट को जान जाता था; वह किसी उलटे हुए पत्थर में छिपी चेतावनी को समझ जाता था।
जब वह किसी चट्टान के ऊपर चढ़ जाता तो रुककर नीचे अपना पीछा करने वालों को देखता और ज़ोर-ज़ोर से नफ़रत के गाने गाकर उनका स्वागत करता। जब उनके भाले उसके सिर के ऊपर हवा में गाना गाते तो वह उन्हें पकड़कर वापस फेंक देता। जब वह उलझी हुई झाड़ियों से होकर अपना रास्ता बनाता तो लगता जैसे उसके अंदर कोई आनंद का जंगली गीत गा रहा है। एक भयंकर नंगा पर्वत शिखर जंगल के पूरे विस्तार में फैला हुआ था और इसकी चोटी पर एक लंबा चीड़ का वृक्ष एक़दम अकेला खड़ा था। उसका लाल कत्थई तना नंगा था और सबसे ऊपर घनी शाखाओं पर एक बाज का घोंसला मंथर हवा में झूलता था।
भगोड़ा इतना निडर हो गया था कि एक अन्य दिन जब उसका पीछा करने वाले नीचे जंगल की ढलानों में उसकी तलाश कर रहे थे तो वह घोंसले तक जा पहुँचा। वह वहाँ बैठ गया और बाज के बच्चों की गर्दन मरोड़ने लगा। जबकि उसे ढूँढ़ने वाले उससे बहुत नीचे हो-हल्ला करते रहे। बड़े बाज ग़ुस्से में चीख़ते हुए उसके आस-पास मँडराते रहे। वे उसके चेहरे के पास से झपटते हुए निकलते, अपनी चोंच से उसकी आँखों पर प्रहार करते; अपने दमदार पंखों को उसके ऊपर फड़फड़ाते और उन्होंने मौसम के थपेड़े खाकर कठोर हो गई उसकी चमड़ी पर पंजे मार-मारकर बड़ी-बड़ी खरोंचें भी बना दीं। वह हँस-हँसकर उनसे जूझता रहा। वह झूलते हुए घोंसले में खड़ा होकर उन परिंदों पर छुरे से वार करता रहा और लड़ाई के आनंद में वह ख़तरे और अपना पीछा किए जाने की सोच को बिलकुल ही भूल गया। जब उसे फिर इसकी याद आई और वह अपने दुश्मनों को देखने के लिए मुड़ा तो उसे खोजने वाली टोली दूसरी दिशा में जा चुकी थी। पीछा करने वालों में से एक के भी दिमाग़ में यह बात नहीं आई थी कि अपनी आँखें उठाकर बादलों की तरफ़ देख ले, जहाँ उनका शिकार लटका हुआ स्कूली बच्चों जैसी लापरवाही की हरकतें कर रहा था, जबकि उसकी अपनी ज़िंदगी अधर में लटकी थी। लेकिन जब उसने यह देखा कि वह सुरक्षित था तो वह सिर से पाँव तक काँप गया। उसने काँपते हाथों से कोई सहारा पकड़ा। वह जिस ऊँचाई तक चढ़ आया था, वहाँ से उसने चकराकर नीचे देखा। गिरने के भय से कराहते हुए, परिंदों से भयभीत, देखे जाने की संभावना से भयभीत; हरेक चीज़ और किसी भी चीज़ के आतंक से कमज़ोर वह पेड़ के तने से वापस सरककर नीचे आ गया। ज़मीन पर आकर वह चित पड़ गया और छुट्टा पत्थरों पर रेंगता हुआ झाड़ी तक पहुँचा। वहाँ वह छोटे चीड़ के वृक्षों की उलझी शाखाओं के बीच छिप गया और कमज़ोर और असहाय होकर मुलायम काई में गिर गया। उस समय एक अकेला आदमी भी उसे पकड़ सकता था।
तोर्ड नाम था उस मछुआरे का। वह केवल सोलह साल का था, लेकिन मज़बूत और बहादुर था। जंगलों में रहते हुए अब पूरा एक साल हो चुका था उस मछुआरे तोर्ड को।
किसान का नाम बेर्ग था और लोग उसे 'दैत्य' कहा करते थे। वह सुंदर और सुडौल था और समूचे प्रदेश में उससे लंबा और मज़बूत आदमी कोई और नहीं था। उसके कंधे चौड़े थे, लेकिन वह छरहरा ही था। उसके हाथ कोमल थे, मानो उसने कभी कोई मेहनत का काम ही नहीं किया हो। उसके बाल भूरे थे और चेहरे की रंगत हलकी थी। जब वह जंगल में कुछ समय तक रह लिया तो उसकी आकृति में मज़बूती के चिन्ह ऐसे बन गए कि लोग रौब खा जाएँ। उसके माथे की बड़ी-बड़ी मांसपेशियों की शिकनों में भरी घनी भौंहों के नीचे उसकी आँखें पैनी हो गईं। उसके होंठ पहले से कहीं अधिक दृढ़ हो गए, चेहरा भी म्लान हो गया; कनपटी के गड्ढे गहरे हो गए और उसके गालों की मज़बूती से उभरी हड्डियाँ सामान्य हो गईं। उसके शरीर के तमाम कोमल उभार ग़ायब हो गए, लेकिन मांसपेशियाँ इस्पात-सी मज़बूत हो गईं। उसके बाल तेज़ी से सफ़ेद होते गए।
तोर्ड ने इतने शानदार और इतने ताक़तवार आदमी को पहले कभी नहीं देखा था। उसकी कल्पना में उसका यह साथी जंगल-सा मज़बूत और हरहराती समुद्री लहरों-सा मज़बूत था। वह विनीत होकर उसकी सेवा करता था, जैसे वह किसी मालिक की करता। वह उसे किसी देवता की तरह श्रद्धा देता। यह अत्यंत स्वाभाविक ही लगता था कि तोर्ड शिकारी भाला लेकर चले, शिकार को घर खींचकर लाए; पानी भरे और आग जलाए। दैत्य बेर्ग इन सभी सेवाओं को स्वीकार करता था, लेकिन उसने लड़के से कभी दोस्ती के दो शब्द नहीं बोले थे। वह उसे तिरस्कार से देखता और उसे एक मामूली चोर मानता था।
ये भगोड़े अपराधी लूटपाट नहीं करते थे, बल्कि अपना पेट पालने के लिए जानवरों और मछली के शिकार पर निर्भर रहते थे। अगर बेर्ग ने एक धार्मिक व्यक्ति को नहीं मारा होता तो किसान लोग जल्दी ही उनकी तलाश करने से थक जाते और उन्हें पहाड़ों में उनके हाल पर ही छोड़ देते। लेकिन अब उन्हें डर था कि अगर ईश्वर के दास को घात करने वाले व्यक्ति को उन्होंने बिना दंड दिए छोड़ दिया तो उनके गाँव पर भारी विपत्ति आएगी। जब तोर्ड शिकार मारकर उसे नीचे घाटी में ले जाता तो वे प्रस्ताव रखते कि अगर वह उन्हें दैत्य की गुफा तक ले जाए, ताकि वे उसे सोते में पकड़ सकें तो वे उसे पैसा भी देंगे और उसके अपने अपराध को क्षमा भी कर देंगे। लेकिन वह लड़का इसके लिए मना कर देता और अगर वे उसके पीछे-पीछे हो भी लेते तो वह उन्हें तब तक भटकाता रहता, जब तक वे उसका पीछा नहीं छोड़ देते थे।
एक बार बेर्ग ने उससे पूछा कि क्या कभी किसानों ने उसे इस बात के लिए उकसाया था कि वह उसे उनके हाथों में सौंप दे। जब तोर्ड ने उसे बताया कि किसानों ने उसे इस काम के लिए कितना इनाम देने का वायदा किया था तो उसने उसका उपहास उड़ाते हुए कहा था कि उसने ऐसे प्रस्ताव ठुकराकर मूर्खता की थी। तोर्ड ने उसकी ओर आँखों में ऐसा भाव लाकर देखा, जिसे दैत्य बेर्ग ने पहले कभी नहीं देखा था। उसने अपनी जवानी के दिनों में जिन ख़ूबसूरत औरतों से प्यार किया था उनमें से किसी ने भी उसकी ओर ऐसे नहीं देखा था; ना तो अपने बच्चों की और ना ही अपनी बीवी की आँखों में उसने इतना स्नेह देखा था। “तुम मेरे परमेश्वर हो, वह शासक हो, जिसे मैंने अपनी इच्छा से चुना है,” उसकी आँखें यही कहती थीं, “तुम मेरा तिरस्कार कर सकते हो या चाहो तो मुझे पीट सकते हो, लेकिन मैं फिर भी तुम्हारा वफ़ादार रहूँगा।”
इसके बाद बेर्ग लड़के पर और ध्यान देने लगा और उसने देखा कि उसके कारनामों में तो बहादुरी थी लेकिन बोलने में संकोच था। मौत का उसे कोई भय नहीं दिखता था। वह जानबूझकर अपने लिए ऐसा रास्ता चुनता था जहाँ पहाड़ों के गड्ढों में ताज़ा बर्फ़ जमी होती थी या वसंत में दलदल की छलपूर्ण सतह होती थी। उसे ख़तरे में आनंद मिलता था। अब क्योंकि वह भयंकर समुद्री तूफ़ानों में नहीं जा पाता था, इसलिए उसे इन्हीं में उसकी भरपाई मिलती थी। लेकिन जंगल के रात्रिकालीन अँधेरे में वह काँप जाता था और दिन में भी किसी झाड़ी की झाईं या कोई गहरी परछाईं उसे डराने के लिए काफ़ी होती थी। जब बेर्ग उससे इस बारे में पूछता तो वह शरमाकर चुप रह जाता था।
तोर्ड गुफा के पिछले हिस्से में बने चूल्हे के पास लगे बिस्तर पर नहीं सोता था, बल्कि हर रात जब बेर्ग सो जाता था तो वह रेंगकर गुफा के मुँह पर आ जाता था और वहाँ एक चौड़े पत्थर पर लेट जाता था। बेर्ग को यह पता चल गया और उसने जानते हुए भी लड़के से इसका कारण पूछा? तोर्ड ने कोई जवाब नहीं दिया। अगले सवालों से बचने के लिए वह दो रात बिस्तर पर ही सोया और फिर दरवाज़े पर अपनी नियत जगह पर आ गया।
एक रात जब पेड़ की फुनगियों पर बर्फ़ीले तूफ़ान ने उत्पात मचाया हुआ था और झाड़ियों के बीच में भी हलचल मची थी, बर्फ़ के गोले उड़-उड़कर उन भगोड़ों की गुफा के अंदर भर गए। जब दरवाज़े पर लेटा तोर्ड सुबह जागा तो उसने देखा कि वह पिघलती बर्फ़ की चादर में लिपटा है। एक-दो दिन बाद वह बीमार पड़ गया। वह साँस लेने की कोशिश करता तो उसके फेफड़ों में बेध देने वाला दर्द उठता। जब तक उसमें शक्ति रही, उसने इस दर्द को सहन किया, लेकिन एक शाम जब वह आग फूँकने के लिए झुका तो गिर पड़ा और फिर उठ नहीं पाया। बेर्ग उसकी बगल में आया और उससे गर्म बिस्तर पर लेटने को कहा। तोर्ड दर्द के मारे कराहता रहा लेकिन हिल नहीं पाया। बेर्ग उसे अपनी बाँहों में उठाकर बिस्तर पर लाया। ऐसा करते समय उसे ऐसा लग रहा था, मानो वह किसी लिजलिजे साँप को छू रहा हो; उसके मुँह का स्वाद ऐसा हो रहा था, मानो उसने अशुद्ध मांस खा लिया हो। इतना अरुचिकर था उसके लिए इस साधारण चोर के शरीर को छूना! बेर्ग ने बीमार लड़के पर भालू की खाल का बना अपना कंबल; डाल दिया और उसे पानी पिलाया। वह बस इतना ही कर सका, लेकिन बीमारी ख़तरनाक नहीं थी और तोर्ड जल्दी ठीक हो गया। लेकिन अब क्योंकि बेर्ग को कुछ दिनों तक अपने साथी का काम करना पड़ा था और उसकी देखभाल करनी पड़ी थी तो वे एक-दूसरे के और क़रीब आ गए लगते थे। जब वे दोनों आग के पास साथ-साथ बैठे अपने तीर बनाते होते तो तोर्ड कभी-कभी उससे बोलने का साहस कर लेता था।
“तुम अच्छे लोगों के परिवार से हो” तोर्ड ने एक शाम बेर्ग से कहा, “तुम्हारे रिश्तेदार घाटी के सबसे अमीर किसान हैं। तुम्हारे नाम के आदमी राजाओं की सेवा में रहे हैं और उनके महलों में लड़े हैं।”
“अधिकतर तो वे बागियों के साथ लड़े हैं और उन्होंने राजा की संपत्ति को नुक़सान पहुँचाया है।” बेर्ग ने जवाब दिया।
“तुम्हारे पुरखे क्रिसमस के समय बड़ी-बड़ी दावतें देते थे और तुम जब अपने मकान में आराम से थे तो तुम भी दावतें देते थे। सैकड़ों आदमी-औरतें तुम्हारे बड़े हॉल में बेंचों पर बैठते थे; उस हॉल में जो उन दिनों में बनाया गया था, जब संत ऊलाव नामकरण संस्कार के लिए यहाँ वीकेन में आया भी नहीं था। वहाँ बड़े-बड़े चाँदी के कलश थे और सींग के बने बड़े-बड़े पात्रों में तुम्हारी मेज़ पर शहद की मदिरा परोसी जाती थी।”
बेर्ग ने एक बार फिर लड़के की ओर देखा। वह पलंग के किनारे बैठा था, उसका सिर उसके हाथ में था और वह अपनी आँखों पर गिर आए भारी उलझे बालों को पीछे कर रहा था। बीमारी में उसका चेहरा पीला और निखर गया था। उसकी आँखें अभी भी बुख़ार में चमक रही थीं। वह अपनी कल्पना से उभरी तस्वीरों पर मन ही मन मुस्करा रहा था। ये तस्वीरें थीं बड़े हॉल और चाँदी के कलशों की, महँगे वस्त्र पहने मेहमानों की और सम्मानजनक स्थान पर बैठ हुक्म चलाते दैत्य बेर्ग की। किसान बेर्ग जानता था कि उसके महिमामय दिनों में भी किसी ने उसकी ओर प्रशंसा से, इस तरह चमकती और श्रद्धा से, इस तरह दमकती आँखों से कभी नहीं देखा था, जैसे कि इस समय आग के पास फटी-पुरानी जैकेट पहने यह लड़का देख रहा था। वह द्रवित हो उठा, लेकिन उसकी अप्रसन्नता बनी रही। इस साधारण चोर को कोई अधिकार नहीं था कि उसे सराहे।
“क्या तुम्हारे घर में दावतें नहीं होती थीं?” उसने पूछा।
तोर्ड हँसा, “वहाँ उन चट्टानों पर जहाँ पिता और माँ रहती हैं? पिता तो दुर्घटना में टूटे जहाज़ों को लूटता है और माँ डायन है। जब मौसम तूफ़ानी होता है तो वह सील मछली की पीठ पर सवार होकर जहाज़ों से मिलने चल देती है और दुर्घटना में जो लोग जहाज़ से बाहर आ गिरते हैं, वे उसके हो जाते हैं।”
“वह उनका क्या करती है?” बेर्ग ने पूछा।
“ओह! डायनों को तो हमेशा ही लाशों की ज़रूरत होती है। वह उनसे मरहम बनाती है या शायद उन्हें खा जाती है। चाँदनी रातों को वह भीषण रूप से हरहराती लहरों में जा बैठती है और डूबे हुए बच्चों की आँखों और उँगलियों की तलाश में रहती है।”
“यह तो भयंकर है!” बेर्ग ने कहा।
लड़के ने शांत आत्मविश्वास के साथ कहा, “दूसरों के लिए होगा, लेकिन किसी डायन के लिए नहीं। वह इसके बिना रह ही नहीं सकती।”
बेर्ग के लिए यह ज़िंदगी को देखने का एक बिलकुल अलग ढंग था।
“तब तो चोरों को चोरी करनी होती होगी, जैसे डायनों को जादू करना होता है?” उसने तीखा सवाल किया।
“हाँ, क्यों नहीं,” लड़के ने जवाब दिया, “हरेक व्यक्ति को वह करना होता है जिसके लिए उसका जन्म होता है।” लेकिन संकोचपूर्ण चालाकी के साथ मुस्कराते उसने आगे कहा, “ऐसे चोर भी होते हैं जिन्होंने कभी चोरी नहीं की होती।”
“क्या मतलब?” बेर्ग बोला।
लड़के के होंठों पर अब भी वह रहस्यमय मुस्कान थी और वह इस बात से ख़ुश दिखता था कि उसने अपने साथी को एक पहेली में उलझा दिया था। ‘‘ऐसी चिड़ियाँ होती हैं जो उड़ती नहीं हैं; और ऐसे चोर होते हैं जिन्होंने कभी चोरी नहीं की है।” उसने कहा।
बेर्ग ने मूर्ख बनने का बहाना किया ताकि लड़के के मतलब को निकलवा सके। “जिसने कभी चोरी नहीं की, उसे चोर कैसे कहा जा सकता है?” उसने कहा।”
लड़के के होंठ कसकर बंद हो गए, मानो वह शब्दों को रोक रहा हो। “लेकिन अगर किसी का बाप चोरी करता हो...” उसने थोड़ी देर की चुप्पी के बाद कह डाला।
“आदमी को पैसा और मकान तो विरासत में मिल सकता है, लेकिन चोर का नाम केवल उसे दिया जाता है जिसने वैसा काम किया होता है।”
तोर्ड प्यार से हँस दिया। “लेकिन जब किसी की माँ हो—और वह माँ आए और रोए तथा उससे याचना करे कि वह अपने पिता का ज़ुर्म अपने ऊपर ले ले—और तब वह व्यक्ति जल्लाद पर हँस सकता है और जंगल में भाग सकता है। कोई व्यक्ति उस मछली के जाल के लिए भगोड़ा अपराधी घोषित किया जा सकता है जिसे उसने कभी देखा ही नहीं।”
बेर्ग ने बहुत ग़ुस्से में पत्थर की मेज़ पर घूँसा मारा। यहाँ इस मज़बूत, सुंदर लड़के ने अपनी पूरी ज़िंदगी किसी और के लिए दे दी थी। प्यार, पैसा या अपने साथियों का आदर अब उसे फिर कभी नहीं मिल पाएगा। अब उसकी ज़िंदगी में खाने और कपड़े की घटिया चिंता के अलावा और कुछ नहीं रह गया था। और इस मूर्ख ने उसे, बेर्ग को, एक मासूम व्यक्ति का तिरस्कार करने दिया। उसने उसे कड़ी फटकार लगाई, लेकिन तोर्ड डरा तो बस उतना ही जितना कि कोई बीमार बच्चा अपनी चिंतित माँ की फटकार खाने से डरता है।
बहुत ऊँचाई पर स्थित एक वृक्षाच्छादित पहाड़ी पर एक दलदली झील थी। यह झील वर्गाकार थी और इसके किनारे इतने सीधे और उसके कोने इतने तीखे थे कि लगता था जैसे उन्हें मनुष्य के हाथों ने बनाया हो। तीन ओर चट्टान की खड़ी दीवारें थीं और कठोर, पहाड़ी चीड़ वृक्ष पत्थरों से चिपटे हुए थे और उनकी जड़ें आदमियों की भुजाओं जितनी मोटी थीं। झील की सतह पर जहाँ घास की कुछ पट्टियाँ बहकर हट चुकी थीं, वहाँ ये नंगी जड़ें मुड़ी हुई और कुंडली मारे थीं और पानी में ऐसे असंख्य साँपों की तरह उठ रही थीं, जिन्होंने लहरों से बचने की कोशिश की थी लेकिन अपनी इस जी-तोड़ कोशिश में पत्थर बन गई थीं। या ये बहुत पहले डूब गए दैत्यों के काले पड़ चुके कंकालों के ढेर की तरह लग रही थीं, जिन्हें झील बाहर फेंकने की कोशिश कर रही थी। उनकी भुजाएँ और टाँगें बुरी तरह से ऐंठ गई थीं, लंबी उँगलियाँ चट्टानों में गहरे पैठ गई थीं, और मज़बूत पसलियाँ ऐसी महराबें बन गई थीं जिन पर प्राचीन वृक्ष सधे हुए थे। लेकिन ये लोहे-सी कठोर भुजाएँ, ये इस्पाती उँगलियाँ, जिनसे ऊपर चढ़ते हुए चीड़ वृक्षों ने अपने आपको सहारा दे रखा था, जब-तब ये अपनी पकड़ ढीली कर देती थीं और तब ज़बरदस्त उत्तरी हवा पेड़ को पहाड़ी चट्टान से उठाकर दूर दलदल में फेंक देती थी। वहाँ यह पेड़ इस प्रकार पड़ा रहता था कि इसकी चोटी कीचड़दार पानी में गहरे डूब जाती थी। मछलियों को इसकी टहनियों के बीच छिपने की अच्छी जगह मिल जाती थी। जबकि उसकी जड़ें पानी में इस तरह ऊपर निकली रहती थीं, जैसे किसी भयंकर राक्षस की भुजाएँ हों और इससे वह छोटी-सी झील डरावनी दिखाई देने लगती थी।
पहाड़ उस छोटी झील की चौथी ओर ढलान बनाए थे। यहाँ एक छोटी-सी नदी उफ़न रही थी। लेकिन अपना रास्ता बनाने से पहले यह जलधारा चट्टानों और टीलों के बीच मुड़ती और बल खाती थी, जिससे ढेर सारे टापू बन गए थे। इनमें से कुछ तो पाँव धरने की जगह बिलकुल नहीं बन पाए थे जबकि दूसरे टापुओं की पीठ पर बीस-बीस पेड़ तक लदे हुए थे। यहाँ, जहाँ पर चट्टानें इतनी ऊँची नहीं थीं कि धूप को आने से रोक सकें, हलके क़िस्म के हरे पेड़ उग सकते थे। यहाँ कोमल धूसररहित आल्डरवृक्ष थे और थे चिकनी पत्तियों वाले सरपत। यहाँ भूर्ज थे, जैसे कि वे हर उस जगह पर होते हैं जहाँ पर सदाबहार को रोकने का अवसर होता है और वहाँ पर पहाड़ी देवदारु और एलडर की झाड़ियाँ थीं और ये उस जगह को सौंदर्य और सुवास सौंपते थे। झील के प्रवेश बिंदु पर आदमी के सिर बराबर ऊँचे नरकटों का एक जंगल था, जिससे होकर धूप पानी पर उतनी ही हरी पड़ती थी जितनी कि यह असली जंगल में काई पर पड़ती है। सरकंडों के बीच छोटी-छोटी साफ़ जगहें थीं, ये छोटे-छोटे गोल पोखर थे, जहाँ कमल सोए रहते थे। लंबे-लंबे नरकट इन संवेदनशील सुंदर पुष्पों को प्यार-भरी गंभीरता के साथ देखते रहते थे और जैसे ही सूरज अपनी किरणों को समेटता था, कमल के ये पुष्प अपनी सफ़ेद पत्तियों और अपने पीले अंतःस्थल को अत्यंत तीव्रता से अपने बाहरी कड़े खोल में बंद कर लेते थे।
एक धूप वाले दिन वे दोनों भगोड़े इन छोटे पोखरों में से एक पर मछली मारने आए। वे सरकंडों से रास्ता बनाते हुए दो बड़े पत्थरों पर आए और वहाँ बैठकर उन्होंने उन बड़ी, हरी, चमकदार पाइक मछलियों को पकड़ने के लिए चारा डाल दिया जो पानी की सतह के ठीक नीचे सोती थीं। इन आदमियों की ज़िंदगी अब पूरी तरह से पहाड़ों और जंगलों के बीच बीत रही थी और वे पौधों या पशुओं की तरह ही प्रकृति की शक्तियों के नियंत्रण में बंध गए थे। जब सूरज चमकता होता तो वे मुक्त-हृदय और प्रसन्न रहते थे, लेकिन शाम को वे ख़ामोश हो जाते थे और सर्वशक्तिशाली लगने वाली रात उनकी सारी शक्ति छीन लेती थी। इस समय सरकंडों से होकर आने वाले और पानी पर सुनहरे, भूरे और काले हरे रंग की पट्टियाँ बनाने वाले हरे प्रकाश ने उन्हें एक तरह के जादुई मूड में ला दिया था। वे बाहरी दुनिया से पूरी तरह कटे हुए थे। सरकंडे मंथर हवा में धीरे-धीरे लहरा रहे थे, नरकटे सरसरा रहे थे और लंबी फ़ीते जैसी पत्तियाँ उनके चेहरे को थपथपा रही थीं। वे चमड़े की अपनी भूरी जाकिट पहने भूरे पत्थरों पर बैठे थे और चमड़े के धूप-छाईं रंग पत्थर के रंग में घुल रहे थे। दोनों अपने साथी को आमने-सामने बैठे किसी पत्थर के बुत की तरह चुपचाप देख रहे थे। और सरकंडों के बीच वे बड़ी-बड़ी मछलियों को तैरती और इंद्रधनुष के तमाम रंगों में चमकती- दमकती देख रहे थे। जब उन्होंने अपनी डोरें फेंकीं और पानी में बनती भँवर को सरकंडों के बीच बड़ा होता देखा तो उन्हें लगा कि यह गति बढ़ती ही चली जा रही है और अंत में उन्होंने देखा कि इसे पैदा करने वाले वे अकेले व्यक्ति नहीं थे। एक जलपरी, आधी मानव, आधी मछली, पानी में नीचे गहराई में सोई हुई थी। वह पीठ के बल लेटी थी और लहरें उसके शरीर से इतनी निकटता से चिपकी हुई थीं कि इन आदमियों ने उसे पहले नहीं देखा था। उसकी साँस ही पानी की सतह में हिलोरें बना रही थी। लेकिन उन देखने वालों को यह नहीं लगा कि उसके वहाँ लेटे होने में कोई अजीब बात थी। और जब अगले क्षण वह ग़ायब हो गई तो वे यह नहीं जान पाए कि उसका दिखना भ्रम था या नहीं।
हरा प्रकाश उनकी आँखों को बेधता हुआ किसी नशे की तरह उनके मस्तिष्क में उतर गया था। वे सरकंडों के बीच काल्पनिक चीज़ें देख रहे थे। ऐसी काल्पनिक चीज़ें, जिनके बारे में वे एक-दूसरे को भी नहीं बताने वाले थे। उन्होंने मछली का अधिक शिकार नहीं किया। सारा दिन सपनों और काल्पनिक चीज़ें देखने की भेंट हो गया।
सरकंडों के बीच से पतवारों की आवाज़ आई और वे अपने सपनों से चौंककर जाग गए। कुछ ही क्षणों में पेड़ के तने से बनाई गई एक भारी नाव दिखाई दी, जिसे चलाने वाली पतवारें टहलने वाली छड़ी से अधिक चौड़ी नहीं थीं। पतवारें एक युवती के हाथ में थीं, जो कमल इकट्ठे कर रही थी। उसने लंबे और गहरे बालों की चोटियाँ गूँथ रखी थीं, उसकी आँखें बड़ी-बड़ी और काली-काली थीं, लेकिन वह विचित्र रूप से पीली थी। यह ऐसी पीलाहट थी जो धूसर न होकर हलकी गुलाबी रंगत लिए थी। उसके गालों का रंग उसके शेष चेहरे के रंग से कोई गाढ़ा नहीं था; उसके होंठ भी इतने लाल नहीं थे। वह सफ़ेद सूती कपड़े की चोली और सुनहरे बकसुए वाली बेल्ट पहने थी। उसका घाघरा नीले रंग का था और उस पर लाल रंग की चौड़े किनारे वाली झालर थी। वह इन भगोड़ों के पास से नाव खेती हुई निकल गई, लेकिन उसने उन्हें देखा नहीं। वे बिलकुल शांत बैठे रहे और इसके पीछे उनका डर इतना नहीं था, जितनी कि यह इच्छा थी कि वे उसे बिना किसी विघ्न के देख सकें। जब वह चली गई तो पत्थर के वे बुत फिर से इंसान बन गए और मुस्कराने लगे।
“वह कमल के फूलों की तरह सफ़ेद थी,” एक ने कहा, “और उसकी आँखें वैसी ही काली थीं, जैसे वहाँ चीड़ की जड़ों के नीचे का पानी।”
वे दोनों इतने प्रसन्न थे कि उन्हें हँसने का मन हुआ। सचमुच हँसने का मन हुआ जैसे कि वे इस दलदल में पहले कभी नहीं हँसे थे, ऐसी हँसी जो चट्टान की दीवार से टकराकर गूँजती हुई वापस आएगी और चीड़ की जड़ों को ढीला कर देगी।
“क्या तुम्हारे विचार में वह सुंदर थी” दैत्य ने पूछा?
“मुझे नहीं पता, वह इतनी जल्दी से निकल गई। शायद वह सुंदर थी।”
“शायद तुम उसे देखने का साहस नहीं कर पाए। क्या तुम सोचते हो कि वह जलपरी थी?”
और एक बार फिर उन्हें हँसने की विचित्र इच्छा हुई।
बचपन में तोर्ड ने एक बार एक डूबे हुए आदमी को देखा था। उसे यह लाश दिनदहाड़े समुद्र तट पर मिली थी और उसे डर नहीं लगा था। लेकिन रात में उसे भयंकर सपने आए थे। वह एक समुद्र के ऊपर देखता लगता था, जिसकी हर लहर उसके पाँवों पर एक लाश फेंकती थी। उसे सारी चट्टानें और टापू डूबे हुए व्यक्तियों की लाशों से ढके दिखाई देते थे, उन डूबे हुए व्यक्तियों से जो मर चुके थे और सागर के हो चुके थे लेकिन जो चल-फिर सकते थे और बोल सकते थे और अपनी सफ़ेद अकड़ी उँगलियों से उसे डरा सकते थे।
और वही इस बार फिर हुआ। जिस लड़की को उसने सरकंडों में देखा था वह उसे सपनों में दिखाई दी। उसकी भेंट लड़की से एक बार फिर दलदली झील की तलहटी में हुई, जहाँ प्रकाश सरकंडों की तुलना में और भी हरा था और वहाँ उसके पास यह देखने का काफ़ी समय था कि वह ख़ूबसूरत थी। उसने सपने में देखा कि वह झील के बीच में चीड़ की बड़ी-बड़ी जड़ों में से एक पर बैठा था और चीड़ वृक्ष कभी पानी की सतह के नीचे, कभी ऊपर, नीचे-ऊपर झूल रहा था। फिर उसने लड़की को एक सबसे छोटे टापू पर देखा। वह लाल पर्वतीय देवदारु के नीचे खड़ी थी और उस पर हँस रही थी। उसके अंतिम सपने में यह इतना आगे बढ़ गया कि लड़की ने उसे चूम लिया। लेकिन फिर सुबह हो गई और उसने बेर्ग के उठने की आवाज़ सुनी। लेकिन उसने अपनी आँखें हठपूर्वक बंद रखीं, ताकि वह सपने को आगे देख सके। जब वह जागा तो रात को देखे सपने से उसका सिर चकरा रहा था और वह भौचक था। पिछले दिन की अपेक्षा अब उसने लड़की के बारे में अधिक सोचा। शाम को जाकर उसके दिमाग़ में आया कि क्यों न बेर्ग से पूछ लिया जाए कि क्या उसे लड़की का नाम पता है?
बेर्ग ने उसे तीखी नज़रों से देखा। “तुम्हारे लिए यही अच्छा है कि तुम इसे तुरंत जान लो,”
उसने कहा, “वह ऊन थी। हमारी आपस में रिश्तेदारी है।”
और तब तोर्ड को पता चला कि यह पीली कन्या ही थी जिसके कारण जंगल और पहाड़ में छिपते हुए बेर्ग को वहशी ज़िंदगी बितानी पड़ रही थी और लोग उसकी तलाश में थे। उसने अपनी याददाश्त को टटोलने की कोशिश की कि उसने उस लड़की के बारे में क्या सुना था।
ऊन एक स्वतंत्र किसान की बेटी थी। उसकी माँ मर चुकी थी। और अब अपने पिता के घर में उसका राज था। यह उसकी रुचि के अनुकूल था, क्योंकि वह स्वभाव से स्वाधीन थी और उसका अपने आपको किसी पति के हवाले करने का कोई इरादा नहीं था। ऊन और बेर्ग रिश्ते में बहन-भाई थे और यह अफ़वाह लंबे समय से थी कि बेर्ग को अपने घर में काम करने की अपेक्षा ऊन और उसकी दासियों के साथ बैठना अधिक अच्छा लगता था। एक क्रिसमस के मौक़े पर जब बेर्ग के हॉल में बड़ी दावत दी जानी थी तो उसकी पत्नी ने द्राक्समार्क से एक साधु को इस आशा से बुलवाया हुआ था कि वह बेर्ग को यह जताएगा कि किसी और लड़की के फेर में उसका अपनी पत्नी की उपेक्षा करना कितना ग़लत था। बेर्ग और उसके अलावा अन्य लोग इस साधु की शक्ल-सूरत के कारण उससे चिढ़ते थे। वह बहुत भारी-भरकम और एक़दम सफ़ेद था। उसके गंजे सिर पर बालों का घेरा, उसकी नम आँखों के ऊपर भौंहें, उसकी चमड़ी, उसके हाथों और उसके कपड़ों सभी का रंग सफ़ेद था। कइयों को उसकी सूरत देखने में ही अरुचि होती थी।
लेकिन साधु को डर नहीं था और उसे यह विश्वास तो था ही कि अगर उसकी बात को अनेक लोग सुनें तो उसका अधिक प्रभाव पड़ेगा, सो वह तमाम मेहमानों के सामने मेज़ पर खड़ा हो गया और बोला, “लोग कोयल को इसलिए सबसे ख़राब चिड़िया बताते हैं कि वह अपने बच्चों की परवरिश दूसरों के घोंसले में करती है। लेकिन यहाँ एक ऐसा आदमी बैठा हुआ है जो अपने घर और अपने बच्चों की कोई देखभाल नहीं करता और एक पराई औरत के साथ मज़े करना चाहता है। उसे मैं सबसे ख़राब आदमी कहूँगा।” ऊन अपनी जगह पर उठ खड़ी हुई। “बेर्ग, यह तुमसे और मुझसे कहा गया है, “वह रोकर कहने लगी, “मुझे कभी इतना शर्मिंदा नहीं होना पड़ा, लेकिन यहाँ मेरा बचाव करने के लिए मेरे पिता भी नहीं हैं।” वह जाने के लिए मुड़ी, लेकिन बेर्ग झपटकर उसके पास पहुँचा। “जहाँ खड़े हो वहीं खड़े रहो,” वह बोली, “मैं तुम्हें दुबारा नहीं देखना चाहती।” बेर्ग ने उसे गलियारे में रोका और पूछा कि वह ऐसा क्या कर सकता है कि वह उसके साथ रहे। उसकी आँखों में चमक थी, जब उसने जवाब दिया कि उसे ख़ुद समझना चाहिए कि उसे क्या करना होगा। तब बेर्ग दुबारा हॉल में गया और उसने साधु को मार डाला।
बेर्ग और तोर्ड दोनों थोडी देर के लिए एक से विचारों में सोचते रहे। फिर बेर्ग ने कहा, “जब वह सफ़ेद साधु गिरा था तो तुम्हें ऊन को देखना चाहिए था। मेरी पत्नी ने बच्चों को अपने पास समेट लिया और ऊन को बुरा-भला कहने लगी। उसने बच्चों के मुँह ऊन की ओर कर दिए कि वे हमेशा उस औरत को याद रखें जिसकी ख़ातिर उनका बाप हत्यारा बन गया था। लेकिन ऊन वहाँ इतनी शांत और इतनी ख़ूबसूरत बनी खड़ी रही कि उसे देखने वाले काँप गए। उसने इस काम के लिए मुझे धन्यवाद कहा और प्रार्थना की कि मैं एक़दम जंगलों में भाग जाऊँ। उसने मुझसे कहा कि मैं कभी डाकू न बनूँ और अपने छुरे का इस्तेमाल ऐसे ही किसी न्यायपूर्ण काम के लिए करूँ।”
“तुम्हारे काम ने उसे नेक बना दिया था।” तोर्ड ने कहा।
और एक बार फिर बेर्ग ने अपने को उसी बात पर चकित पाया, जिसने अब से पहले उसे तोर्ड के अंदर होने पर चकित किया था। तोर्ड काफ़िर था, बल्कि काफ़िर से भी बुरा था। वह ग़लत बात की कभी निंदा नहीं करता था। लगता था कि उसमें ज़िम्मेदारी का कोई भाव था ही नहीं। जो आना था, आया। वह परमेश्वर के बारे में, क्राइस्ट के बारे में और संतों के बारे में जानता तो था, लेकिन वह उन्हें बस नाम से जानता था, जैसे कोई अन्य राष्ट्रों के देवताओं के नाम जानता है। शेरेन टापू के प्रेत उसके देवता थे। जादू सीखी उसकी माँ ने उसे मुर्दों की आत्माओं में विश्वास करना सिखाया था। और तभी बेर्ग ने एक ऐसा काम अपने ऊपर ले लिया, जो वैसा ही मूर्खतापूर्ण था, जैसे किसी का अपनी ही गर्दन के फंदे के लिए रस्सी बुनना। उसने इस अज्ञानी लड़के की आँखें परमात्मा की शक्ति के प्रति खोल दीं। उस परमात्मा के प्रति जो समस्त न्याय का स्वामी था। ग़लती का बदला लेने वाला ऐसा परमेश्वर था, जो पापियों को नरक की अनंत पीड़ा के हवाले कर देता है। और उसने लड़के को यह सिखाया कि वह क्राइस्ट और उनकी माँ को प्रेम करे और उन तमाम संत स्त्री-पुरुषों से प्रेम करे, जो परमेश्वर के सिंहासन के आगे बैठ प्रार्थना करते रहते हैं कि उसका क्रोध पापियों पर न पड़े। उसने लड़के को वह सब करना सिखाया जो मानव जाति ने परमेश्वर के क्रोध को कम करने के लिए सीखा है। उसने लड़के को पवित्र स्थानों को जाने वाले तीर्थयात्रियों के लंबे क़ाफ़िलों के बारे में बताया। उसने उसे उन लोगों के बारे में बताया जो पश्चात्ताप में अपने आपको कोड़े मारते हैं और उसने उसे उन पवित्र साधुओं के बारे में बताया जो इस संसार के सुखों को त्यागकर चले जाते हैं।
जितना अधिक वह बोलता गया, उतना ही लड़के का रंग पीला पड़ता गया और उतना ही उसका ध्यान और बढ़ता गया और उसकी आँखें उन दृश्यों की कल्पना करके चौड़ी हो गईं। बेर्ग ने अपनी बात समाप्त कर दी होती, लेकिन उसके अपने विचारों की बाढ़ उसे बहा ले गई। रात उन पर उतर आई। यह वही काली जंगली रात थी, जहाँ उल्लू की चीख़ सन्नाटे में प्रेत-सी पतली और महीन गूँजती है। परमेश्वर उनके इतने निकट आ गया कि उसके सिंहासन की चमक ने सितारों को फीका कर दिया और प्रतिशोध के फ़रिश्ते पहाड़ की ऊँचाइयों पर उतर आए। और उनके नीचे रसातल की लौ फड़फड़ाकर पृथ्वी के बाहरी वक्र पर आ गई और उन्होंने पूरी ललक से पाप और दुःख के नीचे दबी-पिसी एक नस्ल के इस अंतिम शरणस्थल को अपनी चपेट में ले लिया।
पतझड़ आया और उसके साथ ही आया तूफ़ान। तोर्ड अकेला फंदों और जालों को देखने के लिए बाहर जंगल में निकला और बेर्ग उसके कपड़ों को दुरुस्त करने के लिए घर में ही बना रहा। लड़का जिस रास्ते पर चला, वह उसे जंगल की एक ऐसी ऊँचाई पर ले गया, जिसके सहारे-सहारे गिरती हुई पत्तियाँ हवा के झोंकों में घेरा बनाकर नाचती थीं। बार-बार उसे ऐसा लगा कि कोई उसके पीछे आ रहा है। वह कई बार मुड़ा और यह देखकर फिर आगे बढ़ लिया कि ये तो केवल हवा और पत्तियाँ थीं। उसने सरसराहट पैदा करते घेरों को अपना घूँसा दिखाकर धमकाया और आगे बढ़ता रहा। लेकिन उसने अपनी कल्पनाओं की आवाज़ों को ख़ामोश नहीं किया था। पहले तो उसे परी-शिशुओं के नाचते हुए नन्हें पाँवों की आवाज़ सुनाई दी; फिर उसे अपने पीछे आते एक बड़े से साँप की फुफकार सुनाई देने लगी। साँप की बगल में एक लंबा, भूरा जीव, भेड़िया आया, जो उस क्षण के इंतज़ार में था कि साँप उसके पाँवों में डंक मारे और वह उछलकर उसकी पीठ पर जा चढ़े। तोर्ड ने अपनी चाल बढ़ा दी, लेकिन काल्पनिक चीज़ें भी उसी गति से साथ हो लीं। जब उसे लगा कि वे उससे केवल दो क़दम पीछे और छलाँग लगाने को तैयार हैं तो वह घूम गया। लेकिन जैसा कि उसे इस पूरे समय में पता था, वहाँ कुछ भी नहीं था। वह एक पत्थर पर बैठकर सुस्ताने लगा। सूखी पत्तियाँ उसके पैरों पर क्रीड़ा कर रही थीं। जंगल के तमाम पेड़ों की पत्तियाँ वहाँ थीं। भूर्ज की पीली पत्तियाँ, पर्वतीय देवदारु की लाल आभायुक्त पत्तियाँ, एल्म की सूखी काली-भूरी पत्तियाँ, आस्पेन की चमकीली लाल पत्तियाँ और सरपत की पीली-हरी पत्तियाँ। मुरझाई और तुड़ी-मुड़ी टूटी और दागदार ये पत्तियाँ उन मुलायम, नरम हरे तने की तरह तो कम ही दिखती थीं जो कुछ ही महीने पहले कलियों से फूटकर बाहर आए थे।
“तुम पापी हो,” लड़के ने कहा, “हम सभी पापी हैं। परमेश्वर की दृष्टि में कुछ भी पवित्र नहीं है। तुम उसके क्रोध की लौ में पहले ही झुलस चुके हो।”
तब वह फिर आगे बढ़ा, जबकि जंगल उसके नीचे तूफ़ान में किसी समुद्र की तरह लहरा रहा था। हालाँकि उसके रास्ते के आस-पास शांति और नीरवता थी। लेकिन उसे ऐसा कुछ सुनाई नहीं दिया जिसे उसने पहले कभी नहीं सुना था। जंगल आवाज़ों से भरा था। कभी उसे फुसफुसाने जैसी आवाज़ सुनाई देती, कभी हलका विलाप सुनाई देता, कभी ज़ोरदार धमकी तो कभी श्राप के गरजते स्वर सुनाई देते। कभी हँसी का स्वर उभरता तो कभी कराहने का। यह सैकड़ों समवेत स्वर जैसा था किसी ऐसी अज्ञात चीज़ का स्वर, जो धमकाती और उत्तेजित करती थी, जो सीटी बजाती और फुफकारती थी, ऐसी कोई चीज़ जिसके होने का आभास तो होता था लेकिन जो थी नहीं; इस चीज़ ने उसे पागल-सा कर दिया। वह मृत्युवत् भय से काँप गया, जैसे कि वह पहले भी उस दिन काँपा था, जब वह अपनी गुफा के फ़र्श पर लेटा था और उसने अपना पीछा करने वालों को अपने ऊपर जंगल में बमकते हुए भागने की आवाज़ सुनी थी। उसे फिर से जैसे डालियों के चरमराने, आदमियों के भारी क़दमों, उनके हथियारों की टंकार और उनकी वहशी, रक्तपिपासु चीख़ों की आवाज़ सुनाई दे रही थी।
उसके आस-पास अकेला तूफ़ान ही नहीं गरज रहा था। इसमें कुछ और भी था। ऐसा कुछ जो और भी भयंकर था। ऐसी आवाज़ें थीं जिन्हें समझने में वह असमर्थ था, मानो ये किसी अपरिचित संवाद के स्वर थे। उसने इससे भी ज़बरदस्त और अनेक तूफ़ानों को जहाज़ के साज-सामान पर गरजते सुना था। लेकिन उसने इतने सारे तारों की वीणा पर हवा के बजने की झंकार कभी नहीं सुनी थी। लग रहा था कि हर पेड़ का अपना स्वर था, हर दर्रे का दूसरा ही गीत था, चट्टानी दीवार से टकराकर आने वाली ज़ोरदार गूँज अपनी ही आवाज़ में चीख़कर जवाब दे रही थी। वह इन सभी तानों को समझता था, लेकिन उसके साथ अन्य अपरिचित ध्वनियाँ थीं और ये ही विचित्र ध्वनियाँ उसके अपने मस्तिष्क के अंदर स्वरों का तूफ़ान उठा रही थीं।
जंगल के अंधकार में वह जब भी अकेला हुआ, उसे डर लगा है। उसे खुला सागर और नंगी चट्टानें बहुत अच्छी लगती थीं। यहाँ पेड़ों की छायाओं में तो प्रेत और आत्माएँ मँडराती थीं।
तब अचानक उसे समझ आ गया कि तूफ़ान में कौन उससे बातें कर रहा था। यह परमेश्वर था, महान् प्रतिशोधी, समस्त न्याय का स्वामी। परमेश्वर उसके साथी के कारण उसका पीछा कर रहा था। परमेश्वर की माँग थी कि उसे साधु के हत्यारे को प्रतिशोध के लिए सौंप देना चाहिए।
तोर्ड तूफ़ान के बीच ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगा। उसने परमेश्वर को बताया कि वह क्या करना चाहता था, लेकिन कर नहीं पा रहा था। उसने दैत्य से बात करनी चाही थी और उससे यह प्रार्थना करनी चाही थी कि वह परमेश्वर के साथ शांति कर ले। लेकिन उसे शब्द नहीं मिल पाए थे; शर्म के मारे उसकी ज़बान बंद थी। “जब मुझे यह पता चला कि दुनिया पर एक न्यासी परमेश्वर राज़ करता है,” वह चिल्लाकर बोला, “तो मुझे समझ में आ गया है कि वह भटका हुआ है। मैं रात-भर अपने मित्र के लिए रोया हूँ। मैं जानता हूँ कि वह चाहे जहाँ भी छिप जाए, परमेश्वर उसे अवश्य ढूँढ़ लेगा। लेकिन मैं उससे बात नहीं कर पाया, उसके प्रति अपने प्रेम के कारण मुझे शब्द नहीं मिल सके। मुझसे यह मत कहना कि मैं उससे बात करूँगा। यह मत कहना कि सागर पर्वतों की ऊँचाई तक उठेगा।”
वह फिर ख़ामोश हो गया और तूफ़ान का गहन स्वर, जिसे वह परमेश्वर का स्वर समझता था, वह स्वर भी शांत हो गया। हवा में अचानक एक ठहराव आ गया, धूप खिल उठी, पतवारों की-सी आवाज़ आई और कड़े सरकंडों की हलकी सरसराहट सुनाई दी। इस कोमल तानों ने ऊन की याद दिला दी।
तब तूफ़ान फिर शुरू हो गया और उसे अपने पीछे क़दमों की आहट और जल्दी-जल्दी हाँफने की आवाज़ सुनाई दी। इस बार वह घूमने का साहस नहीं कर पाया, क्योंकि उसे पता था कि यह सफ़ेद साधु ही था। वह ख़ून में सना, बेर्ग के बड़े हॉल में होने वाली दावत से आया था और उसके माथे पर कुल्हाड़ी से कटने का खुला घाव था और वह फुसफुसाकर बोला, 'उससे विश्वासघात करो। उसे शत्रु के हवाले कर दो, ताकि तुम उसकी आत्मा को बचा सको।'
तोर्ड भागने लगा। यह सारा भय उसके अंदर बढ़ता ही गया, बढ़ता ही गया और उसने इससे दूर भागने की कोशिश की। लेकिन दौड़ते हुए भी उसे अपने पीछे वही गहन, ज़बरदस्त स्वर सुनाई दिया जो उसके अनुसार परमेश्वर का स्वर था। परमेश्वर स्वयं उसका पीछा कर रहा था, उससे माँग कर रहा था कि वह हत्यारे को सौंप दे। बेर्ग का अपराध उसे इस समय जितना भयंकर दिखाई दिया, उतना पहले कभी दिखाई नहीं दिया। एक निहत्थे आदमी की हत्या हुई थी। परमेश्वर के एक सेवक को कुल्हाड़ी से काट डाला गया था और हत्यारा अभी भी जीने का साहस किए जा रहा था। वह सूरज की रोशनी और पृथ्वी के फलों का आनंद लेने का साहस कर रहा था। तोर्ड रुका, उसने अपनी मुट्ठियाँ भींचीं और धमकी-भरी चीख़ मारी। फिर एक पागल आदमी के सामने वह जंगल से, आतंक के उस राज्य से भागकर नीचे घाटी में चला गया।
जब तोर्ड ने गुफा में प्रवेश किया तो भगोड़ा पत्थर की बेंच पर बैठा सिलाई कर रहा था। आग से केवल पीली-पीली रोशनी हो रही थी और उसका काम संतोषजनक ढंग से होता नहीं दिख रहा था। लड़के का दिल दया से भर गया। यह अति श्रेष्ठ दैत्य एकदम से इतना दीन और इतना दुखी दिखाई देने लगा था।
“क्या बात है?” बेर्ग ने पूछा, “क्या तुम बीमार हो? क्या तुम डर गए हो?”
तब पहली बार तोर्ड ने अपने भय के बारे में बताया, “जंगल में इतना अजीब लगा। मुझे आत्माओं की आवाज़ें सुनाई दीं और मुझे प्रेत दिखाई दिए। मैंने सफ़ेद साधु देखे।”
“लड़के!”
“वे पहाड़ की चोटी तक सारे रास्ते मुझे गीत सुनाते रहे। मैं उनसे दूर भागा, लेकिन वे गाते हुए मेरे पीछे भागे। क्या मैं आत्माओं का शमन नहीं कर सकता? मुझे उनके साथ क्या करना चाहिए? दूसरे लोगों को उनका दिखाई देना अधिक ज़रूरी है।”
'आज रात तुम पागल तो नहीं हो गए हो तोर्ड?”
तोर्ड बोलने लगा तो उसे पता नहीं था कि वह क्या शब्द इस्तेमाल कर रहा है। उसका संकोच अचानक उससे अलग हो गया था और उसके होंठों से संवाद जैसे झर रहा था। “वे सफ़ेद साधु हैं, मुरदों की तरह पीले और उनके वस्त्रों पर ख़ून के धब्बे हैं। वे अपनी टोपियों को माथे पर खींचे रहते हैं लेकिन मुझे वहाँ पर घाव चमकते दिखाई दे जाते हैं। ये कुल्हाड़ी के घाव होते हैं—बड़े, खुले और लाल।”
“तोर्ड,” दैत्य ने कहा। वह पीला और गंभीर हो गया था, “यह तो संत ही जानते हैं कि तुम्हें कुल्हाड़ी के घाव क्यों दिखाई देते हैं। मैंने तो साधु को छुरे से मारा था।
“तोर्ड काँपता और अपने हाथों को मलता हुआ बेर्ग के सामने खड़ा था। “उन्होंने मुझसे तुम्हारी माँग की है, वे मुझे बाध्य करते हैं कि मैं तुम्हें पकड़वा दूँ।”
“कौन? साधु लोग?”
“हाँ-हाँ, साधु लोग। वे मुझे सपने में दिखाई देते हैं। वे मुझे ऊन को दिखाते हैं। वे मुझे खुला, धूपदार सागर दिखाते हैं। वे मुझे मछुआरों के शिविर दिखाते हैं जहाँ नाच-गाना होता है। मैं अपनी आँखें बंद कर लेता हूँ फिर भी मुझे यह सब दिखाई देता है। 'मुझे छोड़ दो,' मैं उनसे कहता हूँ, “मेरे दोस्त ने हत्या ज़रूर की है पर वह बुरा नहीं है, मुझे अकेला छोड़ दो और मैं उससे बात करूँगा कि वह पश्चात्ताप करे, अपने आपको सुधारे। उसने जो ग़लती की है, वह उसे समझेगा और पवित्र समाधि की तीर्थयात्रा करेगा।”
“और साधु लोग क्या जवाब देते हैं?” बेर्ग ने पूछा, “वे मुझे क्षमा नहीं करना चाहते। वे मुझे प्रताड़ित करके दंडस्वरूप आग में जला देना चाहते हैं।”
“क्या मैं अपने सबसे अच्छे मित्र को पकड़वा दूँ?” मैं उनसे पूछता हूँ,
“दुनिया में उसके अलावा मेरा कोई नहीं है। उसने मुझे भालू से उस समय बचाया था, जब भालू के पंजें मेरे गले तक पहुँच चुके थे। हमने साथ-साथ भूख और ठंड को सहा है। जब मैं बीमार था तो उसने मुझे अपने ही कपड़ों में लपेटा था। मैंने उसे लकड़ियाँ और पानी लाकर दिया है, मैंने उसके सो जाने पर पहरा दिया है और उसके दुश्मनों को ग़लत रास्ते पर भटकाया है। वे मुझे ऐसा आदमी क्यों समझते हैं जो अपने मित्र के साथ विश्वासघात करेगा? मेरा मित्र स्वयं पुरोहित के पास जाएगा और उसके आगे पाप स्वीकार करेगा और फिर हम दोनों साथ-साथ पाप-क्षमा के लिए याचना करेंगे।”
बेर्ग गंभीर होकर सुनता रहा, उसकी उत्सुक आँखें तोर्ड के चेहरे को टटोल रही थीं, “तुम ही पुरोहित के पास जाओ और उसे सच-सच बता दो। तुम्हें फिर से मनुष्यों के समाज में लौट जाना चाहिए।”
“मेरे अकेले के जाने से क्या होगा? मरे हुए लोगों की आत्माएँ तुम्हारे पाप के कारण मेरा पीछा करती हैं। क्या तुम्हें दिखाई नहीं देता कि मैं तुम्हारे आगे कैसे काँपता हूँ? तुमने स्वयं परमेश्वर के ख़िलाफ़ हाथ उठाया है। तुम्हारे अपराध जैसा और क्या अपराध होगा? तुमने मुझे न्यायी परमेश्वर के बारे में क्यों बताया? तुम ख़ुद ही तो मुझे बाध्य करते हो कि मैं तुम्हारे साथ विश्वासघात करूँ। मुझसे यह पाप मत करवाओ। पुरोहित के पास तुम स्वयं जाओ।” वह बेर्ग के सामने घुटनों के बल बैठ गया।
हत्यारे ने उसके सिर पर हाथ रखा और उसकी ओर देखा, उसने अपने पाप का आकलन अपने साथी के भय से किया और बढ़ता-बढ़ता बहुत बड़ा हो गया। उसने अपने आपको उस परम इच्छा के साथ टकराव की स्थिति में देखा, जो दुनिया पर राज़ करती है। पश्चात्ताप उसके दिल में घर कर गया।
“लानत है मुझ पर कि मैंने वह सब किया,” वह बोला, “और क्या यह दयनीय जीवन, यह जो आतंक और अभाव का जीवन हम यहाँ जी रहे हैं, क्या यह अपने आप में पर्याप्त पश्चात्ताप नहीं है? क्या मेरा घर-बार और संपत्ति मुझसे नहीं छिन गई? क्या मेरे दोस्त और वे सारी ख़ुशियाँ मुझसे नहीं छिन गईं, जो आदमी के जीवन का अंग होती हैं? इससे अधिक और क्या हो सकता है?”
तोर्ड ने उसे इस तरह बोलते सुना तो वह भयवश उछलकर खड़ा हो गया। “तुम पश्चात्ताप कर सकते हो!” वह चिल्लाया, “मेरे शब्द तुम्हें द्रवित कर सकते हैं? ओह, मेरे साथ आओ, इसी समय आ जाओ। आओ, समय रहते ही हम चलें।”
दैत्य बेर्ग भी उछलकर खड़ा हो गया, “तुमने...यह किया...?”
“हाँ, हाँ, हाँ, हाँ। मैंने तुम्हारे साथ विश्वासघात कर दिया है। लेकिन जल्दी से आओ। अब आओ भी, क्योंकि अब तुम पश्चात्ताप कर सकते हो। हमें बच निकलना चाहिए। हम बच निकलेंगे।”
हत्यारा फ़र्श पर झुका, जहाँ उसके पाँवों पर उसके पुरखों का फ़रसा पड़ा था। “चोर की औलाद,” उसने फुफकारते हुए कहा, “मैंने तुम पर भरोसा किया...मैंने तुम्हें प्यार किया।”
लेकिन जब तोर्ड ने उसे फ़रसा उठाने के लिए नीचे झुकते देखा तो वह समझ गया कि अब उसकी ख़ुद की ज़िंदगी ख़तरे में है। उसने अपने कमरबंद से अपनी कुल्हाड़ी निकाल ली और इससे पहले कि बेर्ग उठ पाता, उसने उसके सिर पर वार कर दिया। दैत्य सिर के बल फ़र्श पर गिर पड़ा, और ख़ून निकलकर गुफा में फैल गया। उसकी उलझी जटाओं के बीच तोर्ड को कुल्हाड़ी का बड़ा, खुला और लाल घाव दिखाई दिया।
तभी किसान गुफा में घुस पड़े। उन्होंने उसके इस काम की प्रशंसा की और उससे कहा कि उसे पूरी क्षमा मिलेगी।
तोर्ड ने अपने हाथों को देखा, मानो उसे वहाँ वे बेड़ियाँ दिखाई दे रही थीं जिन्होंने उसे उस आदमी को मारने के लिए उकसाया था, जिसे वह प्यार करता था। पौराणिक फेनरिस भेड़िए की ज़ंजीरों की तरह वे भी रिक्त हवा से बुनी हुई थीं। वे सरकंडों के बीच के हरे प्रकाश से बुनी गई थीं, जंगलों में छायाओं की आँखमिचौनी से बुनी गई थीं, तूफ़ान के गीत से बुनी हुई थीं, पत्तियों की सरसराहट से बुनी गई थीं और बुनी थीं सपनों के जादुई दर्शन से। और उसने ज़ोर से कहा, “परमेश्वर महान् है।”
वह मुर्दा शरीर के पास दीनतापूर्वक झुककर बैठ गया और रो-रोकर मृतक से याचना करने लगा कि वह जाग जाए। गाँव वालों ने स्वतंत्र किसान की लाश को उसके घर पहुँचाने के लिए अपने भालों से पालकी तैयार की। मृत व्यक्ति उनके मनों में श्रद्धाभाव जगा रहा था और उन्होंने उसकी उपस्थिति में अपने स्वरों को कोमल कर लिया था।
जब उन्होंने मृतक को उठाकर अरथी पर रखा तो तोर्ड उठकर खड़ा हो गया। उसने बालों को झटककर आँखों से हटाया और काँपती आवाज़ में कहा, “जिस ऊन के लिए दैत्य बेर्ग हत्यारा बना था, उससे कहना कि मछुआरे तोर्ड ने, जिसका बाप टूटे जहाज़ों को लूटता है और जिसकी माँ डायन है—उससे कहना कि तोर्ड ने बेर्ग को इसलिए मार डाला, क्योंकि बेर्ग ने ही उसे यह शिक्षा दी थी कि न्याय दुनिया का आधारतत्त्व है।”
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unhonne jis gupha ko apna ghar banaya, wo pahaD mein gahrai se katkar banai gai thi. uske munh par chauDe chauDe patthar aur kantili jhaDiyan suraksha ke liye lagai gai theen. pahaD ke upar cheeD ka ek vishal vriksh tha aur unki bhatthi ki chimani iski kunDlidar jaDon mein chhipi hui thi. is tarah bhatthi se uthne vala dhuan cheeD ki bhari latakti shakhaon mein chala jata tha aur sabki nazron se ojhal hava mein ghul mil jata tha. apni gupha tak pahunchne ke liye un donon ko pahaDi ki Dhalan se nikalne vali jaldhara se hokar jana paDta tha. unka pichha karne valon mein se koi bhi sukhad nadiya mein unka suragh DhunDhane ki nahin sochta tha. pahle to unki is tarah se khoj ki gai, jaise jangali janvaron ki hoti hai. janpad ke kisan unki talash karne ke liye is tarah ikatthe hote, jaise kisi bheDiye ya bhalu ke liye hote hain. teer kaman liye gramavasi jangal ko gher lete aur bhale liye hue log ek ek jhaDi aur darre ko chhaan marte. donon bhagoDe apni andheri gupha dubak jate aur bhay mein hanphate rahte aur jab talash karne vale log pahaD ke upar gupha se shor machate nikalte to ve saans rokkar sunte rahte.
ek lambe din tak yuva machhuara to achal leta raha, lekin hatyare se aur sahn nahin hua aur wo khule mein nikal gaya, jahan se uske dushman dikhai de sakte the. unhonne use dekh liya aur uske pichhe lag gaye. lekin napunsak bhay mein chupchap paDe rahne ki apeksha ye sthiti use kahin adhik pasand thi. wo apna pichha karne valon ke aage se jaldharaon ko phalangata hua, chattanon se sarakta hua aur chattan ki sidhi khaDi divar par chaDhta hua bhagta raha. khatre ne tamam uski adbhut shakti aur kaushal ko eD lagakar usmen urja jaga di. uska sharir ispaat ki kamani sa lachila ho gaya, uske paanv driDhta se jamne lage, uske hathon ki pakaD achuk ho gai aur uski ankh aur kaan dugune tez ho gaye. wo peD patton mein hone vali harek sarsarahat ko jaan jata tha; wo kisi ulte hue patthar mein chhipi chetavni ko samajh jata tha.
jab wo kisi chattan ke upar chaDh jata to rukkar niche apna pichha karne valon ko dekhta aur zor zor se nafar ke gane gakar unka svagat karta. jab unke bhale uske sir ke upar hava mein gana gate to wo unhen pakaDkar vapas phenk deta. jab wo uljhi hui jhaDiyon se hokar apna rasta banata to lagta jaise uske andar koi anand ka jangali geet ga raha hai. ek bhayankar nanga parvat sikhar jangal ke pure vistar mein phaila hua tha aur iski choti par ek lamba cheeD ka vriksh eqdam akela khaDa tha. uska laal katthai tana nanga tha aur sabse upar ghani shakhaon par ek baaz ka ghonsla manthar hava mein jhulta tha.
bhagoDa itna niDar ho gaya tha ki ek any din jab uska pichha karne vale niche jangal ki Dhalanon mein uski talash kar rahe the to wo ghonsle tak ja pahuncha. wo vahan baith gaya aur baaz ke bachchon ki gardan maroDne laga. jabki use DhunDhane vale usse bahut niche ho halla karte rahe. baDe baaz ghusse mein chikhte hue uske aas paas manDrate rahe. ve uske chehre ke paas se jhapatte hue nikalte, apni chonch se uski ankhon par prahar karte, apne damdar pankhon ko uske upar phaDphaDate aur unhonne mausam ke thapeDe khakar kathor ho gai uski chamDi par panje maar markar baDi baDi kharonchen bhi bana deen. wo hans hansakar unse jujhta raha. wo jhulte hue ghonsle mein khaDa hokar un parindon par chhure se vaar karta raha aur laDai ke anand mein wo khatre aur apna pichha kiye jane ki soch ko bilkul hi bhool gaya. jab use phir iski yaad i aur wo apne dushmanon ko dekhne ke liye muDa to use khojne vali toli dusri disha mein ja chuki thi. pichha karne valon mein se ek ke bhi dimagh mein ye baat nahin i thi ki apni ankhen uthakar badalon ki taraf dekh le, jahan unka shikar latka hua skuli bachchon jaisi laparvahi ki harkaten kar raha tha, jabki uski apni zindagi adhar mein latki thi. lekin jab usne ye dekha ki wo surakshait tha to wo sir se paanv tak kaanp gaya. usne kanpte hathon se koi sahara pakDa. wo jis unchai tak chaDh aaya tha, vahan se usne chakrakar niche dekha. girne ke bhay se karahte hue, parindon se bhaybhit, dekhe jane ki sambhavana se bhaybhit, harek cheez aur kisi bhi cheez ke atank se kamzor wo peD ke tane se vapas sarakkar niche aa gaya. jamin par aakar wo chit paD gaya aur chhutta pattharon par rengta hua jhaDi tak pahuncha. vahan wo chhote cheeD ke vrikshon ki uljhi shakhaon ke beech chhip gaya aur kamzor aur asahaye hokar mulayam kai mein gir gaya. us samay ek akela adami bhi use pakaD sakta tha.
torD naam tha us machhuare ka. wo keval solah saal ka tha, lekin mazbut aur bahadur tha. jangalon mein rahte hue ab pura ek saal ho chuka tha us machhuare torD ko.
kisan ka naam berg tha aur log use daity kaha karte the. wo sundar aur suDaul tha aur samuche pardesh mein usse lamba aur mazbut adami koi aur nahin tha. uske kandhe chauDe the, lekin wo chharahra hi tha. uske haath komal the, mano usne kabhi koi mehnat ka kaam hi nahin kiya ho. uske baal bhure the aur chehre ki rangat halki thi. jab wo jangal mein kuch samay tak rah liya to uski akriti mein mazbuti ke chihn aise ban gaye ki log raub kha jayen. uske mathe ki baDi baDi manspeshiyon ki shiknon mein bhari ghani bhaunhon ke niche uski ankhen paini ho gain. uske honth pahle se kahin adhik driDh ho gaye, chehra bhi mlaan ho gaya, kanpati ke gaDDhe gahre ho gaye aur uske galon ki mazbuti se ubhri haDDiyan samany ho gain. uske sharir ke tamam komal ubhaar ghayab ho gaye, lekin manspeshiyan ispaat si mazbut ho gain. uske baal tezi se safed hote gaye.
torD ne itne shanadar aur itne taqatvar adami ko pahle kabhi nahin dekha tha. uski kalpana mein uska ye sathi jangal sa mazbut aur harahrati samudri lahron sa mazbut tha. wo vinit hokar uski seva karta tha, jaise wo kisi malik ki karta. wo use kisi devta ki tarah shardha deta. ye atyant svabhavik hi lagta tha ki torD shikari bhala lekar chale, shikar ko ghar khinchkar laye, pani bhare aur aag jalaye. daity berg in sabhi sevaon ko svikar karta tha, lekin usne laDke se kabhi dosti ke do shabd nahin bole the. wo use tiraskar se dekhta aur use ek mamuli chor manata tha.
ye bhagoDe apradhi lutapat nahin karte the, balki apna pet palne ke liye janvaron aur machhli ke shikar par nirbhar rahte the. agar berg ne ek dharmik vekti ko nahin mara hota to kisan log jaldi hi unki talash karne se thak jate aur unhen pahaDon mein unke haal par hi chhoD dete. lekin ab unhen Dar tha ki agar ishvar ke daas ko ghaat karne vale vekti ko unhonne bina danD diye chhoD diya to unke gaanv par bhari vipatti ayegi. jab torD shikar markar use niche ghati mein le jata to ve prastav rakhte ki agar wo unhen daity ki gupha tak le jaye, taki ve use sote mein pakaD saken to ve use paisa bhi denge aur uske apne apradh ko kshama bhi kar denge. lekin wo laDka iske liye mana kar deta aur agar ve uske pichhe pichhe ho bhi lete to wo unhen tab tak bhatkata rahta, jab tak ve uska pichha nahin chhoD dete the.
ek baar berg ne usse puchha ki kya kabhi kisanon ne use is baat ke liye uksaya tha ki wo use unke hathon mein saunp de. jab torD ne use bataya ki kisanon ne use is kaam ke liye kitna inaam dene ka vayada kiya tha to usne uska uphaas uDate hue kaha tha ki usne aise prastav thukrakar murkhata ki thi. torD ne uski or ankhon mein aisa bhaav lakar dekha, jise daity berg ne pahle kabhi nahin dekha tha. usne apni javani ke dinon mein jin khubsurat aurton se pyaar kiya tha unmen se kisi ne bhi uski or aise nahin dekha tha; na to apne bachchon ki aur na hi apni bivi ki ankhon mein usne itna sneh dekha tha. “tum mere parmeshvar ho, wo shasak ho, jise mainne apni ichha se chuna hai,” uski ankhen yahi kahti theen, “tum mera tiraskar kar sakte ho ya chaho to mujhe peet sakte ho, lekin main phir bhi tumhara vafadar rahunga. ”
iske baad berg laDke par aur dhyaan dene laga aur usne dekha ki uske karnamon mein to bahaduri thi lekin bolne mein sankoch tha. maut ka use koi bhay nahin dikhta tha. wo janbujhkar apne liye aisa rasta chunta tha jahan pahaDon ke gaDDhon mein taza barf jami hoti thi ya vasant mein daldal ki chhalpurn satah hoti thi. use khatre mein anand milta tha. ab kyonki wo bhayankar samudri tufanon mein nahin ja pata tha, isliye use inhin mein uski bharpai milti thi. lekin jangal ke ratrikalin andhere mein wo kaanp jata tha aur din mein bhi kisi jhaDi ki jhain ya koi gahri parchhain use Darane ke liye kafi hoti thi. jab berg usse is bare mein puchhta to wo sharmakar chup rah jata tha.
torD gupha ke pichhle hisse mein bane chulhe ke paas lage bistar par nahin sota tha, balki har raat jab berg so jata tha to wo rengkar gupha ke munh par aa jata tha aur vahan ek chauDe patthar par let jata tha. berg ko ye pata chal gaya aur usne jante hue bhi laDke se iska karan puchha? torD ne koi javab nahin diya. agle savalon se bachne ke liye wo do raat bistar par hi soya aur phir darvaze par apni niyat jagah par aa gaya.
ek raat jab peD ki phunagiyon par barfile tufan ne utpaat machaya hua tha aur jhaDiyon ke beech mein bhi halchal machi thi, barf ke gole uD uDkar un bhagoDon ki gupha ke andar bhar gaye. jab darvaze par leta torD subah jaga to usne dekha ki wo pighalti barf ki chadar mein lipta hai. ek do din baad wo bimar paD gaya. wo saans lene ki koshish karta to uske phephaDon mein bedh dene vala dard uthta. jab tak usmen shakti rahi, usne is dard ko sahn kiya, lekin ek shaam jab wo aag phunkne ke liye jhuka to gir paDa aur phir uth nahin paya. berg uski bagal mein aaya aur usse garm bistar par letne ko kaha. torD dard ke mare karahta raha lekin hil nahin paya. berg use apni banhon mein uthakar bistar par laya. aisa karte samay use aisa lag raha tha, mano wo kisi lijalije saanp ko chhu raha ho; uske munh ka svaad aisa ho raha tha, mano usne ashuddh maans kha liya ho. itna aruchikar tha uske liye is sadharan chor ke sharir ko chhuna! berg ne bimar laDke par bhalu ki khaal ka bana apna kanbal Daal diya aur use pani pilaya. wo bus itna hi kar saka, lekin bimari khatarnak nahin thi aur torD jaldi theek ho gaya. lekin ab kyonki berg ko kuch dinon tak apne sathi ka kaam karna paDa tha aur uski dekhbhal karni paDi thi to ve ek dusre ke aur qarib aa gaye lagte the. jab ve donon aag ke paas saath saath baithe apne teer banate hote to torD kabhi kabhi usse bolne ka sahas kar leta tha.
“tum achchhe logon ke parivar se ho,” torD ne ek shaam berg se kaha, “tumhare rishtedar ghati ke sabse amir kisan hain. tumhare naam ke adami rajaon ki seva mein rahe hain aur unke mahlon mein laDe hain. ”
“adhiktar to ve bagiyon ke saath laDe hain aur unhonne raja ki sampatti ko nuqsan pahunchaya hai. ” berg ne javab diya.
“tumhare purkhe christmas ke samay baDi baDi davaten dete the aur tum jab apne makan mein aram se the to tum bhi davaten dete the. saikDon adami aurten tumhare baDe hall mein benchon par baithte the; us hall mein jo un dinon mein banaya gaya tha, jab sant uulav namakarn sanskar ke liye yahan viken mein aaya bhi nahin tha. vahan baDe baDe chandi ke kalash the aur seeng ke bane baDe baDe patron mein tumhari mez par shahd ki madira parosi jati thi. ”
berg ne ek baar phir laDke ki or dekha. wo palang ke kinare baitha tha, uska sir uske haath mein tha aur wo apni ankhon par gir aaye bhari uljhe balon ko pichhe kar raha tha. bimari mein uska chehra pila aur nikhar gaya tha. uski ankhen abhi bhi bukhar mein chamak rahi theen. wo apni kalpana se ubhri tasviron par man hi man muskra raha tha. ye tasviren theen baDe hall aur chandi ke kalshon ki, mahnge vastra pahne mehmanon ki aur sammanajnak sthaan par baith hukm chalate daity berg ki. kisan berg janta tha ki uske mahimamay dinon mein bhi kisi ne uski or prashansa se, is tarah chamakti aur shardha se, is tarah damakti ankhon se kabhi nahin dekha tha, jaise ki is samay aag ke paas phati purani jacket pahne ye laDka dekh raha tha. wo drvit ho utha, lekin uski aprasannata bani rahi. is sadharan chor ko koi adhikar nahin tha ki use sarahe.
torD hansa, “vahan un chattanon par jahan pita aur maan rahti hain? pita to durghatna mein tute jahazon ko lutta hai aur maan Dayan hai. jab mausam tufani hota hai to wo seel machhli ki peeth par savar hokar jahazon se milne chal deti hai aur durghatna mein jo log jahaz se bahar aa girte hain, ve uske ho jate hain. ”
“vah unka kya karti hai?” berg ne puchha.
“oh! Daynon ko to hamesha hi lashon ki zarurat hoti hai. wo unse marham banati hai ya shayad unhen kha jati hai. chandni raton ko wo bhishan roop se harahrati lahron mein ja baithti hai aur Dube hue bachchon ki ankhon aur ungliyon ki talash mein rahti hai. ”
“yah to bhayankar hai!” berg ne kaha.
laDke ne shaant atmavishvas ke saath kaha, “dusron ke liye hoga, lekin kisi Dayan ke liye nahin. wo iske bina rah hi nahin sakti. ”
berg ke liye ye zindagi ko dekhne ka ek bilkul alag Dhang tha.
“tab to choron ko chori karni hoti hogi, jaise Daynon ko jadu karna hota hai?” usne tikha saval kiya.
“haan, kyon nahin,” laDke ne javab diya, “harek vekti ko wo karna hota hai jiske liye uska janm hota hai. ” lekin sankochpurn chalaki ke saath muskrate usne aage kaha, “aise chor bhi hote hain jinhonne kabhi chori nahin ki hoti. ”
“kya matlab?” berg bola.
laDke ke honthon par ab bhi wo rahasyamay muskan thi aur wo is baat se khush dikhta tha ki usne apne sathi ko ek paheli mein uljha diya tha. ‘‘aisi chiDiyan hoti hain jo uDti nahin hain; aur aise chor hote hain jinhonne kabhi chori nahin ki hai. ” usne kaha.
berg ne moorkh banne ka bahana kiya taki laDke ke matlab ko nikalva sake. “jisne kabhi chori nahin ki, use chor kaise kaha ja sakta hai?” usne kaha. ”
laDke ke honth kaskar band ho gaye, mano wo shabdon ko rok raha ho. “lekin agar kisi ka baap chori karta ho. . . ” usne thoDi der ki chuppi ke baad kah Dala.
“adami ko paisa aur makan to virasat mein mil sakta hai, lekin chor ka naam keval use diya jata hai jisne vaisa kaam kiya hota hai. ”
torD pyaar se hans diya. “lekin jab kisi ki maan ho—aur wo maan aaye aur roe tatha usse yachana kare ki wo apne pita ka zurm apne upar le le—aur tab wo vekti jallad par hans sakta hai aur jangal mein bhaag sakta hai. koi vekti us machhli ke jaal ke liye bhagoDa apradhi ghoshait kiya ja sakta hai jise usne kabhi dekha hi nahin. ”
berg ne bahut ghusse mein patthar ki mez par ghunsa mara. yahan is mazbut, sundar laDke ne apni puri zindagi kisi aur ke liye de di thi. pyaar, paisa ya apne sathiyon ka aadar ab use phir kabhi nahin mil payega. ab uski zindagi mein khane aur kapDe ki ghatiya chinta ke alava aur kuch nahin rah gaya tha. aur is moorkh ne use, berg ko, ek masum vekti ka tiraskar karne diya. usne use kaड़i phatkar lagai, lekin torD Dara to bus utna hi jitna ki koi bimar bachcha apni chintit maan ki phatkar khane se Darta hai.
bahut unchai par sthit ek vrikshachchhadit pahaDi par ek daldali jheel thi. ye jheel vargakar thi aur iske kinare itne sidhe aur uske kone itne tikhe the ki lagta tha jaise unhen manushya ke hathon ne banaya ho. teen or chattan ki khaDi divaren theen aur kathor, pahaDi cheeD vriksh pattharon se chipte hue the aur unki jaDen adamiyon ki bhujaon jitni moti theen. jheel ki satah par jahan ghaas ki kuch pattiyan bahkar hat chuki theen, vahan ye nangi jaDen muDi hui aur kunDali mare theen aur pani mein aise asankhy sanpon ki tarah uth rahi theen, jinhonne lahron se bachne ki koshish ki thi lekin apni is ji toD koshish mein patthar ban gai theen. ya ye bahut pahle Doob gaye daityon ke kale paD chuke kankalon ke Dher ki tarah lag rahi theen, jinhen jheel bahar phenkne ki koshish kar rahi thi. unki bhujayen aur tangen buri tarah se ainth gai theen, lambi ungliyan chattanon mein gahre paith gai theen, aur mazbut pasaliyan aisi mahraben ban gai theen jin par prachin vriksh sadhe hue the. lekin ye lohe si kathor bhujayen, ye ispati ungliyan, jinse upar chaDhte hue cheeD vrikshon ne apne aapko sahara de rakha tha, jab tab ye apni pakaD Dhili kar deti theen aur tab zabardast uttari hava peD ko pahaDi chattan se uthakar door daldal mein phenk deti thi. vahan ye peD is prakar paDa rahta tha ki iski choti kichaDdar pani mein gahre Doob jati thi. machhliyon ko iski tahniyon ke beech chhipne ki achchhi jagah mil jati thi. jabki uski jaDen pani mein is tarah upar nikli rahti theen, jaise kisi bhayankar rakshas ki bhujayen hon aur isse wo chhoti si jheel Daravni dikhai dene lagti thi.
pahaD us chhoti jheel ki chauthi or Dhalan banaye the. yahan ek chhoti si nadi ufan rahi thi. lekin apna rasta banane se pahle ye jaldhara chattanon aur tilon ke beech muDti aur bal khati thi, jisse Dher sare tapu ban gaye the. inmen se kuch to paanv dharne ki jagah bilkul nahin ban pae the jabki dusre tapuon ki peeth par bees bees peD tak lade hue the. yahan, jahan par chattanen itni unchi nahin theen ki dhoop ko aane se rok saken, halke qim ke hare peD ug sakte the. yahan komal dhusararhit alDarvriksh the aur the chikni pattiyon vale sarpat. yahan bhoorj the, jaise ki ve har us jagah par hote hain jahan par sadabahar ko rokne ka avsar hota hai aur vahan par pahaDi devdaru aur elDar ki jhaDiyan theen aur ye us jagah ko saundarya aur suvas saunpte the. jheel ke pravesh bindu par adami ke sir barabar unche narakton ka ek jangal tha, jisse hokar dhoop pani par utni hi hari paDti thi jitni ki ye asli jangal mein kai par paDti hai. sarkanDon ke beech chhoti chhoti saaf jaghen theen, ye chhote chhote gol pokhar the, jahan kamal soe rahte the. lambe lambe narkat in sanvedanshil sundar pushpon ko pyaar bhari gambhirta ke saath dekhte rahte the aur jaise hi suraj apni kirnon ko sametta tha, kamal ke ye pushp apni safed pattiyon aur apne pile antःsthal ko atyant tivrata se apne bahari kaDe khol mein band kar lete the.
ek dhoop vale din ve donon bhagoDe in chhote pokharon mein se ek par machhli marne aaye. ve sarkanDon se rasta banate hue do baDe pattharon par aaye aur vahan baithkar unhonne un baDi, hari, chamakdar paik machhliyon ko pakaDne ke liye chara Daal diya jo pani ki satah ke theek niche soti theen. in adamiyon ki zindagi ab puri tarah se pahaDon aur jangalon ke beech beet rahi thi aur ve paudhon ya pashuon ki tarah hi prakrti ki shaktiyon ke niyantran mein bandh gaye the. jab suraj chamakta hota to ve mukt hirdai aur prasann rahte the, lekin shaam ko ve khamosh ho jate the aur sarvshaktishali lagne vali raat unki sari shakti chheen leti thi. is samay sarkanDon se hokar aane vale aur pani par sunahre, bhure aur kale hare rang ki pattiyan banane vale hare parkash ne unhen ek tarah ke jadui mood mein la diya tha. ve bahari duniya se puri tarah kate hue the. sarkanDe manthar hava mein dhire dhire lahra rahe the, narakte sarsara rahe the aur lambi fite jaisi pattiyan unke chehre ko thapthapa rahi theen. ve chamDe ki apni bhuri jakit pahne bhure pattharon par baithe the aur chamDe ke dhoop chhain rang patthar ke rang mein ghul rahe the. donon apne sathi ko aamne samne baithe kisi patthar ke but ki tarah chupchap dekh rahe the. aur sarkanDon ke beech ve baDi baDi machhliyon ko tairti aur indradhnush ke tamam rangon mein chamakti damakti dekh rahe the. jab unhonne apni Doren phenkin aur pani mein banti bhanvar ko sarkanDon ke beech baDa hota dekha to unhen laga ki ye gati baDhti hi chali ja rahi hai aur ant mein unhonne dekha ki ise paida karne vale ve akele vekti nahin the. ek jalapri, aadhi manav, aadhi machhli, pani mein niche gahrai mein soi hui thi. wo peeth ke bal leti thi aur lahren uske sharir se itni nikatta se chipki hui theen ki in adamiyon ne use pahle nahin dekha tha. uski saans hi pani ki satah mein hiloren bana rahi thi. lekin un dekhne valon ko ye nahin laga ki uske vahan lete hone mein koi ajib baat thi. aur jab agle kshan wo ghayab ho gai to ve ye nahin jaan pae ki uska dikhna bhram tha ya nahin.
hara parkash unki ankhon ko bedhta hua kisi nashe ki tarah unke mastishk mein utar gaya tha. ve sarkanDon ke beech kalpanik chizen dekh rahe the. aisi kalpanik chizen, jinke bare mein ve ek dusre ko bhi nahin batane vale the. unhonne machhli ka adhik shikar nahin kiya. sara din sapnon aur kalpanik chizen dekhne ki bhent ho gaya.
sarkanDon ke beech se patvaron ki avaz i aur ve apne sapnon se chaunkkar jaag gaye. kuch hi kshnon mein peD ke tane se banai gai ek bhari naav dikhai di, jise chalane vali parvaren tahalne vali chhaDi se adhik chauDi nahin theen. parvaren ek yuvati ke haath mein theen, jo kamal ikatthe kar rahi thi. usne lambe aur gahre balon ki chotiyan goonth rakhi theen, uski ankhen baDi baDi aur kali kali theen, lekin wo vichitr roop se pili thi. ye aisi pilahat thi jo dhusar na hokar halki gulabi rangat liye thi. uske galon ka rang uske shesh chehre ke rang se koi gaDha nahin tha; uske honth bhi itne laal nahin the. wo safed suti kapDe ki choli aur sunahre bakasue vali belt pahne thi. uska ghaghara nile rang ka tha aur us par laal rang ki chauDe kinare vali jhalar thi. wo in bhagoDon ke paas se naav kheti hui nikal gai, lekin usne unhen dekha nahin. ve bilkul shaant baithe rahe aur iske pichhe unka Dar itna nahin tha, jitni ki ye ichha thi ki ve use bina kisi vighn ke dekh saken. jab wo chali gai to patthar ke ve but phir se insaan ban gaye aur muskrane lage.
“vah kamal ke phulon ki tarah safed thi,” ek ne kaha, “aur uski ankhen vaisi hi kali theen, jaise vahan cheeD ki jaDon ke niche ka pani. ”
ve donon itne prasann the ki unhen hansne ka man hua. sachmuch hansne ka man hua jaise ki ve is daldal mein pahle kabhi nahin hanse the, aisi hansi jo chattan ki divar se takrakar gunjti hui vapas ayegi aur cheeD ki jaDon ko Dhila kar degi.
“kya tumhare vichar mein wo sundar thee” daity ne puchha?
“mujhe nahin pata, wo itni jaldi se nikal gai. shayad wo sundar thi. ”
“shayad tum use dekhne ka sahas nahin kar pae. kya tum sochte ho ki wo jalapri thee?”
aur ek baar phir unhen hansne ki vichitr ichha hui.
bachpan mein torD ne ek baar ek Dube hue adami ko dekha tha. use ye laash dinadhaDe samudr tat par mili thi aur use Dar nahin laga tha. lekin raat mein use bhayankar sapne aaye the. wo ek samudr ke upar dekhta lagta tha, jiski har lahr uske panvon par ek laash phenkti thi. use sari chattanen aur tapu Dube hue vyaktiyon ki lashon se Dhake dikhai dete the, un Dube hue vyaktiyon se jo mar chuke the aur sagar ke ho chuke the lekin jo chal phir sakte the aur bol sakte the aur apni safed akDi ungliyon se use Dara sakte the.
aur vahi is baar phir hua. jis laDki ko usne sarkanDon mein dekha tha wo use sapnon mein dikhai di. uski bhent laDki se ek baar phir daldali jheel ki talahti mein hui, jahan parkash sarkanDon ki tulna mein aur bhi hara tha aur vahan uske paas ye dekhne ka kafi samay tha ki wo khubsurat thi. usne sapne mein dekha ki wo jheel ke beech mein cheeD ki baDi baDi jaDon mein se ek par baitha tha aur cheeD vriksh kabhi pani ki satah ke niche, kabhi upar, niche upar jhool raha tha. phir usne laDki ko ek sabse chhote tapu par dekha. wo laal parvatiy devdaru ke niche khaDi thi aur us par hans rahi thi. uske antim sapne mein ye itna aage baDh gaya ki laDki ne use choom liya. lekin phir subah ho gai aur usne berg ke uthne ki avaz suni. lekin usne apni ankhen hathpurvak band rakhin, taki wo sapne ko aage dekh sake. jab wo jaga to raat ko dekhe sapne se uska sir chakra raha tha aur wo bhauchak tha. pichhle din ki apeksha ab usne laDki ke bare mein adhik socha. shaam ko jakar uske dimagh mein aaya ki kyon na berg se poochh liya jaye ki kya use laDki ka naam pata hai?
berg ne use tikhi nazron se dekha. “tumhare liye yahi achchha hai ki tum ise turant jaan lo,”
aur tab torD ko pata chala ki ye pili kanya hi thi jiske karan jangal aur pahaD mein chhipte hue berg ko vahshi zindagi bitani paD rahi thi aur log uski talash mein the. usne apni yadadasht ko tatolne ki koshish ki ki usne us laDki ke bare mein kya suna tha.
un ek svatantr kisan ki beti thi. uski maan mar chuki thi. aur ab apne pita ke ghar mein uska raaj tha. ye uski ruchi ke anukul tha, kyonki wo svbhaav se svadhin thi aur uska apne aapko kisi pati ke havale karne ka koi irada nahin tha. un aur berg rishte mein bahan bhai the aur ye afvah lambe samay se thi ki berg ko apne ghar mein kaam karne ki apeksha un aur uski dasiyon ke saath baithna adhik achchha lagta tha. ek christmas ke mauqe par jab berg ke hall mein baDi davat di jani thi to uski patni ne draksmark se ek sadhu ko is aasha se bulvaya hua tha ki wo berg ko ye jatayega ki kisi aur laDki ke pher mein uska apni patni ki upeksha karna kitna ghalat tha. berg aur uske alava any log is sadhu ki shakl surat ke karan usse chiDhte the. wo bahut bhari bharkam aur eqdam safed tha. uske ganje sir par balon ka ghera, uski nam ankhon ke upar bhaunhen, uski chamDi, uske hathon aur uske kapDon sabhi ka rang safed tha. kaiyon ko uski surat dekhne mein hi aruchi hoti thi.
lekin sadhu ko Dar nahin tha aur use ye vishvas to tha hi ki agar uski baat ko anek log sunen to uska adhik prabhav paDega, so wo tamam mehmanon ke samne mez par khaDa ho gaya aur bola, “log koel ko isliye sabse kharab chiDiya batate hain ki wo apne bachchon ki paravrish dusron ke ghonsle mein karti hai. lekin yahan ek aisa adami baitha hua hai jo apne ghar aur apne bachchon ki koi dekhbhal nahin karta aur ek parai aurat ke saath maze karna chahta hai. use main sabse kharab adami kahunga. ” un apni jagah par uth khaDi hui. “berg, ye tumse aur mujhse kaha gaya hai, “vah rokar kahne lagi, “mujhe kabhi itna sharminda nahin hona paDa, lekin yahan mera bachav karne ke liye mere pita bhi nahin hain. ” wo jane ke liye muDi, lekin berg jhapatkar uske paas pahuncha. “jahan khaDe ho vahin khaDe raho,” wo boli, “main tumhein dubara nahin dekhana chahti. ” berg ne use galiyare mein roka aur puchha ki wo aisa kya kar sakta hai ki wo uske saath rahe. uski ankhon mein chamak thi, jab usne javab diya ki use khu samajhna chahiye ki use kya karna hoga. tab berg dubara hall mein gaya aur usne sadhu ko maar Dala.
berg aur torD donon thoDi der ke liye ek se vicharon mein sochte rahe. phir berg ne kaha, “jab wo safed sadhu gira tha to tumhein un ko dekhana chahiye tha. meri patni ne bachchon ko apne paas samet liya aur un ko bura bhala kahne lagi. usne bachchon ke munh un ki or kar diye ki ve hamesha us aurat ko yaad rakhen jiski ख़atir unka baap hatyara ban gaya tha. lekin un vahan itni shaant aur itni khubsurat bani khaDi rahi ki use dekhne vale kaanp gaye. usne is kaam ke liye mujhe dhanyavad kaha aur pararthna ki ki main eqdam jangalon mein bhaag jaun. usne mujhse kaha ki main kabhi Daku na banun aur apne chhure ka istemal aise hi kisi nyayapurn kaam ke liye karun. ”
“tumhare kaam ne use nek bana diya tha. ” torD ne kaha.
aur ek baar phir berg ne apne ko usi baat par chakit paya, jisne ab se pahle use torD ke andar hone par chakit kiya tha. torD kaफ़ir tha, balki kaफ़ir se bhi bura tha. wo ghalat baat ki kabhi ninda nahin karta tha. lagta tha ki usmen zimmedari ka koi bhaav tha hi nahin. jo aana tha, aaya. wo parmeshvar ke bare mein, kraist ke bare mein aur santon ke bare mein janta to tha, lekin wo unhen bus naam se janta tha, jaise koi any rashtron ke devtaon ke naam janta hai. sheren tapu ke pret uske devta the. jadu sikhi uski maan ne use murdon ki atmaon mein vishvas karna sikhaya tha. aur tabhi berg ne ek aisa kaam apne upar le liya, jo vaisa hi murkhtapurn tha, jaise kisi ka apni hi gardan ke phande ke liye rassi bunna. usne is agyani laDke ki ankhen parmatma ki shakti ke prati khol deen. us parmatma ke prati jo samast nyaay ka svami tha. ghalati ka badla lene vala aisa parmeshvar tha, jo papiyon ko narak ki anant piDa ke havale kar deta hai. aur usne laDke ko ye sikhaya ki wo kraist aur unki maan ko prem kare aur un tamam sant istri purushon se prem kare, jo parmeshvar ke sinhasan ke aage baith pararthna karte rahte hain ki uska krodh papiyon par na paDe. usne laDke ko wo sab karna sikhaya jo manav jati ne parmeshvar ke krodh ko kam karne ke liye sikha hai. usne laDke ko pavitra asthanon ko jane vale tirthyatriyon ke lambe qafilon ke bare mein bataya. usne use un logon ke bare mein bataya jo pashchattap mein apne aapko koDe marte hain aur usne use un pavitra sadhuon ke bare mein bataya jo is sansar ke sukhon ko tyagkar chale jate hain.
jitna adhik wo bolta gaya, utna hi laDke ka rang pila paDta gaya aur utna hi uska dhyaan aur baDhta gaya aur uski ankhen un drishyon ki kalpana karke chauDi ho gain. berg ne apni baat samapt kar di hoti, lekin uske apne vicharon ki baaDh use baha le gai. raat un par utar i. ye vahi kali jangali raat thi, jahan ullu ki cheekh sannate mein pret si patli aur muhin gunjti hai. parmeshvar unke itne nikat aa gaya ki uske sinhasan ki chamak ne sitaron ko phika kar diya aur pratishodh ke farishte pahaD ki unchaiyon par utar aaye. aur unke niche rasatal ki lau phaDaphDakar prithvi ke bahari vakr par aa gai aur unhonne puri lalak se paap aur duःkh ke niche dabi pisi ek nasl ke is antim sharnasthal ko apni chapet mein le liya.
patjhaD aaya aur uske saath hi aaya tufan. torD akela phandon aur jalon ko dekhne ke liye bahar jangal mein nikla aur berg uske kapDon ko durust karne ke liye ghar mein hi bana raha. laDka jis raste par chala, wo use jangal ki ek aisi unchai par le gaya, jiske sahare sahare girti hui pattiyan hava ke jhonkon mein ghera banakar nachti theen. baar baar use aisa laga ki koi uske pichhe aa raha hai. wo kai baar muDa aur ye dekhkar phir aage baDh liya ki ye to keval hava aur pattiyan theen. usne sarsarahat paida karte gheron ko apna ghunsa dikhakar dhamkaya aur aage baDhta raha. lekin usne apni kalpanaon ki avazon ko khamosh nahin kiya tha. pahle to use pari shishuon ke nachte hue nanhen panvon ki avaz sunai dee; phir use apne pichhe aate ek baDe se saanp ki phuphkar sunai dene lagi. saanp ki bagal mein ek lamba, bhura jeev, bheDiya aaya, jo us kshan ke intzaar mein tha ki saanp uske panvon mein Dank mare aur wo uchhalkar uski peeth par ja chaDhe. torD ne apni chaal baDha di, lekin kalpanik chizen bhi usi gati se saath ho leen. jab use laga ki ve usse keval do qadam pichhe aur chhalang lagane ko taiyar hain to wo ghoom gaya. lekin jaisa ki use is pure samay mein pata tha, vahan kuch bhi nahin tha. wo ek patthar par baithkar sustane laga. sukhi pattiyan uske pairon par kriDa kar rahi theen. jangal ke tamam peDon ki pattiyan vahan theen. bhoorj ki pili pattiyan, parvatiy devdaru ki laal abhayukt pattiyan, elm ki sukhi kali bhuri pattiyan, aspen ki chamkili laal pattiyan aur sarpat ki pili hari pattiyan. murjhai aur tuDi muDi tuti aur dagadar ye pattiyan un mulayam, naram hare tane ki tarah to kam hi dikhti theen jo kuch hi mahine pahle kaliyon se phutkar bahar aaye the.
“tum papi ho,” laDke ne kaha, “ham sabhi papi hain. parmeshvar ki drishti mein kuch bhi pavitra nahin hai. tum uske krodh ki lau mein pahle hi jhulas chuke ho. ”
tab wo phir aage baDha, jabki jangal uske niche tufan mein kisi samudr ki tarah lahra raha tha. halanki uske raste ke aas paas shanti aur niravta thi. lekin use aisa kuch sunai nahin diya jise usne pahle kabhi nahin suna tha. jangal avazon se bhara tha. kabhi use phusaphusane jaisi avaz sunai deti, kabhi halka vilap sunai deta, kabhi zordar dhamki to kabhi shraap ke garajte svar sunai dete. kabhi hansi ka svar ubharta to kabhi karahne ka. ye saikDon samvet svar jaisa tha kisi aisi agyat cheez ka svar, jo dhamkati aur uttejit karti thi, jo siti bajati aur phuphkarti thi, aisi koi cheez jiske hone ka abhas to hota tha lekin jo thi nahin; is cheez ne use pagal sa kar diya. wo mrityuvat bhay se kaanp gaya, jaise ki wo pahle bhi us din kanpa tha, jab wo apni gupha ke farsh par leta tha aur usne apna pichha karne valon ko apne upar jangal mein bamakte hue bhagne ki avaz suni thi. use phir se jaise Daliyon ke charmarane, adamiyon ke bhari qadmon, unke hathiyaron ki tankar aur unki vahshi, raktapipasu chikhon ki avaz sunai de rahi thi.
uske aas paas akela tufan hi nahin garaj raha tha. ismen kuch aur bhi tha. aisa kuch jo aur bhi bhayankar tha. aisi avazen theen jinhen samajhne mein wo asmarth tha, mano ye kisi aprichit sanvad ke svar the. usne isse bhi zabardast aur anek tufanon ko jahaz ke saaj saman par garajte suna tha. lekin usne itne sare taron ki vina par hava ke bajne ki jhankar kabhi nahin suni thi. lag raha tha ki har peD ka apna svar tha, har darre ka dusra hi geet tha, chattani divar se takrakar aane vali zordar goonj apni hi avaz mein chikhkar javab de rahi thi. wo in sabhi tanon ko samajhta tha, lekin uske saath any aprichit dhvaniyan theen aur ye hi vichitr dhvaniyan uske apne mastishk ke andar svron ka tufan utha rahi theen.
jangal ke andhkar mein wo jab bhi akela hua, use Dar laga hai. use khula sagar aur nangi chattanen bahut achchhi lagti theen. yahan peDon ki chhayaon mein to pret aur atmayen manDrati theen.
tab achanak use samajh aa gaya ki tufan mein kaun usse baten kar raha tha. ye parmeshvar tha, mahan pratishodhi, samast nyaay ka svami. parmeshvar uske sathi ke karan uska pichha kar raha tha. parmeshvar ki maang thi ki use sadhu ke hatyare ko pratishodh ke liye saunp dena chahiye.
torD tufan ke beech zor zor se bolne laga. usne parmeshvar ko bataya ki wo kya karna chahta tha, lekin kar nahin pa raha tha. usne daity se baat karni chahi thi aur usse ye pararthna karni chahi thi ki wo parmeshvar ke saath shanti kar le. lekin use shabd nahin mil pae the; sharm ke mare uski zaban band thi. “jab mujhe ye pata chala ki duniya par ek nyasi parmeshvar raaj karta hai,” wo chillakar bola, “to mujhe samajh mein aa gaya hai ki wo bhatka hua hai. main raat bhar apne mitr ke liye roya hoon. main janta hoon ki wo chahe jahan bhi chhip jaye, parmeshvar use avashy DhoonDh lega. lekin main usse baat nahin kar paya, uske prati apne prem ke karan mujhe shabd nahin mil sake. mujhse ye mat kahna ki main usse baat karunga. ye mat kahna ki sagar parvton ki unchai tak uthega. ”
wo phir khamosh ho gaya aur tufan ka gahan svar, jise wo parmeshvar ka svar samajhta tha, wo svar bhi shaant ho gaya. hava mein achanak ek thahrav aa gaya, dhoop khil uthi, patvaron ki si avaz i aur kaDe sarkanDon ki halki sarsarahat sunai di. is komal tanon ne un ki yaad dila di.
tab tufan phir shuru ho gaya aur use apne pichhe qadmon ki aahat aur jaldi jaldi hanphane ki avaz sunai di. is baar wo ghumne ka sahas nahin kar paya, kyonki use pata tha ki ye safed sadhu hi tha. wo khoon mein sana, berg ke baDe hall mein hone vali davat se aaya tha aur uske mathe par kulhaDi se katne ka khula ghaav tha aur wo phusaphusakar bola, usse vishvasghat karo. use shatru ke havale kar do, taki tum uski aatma ko bacha sako.
torD bhagne laga. ye sara bhay uske andar baDhta hi gaya, baDhta hi gaya aur usne isse door bhagne ki koshish ki. lekin dauDte hue bhi use apne pichhe vahi gahan, zabardast svar sunai diya jo uske anusar parmeshvar ka svar tha. parmeshvar svayan uska pichha kar raha tha, usse maang kar raha tha ki wo hatyare ko saunp de. berg ka apradh use is samay jitna bhayankar dikhai diya, utna pahle kabhi dikhai nahin diya. ek nihatthe adami ki hattya hui thi. parmeshvar ke ek sevak ko kulhaDi se kaat Dala gaya tha aur hatyara abhi bhi jine ka sahas kiye ja raha tha. wo suraj ki roshni aur prithvi ke phalon ka anand lene ka sahas kar raha tha. torD ruka, usne apni mutthiyan bhinchin aur dhamki bhari cheekh mari. phir ek pagal adami ke samne wo jangal se, atank ke us raajy se bhagkar niche ghati mein chala gaya.
jab torD ne gupha mein pravesh kiya to bhagoDa patthar ki bench par baitha silai kar raha tha. aag se keval pili pili roshni ho rahi thi aur uska kaam santoshajanak Dhang se hota nahin dikh raha tha. laDke ka dil daya se bhar gaya. ye ati shreshth daity ekdam se itna deen aur itna dukhi dikhai dene laga tha.
“kya baat hai?” berg ne puchha, “kya tum bimar ho? kya tum Dar gaye ho?”
tab pahli baar torD ne apne bhay ke bare mein bataya, “jangal mein itna ajib laga. mujhe atmaon ki avazen sunai deen aur mujhe pret dikhai diye. mainne safed sadhu dekhe. ”
“laDke!”
“ve pahaD ki choti tak sare raste mujhe geet sunate rahe. main unse door bhaga, lekin ve gate hue mere pichhe bhage. kya main atmaon ka shaman nahin kar sakta? mujhe unke saath kya karna chahiye? dusre logon ko unka dikhai dena adhik zaruri hai. ”
aaj raat tum pagal to nahin ho gaye ho torD?”
torD bolne laga to use pata nahin tha ki wo kya shabd istemal kar raha hai. uska sankoch achanak usse alag ho gaya tha aur uske honthon se sanvad jaise jhar raha tha. “ve safed sadhu hain, murdon ki tarah pile aur unke vastron par khoon ke dhabbe hain. ve apni topiyon ko mathe par khinche rahte hain lekin mujhe vahan par ghaav chamakte dikhai de jate hain. ye kulhaDi ke ghaav hote hain—baDe, khule aur laal. ”
“torD,” daity ne kaha. wo pila aur gambhir ho gaya tha, “yah to sant hi jante hain ki tumhein kulhaDi ke ghaav kyon dikhai dete hain. mainne to sadhu ko chhure se mara tha.
“torD kanpta aur apne hathon ko malta hua berg ke samne khaDa tha. “unhonne mujhse tumhari maang ki hai, ve mujhe baadhy karte hain ki main tumhein pakaDva doon. ”
“kaun? sadhu log?”
“haan haan, sadhu log. ve mujhe sapne mein dikhai dete hain. ve mujhe un ko dikhate hain. ve mujhe khula, dhupdar sagar dikhate hain. ve mujhe machhuaron ke shivir dikhate hain jahan naach gana hota hai. main apni ankhen band kar leta hoon phir bhi mujhe ye sab dikhai deta hai. mujhe chhoD do, main unse kahta hoon, “mere dost ne hattya zarur ki hai par wo bura nahin hai, mujhe akela chhoD do aur main usse baat karunga ki wo pashchattap kare, apne aapko sudhare. usne jo ghalati ki hai, wo use samjhega aur pavitra samadhi ki tirthyatra karega. ”
“aur sadhu log kya javab dete hain?” berg ne puchha, “ve mujhe kshama nahin karna chahte. ve mujhe prataDit karke danDasvrup aag mein jala dena chahte hain. ”
“kya main apne sabse achchhe mitr ko pakaDva doon?” main unse puchhta hoon,
“duniya mein uske alava mera koi nahin hai. usne mujhe bhalu se us samay bachaya tha, jab bhalu ke panjen mere gale tak pahunch chuke the. hamne saath saath bhookh aur thanD ko saha hai. jab main bimar tha to usne mujhe apne hi kapDon mein lapeta tha. mainne use lakDiyan aur pani lakar diya hai, mainne uske so jane par pahra diya hai aur uske dushmanon ko ghalat raste par bhatkaya hai. ve mujhe aisa adami kyon samajhte hain jo apne mitr ke saath vishvasghat karega? mera mitr svayan purohit ke paas jayega aur uske aage paap svikar karega aur phir hum donon saath saath paap kshama ke liye yachana karenge. ”
berg gambhir hokar sunta raha, uski utsuk ankhen torD ke chehre ko tatol rahi theen, “tum hi purohit ke paas jao aur use sach sach bata do. tumhein phir se manushyon ke samaj mein laut jana chahiye. ”
“mere akele ke jane se kya hoga? mare hue logon ki atmayen tumhare paap ke karan mera pichha karti hain. kya tumhein dikhai nahin deta ki main tumhare aage kaise kanpta hoon? tumne svayan parmeshvar ke khilaf haath uthaya hai. tumhare apradh jaisa aur kya apradh hoga? tumne mujhe nyayi parmeshvar ke bare mein kyon bataya? tum khu hi to mujhe baadhy karte ho ki main tumhare saath vishvasghat karun. mujhse ye paap mat karvao. purohit ke paas tum svayan jao. ” wo berg ke samne ghutnon ke bal baith gaya.
hatyare ne uske sir par haath rakha aur uski or dekha, usne apne paap ka akalan apne sathi ke bhay se kiya aur baDhta baDhta bahut baDa ho gaya. usne apne aapko us param ichha ke saath takrav ki sthiti mein dekha, jo duniya par raaj karti hai. pashchattap uske dil mein ghar kar gaya.
“lanat hai mujh par ki mainne wo sab kiya,” wo bola, “aur kya ye dayniy jivan, ye jo atank aur abhav ka jivan hum yahan ji rahe hain, kya ye apne aap mein paryapt pashchattap nahin hai? kya mera ghar baar aur sampatti mujhse nahin chhin gai? kya mere dost aur ve sari khushiyan mujhse nahin chhin gain, jo adami ke jivan ka ang hoti hain? isse adhik aur kya ho sakta hai?”
torD ne use is tarah bolte suna to wo bhayvash uchhalkar khaDa ho gaya. “tum pashchattap kar sakte ho!” wo chillaya, “mere shabd tumhein drvit kar sakte hain? oh, mere saath aao, isi samay aa jao. aao, samay rahte hi hum chalen. ”
daity berg bhi uchhalkar khaDa ho gaya, “tumne. . . ye kiya. . . ?”
“haan, haan, haan, haan. mainne tumhare saath vishvasghat kar diya hai. lekin jaldi se aao. ab aao bhi, kyonki ab tum pashchattap kar sakte ho. hamein bach nikalna chahiye. hum bach niklenge. ”
hatyara farsh par jhuka, jahan uske panvon par uske purkhon ka pharsa paDa tha. “chor ki aulad,” usne phuphkarte hue kaha, “mainne tum par bharosa kiya. . . mainne tumhein pyaar kiya. ”
lekin jab torD ne use pharsa uthane ke liye niche jhukte dekha to wo samajh gaya ki ab uski khu ki zindagi khatre mein hai. usne apne kamarband se apni kulhaDi nikal li aur isse pahle ki berg uth pata, usne uske sir par vaar kar diya. daity sir ke bal farsh par gir paDa, aur khoon nikalkar gupha mein phail gaya. uski uljhi jataon ke beech torD ko kulhaDi ka baDa, khula aur laal ghaav dikhai diya.
tabhi kisan gupha mein ghus paDe. unhonne uske is kaam ki prashansa ki aur usse kaha ki use puri kshama milegi.
torD ne apne hathon ko dekha, mano use vahan ve beDiyan dikhai de rahi theen jinhonne use us adami ko marne ke liye uksaya tha, jise wo pyaar karta tha. pauranaik phenris bheDiye ki zanjiron ki tarah ve bhi rikt hava se buni hui theen. ve sarkanDon ke beech ke hare parkash se buni gai theen, jangalon mein chhayaon ki ankhmichauni se buni gai theen, tufan ke geet se buni hui theen, pattiyon ki sarsarahat se buni gai theen aur buni theen sapnon ke jadui darshan se. aur usne zor se kaha, “parmeshvar mahan hai. ”
wo murda sharir ke paas dintapurvak jhukkar baith gaya aur ro rokar mritak se yachana karne laga ki wo jaag jaye. gaanv valon ne svatantr kisan ki laash ko uske ghar pahunchane ke liye apne bhalon se palaki taiyar ki. mrit vekti unke manon mein shraddhabhav jaga raha tha aur unhonne uski upasthiti mein apne svron ko komal kar liya tha.
jab unhonne mritak ko uthakar arthi par rakha to torD uthkar khaDa ho gaya. usne balon ko jhatakkar ankhon se hataya aur kanpti avaz mein kaha, “jis un ke liye daity berg hatyara bana tha, usse kahna ki machhuare torD ne, jiska baap tute jahazon ko lutta hai aur jiski maan Dayan hai—usse kahna ki torD ne berg ko isliye maar Dala, kyonki berg ne hi use ye shiksha di thi ki nyaay duniya ka adhartattv hai. ”
ek kisan ne ek sadhu ki hattya kar di aur jangalon mein bhaag gaya. wo bhagoDa ho gaya aur us par inaam ghoshait kar diya gaya. jangal mein uski bhent ek aur bhagoDe se hui jis par machhliyon ka jaal churane ka aarop tha. wo ek bahari tapu mein rahne vala machhuara tha. ve donon sathi ban gaye aur unhonne ek gupha katkar usmen apna ghar bana liya. ve saath saath jaal bichhate, khana pakate, teer banate aur ek dusre ki pahredari karte. kisan to kabhi jangal se bahar ja nahin pata tha. lekin machhuare ka apradh kam gambhir tha, to wo jab tab apne mare hue shikar ko apni peeth par ladkar gaanv ke bahyanchal mein base apekshakrit akele makanon mein reng jata. wo apni mari hui chamkile pankhon vali jangali murgi, kale pahaDi murge, svadisht hirni aur lambe kanon vale khargosh le jata aur unke badle mein doodh, makkhan, baan ka agla nukila hissa aur kapDe le aata.
unhonne jis gupha ko apna ghar banaya, wo pahaD mein gahrai se katkar banai gai thi. uske munh par chauDe chauDe patthar aur kantili jhaDiyan suraksha ke liye lagai gai theen. pahaD ke upar cheeD ka ek vishal vriksh tha aur unki bhatthi ki chimani iski kunDlidar jaDon mein chhipi hui thi. is tarah bhatthi se uthne vala dhuan cheeD ki bhari latakti shakhaon mein chala jata tha aur sabki nazron se ojhal hava mein ghul mil jata tha. apni gupha tak pahunchne ke liye un donon ko pahaDi ki Dhalan se nikalne vali jaldhara se hokar jana paDta tha. unka pichha karne valon mein se koi bhi sukhad nadiya mein unka suragh DhunDhane ki nahin sochta tha. pahle to unki is tarah se khoj ki gai, jaise jangali janvaron ki hoti hai. janpad ke kisan unki talash karne ke liye is tarah ikatthe hote, jaise kisi bheDiye ya bhalu ke liye hote hain. teer kaman liye gramavasi jangal ko gher lete aur bhale liye hue log ek ek jhaDi aur darre ko chhaan marte. donon bhagoDe apni andheri gupha dubak jate aur bhay mein hanphate rahte aur jab talash karne vale log pahaD ke upar gupha se shor machate nikalte to ve saans rokkar sunte rahte.
ek lambe din tak yuva machhuara to achal leta raha, lekin hatyare se aur sahn nahin hua aur wo khule mein nikal gaya, jahan se uske dushman dikhai de sakte the. unhonne use dekh liya aur uske pichhe lag gaye. lekin napunsak bhay mein chupchap paDe rahne ki apeksha ye sthiti use kahin adhik pasand thi. wo apna pichha karne valon ke aage se jaldharaon ko phalangata hua, chattanon se sarakta hua aur chattan ki sidhi khaDi divar par chaDhta hua bhagta raha. khatre ne tamam uski adbhut shakti aur kaushal ko eD lagakar usmen urja jaga di. uska sharir ispaat ki kamani sa lachila ho gaya, uske paanv driDhta se jamne lage, uske hathon ki pakaD achuk ho gai aur uski ankh aur kaan dugune tez ho gaye. wo peD patton mein hone vali harek sarsarahat ko jaan jata tha; wo kisi ulte hue patthar mein chhipi chetavni ko samajh jata tha.
jab wo kisi chattan ke upar chaDh jata to rukkar niche apna pichha karne valon ko dekhta aur zor zor se nafar ke gane gakar unka svagat karta. jab unke bhale uske sir ke upar hava mein gana gate to wo unhen pakaDkar vapas phenk deta. jab wo uljhi hui jhaDiyon se hokar apna rasta banata to lagta jaise uske andar koi anand ka jangali geet ga raha hai. ek bhayankar nanga parvat sikhar jangal ke pure vistar mein phaila hua tha aur iski choti par ek lamba cheeD ka vriksh eqdam akela khaDa tha. uska laal katthai tana nanga tha aur sabse upar ghani shakhaon par ek baaz ka ghonsla manthar hava mein jhulta tha.
bhagoDa itna niDar ho gaya tha ki ek any din jab uska pichha karne vale niche jangal ki Dhalanon mein uski talash kar rahe the to wo ghonsle tak ja pahuncha. wo vahan baith gaya aur baaz ke bachchon ki gardan maroDne laga. jabki use DhunDhane vale usse bahut niche ho halla karte rahe. baDe baaz ghusse mein chikhte hue uske aas paas manDrate rahe. ve uske chehre ke paas se jhapatte hue nikalte, apni chonch se uski ankhon par prahar karte, apne damdar pankhon ko uske upar phaDphaDate aur unhonne mausam ke thapeDe khakar kathor ho gai uski chamDi par panje maar markar baDi baDi kharonchen bhi bana deen. wo hans hansakar unse jujhta raha. wo jhulte hue ghonsle mein khaDa hokar un parindon par chhure se vaar karta raha aur laDai ke anand mein wo khatre aur apna pichha kiye jane ki soch ko bilkul hi bhool gaya. jab use phir iski yaad i aur wo apne dushmanon ko dekhne ke liye muDa to use khojne vali toli dusri disha mein ja chuki thi. pichha karne valon mein se ek ke bhi dimagh mein ye baat nahin i thi ki apni ankhen uthakar badalon ki taraf dekh le, jahan unka shikar latka hua skuli bachchon jaisi laparvahi ki harkaten kar raha tha, jabki uski apni zindagi adhar mein latki thi. lekin jab usne ye dekha ki wo surakshait tha to wo sir se paanv tak kaanp gaya. usne kanpte hathon se koi sahara pakDa. wo jis unchai tak chaDh aaya tha, vahan se usne chakrakar niche dekha. girne ke bhay se karahte hue, parindon se bhaybhit, dekhe jane ki sambhavana se bhaybhit, harek cheez aur kisi bhi cheez ke atank se kamzor wo peD ke tane se vapas sarakkar niche aa gaya. jamin par aakar wo chit paD gaya aur chhutta pattharon par rengta hua jhaDi tak pahuncha. vahan wo chhote cheeD ke vrikshon ki uljhi shakhaon ke beech chhip gaya aur kamzor aur asahaye hokar mulayam kai mein gir gaya. us samay ek akela adami bhi use pakaD sakta tha.
torD naam tha us machhuare ka. wo keval solah saal ka tha, lekin mazbut aur bahadur tha. jangalon mein rahte hue ab pura ek saal ho chuka tha us machhuare torD ko.
kisan ka naam berg tha aur log use daity kaha karte the. wo sundar aur suDaul tha aur samuche pardesh mein usse lamba aur mazbut adami koi aur nahin tha. uske kandhe chauDe the, lekin wo chharahra hi tha. uske haath komal the, mano usne kabhi koi mehnat ka kaam hi nahin kiya ho. uske baal bhure the aur chehre ki rangat halki thi. jab wo jangal mein kuch samay tak rah liya to uski akriti mein mazbuti ke chihn aise ban gaye ki log raub kha jayen. uske mathe ki baDi baDi manspeshiyon ki shiknon mein bhari ghani bhaunhon ke niche uski ankhen paini ho gain. uske honth pahle se kahin adhik driDh ho gaye, chehra bhi mlaan ho gaya, kanpati ke gaDDhe gahre ho gaye aur uske galon ki mazbuti se ubhri haDDiyan samany ho gain. uske sharir ke tamam komal ubhaar ghayab ho gaye, lekin manspeshiyan ispaat si mazbut ho gain. uske baal tezi se safed hote gaye.
torD ne itne shanadar aur itne taqatvar adami ko pahle kabhi nahin dekha tha. uski kalpana mein uska ye sathi jangal sa mazbut aur harahrati samudri lahron sa mazbut tha. wo vinit hokar uski seva karta tha, jaise wo kisi malik ki karta. wo use kisi devta ki tarah shardha deta. ye atyant svabhavik hi lagta tha ki torD shikari bhala lekar chale, shikar ko ghar khinchkar laye, pani bhare aur aag jalaye. daity berg in sabhi sevaon ko svikar karta tha, lekin usne laDke se kabhi dosti ke do shabd nahin bole the. wo use tiraskar se dekhta aur use ek mamuli chor manata tha.
ye bhagoDe apradhi lutapat nahin karte the, balki apna pet palne ke liye janvaron aur machhli ke shikar par nirbhar rahte the. agar berg ne ek dharmik vekti ko nahin mara hota to kisan log jaldi hi unki talash karne se thak jate aur unhen pahaDon mein unke haal par hi chhoD dete. lekin ab unhen Dar tha ki agar ishvar ke daas ko ghaat karne vale vekti ko unhonne bina danD diye chhoD diya to unke gaanv par bhari vipatti ayegi. jab torD shikar markar use niche ghati mein le jata to ve prastav rakhte ki agar wo unhen daity ki gupha tak le jaye, taki ve use sote mein pakaD saken to ve use paisa bhi denge aur uske apne apradh ko kshama bhi kar denge. lekin wo laDka iske liye mana kar deta aur agar ve uske pichhe pichhe ho bhi lete to wo unhen tab tak bhatkata rahta, jab tak ve uska pichha nahin chhoD dete the.
ek baar berg ne usse puchha ki kya kabhi kisanon ne use is baat ke liye uksaya tha ki wo use unke hathon mein saunp de. jab torD ne use bataya ki kisanon ne use is kaam ke liye kitna inaam dene ka vayada kiya tha to usne uska uphaas uDate hue kaha tha ki usne aise prastav thukrakar murkhata ki thi. torD ne uski or ankhon mein aisa bhaav lakar dekha, jise daity berg ne pahle kabhi nahin dekha tha. usne apni javani ke dinon mein jin khubsurat aurton se pyaar kiya tha unmen se kisi ne bhi uski or aise nahin dekha tha; na to apne bachchon ki aur na hi apni bivi ki ankhon mein usne itna sneh dekha tha. “tum mere parmeshvar ho, wo shasak ho, jise mainne apni ichha se chuna hai,” uski ankhen yahi kahti theen, “tum mera tiraskar kar sakte ho ya chaho to mujhe peet sakte ho, lekin main phir bhi tumhara vafadar rahunga. ”
iske baad berg laDke par aur dhyaan dene laga aur usne dekha ki uske karnamon mein to bahaduri thi lekin bolne mein sankoch tha. maut ka use koi bhay nahin dikhta tha. wo janbujhkar apne liye aisa rasta chunta tha jahan pahaDon ke gaDDhon mein taza barf jami hoti thi ya vasant mein daldal ki chhalpurn satah hoti thi. use khatre mein anand milta tha. ab kyonki wo bhayankar samudri tufanon mein nahin ja pata tha, isliye use inhin mein uski bharpai milti thi. lekin jangal ke ratrikalin andhere mein wo kaanp jata tha aur din mein bhi kisi jhaDi ki jhain ya koi gahri parchhain use Darane ke liye kafi hoti thi. jab berg usse is bare mein puchhta to wo sharmakar chup rah jata tha.
torD gupha ke pichhle hisse mein bane chulhe ke paas lage bistar par nahin sota tha, balki har raat jab berg so jata tha to wo rengkar gupha ke munh par aa jata tha aur vahan ek chauDe patthar par let jata tha. berg ko ye pata chal gaya aur usne jante hue bhi laDke se iska karan puchha? torD ne koi javab nahin diya. agle savalon se bachne ke liye wo do raat bistar par hi soya aur phir darvaze par apni niyat jagah par aa gaya.
ek raat jab peD ki phunagiyon par barfile tufan ne utpaat machaya hua tha aur jhaDiyon ke beech mein bhi halchal machi thi, barf ke gole uD uDkar un bhagoDon ki gupha ke andar bhar gaye. jab darvaze par leta torD subah jaga to usne dekha ki wo pighalti barf ki chadar mein lipta hai. ek do din baad wo bimar paD gaya. wo saans lene ki koshish karta to uske phephaDon mein bedh dene vala dard uthta. jab tak usmen shakti rahi, usne is dard ko sahn kiya, lekin ek shaam jab wo aag phunkne ke liye jhuka to gir paDa aur phir uth nahin paya. berg uski bagal mein aaya aur usse garm bistar par letne ko kaha. torD dard ke mare karahta raha lekin hil nahin paya. berg use apni banhon mein uthakar bistar par laya. aisa karte samay use aisa lag raha tha, mano wo kisi lijalije saanp ko chhu raha ho; uske munh ka svaad aisa ho raha tha, mano usne ashuddh maans kha liya ho. itna aruchikar tha uske liye is sadharan chor ke sharir ko chhuna! berg ne bimar laDke par bhalu ki khaal ka bana apna kanbal Daal diya aur use pani pilaya. wo bus itna hi kar saka, lekin bimari khatarnak nahin thi aur torD jaldi theek ho gaya. lekin ab kyonki berg ko kuch dinon tak apne sathi ka kaam karna paDa tha aur uski dekhbhal karni paDi thi to ve ek dusre ke aur qarib aa gaye lagte the. jab ve donon aag ke paas saath saath baithe apne teer banate hote to torD kabhi kabhi usse bolne ka sahas kar leta tha.
“tum achchhe logon ke parivar se ho,” torD ne ek shaam berg se kaha, “tumhare rishtedar ghati ke sabse amir kisan hain. tumhare naam ke adami rajaon ki seva mein rahe hain aur unke mahlon mein laDe hain. ”
“adhiktar to ve bagiyon ke saath laDe hain aur unhonne raja ki sampatti ko nuqsan pahunchaya hai. ” berg ne javab diya.
“tumhare purkhe christmas ke samay baDi baDi davaten dete the aur tum jab apne makan mein aram se the to tum bhi davaten dete the. saikDon adami aurten tumhare baDe hall mein benchon par baithte the; us hall mein jo un dinon mein banaya gaya tha, jab sant uulav namakarn sanskar ke liye yahan viken mein aaya bhi nahin tha. vahan baDe baDe chandi ke kalash the aur seeng ke bane baDe baDe patron mein tumhari mez par shahd ki madira parosi jati thi. ”
berg ne ek baar phir laDke ki or dekha. wo palang ke kinare baitha tha, uska sir uske haath mein tha aur wo apni ankhon par gir aaye bhari uljhe balon ko pichhe kar raha tha. bimari mein uska chehra pila aur nikhar gaya tha. uski ankhen abhi bhi bukhar mein chamak rahi theen. wo apni kalpana se ubhri tasviron par man hi man muskra raha tha. ye tasviren theen baDe hall aur chandi ke kalshon ki, mahnge vastra pahne mehmanon ki aur sammanajnak sthaan par baith hukm chalate daity berg ki. kisan berg janta tha ki uske mahimamay dinon mein bhi kisi ne uski or prashansa se, is tarah chamakti aur shardha se, is tarah damakti ankhon se kabhi nahin dekha tha, jaise ki is samay aag ke paas phati purani jacket pahne ye laDka dekh raha tha. wo drvit ho utha, lekin uski aprasannata bani rahi. is sadharan chor ko koi adhikar nahin tha ki use sarahe.
torD hansa, “vahan un chattanon par jahan pita aur maan rahti hain? pita to durghatna mein tute jahazon ko lutta hai aur maan Dayan hai. jab mausam tufani hota hai to wo seel machhli ki peeth par savar hokar jahazon se milne chal deti hai aur durghatna mein jo log jahaz se bahar aa girte hain, ve uske ho jate hain. ”
“vah unka kya karti hai?” berg ne puchha.
“oh! Daynon ko to hamesha hi lashon ki zarurat hoti hai. wo unse marham banati hai ya shayad unhen kha jati hai. chandni raton ko wo bhishan roop se harahrati lahron mein ja baithti hai aur Dube hue bachchon ki ankhon aur ungliyon ki talash mein rahti hai. ”
“yah to bhayankar hai!” berg ne kaha.
laDke ne shaant atmavishvas ke saath kaha, “dusron ke liye hoga, lekin kisi Dayan ke liye nahin. wo iske bina rah hi nahin sakti. ”
berg ke liye ye zindagi ko dekhne ka ek bilkul alag Dhang tha.
“tab to choron ko chori karni hoti hogi, jaise Daynon ko jadu karna hota hai?” usne tikha saval kiya.
“haan, kyon nahin,” laDke ne javab diya, “harek vekti ko wo karna hota hai jiske liye uska janm hota hai. ” lekin sankochpurn chalaki ke saath muskrate usne aage kaha, “aise chor bhi hote hain jinhonne kabhi chori nahin ki hoti. ”
“kya matlab?” berg bola.
laDke ke honthon par ab bhi wo rahasyamay muskan thi aur wo is baat se khush dikhta tha ki usne apne sathi ko ek paheli mein uljha diya tha. ‘‘aisi chiDiyan hoti hain jo uDti nahin hain; aur aise chor hote hain jinhonne kabhi chori nahin ki hai. ” usne kaha.
berg ne moorkh banne ka bahana kiya taki laDke ke matlab ko nikalva sake. “jisne kabhi chori nahin ki, use chor kaise kaha ja sakta hai?” usne kaha. ”
laDke ke honth kaskar band ho gaye, mano wo shabdon ko rok raha ho. “lekin agar kisi ka baap chori karta ho. . . ” usne thoDi der ki chuppi ke baad kah Dala.
“adami ko paisa aur makan to virasat mein mil sakta hai, lekin chor ka naam keval use diya jata hai jisne vaisa kaam kiya hota hai. ”
torD pyaar se hans diya. “lekin jab kisi ki maan ho—aur wo maan aaye aur roe tatha usse yachana kare ki wo apne pita ka zurm apne upar le le—aur tab wo vekti jallad par hans sakta hai aur jangal mein bhaag sakta hai. koi vekti us machhli ke jaal ke liye bhagoDa apradhi ghoshait kiya ja sakta hai jise usne kabhi dekha hi nahin. ”
berg ne bahut ghusse mein patthar ki mez par ghunsa mara. yahan is mazbut, sundar laDke ne apni puri zindagi kisi aur ke liye de di thi. pyaar, paisa ya apne sathiyon ka aadar ab use phir kabhi nahin mil payega. ab uski zindagi mein khane aur kapDe ki ghatiya chinta ke alava aur kuch nahin rah gaya tha. aur is moorkh ne use, berg ko, ek masum vekti ka tiraskar karne diya. usne use kaड़i phatkar lagai, lekin torD Dara to bus utna hi jitna ki koi bimar bachcha apni chintit maan ki phatkar khane se Darta hai.
bahut unchai par sthit ek vrikshachchhadit pahaDi par ek daldali jheel thi. ye jheel vargakar thi aur iske kinare itne sidhe aur uske kone itne tikhe the ki lagta tha jaise unhen manushya ke hathon ne banaya ho. teen or chattan ki khaDi divaren theen aur kathor, pahaDi cheeD vriksh pattharon se chipte hue the aur unki jaDen adamiyon ki bhujaon jitni moti theen. jheel ki satah par jahan ghaas ki kuch pattiyan bahkar hat chuki theen, vahan ye nangi jaDen muDi hui aur kunDali mare theen aur pani mein aise asankhy sanpon ki tarah uth rahi theen, jinhonne lahron se bachne ki koshish ki thi lekin apni is ji toD koshish mein patthar ban gai theen. ya ye bahut pahle Doob gaye daityon ke kale paD chuke kankalon ke Dher ki tarah lag rahi theen, jinhen jheel bahar phenkne ki koshish kar rahi thi. unki bhujayen aur tangen buri tarah se ainth gai theen, lambi ungliyan chattanon mein gahre paith gai theen, aur mazbut pasaliyan aisi mahraben ban gai theen jin par prachin vriksh sadhe hue the. lekin ye lohe si kathor bhujayen, ye ispati ungliyan, jinse upar chaDhte hue cheeD vrikshon ne apne aapko sahara de rakha tha, jab tab ye apni pakaD Dhili kar deti theen aur tab zabardast uttari hava peD ko pahaDi chattan se uthakar door daldal mein phenk deti thi. vahan ye peD is prakar paDa rahta tha ki iski choti kichaDdar pani mein gahre Doob jati thi. machhliyon ko iski tahniyon ke beech chhipne ki achchhi jagah mil jati thi. jabki uski jaDen pani mein is tarah upar nikli rahti theen, jaise kisi bhayankar rakshas ki bhujayen hon aur isse wo chhoti si jheel Daravni dikhai dene lagti thi.
pahaD us chhoti jheel ki chauthi or Dhalan banaye the. yahan ek chhoti si nadi ufan rahi thi. lekin apna rasta banane se pahle ye jaldhara chattanon aur tilon ke beech muDti aur bal khati thi, jisse Dher sare tapu ban gaye the. inmen se kuch to paanv dharne ki jagah bilkul nahin ban pae the jabki dusre tapuon ki peeth par bees bees peD tak lade hue the. yahan, jahan par chattanen itni unchi nahin theen ki dhoop ko aane se rok saken, halke qim ke hare peD ug sakte the. yahan komal dhusararhit alDarvriksh the aur the chikni pattiyon vale sarpat. yahan bhoorj the, jaise ki ve har us jagah par hote hain jahan par sadabahar ko rokne ka avsar hota hai aur vahan par pahaDi devdaru aur elDar ki jhaDiyan theen aur ye us jagah ko saundarya aur suvas saunpte the. jheel ke pravesh bindu par adami ke sir barabar unche narakton ka ek jangal tha, jisse hokar dhoop pani par utni hi hari paDti thi jitni ki ye asli jangal mein kai par paDti hai. sarkanDon ke beech chhoti chhoti saaf jaghen theen, ye chhote chhote gol pokhar the, jahan kamal soe rahte the. lambe lambe narkat in sanvedanshil sundar pushpon ko pyaar bhari gambhirta ke saath dekhte rahte the aur jaise hi suraj apni kirnon ko sametta tha, kamal ke ye pushp apni safed pattiyon aur apne pile antःsthal ko atyant tivrata se apne bahari kaDe khol mein band kar lete the.
ek dhoop vale din ve donon bhagoDe in chhote pokharon mein se ek par machhli marne aaye. ve sarkanDon se rasta banate hue do baDe pattharon par aaye aur vahan baithkar unhonne un baDi, hari, chamakdar paik machhliyon ko pakaDne ke liye chara Daal diya jo pani ki satah ke theek niche soti theen. in adamiyon ki zindagi ab puri tarah se pahaDon aur jangalon ke beech beet rahi thi aur ve paudhon ya pashuon ki tarah hi prakrti ki shaktiyon ke niyantran mein bandh gaye the. jab suraj chamakta hota to ve mukt hirdai aur prasann rahte the, lekin shaam ko ve khamosh ho jate the aur sarvshaktishali lagne vali raat unki sari shakti chheen leti thi. is samay sarkanDon se hokar aane vale aur pani par sunahre, bhure aur kale hare rang ki pattiyan banane vale hare parkash ne unhen ek tarah ke jadui mood mein la diya tha. ve bahari duniya se puri tarah kate hue the. sarkanDe manthar hava mein dhire dhire lahra rahe the, narakte sarsara rahe the aur lambi fite jaisi pattiyan unke chehre ko thapthapa rahi theen. ve chamDe ki apni bhuri jakit pahne bhure pattharon par baithe the aur chamDe ke dhoop chhain rang patthar ke rang mein ghul rahe the. donon apne sathi ko aamne samne baithe kisi patthar ke but ki tarah chupchap dekh rahe the. aur sarkanDon ke beech ve baDi baDi machhliyon ko tairti aur indradhnush ke tamam rangon mein chamakti damakti dekh rahe the. jab unhonne apni Doren phenkin aur pani mein banti bhanvar ko sarkanDon ke beech baDa hota dekha to unhen laga ki ye gati baDhti hi chali ja rahi hai aur ant mein unhonne dekha ki ise paida karne vale ve akele vekti nahin the. ek jalapri, aadhi manav, aadhi machhli, pani mein niche gahrai mein soi hui thi. wo peeth ke bal leti thi aur lahren uske sharir se itni nikatta se chipki hui theen ki in adamiyon ne use pahle nahin dekha tha. uski saans hi pani ki satah mein hiloren bana rahi thi. lekin un dekhne valon ko ye nahin laga ki uske vahan lete hone mein koi ajib baat thi. aur jab agle kshan wo ghayab ho gai to ve ye nahin jaan pae ki uska dikhna bhram tha ya nahin.
hara parkash unki ankhon ko bedhta hua kisi nashe ki tarah unke mastishk mein utar gaya tha. ve sarkanDon ke beech kalpanik chizen dekh rahe the. aisi kalpanik chizen, jinke bare mein ve ek dusre ko bhi nahin batane vale the. unhonne machhli ka adhik shikar nahin kiya. sara din sapnon aur kalpanik chizen dekhne ki bhent ho gaya.
sarkanDon ke beech se patvaron ki avaz i aur ve apne sapnon se chaunkkar jaag gaye. kuch hi kshnon mein peD ke tane se banai gai ek bhari naav dikhai di, jise chalane vali parvaren tahalne vali chhaDi se adhik chauDi nahin theen. parvaren ek yuvati ke haath mein theen, jo kamal ikatthe kar rahi thi. usne lambe aur gahre balon ki chotiyan goonth rakhi theen, uski ankhen baDi baDi aur kali kali theen, lekin wo vichitr roop se pili thi. ye aisi pilahat thi jo dhusar na hokar halki gulabi rangat liye thi. uske galon ka rang uske shesh chehre ke rang se koi gaDha nahin tha; uske honth bhi itne laal nahin the. wo safed suti kapDe ki choli aur sunahre bakasue vali belt pahne thi. uska ghaghara nile rang ka tha aur us par laal rang ki chauDe kinare vali jhalar thi. wo in bhagoDon ke paas se naav kheti hui nikal gai, lekin usne unhen dekha nahin. ve bilkul shaant baithe rahe aur iske pichhe unka Dar itna nahin tha, jitni ki ye ichha thi ki ve use bina kisi vighn ke dekh saken. jab wo chali gai to patthar ke ve but phir se insaan ban gaye aur muskrane lage.
“vah kamal ke phulon ki tarah safed thi,” ek ne kaha, “aur uski ankhen vaisi hi kali theen, jaise vahan cheeD ki jaDon ke niche ka pani. ”
ve donon itne prasann the ki unhen hansne ka man hua. sachmuch hansne ka man hua jaise ki ve is daldal mein pahle kabhi nahin hanse the, aisi hansi jo chattan ki divar se takrakar gunjti hui vapas ayegi aur cheeD ki jaDon ko Dhila kar degi.
“kya tumhare vichar mein wo sundar thee” daity ne puchha?
“mujhe nahin pata, wo itni jaldi se nikal gai. shayad wo sundar thi. ”
“shayad tum use dekhne ka sahas nahin kar pae. kya tum sochte ho ki wo jalapri thee?”
aur ek baar phir unhen hansne ki vichitr ichha hui.
bachpan mein torD ne ek baar ek Dube hue adami ko dekha tha. use ye laash dinadhaDe samudr tat par mili thi aur use Dar nahin laga tha. lekin raat mein use bhayankar sapne aaye the. wo ek samudr ke upar dekhta lagta tha, jiski har lahr uske panvon par ek laash phenkti thi. use sari chattanen aur tapu Dube hue vyaktiyon ki lashon se Dhake dikhai dete the, un Dube hue vyaktiyon se jo mar chuke the aur sagar ke ho chuke the lekin jo chal phir sakte the aur bol sakte the aur apni safed akDi ungliyon se use Dara sakte the.
aur vahi is baar phir hua. jis laDki ko usne sarkanDon mein dekha tha wo use sapnon mein dikhai di. uski bhent laDki se ek baar phir daldali jheel ki talahti mein hui, jahan parkash sarkanDon ki tulna mein aur bhi hara tha aur vahan uske paas ye dekhne ka kafi samay tha ki wo khubsurat thi. usne sapne mein dekha ki wo jheel ke beech mein cheeD ki baDi baDi jaDon mein se ek par baitha tha aur cheeD vriksh kabhi pani ki satah ke niche, kabhi upar, niche upar jhool raha tha. phir usne laDki ko ek sabse chhote tapu par dekha. wo laal parvatiy devdaru ke niche khaDi thi aur us par hans rahi thi. uske antim sapne mein ye itna aage baDh gaya ki laDki ne use choom liya. lekin phir subah ho gai aur usne berg ke uthne ki avaz suni. lekin usne apni ankhen hathpurvak band rakhin, taki wo sapne ko aage dekh sake. jab wo jaga to raat ko dekhe sapne se uska sir chakra raha tha aur wo bhauchak tha. pichhle din ki apeksha ab usne laDki ke bare mein adhik socha. shaam ko jakar uske dimagh mein aaya ki kyon na berg se poochh liya jaye ki kya use laDki ka naam pata hai?
berg ne use tikhi nazron se dekha. “tumhare liye yahi achchha hai ki tum ise turant jaan lo,”
aur tab torD ko pata chala ki ye pili kanya hi thi jiske karan jangal aur pahaD mein chhipte hue berg ko vahshi zindagi bitani paD rahi thi aur log uski talash mein the. usne apni yadadasht ko tatolne ki koshish ki ki usne us laDki ke bare mein kya suna tha.
un ek svatantr kisan ki beti thi. uski maan mar chuki thi. aur ab apne pita ke ghar mein uska raaj tha. ye uski ruchi ke anukul tha, kyonki wo svbhaav se svadhin thi aur uska apne aapko kisi pati ke havale karne ka koi irada nahin tha. un aur berg rishte mein bahan bhai the aur ye afvah lambe samay se thi ki berg ko apne ghar mein kaam karne ki apeksha un aur uski dasiyon ke saath baithna adhik achchha lagta tha. ek christmas ke mauqe par jab berg ke hall mein baDi davat di jani thi to uski patni ne draksmark se ek sadhu ko is aasha se bulvaya hua tha ki wo berg ko ye jatayega ki kisi aur laDki ke pher mein uska apni patni ki upeksha karna kitna ghalat tha. berg aur uske alava any log is sadhu ki shakl surat ke karan usse chiDhte the. wo bahut bhari bharkam aur eqdam safed tha. uske ganje sir par balon ka ghera, uski nam ankhon ke upar bhaunhen, uski chamDi, uske hathon aur uske kapDon sabhi ka rang safed tha. kaiyon ko uski surat dekhne mein hi aruchi hoti thi.
lekin sadhu ko Dar nahin tha aur use ye vishvas to tha hi ki agar uski baat ko anek log sunen to uska adhik prabhav paDega, so wo tamam mehmanon ke samne mez par khaDa ho gaya aur bola, “log koel ko isliye sabse kharab chiDiya batate hain ki wo apne bachchon ki paravrish dusron ke ghonsle mein karti hai. lekin yahan ek aisa adami baitha hua hai jo apne ghar aur apne bachchon ki koi dekhbhal nahin karta aur ek parai aurat ke saath maze karna chahta hai. use main sabse kharab adami kahunga. ” un apni jagah par uth khaDi hui. “berg, ye tumse aur mujhse kaha gaya hai, “vah rokar kahne lagi, “mujhe kabhi itna sharminda nahin hona paDa, lekin yahan mera bachav karne ke liye mere pita bhi nahin hain. ” wo jane ke liye muDi, lekin berg jhapatkar uske paas pahuncha. “jahan khaDe ho vahin khaDe raho,” wo boli, “main tumhein dubara nahin dekhana chahti. ” berg ne use galiyare mein roka aur puchha ki wo aisa kya kar sakta hai ki wo uske saath rahe. uski ankhon mein chamak thi, jab usne javab diya ki use khu samajhna chahiye ki use kya karna hoga. tab berg dubara hall mein gaya aur usne sadhu ko maar Dala.
berg aur torD donon thoDi der ke liye ek se vicharon mein sochte rahe. phir berg ne kaha, “jab wo safed sadhu gira tha to tumhein un ko dekhana chahiye tha. meri patni ne bachchon ko apne paas samet liya aur un ko bura bhala kahne lagi. usne bachchon ke munh un ki or kar diye ki ve hamesha us aurat ko yaad rakhen jiski ख़atir unka baap hatyara ban gaya tha. lekin un vahan itni shaant aur itni khubsurat bani khaDi rahi ki use dekhne vale kaanp gaye. usne is kaam ke liye mujhe dhanyavad kaha aur pararthna ki ki main eqdam jangalon mein bhaag jaun. usne mujhse kaha ki main kabhi Daku na banun aur apne chhure ka istemal aise hi kisi nyayapurn kaam ke liye karun. ”
“tumhare kaam ne use nek bana diya tha. ” torD ne kaha.
aur ek baar phir berg ne apne ko usi baat par chakit paya, jisne ab se pahle use torD ke andar hone par chakit kiya tha. torD kaफ़ir tha, balki kaफ़ir se bhi bura tha. wo ghalat baat ki kabhi ninda nahin karta tha. lagta tha ki usmen zimmedari ka koi bhaav tha hi nahin. jo aana tha, aaya. wo parmeshvar ke bare mein, kraist ke bare mein aur santon ke bare mein janta to tha, lekin wo unhen bus naam se janta tha, jaise koi any rashtron ke devtaon ke naam janta hai. sheren tapu ke pret uske devta the. jadu sikhi uski maan ne use murdon ki atmaon mein vishvas karna sikhaya tha. aur tabhi berg ne ek aisa kaam apne upar le liya, jo vaisa hi murkhtapurn tha, jaise kisi ka apni hi gardan ke phande ke liye rassi bunna. usne is agyani laDke ki ankhen parmatma ki shakti ke prati khol deen. us parmatma ke prati jo samast nyaay ka svami tha. ghalati ka badla lene vala aisa parmeshvar tha, jo papiyon ko narak ki anant piDa ke havale kar deta hai. aur usne laDke ko ye sikhaya ki wo kraist aur unki maan ko prem kare aur un tamam sant istri purushon se prem kare, jo parmeshvar ke sinhasan ke aage baith pararthna karte rahte hain ki uska krodh papiyon par na paDe. usne laDke ko wo sab karna sikhaya jo manav jati ne parmeshvar ke krodh ko kam karne ke liye sikha hai. usne laDke ko pavitra asthanon ko jane vale tirthyatriyon ke lambe qafilon ke bare mein bataya. usne use un logon ke bare mein bataya jo pashchattap mein apne aapko koDe marte hain aur usne use un pavitra sadhuon ke bare mein bataya jo is sansar ke sukhon ko tyagkar chale jate hain.
jitna adhik wo bolta gaya, utna hi laDke ka rang pila paDta gaya aur utna hi uska dhyaan aur baDhta gaya aur uski ankhen un drishyon ki kalpana karke chauDi ho gain. berg ne apni baat samapt kar di hoti, lekin uske apne vicharon ki baaDh use baha le gai. raat un par utar i. ye vahi kali jangali raat thi, jahan ullu ki cheekh sannate mein pret si patli aur muhin gunjti hai. parmeshvar unke itne nikat aa gaya ki uske sinhasan ki chamak ne sitaron ko phika kar diya aur pratishodh ke farishte pahaD ki unchaiyon par utar aaye. aur unke niche rasatal ki lau phaDaphDakar prithvi ke bahari vakr par aa gai aur unhonne puri lalak se paap aur duःkh ke niche dabi pisi ek nasl ke is antim sharnasthal ko apni chapet mein le liya.
patjhaD aaya aur uske saath hi aaya tufan. torD akela phandon aur jalon ko dekhne ke liye bahar jangal mein nikla aur berg uske kapDon ko durust karne ke liye ghar mein hi bana raha. laDka jis raste par chala, wo use jangal ki ek aisi unchai par le gaya, jiske sahare sahare girti hui pattiyan hava ke jhonkon mein ghera banakar nachti theen. baar baar use aisa laga ki koi uske pichhe aa raha hai. wo kai baar muDa aur ye dekhkar phir aage baDh liya ki ye to keval hava aur pattiyan theen. usne sarsarahat paida karte gheron ko apna ghunsa dikhakar dhamkaya aur aage baDhta raha. lekin usne apni kalpanaon ki avazon ko khamosh nahin kiya tha. pahle to use pari shishuon ke nachte hue nanhen panvon ki avaz sunai dee; phir use apne pichhe aate ek baDe se saanp ki phuphkar sunai dene lagi. saanp ki bagal mein ek lamba, bhura jeev, bheDiya aaya, jo us kshan ke intzaar mein tha ki saanp uske panvon mein Dank mare aur wo uchhalkar uski peeth par ja chaDhe. torD ne apni chaal baDha di, lekin kalpanik chizen bhi usi gati se saath ho leen. jab use laga ki ve usse keval do qadam pichhe aur chhalang lagane ko taiyar hain to wo ghoom gaya. lekin jaisa ki use is pure samay mein pata tha, vahan kuch bhi nahin tha. wo ek patthar par baithkar sustane laga. sukhi pattiyan uske pairon par kriDa kar rahi theen. jangal ke tamam peDon ki pattiyan vahan theen. bhoorj ki pili pattiyan, parvatiy devdaru ki laal abhayukt pattiyan, elm ki sukhi kali bhuri pattiyan, aspen ki chamkili laal pattiyan aur sarpat ki pili hari pattiyan. murjhai aur tuDi muDi tuti aur dagadar ye pattiyan un mulayam, naram hare tane ki tarah to kam hi dikhti theen jo kuch hi mahine pahle kaliyon se phutkar bahar aaye the.
“tum papi ho,” laDke ne kaha, “ham sabhi papi hain. parmeshvar ki drishti mein kuch bhi pavitra nahin hai. tum uske krodh ki lau mein pahle hi jhulas chuke ho. ”
tab wo phir aage baDha, jabki jangal uske niche tufan mein kisi samudr ki tarah lahra raha tha. halanki uske raste ke aas paas shanti aur niravta thi. lekin use aisa kuch sunai nahin diya jise usne pahle kabhi nahin suna tha. jangal avazon se bhara tha. kabhi use phusaphusane jaisi avaz sunai deti, kabhi halka vilap sunai deta, kabhi zordar dhamki to kabhi shraap ke garajte svar sunai dete. kabhi hansi ka svar ubharta to kabhi karahne ka. ye saikDon samvet svar jaisa tha kisi aisi agyat cheez ka svar, jo dhamkati aur uttejit karti thi, jo siti bajati aur phuphkarti thi, aisi koi cheez jiske hone ka abhas to hota tha lekin jo thi nahin; is cheez ne use pagal sa kar diya. wo mrityuvat bhay se kaanp gaya, jaise ki wo pahle bhi us din kanpa tha, jab wo apni gupha ke farsh par leta tha aur usne apna pichha karne valon ko apne upar jangal mein bamakte hue bhagne ki avaz suni thi. use phir se jaise Daliyon ke charmarane, adamiyon ke bhari qadmon, unke hathiyaron ki tankar aur unki vahshi, raktapipasu chikhon ki avaz sunai de rahi thi.
uske aas paas akela tufan hi nahin garaj raha tha. ismen kuch aur bhi tha. aisa kuch jo aur bhi bhayankar tha. aisi avazen theen jinhen samajhne mein wo asmarth tha, mano ye kisi aprichit sanvad ke svar the. usne isse bhi zabardast aur anek tufanon ko jahaz ke saaj saman par garajte suna tha. lekin usne itne sare taron ki vina par hava ke bajne ki jhankar kabhi nahin suni thi. lag raha tha ki har peD ka apna svar tha, har darre ka dusra hi geet tha, chattani divar se takrakar aane vali zordar goonj apni hi avaz mein chikhkar javab de rahi thi. wo in sabhi tanon ko samajhta tha, lekin uske saath any aprichit dhvaniyan theen aur ye hi vichitr dhvaniyan uske apne mastishk ke andar svron ka tufan utha rahi theen.
jangal ke andhkar mein wo jab bhi akela hua, use Dar laga hai. use khula sagar aur nangi chattanen bahut achchhi lagti theen. yahan peDon ki chhayaon mein to pret aur atmayen manDrati theen.
tab achanak use samajh aa gaya ki tufan mein kaun usse baten kar raha tha. ye parmeshvar tha, mahan pratishodhi, samast nyaay ka svami. parmeshvar uske sathi ke karan uska pichha kar raha tha. parmeshvar ki maang thi ki use sadhu ke hatyare ko pratishodh ke liye saunp dena chahiye.
torD tufan ke beech zor zor se bolne laga. usne parmeshvar ko bataya ki wo kya karna chahta tha, lekin kar nahin pa raha tha. usne daity se baat karni chahi thi aur usse ye pararthna karni chahi thi ki wo parmeshvar ke saath shanti kar le. lekin use shabd nahin mil pae the; sharm ke mare uski zaban band thi. “jab mujhe ye pata chala ki duniya par ek nyasi parmeshvar raaj karta hai,” wo chillakar bola, “to mujhe samajh mein aa gaya hai ki wo bhatka hua hai. main raat bhar apne mitr ke liye roya hoon. main janta hoon ki wo chahe jahan bhi chhip jaye, parmeshvar use avashy DhoonDh lega. lekin main usse baat nahin kar paya, uske prati apne prem ke karan mujhe shabd nahin mil sake. mujhse ye mat kahna ki main usse baat karunga. ye mat kahna ki sagar parvton ki unchai tak uthega. ”
wo phir khamosh ho gaya aur tufan ka gahan svar, jise wo parmeshvar ka svar samajhta tha, wo svar bhi shaant ho gaya. hava mein achanak ek thahrav aa gaya, dhoop khil uthi, patvaron ki si avaz i aur kaDe sarkanDon ki halki sarsarahat sunai di. is komal tanon ne un ki yaad dila di.
tab tufan phir shuru ho gaya aur use apne pichhe qadmon ki aahat aur jaldi jaldi hanphane ki avaz sunai di. is baar wo ghumne ka sahas nahin kar paya, kyonki use pata tha ki ye safed sadhu hi tha. wo khoon mein sana, berg ke baDe hall mein hone vali davat se aaya tha aur uske mathe par kulhaDi se katne ka khula ghaav tha aur wo phusaphusakar bola, usse vishvasghat karo. use shatru ke havale kar do, taki tum uski aatma ko bacha sako.
torD bhagne laga. ye sara bhay uske andar baDhta hi gaya, baDhta hi gaya aur usne isse door bhagne ki koshish ki. lekin dauDte hue bhi use apne pichhe vahi gahan, zabardast svar sunai diya jo uske anusar parmeshvar ka svar tha. parmeshvar svayan uska pichha kar raha tha, usse maang kar raha tha ki wo hatyare ko saunp de. berg ka apradh use is samay jitna bhayankar dikhai diya, utna pahle kabhi dikhai nahin diya. ek nihatthe adami ki hattya hui thi. parmeshvar ke ek sevak ko kulhaDi se kaat Dala gaya tha aur hatyara abhi bhi jine ka sahas kiye ja raha tha. wo suraj ki roshni aur prithvi ke phalon ka anand lene ka sahas kar raha tha. torD ruka, usne apni mutthiyan bhinchin aur dhamki bhari cheekh mari. phir ek pagal adami ke samne wo jangal se, atank ke us raajy se bhagkar niche ghati mein chala gaya.
jab torD ne gupha mein pravesh kiya to bhagoDa patthar ki bench par baitha silai kar raha tha. aag se keval pili pili roshni ho rahi thi aur uska kaam santoshajanak Dhang se hota nahin dikh raha tha. laDke ka dil daya se bhar gaya. ye ati shreshth daity ekdam se itna deen aur itna dukhi dikhai dene laga tha.
“kya baat hai?” berg ne puchha, “kya tum bimar ho? kya tum Dar gaye ho?”
tab pahli baar torD ne apne bhay ke bare mein bataya, “jangal mein itna ajib laga. mujhe atmaon ki avazen sunai deen aur mujhe pret dikhai diye. mainne safed sadhu dekhe. ”
“laDke!”
“ve pahaD ki choti tak sare raste mujhe geet sunate rahe. main unse door bhaga, lekin ve gate hue mere pichhe bhage. kya main atmaon ka shaman nahin kar sakta? mujhe unke saath kya karna chahiye? dusre logon ko unka dikhai dena adhik zaruri hai. ”
aaj raat tum pagal to nahin ho gaye ho torD?”
torD bolne laga to use pata nahin tha ki wo kya shabd istemal kar raha hai. uska sankoch achanak usse alag ho gaya tha aur uske honthon se sanvad jaise jhar raha tha. “ve safed sadhu hain, murdon ki tarah pile aur unke vastron par khoon ke dhabbe hain. ve apni topiyon ko mathe par khinche rahte hain lekin mujhe vahan par ghaav chamakte dikhai de jate hain. ye kulhaDi ke ghaav hote hain—baDe, khule aur laal. ”
“torD,” daity ne kaha. wo pila aur gambhir ho gaya tha, “yah to sant hi jante hain ki tumhein kulhaDi ke ghaav kyon dikhai dete hain. mainne to sadhu ko chhure se mara tha.
“torD kanpta aur apne hathon ko malta hua berg ke samne khaDa tha. “unhonne mujhse tumhari maang ki hai, ve mujhe baadhy karte hain ki main tumhein pakaDva doon. ”
“kaun? sadhu log?”
“haan haan, sadhu log. ve mujhe sapne mein dikhai dete hain. ve mujhe un ko dikhate hain. ve mujhe khula, dhupdar sagar dikhate hain. ve mujhe machhuaron ke shivir dikhate hain jahan naach gana hota hai. main apni ankhen band kar leta hoon phir bhi mujhe ye sab dikhai deta hai. mujhe chhoD do, main unse kahta hoon, “mere dost ne hattya zarur ki hai par wo bura nahin hai, mujhe akela chhoD do aur main usse baat karunga ki wo pashchattap kare, apne aapko sudhare. usne jo ghalati ki hai, wo use samjhega aur pavitra samadhi ki tirthyatra karega. ”
“aur sadhu log kya javab dete hain?” berg ne puchha, “ve mujhe kshama nahin karna chahte. ve mujhe prataDit karke danDasvrup aag mein jala dena chahte hain. ”
“kya main apne sabse achchhe mitr ko pakaDva doon?” main unse puchhta hoon,
“duniya mein uske alava mera koi nahin hai. usne mujhe bhalu se us samay bachaya tha, jab bhalu ke panjen mere gale tak pahunch chuke the. hamne saath saath bhookh aur thanD ko saha hai. jab main bimar tha to usne mujhe apne hi kapDon mein lapeta tha. mainne use lakDiyan aur pani lakar diya hai, mainne uske so jane par pahra diya hai aur uske dushmanon ko ghalat raste par bhatkaya hai. ve mujhe aisa adami kyon samajhte hain jo apne mitr ke saath vishvasghat karega? mera mitr svayan purohit ke paas jayega aur uske aage paap svikar karega aur phir hum donon saath saath paap kshama ke liye yachana karenge. ”
berg gambhir hokar sunta raha, uski utsuk ankhen torD ke chehre ko tatol rahi theen, “tum hi purohit ke paas jao aur use sach sach bata do. tumhein phir se manushyon ke samaj mein laut jana chahiye. ”
“mere akele ke jane se kya hoga? mare hue logon ki atmayen tumhare paap ke karan mera pichha karti hain. kya tumhein dikhai nahin deta ki main tumhare aage kaise kanpta hoon? tumne svayan parmeshvar ke khilaf haath uthaya hai. tumhare apradh jaisa aur kya apradh hoga? tumne mujhe nyayi parmeshvar ke bare mein kyon bataya? tum khu hi to mujhe baadhy karte ho ki main tumhare saath vishvasghat karun. mujhse ye paap mat karvao. purohit ke paas tum svayan jao. ” wo berg ke samne ghutnon ke bal baith gaya.
hatyare ne uske sir par haath rakha aur uski or dekha, usne apne paap ka akalan apne sathi ke bhay se kiya aur baDhta baDhta bahut baDa ho gaya. usne apne aapko us param ichha ke saath takrav ki sthiti mein dekha, jo duniya par raaj karti hai. pashchattap uske dil mein ghar kar gaya.
“lanat hai mujh par ki mainne wo sab kiya,” wo bola, “aur kya ye dayniy jivan, ye jo atank aur abhav ka jivan hum yahan ji rahe hain, kya ye apne aap mein paryapt pashchattap nahin hai? kya mera ghar baar aur sampatti mujhse nahin chhin gai? kya mere dost aur ve sari khushiyan mujhse nahin chhin gain, jo adami ke jivan ka ang hoti hain? isse adhik aur kya ho sakta hai?”
torD ne use is tarah bolte suna to wo bhayvash uchhalkar khaDa ho gaya. “tum pashchattap kar sakte ho!” wo chillaya, “mere shabd tumhein drvit kar sakte hain? oh, mere saath aao, isi samay aa jao. aao, samay rahte hi hum chalen. ”
daity berg bhi uchhalkar khaDa ho gaya, “tumne. . . ye kiya. . . ?”
“haan, haan, haan, haan. mainne tumhare saath vishvasghat kar diya hai. lekin jaldi se aao. ab aao bhi, kyonki ab tum pashchattap kar sakte ho. hamein bach nikalna chahiye. hum bach niklenge. ”
hatyara farsh par jhuka, jahan uske panvon par uske purkhon ka pharsa paDa tha. “chor ki aulad,” usne phuphkarte hue kaha, “mainne tum par bharosa kiya. . . mainne tumhein pyaar kiya. ”
lekin jab torD ne use pharsa uthane ke liye niche jhukte dekha to wo samajh gaya ki ab uski khu ki zindagi khatre mein hai. usne apne kamarband se apni kulhaDi nikal li aur isse pahle ki berg uth pata, usne uske sir par vaar kar diya. daity sir ke bal farsh par gir paDa, aur khoon nikalkar gupha mein phail gaya. uski uljhi jataon ke beech torD ko kulhaDi ka baDa, khula aur laal ghaav dikhai diya.
tabhi kisan gupha mein ghus paDe. unhonne uske is kaam ki prashansa ki aur usse kaha ki use puri kshama milegi.
torD ne apne hathon ko dekha, mano use vahan ve beDiyan dikhai de rahi theen jinhonne use us adami ko marne ke liye uksaya tha, jise wo pyaar karta tha. pauranaik phenris bheDiye ki zanjiron ki tarah ve bhi rikt hava se buni hui theen. ve sarkanDon ke beech ke hare parkash se buni gai theen, jangalon mein chhayaon ki ankhmichauni se buni gai theen, tufan ke geet se buni hui theen, pattiyon ki sarsarahat se buni gai theen aur buni theen sapnon ke jadui darshan se. aur usne zor se kaha, “parmeshvar mahan hai. ”
wo murda sharir ke paas dintapurvak jhukkar baith gaya aur ro rokar mritak se yachana karne laga ki wo jaag jaye. gaanv valon ne svatantr kisan ki laash ko uske ghar pahunchane ke liye apne bhalon se palaki taiyar ki. mrit vekti unke manon mein shraddhabhav jaga raha tha aur unhonne uski upasthiti mein apne svron ko komal kar liya tha.
jab unhonne mritak ko uthakar arthi par rakha to torD uthkar khaDa ho gaya. usne balon ko jhatakkar ankhon se hataya aur kanpti avaz mein kaha, “jis un ke liye daity berg hatyara bana tha, usse kahna ki machhuare torD ne, jiska baap tute jahazon ko lutta hai aur jiski maan Dayan hai—usse kahna ki torD ne berg ko isliye maar Dala, kyonki berg ne hi use ye shiksha di thi ki nyaay duniya ka adhartattv hai. ”
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 41-59)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : सेल्मा लागरलोफ
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।