नानबाई, अत्तारी, क़स्साबी की छोटी-मोटी दुकानें, दो क़हवेखाने, एक हेयर सैलून, दूसरी प्रकार की अन्य दुकानें ज़िंदगी की प्रारंभिक आवश्यकताओं की पूर्ति और भूख को शांत करने का स्रोत बनीं, मैदान बरामीन के चारों तरफ़ बिखरी, एक मामूली से बाज़ार का दृश्य उत्पन्न कर रही थीं।
मैदान और मैदान के रहने वाले इस तपती दोपहर में सूरज की गर्मी से क़बाब हुए, दोपहर के ढलते और शाम की नर्म ठंडी बयार के साथ रात के पसरने की आरज़ू करते थे। आदमी, जानवर, पेड़, दुकानें सभी इस गर्मी से अधमरे अलसाए से पड़े थे। सारा काम ठप्प पड़ा हुआ था। आसमान पर धूल ख़ाक़ का ग़ुबार जमा था, जो ट्राफ़िक के धुएँ से बीच में और गहरा हो जाता था।
मैदान के एक तरफ़ चिनार के पुराने पेड़ों की कतारें थी, जिनके चौड़े तने अंदर से खोखले होकर टेड़े-मेढ़े हो गए थे और आड़ी-तिरछी उनकी शाखाएँ फिर भी पत्तियों से भरी हुई थी। इन्हीं पेड़ों की छाया में एक तख़्त पड़ा था, जिस पर दो लड़के कद्दू के नमकीन बीज का टोकरा और खीर का पतीला लिए बैठे होते। ठीक उसी के सामने क़हवेखाने से निकलता गंदा काला पानी जो कूड़े की अधिकता से रुक-रुक कर बहता था, जारी रहता था।
केवल एक इमारत यहाँ पर ऐसी थी, जो लोगों का ध्यान अपनी ओर बरबस ही आकर्षित कर लेती थी, वह थी बरामीन मैदान का प्रसिद्ध बुर्ज़ जिसका आधा हिस्सा चिटखा हुआ था और जगह-जगह से उसकी ईंटें निकली हुई थीं। इन्हीं गिरे टूटे ईंटों के सुराखों में चिड़ियों ने घोंसले बना लिए थे और इस शिद्दत की गर्मी में वह अपने घोंसलों में बैठी हाँफ रही थी। इस गर्म ख़ामोश दोपहर की निस्तब्धता को कुत्ते की रोने की आवाज़ बार-बार तोड़ रही थी।
यह स्काटलैंडी नस्ल का कुत्ता था, जिसके थूथन का रंग सूखी जली घास जैसा था। पैर पर काले-काले बेशुमार तिल थे। जैसे वह अभी कीचड़ भरी घास पर लौट कर आया हो। खड़े बालों की दुम, गोल कान, उस पर घुँघराले उलझे-उलझे बाल जिनके बीच से झाँकती दो आँखें जिनकी रोशनी में मानव की चमक दिखती थी और कभी-कभी उसमें मानव आत्मा झाँकती नज़र आती थी। जैसे कि आधी रात ज़िंदगी ढल गई हो और उसने बेशुमार अनुभवों के पाठ पढ़ा दिए हों। एक असीमित भावनाओं का समुद्र उसकी आँखों में मौजें मारता नज़र आता था जिसकी तड़पन में एक पैग़ाम छुपा हुआ था जिसे पढ़ सकना साफ़-साफ़ ग़ैर मुमकिन-सा था। जैसे कि वह कहीं पुतलियों के बीच किसी कारणवश फँसकर रह गया था। न उसे वास्तव में चमक का नाम दे सकते थे, न रंग का। वहाँ कुछ और ही नज़र आता था, जो नज़र आता था वह विश्वास के क़ाबिल न था। जैसे किसी घायल हिरनी की फ़रियाद हो। दो मटमैली आँखों में सारे जहाँ का दर्द सिमट आया था। यह आँखें किसी इंसानी आँखों की तरह किसी की प्रतीक्षा में, थकी, नज़र आती थीं। शायद, यह इंतज़ार किसी बेघर-बार के कुत्ते की आँखों में ही नज़र आ सकता था।
मैं अक्सर सोचता हूँ कि उसकी याचना भरी आँखों की प्रार्थना का दर्दनाक भाव किसी भी ग्राहक के समझ में नहीं आ सकता था। नानबाई की दुकान के आगे उसका नौकर उसे लात जमाता और क़स्साब का छोकरा उस पर पत्थर फेंकता था। अगर इन दोनों से बचकर किसी मोटर के नीचे पनाह लेता तो वहाँ पर कीलदार शोफ़र के जूते उसका जीना हराम कर देते थे। फिर खीर बेचने वाले लड़के का भी कर्त्तव्य-सा बन जाता था कि वह भी उसे परेशान करके मज़ा लेता था। पत्थर जब लड़का उसके पेट पर खींचकर मारता और वह किकियाता हुआ भागता तो उस लड़के की प्रसन्नता से डूबी खिलखिलाहट सुनाई पड़ती। और ज़ोर से वह फबती कसता “साहब का कुत्ता!”
वहाँ के सब लोगों ने जैसे उसे सताने की मन में ठान रखी थी कि जैसे वह उनका कोई पहले जन्म का दुश्मन हो, जिससे उन्हें चुन-चुन कर हिसाब चुकाना हो। ख़ासकर तब, जब उस जानवर से धर्म भी घृणा करना सिखाता हो, तब तो उसे मारना और सताना पुण्य का काम हो जाता है। उस दिन जब खीर बेचने वाले लड़के ने उसे बहुत सताया तो वह दुखी होकर बड़ी लाचारी से बुर्ज़ की ओर जाने वाली गली की तरफ़ भागा, ख़ाली पेट लिए बड़ी मुश्किल से अपने को घसीटता हुआ बहते पानी के पास गया और उसकी कुछ दूरी पर आगे के पैरों पर सर रखकर लेट गया और उदास आँखों से सामने हवा से हिलती घास को ताकने लगा। ठंडक पाकर उसके बदन में एक आरामदेह सनसनाहट फैलने लगी और वह सुस्ताने लगा। घूरे पर पड़े कूड़े विभिन्न खाद्य पदार्थों की मिली-जुली ख़ुश्बू उसके पुराने दिनों की याद ताज़ा कर रहे थे।
यह हालत उसकी उस समय होती, जब वह इसी तरह की हरियाली को देखता जो उसकी आँखों में ठंडक बख्शती तब वह यादों के क़ाफ़िले में खोया ज़िंदगी के निकट पहुँच जाता। मगर आज उन यादों की पदचाप इतनी तेज़ इतनी व्याकुल थी कि उसे कूदने, दौड़ने, उछलने और घास पर लोटने पर मजबूर कर रही थी। यह इच्छा उसकी खानदानी थी, क्योंकि उसके बाप-दादा स्काटलैंड के बड़े-बड़े मैदानों और हरी दूब के संग पल कर बड़े हुए थे, मगर इस समय उसका जोड़-जोड़ इतना टूटा हुआ था कि उसका हिल-डुल पाना मुश्किल था। एक दर्दनाक कमज़ोरी से भरा अहसास उसके वजूद पर छाया हुआ था। स्फूर्ति, उत्तेजना सब कुछ कहीं-कहीं ग़ायब हो गई थी। जबकि उसकी ज़िंदगी में बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ थीं, जैसे मालिक के घर की रखवाली, कब किस पर भोंकना, कब किस पर प्यार दर्शाना, मालिक की एक आवाज़ पर चौकन्ना होकर उनकी मर्ज़ी मुताबिक व्यवहार करना, उनके बच्चों से खेलना, समय पर खाना खाना। प्यार जताते समय क़दमों पर लोट कर पैर चाटना, यह थी उसकी क़ैद भरी मसरुफ़ ज़िंदगी की सारी ज़िम्मेदारियों से परिपूर्ण एक झलकी, मगर अब वह हर ज़िम्मेदारी से आज़ाद था, सड़क पर फिरने वाला आवारा कुत्ता।
अब तो अपना सारा ध्यान सारा बल इस बात पर ख़र्च होता था कि कहाँ से और कैसे वह खाने का एक टुकड़ा हाँफते, काँपते, लरजते, डरते, उड़ाने में कामयाब हो जाए। इस चतुरता भरी चोरी के बदले में उसे मार और गाली खाते सारा दिन रिरियाते हुए गुज़ारना पड़ता था। यही एक हथियार था उसके पास अपने बचाव में। पहले वह चुस्त, चालाक, फुर्तीला, साफ़-सुथरा और निडर था मगर अब डरपोक और सुस्त सा हो गया था। आवाज़ तो दूर की बात है यदि पत्ता भी फड़कता था तो वह काँप जाता था। कभी-कभी वह अपनी ही आवाज़ से भयभीत हो जाता था।
आलस्य में डूबा वह एक गंदगी का पोट था जिसका बदन ख़ारिशज़दा था। उसके बदन में तो इतनी ताक़त भी नहीं रह गई थी कि वह कीलों को मारता या बदन को चाट-चाट कर साफ़-सुथरा बनाता। उसको इस भाव ने बुरी तरह दबोच लिया था कि वह एक कूड़ादान है, जिसमें गंदगी ऊपर तक भर गई है। इसी अहसास ने उसे सुस्त बना दिया था।
जब वह इस नर्क में आया था पूरा जाड़ा गुज़र गया था। गर्मी शबाब पर थी, मगर अभी तक उसे भर पेट खाना नसीब नहीं हुआ था न ही वह चैन की नींद सो पाया था। उसकी संवेदनाओं और काम वासना का ज्वार कब का शांत हो चुका था। कोई तो ऐसा न था जो प्यार से उसे थपथपाता, उसके सर को सहलाता ऐसा कोई इंसान उसे नहीं मिला, जो उसकी आँखों में झाँककर उसके दुख का अंदाज़ा लगाता। यहाँ पर अधिकतर काम करने वाले लड़के अपने मालिकों जैसे ही थे। वह उसके दुख, दर्द को पैसा समझते थे। मगर उसका अपना मालिक इन सबसे अलग था।
उसको जो सुगंध अधिक व्याकुल करती थी, वह थी दूध की खीर की। बड़े से बर्तन में भरी खीर उसे बचपन के उस दौर में ले जाती थी, जब माँ के स्तनों से दूध की बूँदें झलकती थीं और वह एक आरामदेह गर्माहट में डूबने लगता, जैसे वह एक छोटा-सा पिल्ला हो और माँ के स्तनों का पान कर रहा हो और माँ की लंबी मज़बूत ज़ुबान उसके बदन को चाट-चाट कर साफ़ कर रही हो। माँ के बदन से उठती विशेष ख़ुशबू और साथ दूध पीते अन्य भाई-बहनों के बदन की गर्मी उसे एक अजीब तरह से बेचैन करने लगी। फिर उसे हरा लॉन याद आया, जहाँ वह मालिक के साथ खेलता था, फिर उनके बीच मालिक का बेटा आ गया जो उसके कानों, उसके बालों से भरे बदन से खेलता और भोंकता हुआ उसके पीछे भागता, उसके कपड़े दाँतों से पकड़कर खींचता था। मालिक के हाथों से जो उसने ‘शुगर क्यूब’ खाए, कैसा मीठा प्यार था वह, कैसे भूल पाएगा वह यह सब?
धीरे-धीरे सब कुछ बदला, माँ उसे छोड़कर चली गई, भाई-बहन कहीं चले गए। अब वह था और मालिक परिवार, उस परिवार के सारे सदस्यों की वह पदचाप पहचानता था। उस घर में होने वाली हर सरसराहट से वाक़िफ़ था, पकवानों की ख़ुशबू सूँघता वह चक्कर काटता था, मालिक के मना करने पर भी मालकिन एक कौर उसकी तरफ़ उछाल कर देती थी। इस बीच नौकर की आवाज़ गूँजती “पैट...पैट...पैट...” उसका खाना उसके लकड़ी के दरवाज़े के सामने रखा हुआ मिलता था।
***
काम वासना की अंतरंग मस्ती ने ही पैट की यह दुर्दशा की थी, क्योंकि मालिक की इजाज़त न थी कि वह घर से बाहर निकले और कुतियों के पीछे घूमे। अचानक एक दिन दो मेहमान आए, जिन्हें पैट पहचानता था। सब कार में बैठ गए। वह पतझड़ का मौसम था, इससे पहले भी वह कई बार हवाखोरी के लिए जा चुका था। मगर आज का दिन अजीब था। आज वह उत्तेजित और मस्त था। कुछ घंटों के बाद वह इसी मैदान के पास आकर रुके। सारे लोग कार से नीचे उतरे और बुर्ज़ वाली गली की ओर मुड़ गए, वह भी साथ था वहाँ पर। उसे मादा की बू महसूस हुई। उसे इस ख़ुशबू की तलाश थी। एकदम से वह दीवाना-सा हो गया, सब कुछ भूलकर वह उसी बू की ओर भागा। पानी की धारा को पार करता वह एक बाग़ के पास पहुँचा।
सूरज डूब रहा था। दूर से मालिक की पुकार उसे सुनाई पड़ी थी ‘पैट...पैट...पैट’ उसे लगा कि यह आवाज़ नहीं बल्कि उसके दिमाग़ में गूँजती प्रतिध्वनियाँ हैं। वह सारी ड्यूटी भूलकर संवेदना में डूब गया था, जिसने उसे संज्ञाहीन बना दिया था। एक भावुकता उसके अंदर जन्म ले रही है, जो ज़ंजीर की तरह उसके गर्दन के चारों तरफ़ अपनी गिरफ़्त मज़बूत करती उस कुतिया की ओर बरबस घसीट रही है और वह बेचारा निसहाय-सा यंत्र-चलित-सा उस ओर खिंचता चला जा रहा है, उसके बस में कुछ भी नहीं रह गया था। उसका बदन उसकी भावनाएँ, उसकी माँसपेशियाँ सब कुछ बेक़ाबू-सी हो गईं और वह उस मादा के समीप होता चला गया, तभी एक शोर उठा, लकड़ी उठाए लोग उसकी ओर दौड़े और उसे पानी की नहर की तरफ़ खदेड़ दिया।
पैट पहले चकराया, मगर धीरे-धीरे होश में आ गया और अब उसे मालिक का ध्यान आया और वह उसे ख़ोजने भागा। इधर-उधर चारों तरफ़ मालिक की बू सूँघता फिरा। वह जानता था मालिक मैदान की तरफ़ भी आया था, मगर वहाँ जाकर मालिक की ख़ुशबू अन्य ख़ुशबूओं में इतनी गड्ड-मड्ड हो गई कि पहचानना कठिन हो गया और वह आहत-सा सोचने लगा कि सचमुच मालिक उसे छोड़कर चले गए हैं। अब वह अकेला मालिक के बिना कैसे जिएगा? मालिक तो उसके लिए ख़ुदा था, उसका संसार, उसका जीवन अब तन्हा कैसे रहेगा? मालिक उसे ढूँढने आएँगे इस उम्मीद पर वह आसपास की सड़कों और गली कूचों का चक्कर लगाया करता था।
रात को हर तरह से निराश होकर वह नहर के पास आया। जहाँ उस मादा का घर था। एक रास्ता था मादा तक पहुँचने का जो छोटे-छोटे पत्थरों से घिरा था एक अजीब उत्साह से भर कर वह पत्थर हटाने लगा और एक आशा विश्वास में बदल रही थी कि वह बाग़ तक जाने का रास्ता बना लेगा। मगर बेकार! थककर वह वहीं लेट गया।
रात को पैट अपनी ही रोने की आवाज़ से चौंक कर उठ बैठा। पहले इधर-उधर कुछ सूँघा, फिर मैदान की तरफ़ चल पड़ा। गोश्त और ताज़ा रोटी की बू ने उसकी भूख बढ़ा दी। वह इधर-उधर खाने की तलाश में फिरने लगा, उसके मालिक की तरह के बहुत से लोग वहाँ थे। उसे एक आशा बँधी कि इन्हीं में से कोई उसे दोबारा रख लेगा शायद।
डरते-डरते वह नानबाई की दुकान की तरफ़ पहुँचा, ताज़ा ख़मीर की ख़ुशबू फैल रही थी, दुकान अभी-अभी खुली थी और तंदूर में गर्म-गर्म रोटियाँ लगनी आरंभ हुई थीं। “आ...आ...च च...आ” यह पुकार उसके लिए कितनी अजनबी थी। एक गर्म रोटी का टुकड़ा उसके आगे डाल दिया। पहले पैट झिझका फिर आगे बढ़ा, रोटी का टुकड़ा उठाया, दुम हिलाई। नानबाई ने हाथ की रोटियाँ दुकान पर रखीं और थोड़ा डरते हुए पैट को सहलाया, फिर गर्दन से पट्ट खोला। पैट को लगा, कैद से आज़ादी मिल गई। हर प्रकार की ज़िम्मेदारी का बोझ उसकी गर्दन से उतर गया है और वह दुम हिलाता नानबाई की ओर बढ़ा। इस बार एक ज़ोरदार लात ने उसका स्वागत किया। फिर वह नहर के पानी में हाथ धोने चला गया, दर्द की टीस के बावजूद उसकी आँखें अपने गले का पट्टा दुकान के दरवाज़े पर लटका देख रही थीं। यही दिन था जब उसकी ज़िंदगी में लात, मार की शुरुआत हुई।
***
अब वह पूर्ण रूप से समझ चुका था कि वह एक ऐसी दुनिया में आ गया था, जो उसके लिए नई है और जहाँ के लोग उसकी भावनाओं को नहीं समझ सकते हैं। आरंभ के दिन सख़्त थे, फिर उसे आदत पड़ गई कुछ दिनों बाद उसने कूड़े का ढेर भी ढूँढ़ लिया, जहाँ पर उसके खाने लायक हड्डी, चर्बी का टुकड़ा, खाल, मछली का सर या दूसरी चीज़ें जो सर्वदा उसके लिए पूर्ण रूप से नई थीं, मिल जाती थीं, वहाँ से खा-पीकर वह मैदान की ओर आता और क़स्साब के हाथों की ओर गौर से बैठा देखता रहता कि शायद उसे कोई छीछड़ा मिल जाए, मगर मज़ेदार कौर से पहले एक ज़ोरदार लात मिलती। मगर जब कभी उसे अपनी ज़िंदगी की कठोरता का अहसास जागता, मन रोने लगता और पुरानी गुज़री यादों में खो जाता और उन्हीं यादों से दोबारा जीने की ताक़त जमा करता था।
पैट भूखा रह सकता था, प्यासा रह सकता था, मगर बिना प्रेम के उससे जिया नहीं जाता था। यहाँ सारे दुख के बावजूद उसे सुख की कमी इतना दुख न पहुँचाती जितना प्रेम की कमी। वह लोगों का ध्यान अपनी इस भूख की तरफ़ खींच उन्हें बताना चाहता था कि वह आराधना और स्वामि-भक्ति से भरपूर है। बस, प्रेम के दो बोल के बदले वह जीवन भर ग़ुलामी करेगा, मगर उसकी यह चेष्टा लोगों में क्रोध का संचार करती और उनकी घृणा को बढ़ावा देती थी।
पैट नहर के किनारे हरियाली देखता-देखता सो गया। फिर किसी डरावने सपने को देखकर रोता हुआ उठ बैठा। पेट ख़ाली था। अतड़ियों में मरोड़ हो रही थी, अपनी काया को खींचता मैदान की तरफ़ ले गया, जहाँ से क़बाब की तेज़ ख़ुशबू उसकी भूख को बढ़ा रही थी।
***
कारें आ-जा रहीं थीं। एक कार धूल उड़ाती हुई आई और मैदान के पास रुक गई। उसमें से सूटेड-बूटेड एक साहब उतरा, पैट भाग कर पहुँचा। उसने हल्के से पैट का सर थपथपाया। वह उसका मालिक नहीं है। मालिक की बू वह ख़ूब अच्छी तरह पहचानता है। मगर यह भी कैसे मुमकिन हो सकता है कि कोई यूँ आ जाए और से प्यार से थपथपाए! पैट ने दुम हिलाई और संदेह भरी दृष्टि उस आदमी पर गाड़ दी। कहीं उसने धोखा तो नहीं खाया? शायद, गर्दन में पट्टा पड़े रहने के कारण ऐसा किया हो? मगर उसने फिर सर थपथपाया आगे बढ़ा फिर पलटा और उसके सर को सहलाया। यह सब कितना विचित्र था?
अब पैट पूर्ण रूप से शक़ में पड़ गया और उसके पीछे-पीछे चलने लगा, उसका आश्चर्य पल-पल बढ़ता ही जा रहा था। वह आदमी एक कमरे में घुसा, पैट इस कमरे को अच्छी तरह से पहचानता था, खाने की ख़ुशबू की लपटें निकल रही थीं। वह आदमी एक कुर्सी पर बैठ गया। उसका खाना आ गया। उसने रोटी का एक टुकड़ा दही में डुबो कर उसकी तरफ़ उछाला, पैट कौर खाकर उस आदमी को अपनी मटमैली आँखों से ताकता रहा, जिसमें आश्चर्य मिश्रित धन्यवाद था, उसे लगने लगा था कि वह सपना देख रहा है। कहीं यह संभव हो सकता है कि वह खाना खाए और वह भी बिना लात-घूसों के, यह मुमकिन हो सकता है? सचमुच उसने आज एक नया मालिक पा लिया है।
इतनी गर्मी के बावजूद वह आदमी बाहर निकला, बुर्ज़वाली गली की तरफ़ बढ़ा, फिर गली दर गली चक्कर लगाता रहा। पैट उसके पीछे दुम हिलाता चल रहा था। यहाँ तक कि दोनों आबादी से दूर निकल गए। खंडहर की दीवारों के पास पहुँच गए। उस दिन उसका मालिक भी तो यहीं आया था। शायद यह लोग भी मादा की ख़ुशबू सूँघते-सूँघते दूर निकल आते हैं। पैट बाहर ही उसकी प्रतीक्षा करने लगा, फिर वे दोनों मैदान की तरफ़ लौट आए।
उस आदमी ने फिर अपना हाथ पैट के सर पर रखा, फिर वह चक्कर लगाता कार में बैठ गया, पैट की हिम्मत न पड़ी कि वह भी अंदर जा कर बैठ जाता, वह सामने बैठा उदासी से उसे ताकता रहा। एकाएक कार स्टार्ट हुई और फ़र्राटे भरती धूल उड़ाती निकल गई। पैट बिना रुके उस मोटर के पीछे दौड़ने लगा। नहीं! नहीं! वह इस बार किसी क़ीमत पर इस आदमी को नहीं खोएगा। वह दौड़ने में बुरी तरह थक रहा था, दर्द की बेशुमार सुईयाँ बदन में चुभती महसूस कर रहा था। इसके बावजूद वह अपना सारा बल लगाकर कार तक पहुँचने की कोशिश कर रहा था।
कार आबादी से निकल वीराने में पहुँच गई थी, पैट कई बार कार तक पहुँचकर पीछे रह जाता था। वह उछल कूद कर रहा था, मगर कार उससे दुगने वेग से भाग रही थी। एक तो वह कार के समीप नहीं पहुँच पा रहा था, दूसरे थकन से अलग चूर हो रहा था।
एकदम से दौड़ते उसे महसूस हुआ कि उसकी माँसपेशियों में एक खिंचाव आ रहा है, पैट की अतड़ियाँ बाहर निकलने वाली हैं। अब वह आगे नहीं दौड़ सकता है। उसमें हिलने तक की ताक़त शेष नहीं रह गई है। इस सारी तलाश के बाद वह एकाएक सोचने लगा कि वह किसके पीछे भाग रहा था और जाना कहाँ चाह रहा था?
अब न पीछे लौटने की राह थी न आगे जाने की मंजिल! वह वहीं जम गया, वह बुरी तरह हाँफ रहा था। जुबान हलक से बाहर निकल आई थी आँखों के सामने काले-काले धब्बे छा रहे थे। सर झुकाए वह अपने को घसीटता सड़क से खेत की मेड़ की ओर लाया। अपना दुखता पेट गीली गर्म मिट्टी पर टिकाया, उसकी छठी ज्ञानेंद्री ने उसे बताया कि अब वह यहाँ से हिल नहीं सकता है। चक्कर से उसका सर घूम रहा था।
भावनाएँ और विचार धुँधले पड़ रहे थे। पेट में दर्द की टीसें बढ़ गई थीं और आँखों में दुख की चमक पैदा हो गई थी। उत्तेजना और व्याकुलता की तड़पन के बीच हाथ पैर शिथिल पड़ने लगे, ठंडे पसीने से शरीर भींग गया। एक आनंद भरा नशा पूरे शरीर में छाने लगा।
***
सूरज डूब रहा था। पैट के सर पर तीन भूखे कौवे मँडरा रहे थे। वह उसकी मौत की बू दूर से सूँघ कर यहाँ आए थे। उसमें से एक कौवा बड़ी सावधानी से नीचे उतरा। धीरे-धीरे पैट के पास आया, ताकि पूर्ण रूप से उसे विश्वास हो जाए कि पैट मर चुका है या नहीं! ध्यान से देखा, पैट अभी मरा न था। कौवा तेज़ी से ऊपर उड़ गया।
दोबारा वह तीनों कौवे नीचे आए और पैट की हरी मटमैली आँखों को खाने में व्यस्त हो गए।
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ye haalat uski us samay hoti, jab wo isi tarah ki hariyali ko dekhta jo uski ankhon mein thanDak bakhshti tab wo yadon ke qafile mein khoya zindagi ke nikat pahunch jata. magar aaj un yadon ki padchap itni tez itni vyakul thi ki use kudne, dauDne, uchhalne aur ghaas par lotne par majbur kar rahi thi. ye ichchha uski khanadani thi, kyonki uske baap dada skatlainD ke baDe baDe maidanon aur hari doob ke sang pal kar baDe hue the, magar is samay uska joD joD itna tuta hua tha ki uska hilDul pana mushkil tha. ek dardanak kamzori se bhara ahsas uske vajud par chhaya hua tha. sphurti, uttejna sab kuch kahin kahin ghayab ho gai thi. jabki uski zindagi mein bahut si zinmedariyan theen, jaise malik ke ghar ki rakhvali, kab kis par bhonkna, kab kis par pyaar darshana, malik ki ek avaz par chaukanna hokar unki marzi mutabik vyvahar karna, unke bachchon se khelna, samay par khana khana. pyaar jatate samay qadmon par lot kar pair chatna, ye thi uski qaid bhari masruf zindagi ki sari zinmedariyon se paripurn ek jhalki, magar ab wo har zinmedari se azad tha, saDak par phirne vala avara kutta.
ab to apna sara dhyaan sara bal is baat par kharch hota tha ki kahan se aur kaise wo khane ka ek tukDa hanphate, kanpte, larajte, Darte, uDane mein kamyab ho jaye. is chaturta bhari chori ke badle mein use maar aur gali khate sara din ririyate hue guzarna paDta tha. yahi ek hathiyar tha uske paas apne bachav mein. pahle wo chust, chalak, phurtila, saaf suthra aur niDar tha magar ab Darpok aur sust sa ho gaya tha. avaz to door ki baat hai yadi patta bhi phaDakta tha to wo kaanp jata tha. kabhi kabhi wo apni hi avaz se bhaybhit ho jata tha.
alasya mein Duba wo ek gandgi ka pot tha jiska badan kharishazda tha. uske badan mein to itni taqat bhi nahin rah gai thi ki wo kilon ko marta ya badan ko chaat chaat kar saaf suthra banata. usko is bhaav ne buri tarah daboch liya tha ki wo ek kuDadan hai, jismen gandgi uupar tak bhar gai hai. isi ahsas ne use sust bana diya tha.
jab wo is nark mein aaya tha pura jaDa guzar gaya tha. garmi shabab par thi, magar abhi tak use bhar pet khana nasib nahin hua tha na hi wo chain ki neend so paya tha. uski sanvednaon aur kaam vasana ka jvaar kab ka shaant ho chuka tha. koi to aisa na tha jo pyaar se use thapthapata, uske sar ko sahlata aisa koi insaan use nahin mila, jo uski ankhon mein jhankakar uske dukh ka andaza lagata. yahan par adhiktar kaam karne vale laDke apne malikon jaise hi the. magar uska apna malik in sabse alag tha. wo uske dukh, dard ko paisa samajhte the.
usko jo sugandh adhik vykul karti thi, wo thi doodh ki kheer ki. baDe se bartan mein bhari kheer use bachpan ke us daur mein le jati thi, jab maan ke stnon se doodh ki bunden jhalakti theen aur wo ek aramdeh garmahat mein Dubne lagta, jaise wo ek chhota sa pilla ho aur maan ke stnon ka paan kar raha ho aur maan ki lambi mazbut zuban uske badan ko chaat chaat kar saaf kar rahi ho. maan ke badan se uthti vishesh khushbu aur saath doodh pite anya bhai bahnon ke badan ki garmi use ek ajib tarah se bechain karne lagi. phir use hara laun yaad aaya, jahan wo malik ke saath khelta tha, phir unke beech malik ka beta aa gaya jo uske kanon, uske balon se bhare badan se khelta aur bhonkta hua uske pichhe bhagta, uske kapDe danton se pakaDkar khinchta tha. malik ke hathon se jo usne ‘shugar kyoob’ khaye, kaisa mitha pyaar tha wo, kaise bhool payega wo ye sab?
dhire dhire sab kuch badla, maan use chhoDkar chali gai, bhai bahan kahin chale ge. ab wo tha aur malik parivar, us parivar ke sare sadasyon ki wo padchap pahchanta tha. us ghar mein hone vali har sarsarahat se vaqif tha, pakvanon ki khushbu sunghta wo chakkar katta tha, malik ke mana karne par bhi malkin ek kaur uski taraf uchhaal kar deti thi. is beech naukar ki avaz gunjti “pait. . . pait. . . pait. . . ” uska khana uske lakDi ke darvaze ke samne rakha hua milta tha.
***
kaam vasana ki antrang masti ne hi pait ki ye durdasha ki thi, kyonki malik ki ijazat na thi ki wo ghar se bahar nikle aur kutiyon ke pichhe ghume. achanak ek din do mehman aaye, jinhen pait pahchanta tha. sab kaar mein baith ge. wo patjhaD ka mausam tha, isse pahle bhi wo kai baar havakhori ke liye ja chuka tha. magar aaj ka din ajib tha. aaj wo uttejit aur mast tha. kuch ghanton ke baad wo isi maidan ke paas aakar ruke. sare log kaar se niche utre aur burj vali gali ki or muD ge, wo bhi saath tha vahan par. use mada ki bu mahsus hui. use is khushbu ki talash thi. ekdam se wo divana sa ho gaya, sab kuch bhulkar wo usi bu ki or bhaga. pani ki dhara ko paar karta wo ek baagh ke paas pahuncha.
suraj Doob raha tha. door se malik ki pukar use sunai paDi thi ‘pait. . . pait. . . pait’ use laga ki ye avaz nahin balki uske dimagh mein gunjti prtidhvaniyan hain. wo sari Dyuti bhulkar sanvedna mein Doob gaya tha, jisne use sangyahin bana diya tha. ek bhavukta uske andar janm le rahi hai, jo zanjir ki tarah uske gardan ke charon taraf apni giraft mazbut karti us kutiya ki or barbas ghasit rahi hai aur wo bechara nishay sa yantr chalit sa us or khinchta chala ja raha hai, uske bas mein kuch bhi nahin rah gaya tha. uska badan uski bhavnayen, uski mansapeshiyan sab kuch beqabu si ho gain aur wo us mada ke samip hota chala gaya, tabhi ek shor utha, lakDi uthaye log uski or dauDe aur use pani ki nahr ki taraf khadeD diya.
pait pahle chakraya, magar dhire dhire hosh mein aa gaya aur ab use malik ka dhyaan aaya aur wo use khojne bhaga. idhar udhar charon taraf malik ki bu sunghta phira. wo janta tha malik maidan ki taraf bhi aaya tha, magar vahan jakar malik ki khushbu anya khushbuon mein itni gaDD maDD ho gai ki pahchanna kathin ho gaya aur wo aahat sa sochne laga ki sachmuch malik use chhoDkar chale ge hain. ab wo akela malik ke bina kaise jiyega? malik to uske liye khuda tha, uska sansar, uska jivan ab tanha kaise rahega? malik use DhunDhne ayenge is ummid par wo asapas ki saDkon aur gali kuchon ka chakkar lagaya karta tha.
raat ko har tarah se nirash hokar wo nahr ke paas aaya. jahan us mada ka ghar tha. ek rasta tha mada tak pahunchne ka jo chhote chhote patthron se ghira tha ek ajib utsaah se bhar kar wo patthar hatane laga aur ek aasha vishvas mein badal rahi thi ki wo baag tak jane ka rasta bana. lega magar bekar! thakkar wo vahin let gaya.
raat ko pait apni hi rone ki avaz se chaunk kar uth baitha. pahle idhar udhar kuch sungha, phir maidan ki taraf chal paDa. gosht aur taza roti ki bu ne uski bhookh baDha di. wo idhar udhar khane ki talash mein phirne laga, uske malik ki tarah ke bahut se log vahan the. use ek aasha bandhi ki inhin mein se koi use dobara rakh lega shayad.
Darte Darte wo nanbai ki dukan ki taraf pahuncha, taza khamir ki khushbu phail rahi thi, dukan abhi abhi khuli thi aur tandur mein garm garm rotiyan lagni arambh hui theen. “a. . . aa. . . cha cha. . . aa” ye pukar uske liye kitni ajnabi thi. ek garm roti ka tukDa uske aage Daal diya. pahle pait jhijhka phir aage baDha, roti ka tukDa uthaya, dum hilai. nanbai ne haath ki rotiyan dukan par rakhin aur thoDa Darte hue pait ko sahlaya, phir gardan se patt khola. pait ko laga, kaid se azadi mil gai. har prakar ki zinmedari ka bojh uski gardan se utar gaya hai aur wo dum hilata nanbai ki or baDha. is baar ek zordar laat ne uska svagat kiya. phir wo nahr ke pani mein haath dhone chala gaya, dard ki tees ke bavjud uski ankhen apne gale ka patta dukan ke darvaze par latka dekh rahi theen. yahi din tha jab uski zindagi mein laat, maar ki shuruat hui.
***
ab wo poorn roop se samajh chuka tha ki wo ek aisi duniya mein aa gaya tha, jo uske liye nai hai aur jahan ke log uski bhavnaon ko nahin samajh sakte hain. arambh ke din sakht the, phir use aadat paD gai kuch dinon baad usne kuDe ka Dher bhi DhoonDh liya, jahan par uske khane layak haDDi, charbi ka tukDa, khaal, machhli ka sar ya dusri chizen jo sarvada uske liye poorn roop se nai theen, mil jati theen, vahan se kha pikar wo maidan ki or aata aur qassab ke hathon ki or gaur se baitha dekhta rahta ki shayad use koi chhichhDa mil jaye, magar mazedar kaur se pahle ek zordar laat milti. magar jab kabhi use apni zindagi ki kathorta ka ahsas jagata, man rone lagta aur purani guzri yadon mein kho jata aur unhin yadon se dobara jine ki taqat jama karta tha.
pait bhukha rah sakta tha, pyasa rah sakta tha, magar bina prem ke usse jiya nahin jata tha. yahan sare dukh ke bavjud use sukh ki kami itna dukh na pahunchati jitna prem ki kami. wo logon ka dhyaan apni is bhookh ki taraf kheench unhen batana chahta tha ki wo aradhana aur svami bhakti se bharpur hai. bas, prem ke do bol ke badle wo jivan bhar ghulami karega, magar uski ye cheshta logon mein krodh ka sanchar karti aur unki ghrina ko baDhava deti thi.
pait nahr ke kinare hariyali dekhta dekhta so gaya. phir kisi Daravne sapne ko dekhkar rota hua uth baitha. pet khali tha. ataDiyon mein maroD ho rahi thi, apni kaya ko khinchta maidan ki taraf le gaya, jahan se qabab ki tez khushbu uski bhookh ko baDha rahi thi.
***
karen aa ja rahin theen. ek kaar dhool uDati hui aai aur maidan ke paas ruk gai. usmen se suteD buteD ek sahab utra, pait bhaag kar pahuncha. usne halke se pait ka sar thapthapaya. wo uska malik nahin hai. malik ki bu wo khoob achchhi tarah pahchanta hai. magar ye bhi kaise mumkin ho sakta hai ki koi yoon aa jaye aur se pyaar se thapathpaye! pait ne dum hilai aur sandeh bhari drishti us adami par gaaD di. kahin usne dhokha to nahin khaya? shayad, gardan mein patta paDe rahne ke karan aisa kiya ho? magar usne phir sar thapthapaya aage baDha phir palta aur uske sar ko sahlaya. ye sab kitna vichitr tha?
ab pait poorn roop se shaq mein paD gaya aur uske pichhe pichhe chalne laga, uska ashcharya pal pal baDhta hi ja raha tha. wo adami ek kamre mein ghusa, rahi theen. wo adami ek kursi par baith gaya. uska khana aa gaya. usne roti pait is kamre ko achchhi tarah se pahchanta tha, khane ki khushbu ki lapten nikal ka ek tukDa dahi mein Dubo kar uski taraf uchhala, pait kaur khakar us adami ko apni matmaili ankhon se takta raha, jismen ashcharya mishrit dhanyavad tha, use lagne laga tha ki wo sapna dekh raha hai. kahin ye sambhav ho sakta hai ki wo khana khaye aur wo bhi bina laat ghuson ke, ye mumkin ho sakta hai? sachmuch usne aaj ek naya malik pa liya hai.
itni garmi ke bavjud wo adami bahar nikla, burjvali gali ki taraf baDha, phir gali dar gali chakkar lagata raha. pait uske pichhe dum hilata chal raha tha. yahan tak ki donon abadi se door nikal ge. khanDhar ki divaron ke paas pahunch ge. us din uska malik bhi to yahin aaya tha. shayad ye log bhi mada ki khushbu sunghte sunghte door nikal aate hain. pait bahar hi uski prtiksha karne laga, phir ve donon maidan ki taraf laut aaye.
us adami ne phir apna haath pait ke sar par rakha, phir wo chakkar lagata kaar mein baith gaya, pait ki himmat na paDi ki wo bhi andar ja kar baith jata, wo samne baitha udasi se use takta raha. ekayek kaar staart hui aur farrate bharti dhool uDati nikal gai. pait bina ruke us motar ke pichhe dauDne laga. nahin! nahin! wo is baar kisi qimat par is adami ko nahin khoega. wo dauDne mein buri tarah thak raha tha, dard ki beshumar suiyan badan mein chubhti mahsus kar raha tha. iske bavjud wo apna sara bal lagakar kaar tak pahunchne ki koshish kar raha tha.
kaar abadi se nikal virane mein pahunch gai thi, pait kai baar kaar tak pahunchakar pichhe rah jata tha. wo uchhal kood kar raha tha, magar kaar usse dugne veg se bhaag rahi thi. ek to wo kaar ke samip nahin pahunch pa raha tha, dusre thakan se alag choor ho raha tha.
ekdam se dauDte use mahsus hua ki uski mansapeshiyon mein ek khinchav aa raha hai, pait ki ataDiyan bahar nikalne vali hain. ab wo aage nahin dauD sakta hai. usmen hilne tak ki taqat shesh nahin rah gai hai. is sari talash ke baad wo ekayek sochne laga ki wo kiske pichhe bhaag raha tha aur jana kahan chaah raha tha?
ab na pichhe lautne ki raah thi na aage jane ki manjil! wo vahin jam gaya, wo buri tarah haanph raha tha. juban halak se bahar nikal aai thi ankhon ke samne kale kale dhabbe chha rahe the. sar jhukaye wo apne ko ghasitta saDak se khet ki meD ki or laya. apna dukhta pet gili garm mitti par tikaya, uski chhathi gyanendri ne use bataya ki ab wo yahan se hil nahin sakta hai. chakkar se uska sar ghoom raha tha.
bhavnayen aur vichar dhundhale paD rahe the. pet mein dard ki tisen baDh gai theen aur ankhon mein dukh ki chamak paida ho gai thi. uttejna aur vyakulta ki taDpan ke beech haath pair shithil paDne lage, thanDe pasine se sharir bheeng gaya. ek anand bhara nasha pure sharir mein chhane laga.
***
suraj Doob raha tha. pait ke sar par teen bhukhe kauve manDara rahe the. wo uski maut ki bu door se soongh kar yahan aaye the. usmen se ek kauva baDi savadhani se niche utra. dhire dhire pait ke paas aaya, taki poorn roop se use vishvas ho jaye ki pait mar chuka hai ya nahin! dhyaan se dekha, pait abhi mara na tha. kauva tezi se uupar uD gaya.
dobara wo tinon kauve niche aaye aur pait ki hari matmaili ankhon ko khane mein vyast ho ge.
nanbai, attari, qassabi ki chhoti moti dukanen, do kahvekhane, ek heyar sailun, dusri prakar ki anya dukanen zindagi ki prarambhik avashyaktaon ki purti aur bhookh ko shaant karne ka srot banin, maidan baramin ke charon taraf bikhri, ek mamuli se bazar ka drishya utpann kar rahi theen.
maidan aur maidan ke rahne vale is tapti dopahar mein suraj ki garmi se qabab hue, dopahar ke Dhalte aur shaam ki narm thanDi bayar ke saath raat ke pasarne ki aarzu karte the. adami, janvar, peD, dukanen sabhi is garmi se adhamre alsaye se paDe the. sara kaam thapp paDa hua tha. asman par dhool khaaq ka ghubar jama tha, jo trafik ke dhuen se beech mein aur gahra ho jata tha.
maidan ke ek taraf chinar ke purane peDon ki kataren thi, jinke chauDe tane andar se khokhle hokar teDe meDhe ho ge the aur aaDi tirchhi unki shakhayen phir bhi pattiyon se bhari hui thi. inhin peDon ki chhaya mein ek takht paDa tha, jis par do laDke kaddu ke namkin beej ka tokra aur kheer ka patila liye baithe hote. theek usi ke samne kahvekhane se nikalta ganda kala pani jo kuDe ki adhikta se ruk ruk kar bahta tha, jari rahta tha.
keval ek imarat yahan par aisi thi, jo logon ka dhyaan apni or barbas hi akarshit kar leti thi, wo thi baramin maidan ka prasiddh burj jiska aadha hissa chitkha hua tha aur jagah jagah se uski iinten nikli hui theen. inhin gire tute iinton ke surakhon mein chiDiyon ne ghonsle bana liye the aur is shiddat ki garmi mein wo apne ghonslon mein baithi haanph rahi thi. is garm khamosh dopahar ki nistabdhata ko kutte ki rone ki avaz baar baar toD rahi thi.
ye skatlainDi nasl ka kutta tha, jiske thuthan ka rang sukhi jali ghaas jaisa tha. pair par kale kale beshumar til the. jaise wo abhi kichaD bhari ghaas par laut kar aaya ho. khaDe balon ki dum, gol kaan, us par ghunghrale uljhen uljhe baal jinke beech se jhankti do ankhen jinki roshni mein manav ki chamak dikhti thi aur kabhi kabhi usmen manav aatma jhankti nazar aati thi. jaise ki aadhi raat zindagi Dhal gai ho aur usne beshumar anubhvon ke paath paDha diye hon. ek asimit bhavnaon ka samudr uski ankhon mein mauzen marta nazar aata tha jiski taDpan mein ek paigham chhupa hua tha jise paDh sakna saaf saaf ghair mumkin sa tha. jaise ki wo kahin putaliyon ke beech kisi karanvash phansakar rah gaya tha. na use vastav mein chamak ka naam de sakte the, na rang ka. vahan kuch aur hi nazar aata tha, jo nazar aata tha wo vishvas ke qabil na tha. jaise kisi ghayal hirni ki fariyad ho. do matmaili ankhon mein sare jahan ka dard simat aaya tha. ye ankhen kisi insani ankhon ki tarah kisi ki prtiksha mein, thaki, nazar aati theen. shayad, ye intzaar kisi beghar baar ke kutte ki ankhon mein hi nazar aa sakta tha.
main aksar sochta hoon ki uski yachana bhari ankhon ki pararthna ka dardanak bhaav kisi bhi grahak ke samajh mein nahin aa sakta tha. nanbai ki dukan ke aage uska naukar use laat jamata aur qassab ka chhokra us par patthar phenkta tha. agar in donon se bachkar kisi motar ke niche panah leta to vahan par kildar shofar ke jute uska jina haram kar dete the. phir kheer bechne vale laDke ka bhi karttavya sa ban jata tha ki wo bhi use pareshan karke maza leta tha. patthar jab laDka uske pet par khinchkar marta aur wo kikiyata hua bhagta to us laDke ki prasannata se Dubi khilkhilahat sunai paDti. aur zor se wo phabti kasta “sahab ka kutta!”
vahan ke sab logon ne jaise use satane ki man mein thaan rakhi thi ki jaise wo unka koi pahle janm ka dushman ho, jisse unhen chun chun kar hisab chukana ho. khaskar tab, jab us janvar se dharm bhi ghrina karna sikhata ho, tab to use marana aur satana punya ka kaam ho jata hai. us din jab kheer bechne vale laDke ne use bahut sataya to wo dukhi hokar baDi lachari se burj ki or jane vali gali ki taraf bhaga, khali pet liye baDi mushkil se apne ko ghasitta hua bahte pani ke paas gaya aur uski kuch duri par aage ke pairon par sar rakhkar let gaya aur udaas ankhon se samne haba se hilti ghaas ko takne laga. thanDak pakar uske badan mein ek aramdeh sansanahat phailne lagi aur wo sustane laga. ghure par paDe kuDe vibhinn khadya padarthon ki mili juli khushbu uske purane dinon ki yaad taza kar rahe the.
ye haalat uski us samay hoti, jab wo isi tarah ki hariyali ko dekhta jo uski ankhon mein thanDak bakhshti tab wo yadon ke qafile mein khoya zindagi ke nikat pahunch jata. magar aaj un yadon ki padchap itni tez itni vyakul thi ki use kudne, dauDne, uchhalne aur ghaas par lotne par majbur kar rahi thi. ye ichchha uski khanadani thi, kyonki uske baap dada skatlainD ke baDe baDe maidanon aur hari doob ke sang pal kar baDe hue the, magar is samay uska joD joD itna tuta hua tha ki uska hilDul pana mushkil tha. ek dardanak kamzori se bhara ahsas uske vajud par chhaya hua tha. sphurti, uttejna sab kuch kahin kahin ghayab ho gai thi. jabki uski zindagi mein bahut si zinmedariyan theen, jaise malik ke ghar ki rakhvali, kab kis par bhonkna, kab kis par pyaar darshana, malik ki ek avaz par chaukanna hokar unki marzi mutabik vyvahar karna, unke bachchon se khelna, samay par khana khana. pyaar jatate samay qadmon par lot kar pair chatna, ye thi uski qaid bhari masruf zindagi ki sari zinmedariyon se paripurn ek jhalki, magar ab wo har zinmedari se azad tha, saDak par phirne vala avara kutta.
ab to apna sara dhyaan sara bal is baat par kharch hota tha ki kahan se aur kaise wo khane ka ek tukDa hanphate, kanpte, larajte, Darte, uDane mein kamyab ho jaye. is chaturta bhari chori ke badle mein use maar aur gali khate sara din ririyate hue guzarna paDta tha. yahi ek hathiyar tha uske paas apne bachav mein. pahle wo chust, chalak, phurtila, saaf suthra aur niDar tha magar ab Darpok aur sust sa ho gaya tha. avaz to door ki baat hai yadi patta bhi phaDakta tha to wo kaanp jata tha. kabhi kabhi wo apni hi avaz se bhaybhit ho jata tha.
alasya mein Duba wo ek gandgi ka pot tha jiska badan kharishazda tha. uske badan mein to itni taqat bhi nahin rah gai thi ki wo kilon ko marta ya badan ko chaat chaat kar saaf suthra banata. usko is bhaav ne buri tarah daboch liya tha ki wo ek kuDadan hai, jismen gandgi uupar tak bhar gai hai. isi ahsas ne use sust bana diya tha.
jab wo is nark mein aaya tha pura jaDa guzar gaya tha. garmi shabab par thi, magar abhi tak use bhar pet khana nasib nahin hua tha na hi wo chain ki neend so paya tha. uski sanvednaon aur kaam vasana ka jvaar kab ka shaant ho chuka tha. koi to aisa na tha jo pyaar se use thapthapata, uske sar ko sahlata aisa koi insaan use nahin mila, jo uski ankhon mein jhankakar uske dukh ka andaza lagata. yahan par adhiktar kaam karne vale laDke apne malikon jaise hi the. magar uska apna malik in sabse alag tha. wo uske dukh, dard ko paisa samajhte the.
usko jo sugandh adhik vykul karti thi, wo thi doodh ki kheer ki. baDe se bartan mein bhari kheer use bachpan ke us daur mein le jati thi, jab maan ke stnon se doodh ki bunden jhalakti theen aur wo ek aramdeh garmahat mein Dubne lagta, jaise wo ek chhota sa pilla ho aur maan ke stnon ka paan kar raha ho aur maan ki lambi mazbut zuban uske badan ko chaat chaat kar saaf kar rahi ho. maan ke badan se uthti vishesh khushbu aur saath doodh pite anya bhai bahnon ke badan ki garmi use ek ajib tarah se bechain karne lagi. phir use hara laun yaad aaya, jahan wo malik ke saath khelta tha, phir unke beech malik ka beta aa gaya jo uske kanon, uske balon se bhare badan se khelta aur bhonkta hua uske pichhe bhagta, uske kapDe danton se pakaDkar khinchta tha. malik ke hathon se jo usne ‘shugar kyoob’ khaye, kaisa mitha pyaar tha wo, kaise bhool payega wo ye sab?
dhire dhire sab kuch badla, maan use chhoDkar chali gai, bhai bahan kahin chale ge. ab wo tha aur malik parivar, us parivar ke sare sadasyon ki wo padchap pahchanta tha. us ghar mein hone vali har sarsarahat se vaqif tha, pakvanon ki khushbu sunghta wo chakkar katta tha, malik ke mana karne par bhi malkin ek kaur uski taraf uchhaal kar deti thi. is beech naukar ki avaz gunjti “pait. . . pait. . . pait. . . ” uska khana uske lakDi ke darvaze ke samne rakha hua milta tha.
***
kaam vasana ki antrang masti ne hi pait ki ye durdasha ki thi, kyonki malik ki ijazat na thi ki wo ghar se bahar nikle aur kutiyon ke pichhe ghume. achanak ek din do mehman aaye, jinhen pait pahchanta tha. sab kaar mein baith ge. wo patjhaD ka mausam tha, isse pahle bhi wo kai baar havakhori ke liye ja chuka tha. magar aaj ka din ajib tha. aaj wo uttejit aur mast tha. kuch ghanton ke baad wo isi maidan ke paas aakar ruke. sare log kaar se niche utre aur burj vali gali ki or muD ge, wo bhi saath tha vahan par. use mada ki bu mahsus hui. use is khushbu ki talash thi. ekdam se wo divana sa ho gaya, sab kuch bhulkar wo usi bu ki or bhaga. pani ki dhara ko paar karta wo ek baagh ke paas pahuncha.
suraj Doob raha tha. door se malik ki pukar use sunai paDi thi ‘pait. . . pait. . . pait’ use laga ki ye avaz nahin balki uske dimagh mein gunjti prtidhvaniyan hain. wo sari Dyuti bhulkar sanvedna mein Doob gaya tha, jisne use sangyahin bana diya tha. ek bhavukta uske andar janm le rahi hai, jo zanjir ki tarah uske gardan ke charon taraf apni giraft mazbut karti us kutiya ki or barbas ghasit rahi hai aur wo bechara nishay sa yantr chalit sa us or khinchta chala ja raha hai, uske bas mein kuch bhi nahin rah gaya tha. uska badan uski bhavnayen, uski mansapeshiyan sab kuch beqabu si ho gain aur wo us mada ke samip hota chala gaya, tabhi ek shor utha, lakDi uthaye log uski or dauDe aur use pani ki nahr ki taraf khadeD diya.
pait pahle chakraya, magar dhire dhire hosh mein aa gaya aur ab use malik ka dhyaan aaya aur wo use khojne bhaga. idhar udhar charon taraf malik ki bu sunghta phira. wo janta tha malik maidan ki taraf bhi aaya tha, magar vahan jakar malik ki khushbu anya khushbuon mein itni gaDD maDD ho gai ki pahchanna kathin ho gaya aur wo aahat sa sochne laga ki sachmuch malik use chhoDkar chale ge hain. ab wo akela malik ke bina kaise jiyega? malik to uske liye khuda tha, uska sansar, uska jivan ab tanha kaise rahega? malik use DhunDhne ayenge is ummid par wo asapas ki saDkon aur gali kuchon ka chakkar lagaya karta tha.
raat ko har tarah se nirash hokar wo nahr ke paas aaya. jahan us mada ka ghar tha. ek rasta tha mada tak pahunchne ka jo chhote chhote patthron se ghira tha ek ajib utsaah se bhar kar wo patthar hatane laga aur ek aasha vishvas mein badal rahi thi ki wo baag tak jane ka rasta bana. lega magar bekar! thakkar wo vahin let gaya.
raat ko pait apni hi rone ki avaz se chaunk kar uth baitha. pahle idhar udhar kuch sungha, phir maidan ki taraf chal paDa. gosht aur taza roti ki bu ne uski bhookh baDha di. wo idhar udhar khane ki talash mein phirne laga, uske malik ki tarah ke bahut se log vahan the. use ek aasha bandhi ki inhin mein se koi use dobara rakh lega shayad.
Darte Darte wo nanbai ki dukan ki taraf pahuncha, taza khamir ki khushbu phail rahi thi, dukan abhi abhi khuli thi aur tandur mein garm garm rotiyan lagni arambh hui theen. “a. . . aa. . . cha cha. . . aa” ye pukar uske liye kitni ajnabi thi. ek garm roti ka tukDa uske aage Daal diya. pahle pait jhijhka phir aage baDha, roti ka tukDa uthaya, dum hilai. nanbai ne haath ki rotiyan dukan par rakhin aur thoDa Darte hue pait ko sahlaya, phir gardan se patt khola. pait ko laga, kaid se azadi mil gai. har prakar ki zinmedari ka bojh uski gardan se utar gaya hai aur wo dum hilata nanbai ki or baDha. is baar ek zordar laat ne uska svagat kiya. phir wo nahr ke pani mein haath dhone chala gaya, dard ki tees ke bavjud uski ankhen apne gale ka patta dukan ke darvaze par latka dekh rahi theen. yahi din tha jab uski zindagi mein laat, maar ki shuruat hui.
***
ab wo poorn roop se samajh chuka tha ki wo ek aisi duniya mein aa gaya tha, jo uske liye nai hai aur jahan ke log uski bhavnaon ko nahin samajh sakte hain. arambh ke din sakht the, phir use aadat paD gai kuch dinon baad usne kuDe ka Dher bhi DhoonDh liya, jahan par uske khane layak haDDi, charbi ka tukDa, khaal, machhli ka sar ya dusri chizen jo sarvada uske liye poorn roop se nai theen, mil jati theen, vahan se kha pikar wo maidan ki or aata aur qassab ke hathon ki or gaur se baitha dekhta rahta ki shayad use koi chhichhDa mil jaye, magar mazedar kaur se pahle ek zordar laat milti. magar jab kabhi use apni zindagi ki kathorta ka ahsas jagata, man rone lagta aur purani guzri yadon mein kho jata aur unhin yadon se dobara jine ki taqat jama karta tha.
pait bhukha rah sakta tha, pyasa rah sakta tha, magar bina prem ke usse jiya nahin jata tha. yahan sare dukh ke bavjud use sukh ki kami itna dukh na pahunchati jitna prem ki kami. wo logon ka dhyaan apni is bhookh ki taraf kheench unhen batana chahta tha ki wo aradhana aur svami bhakti se bharpur hai. bas, prem ke do bol ke badle wo jivan bhar ghulami karega, magar uski ye cheshta logon mein krodh ka sanchar karti aur unki ghrina ko baDhava deti thi.
pait nahr ke kinare hariyali dekhta dekhta so gaya. phir kisi Daravne sapne ko dekhkar rota hua uth baitha. pet khali tha. ataDiyon mein maroD ho rahi thi, apni kaya ko khinchta maidan ki taraf le gaya, jahan se qabab ki tez khushbu uski bhookh ko baDha rahi thi.
***
karen aa ja rahin theen. ek kaar dhool uDati hui aai aur maidan ke paas ruk gai. usmen se suteD buteD ek sahab utra, pait bhaag kar pahuncha. usne halke se pait ka sar thapthapaya. wo uska malik nahin hai. malik ki bu wo khoob achchhi tarah pahchanta hai. magar ye bhi kaise mumkin ho sakta hai ki koi yoon aa jaye aur se pyaar se thapathpaye! pait ne dum hilai aur sandeh bhari drishti us adami par gaaD di. kahin usne dhokha to nahin khaya? shayad, gardan mein patta paDe rahne ke karan aisa kiya ho? magar usne phir sar thapthapaya aage baDha phir palta aur uske sar ko sahlaya. ye sab kitna vichitr tha?
ab pait poorn roop se shaq mein paD gaya aur uske pichhe pichhe chalne laga, uska ashcharya pal pal baDhta hi ja raha tha. wo adami ek kamre mein ghusa, rahi theen. wo adami ek kursi par baith gaya. uska khana aa gaya. usne roti pait is kamre ko achchhi tarah se pahchanta tha, khane ki khushbu ki lapten nikal ka ek tukDa dahi mein Dubo kar uski taraf uchhala, pait kaur khakar us adami ko apni matmaili ankhon se takta raha, jismen ashcharya mishrit dhanyavad tha, use lagne laga tha ki wo sapna dekh raha hai. kahin ye sambhav ho sakta hai ki wo khana khaye aur wo bhi bina laat ghuson ke, ye mumkin ho sakta hai? sachmuch usne aaj ek naya malik pa liya hai.
itni garmi ke bavjud wo adami bahar nikla, burjvali gali ki taraf baDha, phir gali dar gali chakkar lagata raha. pait uske pichhe dum hilata chal raha tha. yahan tak ki donon abadi se door nikal ge. khanDhar ki divaron ke paas pahunch ge. us din uska malik bhi to yahin aaya tha. shayad ye log bhi mada ki khushbu sunghte sunghte door nikal aate hain. pait bahar hi uski prtiksha karne laga, phir ve donon maidan ki taraf laut aaye.
us adami ne phir apna haath pait ke sar par rakha, phir wo chakkar lagata kaar mein baith gaya, pait ki himmat na paDi ki wo bhi andar ja kar baith jata, wo samne baitha udasi se use takta raha. ekayek kaar staart hui aur farrate bharti dhool uDati nikal gai. pait bina ruke us motar ke pichhe dauDne laga. nahin! nahin! wo is baar kisi qimat par is adami ko nahin khoega. wo dauDne mein buri tarah thak raha tha, dard ki beshumar suiyan badan mein chubhti mahsus kar raha tha. iske bavjud wo apna sara bal lagakar kaar tak pahunchne ki koshish kar raha tha.
kaar abadi se nikal virane mein pahunch gai thi, pait kai baar kaar tak pahunchakar pichhe rah jata tha. wo uchhal kood kar raha tha, magar kaar usse dugne veg se bhaag rahi thi. ek to wo kaar ke samip nahin pahunch pa raha tha, dusre thakan se alag choor ho raha tha.
ekdam se dauDte use mahsus hua ki uski mansapeshiyon mein ek khinchav aa raha hai, pait ki ataDiyan bahar nikalne vali hain. ab wo aage nahin dauD sakta hai. usmen hilne tak ki taqat shesh nahin rah gai hai. is sari talash ke baad wo ekayek sochne laga ki wo kiske pichhe bhaag raha tha aur jana kahan chaah raha tha?
ab na pichhe lautne ki raah thi na aage jane ki manjil! wo vahin jam gaya, wo buri tarah haanph raha tha. juban halak se bahar nikal aai thi ankhon ke samne kale kale dhabbe chha rahe the. sar jhukaye wo apne ko ghasitta saDak se khet ki meD ki or laya. apna dukhta pet gili garm mitti par tikaya, uski chhathi gyanendri ne use bataya ki ab wo yahan se hil nahin sakta hai. chakkar se uska sar ghoom raha tha.
bhavnayen aur vichar dhundhale paD rahe the. pet mein dard ki tisen baDh gai theen aur ankhon mein dukh ki chamak paida ho gai thi. uttejna aur vyakulta ki taDpan ke beech haath pair shithil paDne lage, thanDe pasine se sharir bheeng gaya. ek anand bhara nasha pure sharir mein chhane laga.
***
suraj Doob raha tha. pait ke sar par teen bhukhe kauve manDara rahe the. wo uski maut ki bu door se soongh kar yahan aaye the. usmen se ek kauva baDi savadhani se niche utra. dhire dhire pait ke paas aaya, taki poorn roop se use vishvas ho jaye ki pait mar chuka hai ya nahin! dhyaan se dekha, pait abhi mara na tha. kauva tezi se uupar uD gaya.
dobara wo tinon kauve niche aaye aur pait ki hari matmaili ankhon ko khane mein vyast ho ge.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 289)
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