मठ के दरवाज़े पर हाथों में जलती मोमबत्तियाँ लेकर भिक्षुणियाँ आदमियों की क़तार की अगवानी करने के लिए पहुँच गई थीं। भय ने क्रिस्तिन की पूरी चेतना को अपने क़ब्ज़े में कर लिया था। उसे लगा, जैसे चलते हुए वह कुछ तो ख़ुद अपने को ढो रही है और कुछ दूसरों के सहारे पर है। दरवाज़े से गुज़रकर वे सफ़ेद दीवार वाले कमरे में पहुँच गए, जहाँ मोमबत्ती और लाल देवदार की मशाल की मिलीजुली पीली रोशनी दिपदिपा रही थी और क़दमों की आहटें समुद्र की लहरों जैसी आवाज़ें पैदा कर रही थीं। उस मरणासन्न औरत को लग रहा था, जैसे उस रोशनी की ही तरह उसके जीवन की लौ भी बस बुझने ही वाली है और उन क़दमों की आवाज़ के साथ जैसे मौत उसके क़रीब आती जा रही है।
मोमबत्ती की रोशनी फिर खुले में फैल गई थी। अब वे बरामदे में आ गए थे। चर्च की भूरे पत्थरों की दीवारों और ऊँची विशालकाय खिड़कियों से अब मोमबत्ती की रोशनी खेलने लगी थी। इस समय वह किसी की बाँहों के सहारे पर थी। यह उल्फ़ ही था, पर इस समय तो वह उन सब लोगों जैसा दिख रहा था, जो उसे सहारा देते आए हैं। जब क्रिस्तिन ने अपनी बाँहें उसके गले में डाल दीं और अपना गाल उसकी गर्दन से सटा लिया तो लगा, जैसे वह फिर बच्ची बन गई है और अपने पिता के साथ है। साथ ही उसे ऐसा भी लगा, जैसे वह किसी बच्चे को अपने वक्ष से लगा रही है। उसके काले सिर के पीछे से लाल रोशनी दिख रही थी, जो लगता था, जैसे उस अग्नि की लपट हो, जो हर प्रेम को पोषित करती है।
थोड़ी देर बाद उसने आँखें खोलीं। अब उसका मस्तिष्क निर्विकार और शांत था। वह शयनागार में अपने बिस्तर पर तकिए के सहारे बैठी थी। एक भिक्षुणी कपड़े की पट्टी लिए उस पर झुकी हुई थी। उसमें से सिरके की गंध आ रही थी। वह सिस्टर एग्नेस थी। क्रिस्तिन उसे उसकी आँखों और माथे के लाल मस्से से पहचान गई थी। दिन ऊपर चढ़ आया था और खिड़की के छोटे-से काँच में से छनकर पूरी रोशनी कमरे में आ रही थी।
वह भयानक दर्द अब नहीं था, पर वह पसीने से पूरी तरह भीगी हुई थी। साँस लेते हुए उसकी छाती बहुत ज़ोर से आगे-पीछे हो रही थी। जो दवाई सिस्टर एग्नेस ने उसके मुँह में डाली, चुपचाप गटक गई। उसका शरीर बिलकुल ठंडा था।
क्रिस्तिन ने पीठ तकिए से सटा ली। अब उसे याद आया कि पिछली रात को क्या-क्या घटा था। वह मायाजाल-भरा दुःस्वप्न गुज़र गया है, लेकिन वह थोड़ा चकित भी थी। फिर भी यह ठीक ही हुआ कि काम हो गया। उसने बच्चे को बचा लिया और उन बेचारे लोगों की आत्माओं को उस घृणित काम के अपराध के भार से मुक्त रखा। वह समझती थी कि इससे उसे ख़ुश होना चाहिए, क्योंकि मरने से ठीक पहले उसे यह अच्छा काम करने की अनुकंपा प्राप्त हुई थी। दिन-भर का काम करने के बाद साँझ को योरनगार्द के घर में, अपने बिस्तर पर लेटते हुए उसे जितनी संतुष्टि मिलती थी, इस समय उससे अधिक मिल रही थी। इसके लिए उसे उल्फ़ का आभारी होना चाहिए। जब वह उल्फ़ का नाम ले रही थी तो शायद वह दरवाज़े के पास ही कहीं बैठा था, क्योंकि तभी वह भीतर आया और बिस्तर के पास आकर खड़ा हो गया। क्रिस्तिन ने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया। उसने हाथ को अपने हाथ में लिया और कसकर पकड़ लिया।
अचानक वह मरणासन्न औरत बेचैन हो गई और उसके हाथ अपने गले पर बँधी पट्टी से उलझ गए।
“क्या हुआ क्रिस्तीन? उल्फ़ ने पूछा।
यह क्रॉस। वह फुसफुसाई और बड़े दर्द के साथ अपने पिता का सोने का पानी चढ़ा क्रॉस खींचकर बाहर निकाल दिया। तभी उसे याद आया कि उसने कल बेचारी स्तीनन की आत्मा की शांति के लिए कोई उपहार देने का वादा किया था। तब उसे कहाँ पता था कि दुनिया में उसके लिए अब अधिक समय शेष नहीं रह गया है। उसके पास देने के लिए अब कुछ नहीं बचा था, सिवाय इस क्रास के, जो उसके पिता का था और उसकी शादी की अँगूठी के, जो अब भी उसकी उँगली में पड़ी थी।
उसने अँगूठी को उँगली से बाहर निकाला और ग़ौर से देखने लगी। उसके कमज़ोर हाथों को यह काफ़ी भारी लग रही थी, क्योंकि यह शुद्ध सोने की थी और बड़ा लाल पत्थर इस पर जड़ा हुआ था। बेहतर होगा कि इसे ही वह किसी को दे दे। देना तो चाहिए, पर किसे? उसने अपनी आँखें बंद कर लीं और अँगूठी उल्फ़ की ओर बढ़ा दी।
तुम यह किसे देना चाहती हो? उसने पूछा। और जब क्रिस्तिन ने कोई जवाब नहीं दिया तो ख़ुद ही कहने लगा, तुम्हारा मतलब है कि मैं इसे कुले को…
क्रिस्तिन ने इनकार में गर्दन हिलाई और फिर आँखें कसकर बंद कर लीं…
“स्तनीन… मैंने वादा किया था कि… उसके लिए अर्पित करूँगी…’’ उसने अपनी आँखें खोल दीं और उस अँगूठी को अपनी नज़रों से तलाश करने लगी, जो उल्फ़ की भारी-भरकम हथेली पर रखी थी। उसकी आँखों से आँसुओं की एक अविरल धारा बह निकली। उसे लगा, जैसे वह पहली बार उस प्रतीक का अर्थ समझी हो। जो विवाहित जीवन इस अँगूठी ने उसे दिया, जिसके ख़िलाफ़ उसे इतनी शिकायतें रही हैं, जिस पर वह हमेशा बुदबुदाती रही, जिस पर उसे इतना ग़ुस्सा रहा है और जिसका वह विरोध करती रही है—बावजूद इस सबके जिसे उसने प्यार किया है, जिसमें इतना आनंद लिया है, चाहे वे सुख के दिन रहे हों या दुख के दिन…
उल्फ़ और भिक्षुणी ने कुछ बात की, जिसे वह सुन न सकी और फिर वह कमरे से बाहर निकल गया। क्रिस्तिन ने चाहा कि वह अपना हाथ उठाकर उससे अपनी आँखें पोंछ ले, पर वह ऐसा न कर सकी और हाथ उसकी छाती पर ही पड़ा रहा। भीतर की पीड़ा ने उसके हाथ को इतना भारी बना दिया था, जैसे लगता था कि वह अँगूठी अभी उसकी उँगली में ही है। उसका दिमाग़ फिर धुँधलाने लगा—उसे यह जानना ही चाहिए कि अँगूठी वास्तव में चली गई है और उसका जाना उसने सपने में नहीं देखा है। अब सब कुछ अनिश्चित-सा लग रहा था। कल रात भी जो कुछ घटा, उसके बारे में वह निश्चित नहीं थी कि वास्तव में घटा था या उसने केवल सपना देखा था। अपनी आँखें खोलने की ताक़त भी अब उसमें शेष नहीं थी।
‘’सिस्टर!’’ भिक्षुणी ने उससे कहा, “अब आपको सोना नहीं चाहिए। उल्फ़ आपके लिए पादरी को बुलाने गया है।’’
एक झुरझुरी लेकर क्रिस्तिन फिर से पूरी तरह जाग गई। अब वह निश्चित थी कि सोने की अँगूठी जा चुकी थी और उसकी बीच वाली उँगली पर अँगूठी पहनने की जगह पर सफ़ेद निशान बन गया था।
उसके दिमाग़ में एक और अंतिम स्पष्ट विचार था कि इस निशान के मिटने से पहले उसे मर जाना चाहिए। यह विचार आने से वह ख़ुश थी। उसे लगा कि यह उसके लिए एक ऐसा रहस्य है, जिसकी वह थाह नहीं ले पाई है, पर वह यह निश्चित रूप से जानती थी कि ईश्वर उसके ऊपर प्रेम की वर्षा करता हुआ, उसकी जानकारी के बिना ही अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए उसकी स्वेच्छा के विरुद्ध, वस्तुओं के प्रति उसके मोह के विरुद्ध, उसे जल्दी ही बुला रहा है। वह ईश्वर की दासी तो रही है, पर ज़िद्दी और निरंकुश, जिसके दिल में कोई आस्था नहीं थी, काहिल और बेपरवाह, अपने काम में मन न लगाए रखने वाली। फिर भी ईश्वर ने उसे अपनी सेवा से कभी मुक्त नहीं किया और चमकदार सोने की अँगूठी के नीचे अपना पवित्र निशान बनाए रखा। यही निशान तो ज़ाहिर करता है कि वह ईश्वर की, सारी दुनिया के स्वामी की दासी रही है और वही ईश्वर अब पादरी के अभिषिक्त हाथों के रूप में आ रहा है ताकि उसे मुक्ति और मोक्ष दे सके।
पादरी सिरा ईलिव के हाथों से तेल का दिव्य पाथेय लेने के थोड़ी देर बाद क्रिस्तिन लेवरेंसदात्तेर फिर बेहोश हो गई।
ख़ून की उल्टियों के दौरों और तेज़ बुख़ार ने उसे बेसुध कर दिया था। उसके पास खड़े पादरी ने भिक्षुणियों को बताया कि वह जल्दी ही कूच करने वाली है।
इस मरणासन्न औरत को एक-दो बार हलका-सा होश आया और उसने एक-दो चेहरों की ओर देखा। उसने सिरा ईलिव को पहचाना, फिर उल्फ़ को भी पहचान लिया। उसने यह ज़ाहिर करने की कोशिश की कि वह उल्फ़ को पहचान रही है और उसके पास आने तथा उसके प्रति शुभकामनाएँ प्रकट करने के लिए वह उनकी आभारी है, पर जो लोग आसपास खड़े थे, उन्हें लग रहा था, जैसे मृत्यु की वेदना में वह अपने हाथ छटपटा रही है।
एक बार उसे अधखुले दरवाज़े में से झाँकता अपने छोटे बेटे मुनन का चेहरा दिखाई दिया। फिर उसने अपना चेहरा पीछे कर लिया और माँ ख़ाली दरवाज़े को घूरती रह गई, इस आशा से कि लड़का फिर से वहाँ दिखेगा। पर उसके बदले एक भिक्षुणी कमरे में आई और एक गीले कपड़े से उसका चेहरा पोंछने लगी। यह भी उसे अच्छा लगा। फिर सब चीज़ें काले-लाल कुहरे में खो गईं और एक गुर्राहट पहले बड़े डरावने ढंग से शुरू हुई और मंद पड़ती चली गई। लाल कुहरा भी हलका होता चला गया और अंत में वह सूर्योदय से पहले के झीने कुहरे में बदल गया। सारी आवाज़ें बंद हो गईं और वह जान गई कि वह मर रही है।
सिरा ईलिव और उल्फ़ हाल्दरसन उस मौत वाले कमरे से साथ-साथ बाहर निकल आए। थोड़ी देर के लिए वे मठ के अहाते में रुके।
बर्फ़ पड़ गई थी। जिस समय वह औरत मौत के साथ जूझ रही थी, उसके आसपास खड़े लोगों को पता ही नहीं चला कि बर्फ़ कब पड़ी। चर्च की ढलवाँ छत से आने वाली सफ़ेद चमक से चौंधियाते दो लोग। हलके भूरे रंग के आकाश के बीच में चर्च का बुर्ज़ सफ़ेद चमक रहा था। खिड़कियों के छज्जों पर बर्फ़ महीन और एकसार पड़ी थी। लगता था, जैसे वे दोनों लोग इसलिए रुक गए हैं, क्योंकि वे नई पड़ी हुई बर्फ़ के आवरण को अपने पाँव के निशानों से तोड़ना नहीं चाहते थे।
उन्होंने हवा में गहरी साँसें ली। किसी भी बीमार के कमरे में भरी रहने वाली बदबूदार हवा की अपेक्षा यह ठंडी और मीठी थी।
बुर्ज़ का घंटा फिर से बजने लगा था। दोनों ने ऊपर की ओर देखा। हिलते हुए घंटे पर से बर्फ़ के क़तरे नीचे गिरते हुए छोटी-छोटी गेंदों में तब्दील हो रहे थे और गोल चक्कर काटते हुए नीचे आ रहे थे।
math ke darvaze par hathon mein jalti mombattiyan lekar bhikshuniyan adamiyon ki katar ki agvani karne ke liye pahunch gai theen. bhay ne kristin ki puri chetna ko apne qabze mein kar liya tha. use laga, jaise chalte hue wo kuch to khu apne ko Dho rahi hai aur kuch dusron ke sahare par hai. darvaze se guzarkar ve safed divar vale kamre mein pahunch gaye, jahan mombatti aur laal devdar ki mashal ki milijuli pili roshni dipadipa rahi thi aur qadmon ki ahaten samudr ki lahron jaisi avazen paida kar rahi theen. us marnaasann aurat ko lag raha tha, jaise us roshni ki hi tarah uske jivan ki lau bhi bus bujhne hi vali hai aur un qadmon ki avaz ke saath jaise maut uske qarib aati ja rahi hai.
mombatti ki roshni phir khule mein phail gai thi. ab ve baramde mein aa gaye the. church ki bhure pattharon ki divaron aur unchi vishalakay khiDkiyon se ab mombatti ki roshni khelne lagi thi. is samay wo kisi ki banhon ke sahare par thi. ye ulf hi tha, par is samay to wo un sab logon jaisa dikh raha tha, jo use sahara dete aaye hain. jab kristin ne apni banhen uske gale mein Daal deen aur apna gaal uski gardan se sata liya to laga, jaise wo phir bachchi ban gai hai aur apne pita ke saath hai. saath hi use aisa bhi laga, jaise wo kisi bachche ko apne vaksh se laga rahi hai. uske kale sir ke pichhe se laal roshni dikh rahi thi, jo lagta tha, jaise us agni ki lapat ho, jo har prem ko poshait karti hai.
thoDi der baad usne ankhen kholin. ab uska mastishk nirvikar aur shaant tha. wo shaynagar mein apne bistar par takiye ke sahare baithi thi. ek bhikshuni kapDe ki patti liye us par jhuki hui thi. usmen se sirke ki gandh aa rahi thi. wo sister egnes thi. kristin use uski ankhon aur mathe ke laal masse se pahchan gai thi. din upar chaDh aaya tha aur khiDki ke chhote se kaanch mein se chhankar puri roshni kamre mein aa rahi thi.
wo bhayanak dard ab nahin tha, par wo pasine se puri tarah bhigi hui thi. saans lete hue uski chhati bahut zor se aage pichhe ho rahi thi. jo davai sister egnes ne uske munh mein Dali, chupchap ghatak gai. uska sharir bilkul thanDa tha.
kristin ne peeth takiye se sata li. ab use yaad aaya ki pichhli raat ko kya kya ghata tha. wo mayajal bhara duasvapn guज़r gaya hai, lekin wo thoDa chakit bhi thi. phir bhi ye theek hi hua ki kaam ho gaya. usne bachche ko bacha liya aur un bechare logon ki atmaon ko us ghrinait kaam ke apradh ke bhaar se mukt rakha. wo samajhti thi ki isse use khush hona chahiye, kyonki marne se theek pahle use ye achchha kaam karne ki anukanpa praapt hui thi. din bhar ka kaam karne ke baad saanjh ko yorangard ke ghar mein, apne bistar par lette hue use jitni santushti milti thi, is samay usse adhik mil rahi thi. iske liye use ulf ka abhari hona chahiye. jab wo ulf ka naam le rahi thi to shayad wo darvaze ke paas hi kahin baitha tha, kyonki tabhi wo bhitar aaya aur bistar ke paas aakar khaDa ho gaya. kristin ne apna haath uski or baDha diya. usne haath ko apne haath mein liya aur kaskar pakaD liya.
achanak wo marnaasann aurat bechain ho gai aur uske haath apne gale par bandhi patti se ulajh gaye.
“kya hua kristin? ulf ne puchha.
yah cross. wo phusaphusai aur baDe dard ke saath apne pita ka sone ka pani chaDha cross khinchkar bahar nikal diya. tabhi use yaad aaya ki usne kal bechari stinan ki aatma ki shanti ke liye koi uphaar dene ka vada kiya tha. tab use kahan pata tha ki duniya mein uske liye ab adhik samay shesh nahin rah gaya hai. uske paas dene ke liye ab kuch nahin bacha tha, sivay is kraas ke, jo uske pita ka tha aur uski shadi ki anguthi ke, jo ab bhi uski ungli mein paDi thi.
usne anguthi ko ungli se bahar nikala aur ghaur se dekhne lagi. uske kamzor hathon ko ye kafi bhari lag rahi thi, kyonki ye shuddh sone ki thi aur baDa laal patthar is par jaDa hua tha. behtar hoga ki ise hi wo kisi ko de de. dena to chahiye, par kise? usne apni ankhen band kar leen aur anguthi ulf ki or baDha di.
tum ye kise dena chahti ho? usne puchha. aur jab kristin ne koi javab nahin diya to khu hi kahne laga, tumhara matlab hai ki main ise kule ko…
kristin ne inkaar mein gardan hilai aur phir ankhen kaskar band kar leen…
“stnin…mainne vada kiya tha ki…uske liye arpit karungi… usne apni ankhen khol deen aur us anguthi ko apni nazron se talash karne lagi, jo ulf ki bhari bharkam hatheli par rakhi thi. uski ankhon se ansuon ki ek aviral dhara bah nikli. use laga, jaise wo pahli baar us pratik ka arth samjhi ho. jo vivahit jivan is anguthi ne use diya, jiske khilaf use itni shikayaten rahi hain, jis par wo hamesha budabudati rahi, jis par use itna ghussa raha hai aur jiska wo virodh karti rahi hai—bavjud is sabke jise usne pyaar kiya hai, jismen itna anand liya hai, chahe ve sukh ke din rahe hon ya dukh ke din…
ulf aur bhikshuni ne kuch baat ki, jise wo sun na saki aur phir wo kamre se bahar nikal gaya. kristin ne chaha ki wo apna haath uthakar usse apni ankhen ponchh le, par wo aisa na kar saki aur haath uski chhati par hi paDa raha. bhitar ki piDa ne uske haath ko itna bhari bana diya tha, jaise lagta tha ki wo anguthi abhi uski ungli mein hi hai. uska dimagh phir dhundhlane laga—use ye janna hi chahiye ki anguthi vastav mein chali gai hai aur uska jana usne sapne mein nahin dekha hai. ab sab kuch anishchit sa lag raha tha. kal raat bhi jo kuch ghata, uske bare mein wo nishchit nahin thi ki vastav mein ghata tha ya usne keval sapna dekha tha. apni ankhen kholne ki taqat bhi ab usmen shesh nahin thi.
sister! bhikshuni ne usse kaha, “ab aapko sona nahin chahiye. ulf aapke liye padari ko bulane gaya hai.
ek jhurjhuri lekar kristin phir se puri tarah jaag gai. ab wo nishchit thi ki sone ki anguthi ja chuki thi aur uski beech vali ungli par anguthi pahanne ki jagah par safed nishan ban gaya tha.
uske dimagh mein ek aur antim aspasht vichar tha ki is nishan ke mitne se pahle use mar jana chahiye. ye vichar aane se wo khush thi. use laga ki ye uske liye ek aisa rahasy hai, jiski wo thaah nahin le pai hai, par wo ye nishchit roop se janti thi ki ishvar uske upar prem ki varsha karta hua, uski jankari ke bina hi apni pratigya ko pura karne ke liye uski svechchha ke viruddh, vastuon ke prati uske moh ke viruddh, use jaldi hi bula raha hai. wo ishvar ki dasi to rahi hai, par ziddi aur nirankush, jiske dil mein koi astha nahin thi, kahil aur beparvah, apne kaam mein man na lagaye rakhne vali. phir bhi ishvar ne use apni seva se kabhi mukt nahin kiya aur chamakdar sone ki anguthi ke niche apna pavitra nishan banaye rakha. yahi nishan to zahir karta hai ki wo ishvar ki, sari duniya ke svami ki dasi rahi hai aur vahi ishvar ab padari ke abhishaikt hathon ke roop mein aa raha hai taki use mukti aur moksh de sake.
padari sira iiliv ke hathon se tel ka divy pathey lene ke thoDi der baad kristin levrensdatter phir behosh ho gai.
khoon ki ulatiyon ke dauron aur tez bukhar ne use besudh kar diya tha. uske paas khaDe padari ne bhikshuniyon ko bataya ki wo jaldi hi kooch karne vali hai.
is marnaasann aurat ko ek do baar halka sa hosh aaya aur usne ek do chehron ki or dekha. usne sira iiliv ko pahchana, phir ulf ko bhi pahchan liya. usne ye zahir karne ki koshish ki ki wo ulf ko pahchan rahi hai aur uske paas aane tatha uske prati shubhkamnayen prakat karne ke liye wo unki abhari hai, par jo log asapas khaDe the, unhen lag raha tha, jaise mirtyu ki vedna mein wo apne haath chhatapta rahi hai.
ek baar use adhakhule darvaze mein se jhankta apne chhote bete munan ka chehra dikhai diya. phir usne apna chehra pichhe kar liya aur maan khali darvaze ko ghurti rah gai, is aasha se ki laDka phir se vahan dikhega. par uske badle ek bhikshuni kamre mein i aur ek gile kapDe se uska chehra ponchhne lagi. ye bhi use achchha laga. phir sab chizen kale laal kuhre mein kho gain aur ek gurrahat pahle baDe Daravne Dhang se shuru hui aur mand paDti chali gai. laal kuhra bhi halka hota chala gaya aur ant mein wo suryoday se pahle ke jhine kuhre mein badal gaya. sari avazen band ho gain aur wo jaan gai ki wo mar rahi hai.
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barf paD gai thi. jis samay wo aurat maut ke saath joojh rahi thi, uske asapas khaDe logon ko pata hi nahin chala ki barf kab paDi. church ki Dhalvan chhat se aane vali safed chamak se chaundhiyate do log. halke bhure rang ke akash ke beech mein church ka burz safed chamak raha tha. khiDkiyon ke chhajjon par barf muhin aur eksaar paDi thi. lagta tha, jaise ve donon log isliye ruk gaye hain, kyonki ve nai paDi hui barf ke avarn ko apne paanv ke nishanon se toDna nahin chahte the.
unhonne hava mein gahri sansen leen. kisi bhi bimar ke kamre mein bhari rahne vali badbudar hava ki apeksha ye thanDi aur mithi thi.
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sister! bhikshuni ne usse kaha, “ab aapko sona nahin chahiye. ulf aapke liye padari ko bulane gaya hai.
ek jhurjhuri lekar kristin phir se puri tarah jaag gai. ab wo nishchit thi ki sone ki anguthi ja chuki thi aur uski beech vali ungli par anguthi pahanne ki jagah par safed nishan ban gaya tha.
uske dimagh mein ek aur antim aspasht vichar tha ki is nishan ke mitne se pahle use mar jana chahiye. ye vichar aane se wo khush thi. use laga ki ye uske liye ek aisa rahasy hai, jiski wo thaah nahin le pai hai, par wo ye nishchit roop se janti thi ki ishvar uske upar prem ki varsha karta hua, uski jankari ke bina hi apni pratigya ko pura karne ke liye uski svechchha ke viruddh, vastuon ke prati uske moh ke viruddh, use jaldi hi bula raha hai. wo ishvar ki dasi to rahi hai, par ziddi aur nirankush, jiske dil mein koi astha nahin thi, kahil aur beparvah, apne kaam mein man na lagaye rakhne vali. phir bhi ishvar ne use apni seva se kabhi mukt nahin kiya aur chamakdar sone ki anguthi ke niche apna pavitra nishan banaye rakha. yahi nishan to zahir karta hai ki wo ishvar ki, sari duniya ke svami ki dasi rahi hai aur vahi ishvar ab padari ke abhishaikt hathon ke roop mein aa raha hai taki use mukti aur moksh de sake.
padari sira iiliv ke hathon se tel ka divy pathey lene ke thoDi der baad kristin levrensdatter phir behosh ho gai.
khoon ki ulatiyon ke dauron aur tez bukhar ne use besudh kar diya tha. uske paas khaDe padari ne bhikshuniyon ko bataya ki wo jaldi hi kooch karne vali hai.
is marnaasann aurat ko ek do baar halka sa hosh aaya aur usne ek do chehron ki or dekha. usne sira iiliv ko pahchana, phir ulf ko bhi pahchan liya. usne ye zahir karne ki koshish ki ki wo ulf ko pahchan rahi hai aur uske paas aane tatha uske prati shubhkamnayen prakat karne ke liye wo unki abhari hai, par jo log asapas khaDe the, unhen lag raha tha, jaise mirtyu ki vedna mein wo apne haath chhatapta rahi hai.
ek baar use adhakhule darvaze mein se jhankta apne chhote bete munan ka chehra dikhai diya. phir usne apna chehra pichhe kar liya aur maan khali darvaze ko ghurti rah gai, is aasha se ki laDka phir se vahan dikhega. par uske badle ek bhikshuni kamre mein i aur ek gile kapDe se uska chehra ponchhne lagi. ye bhi use achchha laga. phir sab chizen kale laal kuhre mein kho gain aur ek gurrahat pahle baDe Daravne Dhang se shuru hui aur mand paDti chali gai. laal kuhra bhi halka hota chala gaya aur ant mein wo suryoday se pahle ke jhine kuhre mein badal gaya. sari avazen band ho gain aur wo jaan gai ki wo mar rahi hai.
sira iiliv aur ulf haldarsan us maut vale kamre se saath saath bahar nikal aaye. thoDi der ke liye ve math ke ahate mein ruke.
barf paD gai thi. jis samay wo aurat maut ke saath joojh rahi thi, uske asapas khaDe logon ko pata hi nahin chala ki barf kab paDi. church ki Dhalvan chhat se aane vali safed chamak se chaundhiyate do log. halke bhure rang ke akash ke beech mein church ka burz safed chamak raha tha. khiDkiyon ke chhajjon par barf muhin aur eksaar paDi thi. lagta tha, jaise ve donon log isliye ruk gaye hain, kyonki ve nai paDi hui barf ke avarn ko apne paanv ke nishanon se toDna nahin chahte the.
unhonne hava mein gahri sansen leen. kisi bhi bimar ke kamre mein bhari rahne vali badbudar hava ki apeksha ye thanDi aur mithi thi.
burz ka ghanta phir se bajne laga tha. donon ne upar ki or dekha. hilte hue ghante par se barf ke qatre niche girte hue chhoti chhoti gendon mein tabdil ho rahe the aur gol chakkar katte hue niche aa rahe the.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 93-97)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : सिग्रिड उंडसेट
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।