मिस एमेली का जब निधन हुआ तो समूचा शहर उसके जनाज़े में शामिल हुआ। एक ओर जहाँ पुरुषों में इसके पीछे एक ‘स्तंभ’ के ढह जाने पर सम्मान-भरे स्नेह की भावना थी, वहीं स्त्रियों में उसके घर को भीतर से देखने की जिज्ञासा थी। क्योंकि पिछले तक़रीबन दस बरसों से एक बूढ़े नौकर के सिवाय उसके घर के भीतर कोई आया-गया नहीं था। यह नौकर ही उसका माली और रसोईया भी था।
विशाल चौकोर फ़्रेमवाला उसका मकान, अठारहवीं सदी की अतिशय ख़ूबसूरत शैली में ऊँचा गुंबदाकार तथा कुंडलीनुमा बाल्कनियों से सजा मकान था। यह किसी ज़माने में सफ़ेद रहा होगा, जो उस ज़माने के सबसे विशिष्ट इलाक़े में स्थित था, पर गराजों और रुई ओटने की मशीनों ने वहाँ अनधिकार प्रवेश कर इस इलाक़े और आसपास की भव्यता व ख़ूबसूरती को नष्ट कर दिया था, बस मिस एमेली का मकान ही बचा था—माल डिब्बों और गैसोलिन पंपों के बीच इस हठीली और नख़रेबाज़ सड़ाँध के ऊपर—जो सबकी आँखों में काँटे की तरह चुभता था और अब मिस एमेली भी नहीं रही। वह भी अपने उन्हीं नामी-गिरामी प्रतिनिधियों में शामिल हो चुकी थी, जो जेफ़रसन के युद्ध में शहीद सैनिकों व समाज के ख़ास और अज्ञात व्यक्तियों की क़ब्रों के बीच देवदार के वृक्षों से ढके इस समाधिस्थल में चिरनिद्रा में लीन हैं।
जब तक मिस एमेली जीवित थी, वह पूरे नगर के लिए एक परंपरा, एक कर्तव्य व एक ज़िम्मेदारी थी—यानी पूरे क़स्बे के ऊपर तक एक पुश्तैनी दायित्व! और यह दायित्व काफ़ी अरसे, यानी 1894 से चला आ रहा था, जब एक दिन क़स्बे के मेयर कर्नल सरटोरिस ने फ़रमान जारी कर उसको टैक्स अदा करने से छूट दे दी। यह छूट उसके पिता की मृत्यु के वक़्त से अब तक चली आ रही थी। ऐसा न था कि मिस एमेली ख़ैरात लेना पसंद करती। पर कर्नल सरटोरिस ने एक क़िस्सा गढ़ रखा था कि मिस एमेली के पिता ने इस शहर को क़र्ज़ा दिया था, जिसे कारोबारी उसूलों के तहत यह शहर इस रूप में चुकाना बेहतर समझता है। कर्नल सरटोरिस की पीढ़ी और विचारधारा का ही कोई व्यक्ति इस तरह की बात गढ़ सकता था और महज़ स्त्रियाँ ही ऐसी बात पर यक़ीन कर सकती थीं।
जब आधुनिक विचारधारा वाली नई पीढ़ी ने मेयर और नगरपालक का दायित्व सँभाला तो यह व्यवस्था देखकर उन्हें असंतुष्टि हुई। नए साल की पहली तारीख़ को उन्होंने उसे एक टैक्स नोटिस डाक से जारी किया। फ़रवरी तक कोई जवाब न आया। फिर उसे एक औपचारिक पत्र लिखकर किसी सुविधाजनक दिन मेयर के दफ़्तर में आकर मिलने का अनुरोध किया गया। हफ़्ते भर बाद ख़ुद मेयर ने उसे पत्र लिखा और उससे आकर ख़ुद मिलने या कार भेजकर उसे बुलवाने की पेशकश की। जवाब में उन्हें पुराकालीन आकार के काग़ज़ के टुकड़े पर एक नोट मिला—जिस पर बारीक व बेहद सुंदर लिखावट में धुँधली स्याही से लिखा था कि उसने एक अरसे से बाहर जाना छोड़ दिया है। नोटिस को भी बिना किसी टिप्पणी के लौटा दिया था।
नगरपालकों के बोर्ड की एक विशेष बैठक बुलाई गई। एक प्रतिनिधि दल को उसके घर भेजा गया। उन्होंने दरवाज़े पर दस्तक दी, जहाँ से पिछले आठ-दस बरसों से कोई भी शख़्स भीतर नहीं गया था। यह तब की बात है, जब से उसने चाइना पेंटिंग की कक्षाएँ लेना बंद कर दिया था। एक बूढ़ा अश्वेत उन्हें रोशनी वाले हॉल में ले गया, जहाँ ऊपर की ओर एक ज़ीना जाता था, ऊपर और घना अँधेरा था। पूरे घर में धूल व बदबू भरी थी—घुटन व सीलन-भरी बदबू! अश्वेत उन्हें बैठक में ले गया, यह चमड़े के महँगे और भारी फ़र्नीचर से सज्जित था। जब अश्वेत ने खिड़की के पट खोले तो चमड़ा चरमरा उठा और उनके बैठते ही धूल का हलका-सा भभका हवा में तैरते हुए सूरज की किरणों के साथ घुलमिल गया।
अँगीठी के पास बदरंग पड़ चुके सुनहरे चित्रफलक में मिस एमेली के पिता का खड़िया से बना एक रेखाचित्र रखा था। जब मिस एमेली भीतर आई तो सब खड़े हो गए। काले लिबास में वह छोटी नाटी स्त्री थी—पतली सोने की चेन उसकी कमर से बेल्ट के भीतर कहीं लुप्त हो गई थी। मलिन पड़ चुकी सोने के मुट्ठी वाली आबनूस की छड़ी पर वह टिककर खड़ी थी। उसकी देह दुबली और कमज़ोर थी; शायद इसलिए गोलमटोल दिखने की बजाय वह मोटी दिख रही थी। लंबे समय तक स्थिर जल में डूबी देह की मानिंद उसका शरीर फूला-फूला-सा था। उसकी आँखें चेहरे पर गीले आटे के किसी गोले में धंसे कोयले के दो टुकड़ों की तरह दिख रही थीं। जब हम अपनी शिकायत बयाँ कर रहे थे तो उसकी निगाहें तेज़ी से एक चेहरे से दूसरे चेहरे की ओर घूमतीं।
उसने बैठने के लिए नहीं कहा। वह दरवाज़े पर बस ख़ामोश खड़ी तब तक सुनती रही, जब तक हमारा साथी अपनी बात पूरी कर चुप नहीं हो गया। अचानक सोने की चेन के सिरे पर लटकी अदृश्य घड़ी की टिकटिक सुनाई देने लगी।
उसकी आवाज़ शुष्क और सर्द थी—”जेफ़रसन में मेरा कोई कर बक़ाया नहीं है। कर्नल सरटोरिस ने मुझे समझा दिया था। आप चाहें तो शहर के रिकॉर्ड की जाँच कर ख़ुद को आश्वस्त कर सकते हैं।”
“पर हमने जाँच की है। हम शहर के प्राधिकारी हैं, मिस एमेली क्या आपको शेरिफ़ के हस्ताक्षर से नोटिस नहीं मिला।”
“हाँ, एक काग़ज़ मिला था,” मिस एमेली बोली, “शायद वह ख़ुद को शेरिफ़ मानता हो, पर मेरा कोई कर बक़ाया नहीं है।”
“पर बहियों में तो ऐसा ही दर्ज़ है। देखिए, हमें रिकॉर्ड से ही चलना पड़ेगा।”
“देखिए कर्नल सरटोरिस, जेफ़रसन में मेरा कोई कर बक़ाया नहीं है।”
“पर मिस एमेली!”
“देखिए, कर्नल सरटोरिस (हालाँकि कर्नल सरटोरिस का निधन हुए दस बरस गुज़र चुके थे), मेरा कोई कर नहीं है,...टोबे!” उसने ऊँची आवाज़ में पुकारा, वह अश्वेत हाज़िर हो गया।
“इन्हें बाहर का रास्ता दिखाओ।”
इस तरह उसने उन्हें निकाल दिया, बिलकुल जैसे तीस बरस पहले उनके पूर्वजों को बदबू की बात को लेकर किया था।
यह उसके पिता के गुज़रने के दो बरस बाद और प्रेमी के उसे छोड़कर चले जाने के कुछ अरसे बाद की बात है। हमें लगता था कि वह उससे ब्याह करेगा, पर वह चला गया। पिता के गुज़रने के बाद वह बहुत कम घर से बाहर निकलती। प्रेमी के जाने के बाद तो उसने घर से निकलना ही बंद कर दिया। कुछ स्त्रियों ने उससे संपर्क करने का दुःसाहस किया पर उन्हें बेइज़्ज़त होना पड़ा। उसके घर में वह अश्वेत ही जीवन का एकमात्र संकेत था। तब वह युवा था—अकसर थैला उठाए बाज़ार आते-जाते दिखाई दे जाता।
“क्या कोई पुरुष रसोई को ढंग से चला सकता है!” स्त्रियाँ आपस में खुसर-पुसर करतीं। इसलिए जब उसके घर से बदबू आने लगी तो उन्हें रत्ती भर भी अचरज नहीं हुआ। इस विशाल भरे-पूरे संसार और श्रेष्ठ व महान् ग्रियरसन परिवार के बीच यह एक और संपर्क सूत्र था।
उसकी एक पड़ोसी महिला ने अस्सी वर्षीय मेयर जज स्टीवन से बदबू की शिकायत की।
“क्यों, क्या आप उसे बदबू रोकने के लिए नहीं कह सकते,” क्या कोई क़ानून वग़ैरह नहीं है?”
“मुझे यक़ीन है, उसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी,” जज स्टीवन बोला, “संभवत: कोई साँप या चूहा होगा, जिसे उसके नौकर ने मारकर बाहर फेंक दिया होगा। मैं उससे बात करूँगा।”
अगले दिन उन्हें दो और शिकायतें मिलीं, एक शिकायत पुरुष ने की जो उसके प्रति निंदा से भरा था, ‘‘हमें इसके बारे में कुछ तो करना होगा। जज, मेरा मिस एमेली को परेशान करने का कोई इरादा नहीं, पर हमें कुछ करना ही होगा।” उसी रात नगरपालकों के बोर्ड की बैठक हुई—तीन बूढ़े बुजुर्ग और एक युवक जो नई पीढ़ी का सदस्य था।
“यह कौन-सी बड़ी बात है,” वह बोला, “बस उसे कह देते हैं कि अपना घर साफ़ करवाए। उसे कुछ वक़्त दिया जाए और फिर भी यदि वह ऐसा नहीं करती तो...”
“छोड़ो भी,” जज स्टीवन बोला, “क्या आप किसी महिला को सीधे उसके मुँह पर बदबू आने की बात कह सकते हैं?”
इसलिए अगले दिन आधी रात के बाद चार व्यक्ति मिस एमेली के लॉन में चोरों की तरह घुसे और लॉन का कोना-कोना सूँघते हुए बदबू का सुराग तलाशने लगे। उनमें से एक कंधे पर टँगे बैग में से छिड़काव करता गया। उन्होंने तहख़ाने का दरवाज़ा तोड़कर अंदर और आसपास की सभी जगहों पर चूने का छिड़काव किया। जब वे दोबारा लॉन से गुज़रने लगे तो पहले जिस खिड़की में अँधेरा था, अब बत्ती जल रही थी और मिस एमेली वहाँ बैठी थी। रोशनी में उसकी सीधी, निश्चल व स्पंदनरहित काया किसी प्रतिमा की मानिंद दिख रही थी। वे लॉन में से रेंगते हुए धुँधली सड़क पर निकल आए। एकाध हफ़्ते बाद बदबू चली गई।
इस वक़्त तक लोगों को उससे सहानुभूति हो चली थी। क़स्बे के लोग उन दिनों की याद करने लगे, जब उसकी नानी की बहन बुढ़ापे में अपना संतुलन खो बैठी थी। उन्हें लगता था कि ग्रियरसन परिवार दरअसल हैसियत से कुछ ज़्यादा ही ख़ुद को श्रेष्ठ समझता है। उन्हें कोई भी नवयुवक मिस एमेली के योग्य नहीं दिखता। हम अकसर उसके विवाह की कल्पना करते, जिसमें पृष्ठभूमि में मिस एमेली सफ़ेद लिबास में पिता के पीछे खड़ी दिखाई देती। इसलिए जब वह तीस के क़रीब आई, फिर भी अविवाहित थी तो हम दरअसल ख़ुश नहीं थे, हमें यक़ीन था कि परिवार वालों की सारी बेवक़ूफ़ियों के बावजूद मिस एमेली योग्य वर के प्रस्ताव पर अवश्य राज़ी हो जाती।
जब उसके पिता का निधन हुआ, तब सबको पता चल गया कि अब उसके पास संपत्ति के नाम पर बस वह मकान ही था। लोग ख़ुश थे कि आख़िर उन्हें मिस एमेली पर दया दिखाने का मौक़ा मिल गया था। अब वह पूरी तरह अकेली रह गई थी—उस नौकर के सिवाय कोई न था। अब उसे कुछ हद तक पैसे का महत्त्व समझ में आ जाएगा।
रिवाज के मुताबिक़ पिता की मृत्यु के अगले दिन सभी औरतें इकट्ठी होकर शोक व्यक्त करने पहुँचीं। वे उसकी कुछ मदद भी करना चाहती थीं। हमेशा की तरह सजी सँवरी मिस एमेली उन्हें दरवाज़े पर मिली। उसके चेहरे पर दु:ख या शोक का नामोनिशान न था। उसने कहा कि उसके पिता की मृत्यु नहीं हुई है। तीन दिनों तक वह लगातार यही कहती रही। उसके घर आने वाले सभी सरकारी अधिकारी और डॉक्टर उसे समझाते रहे कि उन्हें शव का क्रियाकर्म करने दें। आख़िर जब वे क़ानून व ज़ोर-ज़बर्दस्ती पर उतर आए तब वह ज़ोर-ज़ोर से बिलखने लगी। उन्होंने झटपट उसके पिता को दफ़ना दिया।
उस वक़्त किसी ने नहीं कहा कि वह पगला गई है। हमें लगा यह स्वाभाविक था। हमें उन तमाम नवयुवकों की याद आई, जिन्हें उसके पिता ने भगा दिया था। हम जानते थे कि अब जब उसके पास कुछ नहीं बचा था तो वह पिता को ही जकड़कर रख लेना चाहती थी, जिन्होंने उसका सब कुछ छीन लिया था।
लंबे अरसे तक वह बीमार रही। जब हमने दुबारा उसे देखा तो उसने अपने बाल छोटे कर लिए थे, जिससे वह एक किशोरी-सी दिखती—गिरजाघर की रंग-बिरंगी खिड़कियों में बने देवतुल्य फ़रिश्तों की तरह—शोकमग्न और शांत!
नगर में पटरी बनाने का ठेका किसी कांट्रेक्टर को दिया गया था और उसके पिता के गुज़रने के कुछ अरसे बाद गर्मियों में पटरी बनाने का काम शुरू हो गया। निर्माण कंपनी द्वारा इस काम के लिए कई हब्शी, ख़च्चर व मशीनें लाई गईं। होमर-बेरॉन नाम का एक अमेरिकी फॉरमेन भी आया था—लंबा-चौड़ा, साँवला, निपुण, फुर्तीला, भारी आवाज़ और चेहरे की तुलना में उसकी आँखों का रंग हल्का था। नन्हें-मुन्ने लड़के झुंड बनाकर उसके पीछे जाते। उन्हें हब्शियों को ईंट-गारे उठाते-गिराते हुए लय में काम करते देखना अच्छा लगता था। जल्द ही वह क़स्बे के हर व्यक्ति को जानने लगा था। जब कभी किसी नुक्कड़ या चौराहे से ठहाकों की आवाज़ गूंजती तो समझ लो होमर बेरॉन यक़ीनन उस झुंड में मौजूद होगा। आजकल मिस एमेली और वह इतवार की दुपहर अकसर पीले पहियों वाली बग्घी में जाते दिखाई देते।
शुरू में हम ख़ुश थे कि मिस एमेली उसमें दिलचस्पी दिखा रही है। सभी स्त्रियाँ कहतीं, ‘‘ग्रियरसन परिवार किसी उत्तर देशवासी के दिहाड़ी मज़दूर के बारे में गंभीरतापूर्वक सोच ही नहीं सकता? पर कई बड़े बुजुर्गों का मानना था कि दुःख की इस घड़ी में संभवत: वह अपने अभिजात्य या कुलीन वंश को भुला देगी। उनके मुँह से निकल पड़ता, “बेचारी एमेली! उसके नाते-रिश्तेदारों को आना चाहिए।” अलबामा में उसके कुछ रिश्तेदार थे भी, पर बरसों पहले उसके पिता ने उनसे नाता तोड़ लिया था। दरअसल बुढ़ापे में मानसिक संतुलन खो बैठी नानी की बहन न्यार की संपत्ति को लेकर उनसे झगड़ा हो गया था। तब से दोनों परिवारों के बीच कोई संपर्क नहीं रहा। वे उनकी शव-यात्रा में भी शामिल नहीं हुए थे।
बूढ़े बुजुर्गों द्वारा सहानुभूति दिखाने पर पूरे क़स्बे में खुसर-पुसर शुरू हो गई। “क्या वाक़ई यह सच है?” वे एक-दूसरे से कहने लगे, “हाँ, बिलकुल और भला क्या बात हो सकती है?” ज्यों ही इतवार की दुपहर बग्घी क़स्बे से गुज़रती, फुसफुसाहट शुरू हो जाती, ‘बेचारी एमेली’, वह अब भी उसी गर्व से भरी रहती चाहे हमें लगता कि वह गिर चुकी है, ऐसा लगता मानो ग्रियरसन परिवार की अंतिम सदस्य के नाते वह सबसे अधिक मान सम्मान की दरकार रख रही थी। जैसे एक मर्तबा वह चूहे मारने की दवा-संखिया ख़रीद लाई। यह उसके एक बरस बाद की बात है, जब लोग उस पर तरस खाकर ‘बेचारी एमेली’ कहने लगे थे। इस वक़्त तक उसकी चचेरी बहनें भी कभी-कभार उसके पास आने लगी थीं।
“मुझे ज़हर चाहिए,” वह दुकानदार से बोली, तब वह तीस को पार कर चुकी थी, हालाँकि वह अब भी जवाँ दिखती थी। पहले से दुबली हो गई थी। चेहरे पर सर्द, मोटी काली आँखें, जिसकी त्वचा आँखों के गोले से कनपटी तक विकृत-सी हो गई थी। “मुझे ज़हर चाहिए,” वह फिर बोली।
“हाँ, मिस एमेली, किस प्रकार का ज़हर? क्या चूहे वग़ैरह मारने के लिए? तो मैं सिफ़ारिश करूँगा कि...”
“जो सबसे बढ़िया हो, मुझे वही चाहिए, किस प्रकार का, इसकी मुझे परवाह नहीं।”
दवाई विक्रेता ने कई नाम गिनाए। इनसे किसी को भी, यहाँ तक कि हाथी तक को मारा जा सकता है, पर आपको—
“संखिया ही चाहिए,” मिस एमेली बोली, “क्या वह ठीक रहेगा?”
“हाँ, मैडम, पर आपको किसलिए चाहिए?”
“मुझे संखिया चाहिए।”
दुकानदार ने झुककर उसे देखा। एमेली ने भी पलटकर उसे देखा, उसका चेहरा बिलकुल सपाट व मुरझाया-सा था। दुकानदार बोला, “ठीक है, यदि आपको यही चाहिए तो दिए देता हूँ, पर क़ानूनन आपको बताना होगा कि किस काम के लिए आप इसका इस्तेमाल करेंगी?”
मिस एमेली उसे घूरने लगी। सिर टेढ़ा कर वह एकटक घूरती रही, जब तक दुकानदार नज़रें हटा संखिया लेने न चला गया। पैकेट दुकान में काम करने वाला एक अश्वेत छोकरा ले आया। दुकानदार दुबारा बाहर नहीं आया। घर आकर जब उसने पैकेट खोला तो उस पर हड्डी और खोपड़ी के चित्र के नीचे लिखा था, “चूहों के लिए”
अगले दिन हम सब कहने लगे कि ‘वह ख़ुदकुशी कर लेगी’ और शायद यह मुनासिब भी होगा। जब पहले-पहल हमने उसे होमर बेरॉन के साथ घूमते देखा था तो हमें लगा कि वह उससे ब्याह करेगी। फिर सब कहने लगे कि ‘वह उस पर ज़ोर ज़बर्दस्ती करेगी’ क्योंकि ख़ुद होमर ने ही हमें बताया था कि उसे पुरुष पसंद हैं। सभी जानते थे कि वह क़स्बे के क्लब में नवयुवकों के साथ बैठ पीना पसंद करता है, वह विवाह करने वाले पुरुषों में से नहीं है। बाद में जब भी चमकदार बग्घी में गर्व से सिर ताने बैठी एमेली और तिरछी टोपी लगाए, दाँतों में सिगार दबाए, पीले दस्ताने वाले हाथों में लगाम व चाबुक थामे होमर बेरॉन इतवार की दुपहर सामने से गुज़रते तो हम सब ईर्ष्या से कहते ‘बेचारी एमेली!’
बाद में कुछ स्त्रियों ने कहना शुरू कर दिया कि यह इस क़स्बे के लिए बड़े शर्म और बदनामी की बात है और इसका हमारे युवा बच्चों पर ग़लत असर पड़ सकता है। पुरुष इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते थे पर आख़िरकार स्त्रियों ने दीक्षा देने वाले पादरी को मजबूर कर दिया कि वह मिस एमेली को सीख दे। पादरी ने किसी को नहीं बताया कि एमेली के साथ बातचीत के दौरान क्या घटा? पर उन्होंने दुबारा जाने से इनकार कर दिया। अगले इतवार वे फिर सड़कों पर घूमते दिखाई दिए और दूसरे ही दिन पादरी की बीवी ने अलाबामा में मिस एमेली के रिश्तेदारों को चिट्ठी लिखी।
इस तरह एक बार फिर क़रीबी रिश्तेदार उसके घर आकर रहने लगे। हम सब इसी इंतजार में थे कि देखें अब क्या होता है? शुरू में कुछ भी नहीं घटा। हमें यक़ीन था कि वे दोनों ब्याह करने वाले हैं। हमें पता चला कि मिस एमेली सुनार के पास भी गई थी। जहाँ उसने पुरुषों के लिए चाँदी के एक सिंगारदान का ऑर्डर दिया और उसके हर कोने में एच०बी० अक्षर ख़ुदवाए। दो दिन बाद हमें पता चला कि वह नाइट सूट समेत पुरुषों द्वारा पहनी जाने वाली हर चीज़ ख़रीदकर लाई है। सब कहने लगे कि ‘वे विवाहित हैं।’ हम वाक़ई ख़ुश थे।
हमें रत्ती भर भी अचरज नहीं हुआ, जब सड़क का काम पूरा होने पर होमर बेरॉन शहर छोड़कर चला गया। हमें हल्की-सी निराशा ज़रूर हुई कि इस बात का कोई हो-हल्ला नहीं हुआ। हमें यक़ीन था कि वह मिस एमेली को अपने घर ले जाने की तैयारी करने गया है या फिर उसे अपनी चचेरी बहनों से छुटकारा पाने का मौक़ा देना चाहता है। हमारा अंदाज़ा सही निकला, क्योंकि एक हफ़्ते बाद ही वे चली गईं और जैसा हमें पूरा भरोसा था, तीन दिन बाद होमर बेरॉन शहर में मौजूद था। एक पड़ोसी ने शाम के पहर झुटपुटे में रसोई के दरवाज़े से अश्वेत द्वारा उसे भीतर छोड़ते हुए देखा।
उसके बाद किसी ने होमर बेरॉन को फिर कभी नहीं देखा। मिस एमेली भी बहुत कम दिखाई देती। अलबत्ता अश्वेत यदा-कदा पोटली उठाए बाज़ार आते-जाते दिख जाता, पर मुख्य द्वार हमेशा बंद ही रहता। एमेली कभी-कभार पल-भर के लिए खिड़की में खड़ी दिखाई दे जाती। जैसे उस रात उन लोगों ने उसे देखा, जो चूना छिड़क रहे थे। पर तक़रीबन छह महीनों से वह कभी बाहर नहीं निकली थी। हम जानते थे कि यह तो होना ही था, क्योंकि उसके पिता ने अपनी आदतों की वजह से उसके जीवन को नष्ट कर ज़हर घोल दिया था।
अगली मर्तबा जब हमने एमेली को देखा तो वह मोटी हो गई थी। उसके बाल पकने लगे थे। अगले कुछ बरसों में ही उसके बाल पूरी तरह भूरे हो गए। चौहत्तर बरस की आयु में उसकी मृत्यु तक किसी सक्रिय आदमी की तरह गहरे भूरे ही थे।
इन तमाम बरसों में उसका मुख्य द्वार हमेशा बंद ही रहा। बस केवल उन छह-सात बरसों को छोड़कर, जब वह क़रीबन चालीस बरस की थी और चाइना पेंटिंग की कक्षाएँ चलाती थी। नीचे के कमरों में से एक कमरे में उसने स्टूडियो बना रखा था, जहाँ कर्नल सरटोरिस के समकालीनों की बेटियाँ व पोतियाँ नियमित रूप से उससे पेंटिंग सीखने आतीं, बिलकुल उसी नियम व श्रद्धा से, जैसे वह हर इतवार को गिरजाघर जाया करती थी। इसी बीच उसके कर को माफ़ कर दिया गया।
फिर नई पीढ़ी ने नगर का ज़िम्मा सँभाला और पेंटिंग सीखने वाले बच्चे भी बड़े हो गए और यहाँ-वहाँ बिखर गए। उन्होंने अपने बच्चों को रंगों की डिब्बियों, तूलिकाओं और महिलाओं की पत्रिकाओं में से कटी तस्वीरों के साथ पेंटिंग सीखने नहीं भेजा। आख़िरी बच्चे के कक्षा छोड़ने के बाद मुख्य दरवाज़ा सदा के लिए बंद हो गया। जब नगर में मुफ़्त डाक प्रणाली शुरू हुई, तब भी मिस एमेली ने अपने घर के ऊपर लोहे का नंबर और डाकपेटी लगवाने से इनकार कर दिया। वह किसी तरह इसके लिए राज़ी न हुई।
दिन ब दिन, माह दर माह और साल दर साल हम उस अश्वेत को बूढ़े होते और उसकी कमर को लगातार झुकते देखते रहे—जो झोला उठाए बाज़ार आता-जाता रहता। हर साल दिसंबर माह में हम उसे टैक्स नोटिस भिजवाते, जो सप्ताह भर में लौट आता। कभी-कभार हम उसे नीचे की किसी खिड़की में देखते—आले में रखी, तराशी प्रतिमा की मानिंद! उसने जानबूझकर घर की ऊपरी मंज़िल बंद कर रखी थी। इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी वह मौजूद रही। उसकी मौजूदगी को नकारना नामुमकिन था—प्रिय, अनिवार्य, अभेद्य, प्रशांत, अड़ियल।
और वह मर गई। धूल और अंधकार से भरे घर में वह बीमार पड़ी रही। पास था तो केवल वह लड़खड़ाता बूढ़ा अश्वेत। वह बीमार है, इसकी किसी को भनक तक नहीं मिली। अरसा पहले हमने अश्वेत से उसकी खोज-ख़बर लेना छोड़ दिया था। वह किसी से बात नहीं करता था, एमेली से भी नहीं। दरअसल इस्तेमाल न करने की वजह से उसके गले को मानो जंग लग गया था। उसकी आवाज़ कर्कश और फट गई थी।
निचले हिस्से के एक कमरे में ही उसकी मृत्यु हो गई। परदे से ढके भारी भरकम बिस्तरे पर पके भूरे बालोंवाला सिर तकिए में धँसा हुआ था—जो बेहद पुराना होने और धूप न मिलने के कारण मैला और पीला पड़ चुका था।
अश्वेत ने स्त्रियों के लिए दरवाज़ा खोला और उन्हें अंदर जाने दिया। ताक-झाँक और खुसुर-पुसुर करती स्त्रियाँ जैसे ही भीतर आईं, वह अश्वेत ग़ायब हो गया। वह घर के भीतर से होते हुए सीधे बाहर निकल गया और फिर कभी दिखाई नहीं दिया।
दोनों चचेरी बहनें भी तत्काल वहाँ पहुँच गईं। अगले दिन ही उन्होंने अंतिम संस्कार रखा, जिसमें पूरा का पूरा क़स्बा मिस एमेली को अंतिम विदाई देने आया। उसकी अरथी ख़रीदे गए फूलों के अंबार के नीचे थी, पास ही चिंतन में लीन पिता का रेखाचित्र रखा था। स्त्रियों की सिसकारियाँ गूँज रही थीं। बूढ़े-बुजुर्ग, जिनमें से कई चमकदार संघीय वर्दियों में थे, मैदान और दालान में खड़े मिस एमेली के बारे में ऐसे बतिया रहे थे, मानो वह उनकी समकालीन रही हो। कुछ तो यहाँ तक कहने से नहीं चूके कि उन्होंने उसके साथ नृत्य भी किया है और इश्क़ तक लड़ाया है। वे शायद गुज़रे वक्त के गणितीय हिसाब को भूल रहे थे, जैसे अकसर इस उम्र में बूढ़े करते हैं, जिनके लिए गुज़रा वक़्त ख़त्म होती सड़क न होकर मानो घास का मैदान है, जिसे कोई मौसम छू नहीं सकता।
अब तक हम जान चुके थे कि सीढ़ियों से ऊपर एक कमरा है, जिसे चालीस बरसों से किसी ने नहीं देखा था और जिसे तोड़कर खोलना पड़ेगा। खोलने से पहले उन्होंने मिस एमेली को पूरी मर्यादा के साथ दफ़नाने का इंतज़ार किया।
जिस आक्रामकता के साथ दरवाज़े को तोड़ा गया, उससे पूरा कमरा धूल से भर उठा। कमरे में ताबूत पर बिछाने जैसा एक झीना आवरण फैला रखा था, मानो कोई क़ब्र हो। कमरा दुल्हन की तरह सजा था। गुलाबी रंग के मखमली परदे, गुलाबी शृंगार मेज़ पर क्रिस्टल की तमाम नाज़ुक वस्तुओं के साथ चाँदी से बने पुरुषों के प्रसाधन सामान भी रखे थे। वे इतने मैले हो चुके थे कि उन पर ख़ुदे अक्षर धुँधले पड़ चुके थे। सामान के बीच एक कॉलर और टाई भी रखी थी, बिल्कुल जैसे अभी निकालकर रखी हो, कुर्सी पर सलीक़े से तह किया एक सूट टँगा था; और वहीं एक जोड़ी जूते जुराबों के साथ रखे थे।
आदमी ख़ुद भी बिस्तर पर पड़ा था।
काफ़ी देर हम यूँ ही खड़े रहे, उस गंभीर और साँसरहित मुस्कराहट को देखते हुए। साफ़ दिख रहा था कि देह पहले आलिंगन की मुद्रा में रही होगी, पर अब गहरी चिरनिद्रा में थी, जो प्रेम से कहीं परे की चीज़ है, जो प्रेम के डरावने व विकृत रूप पर भी जीत हासिल कर लेती है, पर उसने उसे व्यभिचारी स्त्री की ग़ुलामी की अवस्था में ला छोड़ा था। कुछ भी नहीं बचा था, शरीर का निचला हिस्सा इतनी बुरी तरह सड़ चुका था कि पहने गए नाइटसूट समेत उसके धड़ को बिस्तर से अलग करना नामुमकिन-सा था। उसके ऊपर और तकिए के आसपास धूल की मोटी तह जम चुकी थी।
फिर हमने देखा कि दूसरे तकिए पर सिर के आकार का गड्ढा-सा बन गया था। हममें से एक ने झुककर जब उसे उठाया तो धुँधली, शुष्क और अदृश्य धूल हमारी नासिकाओं में भर गई। वहाँ पके भूरे बालों की एक लट सबने देखी।
miss emeli ka jab nidhan hua to samucha shahr uske janaze mein shamil hua. ek or jahan purushon mein iske pichhe ek ‘stambh’ ke Dah jane par samman bhare sneh ki bhavna thi, vahin istriyon mein uske ghar ko bhitar se dekhne ki jij~naasa thi. kyonki pichhle taqriban das barson se ek buDhe naukar ke sivay uske ghar ke bhitar koi aaya gaya nahin tha. ye naukar hi uska mali aur rasoiya bhi tha.
vishal chaukor fremvala uska makan, atharahvin sadi ki atishay khubsurat shaili mein uncha gumbdakar tatha kunDlinuma balkaniyon se saja makan tha. ye kisi zamane mein safed raha hoga, jo us zamane ke sabse vishisht ilaqe mein sthit tha, par garajon aur rui otne ki mashinon ne vahan andhikar pravesh kar is ilaqe aur asapas ki bhavyata va khubsurati ko nasht kar diya tha, bus miss emeli ka makan hi bacha tha—mal Dibbon aur gaisolin pampon ke beech is hathili aur naख़rebaज़ saDandh ke upar—jo sabki ankhon mein kante ki tarah chubhta tha aur ab miss emeli bhi nahin rahi. wo bhi apne unhin nami girami pratinidhiyon mein shamil ho chuki thi, jo jefarsan ke yudh mein shahid sainikon va samaj ke khaas aur agyat vyaktiyon ki qabron ke beech devdar ke vrikshon se Dhake is samadhisthal mein chirnidra mein leen hain.
jab tak miss emeli jivit thi, wo pure nagar ke liye ek paranpra, ek kartavya va ek zimmedari thi—yani pure qasbe ke upar tak ek pushtaini dayitv! aur ye dayitv kafi arse, yani 1894 se chala aa raha tha, jab ek din qasbe ke mayor colonel sartoris ne farman jari kar usko tax ada karne se chhoot de di. ye chhoot uske pita ki mirtyu ke vaक़t se ab tak chali aa rahi thi. aisa na tha ki miss emeli ख़airat lena pasand karti. par colonel sartoris ne ek qissa gaDh rakha tha ki miss emeli ke pita ne is shahr ko qarza diya tha, jise karobari usulon ke tahat ye shahr is roop mein chukana behtar samajhta hai. colonel sartoris ki piDhi aur vicharadhara ka hi koi vekti is tarah ki baat gaDh sakta tha aur mahz striyan hi aisi baat par yaqin kar sakti theen.
jab adhunik vicharadhara vali nai piDhi ne mayor aur nagarpalak ka dayitv sambhala to ye vyavastha dekhkar unhen asantushti hui. nae saal ki pahli tarikh ko unhonne use ek tax notis Daak se jari kiya. february tak koi javab na aaya. phir use ek aupacharik patr likhkar kisi suvidhajanak din mayor ke daftar mein aakar milne ka anurodh kiya gaya. hafte bhar baad khu mayor ne use patr likha aur usse aakar khu milne ya kaar bhejkar use bulvane ki peshkash ki. javab mein unhen purakalin akar ke kaghaz ke tukDe par ek not mila—jis par barik va behad sundar likhavat mein dhundhli syahi se likha tha ki usne ek arse se bahar jana chhoD diya hai. notis ko bhi bina kisi tippanai ke lauta diya tha.
nagarpalkon ke board ki ek vishesh baithak bulai gai. ek pratinidhi dal ko uske ghar bheja gaya. unhonne darvaze par dastak di, jahan se pichhle aath das barson se koi bhi shakhs bhitar nahin gaya tha. ye tab ki baat hai, jab se usne chaina painting ki kakshayen lena band kar diya tha. ek buDha ashvet unhen roshni vale hall mein le gaya, jahan upar ki or ek zina jata tha, upar aur ghana andhera tha. pure ghar mein dhool va badbu bhari thi—ghutan va silan bhari badbu! ashvet unhen baithak mein le gaya, ye chamDe ke mahnge aur bhari furniture se sajjit tha. jab ashvet ne khiDki ke pat khole to chamDa charmara utha aur unke baithte hi dhool ka halka sa bhabhka hava mein tairte hue suraj ki kirnon ke saath ghulmil gaya.
angihti ke paas badrang paD chuke sunahre chitraphlak mein miss emeli ke pita ka khaDiya se bana ek rekhachitr rakha tha. jab miss emeli bhitar i to sab khaड़e ho gaye. kale libas mein wo chhoti nati istri thi—patli sone ki chen uski kamar se belt ke bhitar kahin lupt ho gai thi. malin paD chuki sone ke mutthi vali abnus ki chhaDi par wo tikkar khaDi thi. uski deh dubli aur kamzor thee; shayad isliye golamtol dikhne ki bajay wo moti dikh rahi thi. lambe samay tak sthir jal mein Dubi deh ki manind uska sharir phula phula sa tha. uski ankhen chehre par gile aate ke kisi gole mein dhanse koyle ke do tukDon ki tarah dikh rahi theen. jab hum apni shikayat bayan kar rahe the to uski nigahen tezi se ek chehre se dusre chehre ki or ghumtin.
usne baithne ke liye nahin kaha. wo darvaze par bus khamosh khaDi tab tak sunti rahi, jab tak hamara sathi apni baat puri kar chup nahin ho gaya. achanak sone ki chen ke sire par latki adrshy ghaDi ki tiktik sunai dene lagi.
uski avaz shushk aur sard thi—”jefarsan mein mera koi kar baqaya nahin hai. colonel sartoris ne mujhe samjha diya tha. aap chahen to shahr ke record ki jaanch kar khu ko ashvast kar sakte hain. ”
“par hamne jaanch ki hai. hum shahr ke pradhikari hain, miss emeli kya aapko sheriफ़ ke hastakshar se notis nahin mila. ”
“haan, ek kaghaz mila tha,” miss emeli boli, “shayad wo khu ko sheriफ़ manata ho, par mera koi kar baqaya nahin hai. ”
“par bahiyon mein to aisa hi darz hai. dekhiye, hamein record se hi chalna paDega. ”
“dekhiye, colonel sartoris (halanki colonel sartoris ka nidhan hue das baras guज़r chuke the), mera koi kar nahin hai,. . . tobe!” usne unchi avaz mein pukara, wo ashvet hazir ho gaya.
“inhen bahar ka rasta dikhao. ”
is tarah usne unhen nikal diya, bilkul jaise tees baras pahle unke purvjon ko badbu ki baat ko lekar kiya tha.
ye uske pita ke guzarne ke do baras baad aur premi ke use chhoDkar chale jane ke kuch arse baad ki baat hai. hamein lagta tha ki wo usse byaah karega, par wo chala gaya. pita ke guzarne ke baad wo bahut kam ghar se bahar nikalti. premi ke jane ke baad to usne ghar se nikalna hi band kar diya. kuch istriyon ne usse sanpark karne ka duasahas kiya par unhen beiज़ज़t hona paDa. uske ghar mein wo ashvet hi jivan ka ekmaatr sanket tha. tab wo yuva tha—aksar thaila uthaye bazar aate jate dikhai de jata.
“kya koi purush rasoi ko Dhang se chala sakta hai!” striyan aapas mein khusar pusar kartin. isliye jab uske ghar se badbu aane lagi to unhen ratti bhar bhi achraj nahin hua. is vishal bhare pure sansar aur shreshth va mahan griyarsan parivar ke beech ye ek aur sanpark sootr tha.
uski ek paDosi mahila ne assi varshaiy mayor jaj stivan se badbu ki shikayat ki.
“kyon, kya aap use badbu rokne ke liye nahin kah sakte,” kya koi qanun vaghairah nahin hai?”
“mujhe yaqin hai, uski zarurat nahin paDegi,” jaj stivan bola, “sambhavtah koi saanp ya chuha hoga, jise uske naukar ne markar bahar phenk diya hoga. main usse baat karunga. ”
agle din unhen do aur shikayaten milin, ek shikayat purush ne ki jo uske prati ninda se bhara tha, ‘‘hamen iske bare mein kuch to karna hoga. jaj, mera miss emeli ko pareshan karne ka koi irada nahin, par hamein kuch karna hi hoga. ” usi raat nagarpalkon ke board ki baithak hui—tin buDhe bujurg aur ek yuvak jo nai piDhi ka sadasy tha.
“yah kaun si baDi baat hai,” wo bola, “bus use kah dete hain ki apna ghar saaf karvaye. use kuch vaक़t diya jaye aur phir bhi yadi wo aisa nahin karti to. . . ”
“chhoDo bhi,” jaj stivan bola, “kya aap kisi mahila ko sidhe uske munh par badbu aane ki baat kah sakte hain?”
isliye agle din aadhi raat ke baad chaar vekti miss emeli ke lawn mein choron ki tarah ghuse aur lawn ka kona kona sunghte hue badbu ka surag talashne lage. unmen se ek kandhe par tange bag mein se chhiDakav karta gaya. unhonne tahkhane ka darvaza toDkar andar aur asapas ki sabhi jaghon par chune ka chhiDakav kiya. jab ve dobara lawn se guzarne lage to pahle jis khiDki mein andhera tha, ab batti jal rahi thi aur miss emeli vahan baithi thi. roshni mein uski sidhi, nishchal va spandanarhit kaya kisi pratima ki manind dikh rahi thi. ve lawn mein se rengte hue dhundhli saDak par nikal aaye. ekaadh hafte baad badbu chali gai.
is vaक़t tak logon ko usse sahanubhuti ho chali thi. qasbe ke log un dinon ki yaad karne lage, jab uski nani ki bahan buDhape mein apna santulan kho baithi thi. unhen lagta tha ki griyarsan parivar darasal haisiyat se kuch zyada hi khu ko shreshth samajhta hai. unhen koi bhi navyuvak miss emeli ke yogya nahin dikhta. hum aksar uske vivah ki kalpana karte, jismen prishthabhumi mein miss emeli safed libas mein pita ke pichhe khaDi dikhai deti. isliye jab wo tees ke qarib i, phir bhi avivahit thi to hum darasal khush nahin the, hamein yaqin tha ki parivar valon ki sari bevqufiyon ke bavjud miss emeli yogya var ke prastav par avashy razi ho jati.
jab uske pita ka nidhan hua, tab sabko pata chal gaya ki ab uske paas sampatti ke naam par bus wo makan hi tha. log khush the ki akhir unhen miss emeli par daya dikhane ka mauqa mil gaya tha. ab wo puri tarah akeli rah gai thi—us naukar ke sivay koi na tha. ab use kuch had tak paise ka mahattv samajh mein aa jayega.
rivaj ke mutabiq pita ki mirtyu ke agle din sabhi aurten ikatthi hokar shok vyakt karne pahunchin. ve uski kuch madad bhi karna chahti theen. hamesha ki tarah saji sanvari miss emeli unhen darvaze par mili. uske chehre par duhakh ya shok ka namonishan na tha. usne kaha ki uske pita ki mirtyu nahin hui hai. teen dinon tak wo lagatar yahi kahti rahi. uske ghar aane vale sabhi sarkari adhikari aur doctor use samjhate rahe ki unhen shau ka kriyakarm karne den. akhir jab ve qanun va zor zabardasti par utar aaye tab wo zor zor se bilakhne lagi. unhonne jhatpat uske pita ko dafna diya.
us vaक़t kisi ne nahin kaha ki wo pagla gai hai. hamein laga ye svabhavik tha. hamein un tamam navayuvkon ki yaad i, jinhen uske pita ne bhaga diya tha. hum jante the ki ab jab uske paas kuch nahin bacha tha to wo pita ko hi jakaDkar rakh lena chahti thi, jinhonne uska sab kuch chheen liya tha.
lambe arse tak wo bimar rahi. jab hamne dubara use dekha to usne apne baal chhote kar liye the, jisse wo ek kishori si dikhti—girjaghar ki rang birangi khiDkiyon mein bane devtulya farishton ki tarah—shokmagn aur shaant!
nagar mein patri banane ka theka kisi kantrektar ko diya gaya tha aur uske pita ke guzarne ke kuch arse baad garmiyon mein patri banane ka kaam shuru ho gaya. nirman company dvara is kaam ke liye kai habshi, khachchar va mashinen lai gain. homar beraun naam ka ek ameriki phaurmen bhi aaya tha—lamba chauDa, sanvla, nipun, phurtila, bhari avaz aur chehre ki tulna mein uski ankhon ka rang halka tha. nanhen munne laDke jhunD banakar uske pichhe jate. unhen habshiyon ko iint gare uthate girate hue lai mein kaam karte dekhana achchha lagta tha. jald hi wo qasbe ke har vekti ko janne laga tha. jab kabhi kisi nukkaD ya chaurahe se thahakon ki avaz gunjti to samajh lo homar beraun yaqinan us jhunD mein maujud hoga. ajkal miss emeli aur wo itvaar ki duphar aksar pile pahiyon vali bagghi mein jate dikhai dete.
shuru mein hum khush the ki miss emeli usmen dilchaspi dikha rahi hai. sabhi striyan kahtin, ‘‘griyarsan parivar kisi uttar deshavasi ke dihaDi mazdur ke bare mein gambhiratapurvak soch hi nahin sakta? par kai baDe bujurgon ka manna tha ki duःkh ki is ghaDi mein sambhavtah wo apne abhijaty ya kulin vansh ko bhula degi. unke munh se nikal paDta, “bechari emeli! uske nate rishtedaron ko aana chahiye. ” albama mein uske kuch rishtedar the bhi, par barson pahle uske pita ne unse nata toD liya tha. darasal buDhape mein manasik santulan kho baithi nani ki bahan nyaar ki sampatti ko lekar unse jhagDa ho gaya tha. tab se donon parivaron ke beech koi sanpark nahin raha. ve unki shau yatra mein bhi shamil nahin hue the.
buDhe bujurgon dvara sahanubhuti dikhane par pure qasbe mein khusar pusar shuru ho gai. “kya vaqii ye sach hai?” ve ek dusre se kahne lage, “haan, bilkul aur bhala kya baat ho sakti hai?” jyon hi itvaar ki duphar bagghi qasbe se guzarti, phusphusahat shuru ho jati, ‘bechari emeli’, wo ab bhi usi garv se bhari rahti chahe hamein lagta ki wo gir chuki hai, aisa lagta mano griyarsan parivar ki antim sadasy ke nate wo sabse adhik maan samman ki darkar rakh rahi thi. jaise ek martaba wo chuhe marne ki dava sankhiya kharid lai. ye uske ek baras baad ki baat hai, jab log us par taras khakar ‘bechari emeli’ kahne lage the. is vaक़t tak uski chacheri bahnen bhi kabhi kabhar uske paas aane lagi theen.
“mujhe zahr chahiye,” wo dukandar se boli, tab wo tees ko paar kar chuki thi, halanki wo ab bhi javan dikhti thi. pahle se dubli ho gai thi. chehre par sard, moti kali ankhen, jiski tvacha ankhon ke gole se kanpati tak vikrt si ho gai thi. “mujhe zahr chahiye,” wo phir boli.
“haan, miss emeli, kis prakar ka zahr? kya chuhe vaghairah marne ke liye? to main sifarish karunga ki. . . ”
“jo sabse baDhiya ho, mujhe vahi chahiye, kis prakar ka, iski mujhe parvah nahin. ”
davai vikreta ne kai naam ginaye. inse kisi ko bhi, yahan tak ki hathi tak ko mara ja sakta hai, par apko—
“sankhiya hi chahiye,” miss emeli boli, “kya wo theek rahega?”
“haan, maiDam, par aapko kisaliye chahiye?”
“mujhe sankhiya chahiye. ”
dukandar ne jhukkar use dekha. emeli ne bhi palatkar use dekha, uska chehra bilkul sapat va murjhaya sa tha. dukandar bola, “theek hai, yadi aapko yahi chahiye to diye deta hoon, par qanunan aapko batana hoga ki kis kaam ke liye aap iska istemal karengi?”
miss emeli use ghurne lagi. sir teDha kar wo ektak ghurti rahi, jab tak dukandar nazren hata sankhiya lene na chala gaya. packet dukan mein kaam karne vala ek ashvet chhokra le aaya. dukandar dubara bahar nahin aaya. ghar aakar jab usne packet khola to us par haDDi aur khopaDi ke chitr ke niche likha tha, “chuhon ke liye”
agle din hum sab kahne lage ki ‘vah khudakushi kar legi’ aur shayad ye munasib bhi hoga. jab pahle pahal hamne use homar beraun ke saath ghumte dekha tha to hamein laga ki wo usse byaah karegi. phir sab kahne lage ki ‘vah us par zor zabardasti karegi’ kyonki khu homar ne hi hamein bataya tha ki use purush pasand hain. sabhi jante the ki wo qasbe ke club mein navayuvkon ke saath baith pina pasand karta hai, wo vivah karne vale purushon mein se nahin hai. baad mein jab bhi chamakdar bagghi mein garv se sir tane baithi emeli aur tirchhi topi lagaye, danton mein cigar dabaye, pile dastane vale hathon mein lagam va chabuk thame homar beraun itvaar ki duphar samne se guzarte to hum sab irshya se kahte ‘bechari emeli!’
baad mein kuch istriyon ne kahna shuru kar diya ki ye is qasbe ke liye baDe sharm aur badnami ki baat hai aur iska hamare yuva bachchon par ghalat asar paD sakta hai. purush is pachDe mein nahin paDna chahte the par akhiraka istriyon ne diksha dene vale padari ko majbur kar diya ki wo miss emeli ko seekh de. padari ne kisi ko nahin bataya ki emeli ke saath batachit ke dauran kya ghata? par unhonne dubara jane se inkaar kar diya. agle itvaar ve phir saDkon par ghumte dikhai diye aur dusre hi din padari ki bivi ne alabama mein miss emeli ke rishtedaron ko chitthi likhi.
is tarah ek baar phir qaribi rishtedar uske ghar aakar rahne lage. hum sab isi intjaar mein the ki dekhen ab kya hota hai? shuru mein kuch bhi nahin ghata. hamein yaqin tha ki ve donon byaah karne vale hain. hamein pata chala ki miss emeli sunar ke paas bhi gai thi. jahan usne purushon ke liye chandi ke ek singaradan ka order diya aur uske har kone mein ech०b० akshar khudvaye. do din baad hamein pata chala ki wo knight soot samet purushon dvara pahni jane vali har cheez kharidkar lai hai. sab kahne lage ki ‘ve vivahit hain. ’ hum vaqii khush the.
hamein ratti bhar bhi achraj nahin hua, jab saDak ka kaam pura hone par homar beraun shahr chhoDkar chala gaya. hamein halki si nirasha zarur hui ki is baat ka koi ho halla nahin hua. hamein yaqin tha ki wo miss emeli ko apne ghar le jane ki taiyari karne gaya hai ya phir use apni chacheri bahnon se chhutkara pane ka mauqa dena chahta hai. hamara andaza sahi nikla, kyonki ek hafte baad hi ve chali gain aur jaisa hamein pura bharosa tha, teen din baad homar beraun shahr mein maujud tha. ek paDosi ne shaam ke pahar jhutpute mein rasoi ke darvaze se ashvet dvara use bhitar chhoDte hue dekha.
uske baad kisi ne homar beraun ko phir kabhi nahin dekha. miss emeli bhi bahut kam dikhai deti. albatta ashvet yada kada potli uthaye bazar aate jate dikh jata, par mukhy dvaar hamesha band hi rahta. emeli kabhi kabhar pal bhar ke liye khiDki mein khaDi dikhai de jati. jaise us raat un logon ne use dekha, jo chuna chhiDak rahe the. par taqriban chhah mahinon se wo kabhi bahar nahin nikli thi. hum jante the ki ye to hona hi tha, kyonki uske pita ne apni adton ki vajah se uske jivan ko nasht kar zahr ghol diya tha.
agli martaba jab hamne emeli ko dekha to wo moti ho gai thi. uske baal pakne lage the. agle kuch barson mein hi uske baal puri tarah bhure ho gaye. chauhattar baras ki aayu mein uski mirtyu tak kisi sakriy adami ki tarah gahre bhure hi the.
in tamam barson mein uska mukhy dvaar hamesha band hi raha. bus keval un chhah saat barson ko chhoDkar, jab wo qariban chalis baras ki thi aur chaina painting ki kakshayen chalati thi. niche ke kamron mein se ek kamre mein usne stuDiyo bana rakha tha, jahan colonel sartoris ke samkalinon ki betiyan va potiyan niymit roop se usse painting sikhne atin, bilkul usi niyam va shardha se, jaise wo har itvaar ko girjaghar jaya karti thi. isi beech uske kar ko maaf kar diya gaya.
phir nai piDhi ne nagar ka zimma sambhala aur painting sikhne vale bachche bhi baDe ho gaye aur yahan vahan bikhar gaye. unhonne apne bachchon ko rangon ki Dibbiyon, tulikaon aur mahilaon ki patrikaon mein se kati tasviron ke saath painting sikhne nahin bheja. akhiri bachche ke kaksha chhoDne ke baad mukhy darvaza sada ke liye band ho gaya. jab nagar mein muft Daak pranaali shuru hui, tab bhi miss emeli ne apne ghar ke upar lohe ka number aur Dakpeti lagvane se inkaar kar diya. wo kisi tarah iske liye razi na hui.
din ba din, maah dar maah aur saal dar saal hum us ashvet ko buDhe hote aur uski kamar ko lagatar jhukte dekhte rahe—jo jhola uthaye bazar aata jata rahta. har saal disambar maah mein hum use tax notis bhijvate, jo saptah bhar mein laut aata. kabhi kabhar hum use niche ki kisi khiDki mein dekhte—ale mein rakhi, tarashi pratima ki manind! usne janbujhkar ghar ki upri manzil band kar rakhi thi. is tarah piDhi dar piDhi wo maujud rahi. uski maujudgi ko nakarna namumkin tha—priy, anivary, abhedy, prashant, aDiyal.
aur wo mar gai. dhool aur andhkar se bhare ghar mein wo bimar paDi rahi. paas tha to keval wo laDkhaData buDha ashvet. wo bimar hai, iski kisi ko bhanak tak nahin mili. arsa pahle hamne ashvet se uski khoj khabar lena chhoD diya tha. wo kisi se baat nahin karta tha, emeli se bhi nahin. darasal istemal na karne ki vajah se uske gale ko mano jang lag gaya tha. uski avaz karkash aur phat gai thi.
nichle hisse ke ek kamre mein hi uski mirtyu ho gai. parde se Dhake bhari bharkam bistare par pake bhure balonvala sir takiye mein dhansa hua tha—jo behad purana hone aur dhoop na milne ke karan maila aur pila paD chuka tha.
ashvet ne istriyon ke liye darvaza khola aur unhen andar jane diya. taak jhaank aur khusur pusur karti striyan jaise hi bhitar ain, wo ashvet ghayab ho gaya. wo ghar ke bhitar se hote hue sidhe bahar nikal gaya aur phir kabhi dikhai nahin diya.
donon chacheri bahnen bhi tatkal vahan pahunch gain. agle din hi unhonne antim sanskar rakha, jismen pura ka pura qasba miss emeli ko antim vidai dene aaya. uski arthi kharide gaye phulon ke ambar ke niche thi, paas hi chintan mein leen pita ka rekhachitr rakha tha. istriyon ki siskariyan goonj rahi theen. buDhe bujurg, jinmen se kai chamakdar sanghiy vardiyon mein the, maidan aur dalan mein khaDe miss emeli ke bare mein aise batiya rahe the, mano wo unki samkalin rahi ho. kuch to yahan tak kahne se nahin chuke ki unhonne uske saath nrity bhi kiya hai aur ishq tak laDaya hai. ve shayad guzre vakt ke ganaitiy hisab ko bhool rahe the, jaise aksar is umr mein buDhe karte hain, jinke liye guzra vaक़t khatm hoti saDak na hokar mano ghaas ka maidan hai, jise koi mausam chhu nahin sakta.
ab tak hum jaan chuke the ki siDhiyon se upar ek kamra hai, jise chalis barson se kisi ne nahin dekha tha aur jise toDkar kholana paDega. kholne se pahle unhonne miss emeli ko puri maryada ke saath dafnane ka intzaar kiya.
jis akramakta ke saath darvaze ko toDa gaya, usse pura kamra dhool se bhar utha. kamre mein tabut par bichhane jaisa ek jhina avarn phaila rakha tha, mano koi क़br ho. kamra dulhan ki tarah saja tha. gulabi rang ke makhamli parde, gulabi shringar mez par cristol ki tamam nazuk vastuon ke saath chandi se bane purushon ke prasadhan saman bhi rakhe the. ve itne maile ho chuke the ki un par khude akshar dhundhale paD chuke the. saman ke beech ek collar aur tie bhi rakhi thi, bilkul jaise abhi nikalkar rakhi ho, kursi par saliqe se tah kiya ek soot tanga tha; aur vahin ek joDi jute jurabon ke saath rakhe the.
adami khu bhi bistar par paDa tha.
kafi der hum yoon hi khaDe rahe, us gambhir aur sansarahit muskrahat ko dekhte hue. saaf dikh raha tha ki deh pahle alingan ki mudra mein rahi hogi, par ab gahri chirnidra mein thi, jo prem se kahin pare ki cheez hai, jo prem ke Daravne va vikrt roop par bhi jeet hasil kar leti hai, par usne use vyabhichari istri ki ghulami ki avastha mein la chhoDa tha. kuch bhi nahin bacha tha, sharir ka nichla hissa itni buri tarah saD chuka tha ki pahne gaye naitsut samet uske dhaD ko bistar se alag karna namumkin sa tha. uske upar aur takiye ke asapas dhool ki moti tah jam chuki thi.
phir hamne dekha ki dusre takiye par sir ke akar ka gaDDha sa ban gaya tha. hammen se ek ne jhukkar jab use uthaya to dhundhli, shushk aur adrshy dhool hamari nasikaon mein bhar gai. vahan pake bhure balon ki ek lat sabne dekhi.
miss emeli ka jab nidhan hua to samucha shahr uske janaze mein shamil hua. ek or jahan purushon mein iske pichhe ek ‘stambh’ ke Dah jane par samman bhare sneh ki bhavna thi, vahin istriyon mein uske ghar ko bhitar se dekhne ki jij~naasa thi. kyonki pichhle taqriban das barson se ek buDhe naukar ke sivay uske ghar ke bhitar koi aaya gaya nahin tha. ye naukar hi uska mali aur rasoiya bhi tha.
vishal chaukor fremvala uska makan, atharahvin sadi ki atishay khubsurat shaili mein uncha gumbdakar tatha kunDlinuma balkaniyon se saja makan tha. ye kisi zamane mein safed raha hoga, jo us zamane ke sabse vishisht ilaqe mein sthit tha, par garajon aur rui otne ki mashinon ne vahan andhikar pravesh kar is ilaqe aur asapas ki bhavyata va khubsurati ko nasht kar diya tha, bus miss emeli ka makan hi bacha tha—mal Dibbon aur gaisolin pampon ke beech is hathili aur naख़rebaज़ saDandh ke upar—jo sabki ankhon mein kante ki tarah chubhta tha aur ab miss emeli bhi nahin rahi. wo bhi apne unhin nami girami pratinidhiyon mein shamil ho chuki thi, jo jefarsan ke yudh mein shahid sainikon va samaj ke khaas aur agyat vyaktiyon ki qabron ke beech devdar ke vrikshon se Dhake is samadhisthal mein chirnidra mein leen hain.
jab tak miss emeli jivit thi, wo pure nagar ke liye ek paranpra, ek kartavya va ek zimmedari thi—yani pure qasbe ke upar tak ek pushtaini dayitv! aur ye dayitv kafi arse, yani 1894 se chala aa raha tha, jab ek din qasbe ke mayor colonel sartoris ne farman jari kar usko tax ada karne se chhoot de di. ye chhoot uske pita ki mirtyu ke vaक़t se ab tak chali aa rahi thi. aisa na tha ki miss emeli ख़airat lena pasand karti. par colonel sartoris ne ek qissa gaDh rakha tha ki miss emeli ke pita ne is shahr ko qarza diya tha, jise karobari usulon ke tahat ye shahr is roop mein chukana behtar samajhta hai. colonel sartoris ki piDhi aur vicharadhara ka hi koi vekti is tarah ki baat gaDh sakta tha aur mahz striyan hi aisi baat par yaqin kar sakti theen.
jab adhunik vicharadhara vali nai piDhi ne mayor aur nagarpalak ka dayitv sambhala to ye vyavastha dekhkar unhen asantushti hui. nae saal ki pahli tarikh ko unhonne use ek tax notis Daak se jari kiya. february tak koi javab na aaya. phir use ek aupacharik patr likhkar kisi suvidhajanak din mayor ke daftar mein aakar milne ka anurodh kiya gaya. hafte bhar baad khu mayor ne use patr likha aur usse aakar khu milne ya kaar bhejkar use bulvane ki peshkash ki. javab mein unhen purakalin akar ke kaghaz ke tukDe par ek not mila—jis par barik va behad sundar likhavat mein dhundhli syahi se likha tha ki usne ek arse se bahar jana chhoD diya hai. notis ko bhi bina kisi tippanai ke lauta diya tha.
nagarpalkon ke board ki ek vishesh baithak bulai gai. ek pratinidhi dal ko uske ghar bheja gaya. unhonne darvaze par dastak di, jahan se pichhle aath das barson se koi bhi shakhs bhitar nahin gaya tha. ye tab ki baat hai, jab se usne chaina painting ki kakshayen lena band kar diya tha. ek buDha ashvet unhen roshni vale hall mein le gaya, jahan upar ki or ek zina jata tha, upar aur ghana andhera tha. pure ghar mein dhool va badbu bhari thi—ghutan va silan bhari badbu! ashvet unhen baithak mein le gaya, ye chamDe ke mahnge aur bhari furniture se sajjit tha. jab ashvet ne khiDki ke pat khole to chamDa charmara utha aur unke baithte hi dhool ka halka sa bhabhka hava mein tairte hue suraj ki kirnon ke saath ghulmil gaya.
angihti ke paas badrang paD chuke sunahre chitraphlak mein miss emeli ke pita ka khaDiya se bana ek rekhachitr rakha tha. jab miss emeli bhitar i to sab khaड़e ho gaye. kale libas mein wo chhoti nati istri thi—patli sone ki chen uski kamar se belt ke bhitar kahin lupt ho gai thi. malin paD chuki sone ke mutthi vali abnus ki chhaDi par wo tikkar khaDi thi. uski deh dubli aur kamzor thee; shayad isliye golamtol dikhne ki bajay wo moti dikh rahi thi. lambe samay tak sthir jal mein Dubi deh ki manind uska sharir phula phula sa tha. uski ankhen chehre par gile aate ke kisi gole mein dhanse koyle ke do tukDon ki tarah dikh rahi theen. jab hum apni shikayat bayan kar rahe the to uski nigahen tezi se ek chehre se dusre chehre ki or ghumtin.
usne baithne ke liye nahin kaha. wo darvaze par bus khamosh khaDi tab tak sunti rahi, jab tak hamara sathi apni baat puri kar chup nahin ho gaya. achanak sone ki chen ke sire par latki adrshy ghaDi ki tiktik sunai dene lagi.
uski avaz shushk aur sard thi—”jefarsan mein mera koi kar baqaya nahin hai. colonel sartoris ne mujhe samjha diya tha. aap chahen to shahr ke record ki jaanch kar khu ko ashvast kar sakte hain. ”
“par hamne jaanch ki hai. hum shahr ke pradhikari hain, miss emeli kya aapko sheriफ़ ke hastakshar se notis nahin mila. ”
“haan, ek kaghaz mila tha,” miss emeli boli, “shayad wo khu ko sheriफ़ manata ho, par mera koi kar baqaya nahin hai. ”
“par bahiyon mein to aisa hi darz hai. dekhiye, hamein record se hi chalna paDega. ”
“dekhiye, colonel sartoris (halanki colonel sartoris ka nidhan hue das baras guज़r chuke the), mera koi kar nahin hai,. . . tobe!” usne unchi avaz mein pukara, wo ashvet hazir ho gaya.
“inhen bahar ka rasta dikhao. ”
is tarah usne unhen nikal diya, bilkul jaise tees baras pahle unke purvjon ko badbu ki baat ko lekar kiya tha.
ye uske pita ke guzarne ke do baras baad aur premi ke use chhoDkar chale jane ke kuch arse baad ki baat hai. hamein lagta tha ki wo usse byaah karega, par wo chala gaya. pita ke guzarne ke baad wo bahut kam ghar se bahar nikalti. premi ke jane ke baad to usne ghar se nikalna hi band kar diya. kuch istriyon ne usse sanpark karne ka duasahas kiya par unhen beiज़ज़t hona paDa. uske ghar mein wo ashvet hi jivan ka ekmaatr sanket tha. tab wo yuva tha—aksar thaila uthaye bazar aate jate dikhai de jata.
“kya koi purush rasoi ko Dhang se chala sakta hai!” striyan aapas mein khusar pusar kartin. isliye jab uske ghar se badbu aane lagi to unhen ratti bhar bhi achraj nahin hua. is vishal bhare pure sansar aur shreshth va mahan griyarsan parivar ke beech ye ek aur sanpark sootr tha.
uski ek paDosi mahila ne assi varshaiy mayor jaj stivan se badbu ki shikayat ki.
“kyon, kya aap use badbu rokne ke liye nahin kah sakte,” kya koi qanun vaghairah nahin hai?”
“mujhe yaqin hai, uski zarurat nahin paDegi,” jaj stivan bola, “sambhavtah koi saanp ya chuha hoga, jise uske naukar ne markar bahar phenk diya hoga. main usse baat karunga. ”
agle din unhen do aur shikayaten milin, ek shikayat purush ne ki jo uske prati ninda se bhara tha, ‘‘hamen iske bare mein kuch to karna hoga. jaj, mera miss emeli ko pareshan karne ka koi irada nahin, par hamein kuch karna hi hoga. ” usi raat nagarpalkon ke board ki baithak hui—tin buDhe bujurg aur ek yuvak jo nai piDhi ka sadasy tha.
“yah kaun si baDi baat hai,” wo bola, “bus use kah dete hain ki apna ghar saaf karvaye. use kuch vaक़t diya jaye aur phir bhi yadi wo aisa nahin karti to. . . ”
“chhoDo bhi,” jaj stivan bola, “kya aap kisi mahila ko sidhe uske munh par badbu aane ki baat kah sakte hain?”
isliye agle din aadhi raat ke baad chaar vekti miss emeli ke lawn mein choron ki tarah ghuse aur lawn ka kona kona sunghte hue badbu ka surag talashne lage. unmen se ek kandhe par tange bag mein se chhiDakav karta gaya. unhonne tahkhane ka darvaza toDkar andar aur asapas ki sabhi jaghon par chune ka chhiDakav kiya. jab ve dobara lawn se guzarne lage to pahle jis khiDki mein andhera tha, ab batti jal rahi thi aur miss emeli vahan baithi thi. roshni mein uski sidhi, nishchal va spandanarhit kaya kisi pratima ki manind dikh rahi thi. ve lawn mein se rengte hue dhundhli saDak par nikal aaye. ekaadh hafte baad badbu chali gai.
is vaक़t tak logon ko usse sahanubhuti ho chali thi. qasbe ke log un dinon ki yaad karne lage, jab uski nani ki bahan buDhape mein apna santulan kho baithi thi. unhen lagta tha ki griyarsan parivar darasal haisiyat se kuch zyada hi khu ko shreshth samajhta hai. unhen koi bhi navyuvak miss emeli ke yogya nahin dikhta. hum aksar uske vivah ki kalpana karte, jismen prishthabhumi mein miss emeli safed libas mein pita ke pichhe khaDi dikhai deti. isliye jab wo tees ke qarib i, phir bhi avivahit thi to hum darasal khush nahin the, hamein yaqin tha ki parivar valon ki sari bevqufiyon ke bavjud miss emeli yogya var ke prastav par avashy razi ho jati.
jab uske pita ka nidhan hua, tab sabko pata chal gaya ki ab uske paas sampatti ke naam par bus wo makan hi tha. log khush the ki akhir unhen miss emeli par daya dikhane ka mauqa mil gaya tha. ab wo puri tarah akeli rah gai thi—us naukar ke sivay koi na tha. ab use kuch had tak paise ka mahattv samajh mein aa jayega.
rivaj ke mutabiq pita ki mirtyu ke agle din sabhi aurten ikatthi hokar shok vyakt karne pahunchin. ve uski kuch madad bhi karna chahti theen. hamesha ki tarah saji sanvari miss emeli unhen darvaze par mili. uske chehre par duhakh ya shok ka namonishan na tha. usne kaha ki uske pita ki mirtyu nahin hui hai. teen dinon tak wo lagatar yahi kahti rahi. uske ghar aane vale sabhi sarkari adhikari aur doctor use samjhate rahe ki unhen shau ka kriyakarm karne den. akhir jab ve qanun va zor zabardasti par utar aaye tab wo zor zor se bilakhne lagi. unhonne jhatpat uske pita ko dafna diya.
us vaक़t kisi ne nahin kaha ki wo pagla gai hai. hamein laga ye svabhavik tha. hamein un tamam navayuvkon ki yaad i, jinhen uske pita ne bhaga diya tha. hum jante the ki ab jab uske paas kuch nahin bacha tha to wo pita ko hi jakaDkar rakh lena chahti thi, jinhonne uska sab kuch chheen liya tha.
lambe arse tak wo bimar rahi. jab hamne dubara use dekha to usne apne baal chhote kar liye the, jisse wo ek kishori si dikhti—girjaghar ki rang birangi khiDkiyon mein bane devtulya farishton ki tarah—shokmagn aur shaant!
nagar mein patri banane ka theka kisi kantrektar ko diya gaya tha aur uske pita ke guzarne ke kuch arse baad garmiyon mein patri banane ka kaam shuru ho gaya. nirman company dvara is kaam ke liye kai habshi, khachchar va mashinen lai gain. homar beraun naam ka ek ameriki phaurmen bhi aaya tha—lamba chauDa, sanvla, nipun, phurtila, bhari avaz aur chehre ki tulna mein uski ankhon ka rang halka tha. nanhen munne laDke jhunD banakar uske pichhe jate. unhen habshiyon ko iint gare uthate girate hue lai mein kaam karte dekhana achchha lagta tha. jald hi wo qasbe ke har vekti ko janne laga tha. jab kabhi kisi nukkaD ya chaurahe se thahakon ki avaz gunjti to samajh lo homar beraun yaqinan us jhunD mein maujud hoga. ajkal miss emeli aur wo itvaar ki duphar aksar pile pahiyon vali bagghi mein jate dikhai dete.
shuru mein hum khush the ki miss emeli usmen dilchaspi dikha rahi hai. sabhi striyan kahtin, ‘‘griyarsan parivar kisi uttar deshavasi ke dihaDi mazdur ke bare mein gambhiratapurvak soch hi nahin sakta? par kai baDe bujurgon ka manna tha ki duःkh ki is ghaDi mein sambhavtah wo apne abhijaty ya kulin vansh ko bhula degi. unke munh se nikal paDta, “bechari emeli! uske nate rishtedaron ko aana chahiye. ” albama mein uske kuch rishtedar the bhi, par barson pahle uske pita ne unse nata toD liya tha. darasal buDhape mein manasik santulan kho baithi nani ki bahan nyaar ki sampatti ko lekar unse jhagDa ho gaya tha. tab se donon parivaron ke beech koi sanpark nahin raha. ve unki shau yatra mein bhi shamil nahin hue the.
buDhe bujurgon dvara sahanubhuti dikhane par pure qasbe mein khusar pusar shuru ho gai. “kya vaqii ye sach hai?” ve ek dusre se kahne lage, “haan, bilkul aur bhala kya baat ho sakti hai?” jyon hi itvaar ki duphar bagghi qasbe se guzarti, phusphusahat shuru ho jati, ‘bechari emeli’, wo ab bhi usi garv se bhari rahti chahe hamein lagta ki wo gir chuki hai, aisa lagta mano griyarsan parivar ki antim sadasy ke nate wo sabse adhik maan samman ki darkar rakh rahi thi. jaise ek martaba wo chuhe marne ki dava sankhiya kharid lai. ye uske ek baras baad ki baat hai, jab log us par taras khakar ‘bechari emeli’ kahne lage the. is vaक़t tak uski chacheri bahnen bhi kabhi kabhar uske paas aane lagi theen.
“mujhe zahr chahiye,” wo dukandar se boli, tab wo tees ko paar kar chuki thi, halanki wo ab bhi javan dikhti thi. pahle se dubli ho gai thi. chehre par sard, moti kali ankhen, jiski tvacha ankhon ke gole se kanpati tak vikrt si ho gai thi. “mujhe zahr chahiye,” wo phir boli.
“haan, miss emeli, kis prakar ka zahr? kya chuhe vaghairah marne ke liye? to main sifarish karunga ki. . . ”
“jo sabse baDhiya ho, mujhe vahi chahiye, kis prakar ka, iski mujhe parvah nahin. ”
davai vikreta ne kai naam ginaye. inse kisi ko bhi, yahan tak ki hathi tak ko mara ja sakta hai, par apko—
“sankhiya hi chahiye,” miss emeli boli, “kya wo theek rahega?”
“haan, maiDam, par aapko kisaliye chahiye?”
“mujhe sankhiya chahiye. ”
dukandar ne jhukkar use dekha. emeli ne bhi palatkar use dekha, uska chehra bilkul sapat va murjhaya sa tha. dukandar bola, “theek hai, yadi aapko yahi chahiye to diye deta hoon, par qanunan aapko batana hoga ki kis kaam ke liye aap iska istemal karengi?”
miss emeli use ghurne lagi. sir teDha kar wo ektak ghurti rahi, jab tak dukandar nazren hata sankhiya lene na chala gaya. packet dukan mein kaam karne vala ek ashvet chhokra le aaya. dukandar dubara bahar nahin aaya. ghar aakar jab usne packet khola to us par haDDi aur khopaDi ke chitr ke niche likha tha, “chuhon ke liye”
agle din hum sab kahne lage ki ‘vah khudakushi kar legi’ aur shayad ye munasib bhi hoga. jab pahle pahal hamne use homar beraun ke saath ghumte dekha tha to hamein laga ki wo usse byaah karegi. phir sab kahne lage ki ‘vah us par zor zabardasti karegi’ kyonki khu homar ne hi hamein bataya tha ki use purush pasand hain. sabhi jante the ki wo qasbe ke club mein navayuvkon ke saath baith pina pasand karta hai, wo vivah karne vale purushon mein se nahin hai. baad mein jab bhi chamakdar bagghi mein garv se sir tane baithi emeli aur tirchhi topi lagaye, danton mein cigar dabaye, pile dastane vale hathon mein lagam va chabuk thame homar beraun itvaar ki duphar samne se guzarte to hum sab irshya se kahte ‘bechari emeli!’
baad mein kuch istriyon ne kahna shuru kar diya ki ye is qasbe ke liye baDe sharm aur badnami ki baat hai aur iska hamare yuva bachchon par ghalat asar paD sakta hai. purush is pachDe mein nahin paDna chahte the par akhiraka istriyon ne diksha dene vale padari ko majbur kar diya ki wo miss emeli ko seekh de. padari ne kisi ko nahin bataya ki emeli ke saath batachit ke dauran kya ghata? par unhonne dubara jane se inkaar kar diya. agle itvaar ve phir saDkon par ghumte dikhai diye aur dusre hi din padari ki bivi ne alabama mein miss emeli ke rishtedaron ko chitthi likhi.
is tarah ek baar phir qaribi rishtedar uske ghar aakar rahne lage. hum sab isi intjaar mein the ki dekhen ab kya hota hai? shuru mein kuch bhi nahin ghata. hamein yaqin tha ki ve donon byaah karne vale hain. hamein pata chala ki miss emeli sunar ke paas bhi gai thi. jahan usne purushon ke liye chandi ke ek singaradan ka order diya aur uske har kone mein ech०b० akshar khudvaye. do din baad hamein pata chala ki wo knight soot samet purushon dvara pahni jane vali har cheez kharidkar lai hai. sab kahne lage ki ‘ve vivahit hain. ’ hum vaqii khush the.
hamein ratti bhar bhi achraj nahin hua, jab saDak ka kaam pura hone par homar beraun shahr chhoDkar chala gaya. hamein halki si nirasha zarur hui ki is baat ka koi ho halla nahin hua. hamein yaqin tha ki wo miss emeli ko apne ghar le jane ki taiyari karne gaya hai ya phir use apni chacheri bahnon se chhutkara pane ka mauqa dena chahta hai. hamara andaza sahi nikla, kyonki ek hafte baad hi ve chali gain aur jaisa hamein pura bharosa tha, teen din baad homar beraun shahr mein maujud tha. ek paDosi ne shaam ke pahar jhutpute mein rasoi ke darvaze se ashvet dvara use bhitar chhoDte hue dekha.
uske baad kisi ne homar beraun ko phir kabhi nahin dekha. miss emeli bhi bahut kam dikhai deti. albatta ashvet yada kada potli uthaye bazar aate jate dikh jata, par mukhy dvaar hamesha band hi rahta. emeli kabhi kabhar pal bhar ke liye khiDki mein khaDi dikhai de jati. jaise us raat un logon ne use dekha, jo chuna chhiDak rahe the. par taqriban chhah mahinon se wo kabhi bahar nahin nikli thi. hum jante the ki ye to hona hi tha, kyonki uske pita ne apni adton ki vajah se uske jivan ko nasht kar zahr ghol diya tha.
agli martaba jab hamne emeli ko dekha to wo moti ho gai thi. uske baal pakne lage the. agle kuch barson mein hi uske baal puri tarah bhure ho gaye. chauhattar baras ki aayu mein uski mirtyu tak kisi sakriy adami ki tarah gahre bhure hi the.
in tamam barson mein uska mukhy dvaar hamesha band hi raha. bus keval un chhah saat barson ko chhoDkar, jab wo qariban chalis baras ki thi aur chaina painting ki kakshayen chalati thi. niche ke kamron mein se ek kamre mein usne stuDiyo bana rakha tha, jahan colonel sartoris ke samkalinon ki betiyan va potiyan niymit roop se usse painting sikhne atin, bilkul usi niyam va shardha se, jaise wo har itvaar ko girjaghar jaya karti thi. isi beech uske kar ko maaf kar diya gaya.
phir nai piDhi ne nagar ka zimma sambhala aur painting sikhne vale bachche bhi baDe ho gaye aur yahan vahan bikhar gaye. unhonne apne bachchon ko rangon ki Dibbiyon, tulikaon aur mahilaon ki patrikaon mein se kati tasviron ke saath painting sikhne nahin bheja. akhiri bachche ke kaksha chhoDne ke baad mukhy darvaza sada ke liye band ho gaya. jab nagar mein muft Daak pranaali shuru hui, tab bhi miss emeli ne apne ghar ke upar lohe ka number aur Dakpeti lagvane se inkaar kar diya. wo kisi tarah iske liye razi na hui.
din ba din, maah dar maah aur saal dar saal hum us ashvet ko buDhe hote aur uski kamar ko lagatar jhukte dekhte rahe—jo jhola uthaye bazar aata jata rahta. har saal disambar maah mein hum use tax notis bhijvate, jo saptah bhar mein laut aata. kabhi kabhar hum use niche ki kisi khiDki mein dekhte—ale mein rakhi, tarashi pratima ki manind! usne janbujhkar ghar ki upri manzil band kar rakhi thi. is tarah piDhi dar piDhi wo maujud rahi. uski maujudgi ko nakarna namumkin tha—priy, anivary, abhedy, prashant, aDiyal.
aur wo mar gai. dhool aur andhkar se bhare ghar mein wo bimar paDi rahi. paas tha to keval wo laDkhaData buDha ashvet. wo bimar hai, iski kisi ko bhanak tak nahin mili. arsa pahle hamne ashvet se uski khoj khabar lena chhoD diya tha. wo kisi se baat nahin karta tha, emeli se bhi nahin. darasal istemal na karne ki vajah se uske gale ko mano jang lag gaya tha. uski avaz karkash aur phat gai thi.
nichle hisse ke ek kamre mein hi uski mirtyu ho gai. parde se Dhake bhari bharkam bistare par pake bhure balonvala sir takiye mein dhansa hua tha—jo behad purana hone aur dhoop na milne ke karan maila aur pila paD chuka tha.
ashvet ne istriyon ke liye darvaza khola aur unhen andar jane diya. taak jhaank aur khusur pusur karti striyan jaise hi bhitar ain, wo ashvet ghayab ho gaya. wo ghar ke bhitar se hote hue sidhe bahar nikal gaya aur phir kabhi dikhai nahin diya.
donon chacheri bahnen bhi tatkal vahan pahunch gain. agle din hi unhonne antim sanskar rakha, jismen pura ka pura qasba miss emeli ko antim vidai dene aaya. uski arthi kharide gaye phulon ke ambar ke niche thi, paas hi chintan mein leen pita ka rekhachitr rakha tha. istriyon ki siskariyan goonj rahi theen. buDhe bujurg, jinmen se kai chamakdar sanghiy vardiyon mein the, maidan aur dalan mein khaDe miss emeli ke bare mein aise batiya rahe the, mano wo unki samkalin rahi ho. kuch to yahan tak kahne se nahin chuke ki unhonne uske saath nrity bhi kiya hai aur ishq tak laDaya hai. ve shayad guzre vakt ke ganaitiy hisab ko bhool rahe the, jaise aksar is umr mein buDhe karte hain, jinke liye guzra vaक़t khatm hoti saDak na hokar mano ghaas ka maidan hai, jise koi mausam chhu nahin sakta.
ab tak hum jaan chuke the ki siDhiyon se upar ek kamra hai, jise chalis barson se kisi ne nahin dekha tha aur jise toDkar kholana paDega. kholne se pahle unhonne miss emeli ko puri maryada ke saath dafnane ka intzaar kiya.
jis akramakta ke saath darvaze ko toDa gaya, usse pura kamra dhool se bhar utha. kamre mein tabut par bichhane jaisa ek jhina avarn phaila rakha tha, mano koi क़br ho. kamra dulhan ki tarah saja tha. gulabi rang ke makhamli parde, gulabi shringar mez par cristol ki tamam nazuk vastuon ke saath chandi se bane purushon ke prasadhan saman bhi rakhe the. ve itne maile ho chuke the ki un par khude akshar dhundhale paD chuke the. saman ke beech ek collar aur tie bhi rakhi thi, bilkul jaise abhi nikalkar rakhi ho, kursi par saliqe se tah kiya ek soot tanga tha; aur vahin ek joDi jute jurabon ke saath rakhe the.
adami khu bhi bistar par paDa tha.
kafi der hum yoon hi khaDe rahe, us gambhir aur sansarahit muskrahat ko dekhte hue. saaf dikh raha tha ki deh pahle alingan ki mudra mein rahi hogi, par ab gahri chirnidra mein thi, jo prem se kahin pare ki cheez hai, jo prem ke Daravne va vikrt roop par bhi jeet hasil kar leti hai, par usne use vyabhichari istri ki ghulami ki avastha mein la chhoDa tha. kuch bhi nahin bacha tha, sharir ka nichla hissa itni buri tarah saD chuka tha ki pahne gaye naitsut samet uske dhaD ko bistar se alag karna namumkin sa tha. uske upar aur takiye ke asapas dhool ki moti tah jam chuki thi.
phir hamne dekha ki dusre takiye par sir ke akar ka gaDDha sa ban gaya tha. hammen se ek ne jhukkar jab use uthaya to dhundhli, shushk aur adrshy dhool hamari nasikaon mein bhar gai. vahan pake bhure balon ki ek lat sabne dekhi.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 160-169)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : विलियम कटनबर्ट फाॅकनर
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।