साढ़े छह बजे हैं। कुछ देर पहले जो धूप चारों ओर फैली पड़ी थी, अब फीकी पड़कर इमारतों की छतों पर सिमट आई है, मानो निरंतर समाप्त होते अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए उसने कसकर कगारों को पकड़ लिया हो।
आग बरसाती हुई हवा धूप और पसीने की बदबू से बहुत बोझिल हो आई है। पाँच बजे तक जितने भी लोग ऑफ़िस की बड़ी-बड़ी इमारतों में बंद थे, इस समय बरसाती नदी की तरह सड़कों पर फैल गए हैं। रीगल के सामने वाले फुटपाथ पर चलने वालों और हॉकर्स का मिला-जुला शोर चारों और गूँज रहा है। गजरे बेचने वालों के पास से गुज़रने पर सुगंध भरी तरावट का अहसास होता है, इसीलिए न ख़रीदने पर भी लोगों को उनके पास खड़ा होना या उनके पास से गुज़रना अच्छा लगता है।
टी-हाउस भरा हुआ है। उसका अपना ही शोर काफ़ी है, फिर बाहर का सारा शोर-शराबा बिना किसी रुकावट के खुले दरवाज़ों से भीतर आ रहा है। छतों पर फुल स्पीड में घूमते पंखे भी जैसे आग बरसा रहे हैं। एक क्षण को आँख मूँद लो तो आपको पता ही नहीं लगेगा कि आप टी-हाउस में हैं या फुटपाथ पर। वही गर्मी, वही शोर!
गे-लॉर्ड भी भरा हुआ है। पुरुष अपने एयर-कंडिशंड चैम्बरों से थककर और औरतें अपने-अपने घरों से ऊबकर मन बहलाने के लिए यहाँ आ बैठे हैं। यहाँ न गर्मी है, न भन्नाता हुआ शोर। चारों ओर हल्का, शीतल, दूधिया आलोक फैल रहा है और विभिन्न सेंटों की मादक कॉकटेल हवा में तैर रही है। टेबिलों पर से उठते हुए फुसफुसाते-से स्वर संगीत में ही डूब जाते हैं।
गहरा मेकअप किए डायस पर जो लड़की गा रही है, उसने अपनी स्कर्ट की बेल्ट ख़ूब कसकर बाँध रखी है, जिससे उसकी पतली कमर और भी पतली दिखाई दे रही है और उसकी तुलना में छातियों का उभार कुछ और मुखर हो उठा है। एक हाथ से उसने माइक का डंडा पकड़ रखा है और जूते की टो से वह ताल दे रही है। उसके होठों से लिपस्टिक भी लिपटी है और मुसकान भी। गाने के साथ-साथ उसका सारा शरीर एक विशेष अदा के साथ झूम रहा है। पास में दोनों हाथों से झुनझुने-से बजाता जो व्यक्ति सारे शरीर को लचका-लचकाकर ताल दे रहा है, वह नीग्रो है। बीच-बीच में जब वह उसकी ओर देखती है तो आँखें मिलते ही दोनों ऐसे हँस पड़ते हैं मानो दोनों के बीच कहीं 'कुछ' है। पर कुछ दिन पहले जब एक एंग्लो-इंडियन उसके साथ बजाता था, तब भी यह ऐसे ही हँसती थी, तब भी इसकी आँखें ऐसे की चमकती थीं। इसकी हँसी और इसकी आँखों की चमक का इसके मन के साथ कोई संबंध नहीं है। वे अलग ही चलती हैं।
डायस की बग़ल वाली टेबिल पर एक युवक और युवती बैठे हैं। दोनों के सामने पाइन-एप्पल जूस के ग्लास रखे हैं। युवती का ग्लास आधे से अधिक ख़ाली हो गया है, पर युवक ने शायद एक-दो सिप ही लिए हैं। वह केवल स्ट्रॉ हिला रहा है।
युवती दुबली और गोरी है। उसके बाल कटे हुए हैं। सामने आ जाने पर सिर को झटके देकर वह उन्हें पीछे कर देती है। उसकी कलफ़ लगी साड़ी का पल्ला इतना छोटा है कि कंधे से मुश्किल से छह इंच नीचे तक आ पाया है। चोलीनुमा ब्लाउज़ से ढकी उसकी पूरी की पूरी पीठ दिखाई दे रही है।
“तुम कल बाहर गई थी?” युवक बहुत ही मुलायम स्वर में पूछता है।
क्यों? बाएँ हाथ की लंबी-लंबी पतली उँगलियों से ताल देते-देते ही वह पूछती है।
“मैंने फ़ोन किया था।”
अच्छा? पर किसलिए? आज मिलने की बात तो तय हो ही गई थी।
“यूँ ही तुमसे बात करने का मन हो आया था।”
युवक को शायद उम्मीद थी कि उसकी बात की युवती के चेहरे पर कोई सुखद प्रतिक्रिया होगी। पर वह हल्के से हँस दी। युवक उत्तर की प्रतीक्षा में उसके चेहरे की ओर देखता रहा, पर युवती का ध्यान शायद इधर-उधर के लोगों में उलझ गया था। इस पर युवक खिन्न हो गया। वह युवती के मुँह से सुनना चाह रहा था कि वह कल विपिन के साथ स्कूटर पर घूम रही थी। इस बात के जवाब में वह क्या-क्या करेगा, यह सब भी उसने सोच लिया था और कल शाम से लेकर अभी युवती के आने से पहले तक उसको कई बार दुहरा भी लिया था। पर युवती की चुप्पी से सब गड़बड़ा गया। वह अब शायद समझ ही नहीं पा रहा था कि बात कैसे शुरू करे।
“ओ गोरा!”—बाल्कनी की ओर देखते हुए युवती के मुँह से निकला, “यह सारी की सारी बाल्कनी किसने रिज़र्व करवा ली?
बाल्कनी की रेलिंग पर एक छोटी-सी प्लास्टिक की सफ़ेद तख़्ती लगी थी, जिस पर लाल अक्षरों में लिखा था—'रिज़र्व्ड'।
युवक ने सिर झुकाकर एक सिप लिया- “मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ।” उसकी आवाज़ कुछ भारी हो आई थी, जैसे गला बैठ गया हो।
युवती ने सिप लेकर अपनी आँखें युवक के चेहरे पर टिका दीं। वह हल्के-हल्के मुस्कुरा रही थी और युवक को उसकी मुस्कुराहट से थोड़ा कष्ट हो रहा था।
“देखो, मैं इस सारी बात में बहुत गंभीर हूँ।” झिझकते-से स्वर में वह बोला।
“गंभीर?” युवती खिलखिला पड़ी तो उसके बाल आगे को झूल आए। सिर झटककर उसने उन्हें पीछे किया।
मैं तो किसी भी चीज़ को गंभीरता से लेने में विश्वास ही नहीं करती। ये दिन तो हँसने-खेलने के हैं, हर चीज़ को हल्के-फुल्के ढंग से लेने के। गंभीरता तो बुढ़ापे की निशानी है। बूढ़े लोग मच्छरों और मौसम को भी बहुत गंभीरता से लेते हैं... और मैं अभी बूढ़ा होना नहीं चाहती।”—और उसने अपने दोनों कंधे ज़ोर से उचका दिए। वह फिर गाना सुनने में लग गई। युवक का मन हुआ कि वह उसकी मुलाक़ातों और पुराने पत्रों का हवाला देकर उससे अनेक बातें पूछे, पर बात उसके गले में ही अटककर रह गई और वह ख़ाली-ख़ाली नज़रों से इधर-उधर देखने लगा। उसकी नज़र 'रिज़र्व्ड' की उस तख़्ती पर जा लगी। एकाएक उसे लगने लगा जैसे वह तख़्ती वहाँ से उठकर उन दोनों के बीच आ गई है और प्लास्टिक के लाल अक्षर नियॉन लाइट के अक्षरों की तरह दिप-दिप करने लगे।
तभी गाना बंद हो गया और सारे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। गाना बंद होने के साथ ही लोगों की आवाज़ें धीमी हो गईं, पर हॉल के बीचों-बीच एक छोटी टेबिल के सामने बैठे एक स्थूलकाय खद्दरधारी व्यक्ति का धाराप्रवाह भाषण स्वर के उसी स्तर पर जारी रहा। सामने पतलून और बुश-शर्ट पहने एक दुबला-पतला व्यक्ति उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा है। उनके बोलने से थोड़ा-थोड़ा थूक उछल रहा है जिसे सामने वाला व्यक्ति ऐसे पोंछता है कि उन्हें मालूम न हो। पर उनके पास शायद इन छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देने लायक़ समय ही नहीं है। वे मूड में आए हुए हैं- “गांधीजी की पुकार पर कौन व्यक्ति अपने को रोक सकता था भला? क्या दिन थे वे भी! मैंने बिज़नेस की तो की ऐसी की तैसी और देश-सेवा के काम में जुट गया। फिर तो सारी ज़िंदगी पॉलिटिकल-सफ़रर की तरह ही गुज़ार दी!”
सामने वाला व्यक्ति चेहरे पर श्रद्धा के भाव लाने का भरसक प्रयत्न करने लगा।
“देश आज़ाद हुआ तो लगा कि असली काम तो अब करना है। सब लोग पीछे पड़े कि मैं खड़ा होऊँ, मिनिस्ट्री पक्की है, पर नहीं साहब, यह काम अब अपने बस का नहीं रहा। जेल के जीवन ने काया को जर्जर कर दिया, फिर यह भी लगा कि नव-निर्माण में नया ख़ून ही आना चाहिए, सो बहुत पीछे पड़े तो बेटों को झोंका इस चक्कर में। उन्हें समझाया, ज़िंदगी भर के हमारे त्याग और परिश्रम का फल है यह आज़ादी, तुम लोग अब इसकी लाज रखो, बिज़नेस हम संभालते हैं।
युवक शब्दों को ठेलता-सा बोला- “आपकी देश भक्ति को कौन नहीं जानता?’’
वे संतोष की एक डकार लेते हैं और जेब से रूमाल निकालकर अपना मुँह और मूँछों को साफ़ करते हैं। रूमाल वापस जेब में रखते हैं और पहलू बदलकर दूसरी जेब से चाँदी की डिबिया निकालकर पहले ख़ुद पान खाते हैं, फिर सामने वाले व्यक्ति की ओर बढ़ा देते हैं।
“जी नहीं, मैं पान नहीं खाता।”—कृतज्ञता के साथ ही उसके चेहरे पर बेचैनी का भाव उभर जाता है।
“एक यही लत है जो छूटती नहीं।” पान की डिबिया को वापस जेब में रखते हुए वे कहते हैं, “इंग्लैंड गया तो हर सप्ताह हवाई जहाज़ से पानों की गड्डी आती थी।”
जब मन की बेचैनी केवल चेहरे से नहीं संभलती तो वह धीरे-धीरे हाथ रगड़ने लगता है।
पान को मुँह में एक ओर ठेलकर वे थोड़ा-सा हकलाते हुए कहते हैं, “अब आज की ही मिसाल लो। हमारे वर्ग का एक भी आदमी गिना दो जो अपने यहाँ के कर्मचारी की शिकायत इस प्रकार सुनता हो? पर जैसे ही तुम्हारा केस मेरे सामने आया, मैंने तुम्हें बुलाया, यहाँ बुलाया।
“जी हाँ।” उसके चेहरे पर कृतज्ञता का भाव और अधिक मुखर हो जाता है। वह अपनी बात शुरू करने के लिए शब्द ढूँढ़ने लगता है। उसने बहुत विस्तार से बात करने की योजना बनार्इ थी, पर अब सारी बात को संक्षेप में कह देना चाहता है।
“सुना है, तुम कुछ लिखते-लिखाते भी हो?
एकाएक हाल में फिर संगीत गूँज उठता है। वे अपनी आवाज़ को थोड़ा और ऊँचा करते हैं। युवक का उत्सुक चेहरा थोड़ा और आगे को झुक आता है।
“तुम चाहो तो हमारी इस मुलाक़ात पर एक लेख लिख सकते हो। मेरा मतलब... लोगों को ऐसी बातों से नसीहत और प्रेरणा लेनी चाहिए... यानी... ”—पान शायद उन्हें वाक्य पूरा नहीं करने देता।
तभी बीच की टेबिल पर 'आई...उई'... का शोर होता है और सबका ध्यान अनायास ही उधर चला जाता है। बहुत देर से ही वह टेबिल लोगों का ध्यान अनायास ही खींच रही थी। किसी के हाथ से कॉफ़ी का प्याला गिर पड़ा है। बैरा झाड़न लेकर दौड़ पड़ा और असिस्टेंट मैनेजर भी आ गया। दो लड़कियाँ खड़ी होकर अपने कुर्तों को रूमाल से पोंछ रही हैं। बाक़ी लड़कियाँ हँस रही हैं। सभी लड़कियों ने चूड़ीदार पाजामे और ढीले-ढाले कुर्ते पहन रखे हैं। केवल एक लड़की साड़ी में है और उसने ऊँचा-सा जूड़ा बना रखा है। बातचीत और हाव-भाव से सब ‘मिरेण्डियन्स' लग रही हैं। मेज़ साफ़ होते ही खड़ी लड़कियाँ बैठ जाती हैं और उनकी बातों का टूटा क्रम चल पड़ता है।
“पापा को इस बार हार्ट-अटैक हुआ है सो छुट्टियों में कहीं बाहर तो जा नहीं सकेंगे। हमने तो सारी छुट्टियाँ यहीं बोर होना है। मैं और ममी सप्ताह में एक पिक्चर तो देखते ही हैं, इट्स ए मस्ट फ़ॉर अस। छुट्टियों में तो हमने दो देखनी हैं।
“हमारी किटी ने बड़े स्वीट पप्स दिए हैं। डैडी इस बार उसे 'मीट' करवाने बम्बई ले गए थे। किसी प्रिंस का अल्सेशियन था। ममी बहुत बिगड़ी थीं। उन्हें तो दुनिया में सब कुछ वेस्ट करना ही लगता है। पर डैडी ने मेरी बात रख ली एंड इट पेड अस ऑलसो। रीयली पप्स बहुत स्वीट हैं।
“इस बार ममी ने, पता है, क्या कहा है? छुट्टियों में किचन का काम सीखो। मुझे तो बाबा, किचन के नाम से ही एलर्जी है! मैं तो इस बार मोराविया पढूँगी! हिंदी वाली मिस ने हिंदी नॉवेल्स की एक लिस्ट पकड़ार्इ है। पता नहीं, हिंदी के नॉवेल्स तो पढ़े ही नहीं जाते!”—वह ज़ोर से कंधे उचका देती है।
तभी बाहर का दरवाज़ा खुलता है और चुस्त-दुरुस्त शरीर और रोबदार चेहरा लिए एक व्यक्ति भीतर आता है। भीतर का दरवाज़ा खुलता है तब वह बाहर का दरवाज़ा बंद हो चुका होता है, इसलिए बाहर के शोर और गर्म हवा का लवलेश भी भीतर नहीं आ पाता।
सीढ़ियों के पास वाले कोने की छोटी-सी टेबिल पर दीवाल से पीठ सटाए एक महिला बड़ी देर से बैठी है। ढलती उम्र के प्रभाव को भरसक मेकअप से दबा रखा है। उसके सामने कॉफ़ी का प्याला रखा है और वह बेमतलब थोड़ी-थोड़ी देर के लिए सब टेबिलों की ओर देख लेती है। आने वाले व्यक्ति को देखकर उसके ऊब भरे चेहरे पर हल्की-सी चमक आ जाती है और वह उस व्यक्ति को अपनी ओर मुख़ातिब होने की प्रतीक्षा करती है। ख़ाली जगह देखने के लिए वह व्यक्ति चारों ओर नज़र दौड़ा रहा है। महिला को देखते ही उसकी आँखों में परिचय का भाव उभरता है और महिला के हाथ हिलाते ही वह उधर ही बढ़ जाता है।
“हल्लोऽऽ! आज बहुत दिनों बाद दिखाई दीं मिसेज़ रावत!” फिर कुरसी पर बैठने से पहले पूछता है, “आप यहाँ किसी का वेट तो नहीं कर रही हैं?
नहीं जी, घर में बैठे-बैठे या पढ़ते-पढ़ते जब तबीअत ऊब जाती है तो यहाँ आ बैठती हूँ। दो कप कॉफ़ी के बहाने घंटा-डेढ़ घंटा मज़े से कट जाता है। कोई जान-पहचान का फ़ुरसत में मिल जाए तो लंबी ड्राइव पर ले जाती हूँ। आपने तो किसी को टाइम नहीं दे रखा है न?
नो...नो... बाहर ऐसी भयंकर गर्मी है कि बस। एकदम आग बरस रही है। सोचा, यहाँ बैठकर एक कोल्ड कॉफ़ी ही पी ली जाए।” बैठते हुए उसने कहा।
जवाब से कुछ आश्वस्त हो मिसेज़ रावत ने बैरे को कोल्ड कॉफ़ी का ऑर्डर दिया। “और बताइए, मिसेज़ आहूजा कब लौटनेवाली हैं? सालभर तो हो गया न उन्हें?”
“गॉड नोज़।”—वह कंधे उचका देता है और फिर पाइप सुलगाने लगता है। एक कश खींचकर टुकड़ों-टुकड़ों में धुआँ उड़ाकर पूछता है, “छुट्टियों में इस बार आपने कहाँ जाने का प्रोग्राम बनाया है?
“जहाँ का भी मूड आ जाए, चल देंगे। बस इतना तय है कि दिल्ली में नहीं रहेंगे। गर्मियों में तो यहाँ रहना असंभव है। अभी यहाँ से निकलकर गाड़ी में बैठेंगे तब तक शरीर झुलस जाएगा! सड़कें तो जैसे भट्टी हो रही हैं।”
गाने का स्वर डायस से उठकर फिर सारे हॉल में तैर गया... 'ऑन संडे आइ एम हैप्पी...'
नॉनसेन्स! मेरा तो संडे ही सबसे बोर दिन होता है!
तभी संगीत की स्वर-लहरियों के साये में फैले हुए भिनभिनाते-से शोर को चीरता हुआ एक असंयत सा कोलाहल सारे हॉल में फैल जाता है। सबकी नज़रें दरवाज़े की ओर उठ जाती हैं। विचित्र दृश्य है। बाहर और भीतर के दरवाज़े एक साथ खुल गए हैं और नन्हें-मुन्ने बच्चों के दो-दो, चार-चार के झुंड हल्ला-गुल्ला करते भीतर घुस रहे हैं। सड़क का एक टुकड़ा दिखाई दे रहा है, जिस पर एक स्टेशन-बैगन खड़ी है, आस-पास कुछ दर्शक खड़े हैं और उसमें से बच्चे उछल-उछलकर भीतर दाख़िल हो रहे हैं- 'बॉबी, इधर आ जा!' — 'निद्धू, मेरा डिब्बा लेते आना...!'
बच्चों के इस शोर के साथ-साथ बाहर की गर्म हवा, बाहर का शोर भी भीतर आ रहा है। बच्चे टेबिलों से टकराते, एक-दूसरे को धकेलते हुए सीढ़ियों पर जाते हैं। लकड़ी की सीढ़ियाँ कार्पेट बिछा होने के बावजूद धम्-धम् करके बज उठी हैं।
हॉल की संयत शिष्टता एक झटके के साथ बिखर जाती है। लड़की गाना बंद करके मुग्ध भाव से बच्चों को देखने लगती है। सबकी बातों पर विराम-चिह्न लग जाता है और चेहरों पर एक विस्मयपूर्ण कौतुक फैल जाता है। कुछ बच्चे बाल्कनी की रेलिंग पर झूलते हुए-से हॉल में ग़ुब्बारे उछाल रहे हैं, कुछ ग़ुब्बारे कार्पेट पर आ गिरे हैं, कुछ कंधों पर सिरों से टकराते हुए टेबिलों पर लुढ़क रहे हैं तो कुछ बच्चों की किलकारियों के साथ-साथ हवा में तैर रहे हैं।... नीले, पीले, हरे, गुलाबी...
कुछ बच्चे ऊपर उछल-उछलकर कोई नर्सरी राइम गाने लगते हैं तो लकड़ी का फ़र्श धम्-धम् बज उठता है।
हॉल में चलती फ़िल्म जैसे अचानक टूट गई है।
mai ki sanjh!
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“is bar mummy ne, pata hai, kya kaha hai? chhuttiyon mein kitchen ka kaam sikho mujhe to baba, kitchen ke nam se hi allergy hai! main to is bar morawiya paDhungi! hindi wali miss ne hindi nauwels ki ek list pakDari hai pata nahin, hindi ke nauwels to paDhe hi nahin jate!”—wah zor se kandhe uchka deti hai
tabhi bahar ka darwaza khulta hai aur chust durust sharir aur robadar chehra liye ek wekti bhitar aata hai bhitar ka darwaza khulta hai tab wo bahar ka darwaza band ho chuka hota hai, isliye bahar ke shor aur garm hawa ka lawlesh bhi bhitar nahin aa pata
siDhiyon ke pas wale kone ki chhoti si tebil par diwal se peeth sataye ek mahila baDi der se baithi hai Dhalti umr ke prabhaw ko bharsak mekap se daba rakha hai uske samne coffe ka pyala rakha hai aur wo bematlab thoDi thoDi der ke liye sab tebilon ki or dekh leti hai aane wale wekti ko dekhkar uske ub bhare chehre par halki si chamak aa jati hai aur wo us wekti ko apni or mukhatib hone ki pratiksha karti hai khali jagah dekhne ke liye wo wekti charon or nazar dauDa raha hai mahila ko dekhte hi uski ankhon mein parichai ka bhaw ubharta hai aur mahila ke hath hilate hi wo udhar hi baDh jata hai
“halloऽऽ! aaj bahut dinon baad dikhai deen misez rawat!” phir kursi par baithne se pahle puchhta hai, “ap yahan kisi ka weight to nahin kar rahi hain?
nahin ji, ghar mein baithe baithe ya paDhte paDhte jab tabiat ub jati hai to yahan aa baithti hoon do kap coffe ke bahane ghanta DeDh ghanta maze se kat jata hai koi jaan pahchan ka fursat mein mil jaye to lambi driwe par le jati hoon aapne to kisi ko time nahin de rakha hai n?
no no bahar aisi bhayankar garmi hai ki bus ekdam aag baras rahi hai socha, yahan baithkar ek cold coffe hi pi li jaye ” baithte hue usne kaha
jawab se kuch ashwast ho misez rawat ne baire ko cold coffe ka order diya “aur bataiye, misez ahuja kab lautnewali hain? salbhar to ho gaya na unhen?”
“gauD nose ”—wah kandhe uchka deta hai aur phir paip sulgane lagta hai ek kash khinchkar tukDon tukDon mein dhuan uDakar puchhta hai, “chhuttiyon mein is bar aapne kahan jane ka program banaya hai?
“jahan ka bhi mood aa jaye, chal denge bus itna tay hai ki dilli mein nahin rahenge garmiyon mein to yahan rahna asambhaw hai abhi yahan se nikalkar gaDi mein baithenge tab tak sharir jhulas jayega! saDken to jaise bhatti ho rahi hain ”
gane ka swar Dayas se uthkar phir sare hall mein tair gaya on sanDe aai em happy
naunsens! mera to sanDe hi sabse bor din hota hai!
tabhi sangit ki swar lahariyon ke saye mein phaile hue bhinabhinate se shor ko chirta hua ek asanyat sa kolahal sare hall mein phail jata hai sabki nazren darwaze ki or uth jati hain wichitr drishya hai bahar aur bhitar ke darwaze ek sath khul gaye hain aur nanhen munne bachchon ke do do, chaar chaar ke jhunD halla gulla karte bhitar ghus rahe hain saDak ka ek tukDa dikhai de raha hai, jis par ek station baigan khaDi hai, aas pas kuch darshak khaDe hain aur usmen se bachche uchhal uchhalkar bhitar dakhil ho rahe hain baubi, idhar aa ja! — niddhu, mera Dibba lete aana !
bachchon ke is shor ke sath sath bahar ki garm hawa, bahar ka shor bhi bhitar aa raha hai bachche tebilon se takrate, ek dusre ko dhakelte hue siDhiyon par jate hain lakDi ki siDhiyan karpet bichha hone ke bawjud dham dham karke baj uthi hain
hall ki sanyat shishtata ek jhatke ke sath bikhar jati hai laDki gana band karke mugdh bhaw se bachchon ko dekhne lagti hai sabki baton par wiram chihn lag jata hai aur chehron par ek wismaypurn kautuk phail jata hai kuch bachche balkni ki reling par jhulte hue se hall mein ghubbare uchhaal rahe hain, kuch ghubbare karpet par aa gire hain, kuch kandhon par siron se takrate hue tebilon par luDhak rahe hain to kuch bachchon ki kilkariyon ke sath sath hawa mein tair rahe hain nile, pile, hare, gulabi
kuch bachche upar uchhal uchhalkar koi nursery raim gane lagte hain to lakDi ka farsh dham dham baj uthta hai
hall mein chalti film jaise achanak toot gai hai
mai ki sanjh!
saDhe chhah baje hain kuch der pahle jo dhoop charon or phaili paDi thi, ab phiki paDkar imarton ki chhaton par simat i hai, mano nirantar samapt hote apne astitw ko bachaye rakhne ke liye usne kaskar kagaron ko pakaD liya ho
ag barsati hui hawa dhoop aur pasine ki badbu se bahut bojhil ho i hai panch baje tak jitne bhi log office ki baDi baDi imarton mein band the, is samay barsati nadi ki tarah saDkon par phail gaye hain rigal ke samne wale phutpath par chalne walon aur haukars ka mila jula shor charon aur goonj raha hai gajre bechne walon ke pas se guzarne par sugandh bhari tarawat ka ahsas hota hai, isiliye na kharidne par bhi logon ko unke pas khaDa hona ya unke pas se guzarna achchha lagta hai
t house bhara hua hai uska apna hi shor kafi hai, phir bahar ka sara shor sharaba bina kisi rukawat ke khule darwazon se bhitar aa raha hai chhaton par phul speed mein ghumte pankhe bhi jaise aag barsa rahe hain ek kshan ko ankh moond lo to aapko pata hi nahin lagega ki aap t house mein hain ya phutpath par wahi garmi, wahi shor!
ge laurD bhi bhara hua hai purush apne air kanDishanD chaimbron se thakkar aur aurten apne apne gharon se ubkar man bahlane ke liye yahan aa baithe hain yahan na garmi hai, na bhannata hua shor charon or halka, shital, dudhiya aalok phail raha hai aur wibhinn senton ki madak cocktail hawa mein tair rahi hai tebilon par se uthte hue phusaphusate se swar sangit mein hi Doob jate hain
gahra mekap kiye Dayas par jo laDki ga rahi hai, usne apni skirt ki belt khoob kaskar bandh rakhi hai, jisse uski patli kamar aur bhi patli dikhai de rahi hai aur uski tulna mein chhatiyon ka ubhaar kuch aur mukhar ho utha hai ek hath se usne maik ka DanDa pakaD rakha hai aur jute ki to se wo tal de rahi hai uske hothon se lipstick bhi lipti hai aur muskan bhi gane ke sath sath uska sara sharir ek wishesh ada ke sath jhoom raha hai pas mein donon hathon se jhunjhune se bajata jo wekti sare sharir ko lachka lachkakar tal de raha hai, wo nigro hai beech beech mein jab wo uski or dekhti hai to ankhen milte hi donon aise hans paDte hain mano donon ke beech kahin kuch hai par kuch din pahle jab ek englo inDiyan uske sath bajata tha, tab bhi ye aise hi hansti thi, tab bhi iski ankhen aise ki chamakti theen iski hansi aur iski ankhon ki chamak ka iske man ke sath koi sambandh nahin hai we alag hi chalti hain
Dayas ki baghal wali tebil par ek yuwak aur yuwati baithe hain donon ke samne pine eppal juice ke glas rakhe hain yuwati ka glas aadhe se adhik khali ho gaya hai, par yuwak ne shayad ek do sip hi liye hain wo kewal strau hila raha hai
yuwati dubli aur gori hai uske baal kate hue hain samne aa jane par sir ko jhatke dekar wo unhen pichhe kar deti hai uski kalaf lagi saDi ka palla itna chhota hai ki kandhe se mushkil se chhah inch niche tak aa paya hai cholinuma blouse se Dhaki uski puri ki puri peeth dikhai de rahi hai
“tum kal bahar gai thee?” yuwak bahut hi mulayam swar mein puchhta hai
kyon? bayen hath ki lambi lambi patli ungliyon se tal dete dete hi wo puchhti hai
“mainne phone kiya tha ”
achchha? par kisaliye? aaj milne ki baat to tay ho hi gai thi
“yoon hi tumse baat karne ka man ho aaya tha ”
yuwak ko shayad ummid thi ki uski baat ki yuwati ke chehre par koi sukhad pratikriya hogi par wo halke se hans di yuwak uttar ki pratiksha mein uske chehre ki or dekhta raha, par yuwati ka dhyan shayad idhar udhar ke logon mein ulajh gaya tha is par yuwak khinn ho gaya wo yuwati ke munh se sunna chah raha tha ki wo kal wipin ke sath skutar par ghoom rahi thi is baat ke jawab mein wo kya kya karega, ye sab bhi usne soch liya tha aur kal sham se lekar abhi yuwati ke aane se pahle tak usko kai bar duhra bhi liya tha par yuwati ki chuppi se sab gaDbaDa gaya wo ab shayad samajh hi nahin pa raha tha ki baat kaise shuru kare
“o gora!”—balkni ki or dekhte hue yuwati ke munh se nikla, “yah sari ki sari balkni kisne reserw karwa lee?
balkni ki reling par ek chhoti si plastic ki safed takhti lagi thi, jis par lal akshron mein likha tha—rizarwD
yuwak ne sir jhukakar ek sip liya “main tumse kuch baat karna chahta hoon ” uski awaz kuch bhari ho i thi, jaise gala baith gaya ho
yuwati ne sip lekar apni ankhen yuwak ke chehre par tika deen wo halke halke muskura rahi thi aur yuwak ko uski muskurahat se thoDa kasht ho raha tha
“dekho, main is sari baat mein bahut gambhir hoon ” jhijhakte se swar mein wo bola
“gambhir?” yuwati khilkhila paDi to uske baal aage ko jhool aaye sir jhatakkar usne unhen pichhe kiya
main to kisi bhi cheez ko gambhirta se lene mein wishwas hi nahin karti ye din to hansne khelne ke hain, har cheez ko halke phulke Dhang se lene ke gambhirta to buDhape ki nishani hai buDhe log machchhron aur mausam ko bhi bahut gambhirta se lete hain aur main abhi buDha hona nahin chahti ”—aur usne apne donon kandhe zor se uchka diye wo phir gana sunne mein lag gai yuwak ka man hua ki wo uski mulaqaton aur purane patron ka hawala dekar usse anek baten puchhe, par baat uske gale mein hi atakkar rah gai aur wo khali khali nazron se idhar udhar dekhne laga uski nazar rizarwD ki us takhti par ja lagi ekayek use lagne laga jaise wo takhti wahan se uthkar un donon ke beech aa gai hai aur plastic ke lal akshar niyaun lait ke akshron ki tarah dip dip karne lage
tabhi gana band ho gaya aur sare hall mein taliyon ki gaDgaDahat goonj uthi gana band hone ke sath hi logon ki awazen dhimi ho gain, par hall ke bichon beech ek chhoti tebil ke samne baithe ek sthulakay khaddardhari wekti ka dharaprawah bhashan swar ke usi star par jari raha samne patlun aur bush shirt pahne ek dubla patla wekti unki baton ko baDe dhyan se sun raha hai unke bolne se thoDa thoDa thook uchhal raha hai jise samne wala wekti aise ponchhta hai ki unhen malum na ho par unke pas shayad in chhoti moti baton par dhyan dene layaq samay hi nahin hai we mood mein aaye hue hain “gandhiji ki pukar par kaun wekti apne ko rok sakta tha bhala? kya din the we bhee! mainne business ki to ki aisi ki taisi aur desh sewa ke kaam mein jut gaya phir to sari zindagi paulitikal safrar ki tarah hi guzar dee!”
samne wala wekti chehre par shardha ke bhaw lane ka bharsak prayatn karne laga
“desh azad hua to laga ki asli kaam to ab karna hai sab log pichhe paDe ki main khaDa houn, ministry pakki hai, par nahin sahab, ye kaam ab apne bus ka nahin raha jel ke jiwan ne kaya ko jarjar kar diya, phir ye bhi laga ki naw nirman mein naya khoon hi aana chahiye, so bahut pichhe paDe to beton ko jhonka is chakkar mein unhen samjhaya, zindagi bhar ke hamare tyag aur parishram ka phal hai ye azadi, tum log ab iski laj rakho, business hum sambhalte hain
yuwak shabdon ko thelta sa bola “apaki desh bhakti ko kaun nahin janta?’’
we santosh ki ek Dakar lete hain aur jeb se rumal nikalkar apna munh aur munchhon ko saf karte hain rumal wapas jeb mein rakhte hain aur pahlu badalkar dusri jeb se chandi ki Dibiya nikalkar pahle khu pan khate hain, phir samne wale wekti ki or baDha dete hain
“ji nahin, main pan nahin khata ”—kritagyta ke sath hi uske chehre par bechaini ka bhaw ubhar jata hai
“ek yahi lat hai jo chhutti nahin ” pan ki Dibiya ko wapas jeb mein rakhte hue we kahte hain, “inglainD gaya to har saptah hawai jahaz se panon ki gaDDi aati thi ”
jab man ki bechaini kewal chehre se nahin sambhalti to wo dhire dhire hath ragaDne lagta hai
pan ko munh mein ek or thelkar we thoDa sa haklate hue kahte hain, “ab aaj ki hi misal lo hamare warg ka ek bhi adami gina do jo apne yahan ke karmachari ki shikayat is prakar sunta ho? par jaise hi tumhara kes mere samne aaya, mainne tumhein bulaya, yahan bulaya
“ji han ” uske chehre par kritagyta ka bhaw aur adhik mukhar ho jata hai wo apni baat shuru karne ke liye shabd DhunDhane lagta hai usne bahut wistar se baat karne ki yojna banari thi, par ab sari baat ko sankshep mein kah dena chahta hai
“suna hai, tum kuch likhte likhate bhi ho?
ekayek haal mein phir sangit goonj uthta hai we apni awaz ko thoDa aur uncha karte hain yuwak ka utsuk chehra thoDa aur aage ko jhuk aata hai
“tum chaho to hamari is mulaqat par ek lekh likh sakte ho mera matlab logon ko aisi baton se nasihat aur prerna leni chahiye yani ”—pan shayad unhen waky pura nahin karne deta
tabhi beech ki tebil par i ui ka shor hota hai aur sabka dhyan anayas hi udhar chala jata hai bahut der se hi wo tebil logon ka dhyan anayas hi kheench rahi thi kisi ke hath se coffe ka pyala gir paDa hai baira jhaDan lekar dauD paDa aur assistant manager bhi aa gaya do laDkiyan khaDi hokar apne kurton ko rumal se ponchh rahi hain baqi laDkiyan hans rahi hain sabhi laDakiyon ne chuDidar pajame aur Dhile Dhale kurte pahan rakhe hain kewal ek laDki saDi mein hai aur usne uncha sa juDa bana rakha hai batachit aur haw bhaw se sab ‘mirenDiyans lag rahi hain mez saf hote hi khaDi laDkiyan baith jati hain aur unki baton ka tuta kram chal paDta hai
“papa ko is bar heart ataik hua hai so chhuttiyon mein kahin bahar to ja nahin sakenge hamne to sari chhuttiyan yahin bor hona hai main aur mummy saptah mein ek picture to dekhte hi hain, its e mast faur as chhuttiyon mein to hamne do dekhni hain
“hamari kiti ne baDe sweet paps diye hain daddy is bar use meet karwane bambai le gaye the kisi prins ka alseshiyan tha mummy bahut bigDi theen unhen to duniya mein sab kuch waste karna hi lagta hai par daddy ne meri baat rakh li enD it paid as aulso riyli paps bahut sweet hain
“is bar mummy ne, pata hai, kya kaha hai? chhuttiyon mein kitchen ka kaam sikho mujhe to baba, kitchen ke nam se hi allergy hai! main to is bar morawiya paDhungi! hindi wali miss ne hindi nauwels ki ek list pakDari hai pata nahin, hindi ke nauwels to paDhe hi nahin jate!”—wah zor se kandhe uchka deti hai
tabhi bahar ka darwaza khulta hai aur chust durust sharir aur robadar chehra liye ek wekti bhitar aata hai bhitar ka darwaza khulta hai tab wo bahar ka darwaza band ho chuka hota hai, isliye bahar ke shor aur garm hawa ka lawlesh bhi bhitar nahin aa pata
siDhiyon ke pas wale kone ki chhoti si tebil par diwal se peeth sataye ek mahila baDi der se baithi hai Dhalti umr ke prabhaw ko bharsak mekap se daba rakha hai uske samne coffe ka pyala rakha hai aur wo bematlab thoDi thoDi der ke liye sab tebilon ki or dekh leti hai aane wale wekti ko dekhkar uske ub bhare chehre par halki si chamak aa jati hai aur wo us wekti ko apni or mukhatib hone ki pratiksha karti hai khali jagah dekhne ke liye wo wekti charon or nazar dauDa raha hai mahila ko dekhte hi uski ankhon mein parichai ka bhaw ubharta hai aur mahila ke hath hilate hi wo udhar hi baDh jata hai
“halloऽऽ! aaj bahut dinon baad dikhai deen misez rawat!” phir kursi par baithne se pahle puchhta hai, “ap yahan kisi ka weight to nahin kar rahi hain?
nahin ji, ghar mein baithe baithe ya paDhte paDhte jab tabiat ub jati hai to yahan aa baithti hoon do kap coffe ke bahane ghanta DeDh ghanta maze se kat jata hai koi jaan pahchan ka fursat mein mil jaye to lambi driwe par le jati hoon aapne to kisi ko time nahin de rakha hai n?
no no bahar aisi bhayankar garmi hai ki bus ekdam aag baras rahi hai socha, yahan baithkar ek cold coffe hi pi li jaye ” baithte hue usne kaha
jawab se kuch ashwast ho misez rawat ne baire ko cold coffe ka order diya “aur bataiye, misez ahuja kab lautnewali hain? salbhar to ho gaya na unhen?”
“gauD nose ”—wah kandhe uchka deta hai aur phir paip sulgane lagta hai ek kash khinchkar tukDon tukDon mein dhuan uDakar puchhta hai, “chhuttiyon mein is bar aapne kahan jane ka program banaya hai?
“jahan ka bhi mood aa jaye, chal denge bus itna tay hai ki dilli mein nahin rahenge garmiyon mein to yahan rahna asambhaw hai abhi yahan se nikalkar gaDi mein baithenge tab tak sharir jhulas jayega! saDken to jaise bhatti ho rahi hain ”
gane ka swar Dayas se uthkar phir sare hall mein tair gaya on sanDe aai em happy
naunsens! mera to sanDe hi sabse bor din hota hai!
tabhi sangit ki swar lahariyon ke saye mein phaile hue bhinabhinate se shor ko chirta hua ek asanyat sa kolahal sare hall mein phail jata hai sabki nazren darwaze ki or uth jati hain wichitr drishya hai bahar aur bhitar ke darwaze ek sath khul gaye hain aur nanhen munne bachchon ke do do, chaar chaar ke jhunD halla gulla karte bhitar ghus rahe hain saDak ka ek tukDa dikhai de raha hai, jis par ek station baigan khaDi hai, aas pas kuch darshak khaDe hain aur usmen se bachche uchhal uchhalkar bhitar dakhil ho rahe hain baubi, idhar aa ja! — niddhu, mera Dibba lete aana !
bachchon ke is shor ke sath sath bahar ki garm hawa, bahar ka shor bhi bhitar aa raha hai bachche tebilon se takrate, ek dusre ko dhakelte hue siDhiyon par jate hain lakDi ki siDhiyan karpet bichha hone ke bawjud dham dham karke baj uthi hain
hall ki sanyat shishtata ek jhatke ke sath bikhar jati hai laDki gana band karke mugdh bhaw se bachchon ko dekhne lagti hai sabki baton par wiram chihn lag jata hai aur chehron par ek wismaypurn kautuk phail jata hai kuch bachche balkni ki reling par jhulte hue se hall mein ghubbare uchhaal rahe hain, kuch ghubbare karpet par aa gire hain, kuch kandhon par siron se takrate hue tebilon par luDhak rahe hain to kuch bachchon ki kilkariyon ke sath sath hawa mein tair rahe hain nile, pile, hare, gulabi
kuch bachche upar uchhal uchhalkar koi nursery raim gane lagte hain to lakDi ka farsh dham dham baj uthta hai
hall mein chalti film jaise achanak toot gai hai
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1960-1970) (पृष्ठ 1)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।