कर्म से ग्वाले, क्षत्रिय कुल के सुमंत्र की सुगठित सुंदरी सीता और उसके दोनों पतियों (अगर पति कहना ही अपरिहार्य हो तो) की कहानी ऐसी है कि श्रोता से श्रेष्ठ मानसिक बल व माया के विविध रूपों की प्रतिक्रिया में अविचलित रहने की माँग करती है।
स्मृति के अंतर्गत आने वाले एक काल में जगद्धात्री के वक्ष पर अंतरंग मैत्री के कोमल बंधनों में दो नवयुवक रहा करते थे। भवभूति का बेटा श्रीदामा कुल से ब्राह्मण, कर्म से वणिक् और आयु में अपने सखा गर्ग के बेटे नंद से तीन वर्ष बड़ा था। यादववंशी, अठारह वर्षीय नंद कुलीन नहीं था, किंतु व्यवसाय करता था। श्रीदामा के लिए ब्राह्मणमार्गी संस्कारों को तजना कर्म बदलने के बावजूद कठिन था, अतः वह अध्ययन, गांभीर्य, सुसंस्कृत भाष्य से अलंकृत था, जबकि नंद को शूद्र न होते हुए भी इन वस्तुओं से कुछ ज़्यादा लगाव नहीं था।
दोनों के शरीर भी इसी भाँति विभिन्न थे। नंद श्यामकाय महाबली था, श्रीदामा ओजमंडित मुखश्री व चंद्रवर्ण से विभूषित था, किंतु कृषकाय था। कोशल भूमि के गोपुरम ग्राम में दोनों रहते थे और दोनों की आमूल विभिन्नता ही अभिन्न मित्रता का मूल थी—ऐतद् वेतद् के सिद्धांतानुसार सहचारिता एकानुभूति को जन्म देती है, एकानुभूति अंतर की ओर ध्यान आकर्षित करती है, अंतर से तुलना उद्भूत होती है, तुलना असहजतापूर्ण विचार उपजाती है, असहजता अचरज की ओर ले जाती है, अचरज शंसा का मार्ग प्रशस्त करता है और शंसा से अंततः हम परस्पर विनिमय के उद्योग द्वारा संयुक्त हो जाते हैं। दोनों मित्रों में दारुण भिन्नता के कारण वैसी नोक-झोंक होती रहती थी, जो ऐसी मैत्री का भावमय अलंकार होती है।
नंद को व्यावसायिक दृष्टि से एक योजना बनानी पड़ी, जिसमें उसने अपने परम बंधु श्रीदामा को भी संग ले लिया, ताकि यात्रा आनंदपूर्ण रहे। तदनुसार दोनों मित्र यमुना के तट पर बसे इंद्रप्रस्थ के उत्तर की ओर कुरुक्षेत्र के निकट पहुँचे। गंतव्य से कुछ इधर ही माँ काली के एक निवास स्थान के निकट, दोनों मित्रों ने विश्राम हेतु पड़ाव डाला। स्नान व भोजन से निवृत्त होकर एक मीठी-सी विद्या संबंधी झड़प की और वृक्षों के झुरमुट में अपराह्न वेला में आकाश का सौंदर्य निहारते लेट गए। नंद के बदन से उठती सरसों के तेल की महक से मच्छर इत्यादि भुनभुनाने लगे तो दोनों मंद-मंद मुस्कराते हुए उठकर बैठ गए। तत्काल झुरमुट के पार नंद की दृष्टि गई। और सीता के अवतरण का कारण जुटा...जो उस समय स्नान-स्थली के तीर पर खड़ी जल को शीश नवाए धारा में उतरने को थी। अर्धवसना युवती की सर्वांग श्रेष्ठ, सुकुमार सुंदरता के आलोक से चौंधियाकर दोनों विस्मित रह गए। निश्चल व निर्वाक् रहकर उस प्राणमयी रूपयष्टि का प्रभाव-पान करने लगे। दोनों के लिए इस अवलोकन-प्रक्रिया से मुक्त होना तब तक असंभव रहा, जब तक सुंदरी सीता नहाकर, बदन पोंछकर, अपनी चोली व साड़ी पहनकर चली नहीं गई, तब तक दोनों ने उसकी स्नानलीनता में व्याघात पड़ने की शंका से पत्ता तक नहीं खड़कने दिया। यहाँ तक कि उस बीच किसी नभचर, किसी वायु का कलरव तक नहीं सुना! ...नंद ने यह उद्घाटित किया कि वह उस अनिंद्य रूपाँगना को जानता था। भीष्म ग्राम के सुमंत्र की बेटी थी वह और उसने उसे अपनी बाँहों पर उठाकर सूर्यस्पर्शी भी कराया था—पिछले बसंत में, जब एक उत्सव में वह यहाँ आया था। सीता के प्रभाव में रमी-रमी चर्चाएँ करते नंद और श्रीदामा पूर्व योजनानुसार तीन दिन बाद मिलने का स्थान व समय निश्चित करके अलग-अलग हो गए। विलगने से पूर्व श्रीदामा ने प्रवाहित होकर कहा—”सौंदर्य का अपनी छवि के प्रति कर्तव्य भी होता है। इस कर्तव्य को पूरा करके वह एक ऐसी ईहा जगाता है जो उसकी आत्मा तक पहुँचने का मार्ग दर्शाती है...मैं भी, बंधु, उस रूप को देखकर तुम्हारी ही तरह प्रभावित हूँ। यह उन्मादावस्था इस दर्शन का कार्य है...”
तीन दिन बाद निश्चित स्थान व समय पर जब श्रीदामा नहीं पहुँचा तो नंद विकल हो उठा। अंत में जब वह आया तो नंद यह देखकर बिंध गया कि उसके मित्र के मुखमंडल पर विषाद और निराशा के घटाटोप बादल हैं। उसने भोजन के लिए क्षमा चाही और बताया कि वह अस्वस्थ रहा है। नंद ने उसकी बाँह पकड़ी व अकुलाकर पूछा, “मेरे भाई, तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?”
श्रीदामा ने आत्मस्वीकार किया और कहा कि वह सुंदरी सीता की अदमनीय कामना से जूझ रहा है और संसार में कहीं कुछ भी रुचिकर नहीं दीख रहा। अतः उसका रोग मृत्युपर्यंत है, “नंद, मेरे लिए चिता तैयार कर दो! तिल-तिल जलकर मरने से अच्छा होगा कि मैं अपने प्राणों की आहुति दे दूँ।”
नंद ने आँखों में आँसू भरकर कहा, “तो मैं भी चिता में तुम्हारे साथ ही पड़ जाऊँगा। क्योंकि तुम्हारे बिना मेरा जीवन अपूर्ण है। देखते हो, मेरी यह बलिष्ठ देह केवल आहार के बल पर नहीं पनपी। तुम्हारे ओजस्वी मानस की गरिमा भी उसके अंतःसंचार का आधार है।”
श्रीदामा ने कहा कि क्योंकि नंद ने भी उसके साथ ही इस रूपसुधा के पान का श्रेय बाँटा था, अतः वह जैसा चाहे कर सकता है। चाहे तो दोनों के लिए चिता तैयार कर सकता है।
सुनकर नंद ने कहा, “मित्र, मैं समझ गया, तुम तीव्र संवेदनशील व कुशाग्र मस्तिष्क के हो। अतः तुम प्रेम का शिकार होकर रह गए। आज्ञा दो तो मैं मृत्यु की बजाय तुम्हारी प्रेम की इच्छा पूरी करने के लिए उद्योग करूँ। सीता सुंदरी से तुम्हारे विवाह के लिए बात चलाऊँ। मुझे विश्वास है कि वह तुम जैसे विद्वान् व कुलीन युवक को पाकर धन्य होगी।”
“कर सकोगे ऐसा नंद प्रिय?” श्रीदामा ने क्षीण आभा व संदेह से पूछा।
'क्यों नहीं दाऊ जी?”
और नंद ने कर दिखाया।
सीता से न केवल श्रीदामा का तुरंत विधिवत् विवाह हो गया, अपितु वह ऐसे पति को पाकर मुग्ध भी हो गई, जिसका सर्वांग विद्वत्ता के ओज से प्रद्युमित था। पति-पत्नी के दिन-रात आलोक, नाद और विस्मृति के पुष्पों से सजे-ढके रहने लगे। घोर ग्रीष्म के बाद वर्षा आई। और जब वह भी जाने को हुई, तब श्रीदामा की माता ने सीता को एक बार पीहर हो आने की आज्ञा दी, वह छह मास गुज़रते न गुज़रते, अब अपने गर्भ में श्रीदामा के विवाह का फल धारण कर चुकी थी।
अभिन्न नंद गाड़ी हाँक रहा था। पीछे दंपति मौन व मग्न थे। नंद धुन में था। वह ऊँचे स्वर में एक गीत अलापता, बीच में गुनगुनाहट पर उतर आता और अंत में उसकी बुदबुदाहट-भर सुनाई देती। तब वह पीछे घूमकर देखता तो दोनों को अपनी ओर देखता पाता। यह क्रम मौन मात्र में परिवर्तित हो गया और तीनों की साँसें-भर सुनाई देती रहीं। कई बार तीनों ने एक-दूसरे को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दृष्टि से देखा, तब जाकर उन्हें चेत हुआ कि वे रास्ता भटक गए हैं और वाहन एक बिरल स्थल पर बंद मार्ग के सामने खड़ा है। नंद ने साहस जुटाकर राह बदली। देर हो चुकी थी, फिर भी रास्ता उसने ढूँढ़ निकाला। मार्ग पर जब माँ दुर्गा का मंदिर पड़ा तो श्रीदामा ने कहा, ‘‘नंद, ज़रा रोकना! मैं देवी का दर्शन करके तुरंत आता हूँ।”
अंधकार में, जिसमें तीनों में से कोई भी एक-दूसरे की स्तब्धमति को देख नहीं पा रहा था, श्रीदामा उतरा और मंदिर के अंदर चला गया। मंदिर में, देवी के सान्निध्य में आते ही उसे चहुँ ओर जीवित वासनाओं के नाना बिंब-प्रतिबिंब दिखे! संसार उसे तृष्णा, ऐष्णा और काम व लोभ और अविश्वास आदि का आगार प्रतीत होने लगा...
बड़ी देर तक जब श्रीदामा नहीं आए तो सीता ने नंद से कहा, “नंद प्रिय, जाओ और ध्यान में भूले अपने कोमल सखा को अपनी बलिष्ठ भुजाओं से चेताओ कि विलंब हो रहा है, अंधकार सता रहा है।”
नंद ‘शिरोधार्य' कहकर वाहन से उतरा और मंदिर में चला गया, किंतु वह भी न लौटा।
विचलित होकर स्वयं सीता जब मंदिर में गई तो देवी की मूर्ति के सामने का दृश्य देखकर चीत्कार कर उठी...धरती पर पति श्रीदामा और नंद के शीश कंधों से अलग पड़े थे, सर्वत्र रक्त फैला था और उस ओर पड़ी एक तलवार चमक रही थी।
“हे देवी, तूने मुझे लुट जाने दिया! दिग्गज मस्तिष्क वाले मेरे आदरणीय पति का, जो रातों में मेरा आलिंगन किया करते थे, जिन्होंने मुझमें काम-ज्वर जगाया था और जिन्हें मैंने कौमार्य भेंट किया था, तूने अपनी देख-रेख में उनका प्राणांत हो जाने दिया और नंद, जिसने उनके लिए मुझे माँगा था...उसकी बलिष्ठ बाँहें और छाती पर गुदे गो चिह्न, जिन्हें मैं अब छू नहीं सकती। किंतु देवी, मैं मुक्त हुई, रक्त और मृत्यु ने मित्रता व मर्यादा के वे बंधन तो हटा लिए, जो मेरे और उसके बीच नित भड़कती व बढ़ती हुई इच्छा के आड़े आते थे...मैं यह भेद नहीं छिपा सकती अब कि नंद ने ईर्ष्यावश मेरे पति का सर उड़ा दिया होगा और फिर पश्चात्ताप में अपना भी अंत कर लिया होगा। पर यहाँ तलवार एक है और वह नंद के हाथ में है...कैसे संभव हुआ होगा...मैं अभागी बची रह गई!”
नाना विलाप करती सीता बाहर दौड़ गई और एक वृक्ष के साथ फंदा बनाकर अपना गला उसमें डालने जा रही थी कि तत्काल आकाशवाणी हुई और माँ ने उसे आज्ञा दी—”ठहर मूर्ख! मुझसे कह! मुझसे सुन!”
सीता ने माँ दुर्गा के सामने क्षमा-याचनापूर्वक स्वीकार किया कि उसने नंद की इच्छा की थी, किंतु स्पर्श नहीं। और उसकी यह इच्छा पति पर एक रात अचेतावस्था में उसने उद्घाटित कर दी थी। उसी दिन से उसके पति का हृदय बिंध गया था। सर्वनाश की जड़ में यह गुत्थी थी।
माँ ने उसकी भर्त्सना की और वचन माँगा कि अगर वह भविष्य में कभी भी वैवाहिक पावनता को लांछित नहीं होने देगी तो वह उन दोनों निर्दोष पुरुषों को जीवनदान देकर उसका जीवन सुखमय बना सकती है। सीता ने वचन दिया। माँ ने कहा, “जा, दोनों के कंधों पर यथास्थान उनके सिर रख दे, उन्हें पूर्ववत् जीवन मिल जाएगा। किंतु वचन भंग न हो।”
माँ की आज्ञा शिरोधार्य कर सीता मंदिर में लौटी और यथाविधि दोनों कंधों पर सिर रखकर अपने संसार के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी। जब दोनों में प्राण संचार हुए तो वह अपनी भूल पर स्तब्ध रह गई। उसने श्रीदामा की कृष देह पर नंद का और नंद की महाबली देह पर श्रीदामा का सिर रख दिया था। यह क्या हो गया? अब वह पति माने तो किसे? श्रीदामा मस्तिष्क धारी नंद की देह के आलिंगन में उसे समाना था या श्रीदामा की देह वाले नंद के सिर का वरण करना था? विवाद इतना बढ़ा, भ्रम इतना उपजा कि फ़ैसला करने के लिए एक पंच की आवश्यकता पड़ गई। “क्षमा करो!” वह रोती हुई चीख़ी “देवी, यह मुझसे क्या हो गया?”
नंद की देह पर प्राणित श्रीदामा के मस्तिष्क संपन्न मुख से सुझाव आया कि धनुष्कोटि के ऋषि कामदमन के पास चला जाए! जैसा वह कहें, मान्य होना चाहिए। शेष दोनों सहमत हो गए।
वाहन तक आए तो समस्या उठी कौन हाँकेगा? धनुष्कोटि की राह और ऋषि कामदमन का पता तो श्रीदामा के मस्तिष्क को ही मालूम था। अत: नंद के सर वाली श्रीदामा की देह के साथ सीता अंदर बैठ गई और नंद की देह के साथ श्रीदामा कोचवान बने।
पूरी बात सुनकर ऋषि कामदमन ने कहा, “देह गौण है, आत्मा का विचार व अस्तित्व मस्तिष्क में होता है और मस्तिष्क की प्रक्रिया व यंत्र सिर में होते हैं। इस प्रकार नंद की देह पर मंडित श्रीदामा ही सीता के पति होने चाहिए।”
निर्णय होते ही सीता उमगकर श्रीदामा की उस देह में अवगुंठित हो गई। जिसकी बाँहों की इच्छा ने उसके हृदय में, अतीत में, अदम्य लालसाओं का संचार किया था। वह परम प्रसन्न थी और परम-प्रसन्न था श्रीदामा भी, जिसने नंद के प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त की, “तुम्हारी देह पाकर मैं तुम्हारा आभार अनुभव करता हूँ। मेरे पास अब मानसिक व दैहिक, दोनों ही तरह की शक्तियाँ हैं। मित्र, न्याय तुम्हारे पक्ष में नहीं रहा। मुझे खेद है...अपनी मित्रता वापस न माँगना।”
नंद खिन्न तो था, किंतु मस्तिष्क से चूँकि गहरा नहीं था, अतः न्याय को उसने सहज रूप में ही लिया। एकांत में जाकर उसने संन्यास धारण कर लिया।
पति-पत्नी जब अपने सामान्य जीवन में लौटे तो सीता की ख़ुशी का पारावार न था। उसके गर्भ में 'नंद' का बीज पनप रहा था। यथासमय उसने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम उसके ससुर व सास ने समाधि रखा।
समाधि का जन्म हालाँकि बहुरंगी उत्सवों के अभिनंदन के साथ हुआ था, फिर भी कुछ काल पश्चात् उसकी दृष्टि के विकार का तथ्य सामने आया। उसे दूर की वस्तुएँ साफ़ नहीं दिखाई देती थीं और यह दोष तीव्रता से विकसित होता गया।
दिन बीतते रहे। श्रीदामा का मस्तिष्क भी सक्रिय रहा। उसकी विद्वत्ता अपनी जगह रही। परिणाम यह हुआ कि देह से अधिक उद्यम न करने के कारण वह क्रमशः दुबला होने लगा।
समाधि जब चार वर्ष का हुआ तो उसकी दृष्टि पिता की देह की भाँति ही उतनी क्षीण हो गई कि लोग उसे 'अंधक' कहने लगे।
सीता का ज्वर अब, शुरू-शुरू के दिनों की भाँति ही, नंद-देह संपन्न पति श्रीदामा के सहवास से निरंतर अतृप्त रहने लगा। एक ओर यह ग्लानि, दूसरी ओर पुत्र की विकलांगता, सीता सुंदरी के दिन अब घोर दुःख में बीतने लगे।
एक दिन श्रीदामा ने पाया कि उसकी पत्नी व पुत्र अंतर्धान हो गए हैं।
लंबी यात्रा, विविध रास्तों व ढेरों अनुभवों के बाद सीता जब गोमती नदी के तट पर बसे उस आश्रम में पहुँची जहाँ नंद साधु-जीवन व्यतीत कर रहा था तो उसे यह देखकर अगाध हर्ष हुआ कि नंद की श्रीदामा देह रूपांतरित होकर अत्यंत बलिष्ठ व नितांत नंदमयी हो उठी है।
“नंद, मेरे प्रिय!” उसने हर्ष-चीत्कार किया और उसकी ओर लपकी।
“मेरी प्रतीक्षारत, मेरी प्रिये!” नंद ने उसे बाँहों में लेते हुए कहा, “मैं जानता था, तुम मेरे बिना न रह सकोगी, तुम्हारे गर्भ में मेरा बीज था। कैसी है मेरी संतान?”
सीता ने अंधक की ओर संकेत किया और उसके पहलू की गंध में डूबी डूबी उसे नन्हें जीव की व्यथा-कथा बताने लगी।
“जो भी है, जैसा भी है, मेरा रक्त-मांस है। मुझे स्वीकार है,“ अंधक को दुलार करते हुए नंद बोला।
अंधक को एक तो कम दिखता था, दूसरे उसे खेलने को खिलौने दिए गए। वह उधर पड़ा रहा, जबकि सीता अपने प्रिय की शैया में पड़ी सुख की अनुभूति में सीत्कार छोड़ती रही।
कहानी के अनुसार यही कहना है कि प्रेमी युगल का यह सुख-सम्मिलन एक दिन और एक रात ही चल सका। पौ फटने से पहले ही श्रीदामा का आगमन हुआ। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी ईर्ष्या व विकृति सामान्य स्तर की नहीं थी।
सीता ने साभिवादन झुककर कहा, “श्रीदामा, मेरे आदरणीय पति, तुम्हारा स्वागत करना चाहिए था, पर विश्वास जानो, तुम्हारा यहाँ आना स्वागतयोग्य व वांछित नहीं है। क्योंकि हममें से दो जहाँ भी रहेंगे, तीसरे का अभाव सताता ही रहेगा।”
“मैं'' तुम दोनों को क्षमा करता हूँ,” श्रीदामा बोला, “नंद, कोई भी प्राणी ऐसा न्याय होने पर यही करता जैसा तुमने किया है...मैं सब तजकर एक ओर हो भी सकता हूँ, पर तुम्हीं कहो, हममें से कौन है, कब तक, कितना सुखी अनुभव कर सकेगा?”
“काश, ऐसा होता!” सीता ने कहा।
“तुमने उचित ही कहा है, भ्राता!” नंद ने कहा, “हम दोनों ही इसके बिना अपूर्ण रहे। हम दोनों ने ही इसका संभोग किया, पर मैंने तुम्हारी और तुमने मेरी चेतना में। और यह भी हम दोनों में से किसी चेतना का अभाव सह नहीं सकेगी। संभवत: मैंने जो विधि-भंग किया है, उसका भी दोष प्रकारांतर से हम दोनों को लगेगा, क्योंकि हम दोनों मिलकर ही पूर्ण बनते हैं। ये रहीं तुम्हारी वे बाँहें, जिन्हें मैंने खूब बलिष्ठ कर लिया है, और यह रहा वह 'मैं' जिसे तुमने कभी अपने लिए चिता बनाने का आदेश दिया था...माँ के चरणों में मैंने भी तब अपना बलिदान अर्पित कर दिया था, जब तुमने किया था। मैंने विश्वासघात तुम्हारी उसी देह के माध्यम से किया है, जिसका पुत्र समाधि है और जिसका पिता अनिवार्यतः मैं हूँ। मानसिक रूप से मैं सदैव यह अधिकार तुम्हारा समझूँगा।”
“अंधक है कहाँ?”
“ठीक समय पर ही हमने उसका ज़िक्र किया है,” सीता ने कहा, “प्रश्न यह है कि उसके लिए रहे कौन? क्या मैं उसके लिए रहूँ? क्या उसे अनाथ जीवन जीने दूँ? सतियों के दृष्टांत का अनुगमन करूँ? मेरे बिना उसका जीवन संभवतः सम्मानित रह सकेगा। पुरुषों की सद्भावनाएँ उस पर बरसेंगी। अतः मैं, सीता, सुमंत्र की पुत्री, माँग करती हूँ कि चिता मेरे लिए भी तैयार की जाए।”
“कदापि नहीं!” श्रीदामा ने कहा, “मैं तुम्हारे अभिमान और उच्च विचारों की अभ्यर्थना करता हूँ देवी, किंतु तुम विधवा नहीं हो सकतीं। मुझमें व नंद में से एक भी जीवित रहेगा तो तुम्हें वैधव्य नहीं लगेगा। इसके लिए नंद को भी प्राण होम करने होंगे। हम दोनों को एक-दूसरे को मारना होगा। वे दो तलवारें हैं...
“लाओ, मैं तैयार हूँ” नंद बोला।
“सिर्फ़ तलवारें 'दूसरी' हैं, हम दोनों एक हैं। हम दोनों स्वयं को मारेंगे। हमें सीता को नहीं पाना। हमें ऐहिक वार करने और सहने का दोहरा कर्तव्य निभाना है।”
“मुझे प्रसन्नता होगी। पर तुम्हें अपने वार से मेरा हृदय बेधना होगा, देह नहीं। अन्यथा सीता प्रेम के अभाव में रह जाएगी।”
सीता इस व्यवस्था से संतुष्ट हुई। विधिपूर्ण हुई। दोनों जीवों की चिता पर जो समाधि बनी, उसमें सीता ने अपना स्थान पाया। इस समाधि का नाम भक्तों ने 'अंधक' रखा।
सीता की संतान इसी धरती पर पली व बढ़ी। वह अंधक ही कहलाई। उसे महासती की संतान कहलाने का सौभाग्य भी मिला, लोगों ने इसी कारण उसके व्यक्तित्व को निर्दोष व सौंदर्यमय माना। रूप व शक्ति में वह गंधर्व समझा गया।
दृष्टि की कमज़ोरी की वजह से वह बहुत दूर तक नहीं देख पाता था। निकट देखता व आत्मकेंद्रित रहता। इससे उसका अपने मानस से सीधा व पर्याप्त संबंध रहा। उसने इन्हीं गुणों के कारण गहन विद्यार्जन किया। बीस वर्ष की आयु में जब वह महाराजा बनारस का गुरु नियुक्त हुआ तो लोग उसे बारजे पर बैठा देखते : दिव्य मुद्रा व आकर्षक सादी भूषा से मंडित पुस्तक को क़रीब से देखता हुआ।
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nand ne ankhon mein ansu bharkar kaha, “to main bhi chita mein tumhare saath hi paD jaunga. kyonki tumhare bina mera jivan apurn hai. dekhte ho, meri ye balishth deh keval ahar ke bal par nahin panpi. tumhare ojasvi manas ki garima bhi uske antasanchar ka adhar hai. ”
shridama ne kaha ki kyonki nand ne bhi uske saath hi is rupasudha ke paan ka shrey banta tha, at wo jaisa chahe kar sakta hai. chahe to donon ke liye chita taiyar kar sakta hai.
sunkar nand ne kaha, “mitr, main samajh gaya, tum teevr sanvedanshil va kushagr mastishk ke ho. at tum prem ka shikar hokar rah gaye. aagya do to main mirtyu ki bajay tumhari prem ki ichha puri karne ke liye udyog karun. sita sundari se tumhare vivah ke liye baat chalaun. mujhe vishvas hai ki wo tum jaise vidvan va kulin yuvak ko pakar dhany hogi. ”
“kar sakoge aisa nand priy?” shridama ne kshain aabha va sandeh se puchha.
kyon nahin dau jee?”
aur nand ne kar dikhaya.
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abhinn nand gaDi haank raha tha. pichhe dampati maun va magn the. nand dhun mein tha. wo unche svar mein ek geet alapta, beech mein gungunahat par utar aata aur ant mein uski budbudahat bhar sunai deti. tab wo pichhe ghumkar dekhta to donon ko apni or dekhta pata. ye kram maun maatr mein parivartit ho gaya aur tinon ki sansen bhar sunai deti rahin. kai baar tinon ne ek dusre ko pratyaksh apratyaksh drishti se dekha, tab jakar unhen chet hua ki ve rasta bhatak gaye hain aur vahan ek biral sthal par band maarg ke samne khaDa hai. nand ne sahas jutakar raah badli. der ho chuki thi, phir bhi rasta usne DhoonDh nikala. maarg par jab maan durga ka mandir paDa to shridama ne kaha, ‘‘nand, zara rokna! main devi ka darshan karke turant aata hoon. ”
andhkar mein, jismen tinon mein se koi bhi ek dusre ki stabdhamati ko dekh nahin pa raha tha, shridama utra aur mandir ke andar chala gaya. mandir mein, devi ke sannidhy mein aate hi use chahun or jivit vasnaon ke nana bimb pratibimb dikhe! sansar use tirishna, aishna aur kaam va lobh aur avishvas aadi ka agar pratit hone laga. . .
baDi der tak jab shridama nahin aaye to sita ne nand se kaha, “nand priy, jao aur dhyaan mein bhule apne komal sakha ko apni balishth bhujaon se chetao ki vilamb ho raha hai, andhkar sata raha hai. ”
nand ‘shirodhary kahkar vahan se utra aur mandir mein chala gaya, kintu wo bhi na lauta.
vichlit hokar svayan sita jab mandir mein gai to devi ki murti ke samne ka drishya dekhkar chitkar kar uthi. . . dharti par pati shridama aur nand ke sheesh kandhon se alag paDe the, sarvatr rakt phaila tha aur us or paDi ek talvar chamak rahi thi.
“he devi, tune mujhe lut jane diya! diggaj mastishk vale mere adarnaiy pati ka, jo raton mein mera alingan kiya karte the, jinhonne mujhmen kaam jvar jagaya tha aur jinhen mainne kaumary bhent kiya tha, tune apni dekh rekh mein unka pranaant ho jane diya aur nand, jisne unke liye mujhe manga tha. . . uski balishth banhen aur chhati par gude go chihn, jinhen main ab chhu nahin sakti. kintu devi, main mukt hui, rakt aur mirtyu ne mitrata va maryada ke ve bandhan to hata liye, jo mere aur uske beech nit bhaDakti va baDhti hui ichha ke aaDe aate the. . . main ye bhed nahin chhipa sakti ab ki nand ne iirshyavash mere pati ka sar uDa diya hoga aur phir pashchattap mein apna bhi ant kar liya hoga. par yahan talvar ek hai aur wo nand ke haath mein hai. . . kaise sambhav hua hoga. . . main abhagi bachi rah gai!”
nana vilap karti sita bahar dauD gai aur ek vriksh ke saath phanda banakar apna gala usmen Dalne ja rahi thi ki tatkal akashvani hui aur maan ne use aagya di—”thahr moorkh! mujhse kah! mujhse sun!”
sita ne maan durga ke samne kshama yachnapurvak svikar kiya ki usne nand ki ichha ki thi, kintu sparsh nahin. aur uski ye ichha pati par ek raat achetavastha mein usne udghatit kar di thi. usi din se uske pati ka hirdai bindh gaya tha. sarvanash ki jaD mein ye gutthi thi.
maan ne uski bhartasna ki aur vachan manga ki agar wo bhavishya mein kabhi bhi vaivahik pavanta ko lanchhit nahin hone degi to wo un donon nirdosh purushon ko jivandan dekar uska jivan sukhmay bana sakti hai. sita ne vachan diya. maan ne kaha, “ja, donon ke kandhon par yathasthan unke sir rakh de, unhen purvavat jivan mil jayega. kintu vachan bhang na ho. ”
maan ki aagya shirodhary kar sita mandir mein lauti aur yathavidhi donon kandhon par sir rakhkar apne sansar ke lautne ki pratiksha karne lagi. jab donon mein paran sanchar hue to wo apni bhool par stabdh rah gai. usne shridama ki krish deh par nand ka aur nand ki mahabali deh par shridama ka sir rakh diya tha. ye kya ho gaya? ab wo pati mane to kise? shridama mastishk dhari nand ki deh ke alingan mein use samana tha ya shridama ki deh vale nand ke sir ka varn karna tha? vivad itna baDha, bhram itna upja ki faisla karne ke liye ek panch ki avashyakta paD gai. “kshama karo!” wo roti hui chikhi “devi, ye mujhse kya ho gaya?”
nand ki deh par pranit shridama ke mastishk sanpann mukh se sujhav aaya ki dhanushkoti ke rishi kamadman ke paas chala jaye! jaisa wo kahen, maany hona chahiye. shesh donon sahmat ho gaye.
vahan tak aaye to samasya uthi kaun hankega? dhanushkoti ki raah aur rishi kamadman ka pata to shridama ke mastishk ko hi malum tha. atah nand ke sar vali shridama ki deh ke saath sita andar baith gai aur nand ki deh ke saath shridama kochavan bane.
puri baat sunkar rishi kamadman ne kaha, “deh gaun hai, aatma ka vichar va astitv mastishk mein hota hai aur mastishk ki prakriya va yantr sir mein hote hain. is prakar nand ki deh par manDit shridama hi sita ke pati hone chahiye. ”
nirnay hote hi sita umagkar shridama ki us deh mein avgunthit ho gai. jiski banhon ki ichha ne uske hirdai mein, atit mein, adamy lalsaon ka sanchar kiya tha. wo param prasann thi aur param prasann tha shridama bhi, jisne nand ke prati kritaj~nata abhivyakt ki, “tumhari deh pakar main tumhara abhar anubhav karta hoon. mere paas ab manasik va daihik, donon hi tarah ki shaktiyan hain. mitr, nyaay tumhare paksh mein nahin raha. mujhe khed hai. . . apni mitrata vapas na mangna. ”
nand khinn to tha, kintu mastishk se chunki gahra nahin tha, at nyaay ko usne sahj roop mein hi liya. ekaant mein jakar usne sannyas dharan kar liya.
pati patni jab apne samany jivan mein laute to sita ki khushi ka paravar na tha. uske garbh mein nand ka beej panap raha tha. yathasmay usne ek putrratn ko janm diya, jiska naam uske sasur va saas ne samadhi rakha.
samadhi ka janm halanki bahurangi utsvon ke abhinandan ke saath hua tha, phir bhi kuch kaal pashchat uski drishti ke vikar ka tathy samne aaya. use door ki vastuen saaf nahin dikhai deti theen aur ye dosh tivrata se viksit hota gaya.
din bitte rahe. shridama ka mastishk bhi sakriy raha. uski vidvatta apni jagah rahi. parinaam ye hua ki deh se adhik udyam na karne ke karan wo kramash dubla hone laga.
samadhi jab chaar varsh ka hua to uski drishti pita ki deh ki bhanti hi utni kshain ho gai ki log use andhak kahne lage.
sita ka jvar ab, shuru shuru ke dinon ki bhanti hi, nand deh sanpann pati shridama ke sahvas se nirantar atrpt rahne laga. ek or ye glani, dusri or putr ki viklangta, sita sundari ke din ab ghor duःkh mein bitne lage.
ek din shridama ne paya ki uski patni va putr antardhan ho gaye hain.
lambi yatra, vividh raston va Dheron anubhvon ke baad sita jab gomti nadi ke tat par base us ashram mein pahunchi jahan nand sadhu jivan vyatit kar raha tha to use ye dekhkar agadh harsh hua ki nand ki shridama deh rupantrit hokar atyant balishth va nitant nandamyi ho uthi hai.
“nand, mere priy!” usne harsh chitkar kiya aur uski or lapki.
“meri pratiksharat, meri priye!” nand ne use banhon mein lete hue kaha, “main janta tha, tum mere bina na rah sakogi, tumhare garbh mein mera beej tha. kaisi hai meri santan?”
sita ne andhak ki or sanket kiya aur uske pahlu ki gandh mein Dubi Dubi use nanhen jeev ki vyatha katha batane lagi.
andhak ko ek to kam dikhta tha, dusre use khelne ko khilaune diye gaye. wo udhar paDa raha, jabki sita apne priy ki shaiya mein paDi sukh ki anubhuti mein sitkar chhoDti rahi.
kahani ke anusar yahi kahna hai ki premi yugal ka ye sukh sammilan ek din aur ek raat hi chal saka. pau phatne se pahle hi shridama ka agaman hua. ye anuman lagaya ja sakta hai ki uski irshya va vikrti samany star ki nahin thi.
sita ne sabhivadan jhukkar kaha, “shridama, mere adarnaiy pati, tumhara svagat karna chahiye tha, par vishvas jano, tumhara yahan aana svagatyogya va vanchhit nahin hai. kyonki hammen se do jahan bhi rahenge, tisre ka abhav satata hi rahega. ”
“main tum donon ko kshama karta hoon,” shridama bola, “nand, koi bhi parani aisa nyaay hone par yahi karta jaisa tumne kiya hai. . . main sab tajkar ek or ho bhi sakta hoon, par tumhin kaho, hammen se kaun hai, kab tak, kitna sukhi anubhav kar sakega?”
“kaash, aisa hota!” sita ne kaha.
“tumne uchit hi kaha hai, bhrata!” nand ne kaha, “ham donon hi iske bina apurn rahe. hum donon ne hi iska sambhog kiya, par mainne tumhari aur tumne meri chetna mein. aur ye bhi hum donon mein se kisi chetna ka abhav sah nahin sakegi. sambhavtah mainne jo vidhi bhang kiya hai, uska bhi dosh prakarantar se hum donon ko lagega, kyonki hum donon milkar hi poorn bante hain. ye rahin tumhari ve banhen, jinhen mainne khoob balishth kar liya hai, aur ye raha wo main jise tumne kabhi apne liye chita banane ka adesh diya tha. . . maan ke charnon mein mainne bhi tab apna balidan arpit kar diya tha, jab tumne kiya tha. mainne vishvasghat tumhari usi deh ke madhyam se kiya hai, jiska putr samadhi hai aur jiska pita anivaryat main hoon. manasik roop se main sadaiv ye adhikar tumhara samjhunga. ”
“andhak hai kahan?”
“theek samay par hi hamne uska zikr kiya hai,” sita ne kaha, “parashn ye hai ki uske liye rahe kaun? kya main uske liye rahun? kya use anath jivan jine doon? satiyon ke drishtant ka anugman karun? mere bina uska jivan sambhvat sammanit rah sakega. purushon ki sadbhavnayen us par barsengi. at main, sita, sumantr ki putri, maang karti hoon ki chita mere liye bhi taiyar ki jaye. ”
“kadapi nahin!” shridama ne kaha, “main tumhare abhiman aur uchch vicharon ki abhyarthana karta hoon devi, kintu tum vidhva nahin ho saktin. mujhmen va nand mein se ek bhi jivit rahega to tumhein vaidhavy nahin lagega. iske liye nand ko bhi paran hom karne honge. hum donon ko ek dusre ko marana hoga. ve do talvaren hain. . .
“lao, main taiyar hoon” nand bola.
“sirf talvaren dusri hain, hum donon ek hain. hum donon svayan ko marenge. hamein sita ko nahin pana. hamein aihik vaar karne aur sahne ka dohra kartavya nibhana hai. ”
“mujhe prasannata hogi. par tumhein apne vaar se mera hirdai bedhna hoga, deh nahin. anyatha sita prem ke abhav mein rah jayegi. ”
sita is vyavastha se santusht hui. vidhipurn hui. donon jivon ki chita par jo samadhi bani, usmen sita ne apna sthaan paya. is samadhi ka naam bhakton ne andhak rakha.
sita ki santan isi dharti par pali va baDhi. wo andhak hi kahlai. use mahasti ki santan kahlane ka saubhagya bhi mila, logon ne isi karan uske vyaktitv ko nirdosh va saundarymay mana. roop va shakti mein wo gandharv samjha gaya.
drishti ki kamzori ki vajah se wo bahut door tak nahin dekh pata tha. nikat dekhta va atmakendrit rahta. isse uska apne manas se sidha va paryapt sambandh raha. usne inhin gunon ke karan gahan vidyarjan kiya. bees varsh ki aayu mein jab wo maharaja banaras ka guru niyukt hua to log use barje par baitha dekhte ha divy mudra va akarshak sadi bhusha se manDit pustak ko qarib se dekhta hua.
karm se gvale, kshatriy kul ke sumantr ki sugthit sundari sita aur uske donon patiyon (agar pati kahna hi aprihary ho to) ki kahani aisi hai ki shrota se shreshth manasik bal va maya ke vividh rupon ki pratikriya mein avichlit rahne ki maang karti hai.
smriti ke antargat aane vale ek kaal mein jagaddhatri ke vaksh par antrang maitri ke komal bandhanon mein do navyuvak raha karte the. bhavbhuti ka beta shridama kul se brahman, karm se vanaik aur aayu mein apne sakha garg ke bete nand se teen varsh baDa tha. yadavvanshi, atharah varshaiy nand kulin nahin tha, kintu vyavsay karta tha. shridama ke liye brahmanmargi sanskaron ko tajna karm badalne ke bavjud kathin tha, at wo adhyayan, gambhiry, susanskrit bhashya se alankrt tha, jabki nand ko shoodr na hote hue bhi in vastuon se kuch zyada lagav nahin tha.
donon ke sharir bhi isi bhanti vibhinn the. nand shyamkay mahabali tha, shridama ojmanDit mukhashri va chandrvarn se vibhushait tha, kintu krishkay tha. koshal bhumi ke gopuram gram mein donon rahte the aur donon ki amul vibhinnata hi abhinn mitrata ka mool thi—aitad vetad ke siddhantanusar sahcharita ekanubhuti ko janm deti hai, ekanubhuti antar ki or dhyaan akarshait karti hai, antar se tulna udbhut hoti hai, tulna asahajtapurn vichar upjati hai, ashajta achraj ki or le jati hai, achraj shansa ka maarg prashast karta hai aur shansa se antat hum paraspar vinimay ke udyog dvara sanyukt ho jate hain. donon mitron mein darun bhinnata ke karan vaisi nok jhonk hoti rahti thi, jo aisi maitri ka bhavamay alankar hoti hai.
nand ko vyavasayik drishti se ek yojna banani paDi, jismen usne apne param bandhu shridama ko bhi sang le liya, taki yatra anandpurn rahe. tadnusar donon mitr yamuna ke tat par base indraprastha ke uttar ki or kurukshetr ke nikat pahunche. gantavy se kuch idhar hi maan kali ke ek nivas sthaan ke nikat, donon mitron ne vishram hetu paDav Dala. snaan va bhojan se nivrtt hokar ek mithi si viddya sambandhi jhaDap ki aur vrikshon ke jhurmut mein aprahn vela mein akash ka saundarya niharte let gaye. nand ke badan se uthti sarson ke tel ki mahak se machchhar ityadi bhunabhunane lage to donon mand mand muskrate hue uthkar baith gaye. tatkal jhurmut ke paar nand ki drishti gai. aur sita ke avtarn ka karan juta. . . jo us samay snaan sthali ke teer par khaDi jal ko sheesh navaye dhara mein utarne ko thi. ardhavasna yuvati ki sarvang shreshth, sukumar sundarta ke aalok se chaundhiyakar donon vismit rah gaye. nishchal va nirvak rahkar us pranamyi rupyashti ka prabhav paan karne lage. donon ke liye is avlokan prakriya se mukt hona tab tak asambhau raha, jab tak sundari sita nahakar, badan ponchhkar, apni choli va saDi pahankar chali nahin gai, tab tak donon ne uski snanlinta mein vyaghat paDne ki shanka se patta tak nahin khaDakne diya. yahan tak ki us beech kisi nabhchar, kisi vayu ka kalrav tak nahin suna!. . . nand ne ye udghatit kiya ki wo us anindy rupangana ko janta tha. bheeshm gram ke sumantr ki beti thi wo aur usne use apni banhon par uthakar suryasparshi bhi karaya tha—pichhle basant mein, jab ek utsav mein wo yahan aaya tha. sita ke prabhav mein rami rami charchayen karte nand aur shridama poorv yojnanusar teen din baad milne ka sthaan va samay nishchit karke alag alag ho gaye. vilagne se poorv shridama ne prvahit hokar kaha—”saundarya ka apni chhavi ke prati kartavya bhi hota hai. is kartavya ko pura karke wo ek aisi iha jagata hai jo uski aatma tak pahunchne ka maarg darshati hai. . . main bhi, bandhu, us roop ko dekhkar tumhari hi tarah prabhavit hoon. ye unmadavastha is darshan ka kaary hai. . . ”
teen din baad nishchit sthaan va samay par jab shridama nahin pahuncha to nand vikal ho utha. ant mein jab wo aaya to nand ye dekhkar bindh gaya ki uske mitr ke mukhmanDal par vishad aur nirasha ke ghatatop badal hain. usne bhojan ke liye kshama chahi aur bataya ki wo asvasth raha hai. nand ne uski baanh pakDi va akulakar puchha, “mere bhai, tumhari ye haalat kaise hui?”
shridama ne atmasvikar kiya aur kaha ki wo sundari sita ki adamniy kamna se joojh raha hai aur sansar mein kahin kuch bhi ruchikar nahin deekh raha. at uska rog mrityuparyant hai, “nand, mere liye chita taiyar kar do! til til jalkar marne se achchha hoga ki main apne pranon ki ahuti de doon. ”
nand ne ankhon mein ansu bharkar kaha, “to main bhi chita mein tumhare saath hi paD jaunga. kyonki tumhare bina mera jivan apurn hai. dekhte ho, meri ye balishth deh keval ahar ke bal par nahin panpi. tumhare ojasvi manas ki garima bhi uske antasanchar ka adhar hai. ”
shridama ne kaha ki kyonki nand ne bhi uske saath hi is rupasudha ke paan ka shrey banta tha, at wo jaisa chahe kar sakta hai. chahe to donon ke liye chita taiyar kar sakta hai.
sunkar nand ne kaha, “mitr, main samajh gaya, tum teevr sanvedanshil va kushagr mastishk ke ho. at tum prem ka shikar hokar rah gaye. aagya do to main mirtyu ki bajay tumhari prem ki ichha puri karne ke liye udyog karun. sita sundari se tumhare vivah ke liye baat chalaun. mujhe vishvas hai ki wo tum jaise vidvan va kulin yuvak ko pakar dhany hogi. ”
“kar sakoge aisa nand priy?” shridama ne kshain aabha va sandeh se puchha.
kyon nahin dau jee?”
aur nand ne kar dikhaya.
sita se na keval shridama ka turant vidhivat vivah ho gaya, apitu wo aise pati ko pakar mugdh bhi ho gai, jiska sarvang vidvatta ke oj se pradyumit tha. pati patni ke din raat aalok, naad aur vismriti ke pushpon se saje Dhake rahne lage. ghor greeshm ke baad varsha i. aur jab wo bhi jane ko hui, tab shridama ki mata ne sita ko ek baar pihar ho aane ki aagya di, wo chhah maas guzarte na guzarte, ab apne garbh mein shridama ke vivah ka phal dharan kar chuki thi.
abhinn nand gaDi haank raha tha. pichhe dampati maun va magn the. nand dhun mein tha. wo unche svar mein ek geet alapta, beech mein gungunahat par utar aata aur ant mein uski budbudahat bhar sunai deti. tab wo pichhe ghumkar dekhta to donon ko apni or dekhta pata. ye kram maun maatr mein parivartit ho gaya aur tinon ki sansen bhar sunai deti rahin. kai baar tinon ne ek dusre ko pratyaksh apratyaksh drishti se dekha, tab jakar unhen chet hua ki ve rasta bhatak gaye hain aur vahan ek biral sthal par band maarg ke samne khaDa hai. nand ne sahas jutakar raah badli. der ho chuki thi, phir bhi rasta usne DhoonDh nikala. maarg par jab maan durga ka mandir paDa to shridama ne kaha, ‘‘nand, zara rokna! main devi ka darshan karke turant aata hoon. ”
andhkar mein, jismen tinon mein se koi bhi ek dusre ki stabdhamati ko dekh nahin pa raha tha, shridama utra aur mandir ke andar chala gaya. mandir mein, devi ke sannidhy mein aate hi use chahun or jivit vasnaon ke nana bimb pratibimb dikhe! sansar use tirishna, aishna aur kaam va lobh aur avishvas aadi ka agar pratit hone laga. . .
baDi der tak jab shridama nahin aaye to sita ne nand se kaha, “nand priy, jao aur dhyaan mein bhule apne komal sakha ko apni balishth bhujaon se chetao ki vilamb ho raha hai, andhkar sata raha hai. ”
nand ‘shirodhary kahkar vahan se utra aur mandir mein chala gaya, kintu wo bhi na lauta.
vichlit hokar svayan sita jab mandir mein gai to devi ki murti ke samne ka drishya dekhkar chitkar kar uthi. . . dharti par pati shridama aur nand ke sheesh kandhon se alag paDe the, sarvatr rakt phaila tha aur us or paDi ek talvar chamak rahi thi.
“he devi, tune mujhe lut jane diya! diggaj mastishk vale mere adarnaiy pati ka, jo raton mein mera alingan kiya karte the, jinhonne mujhmen kaam jvar jagaya tha aur jinhen mainne kaumary bhent kiya tha, tune apni dekh rekh mein unka pranaant ho jane diya aur nand, jisne unke liye mujhe manga tha. . . uski balishth banhen aur chhati par gude go chihn, jinhen main ab chhu nahin sakti. kintu devi, main mukt hui, rakt aur mirtyu ne mitrata va maryada ke ve bandhan to hata liye, jo mere aur uske beech nit bhaDakti va baDhti hui ichha ke aaDe aate the. . . main ye bhed nahin chhipa sakti ab ki nand ne iirshyavash mere pati ka sar uDa diya hoga aur phir pashchattap mein apna bhi ant kar liya hoga. par yahan talvar ek hai aur wo nand ke haath mein hai. . . kaise sambhav hua hoga. . . main abhagi bachi rah gai!”
nana vilap karti sita bahar dauD gai aur ek vriksh ke saath phanda banakar apna gala usmen Dalne ja rahi thi ki tatkal akashvani hui aur maan ne use aagya di—”thahr moorkh! mujhse kah! mujhse sun!”
sita ne maan durga ke samne kshama yachnapurvak svikar kiya ki usne nand ki ichha ki thi, kintu sparsh nahin. aur uski ye ichha pati par ek raat achetavastha mein usne udghatit kar di thi. usi din se uske pati ka hirdai bindh gaya tha. sarvanash ki jaD mein ye gutthi thi.
maan ne uski bhartasna ki aur vachan manga ki agar wo bhavishya mein kabhi bhi vaivahik pavanta ko lanchhit nahin hone degi to wo un donon nirdosh purushon ko jivandan dekar uska jivan sukhmay bana sakti hai. sita ne vachan diya. maan ne kaha, “ja, donon ke kandhon par yathasthan unke sir rakh de, unhen purvavat jivan mil jayega. kintu vachan bhang na ho. ”
maan ki aagya shirodhary kar sita mandir mein lauti aur yathavidhi donon kandhon par sir rakhkar apne sansar ke lautne ki pratiksha karne lagi. jab donon mein paran sanchar hue to wo apni bhool par stabdh rah gai. usne shridama ki krish deh par nand ka aur nand ki mahabali deh par shridama ka sir rakh diya tha. ye kya ho gaya? ab wo pati mane to kise? shridama mastishk dhari nand ki deh ke alingan mein use samana tha ya shridama ki deh vale nand ke sir ka varn karna tha? vivad itna baDha, bhram itna upja ki faisla karne ke liye ek panch ki avashyakta paD gai. “kshama karo!” wo roti hui chikhi “devi, ye mujhse kya ho gaya?”
nand ki deh par pranit shridama ke mastishk sanpann mukh se sujhav aaya ki dhanushkoti ke rishi kamadman ke paas chala jaye! jaisa wo kahen, maany hona chahiye. shesh donon sahmat ho gaye.
vahan tak aaye to samasya uthi kaun hankega? dhanushkoti ki raah aur rishi kamadman ka pata to shridama ke mastishk ko hi malum tha. atah nand ke sar vali shridama ki deh ke saath sita andar baith gai aur nand ki deh ke saath shridama kochavan bane.
puri baat sunkar rishi kamadman ne kaha, “deh gaun hai, aatma ka vichar va astitv mastishk mein hota hai aur mastishk ki prakriya va yantr sir mein hote hain. is prakar nand ki deh par manDit shridama hi sita ke pati hone chahiye. ”
nirnay hote hi sita umagkar shridama ki us deh mein avgunthit ho gai. jiski banhon ki ichha ne uske hirdai mein, atit mein, adamy lalsaon ka sanchar kiya tha. wo param prasann thi aur param prasann tha shridama bhi, jisne nand ke prati kritaj~nata abhivyakt ki, “tumhari deh pakar main tumhara abhar anubhav karta hoon. mere paas ab manasik va daihik, donon hi tarah ki shaktiyan hain. mitr, nyaay tumhare paksh mein nahin raha. mujhe khed hai. . . apni mitrata vapas na mangna. ”
nand khinn to tha, kintu mastishk se chunki gahra nahin tha, at nyaay ko usne sahj roop mein hi liya. ekaant mein jakar usne sannyas dharan kar liya.
pati patni jab apne samany jivan mein laute to sita ki khushi ka paravar na tha. uske garbh mein nand ka beej panap raha tha. yathasmay usne ek putrratn ko janm diya, jiska naam uske sasur va saas ne samadhi rakha.
samadhi ka janm halanki bahurangi utsvon ke abhinandan ke saath hua tha, phir bhi kuch kaal pashchat uski drishti ke vikar ka tathy samne aaya. use door ki vastuen saaf nahin dikhai deti theen aur ye dosh tivrata se viksit hota gaya.
din bitte rahe. shridama ka mastishk bhi sakriy raha. uski vidvatta apni jagah rahi. parinaam ye hua ki deh se adhik udyam na karne ke karan wo kramash dubla hone laga.
samadhi jab chaar varsh ka hua to uski drishti pita ki deh ki bhanti hi utni kshain ho gai ki log use andhak kahne lage.
sita ka jvar ab, shuru shuru ke dinon ki bhanti hi, nand deh sanpann pati shridama ke sahvas se nirantar atrpt rahne laga. ek or ye glani, dusri or putr ki viklangta, sita sundari ke din ab ghor duःkh mein bitne lage.
ek din shridama ne paya ki uski patni va putr antardhan ho gaye hain.
lambi yatra, vividh raston va Dheron anubhvon ke baad sita jab gomti nadi ke tat par base us ashram mein pahunchi jahan nand sadhu jivan vyatit kar raha tha to use ye dekhkar agadh harsh hua ki nand ki shridama deh rupantrit hokar atyant balishth va nitant nandamyi ho uthi hai.
“nand, mere priy!” usne harsh chitkar kiya aur uski or lapki.
“meri pratiksharat, meri priye!” nand ne use banhon mein lete hue kaha, “main janta tha, tum mere bina na rah sakogi, tumhare garbh mein mera beej tha. kaisi hai meri santan?”
sita ne andhak ki or sanket kiya aur uske pahlu ki gandh mein Dubi Dubi use nanhen jeev ki vyatha katha batane lagi.
andhak ko ek to kam dikhta tha, dusre use khelne ko khilaune diye gaye. wo udhar paDa raha, jabki sita apne priy ki shaiya mein paDi sukh ki anubhuti mein sitkar chhoDti rahi.
kahani ke anusar yahi kahna hai ki premi yugal ka ye sukh sammilan ek din aur ek raat hi chal saka. pau phatne se pahle hi shridama ka agaman hua. ye anuman lagaya ja sakta hai ki uski irshya va vikrti samany star ki nahin thi.
sita ne sabhivadan jhukkar kaha, “shridama, mere adarnaiy pati, tumhara svagat karna chahiye tha, par vishvas jano, tumhara yahan aana svagatyogya va vanchhit nahin hai. kyonki hammen se do jahan bhi rahenge, tisre ka abhav satata hi rahega. ”
“main tum donon ko kshama karta hoon,” shridama bola, “nand, koi bhi parani aisa nyaay hone par yahi karta jaisa tumne kiya hai. . . main sab tajkar ek or ho bhi sakta hoon, par tumhin kaho, hammen se kaun hai, kab tak, kitna sukhi anubhav kar sakega?”
“kaash, aisa hota!” sita ne kaha.
“tumne uchit hi kaha hai, bhrata!” nand ne kaha, “ham donon hi iske bina apurn rahe. hum donon ne hi iska sambhog kiya, par mainne tumhari aur tumne meri chetna mein. aur ye bhi hum donon mein se kisi chetna ka abhav sah nahin sakegi. sambhavtah mainne jo vidhi bhang kiya hai, uska bhi dosh prakarantar se hum donon ko lagega, kyonki hum donon milkar hi poorn bante hain. ye rahin tumhari ve banhen, jinhen mainne khoob balishth kar liya hai, aur ye raha wo main jise tumne kabhi apne liye chita banane ka adesh diya tha. . . maan ke charnon mein mainne bhi tab apna balidan arpit kar diya tha, jab tumne kiya tha. mainne vishvasghat tumhari usi deh ke madhyam se kiya hai, jiska putr samadhi hai aur jiska pita anivaryat main hoon. manasik roop se main sadaiv ye adhikar tumhara samjhunga. ”
“andhak hai kahan?”
“theek samay par hi hamne uska zikr kiya hai,” sita ne kaha, “parashn ye hai ki uske liye rahe kaun? kya main uske liye rahun? kya use anath jivan jine doon? satiyon ke drishtant ka anugman karun? mere bina uska jivan sambhvat sammanit rah sakega. purushon ki sadbhavnayen us par barsengi. at main, sita, sumantr ki putri, maang karti hoon ki chita mere liye bhi taiyar ki jaye. ”
“kadapi nahin!” shridama ne kaha, “main tumhare abhiman aur uchch vicharon ki abhyarthana karta hoon devi, kintu tum vidhva nahin ho saktin. mujhmen va nand mein se ek bhi jivit rahega to tumhein vaidhavy nahin lagega. iske liye nand ko bhi paran hom karne honge. hum donon ko ek dusre ko marana hoga. ve do talvaren hain. . .
“lao, main taiyar hoon” nand bola.
“sirf talvaren dusri hain, hum donon ek hain. hum donon svayan ko marenge. hamein sita ko nahin pana. hamein aihik vaar karne aur sahne ka dohra kartavya nibhana hai. ”
“mujhe prasannata hogi. par tumhein apne vaar se mera hirdai bedhna hoga, deh nahin. anyatha sita prem ke abhav mein rah jayegi. ”
sita is vyavastha se santusht hui. vidhipurn hui. donon jivon ki chita par jo samadhi bani, usmen sita ne apna sthaan paya. is samadhi ka naam bhakton ne andhak rakha.
sita ki santan isi dharti par pali va baDhi. wo andhak hi kahlai. use mahasti ki santan kahlane ka saubhagya bhi mila, logon ne isi karan uske vyaktitv ko nirdosh va saundarymay mana. roop va shakti mein wo gandharv samjha gaya.
drishti ki kamzori ki vajah se wo bahut door tak nahin dekh pata tha. nikat dekhta va atmakendrit rahta. isse uska apne manas se sidha va paryapt sambandh raha. usne inhin gunon ke karan gahan vidyarjan kiya. bees varsh ki aayu mein jab wo maharaja banaras ka guru niyukt hua to log use barje par baitha dekhte ha divy mudra va akarshak sadi bhusha se manDit pustak ko qarib se dekhta hua.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 99-106)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : थॉमस मन
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।