शकलदीप बाबू कहीं एक घंटे बाद वापस लौटे। घर में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने ओसारे के कमरे में झाँका, कोई भी मुवक्किल नहीं था और मुहर्रिर साहब भी ग़ायब थे। वह भीतर चले गए और अपने कमरे के सामने ओसारे में खड़े होकर बंदर की भाँति आँखे मलका-मलकाकर उन्होंने रसोईघर की ओर देखा। उनकी पत्नी जमुना, चौके के पास पीढ़े पर बैठी होंठ-पर-होंठ दबाए मुँह फुलाए तरकारी काट रही थी। वह मंद-मंद मुस्कुराते हुए अपनी पत्नी के पास चले गए। उनके मुख पर असाधारण संतोष, विश्वास एवं उत्साह का भाव अंकित था। एक घंटे पूर्व ऐसी बात नहीं थी।
बात इस प्रकार आरंभ हुई। शकलदीप बाबू सबेरे दातौन-कुल्ला करने के बाद अपने कमरे में बैठे ही थे कि जमुना ने एक तश्तरी में दो जलेबियाँ नाश्ते के लिए सामने रख दीं। वह बिना कुछ बोले जलपान करने लगे। जमुना पहले तो एक-आध मिनट चुप रही। फिर पति के मुख की ओर उड़ती नज़र से देखने के बाद उसने बात छेड़ी, “दो-तीन दिन से बबुआ बहुत उदास रहते हैं।”
“क्या?” सिर उठाकर शकलदीप बाबू ने पूछा और उनकी भौंहे तन गईं। जमुना ने व्यर्थ में मुस्कुराते हुए कहा, “कल बोले, इस साल डिप्टी-कलक्टरी की बहुत-सी जगहें हैं, पर बाबूजी से कहते डर लगता है। कह रहे थे, दो-चार दिन में फ़ीस भेजने की तारीख़ बीत जाएगी।”
शकलदीप बाबू का बड़ा लड़का नारायण, घर में बबुआ के नाम से ही पुकारा जाता था। उम्र उसकी लगभग 24 वर्ष की थी। पिछले तीन-चार साल से बहुत-सी परीक्षाओं में बैठने, एम.एल.ए. लोगों के दरवाज़ों के चक्कर लगाने तथा और भी उल्टे-सीधे फ़न इस्तेमाल करने के बावजूद उसको अब तक कोई नौकरी नहीं मिल सकी थी। दो बार डिप्टी-कलक्टरी के इम्तिहान में भी वह बैठ चुका था, पर दुर्भाग्य! अब एक अवसर उसे और मिलना था, जिसको वह छोड़ना न चाहता था, और उसे विश्वास था कि चूँकि जगहें काफ़ी हैं और वह अबकी जी-जान से परिश्रम करेगा, इसलिए बहुत संभव है कि वह ले लिया जाए।
शकलदीप बाबू मुख़्तार थे। लेकिन इधर डेढ़-दो साल से मुख़्तारी की गाड़ी उनके चलाए न चलती थी। बुढ़ौती के कारण अब उनकी आवाज़ में न वह तड़प रह गई थी, न शरीर में वह ताक़त और न चाल में वह अकड़, इसलिए मुवक्किल उनके यहाँ कम ही पहुँचते। कुछ तो आकर भी भड़क जाते। इस हालत में वह राम का नाम लेकर कचहरी जाते, अक्सर कुछ पा जाते, जिससे दोनों जून चौका-चूल्हा चल जाता।
जमुना की बात सुनकर वह एकदम बिगड़ गए। क्रोध से उनका मुँह विकृत हो गया और वह सिर को झटकते हुए, कटाह कुकुर की तरह बोले, “तो मैं क्या करूँ? मैं तो हैरान-परेशान हो गया हूँ। तुम लोग मेरी जान लेने पर तुले हुए हो। साफ़-साफ़ सुन लो, मैं तीन बार कहता हूँ, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा।”
जमुना कुछ न बोली, क्योंकि वह जानती थी कि पति का क्रोध करना स्वाभाविक है।
शकलदीप बाबू एक-दो क्षण चुप रहे, फिर दाएँ हाथ को ऊपर-नीचे नचाते हुए बोले, “फिर इसकी गारंटी ही क्या है कि इस दफ़े बाबू साहब ले ही लिए जाएँगे? मामूली ए.जी. ऑफ़िस की क्लर्की में तो पूछे नहीं गए, डिप्टी-कलक्टरी में कौन पूछेगा? आप में क्या ख़ूबी है, साहब कि आप डिप्टी-कलक्टर हो ही जाएँगे? थर्ड क्लास बी.ए. आप हैं, चौबीसों घंटे मटरगश्ती आप करते हैं, दिन-रात सिगरेट आप फूँकते हैं। आप में कौन-से सुर्खाब के पर लगे हैं? बड़े-बड़े बह गए, गदहा पूछे कितना पानी! फिर करम-करम की बात होती है। भाई, समझ लो, तुम्हारे करम में नौकरी लिखी ही नहीं। अरे हाँ, अगर सभी कुकुर काशी ही सेवेंगे तो हँडिया कौन चाटेगा? डिप्टी-कलक्टरी, डिप्टी-कलक्टरी! सच पूछो, तो डिप्टी-कलक्टरी नाम से मुझे घृणा हो गई है!”
और होंठ बिचक गए।
जमुना ने अब मृदु स्वर में उनके कथन का प्रतिवाद किया, “ऐसी कुभाषा मुँह से नहीं निकालनी चाहिए। हमारे लड़के में दोष ही कौन-सा है? लाखों में एक है। सब्र की सौ धार, मेरा तो दिल कहता है इस बार बबुआ ज़रूर ले लिए जाएँगे। फिर पहली भूख-प्यास का लड़का है, माँ-बाप का सुख तो जानता ही नहीं। इतना भी नहीं होगा, तो उसका दिल टूट जाएगा। यूँ ही न मालूम क्यों हमेशा उदास रहता है, ठीक से खाता-पीता नहीं, ठीक से बोलता नहीं, पहले की तरह गाता-गुनगुनाता नहीं। न मालूम मेरे लाड़ले को क्या हो गया है।” अंत में उसका गला भर आया और वह दूसरी ओर मुँह करके आँखों में आए आँसुओं को रोकने का प्रयास करने लगी।
जमुना को रोते हुए देखकर शकलदीप बाबू आपे से बाहर हो गए। क्रोध तथा व्यंग्य से मुँह चिढ़ाते हुए बोले, “लड़का है तो लेकर चाटो! सारी ख़ुराफ़ात की जड़ तुम ही हो, और कोई नहीं! तुम मुझे ज़िंदा रहने देना नहीं चाहतीं, जिस दिन मेरी जान निकलेगी, तुम्हारी छाती ठंडी होगी!” वह हाँफ़ने लगे। उन्होंने जमुना पर निर्दयतापूर्वक ऐसा ज़बरदस्त आरोप किया था, जिसे वह सह न सकी। रोती हुई बोली, “अच्छी बात है, अगर मैं सारी ख़ुराफ़ात की जड़ हूँ तो मैं कमीनी की बच्ची, जो आज से कोई बात...” रुलाई के मारे वह आगे न बोल सकी और तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गई।
शकलदीप बाबू कुछ नहीं बोले, बल्कि वहीं बैठे रहे। मुँह उनका तना हुआ था और गर्दन टेढ़ी हो गई थी। एक-आध मिनट तक उसी तरह बैठे रहने के पश्चात वह ज़मीन पर पड़े अख़बार के एक फटे-पुराने टुकड़े को उठाकर इस तल्लीनता से पढ़ने लगे, जैसे कुछ भी न हुआ हो।
लगभग पंद्रह-बीस मिनट तक वह उसी तरह पढ़ते रहे। फिर अचानक उठ खड़े हुए। उन्होंने लुँगी की तरह लिपटी धोती को खोलकर ठीक से पहन लिया और ऊपर से अपना पारसी कोट डाल लिया, जो कुछ मैला हो गया था और जिसमें दो चिप्पियाँ लगी थीं, और पुराना पंप शू पहन, हाथ में छड़ी ले, एक-दो बार खाँसकर बाहर निकल गए।
पति की बात से जमुना के हृदय को गहरा आघात पहुँचा था। शकलदीप बाबू को बाहर जाते हुए उसने देखा, पर वह कुछ नहीं बोली। वह मुँह फुलाए चुपचाप घर के अटरम-सटरम काम करती रही। और एक घंटे बाद भी जब शकलदीप बाबू बाहर से लौट उसके पास आकर खड़े हुए, तब भी वह कुछ न बोली, चुपचाप तरकारी काटती रही।
शकलदीप बाबू ने खाँसकर कहा, “सुनती हो, यह डेढ़ सौ रुपए रख लो। क़रीब सौ रुपए बबुआ की फ़ीस में लगेंगे और पचास रुपए अलग रख देना, कोई और काम आ पड़े।”
जमुना ने हाथ बढ़ाकर रुपए तो अवश्य ले लिए, पर अब भी कुछ नहीं बोली।
लेकिन शकलदीप बाबू अत्यधिक प्रसन्न थे और उन्होंने उत्साहपूर्ण आवाज़ में कहा, “सौ रुपए बबुआ को दे देना, आज ही फ़ीस भेज दें। होंगे, ज़रूर होंगे, बबुआ डिप्टी-कलक्टर अवश्य होंगे। कोई कारण ही नहीं कि वह न लिए जाएँ। लड़के के ज़ेहन में कोई ख़राबी थोड़े है। राम-राम...! नहीं, चिंता की कोई बात नहीं। नारायण जी इस बार भगवान की कृपा से डिप्टी-कलक्टर अवश्य होंगे।”
जमुना अब भी चुप रही और रुपयों को ट्रंक में रखने के लिए उठकर अपने कमरे में चली गई।
शकलदीप बाबू अपने कमरे की ओर लौट पड़े। पर कुछ दूर जाकर फिर घूम पड़े और जिस कमरे में जमुना गई थी, उसके दरवाज़े के सामने आकर खड़े हो गए और जमुना को ट्रंक में रुपए बंद करते हुए देखते रहे। फिर बोले, “ग़लती किसी की नहीं। सारा दोष तो मेरा है। देखो न, मैं बाप होकर कहता हूँ कि लड़का नाक़ाबिल है! नहीं, नहीं, सारी ख़ुराफ़ात की जड़ मैं ही हूँ, और कोई नहीं।”
एक-दो क्षण वह खड़े रहे, लेकिन तब भी जमुना ने कोई उत्तर नहीं दिया तो कमरे में जाकर वह अपने कपड़े उतारने लगे।
नारायण ने उसी दिन डिप्टी-कलक्टरी की फ़ीस तथा फ़ार्म भेज दिए।
दूसरे दिन आदत के ख़िलाफ़ प्रातःकाल ही शकलदीप बाबू की नींद उचट गई। वह हड़बड़ाकर आँखें मलते हुए उठ खड़े हुए और बाहर ओसारे में आकर चारों ओर देखने लगे। घर के सभी लोग निद्रा में निमग्न थे। सोए हुए लोगों की साँसों की आवाज़ और मच्छरों की भनभन सुनाई दे रही थी। चारों ओर अँधेरा था। लेकिन बाहर के कमरे से धीमी रौशनी आ रही थी। शकलदीप बाबू चौंक पड़े और पैरों को दबाए कमरे की ओर बढ़े।
उनकी उम्र पचास के ऊपर होगी। वह गोरे, नाटे और दुबले-पतले थे। उनके मुख पर अनगिनत रेखाओं का जाल बुना था और उनकी बाँहों तथा गर्दन पर चमड़े झूल रहे थे।
दरवाज़े के पास पहुँचकर, उन्होंने पंजे के बल खड़े हो, होंठ दबाकर कमरे के अंदर झाँका। उनका लड़का नारायण मेज़ पर रखी लालटेन के सामने सिर झुकाए ध्यानपूर्वक कुछ पढ़ रहा था। शकलदीप बाबू कुछ देर तक आँखों को साश्चर्य फैलाकर अपने लड़के को देखते रहे, जैसे किसी आनंददायी रहस्य का उन्होंने अचानक पता लगा लिया हो। फिर वह चुपचाप धीरे-से पीछे हट गए और वहीं खड़े होकर ज़रा मुस्कुराए और फिर दबे पाँव धीरे-धीरे वापस लौटे और अपने कमरे के सामने ओसारे के किनारे खड़े होकर आसमान को उत्सुकतापूर्वक निहारने लगे।
उनकी आदत छह, साढ़े छह बजे से पहले उठने की नहीं थी। लेकिन आज उठ गए थे, तो मन अप्रसन्न नहीं हुआ। आसमान में तारे अब भी चटक दिखाई दे रहे थे, और बाहर के पेड़ों को हिलाती हुई और खपड़े को स्पर्श करके आँगन में न मालूम किस दिशा से आती जाती हवा उनको आनंदित एवं उत्साहित कर रही थी। वह पुनः मुस्कुरा पड़े और उन्होंने धीरे-से फुसफुसाया, “चलो, अच्छा ही है।”
और अचानक उनमें न मालूम कहाँ का उत्साह आ गया। उन्होंने उसी समय ही दातौन करना शुरू कर दिया। इन कार्यों से निबटने के बाद भी अँधेरा ही रहा, तो बाल्टी में पानी भरा और उसे ग़ुसलख़ाने में ले जाकर स्नान करने लगे। स्नान से निवृत्त होकर जब वह बाहर निकले, तो उनके शरीर में एक अपूर्व ताज़गी तथा मन में एक अवर्णनीय उत्साह था।
यद्यपि उन्होंने अपने सभी कार्य चुपचाप करने की कोशिश की थी, तो भी देह दुर्बल होने के कारण कुछ खटपट हो गई, जिसके परिणामस्वरूप उनकी पत्नी की नींद खुल गई। जमुना को तो पहले चोर-वोर का संदेह हुआ, लेकिन उसने झटपट आकर जब देखा, तो आश्चर्यचकित हो गई। शकलदीप बाबू आँगन में खड़े-खड़े आकाश को निहार रहे थे।
जमुना ने चिंतातुर स्वर में कहा, “इतनी जल्दी स्नान की ज़रूरत क्या थी? इतना सबेरे तो कभी भी नहीं उठा जाया जाता था? कुछ हो-हवा गया, तो?”
शकलदीप बाबू झेंप गए। झूठी हँसी हँसते हुए बोले, “धीरे-धीरे बोलो, भाई, बबुआ पढ़ रहे हैं।”
जमुना बिगड़ गई, “धीरे-धीरे क्यों बोलूँ, इसी लच्छन से परसाल बीमार पड़ जाया गया था।”
शकलदीप बाबू को आशंका हुई कि इस तरह बातचीत करने से तकरार बढ़ जाएगा, शोर-शराबा होगा, इसलिए उन्होंने पत्नी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वह पीछे घूम पड़े और अपने कमरे में आकर लालटेन जलाकर चुपचाप रामायण का पाठ करने लगे।
पूजा समाप्त करके जब वह उठे, तो उजाला हो गया था। वह कमरे से बाहर निकल आए। घर के बड़े लोग तो जाग गए थे, पर बच्चे अभी तक सोए थे। जमुना भंडार-घर में कुछ खटर-पटर कर रही थी। शकलदीप बाबू ताड़ गए और वह भंडार-घर के दरवाज़े के सामने खड़े हो गए और कमर पर दोनों हाथ रखकर कुतूहल के साथ अपनी पत्नी को कुंडे में से चावल निकालते हुए देखते रहे।
कुछ देर बाद उन्होंने प्रश्न किया, “नारायण की अम्मा, आजकल तुम्हारा पूजा-पाठ नहीं होता क्या?' और झेंपकर वह मुस्कुराए।
शकलदीप बाबू इसके पूर्व सदा राधास्वामियों पर बिगड़ते थे और मौक़ा-बेमौक़ा उनकी कड़ी आलोचना भी करते थे। इसको लेकर औरतों में कभी-कभी रोना-पीटना तक भी हो जाता था। इसलिए आज भी जब शकलदीप बाबू ने पूजा-पाठ की बात की, तो जमुना ने समझा कि वह व्यंग्य कर रहे हैं। उसने भी प्रत्युत्तर दिया, “हम लोगों को पूजा-पाठ से क्या मतलब? हमको तो नरक में ही जाना है। जिनको सरग जाना हो, वह करें!”
“लो बिगड़ गईं,” शकलदीप बाबू मंद-मंद मुस्कुराते हुए झट-से बोले, “अरे, मैं मज़ाक़ थोड़े कर रहा था! मैं बड़ी ग़लती पर था, राधास्वामी तो बड़े प्रभावशाली देवता हैं।”
जमुना को राधास्वामी को देवता कहना बहुत बुरा लगा और वह तिनककर बोली, “राधास्वामी को देवता कहते हैं? वह तो परमपिता परमेसर हैं, उनका लोक सबसे ऊपर है, उसके नीचे ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लोक आते हैं।”
“ठीक है, ठीक है, लेकिन कुछ पूजा-पाठ भी करोगी? सुनते हैं सच्चे मन से राधास्वामी की पूजा करने से सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।” शकलदीप बाबू उत्तर देकर काँपते होंठों में मुस्कुराने लगे।
जमुना ने पुनः भुल-सुधार किया, “इसमें दिखाना थोड़े होता है; मन में नाम ले लिया जाता है। सभी मनोरथ बन जाते हैं और मरने के बाद आत्मा परमपिता में मिल जाती है। फिर चौरासी नहीं भुगतना पड़ता।”
शकलदीप बाबू ने सोत्साह कहा, “ठीक है, बहुत अच्छी बात है। ज़रा और सबेरे उठकर नाम ले लिया करो। सुबह नहाने से तबीयत दिन-भर साफ़ रहती है। कल से तुम भी शुरू कर दो। मैं तो अभागा था कि मेरी आँखें आज तक बंद रही। ख़ैर, कोई बात नहीं, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है, कल से तुम भी सवेरे चार बजे उठ जाना।”
उनको भय हुआ कि जमुना कहीं उनके प्रस्ताव का विरोध न करे, इसलिए इतना कहने के बाद वह पीछे घूमकर खिसक गए। लेकिन अचानक कुछ याद करके वह लौट पड़े। पास आकर उन्होंने पत्नी से मुस्कुराते हुए पूछा, “बबुआ के लिए नाश्ते का इंतिज़ाम क्या करोगी?”
“जो रोज़ होता है, वही होगा, और क्या होगा?” उदासीनतापूर्वक जमुना ने उत्तर दिया।
“ठीक है, लेकिन आज हलवा क्यों नहीं बना लेतीं? घर का बना सामान अच्छा होता है। और कुछ मेवे मँगा लो।”
“हलवे के लिए घी नहीं है। फिर इतने पैसे कहाँ हैं?” जमुना ने मजबूरी ज़ाहिर की।
“पचास रुपए तो बचे हैं न, उसमें से ख़र्च करो। अन्न-जल का शरीर, लड़के को ठीक से खाने-पीने का न मिलेगा, तो वह इम्तिहान क्या देगा? रुपए की चिंता मत करो, मैं अभी ज़िंदा हूँ!” इतना कहकर शकलदीप बाबू ठहाका लगाकर हँस पड़े। वहाँ से हटने के पूर्व वह पत्नी को यह भी हिदायत देते गए, “एक बात और करो। तुम लड़के लोगों से डाँटकर कह देना कि वे बाहर के कमरे में जाकर बाज़ार न लगाएँ, नहीं तो मार पड़ेगी। हाँ, पढ़ने में बाधा पहुँचेगी। दूसरी बात यह कि बबुआ से कह देना, वह बाहर के कमरे में बैठकर इत्मिनान से पढ़ें, मैं बाहर सहन में बैठ लूँगा।”
शकलदीप बाबू सबेरे एक-डेढ़ घंटे बाहर के कमरे में बैठते थे। वहाँ वह मुवक्किलों के आने की प्रतीक्षा करते और उन्हें समझाते-बुझाते।
और वह उस दिन सचमुच ही मकान के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे, जहाँ पर्याप्त छाया रहती थी, एक मेज़ और कुर्सियाँ लगाकर बैठ गए। जान-पहचान के लोग वहाँ से गुज़रे, तो उन्हें वहाँ बैठे देखकर आश्चर्य हुआ। जब सड़क से गुज़रते हुए बब्बनलाल पेशकार ने उनसे पूछा कि “भाई साहब, आज क्या बात है?” तो उन्होंने ज़ोर से चिल्लाकर कहा कि “भीतर बड़ी गर्मी है।” और उन्होंने जोकर की तरह मुँह बना दिया और अंत में ठहाका मारकर हँस पड़े, जैसे कोई बहुत बड़ा मज़ाक़ कर दिया हो।
शाम को जहाँ रोज़ वह पहले ही कचहरी से आ जाते थे, उस दिन देर से लौटे। उन्होंने पत्नी के हाथ में चार रुपए तो दिए ही, साथ ही दो सेब तथा कैंची सिगरेट के पाँच पैकेट भी बढ़ा दिए।
“सिगरेट क्या होगी?” जमुना ने साश्चर्य पूछा।
“तुम्हारे लिए है”, शकलदीप बाबू ने धीरे-से कहा और दूसरी ओर देखकर मुस्कुराने लगे, लेकिन उनका चेहरा शर्म से कुछ तमतमा गया।
जमुना ने माथे पर की साड़ी को नीचे खींचते हुए कहा, “कभी सिगरेट पी भी है कि आज ही पीऊँगी। इस उम्र में मज़ाक़ करते लाज नहीं आती?”
शकलदीप बाबू कुछ बोले नहीं और थोड़ा मुस्कुराकर इधर-उधर देखने लगे। फिर गंभीर होकर उन्होंने दूसरी ओर देखते हुए धीरे-से कहा, “बबुआ को दे देना”, और वह तुरंत वहाँ से चलते बने।
जमुना भौंचक होकर कुछ देर उनको देखती रही, क्योंकि आज के पूर्व तो वह यही देखती आ रही थी कि नारायण के धूम्रपान के वह सख़्त ख़िलाफ़ रहे हैं और इसको लेकर कई बार लड़के को डाँट-डपट चुके हैं। उसकी समझ में कुछ न आया, तो वह यह कहकर मुस्कुरा पड़ी कि बुद्धि सठिया गई है।
नारायण दिन-भर पढ़ने-लिखने के बाद टहलने गया हुआ था। शकलदीप बाबू जल्दी से कपड़े बदलकर हाथ में झाड़ू ले बाहर के कमरे में जा पहुँचे। उन्होंने धीरे-धीरे कमरे को अच्छी तरह झाड़ा-बुहारा, इसके बाद नारायण की मेज़ को साफ़ किया तथा मेज़पोश को ज़ोर-ज़ोर से कई बार झाड़-फटककर सफ़ाई के साथ उस पर बिछा दिया। अंत में नारायण की चारपाई पर पड़े बिछौने को खोलकर उसमें की एक-एक चीज़ को झाड़-फटकारकर यत्नपूर्वक बिछाने लगे।
इतने में जमुना ने आकर देखा, तो मृदु स्वर में कहा, “कचहरी से आने पर यही काम रह गया है क्या? बिछौना रोज़ बिछ ही जाता है और कमरे की महरिन सफ़ाई कर ही देती है।”
“अच्छा, ठीक है। मैं अपनी तबीयत से कर रहा हूँ, कोई ज़बरदस्ती थोड़ी है।” शकलदीप बाबू के मुख पर हल्के झेंप का भाव अंकित हो गया था और वह अपनी पत्नी की ओर न देखते हुए ऐसी आवाज़ में बोले, जैसे उन्होंने अचानक यह कार्य आरंभ कर दिया था—“और जब इतना कर ही लिया है, तो बीच में छोड़ने से क्या लाभ, पूरा ही कर लें।” कचहरी से आने के बाद रोज़ का उनका नियम यह था कि वह कुछ नाश्ता-पानी करके चारपाई पर लेट जाते थे। उनको अक्सर नींद आ जाती थी और वह लगभग आठ बजे तक सोते रहते थे। यदि नींद न भी आती, तो भी वह इसी तरह चुपचाप पड़े रहते थे।
“नाश्ता तैयार है”, यह कहकर जमुना वहाँ से चली गई।
शकलदीप बाबू कमरे को चमाचम करने, बिछौने लगाने तथा कुर्सियों को तरतीब से सजाने के पश्चात आँगन में आकर खड़े हो गए और बेमतलब ठनककर हँसते हुए बोले, “अपना काम सदा अपने हाथ से करना चाहिए, नौकरों का क्या ठिकाना?”
लेकिन उनकी बात पर संभवतः किसी ने ध्यान नहीं दिया और न उसका उत्तर ही।
धीरे-धीरे दिन बीतते गए और नारायण कठिन परिश्रम करता रहा। कुछ दिनों से शकलदीप बाबू सायंकाल घर से लगभग एक मील की दूरी पर स्थित शिवजी के एक मंदिर में भी जाने लगे थे। वह बहुत चलता मंदिर था और उसमें भक्तजनों की बहुत भीड़ होती थी। कचहरी से आने के बाद वह नारायण के कमरे को झाड़ते-बुहारते, उसका बिछौना लगाते, मेज़-कुर्सियाँ सजाते और अंत में नाश्ता करके मंदिर के लिए रवाना हो जाते। मंदिर में एक-डेढ़ घंटे तक रहते और लगभग दस बजे घर आते। एक दिन जब वह मंदिर से लौटे, तो साढ़े दस बज गए थे। उन्होंने दबे पाँव ओसारे में पाँव रखा और अपनी आदत के अनुसार कुछ देर तक मुस्कुराते हुए झाँक-झाँककर कोठरी में नारायण को पढ़ते हुए देखते रहे। फिर भीतर जा अपने कमरे में छड़ी रखकर, नल पर हाथ-पैर धोकर, भोजन के लिए चौके में जाकर बैठ गए।
पत्नी ने खाना परोस दिया। शकलदीप बाबू ने मुँह में कौर चुभलाते हुए पूछा, “बबुआ को मेवे दे दिए थे?”
वह आज सायंकाल जब कचहरी से लौटे थे, तो मेवे लेते आए थे। उन्होंने मेवे को पत्नी के हवाले करते हुए कहा था कि इसे सिर्फ़ नारायण को ही देना, और किसी को नहीं।
जमुना को झपकी आ रही थी, लेकिन उसने पति की बात सुन ली, चौंककर बोली, “कहाँ? मेवा ट्रंक में रख दिया था, सोचा था, बबुआ घूमकर आएँगे तो चुपके से दे दूँगी। पर लड़के तो दानव-दूत बने हुए हैं, ओना-कोना, अँतरा-सँतरा, सभी जगह पहुँच जाते हैं। टुनटुन ने कहीं से देख लिया और उसने सारा-का सारा खा डाला।”
टुनटुन शकलदीप बाबू का सबसे छोटा बारह वर्ष का अत्यंत ही नटखट लड़का था।
“क्यों?” शकलदीप बाबू चिल्ला पड़े। उनका मुँह खुल गया था और उनकी जीभ पर रोटी का एक छोटा टुकड़ा दृष्टिगोचर हो रहा था। जमुना कुछ न बोली। अब शकलदीप बाबू ने ग़ुस्से में पत्नी को मुँह चिढ़ाते हुए कहा, “खा गया, खा गया! तुम क्यों न खा गई! तुम लोगों के खाने के लिए ही लाता हूँ न? हूँ! खा गया!”
जमुना भी तिनक उठी, “तो क्या हो गया? कभी मेवा-मिश्री, फल-मूल तो उनको मिलता नहीं, बेचारे खुद्दी-चुन्नी जो कुछ मिलता है, उसी पर सब्र बाँधे रहते हैं। अपने हाथ से ख़रीदकर कभी कुछ दिया भी तो नहीं गया। लड़का ही तो है, मन चल गया, खा लिया। फिर मैंने उसे बहुत मारा भी, अब उसकी जान तो नहीं ले लूँगी।”
“अच्छा तो खाओ तुम और तुम्हारे लड़के! ख़ूब मज़े में खाओ! ऐसे खाने पर लानत है!” वह ग़ुस्से से थर-थर काँपते हुए चिल्ला पड़े और फिर चौके से उठकर कमरे में चले गए।
जमुना भय, अपमान और ग़ुस्से से रोने लगी। उसने भी भोजन नहीं किया और वहाँ से उठकर चारपाई पर मुँह ढँककर पड़ रही। लेकिन दूसरे दिन प्रातःकाल भी शकलदीप बाबू का ग़ुस्सा ठंडा न हुआ और उन्होंने नहाने-धोने तथा पूजा-पाठ करने के बाद सबसे पहला काम यह किया कि जब टुनटुन जागा, तो उन्होंने उसको अपने पास बुलाया और उससे पूछा कि उसने मेवा क्यों खाया? जब उसको कोई उत्तर न सूझा और वह भक्कू बनकर अपने पिता की ओर देखने लगा, तो शकलदीप बाबू ने उसे कई तमाचे जड़ दिए।
डिप्टी-कलक्टरी की परीक्षा इलाहाबाद में होने वाली थी और वहाँ रवाना होने के दिन आ गए। इस बीच नारायण ने इतना अधिक परिश्रम किया कि सभी आश्चर्यचकित थे। वह अट्ठारह-उन्नीस घंटे तक पढ़ता। उसकी पढ़ाई में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने पाती, बस उसे पढ़ना था। उसका कमरा साफ़ मिलता, उसका बिछौना बिछा मिलता, दोनों जून गाँव के शुद्ध घी के साथ दाल-भात,रोटी, तरकारी मिलती। शरीर की शक्ति तथा दिमाग़ की ताज़गी को बनाए रखने के लिए नाश्ते में सबेरे हलवा-दूध तथा शाम को मेवे या फल। और तो और, लड़के की तबीयत न उचटे, इसलिए सिगरेट की भी समुचित व्यवस्था थी। जब सिगरेट के पैकेट ख़त्म होते, तो जमुना उसके पास चार-पाँच पैकेट और रख आती।
जिस दिन नारायण को इलाहाबाद जाना था, शकलदीप बाबू की छुट्टी थी और वे सबेरे ही घूमने निकल गए। वह कुछ देर तक कंपनी गार्डन में घूमते रहे, फिर वहाँ तबीयत न लगी, तो नदी के किनारे पहुँच गए। वहाँ भी मन न लगा, तो अपने परम मित्र कैलाश बिहारी मुख़्तार के यहाँ चले गए। वहाँ बहुत देर तक गप-सड़ाका करते रहे, और जब गाड़ी का समय निकट आया, तो जल्दी-जल्दी घर आए।
गाड़ी नौ बजे खुलती थी। जमुना तथा नारायण की पत्नी निर्मला ने सबेरे ही उठकर जल्दी-जल्दी खाना बना लिया था। नारायण ने खाना खाया और सबको प्रणाम कर स्टेशन को चल पड़ा। शकलदीप बाबू भी स्टेशन गए। नारायण को विदा करने के लिए उसके चार-पाँच मित्र भी स्टेशन पर पहुँचे थे। जब तक गाड़ी नहीं आई थी, नारायण प्लेटफ़ार्म पर उन मित्रों से बातें करता रहा। शकलदीप बाबू अलग खड़े इधर-उधर इस तरह देखते रहे, जैसे नारायण से उनका कोई परिचय न हो। और जब गाड़ी आई और नारायण अपने पिता तथा मित्रों के सहयोग से गाड़ी में पूरे सामान के साथ चढ़ गया, तो शकलदीप बाबू वहाँ से धीरे-से खिसक गए और व्हीलर के बुक-स्टॉल पर जा खड़े हुए। बुक-स्टॉल का आदमी जान-पहचान का था, उसने नमस्कार करके पूछा, “कहिए, मुख़्तार साहब, आज कैसे आना हुआ?”
शकलदीप बाबू ने संतोषपूर्वक मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “लड़का इलाहाबाद जा रहा है, डिप्टी-कलक्टरी का इम्तिहान देने। शाम तक पहुँच जाएगा। ड्योढ़े दर्जे के पास जो डिब्बा है न, उसी में है। नीचे जो चार-पाँच लड़के खड़े हैं, वे उसके मित्र है। सोचा, भाई हम लोग बूढ़े ठहरे, लड़के इम्तिहान-विम्तिहान की बात कर रहे होंगे, क्या समझेंगे, इसलिए इधर चला आया।” उनकी आँखे हास्य से संकुचित हो गईं।
वहाँ वह थोड़ी देर तक रहे। इसके बाद जाकर घड़ी में समय देखा, कुछ देर तक तारघर के बाहर तार बाबू को खटर-पटर करते हुए निहारा और फिर वहाँ से हटकर रेलगाड़ियों के आने-जाने का टाइम-टेबुल पढ़ने लगे। लेकिन उनका ध्यान संभवतः गाड़ी की ओर ही था, क्योंकि जब ट्रेन खुलने की घंटी बजी, तो वहाँ से भागकर नारायण के मित्रों के पीछे आ खड़े हुए।
नारायण ने जब उनको देखा, तो उसने झटपट नीचे उतरकर पैर छुए। “ख़ुश रहो, बेटा, भगवान तुम्हारी मनोकामना पूरी करे!” उन्होंने लड़के से बुदबुदाकर कहा और दूसरी ओर देखने लगे।
नारायण बैठ गया और अब गाड़ी खुलने ही वाली थी। अचानक शकलदीप बाबू का दाहिना हाथ अपने कोट की जेब में गया। उन्होंने जेब से कोई चीज़ लगभग बाहर निकाल ली, और वह कुछ आगे भी बढ़े, लेकिन फिर न मालूम क्या सोचकर रुक गए। उनका चेहरा तमतमा-सा गया और जल्दीबाज़ी में वह इधर-उधर देखने लगे। गाड़ी सीटी देकर खुल गई तो शकलदीप बाबू चौंक उठे। उन्होंने जेब से वह चीज़ निकालकर मुट्ठी में बाँध ली और उसे नारायण को देने के लिए दौड़ पड़े। वह दुर्बल तथा बूढ़े आदमी थे, इसलिए उनसे तेज़ क्या दौड़ा जाता, वह पैरों में फुर्ती लाने के लिए अपने हाथों को इस तरह भाँज रहे थे, जैसे कोई रोगी, मरियल लड़का अपने साथियों के बीच खेल-कूद के दौरान कोई हल्की-फुल्की शरारत करने के बाद तेज़ी से दौड़ने के लिए गर्दन को झुकाकर हाथों को चक्र की भाँति घुमाता है। उनके पैर थप-थप की आवाज़ के साथ प्लेटफ़ार्म पर गिर रहे थे, और उनकी हरकतों का उनके मुख पर कोई विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था, बस यही मालूम होता कि वह कुछ परेशान हैं। प्लेटफ़ार्म पर एकत्रित लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो गया। कुछ लोगों ने मौज में आकर ज़ोर से ललकारा, कुछ ने किलकारियाँ मारीं और कुछ लोगों ने दौड़ के प्रति उनकी तटस्थ मुद्रा को देखकर बेतहाशा हँसना आरंभ किया। लेकिन यह उनका सौभाग्य ही था कि गाड़ी अभी खुली ही थी और स्पीड में नहीं आई थी। परिणामस्वरूप उनका हास्यजनक प्रयास सफल हुआ और उन्होंने डिब्बे के सामने पहुँचकर उत्सुक तथा चिंतित मुद्रा में डिब्बे से सिर निकालकर झाँकते हुए नारायण के हाथ में एक पुड़िया देते हुए कहा, “बेटा, इसे श्रद्धा के साथ खा लेना, भगवान शंकर का प्रसाद है।”
पुड़िया में कुछ बताशे थे, जो उन्होंने कल शाम को शिवजी को चढ़ाए थे और जिसे पता नहीं क्यों, नारायण को देना भूल गए थे। नारायण के मित्र कुतूहल से मुस्कुराते हुए उनकी ओर देख रहे थे, और जब वह पास आ गए, तो एक ने पूछा, “बाबू जी, क्या बात थी, हमसे कह देते।” शकलदीप बाबू यह कहकर कि, “कोई बात नहीं, कुछ रुपए थे, सोचा, मैं ही दे दूँ, तेज़ी से आगे बढ़ गए।”
परीक्षा समाप्त होने के बाद नारायण घर वापस आ गया। उसने सचमुच पर्चे बहुत अच्छे किए थे और उसने घरवालों से साफ़-साफ़ कह दिया कि यदि कोई बेईमानी न हुई, तो वह इंटरव्यू में अवश्य बुलाया जाएगा। घरवालों की बात तो दूसरी थी, लेकिन जब मुहल्ले और शहर के लोगों ने यह बात सुनी, तो उन्होंने विश्वास नहीं किया। लोग व्यंग्य में कहने लगे, हर साल तो यही कहते हैं बच्चू! वह कोई दूसरे होते हैं, जो इंटरव्यू में बुलाए जाते हैं!
लेकिन बात नारायण ने झूठ नहीं कही थी, क्योंकि एक दिन उसके पास सूचना आई कि उसको इलाहाबाद में प्रादेशिक लोक सेवा आयोग के समक्ष इंटरव्यू के लिए उपस्थित होना है। यह समाचार बिजली की तरह सारे शहर में फैल गया। बहुत साल बाद इस शहर से कोई लड़का डिप्टी-कलक्टरी के इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। लोगों में आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
सायंकाल कचहरी से आने पर शकलदीप बाबू सीधे आँगन में जा खड़े हो गए और ज़ोर से ठठाकर हँस पड़े। फिर कमरे में जाकर कपड़े उतारने लगे। शकलदीप बाबू ने कोट को खूँटी पर टाँगते हुए लपककर आती हुई जमुना से कहा, “अब करो न राज! हमेशा शोर मचाए रहती थी कि यह नहीं है, वह नहीं है! यह मामूली बात नहीं है कि बबुआ इंटरव्यू में बुलाए गए हैं, आया ही समझो!”
“जब आ जाएँ, तभी न”, जमुना ने कंजूसी से मुस्कुराते हुए कहा। शकलदीप बाबू थोड़ा हँसते हुए बोले, “तुमको अब भी संदेह है? लो, मैं कहता हूँ कि बबुआ ज़रूर आएँगे, ज़रूर आएँगे! नहीं आए, तो मैं अपनी मूँछ मुड़वा दूँगा। और कोई कहे या न कहे, मैं तो इस बात को पहले से ही जानता हूँ। अरे, मैं ही क्यों, सारा शहर यही कहता है। अंबिका बाबू वकील मुझे बधाई देते हुए बोले, 'इंटरव्यू में बुलाए जाने का मतलब यह है कि अगर इंटरव्यू थोड़ा भी अच्छा हो गया, तो चुनाव निश्चित है।” मेरी नाक में दम था, जो भी सुनता, बधाई देने चला आता।”
“मुहल्ले के लड़के मुझे भी आकर बधाई दे गए हैं। जानकी, कमल और गौरी तो अभी-अभी गए हैं। जमुना ने स्वप्निल आँखों से अपने पति को देखते हुए सूचना दी।”
“तो तुम्हारी कोई मामूली हस्ती है! अरे, तुम डिप्टी-कलक्टर की माँ हो न, जी!” इतना कहकर शकलदीप बाबू ठहाका मारकर हँस पड़े। जमुना कुछ नहीं बोली, बल्कि उसने मुस्की काटकर साड़ी का पल्ला सिर के आगे थोड़ा और खींचकर मुँह टेढ़ा कर लिया। शकलदीप बाबू ने जूते निकालकर चारपाई पर बैठते हुए धीरे-से कहा, “अरे भाई, हमको-तुमको क्या लेना है, एक कोने में पड़कर रामनाम जपा करेंगे। लेकिन मैं तो अभी यह सोच रहा हूँ कि कुछ साल तक और मुख़्तारी करूँगा। नहीं, यही ठीक रहेगा।” उन्होंने गाल फुलाकर एक-दो बार मूँछ पर ताव दिए।
जमुना ने इसका प्रतिवाद किया, “लड़का मानेगा थोड़े, खींच ले जाएगा। हमेशा यह देखकर उसकी छाती फटती रहती है कि बाबू जी इतनी मेहनत करते हैं और वह कुछ भी मदद नहीं करता।”
“कुछ कह रहा था क्या?” शकलदीप बाबू ने धीरे-से पूछा और पत्नी की ओर न देखकर दरवाज़े के बाहर मुँह बनाकर देखने लगे।
जमुना ने आश्वासन दिया, “मैं जानती नहीं क्या? उसका चेहरा बताता है। बाप को इतना काम करते देखकर उसको कुछ अच्छा थोड़े लगता है!” अंत में उसने नाक सुड़क लिए।
नारायण पंद्रह दिन बाद इंटरव्यू देने गया। और उसने इंटरव्यू भी काफ़ी अच्छा किया। वह घर वापस आया, तो उसके हृदय में अत्यधिक उत्साह था, और जब उसने यह बताया कि जहाँ और लड़कों का पंद्रह-बीस मिनट तक ही इंटरव्यू हुआ, उसका पूरे पचास मिनट तक इंटरव्यू होता रहा और उसने सभी प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर दिए, तो अब यह सभी ने मान लिया कि नारायण का लिया जाना निश्चित है।
दूसरे दिन कचहरी में फिर वकीलों और मुख़्तारों ने शकलदीप बाबू को बधाइयाँ दीं और विश्वास प्रकट किया कि नारायण अवश्य चुन लिया जाएगा। शकलदीप बाबू मुस्कुराकर धन्यवाद देते और लगे हाथों नारायण के व्यक्तिगत जीवन की एक-दो बातें भी सुना देते और अंत में सिर को आगे बढ़ाकर फुसफुसाहट में दिल का राज प्रकट करते, “आपसे कहता हूँ, पहले मेरे मन में शंका थी, शंका क्या सोलहों आने शंका थी, लेकिन आप लोगों की दुआ से अब वह दूर हो गई है।”
जब वह घर लौटे, तो नारायण, गौरी और कमल दरवाज़े के सामने खड़े बातें कर रहे थे। नारायण इंटरव्यू के संबंध में ही कुछ बता रहा था। वह अपने पिता जी को आता देखकर धीरे-धीरे बोलने लगा। शकलदीप बाबू चुपचाप वहाँ से गुज़र गए, लेकिन दो-तीन गज़ ही आगे गए होंगे कि गौरी कि आवाज़ उनको सुनाई पड़ी, “अरे तुम्हारा हो गया, अब तुम मौज़ करो!” इतना सुनते की शकलदीप बाबू घूम पड़े और लड़कों के पास आकर उन्होंने पूछा, “क्या?” उनकी आँखें संकुचित हो गई थीं और उनकी मुद्रा ऐसी हो गई थी, जैसे किसी महफ़िल में ज़बरदस्ती घुस आए हों।
लड़के एक-दूसरे को देखकर शिष्टतापूर्वक होंठों में मुस्कुराए। फिर गौरी ने अपने कथन को स्पष्ट किया, “मैं कह रहा था नारायण से, बाबू जी, कि उनका चुना जाना निश्चित है।”
शकलदीप बाबू ने सड़क से गुज़रती हुई एक मोटर को ग़ौर से देखने के बाद धीरे-धीरे कहा, “हाँ, देखिए न, जहाँ एक-से-एक धुरंधर लड़के पहुँचते हैं, सबसे तो बीस मिनट ही इंटरव्यू होता है, पर इनसे पूरे पचास मिनट! अगर नहीं लेना होता, तो पचास मिनट तक तंग करने की क्या ज़रूरत थी, पाँच-दस मिनट पूछताछ करके...”
गौरी ने सिर हिलाकर उनके कथन का समर्थन किया और कमल ने कहा, “पहले का ज़माना होता, तो कहा भी नहीं जा सकता, लेकिन अब तो बेईमानी-बेईमानी उतनी नहीं होती होगी।”
शकलदीप बाबू ने आँखें संकुचित करके हल्की-फुल्की आवाज़ में पूछा, “बेईमानी नहीं होती न?”
“हाँ, अब उतनी नहीं होती। पहले बात दूसरी थी। वह ज़माना अब लद गया।” गौरी ने उत्तर दिया।
शकलदीप बाबू अचानक अपनी आवाज़ पर ज़ोर देते हुए बोले, “अरे, अब कैसी बेईमानी साहब, गोली मारिए, अगर बेईमानी ही करनी होती, तो इतनी देर तक इनका इंटरव्यू होता? इंटरव्यू में बुलाया ही न होता और बुलाते भी तो चार-पाँच मिनट पूछताछ करके विदा कर देते।”
इसका किसी ने उत्तर नहीं दिया, तो वह मुस्कुराते हुए घूमकर घर में चले गए।
घर में पहुँचने पर जमुना से बोले, “बबुआ अभी से ही किसी अफ़सर की तरह लगते हैं। दरवाज़े पर बबुआ, गौरी और कमल बातें कर रहे हैं। मैंने दूर ही से ग़ौर किया, जब नारायण बाबू बोलते हैं, तो उनके बोलने और हाथ हिलाने से एक अजीब ही शान टपकती है। उनके दोस्तों में ऐसी बात कहाँ?”
“आज दुपहर में मुझे कह रहे थे कि तुझे मोटर में घुमाऊँगा।” जमुना ने ख़ुशख़बरी सुनाई।
शकलदीप बाबू ख़ुश होकर नाक सुड़कते हुए बोले, “अरे, तो उसको मोटर की कमी होगी, घूमना न जितना चाहना।” वह सहसा चुप हो गए और खोए-खोए इस तरह मुस्कुराने लगे, जैसे कोई स्वादिष्ट चीज़ खाने के बाद मन-ही-मन उसका मज़ा ले रहे हों।
कुछ देर बाद उन्होंने पत्नी से प्रश्न किया, “क्या कह रहा था, मोटर में घुमाऊँगा?”
जमुना ने फिर वही बात दोहरा दी।
शकलदीप बाबू ने धीरे-से दोनों हाथों से ताली बजाते हुए मुस्कुराकर कहा, “चलो, अच्छा है।” उनके मुख पर अपूर्व स्वप्निल संतोष का भाव अंकित था।
सात-आठ दिनों में नतीजा निकलने का अनुमान था। सभी को विश्वास हो गया था कि नारायण ले लिया जाएगा और सभी नतीजे की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे थे।
अब शकलदीप बाबू और भी व्यस्त रहने लगे। पूजा-पाठ का उनका कार्यक्रम पूर्ववत जारी था। लोगों से बातचीत करने में उनको काफ़ी मज़ा आने लगा और वह बातचीत के दौरान ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते कि लोगों को कहना पड़ता कि नारायण अवश्य ही ले लिया जाएगा। वह अपने घर पर एकत्रित नारायण तथा उसके मित्रों की बातें छिपकर सुनते और कभी-कभी अचानक उनके दल में घुस जाते तथा ज़बरदस्ती बात करने लगते। कभी-कभी नारायण को अपने पिता की यह हरकत बहुत बुरी लगती और वह क्रोध में दूसरी ओर देखने लगता। रात में शकलदीप बाबू चौंककर उठ बैठते और बाहर आकर कमरे में लड़के को सोते हुए देखने लगते या आँगन में खड़े होकर आकाश को निहारने लगते।
एक दिन उन्होंने सबेरे ही सबको सुनाकर ज़ोर से कहा, “नारायण की माँ, मैंने आज सपना देखा है कि नारायण बाबू डिप्टी-कलक्टर हो गए।”
जमुना रसोई के बरामदे में बैठी चावल फटक रही थी और उसी के पास नारायण की पत्नी, निर्मला, घूँघट काढ़े दाल बीन रही थी।
जमुना ने सिर उठाकर अपने पति की ओर देखते हुए प्रश्न किया, “सपना सबेरे दिखाई पड़ा था क्या?”
“सबेरे के नहीं तो शाम के सपने के बारे में तुमसे कहने आऊँगा? अरे, एकदम ब्रह्ममुहूर्त में देखा था! देखता हूँ कि अख़बार में नतीजा निकल गया है और उसमें नारायण बाबू का भी नाम हैं अब यह याद नहीं कि कौन नंबर था, पर इतना कह सकता हूँ कि नाम काफ़ी ऊपर था।”
“अम्मा जी, सबेरे का सपना तो एकदम सच्चा होता है न!” निर्मला ने धीरे-से जमुना से कहा।
मालूम पड़ता है कि निर्मला की आवाज़ शकलदीप बाबू ने सुन ली, क्योंकि उन्होंने विहँसकर प्रश्न किया, “कौन बोल रहा है, डिप्टाइन हैं क्या?” अंत में वह ठहाका मारकर हँस पड़े।
“हाँ, कह रही हैं कि सवेरे का सपना सच्चा होता है। सच्चा होता ही है।” जमुना ने मुस्कुराकर बताया।
निर्मला शर्म से संकुचित हो गई। उसने अपने बदन को सिकोड़ तथा पीठ को नीचे झुकाकर अपने मुँह को अपने दोनों घुटनों के बीच छिपा लिया।
अगले दिन भी सबेरे शकलदीप बाबू ने घरवालों को सूचना दी कि उन्होंने आज भी हू-ब-हू वैसा ही सपना देखा है।
जमुना ने अपनी नाक की ओर देखते हुए कहा, “सबेरे का सपना तो हमेशा ही सच्चा होता है। जब बहू को लड़का होनेवाला था, मैंने सबेरे-सबेरे सपना देखा कि कोई सरग की देवी हाथ में बालक लिए आसमान से आँगन में उतर रही है। बस, मैंने समझ लिया कि लड़का ही है। लड़का ही निकला।”
शकलदीप बाबू ने जोश में आकर कहा, “और मान लो कि झूठ है, तो यह सपना एक दिन दिखाई पड़ता, दूसरे दिन भी हू-ब-हू वहीं सपना क्यों दिखाई देता, फिर वह भी ब्रह्ममुहूर्त में ही!”
“बहू ने भी ऐसा ही सपना आज सबेरे देखा है!”
“डिप्टाइन ने भी?” शकलदीप बाबू ने मुस्की काटते हुए कहा।
“हाँ, डिप्टाइन ने ही। ठीक सबेरे उन्होंने देखा कि एक बँगले में हम लोग रह रहे हैं और हमारे दरवाज़े पर मोटर खड़ी है।” जमुना ने उत्तर दिया।
शकलदीप बाबू खोए-खोए मुस्कुराते रहे। फिर बोले, “अच्छी बात है, अच्छी बात है।”
एक दिन रात को लगभग एक बजे शकलदीप बाबू ने उठकर पत्नी को जगाया और उसको अलग ले जाते हुए बेशर्म महाब्राह्मण की भाँति हँसते हुए प्रश्न किया, “कहो भाई, कुछ खाने को होगा? बहुत देर से नींद ही नहीं लग रही है, पेट कुछ माँग रहा है। पहले मैंने सोचा, जाने भी दो, यह कोई खाने का समय है, पर इससे काम बनते न दिखा, तो तुमको जगाया। शाम को खाया था, सब पच गया।”
जमुना अचंभे के साथ आँखें फाड़-फाड़कर अपने पति को देख रही थी। दांपत्य-जीवन के इतने दीर्घकाल में कभी भी, यहाँ तक कि शादी के प्रारंभिक दिनों में भी, शकलदीप बाबू ने रात में उसको जगाकर कुछ खाने को नहीं माँगा था। वह झुँझला पड़ी और उसने असंतोष व्यक्त किया, “ऐसा पेट तो कभी भी नहीं था। मालूम नहीं, इस समय रसोई में कुछ है या नहीं।”
शकलदीप बाबू झेंपकर मुस्कुराने लगे।
एक-दो क्षण बाद जमुना ने आँखे मलकर पूछा, “बबुआ के मेवे में से थोड़ा दूँ क्या?”
शकलदीप बाबू झट-से बोले, “अरे, राम-राम! मेवा तो, तुम जानती हो, मुझे बिलकुल पसंद नहीं। जाओ, तुम सोओ, भूख-वूख थोड़े है, मज़ाक़ किया था।”
यह कहकर वह धीरे-से अपने कमरे में चले गए। लेकिन वह लेटे ही थे कि जमुना कमरे में एक छिपुली में एक रोटी और गुड़ लेकर आई। शकलदीप बाबू हँसते हुए उठ बैठे।
शकलदीप बाबू पूजा-पाठ करते, कचहरी जाते, दुनिया-भर के लोगों से दुनिया-भर की बातचीत करते, इधर-उधर मटरगश्ती करते और जब ख़ाली रहते, तो कुछ-न-कुछ खाने को माँग बैठते। वह चटोर हो गए और उनके जब देखो, भूख लग जाती। इस तरह कभी रोटी-गुड़ खा लेते, कभी आलू भुनवाकर चख़ लेते और कभी हाथ पर चीनी लेकर फाँक जाते। भोजन में भी वह परिवर्तन चाहने लगे। कभी खिचड़ी की फ़रमाइश कर देते, कभी सत्तू-प्याज़ की, कभी सिर्फ़ रोटी-दाल की, कभी मकुनी की और कभी सिर्फ़ दाल-भात की ही। उनका समय कटता ही न था और वह समय काटना चाहते थे।
इस बदपरहेज़ी तथा मानसिक तनाव का नतीजा यह निकला कि वह बीमार पड़ गए। उनको बुख़ार तथा दस्त आने लगे। उनकी बीमारी से घर के लोगों को बड़ी चिंता हुई।
जमुना ने रुआँसी आवाज़ में कहा, “बार-बार कहती थी कि इतनी मेहनत न कीजिए, पर सुनता ही कौन है? अब भोगना पड़ा न!”
पर शकलदीप बाबू पर इसका कोई असर न हुआ। उन्होंने बात उड़ा दी—“अरे, मैं तो कचहरी जानेवाला था, पर यह सोचकर रुक गया कि अब मुख़्तारी तो छोड़नी ही है, थोड़ा आराम कर लें।”
“मुख़्तारी जब छोड़नी होगी, होगी, इस समय तो दोनों जून की रोटी-दाल का इंतिज़ाम करना है।” जमुना ने चिंता प्रकट की। “अरे, तुम कैसी बात करती हो? बीमारी-हैरानी तो सबको होती है, मैं मिट्टी का ढेला तो हूँ नहीं कि गल जाऊँगा। बस, एक-आध दिन की बात हैं अगर बीमारी सख़्त होती, तो मैं इस तरह टनक-टनककर बोलता?” शकलदीप बाबू ने समझाया और अंत में उनके होंठों पर एक क्षीण मुस्कुराहट खेल गई।
वह दिन-भर बेचैन रहे। कभी लेटते, कभी उठ बैठते और कभी बाहर निकलकर टहलने लगते। लेकिन दुर्बल इतने हो गए थे कि पाँच-दस क़दम चलते ही थक जाते और फिर कमरे में आकर लेटे रहते। करते-करते शाम हुई और जब शकलदीप बाबू को यह बताया गया कि कैलाशबिहारी मुख़्तार उनका समाचार लेने आए हैं, तो वह उठ बैठे और झटपट चादर ओढ़, हाथ में छड़ी ले पत्नी के लाख मना करने पर भी बाहर निकल आए। दस्त तो बंद हो गया था, पर बुख़ार अभी था और इतने ही समय में वह चिड़चिड़े हो गए थे।
कैलाशबिहारी ने उनको देखते ही चिंतातुर स्वर में कहा, “अरे, तुम कहाँ बाहर आ गए, मुझे ही भीतर बुला लेते।”
शकलदीप बाबू चारपाई पर बैठ गए और क्षीण हँसी हँसते हुए बोले, “अरे, मुझे कुछ हुआ थोड़े हैं सोचा, आराम करने की ही आदत डालूँ।” यह कहकर वह अर्थपूर्ण दृष्टि से अपने मित्र को देखकर मुस्कुराने लगे।
सब हाल-चाल पूछने के बाद कैलाश बिहारी ने प्रश्न किया, “नारायण बाबू कहीं दिखाई नहीं दे रहे, कहीं घूमने गए हैं क्या?”
शकलदीप बाबू ने बनावटी उदासीनता प्रकट करते हुए कहा, “हाँ, गए होंगे कहीं, लड़के उनको छोड़ते भी तो नहीं, कोई-न-कोई आकर लिवा जाता है।”
कैलाश बिहारी ने सराहना की, “ख़ूब हुआ, साहब! मैं भी जब इस लड़के को देखता था, दिल में सोचता था कि यह आगे चलकर कुछ-न-कुछ ज़रूर होगा। वह तो, साहब, देखने से ही पता लग जाता है। चाल में और बोलने-चालने के तरीक़े में कुछ ऐसा है कि...चलिए, हम सब इस माने में बहुत भाग्यशाली हैं।”
शकलदीप बाबू इधर-उधर देखने के बाद सिर को आगे बढ़ाकर सलाह-मशविरे की आवाज़ में बोले, “अरे भाई साहब, कहाँ तक बताऊँ अपने मुँह से क्या कहना, पर ऐसा सीधा-सादा लड़का तो मैंने देखा नहीं, पढ़ने-लिखने का तो इतना शौक़ कि चौबीसों घंटे पढ़ता रहे। मुँह खोलकर किसी से कोई भी चीज़ माँगता नहीं।”
कैलाश बिहारी ने भी अपने लड़के की तारीफ़ में कुछ बातें पेश कर दीं, “लड़के तो मेरे भी सीधे हैं, पर मँझला लड़का शिवनाथ जितना गऊ है, उतना कोई नहीं। ठीक नारायण बाबू ही की तरह है!”
“नारायण तो उस ज़माने का कोई ऋषि-मुनि मालूम पड़ता है”, शकलदीप बाबू ने गंभीरतापूर्वक कहा, “बस, उसकी एक ही आदत है। मैं उसकी माँ को मेवा दे देता हूँ और नारायण रात में अपनी माँ को जगाकर खाता है। भली-बुरी उसकी बस एक यही आदत है। अरे भैया, तुमसे बताता हूँ, लड़कपन में हमने इसका नाम पन्नालाल रखा था, पर एक दिन एक महात्मा घूमते हुए हमारे घर आए। उन्होंने नारायण का हाथ देखा और बोले, इसका नाम पन्नालाल-सन्नालाल रखने की ज़रूरत नहीं, बस आज से इसे नारायण कहा करो, इसके कर्म में राजा होना लिखा है। पहले ज़माने की बात दूसरी थी, लेकिन आजकल राजा का अर्थ क्या है? डिप्टी-कलक्टर तो एक अर्थ में राजा ही हुआ!” अंत में आँखें मटकाकर उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश की, पर हाँफने लगे।
दोनों मित्र बहुत देर तक बातचीत करते रहे, और अधिकांश समय वे अपने-अपने लड़कों का गुणगान करते रहे।
घर के लोगों को शकलदीप बाबू की बीमारी की चिंता थी। बुख़ार के साथ दस्त भी था, इसलिए वह बहुत कमज़ोर हो गए थे, लेकिन वह बात को यह कहकर उड़ा देते, “अरे, कुछ नहीं, एक-दो दिन में मैं अच्छा हो जाऊँगा।” और एक वैद्य की कोई मामूली, सस्ती दवा खाकर दो दिन बाद वह अच्छे भी हो गए, लेकिन उनकी दुर्बलता पूर्ववत थी।
जिस दिन डिप्टी-कलक्टरी का नतीजा निकला, रविवार का दिन था।
शकलदीप बाबू सबेरे रामायण का पाठ तथा नाश्ता करने के बाद मंदिर चले गए। छुट्टी के दिनों में वह मंदिर पहले ही चले जाते और वहाँ दो-तीन घंटे, और कभी-कभी तो चार-चार घंटे रह जाते। वह आठ बजे मंदिर पहुँच गए। जिस गाड़ी से नतीजा आनेवाला था, वह दस बजे आती थी।
शकलदीप बाबू पहले तो बहुत देर तक मंदिर की सीढ़ी पर बैठकर सुस्ताते रहे, वहाँ से उठकर ऊपर आए, तो नंदलाल पांडे ने, जो चंदन रगड़ रहा था, नारायण के परीक्षाफल के संबंध में पूछताछ की। शकलदीप वहाँ पर खड़े होकर असाधारण विस्तार के साथ सब कुछ बताने लगे। वहाँ से जब उनको छुट्टी मिली, तो धूप काफ़ी चढ़ गई थी। उन्होंने भीतर जाकर भगवान शिव के पिंड के समक्ष अपना माथा टेक दिया। काफ़ी देर तक वह उसी तरह पड़े रहे। फिर उठकर उन्होंने चारों ओर घूम-घूमकर मंदिर के घंटे बजाकर मंत्रोच्चारण किए और गाल बजाए। अंत में भगवान के समक्ष पुनः दंडवत कर बाहर निकले ही थे कि जंगबहादुर सिंह मास्टर ने शिवदर्शनार्थ मंदिर में प्रवेश किया और उन्होंने शकलदीप बाबू को देखकर आश्चर्य प्रकट किया, “अरे, मुख़्तार साहब! घर नहीं गए? डिप्टी-कलक्टरी का नतीजा तो निकल आया।”
शकलदीप बाबू का हृदय धक-से कर गया। उनके होंठ काँपने लगे और उन्होंने कठिनता से मुस्कुराकर पूछा, “अच्छा, कब आया?”
जंगबहादुर सिंह ने बताया, “अरे, दस बजे की गाड़ी से आया। नारायण बाबू का नाम तो अवश्य है, लेकिन…” वह कुछ आगे न बोल सके।
शकलदीप बाबू का हृदय जोरों से धक-धक कर रहा था। उन्होंने अपने सूखे होंठों को जीभ से तर करते हुए अत्यंत ही धीमी आवाज़ में पूछा, “क्या कोई ख़ास बात है?”
“कोई ख़ास बात नहीं है। अरे, उनका नाम तो है ही, यह है कि ज़रा नीचे है। दस लड़के लिए जाएँगे, लेकिन मेरा ख़याल है कि उनका नाम सोलहवाँ-सत्रहवाँ पड़ेगा। लेकिन कोई चिंता की बात नहीं, कुछ लड़के तो कलक्टरी में चले जाते हैं कुछ मेडिकल में ही नहीं आते, और इस तरह पूरी-पूरी उम्मीद है कि नारायण बाबू ले ही लिए जाएँगे।”
शकलदीप बाबू का चेहरा फ़क पड़ गया। उनके पैरों में ज़ोर नहीं था और मालूम पड़ता था कि वह गिर जाएँगे। जंगबहादूर सिंह तो मंदिर में चले गए।
लेकिन वह कुछ देर तक वहीं सिर झुकाकर इस तरह खड़े रहे, जैसे कोई भूली बात याद कर रहे हों। फिर वह चौंक पड़े और अचानक उन्होंने तेज़ी से चलना शुरू कर दिया। उनके मुँह से धीमे स्वर में तेज़ी से शिव-शिव निकल रहा था। आठ-दस गज़ आगे बढ़ने पर उन्होंने चाल और तेज़ कर दी, पर शीघ्र ही बेहद थक गए और एक नीम के पेड़ के नीचे खड़े होकर हाँफने लगे। चार-पाँच मिनट सुस्ताने के बाद उन्होंने फिर चलना शुरू कर दिया। वह छड़ी को उठाते-गिराते, छाती पर सिर गाड़े तथा शिव-शिव का जाप करते, हवा के हल्के झोंके से धीरे-धीरे टेढ़े-तिरछे उड़नेवाले सूखे पत्ते की भाँति डगमग-डगमग चले जा रहे थे। कुछ लोगों ने उनको नमस्ते किया, तो उन्होंने देखा नहीं, और कुछ लोगों ने उनको देखकर मुस्कुराकर आपस में आलोचना-प्रत्यालोचना शुरू कर दी, तब भी उन्होंने कुछ नहीं देखा। लोगों ने संतोष से, सहानुभूति से तथा अफ़सोस से देखा, पर उन्होंने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। उनको बस एक ही धुन थी कि वह किसी तरह घर पहुँच जाएँ।
घर पहुँचकर वह अपने कमरे में चारपाई पर धम-से बैठ गए। उनके मुँह से केवल इतना ही निकला, “नारायण की अम्माँ!”
सारे घर में मुर्दनी छाई हुई थी। छोटे-से आँगन में गंदा पानी, मिट्टी, बाहर से उड़कर आए हुए सूखे पत्ते तथा गंदे काग़ज़ पड़े थे, और नाबदान से दुर्गंध आ रही थी। ओसारे में पड़ी पुरानी बँसखट पर बहुत-से गंदे कपड़े पड़े थे और रसोईघर से उस वक़्त भी धुआँ उठ-उठकर सारे घर की साँस को घोट रहा था।
कहीं कोई खटर-पटर नहीं हो रही थी और मालूम होता था कि घर में कोई है ही नहीं।
शीघ्र ही जमुना न मालूम किधर से निकलकर कमरे में आई और पति को देखते ही उसने घबराकर पूछा, “तबीयत तो ठीक है?”
शकलदीप बाबू ने झुँझलाकर उत्तर दिया, “मुझे क्या हुआ है, जी? पहले यह बताओ, नारायण जी कहाँ हैं?”
जमुना ने बाहर के कमरे की ओर संकेत करते हुए बताया, “उसी में पड़े है।, न कुछ बोलते हैं और न कुछ सुनते हैं। मैं पास गई, तो गुमसुम बने रहे। मैं तो डर गई हूँ।”
शकलदीप बाबू ने मुस्कुराते हुए आश्वासन दिया, “अरे कुछ नहीं, सब कल्याण होगा, चिंता की कोई बात नहीं। पहले यह तो बताओ, बबुआ को तुमने कभी यह तो नहीं बताया था कि उनकी फ़ीस तथा खाने-पीने के लिए मैंने 600 रुपए क़र्ज़ लिए हैं। मैंने तुमको मनाकर दिया था कि ऐसा किसी भी सूरत में न करना।”
जमुना ने कहा, “मैं ऐसी बेवक़ूफ़ थोड़े हूँ। लड़के ने एक-दो बार खोद-खोदकर पूछा था कि इतने रुपए कहाँ से आते हैं? एक बार तो उसने यहाँ तक कहा था कि यह फल-मेवा और दूध बंद कर दो, बाबू जी बेकार में इतनी फ़िज़ूलख़र्ची कर रहे हैं। पर मैंने कह दिया कि तुमको फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं, तुम बिना किसी चिंता के मेहनत करो, बाबू जी को इधर बहुत मुक़दमे मिल रहे हैं।”
शकलदीप बाबू बच्चे की तरह ख़ुश होते हुए बोले, “बहुत अच्छा। कोई चिंता की बात नहीं। भगवान सब कल्याण करेंगे। बबुआ कमरे ही में हैं न?”
जमुना ने स्वीकृति से सिर लिया दिया।
शकलदीप बाबू मुस्कुराते हुए उठे। उनका चेहरा पतला पड़ गया था, आँखे धँस गई थीं और मुख पर मूँछें झाड़ू की भाँति फ़र्क़ रही थीं। वह जमुना से यह कहकर कि ‘तुम अपना काम देखो, मैं अभी आया’, क़दम को दबाते हुए बाहर के कमरे की ओर बढ़े। उनके पैर काँप रहे थे और उनका सारा शरीर काँप रहा था, उनकी साँस गले में अटक-अटक जा रही थी।
उन्होंने पहले ओसारे ही में से सिर बढ़ाकर कमरे में झाँका। बाहर वाला दरवाज़ा और खिड़कियाँ बंद थीं, परिणामस्वरूप कमरे में अँधेरा था। पहले तो कुछ न दिखाई पड़ा और उनका हृदय धक-धक करने लगा। लेकिन उन्होंने थोड़ा और आगे बढ़कर ग़ौर से देखा, तो चारपाई पर कोई व्यक्ति छाती पर दोनों हाथ बाँधे चित्त पढ़ा था। वह नारायण ही था। वह धीरे-से चोर की भाँति पैरों को दबाकर कमरे के अंदर दाख़िल हुए।
उनके चेहरे पर अस्वाभाविक विश्वास की मुस्कुराहट थिरक रही थी। वह मेज़ के पास पहुँचकर चुपचाप खड़े हो गए और अँधेरे ही में किताब उलटने-पुलटने लगे। लगभग डेढ़-दो मिनट तक वहीं उसी तरह खड़े रहने पर वह सराहनीय फुर्ती से घूमकर नीचे बैठ गए और खिसककर चारपाई के पास चले गए और चारपाई के नीचे झाँक-झाँककर देखने लगे, जैसे कोई चीज़ खोज रहे हों।
तत्पश्चात पास में रखी नारायण की चप्पल को उठा लिया और एक-दो क्षण उसको उलटने-पुलटने के पश्चात उसको धीरे-से वहीं रख दिया। अंत में वह साँस रोककर धीरे-धीरे इस तरह उठने लगे, जैसे कोई चीज़ खोजने आए थे, लेकिन उसमें असफल होकर चुपचाप वापस लौट रहे हों। खड़े होते समय वह अपना सिर नारायण के मुख के निकट ले गए और उन्होंने नारायण को आँखें फाड़-फाड़कर ग़ौर से देखा। उसकी आँखे बंद थीं और वह चुपचाप पड़ा हुआ था, लेकिन किसी प्रकार की आहट, किसी प्रकार का शब्द नहीं सुनाई दे रहा था। शकलदीप बाबू एकदम डर गए और उन्होंने काँपते हृदय से अपना बायाँ कान नारायण के मुख के बिलकुल नज़दीक कर दिया। और उस समय उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने अपने लड़के की साँस को नियमित रूप से चलते पाया।
वह चुपचाप जिस तरह आए थे, उसी तरह बाहर निकल गए। पता नहीं कब से, जमुना दरवाज़े पर खड़ी चिंता के साथ भीतर झाँक रही थी। उसने पति का मुँह देखा और घबराकर पूछा, “क्या बात है? आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? मुझे बड़ा डर लग रहा है।”
शकलदीप बाबू ने इशारे से उसको बोलने से मना किया और फिर उसको संकेत से बुलाते हुए अपने कमरे में चले गए। जमुना ने कमरे में पहुँचकर पति को चिंतित एवं उत्सुक दृष्टि से देखा।
शकलदीप बाबू ने गद्गद् स्वर में कहा, “बबुआ सो रहे हैं।”
वह आगे कुछ न बोल सके। उनकी आँखें भर आई थीं। वह दूसरी ओर देखने लगे।
shakaldip babu kahin ek ghante baad vapas laute. ghar mein pravesh karne ke poorv unhonne osare ke kamre mein jhanka, koi bhi muvakkil nahin tha aur muharrir sahab bhi ghayab the. wo bhitar chale ge aur apne kamre ke samne osare mein khaDe hokar bandar ki bhanti ankhe malaka malkakar unhonne rasoighar ki or dekha. unki patni jamuna, chauke ke paas piDhe par baithi honth par honth dabaye munh phulaye tarkari kaat rahi thi. wo mand mand muskurate hue apni patni ke paas chale ge. unke mukh par asadharan santosh, vishvas evan utsaah ka bhaav ankit tha. ek ghante poorv aisi baat nahin thi.
baat is prakar arambh hui. shakaldip babu sabere dataun kulla karne ke baad apne kamre mein baithe hi the ki jamuna ne ek tashtari mein do jalebiyan nashte ke liye samne rakh deen. wo bina kuch bole jalpan karne lage. jamuna pahle to ek aadh minat chup rahi. phir pati ke mukh ki or uDti nazar se dekhne ke baad usne baat chheDi, “do teen din se babua bahut udaas rahte hain. ”
“kyaa?” sir uthakar shakaldip babu ne puchha aur unki bhaunhe tan gain. jamuna ne vyarth mein muskurate hue kaha, “kal bole, is saal Dipti kalaktri ki bahut si jaghen hain, par babuji se kahte Dar lagta hai. kah rahe the, do chaar din mein fees bhejne ki tarikh beet jayegi. ”
shakaldip babu ka baDa laDka narayan, ghar mein babua ke naam se hi pukara jata tha. umr uski lagbhag 24 varsh ki thi. pichhle teen chaar saal se bahut si parikshaon mein baithne, em. el. e. logon ke darvazon ke chakkar lagane tatha aur bhi ulte sidhe fan istemal karne ke bavjud usko ab tak koi naukari nahin mil saki thi. do baar Dipti kalaktri ke imtihan mein bhi wo baith chuka tha, par durbhagya! ab ek avsar use aur milna tha, jisko wo chhoDna na chahta tha, aur use vishvas tha ki chunki jaghen kafi hain aur wo abki ji jaan se parishram karega, isliye bahut sambhav hai ki wo le liya jaye.
shakaldip babu mukhtar the. lekin idhar DeDh do saal se mukhtari ki gaDi unke chalaye na chalti thi. buDhauti ke karan ab unki avaz mein na wo taDap rah gai thi, na sharir mein wo taqat aur na chaal mein wo akaD, isliye muvakkil unke yahan kam hi pahunchte. kuch to aakar bhi bhaDak jate. is haalat mein wo raam ka naam lekar kachahri jate, aksar kuch pa jate, jisse donon joon chauka chulha chal jata.
jamuna ki baat sunkar wo ekdam bigaD ge. krodh se unka munh vikrit ho gaya aur wo sir ko jhatakte hue, katah kukur ki tarah bole, “to main kya karun? main to hairan pareshan ho gaya hoon. tum log meri jaan lene par tule hue ho. saaf saaf sun lo, main teen baar kahta hoon, mujhse nahin hoga, mujhse nahin hoga, mujhse nahin hoga. ”
jamuna kuch na boli, kyonki wo janti thi ki pati ka krodh karna svabhavik hai.
shakaldip babu ek do kshan chup rahe, phir dayen haath ko uupar niche nachate hue bole, “phir iski garanti hi kya hai ki is dafe babu sahab le hi liye jayenge? mamuli e. ji. aufis ki klarki mein to puchhe nahin ge, Dipti kalaktri mein kaun puchhega? aap mein kya khubi hai, sahab ki aap Dipti kalaktar ho hi jayenge? tharD klaas bi. e. aap hain, chaubison ghante matargashti aap karte hain, din raat sigret aap phunkte hain. aap mein kaun se surkhab ke par lage hain? baDe baDe bah ge, gadha puchhe kitna pani! phir karam karam ki baat hoti hai. bhai, samajh lo, tumhare karam mein naukari likhi hi nahin. are haan, agar sabhi kukur kashi hi sevenge to hanDiya kaun chatega? Dipti kalaktri, Dipti kalaktri! sach puchho, to Dipti kalaktri naam se mujhe ghrina ho gai hai!”
aur honth bichak ge.
jamuna ne ab mridu svar mein unke kathan ka prativad kiya, “aisi kubhasha munh se nahin nikalni chahiye. hamare laDke mein dosh hi kaun sa hai? lakhon mein ek hai. sabr ki sau dhaar, mera to dil kahta hai is baar babua zarur le liye jayenge. phir pahli bhookh pyaas ka laDka hai, maan baap ka sukh to janta hi nahin. itna bhi nahin hoga, to uska dil toot jayega. yoon hi na malum kyon hamesha udaas rahta hai, theek se khata pita nahin, theek se bolta nahin, pahle ki tarah gata gungunata nahin. na malum mere laDle ko kya ho gaya hai. ” ant mein uska gala bhar aaya aur wo dusri or munh karke ankhon mein aaye ansuon ko rokne ka prayas karne lagi.
jamuna ko rote hue dekhkar shakaldip babu aape se bahar ho ge. krodh tatha vyangya se munh chiDhate hue bole, “laDka hai to lekar chato! sari khurafat ki jaD tum hi ho, aur koi nahin! tum mujhe zinda rahne dena nahin chahtin, jis din meri jaan niklegi, tumhari chhati thanDi hogi!” wo hanfane lage. unhonne jamuna par nirdaytapurvak aisa zabardast aarop kiya tha, jise wo sah na saki. roti hui boli, “achchhi baat hai, agar main sari khurafat ki jaD hoon to main kamini ki bachchi, jo aaj se koi baat. . . ” rulai ke mare wo aage na bol saki aur tezi se kamre se bahar nikal gai.
shakaldip babu kuch nahin bole, balki vahin baithe rahe. munh unka tana hua tha aur gardan teDhi ho gai thi. ek aadh minat tak usi tarah baithe rahne ke pashchat wo zamin par paDe akhbar ke ek phate purane tukDe ko uthakar is tallinta se paDhne lage, jaise kuch bhi na hua ho.
lagbhag pandrah bees minat tak wo usi tarah paDhte rahe. phir achanak uth khaDe hue. unhonne lungi ki tarah lipti dhoti ko kholkar theek se pahan liya aur uupar se apna parsi kot Daal liya, jo kuch maila ho gaya tha aur jismen do chippiyan lagi theen, aur purana pamp shu pahan, haath mein chhaDi le, ek do baar khansakar bahar nikal ge.
pati ki baat se jamuna ke hriday ko gahra aghat pahuncha tha. shakaldip babu ko bahar jate hue usne dekha, par wo kuch nahin boli. wo munh phulaye chupchap ghar ke atram satram kaam karti rahi. aur ek ghante baad bhi jab shakaldip babu bahar se laut uske paas aakar khaDe hue, tab bhi wo kuch na boli, chupchap tarkari katti rahi.
shakaldip babu ne khansakar kaha, “sunti ho, ye DeDh sau rupe rakh lo. qarib sau rupe babua ki fees mein lagenge aur pachas rupe alag rakh dena, koi aur kaam aa paDe. ”
jamuna ne haath baDhakar rupe to avashya le liye, par ab bhi kuch nahin boli.
lekin shakaldip babu atyadhik prasann the aur unhonne utsahpurn avaz mein kaha, “sau rupe babua ko de dena, aaj hi fees bhej den. honge, zarur honge, babua Dipti kalaktar avashya honge. koi karan hi nahin ki wo na liye jayen. laDke ke zehn mein koi kharabi thoDe hai. raam raam. . . ! nahin, chinta ki koi baat nahin. narayan ji is baar bhagvan ki kripa se Dipti kalaktar avashya honge. ”
jamuna ab bhi chup rahi aur rupyon ko trank mein rakhne ke liye uthkar apne kamre mein chali gai.
shakaldip babu apne kamre ki or laut paDe. par kuch door jakar phir ghoom paDe aur jis kamre mein jamuna gai thi, uske darvaze ke samne aakar khaDe ho ge aur jamuna ko trank mein rupe band karte hue dekhte rahe. phir bole, “ghalati kisi ki nahin. sara dosh to mera hai. dekho na, main baap hokar kahta hoon ki laDka naqabil hai! nahin, nahin, sari khurafat ki jaD main hi hoon, aur koi nahin. ”
ek do kshan wo khaDe rahe, lekin tab bhi jamuna ne koi uttar nahin diya to kamre mein jakar wo apne kapDe utarne lage.
narayan ne usi din Dipti kalaktri ki fees tatha faarm bhej diye.
dusre din aadat ke khilaf pratःkal hi shakaldip babu ki neend uchat gai. wo haDabDakar ankhen malte hue uth khaDe hue aur bahar osare mein aakar charon or dekhne lage. ghar ke sabhi log nidra mein nimagn the. soe hue logon ki sanson ki avaz aur machchhron ki bhanbhan sunai de rahi thi. charon or andhera tha. lekin bahar ke kamre se dhimi raushani aa rahi thi. shakaldip babu chaunk paDe aur pairon ko dabaye kamre ki or baDhe.
unki umr pachas ke uupar hogi. wo gore, nate aur duble patle the. unke mukh par anaginat rekhaon ka jaal buna tha aur unki banhon tatha gardan par chamDe jhool rahe the.
darvaze ke paas pahunchakar, unhonne panje ke bal khaDe ho, honth dabakar kamre ke andar jhanka. unka laDka narayan mez par rakhi lalten ke samne sir jhukaye dhyanapurvak kuch paDh raha tha. shakaldip babu kuch der tak ankhon ko sashcharya phailakar apne laDke ko dekhte rahe, jaise kisi ananddayi rahasya ka unhonne achanak pata laga liya ho. phir wo chupchap dhire se pichhe hat ge aur vahin khaDe hokar zara muskuraye aur phir dabe paanv dhire dhire vapas laute aur apne kamre ke samne osare ke kinare khaDe hokar asman ko utsuktapurvak niharne lage.
unki aadat chhah, saDhe chhah baje se pahle uthne ki nahin thi. lekin aaj uth ge the, to man aprasann nahin hua. asman mein tare ab bhi chatak dikhai de rahe the, aur bahar ke peDon ko hilati hui aur khapDe ko sparsh karke angan mein na malum kis disha se aati jati hava unko anandit evan utsahit kar rahi thi. wo punः muskura paDe aur unhonne dhire se phusaphusaya, “chalo, achchha hi hai. ”
aur achanak unmen na malum kahan ka utsaah aa gaya. unhonne usi samay hi dataun karna shuru kar diya. in karyon se nibatne ke baad bhi andhera hi raha, to balti mein pani bhara aur use ghusalkhane mein le jakar snaan karne lage. snaan se nivritt hokar jab wo bahar nikle, to unke sharir mein ek apurv tazgi tatha man mein ek avarnniy utsaah tha.
yadyapi unhonne apne sabhi karya chupchap karne ki koshish ki thi, to bhi deh durbal hone ke karan kuch khatpat ho gai, jiske parinamasvrup unki patni ki neend khul gai. jamuna ko to pahle chor vor ka sandeh hua, lekin usne jhatpat aakar jab dekha, to ashcharyachkit ho gai. shakaldip babu angan mein khaDe khaDe akash ko nihar rahe the.
jamuna ne chintatur svar mein kaha, “itni jaldi snaan ki zarurat kya thee? itna sabere to kabhi bhi nahin utha jaya jata tha? kuch ho hava gaya, to?”
jamuna bigaD gai, “dhire dhire kyon bolun, isi lachchhan se parsal bimar paD jaya gaya tha. ”
shakaldip babu ko ashanka hui ki is tarah batachit karne se takrar baDh jayega, shor sharaba hoga, isliye unhonne patni ki baat ka koi uttar nahin diya. wo pichhe ghoom paDe aur apne kamre mein aakar lalten jalakar chupchap ramayan ka paath karne lage.
puja samapt karke jab wo uthe, to ujala ho gaya tha. wo kamre se bahar nikal aaye. ghar ke baDe log to jaag ge the, par bachche abhi tak soe the. jamuna bhanDar ghar mein kuch khatar patar kar rahi thi. shakaldip babu taaD ge aur wo bhanDar ghar ke darvaze ke samne khaDe ho ge aur kamar par donon haath rakhkar kutuhal ke saath apni patni ko kunDe mein se chaval nikalte hue dekhte rahe.
kuch der baad unhonne parashn kiya, “narayan ki amma, ajkal tumhara puja paath nahin hota kyaa? aur jhempkar wo muskuraye.
shakaldip babu iske poorv sada radhasvamiyon par bigaDte the aur mauqa bemauqa unki kaDi alochana bhi karte the. isko lekar aurton mein kabhi kabhi rona pitna tak bhi ho jata tha. isliye aaj bhi jab shakaldip babu ne puja paath ki baat ki, to jamuna ne samjha ki wo vyangya kar rahe hain. usne bhi pratyuttar diya, “ham logon ko puja paath se kya matlab? hamko to narak mein hi jana hai. jinko sarag jana ho, wo karen!”
“lo bigaD gain,” shakaldip babu mand mand muskurate hue jhat se bole, “are, main mazaq thoDe kar raha tha! main baDi ghalati par tha, radhasvami to baDe prabhavashali devta hain. ”
jamuna ko radhasvami ko devta kahna bahut bura laga aur wo tinakkar boli, “radhasvami ko devta kahte hain? wo to parampita parmesar hain, unka lok sabse uupar hai, uske niche hi brahma, vishnu aur mahesh ke lok aate hain. ”
“theek hai, theek hai, lekin kuch puja paath bhi karogi? sunte hain sachche man se radhasvami ki puja karne se sabhi manorath siddh ho jate hain. ” shakaldip babu uttar dekar kanpte honthon mein muskurane lage.
jamuna ne punः bhul sudhar kiya, “ismen dikhana thoDe hota hai; man mein naam le liya jata hai. sabhi manorath ban jate hain aur marne ke baad aatma parampita mein mil jati hai. phir chaurasi nahin bhugatna paDta. ”
shakaldip babu ne sotsah kaha, “theek hai, bahut achchhi baat hai. zara aur sabere uthkar naam le liya karo. subah nahane se tabiyat din bhar saaf rahti hai. kal se tum bhi shuru kar do. main to abhaga tha ki meri ankhen aaj tak band rahi. khair, koi baat nahin, ab bhi kuch nahin bigDa hai, kal se tum bhi savere chaar baje uth jana. ”
unko bhay hua ki jamuna kahin unke prastav ka virodh na kare, isliye itna kahne ke baad wo pichhe ghumkar khisak ge. lekin achanak kuch yaad karke wo laut paDe. paas aakar unhonne patni se muskurate hue puchha, “babua ke liye nashte ka intizam kya karogi?”
“theek hai, lekin aaj halva kyon nahin bana letin? ghar ka bana saman achchha hota hai. aur kuch meve manga lo. ”
“halve ke liye ghi nahin hai. phir itne paise kahan hain?” jamuna ne majburi zahir ki.
“pachas rupe to bache hain na, usmen se kharch karo. ann jal ka sharir, laDke ko theek se khane pine ka na milega, to wo imtihan kya dega? rupe ki chinta mat karo, main abhi zinda hoon!” itna kahkar shakaldip babu thahaka lagakar hans paDe. vahan se hatne ke poorv wo patni ko ye bhi hidayat dete ge, “ek baat aur karo. tum laDke logon se Dantakar kah dena ki ve bahar ke kamre mein jakar bazar na lagayen, nahin to maar paDegi. haan, paDhne mein badha pahunchegi. dusri baat ye ki babua se kah dena, wo bahar ke kamre mein baithkar itminan se paDhen, main bahar sahn mein baith lunga. ”
shakaldip babu sabere ek DeDh ghante bahar ke kamre mein baithte the. vahan wo muvakkilon ke aane ki prtiksha karte aur unhen samjhate bujhate.
aur wo us din sachmuch hi makan ke bahar pipal ke peD ke niche, jahan paryapt chhaya rahti thi, ek mez aur kursiyan lagakar baith ge. jaan pahchan ke log vahan se guzre, to unhen vahan baithe dekhkar ashcharya hua. jab saDak se guzarte hue babbanlal peshakar ne unse puchha ki “bhai sahab, aaj kya baat hai?” to unhonne zor se chillakar kaha ki “bhitar baDi garmi hai. ” aur unhonne jokar ki tarah munh bana diya aur ant mein thahaka markar hans paDe, jaise koi bahut baDa mazaq kar diya ho.
shaam ko jahan roz wo pahle hi kachahri se aa jate the, us din der se laute. unhonne patni ke haath mein chaar rupe to diye hi, saath hi do seb tatha kainchi sigret ke paanch paiket bhi baDha diye.
“sigret kya hogi?” jamuna ne sashcharya puchha.
“tumhare liye hai”, shakaldip babu ne dhire se kaha aur dusri or dekhkar muskurane lage, lekin unka chehra sharm se kuch tamtama gaya.
jamuna ne mathe par ki saDi ko niche khinchte hue kaha, “kabhi sigret pi bhi hai ki aaj hi piungi. is umr mein mazaq karte laaj nahin ati?”
shakaldip babu kuch bole nahin aur thoDa muskurakar idhar udhar dekhne lage. phir gambhir hokar unhonne dusri or dekhte hue dhire se kaha, “babua ko de dena”, aur wo turant vahan se chalte bane.
jamuna bhaunchak hokar kuch der unko dekhti rahi, kyonki aaj ke poorv to wo yahi dekhti aa rahi thi ki narayan ke dhumrapan ke wo sakht khilaf rahe hain aur isko lekar kai baar laDke ko Daant Dapat chuke hain. uski samajh mein kuch na aaya, to wo ye kahkar muskura paDi ki buddhi sathiya gai hai.
narayan din bhar paDhne likhne ke baad tahalne gaya hua tha. shakaldip babu jaldi se kapDe badalkar haath mein jhaDu le bahar ke kamre mein ja pahunche. unhonne dhire dhire kamre ko achchhi tarah jhaDa buhara, iske baad narayan ki mez ko saaf kiya tatha mezposh ko zor zor se kai baar jhaaD phatakkar safai ke saath us par bichha diya. ant mein narayan ki charpai par paDe bichhaune ko kholkar usmen ki ek ek cheez ko jhaaD phatkarkar yatnpurvak bichhane lage.
itne mein jamuna ne aakar dekha, to mridu svar mein kaha, “kachahri se aane par yahi kaam rah gaya hai kyaa? bichhauna roz bichh hi jata hai aur kamre ki mahrin safai kar hi deti hai. ”
“achchha, theek hai. main apni tabiyat se kar raha hoon, koi zabardasti thoDi hai. ” shakaldip babu ke mukh par halke jhemp ka bhaav ankit ho gaya tha aur wo apni patni ki or na dekhte hue aisi avaz mein bole, jaise unhonne achanak ye karya arambh kar diya tha—“aur jab itna kar hi liya hai, to beech mein chhoDne se kya laabh, pura hi kar len. ” kachahri se aane ke baad roz ka unka niyam ye tha ki wo kuch nashta pani karke charpai par let jate the. unko aksar neend aa jati thi aur wo lagbhag aath baje tak sote rahte the. yadi neend na bhi aati, to bhi wo isi tarah chupchap paDe rahte the.
“nashta taiyar hai”, ye kahkar jamuna vahan se chali gai.
shakaldip babu kamre ko chamacham karne, bichhaune lagane tatha kursiyon ko tartib se sajane ke pashchat angan mein aakar khaDe ho ge aur bematlab thanakkar hanste hue bole, “apna kaam sada apne haath se karna chahiye, naukron ka kya thikana?”
lekin unki baat par sambhvatः kisi ne dhyaan nahin diya aur na uska uttar hi.
dhire dhire din bitte ge aur narayan kathin parishram karta raha. kuch dinon se shakaldip babu sayankal ghar se lagbhag ek meel ki duri par sthit shivji ke ek mandir mein bhi jane lage the. wo bahut chalta mandir tha aur usmen bhaktajnon ki bahut bheeD hoti thi. kachahri se aane ke baad wo narayan ke kamre ko jhaDte buharte, uska bichhauna lagate, mez kursiyan sajate aur ant mein nashta karke mandir ke liye ravana ho jate. mandir mein ek DeDh ghante tak rahte aur lagbhag das baje ghar aate. ek din jab wo mandir se laute, to saDhe das baj ge the. unhonne dabe paanv osare mein paanv rakha aur apni aadat ke anusar kuch der tak muskurate hue jhaank jhankakar kothari mein narayan ko paDhte hue dekhte rahe. phir bhitar ja apne kamre mein chhaDi rakhkar, nal par haath pair dhokar, bhojan ke liye chauke mein jakar baith ge.
patni ne khana paros diya. shakaldip babu ne munh mein kaur chubhlate hue puchha, “babua ko meve de diye the?”
wo aaj sayankal jab kachahri se laute the, to meve lete aaye the. unhonne meve ko patni ke havale karte hue kaha tha ki ise sirf narayan ko hi dena, aur kisi ko nahin.
jamuna ko jhapki aa rahi thi, lekin usne pati ki baat sun li, chaunkkar boli, “kahan? meva trank mein rakh diya tha, socha tha, babua ghumkar ayenge to chupke se de dungi. par laDke to danav doot bane hue hain, ona kona, antara santara, sabhi jagah pahunch jate hain. tuntun ne kahin se dekh liya aur usne sara ka sara kha Dala. ”
tuntun shakaldip babu ka sabse chhota barah varsh ka atyant hi natkhat laDka tha.
“kyon?” shakaldip babu chilla paDe. unka munh khul gaya tha aur unki jeebh par roti ka ek chhota tukDa drishtigochar ho raha tha. jamuna kuch na boli. ab shakaldip babu ne ghusse mein patni ko munh chiDhate hue kaha, “kha gaya, kha gaya! tum kyon na kha gai! tum logon ke khane ke liye hi lata hoon na? hoon! kha gaya!”
jamuna bhi tinak uthi, “to kya ho gaya? kabhi meva mishri, phal mool to unko milta nahin, bechare khuddi chunni jo kuch milta hai, usi par sabr bandhe rahte hain. apne haath se kharidkar kabhi kuch diya bhi to nahin gaya. laDka hi to hai, man chal gaya, kha liya. phir mainne use bahut mara bhi, ab uski jaan to nahin le lungi. ”
“achchha to khao tum aur tumhare laDke! khoob maze mein khao! aise khane par lanat hai!” wo ghusse se thar thar kanpte hue chilla paDe aur phir chauke se uthkar kamre mein chale ge.
jamuna bhay, apman aur ghusse se rone lagi. usne bhi bhojan nahin kiya aur vahan se uthkar charpai par munh Dhankakar paD rahi. lekin dusre din pratःkal bhi shakaldip babu ka ghussa thanDa na hua aur unhonne nahane dhone tatha puja paath karne ke baad sabse pahla kaam ye kiya ki jab tuntun jaga, to unhonne usko apne paas bulaya aur usse puchha ki usne meva kyon khaya? jab usko koi uttar na sujha aur wo bhakku bankar apne pita ki or dekhne laga, to shakaldip babu ne use kai tamache jaD diye.
Dipti kalaktri ki pariksha ilahabad mein hone vali thi aur vahan ravana hone ke din aa ge. is beech narayan ne itna adhik parishram kiya ki sabhi ashcharyachkit the. wo attharah unnis ghante tak paDhta. uski paDhai mein koi badha upasthit nahin hone pati, bas use paDhna tha. uska kamra saaf milta, uska bichhauna bichha milta, donon joon gaanv ke shuddh ghi ke saath daal bhaat,roti, tarkari milti. sharir ki shakti tatha dimagh ki tazgi ko banaye rakhne ke liye nashte mein sabere halva doodh tatha shaam ko meve ya phal. aur to aur, laDke ki tabiyat na uchte, isliye sigret ki bhi samuchit vyavastha thi. jab sigret ke paiket khatm hote, to jamuna uske paas chaar paanch paiket aur rakh aati.
jis din narayan ko ilahabad jana tha, shakaldip babu ki chhutti thi aur ve sabere hi ghumne nikal ge. wo kuch der tak kampni garDan mein ghumte rahe, phir vahan tabiyat na lagi, to nadi ke kinare pahunch ge. vahan bhi man na laga, to apne param mitr kailash bihari mukhtar ke yahan chale ge. vahan bahut der tak gap saDaka karte rahe, aur jab gaDi ka samay nikat aaya, to jaldi jaldi ghar aaye.
gaDi nau baje khulti thi. jamuna tatha narayan ki patni nirmala ne sabere hi uthkar jaldi jaldi khana bana liya tha. narayan ne khana khaya aur sabko prnaam kar steshan ko chal paDa. shakaldip babu bhi steshan ge. narayan ko vida karne ke liye uske chaar paanch mitr bhi steshan par pahunche the. jab tak gaDi nahin aai thi, narayan pletfarm par un mitron se baten karta raha. shakaldip babu alag khaDe idhar udhar is tarah dekhte rahe, jaise narayan se unka koi parichay na ho. aur jab gaDi aai aur narayan apne pita tatha mitron ke sahyog se gaDi mein pure saman ke saath chaDh gaya, to shakaldip babu vahan se dhire se khisak ge aur vhilar ke buk staul par ja khaDe hue. buk staul ka adami jaan pahchan ka tha, usne namaskar karke puchha, “kahiye, mukhtar sahab, aaj kaise aana hua?”
shakaldip babu ne santoshpurvak muskurate hue uttar diya, “laDka ilahabad ja raha hai, Dipti kalaktri ka imtihan dene. shaam tak pahunch jayega. DyoDhe darje ke paas jo Dibba hai na, usi mein hai. niche jo chaar paanch laDke khaDe hain, ve uske mitr hai. socha, bhai hum log buDhe thahre, laDke imtihan vimtihan ki baat kar rahe honge, kya samjhenge, isliye idhar chala aaya. ” unki ankhe hasya se sankuchit ho gain.
vahan wo thoDi der tak rahe. iske baad jakar ghaDi mein samay dekha, kuch der tak taraghar ke bahar taar babu ko khatar patar karte hue nihara aur phir vahan se hatkar relgaDiyon ke aane jane ka taim tebul paDhne lage. lekin unka dhyaan sambhvatः gaDi ki or hi tha, kyonki jab tren khulne ki ghanti baji, to vahan se bhagkar narayan ke mitron ke pichhe aa khaDe hue.
narayan ne jab unko dekha, to usne jhatpat niche utarkar pair chhue. “khush raho, beta, bhagvan tumhari manokamana puri kare!” unhonne laDke se budabudakar kaha aur dusri or dekhne lage.
narayan baith gaya aur ab gaDi khulne hi vali thi. achanak shakaldip babu ka dahina haath apne kot ki jeb mein gaya. unhonne jeb se koi cheez lagbhag bahar nikal li, aur wo kuch aage bhi baDhe, lekin phir na malum kya sochkar ruk ge. unka chehra tamtama sa gaya aur jaldibazi mein wo idhar udhar dekhne lage. gaDi siti dekar khul gai to shakaldip babu chaunk uthe. unhonne jeb se wo cheez nikalkar mutthi mein baandh li aur use narayan ko dene ke liye dauD paDe. wo durbal tatha buDhe adami the, isliye unse tez kya dauDa jata, wo pairon mein phurti lane ke liye apne hathon ko is tarah bhaanj rahe the, jaise koi rogi, mariyal laDka apne sathiyon ke beech khel kood ke dauran koi halki phulki shararat karne ke baad tezi se dauDne ke liye gardan ko jhukakar hathon ko chakr ki bhanti ghumata hai. unke pair thap thap ki avaz ke saath pletfarm par gir rahe the, aur unki harakton ka unke mukh par koi vishesh prabhav drishtigochar nahin ho raha tha, bas yahi malum hota ki wo kuch pareshan hain. pletfarm par ekatrit logon ka dhyaan unki or akarshit ho gaya. kuch logon ne mauj mein aakar zor se lalkara, kuch ne kilkariyan marin aur kuch logon ne dauD ke prati unki tatasth mudra ko dekhkar betahasha hansna arambh kiya. lekin ye unka saubhagya hi tha ki gaDi abhi khuli hi thi aur speeD mein nahin aai thi. parinamasvrup unka hasyajnak prayas saphal hua aur unhonne Dibbe ke samne pahunchakar utsuk tatha chintit mudra mein Dibbe se sir nikalkar jhankte hue narayan ke haath mein ek puDiya dete hue kaha, “beta, ise shraddha ke saath kha lena, bhagvan shankar ka parsad hai. ”
puDiya mein kuch batashe the, jo unhonne kal shaam ko shivji ko chaDhaye the aur jise pata nahin kyon, narayan ko dena bhool ge the. narayan ke mitr kutuhal se muskurate hue unki or dekh rahe the, aur jab wo paas aa ge, to ek ne puchha, “babu ji, kya baat thi, hamse kah dete. ” shakaldip babu ye kahkar ki, “koi baat nahin, kuch rupe the, socha, main hi de doon, tezi se aage baDh ge. ”
pariksha samapt hone ke baad narayan ghar vapas aa gaya. usne sachmuch parche bahut achchhe kiye the aur usne gharvalon se saaf saaf kah diya ki yadi koi beimani na hui, to wo intravyu mein avashya bulaya jayega. gharvalon ki baat to dusri thi, lekin jab muhalle aur shahr ke logon ne ye baat suni, to unhonne vishvas nahin kiya. log vyangya mein kahne lage, har saal to yahi kahte hain bachchu! wo koi dusre hote hain, jo intravyu mein bulaye jate hain!
lekin baat narayan ne jhooth nahin kahi thi, kyonki ek din uske paas suchana aai ki usko ilahabad mein pradeshik lok seva aayog ke samaksh intravyu ke liye upasthit hona hai. ye samachar bijli ki tarah sare shahr mein phail gaya. bahut saal baad is shahr se koi laDka Dipti kalaktri ke intravyu ke liye bulaya gaya tha. logon mein ashcharya ka thikana na raha.
sayankal kachahri se aane par shakaldip babu sidhe angan mein ja khaDe ho ge aur zor se thathakar hans paDe. phir kamre mein jakar kapDe utarne lage. shakaldip babu ne kot ko khunti par tangate hue lapakkar aati hui jamuna se kaha, “ab karo na raaj! hamesha shor machaye rahti thi ki ye nahin hai, wo nahin hai! ye mamuli baat nahin hai ki babua intravyu mein bulaye ge hain, aaya hi samjho!”
“jab aa jayen, tabhi na”, jamuna ne kanjusi se muskurate hue kaha. shakaldip babu thoDa hanste hue bole, “tumko ab bhi sandeh hai? lo, main kahta hoon ki babua zarur ayenge, zarur ayenge! nahin aaye, to main apni moonchh muDva dunga. aur koi kahe ya na kahe, main to is baat ko pahle se hi janta hoon. are, main hi kyon, sara shahr yahi kahta hai. ambika babu vakil mujhe badhai dete hue bole, intravyu mein bulaye jane ka matlab ye hai ki agar intravyu thoDa bhi achchha ho gaya, to chunav nishchit hai. ” meri naak mein dam tha, jo bhi sunta, badhai dene chala aata. ”
“muhalle ke laDke mujhe bhi aakar badhai de ge hain. janki, kamal aur gauri to abhi abhi ge hain. jamuna ne svapnil ankhon se apne pati ko dekhte hue suchana di. ”
“to tumhari koi mamuli hasti hai! are, tum Dipti kalaktar ki maan ho na, jee!” itna kahkar shakaldip babu thahaka markar hans paDe. jamuna kuch nahin boli, balki usne muski katkar saDi ka palla sir ke aage thoDa aur khinchkar munh teDha kar liya. shakaldip babu ne jute nikalkar charpai par baithte hue dhire se kaha, “are bhai, hamko tumko kya lena hai, ek kone mein paDkar ramnam japa karenge. lekin main to abhi ye soch raha hoon ki kuch saal tak aur mukhtari karunga. nahin, yahi theek rahega. ” unhonne gaal phulakar ek do baar moonchh par taav diye.
jamuna ne iska prativad kiya, “laDka manega thoDe, kheench le jayega. hamesha ye dekhkar uski chhati phatti rahti hai ki babu ji itni mehnat karte hain aur wo kuch bhi madad nahin karta. ”
“kuchh kah raha tha kyaa?” shakaldip babu ne dhire se puchha aur patni ki or na dekhkar darvaze ke bahar munh banakar dekhne lage.
jamuna ne ashvasan diya, “main janti nahin kyaa? uska chehra batata hai. baap ko itna kaam karte dekhkar usko kuch achchha thoDe lagta hai!” ant mein usne naak suDak liye.
narayan pandrah din baad intravyu dene gaya. aur usne intravyu bhi kafi achchha kiya. wo ghar vapas aaya, to uske hriday mein atyadhik utsaah tha, aur jab usne ye bataya ki jahan aur laDkon ka pandrah bees minat tak hi intravyu hua, uska pure pachas minat tak intravyu hota raha aur usne sabhi prashnon ka santoshajnak uttar diye, to ab ye sabhi ne maan liya ki narayan ka liya jana nishchit hai.
dusre din kachahri mein phir vakilon aur mukhtaron ne shakaldip babu ko badhaiyan deen aur vishvas prakat kiya ki narayan avashya chun liya jayega. shakaldip babu muskurakar dhanyavad dete aur lage hathon narayan ke vyaktigat jivan ki ek do baten bhi suna dete aur ant mein sir ko aage baDhakar phusphusahat mein dil ka raaj prakat karte, “apse kahta hoon, pahle mere man mein shanka thi, shanka kya solhon aane shanka thi, lekin aap logon ki dua se ab wo door ho gai hai. ”
jab wo ghar laute, to narayan, gauri aur kamal darvaze ke samne khaDe baten kar rahe the. narayan intravyu ke sambandh mein hi kuch bata raha tha. wo apne pita ji ko aata dekhkar dhire dhire bolne laga. shakaldip babu chupchap vahan se guzar ge, lekin do teen gaz hi aage ge honge ki gauri ki avaz unko sunai paDi, “are tumhara ho gaya, ab tum mauz karo!” itna sunte ki shakaldip babu ghoom paDe aur laDkon ke paas aakar unhonne puchha, “kyaa?” unki ankhen sankuchit ho gai theen aur unki mudra aisi ho gai thi, jaise kisi mahfil mein zabardasti ghus aaye hon.
laDke ek dusre ko dekhkar shishttapurvak honthon mein muskuraye. phir gauri ne apne kathan ko aspasht kiya, “main kah raha tha narayan se, babu ji, ki unka chuna jana nishchit hai. ”
shakaldip babu ne saDak se guzarti hui ek motar ko ghaur se dekhne ke baad dhire dhire kaha, “haan, dekhiye na, jahan ek se ek dhurandhar laDke pahunchte hain, sabse to bees minat hi intravyu hota hai, par inse pure pachas minat! agar nahin lena hota, to pachas minat tak tang karne ki kya zarurat thi, paanch das minat puchhatachh karke. . . ”
gauri ne sir hilakar unke kathan ka samarthan kiya aur kamal ne kaha, “pahle ka zamana hota, to kaha bhi nahin ja sakta, lekin ab to beimani beimani utni nahin hoti hogi. ”
shakaldip babu ne ankhen sankuchit karke halki phulki avaz mein puchha, “beimani nahin hoti na?”
“haan, ab utni nahin hoti. pahle baat dusri thi. wo zamana ab lad gaya. ” gauri ne uttar diya.
shakaldip babu achanak apni avaz par zor dete hue bole, “are, ab kaisi beimani sahab, goli mariye, agar beimani hi karni hoti, to itni der tak inka intravyu hota? intravyu mein bulaya hi na hota aur bulate bhi to chaar paanch minat puchhatachh karke vida kar dete. ”
iska kisi ne uttar nahin diya, to wo muskurate hue ghumkar ghar mein chale ge.
ghar mein pahunchne par jamuna se bole, “babua abhi se hi kisi afsar ki tarah lagte hain. darvaze par babua, gauri aur kamal baten kar rahe hain. mainne door hi se ghaur kiya, jab narayan babu bolte hain, to unke bolne aur haath hilane se ek ajib hi shaan tapakti hai. unke doston mein aisi baat kahan?”
“aaj duphar mein mujhe kah rahe the ki tujhe motar mein ghumaunga. ” jamuna ne khushakhabri sunai.
shakaldip babu khush hokar naak suDakte hue bole, “are, to usko motar ki kami hogi, ghumna na jitna chahna. ” wo sahsa chup ho ge aur khoe khoe is tarah muskurane lage, jaise koi svadisht cheez khane ke baad man hi man uska maza le rahe hon.
kuch der baad unhonne patni se parashn kiya, “kya kah raha tha, motar mein ghumaunga?”
jamuna ne phir vahi baat dohra di.
shakaldip babu ne dhire se donon hathon se tali bajate hue muskurakar kaha, “chalo, achchha hai. ” unke mukh par apurv svapnil santosh ka bhaav ankit tha.
saat aath dinon mein natija nikalne ka anuman tha. sabhi ko vishvas ho gaya tha ki narayan le liya jayega aur sabhi natije ki bechaini se prtiksha kar rahe the.
ab shakaldip babu aur bhi vyast rahne lage. puja paath ka unka karyakram purvavat jari tha. logon se batachit karne mein unko kafi maza aane laga aur wo batachit ke dauran aisi sthiti utpann kar dete ki logon ko kahna paDta ki narayan avashya hi le liya jayega. wo apne ghar par ekatrit narayan tatha uske mitron ki baten chhipkar sunte aur kabhi kabhi achanak unke dal mein ghus jate tatha zabardasti baat karne lagte. kabhi kabhi narayan ko apne pita ki ye harkat bahut buri lagti aur wo krodh mein dusri or dekhne lagta. raat mein shakaldip babu chaunkkar uth baithte aur bahar aakar kamre mein laDke ko sote hue dekhne lagte ya angan mein khaDe hokar akash ko niharne lagte.
ek din unhonne sabere hi sabko sunakar zor se kaha, “narayan ki maan, mainne aaj sapna dekha hai ki narayan babu Dipti kalaktar ho ge. ”
jamuna rasoi ke baramde mein baithi chaval phatak rahi thi aur usi ke paas narayan ki patni, nirmala, ghunghat kaDhe daal been rahi thi.
jamuna ne sir uthakar apne pati ki or dekhte hue parashn kiya, “sapna sabere dikhai paDa tha kyaa?”
“sabere ke nahin to shaam ke sapne ke bare mein tumse kahne auunga? are, ekdam brahmamuhurt mein dekha tha! dekhta hoon ki akhbar mein natija nikal gaya hai aur usmen narayan babu ka bhi naam hain ab ye yaad nahin ki kaun nambar tha, par itna kah sakta hoon ki naam kafi uupar tha. ”
“amma ji, sabere ka sapna to ekdam sachcha hota hai na!” nirmala ne dhire se jamuna se kaha.
malum paDta hai ki nirmala ki avaz shakaldip babu ne sun li, kyonki unhonne vihansakar parashn kiya, “kaun bol raha hai, Diptain hain kyaa?” ant mein wo thahaka markar hans paDe.
“haan, kah rahi hain ki savere ka sapna sachcha hota hai. sachcha hota hi hai. ” jamuna ne muskurakar bataya.
nirmala sharm se sankuchit ho gai. usne apne badan ko sikoD tatha peeth ko niche jhukakar apne munh ko apne donon ghutnon ke beech chhipa liya.
agle din bhi sabere shakaldip babu ne gharvalon ko suchana di ki unhonne aaj bhi hu ba hu vaisa hi sapna dekha hai.
jamuna ne apni naak ki or dekhte hue kaha, “sabere ka sapna to hamesha hi sachcha hota hai. jab bahu ko laDka honevala tha, mainne sabere sabere sapna dekha ki koi sarag ki devi haath mein balak liye asman se angan mein utar rahi hai. bas, mainne samajh liya ki laDka hi hai. laDka hi nikla. ”
shakaldip babu ne josh mein aakar kaha, “aur maan lo ki jhooth hai, to ye sapna ek din dikhai paDta, dusre din bhi hu ba hu vahin sapna kyon dikhai deta, phir wo bhi brahmamuhurt mein hee!”
“bahu ne bhi aisa hi sapna aaj sabere dekha hai!”
“Diptain ne bhee?” shakaldip babu ne muski katte hue kaha.
“haan, Diptain ne hi. theek sabere unhonne dekha ki ek bangale mein hum log rah rahe hain aur hamare darvaze par motar khaDi hai. ” jamuna ne uttar diya.
ek din raat ko lagbhag ek baje shakaldip babu ne uthkar patni ko jagaya aur usko alag le jate hue besharm mahabrahman ki bhanti hanste hue parashn kiya, “kaho bhai, kuch khane ko hoga? bahut der se neend hi nahin lag rahi hai, pet kuch maang raha hai. pahle mainne socha, jane bhi do, ye koi khane ka samay hai, par isse kaam bante na dikha, to tumko jagaya. shaam ko khaya tha, sab pach gaya. ”
jamuna achambhe ke saath ankhen phaaD phaDkar apne pati ko dekh rahi thi. dampatya jivan ke itne dirghakal mein kabhi bhi, yahan tak ki shadi ke prarambhik dinon mein bhi, shakaldip babu ne raat mein usko jagakar kuch khane ko nahin manga tha. wo jhunjhla paDi aur usne asantosh vyakt kiya, “aisa pet to kabhi bhi nahin tha. malum nahin, is samay rasoi mein kuch hai ya nahin. ”
shakaldip babu jhempkar muskurane lage.
ek do kshan baad jamuna ne ankhe malkar puchha, “babua ke meve mein se thoDa doon kyaa?”
shakaldip babu jhat se bole, “are, raam raam! meva to, tum janti ho, mujhe bilkul pasand nahin. jao, tum soo, bhookh vookh thoDe hai, mazaq kiya tha. ”
ye kahkar wo dhire se apne kamre mein chale ge. lekin wo lete hi the ki jamuna kamre mein ek chhipuli mein ek roti aur guD lekar aai. shakaldip babu hanste hue uth baithe.
shakaldip babu puja paath karte, kachahri jate, duniya bhar ke logon se duniya bhar ki batachit karte, idhar udhar matargashti karte aur jab khali rahte, to kuch na kuch khane ko maang baithte. wo chator ho ge aur unke jab dekho, bhookh lag jati. is tarah kabhi roti guD kha lete, kabhi aalu bhunvakar chakh lete aur kabhi haath par chini lekar phaank jate. bhojan mein bhi wo parivartan chahne lage. kabhi khichDi ki farmaish kar dete, kabhi sattu pyaaz ki, kabhi sirf roti daal ki, kabhi makuni ki aur kabhi sirf daal bhaat ki hi. unka samay katta hi na tha aur wo samay katna chahte the.
is badaparhezi tatha manasik tanav ka natija ye nikla ki wo bimar paD ge. unko bukhar tatha dast aane lage. unki bimari se ghar ke logon ko baDi chinta hui.
jamuna ne ruansi avaz mein kaha, “baar baar kahti thi ki itni mehnat na kijiye, par sunta hi kaun hai? ab bhogna paDa na!”
par shakaldip babu par iska koi asar na hua. unhonne baat uDa di—“are, main to kachahri janevala tha, par ye sochkar ruk gaya ki ab mukhtari to chhoDni hi hai, thoDa aram kar len. ”
“mukhtari jab chhoDni hogi, hogi, is samay to donon joon ki roti daal ka intizam karna hai. ” jamuna ne chinta prakat ki. “are, tum kaisi baat karti ho? bimari hairani to sabko hoti hai, main mitti ka Dhela to hoon nahin ki gal jaunga. bas, ek aadh din ki baat hain agar bimari sakht hoti, to main is tarah tanak tanakkar bolta?” shakaldip babu ne samjhaya aur ant mein unke honthon par ek ksheen muskurahat khel gai.
wo din bhar bechain rahe. kabhi lette, kabhi uth baithte aur kabhi bahar nikalkar tahalne lagte. lekin durbal itne ho ge the ki paanch das qadam chalte hi thak jate aur phir kamre mein aakar lete rahte. karte karte shaam hui aur jab shakaldip babu ko ye bataya gaya ki kailashabihari mukhtar unka samachar lene aaye hain, to wo uth baithe aur jhatpat chadar oDh, haath mein chhaDi le patni ke laakh mana karne par bhi bahar nikal aaye. dast to band ho gaya tha, par bukhar abhi tha aur itne hi samay mein wo chiDchiDe ho ge the.
kailashabihari ne unko dekhte hi chintatur svar mein kaha, “are, tum kahan bahar aa ge, mujhe hi bhitar bula lete. ”
shakaldip babu charpai par baith ge aur ksheen hansi hanste hue bole, “are, mujhe kuch hua thoDe hain socha, aram karne ki hi aadat Dalun. ” ye kahkar wo arthpurn drishti se apne mitr ko dekhkar muskurane lage.
sab haal chaal puchhne ke baad kailash bihari ne parashn kiya, “narayan babu kahin dikhai nahin de rahe, kahin ghumne ge hain kyaa?”
shakaldip babu ne banavati udasinata prakat karte hue kaha, “haan, ge honge kahin, laDke unko chhoDte bhi to nahin, koi na koi aakar liva jata hai. ”
kailash bihari ne sarahna ki, “khoob hua, sahab! main bhi jab is laDke ko dekhta tha, dil mein sochta tha ki ye aage chalkar kuch na kuch zarur hoga. wo to, sahab, dekhne se hi pata lag jata hai. chaal mein aur bolne chalne ke tariqe mein kuch aisa hai ki. . . chaliye, hum sab is mane mein bahut bhagyashali hain. ”
shakaldip babu idhar udhar dekhne ke baad sir ko aage baDhakar salah mashavire ki avaz mein bole, “are bhai sahab, kahan tak bataun apne munh se kya kahna, par aisa sidha sada laDka to mainne dekha nahin, paDhne likhne ka to itna shauq ki chaubison ghante paDhta rahe. munh kholkar kisi se koi bhi cheez mangta nahin. ”
kailash bihari ne bhi apne laDke ki tarif mein kuch baten pesh kar deen, “laDke to mere bhi sidhe hain, par manjhala laDka shivnath jitna gau hai, utna koi nahin. theek narayan babu hi ki tarah hai!”
“narayan to us zamane ka koi rishi muni malum paDta hai”, shakaldip babu ne gambhirtapurvak kaha, “bas, uski ek hi aadat hai. main uski maan ko meva de deta hoon aur narayan raat mein apni maan ko jagakar khata hai. bhali buri uski bas ek yahi aadat hai. are bhaiya, tumse batata hoon, laDakpan mein hamne iska naam pannalal rakha tha, par ek din ek mahatma ghumte hue hamare ghar aaye. unhonne narayan ka haath dekha aur bole, iska naam pannalal sannalal rakhne ki zarurat nahin, bas aaj se ise narayan kaha karo, iske karm mein raja hona likha hai. pahle zamane ki baat dusri thi, lekin ajkal raja ka arth kya hai? Dipti kalaktar to ek arth mein raja hi hua!” ant mein ankhen matkakar unhonne muskurane ki koshish ki, par hanphane lage.
donon mitr bahut der tak batachit karte rahe, aur adhikansh samay ve apne apne laDkon ka gungan karte rahe.
ghar ke logon ko shakaldip babu ki bimari ki chinta thi. bukhar ke saath dast bhi tha, isliye wo bahut kamzor ho ge the, lekin wo baat ko ye kahkar uDa dete, “are, kuch nahin, ek do din mein main achchha ho jaunga. ” aur ek vaidya ki koi mamuli, sasti dava khakar do din baad wo achchhe bhi ho ge, lekin unki durbalta purvavat thi.
jis din Dipti kalaktri ka natija nikla, ravivar ka din tha.
shakaldip babu sabere ramayan ka paath tatha nashta karne ke baad mandir chale ge. chhutti ke dinon mein wo mandir pahle hi chale jate aur vahan do teen ghante, aur kabhi kabhi to chaar chaar ghante rah jate. wo aath baje mandir pahunch ge. jis gaDi se natija anevala tha, wo das baje aati thi.
shakaldip babu pahle to bahut der tak mandir ki siDhi par baithkar sustate rahe, vahan se uthkar uupar aaye, to nandlal panDe ne, jo chandan ragaD raha tha, narayan ke parikshaphal ke sambandh mein puchhatachh ki. shakaldip vahan par khaDe hokar asadharan vistar ke saath sab kuch batane lage. vahan se jab unko chhutti mili, to dhoop kafi chaDh gai thi. unhonne bhitar jakar bhagvan shiv ke pinD ke samaksh apna matha tek diya. kafi der tak wo usi tarah paDe rahe. phir uthkar unhonne charon or ghoom ghumkar mandir ke ghante bajakar mantrochcharan kiye aur gaal bajaye. ant mein bhagvan ke samaksh punः danDvat kar bahar nikle hi the ki jangabhadur sinh mastar ne shivdarshnarth mandir mein pravesh kiya aur unhonne shakaldip babu ko dekhkar ashcharya prakat kiya, “are, mukhtar sahab! ghar nahin ge? Dipti kalaktri ka natija to nikal aaya. ”
shakaldip babu ka hriday dhak se kar gaya. unke honth kanpne lage aur unhonne kathinta se muskurakar puchha, “achchha, kab aya?”
jangabhadur sinh ne bataya, “are, das baje ki gaDi se aaya. narayan babu ka naam to avashya hai, lekin…” wo kuch aage na bol sake.
shakaldip babu ka hriday joron se dhak dhak kar raha tha. unhonne apne sukhe honthon ko jeebh se tar karte hue atyant hi dhimi avaz mein puchha, “kya koi khaas baat hai?”
“koi khaas baat nahin hai. are, unka naam to hai hi, ye hai ki zara niche hai. das laDke liye jayenge, lekin mera khayal hai ki unka naam solahvan satrahvan paDega. lekin koi chinta ki baat nahin, kuch laDke to kalaktri mein chale jate hain kuch meDikal mein hi nahin aate, aur is tarah puri puri ummid hai ki narayan babu le hi liye jayenge. ”
shakaldip babu ka chehra fak paD gaya. unke pairon mein zor nahin tha aur malum paDta tha ki wo gir jayenge. jangabhadur sinh to mandir mein chale ge.
lekin wo kuch der tak vahin sir jhukakar is tarah khaDe rahe, jaise koi bhuli baat yaad kar rahe hon. phir wo chaunk paDe aur achanak unhonne tezi se chalna shuru kar diya. unke munh se dhime svar mein tezi se shiv shiv nikal raha tha. aath das gaz aage baDhne par unhonne chaal aur tez kar di, par sheeghr hi behad thak ge aur ek neem ke peD ke niche khaDe hokar hanphane lage. chaar paanch minat sustane ke baad unhonne phir chalna shuru kar diya. wo chhaDi ko uthate girate, chhati par sir gaDe tatha shiv shiv ka jaap karte, hava ke halke jhonke se dhire dhire teDhe tirchhe uDnevale sukhe patte ki bhanti Dagmag Dagmag chale ja rahe the. kuch logon ne unko namaste kiya, to unhonne dekha nahin, aur kuch logon ne unko dekhkar muskurakar aapas mein alochana pratyalochana shuru kar di, tab bhi unhonne kuch nahin dekha. logon ne santosh se, sahanubhuti se tatha afsos se dekha, par unhonne kuch bhi dhyaan nahin diya. unko bas ek hi dhun thi ki wo kisi tarah ghar pahunch jayen.
ghar pahunchakar wo apne kamre mein charpai par dham se baith ge. unke munh se keval itna hi nikla, “narayan ki amman!”
sare ghar mein murdani chhai hui thi. chhote se angan mein ganda pani, mitti, bahar se uDkar aaye hue sukhe patte tatha gande kaghaz paDe the, aur nabdan se durgandh aa rahi thi. osare mein paDi purani bansakhat par bahut se gande kapDe paDe the aur rasoighar se us vaqt bhi dhuan uth uthkar sare ghar ki saans ko ghot raha tha.
kahin koi khatar patar nahin ho rahi thi aur malum hota tha ki ghar mein koi hai hi nahin.
sheeghr hi jamuna na malum kidhar se nikalkar kamre mein aai aur pati ko dekhte hi usne ghabrakar puchha, “tabiyat to theek hai?”
shakaldip babu ne jhunjhlakar uttar diya, “mujhe kya hua hai, jee? pahle ye batao, narayan ji kahan hain?”
jamuna ne bahar ke kamre ki or sanket karte hue bataya, “usi mein paDe hai., na kuch bolte hain aur na kuch sunte hain. main paas gai, to gumsum bane rahe. main to Dar gai hoon. ”
shakaldip babu ne muskurate hue ashvasan diya, “are kuch nahin, sab kalyan hoga, chinta ki koi baat nahin. pahle ye to batao, babua ko tumne kabhi ye to nahin bataya tha ki unki fees tatha khane pine ke liye mainne 600 rupe qarz liye hain. mainne tumko manakar diya tha ki aisa kisi bhi surat mein na karna. ”
jamuna ne kaha, “main aisi bevaquf thoDe hoon. laDke ne ek do baar khod khodkar puchha tha ki itne rupe kahan se aate hain? ek baar to usne yahan tak kaha tha ki ye phal meva aur doodh band kar do, babu ji bekar mein itni fizulkharchi kar rahe hain. par mainne kah diya ki tumko fikr karne ki zarurat nahin, tum bina kisi chinta ke mehnat karo, babu ji ko idhar bahut muqadme mil rahe hain. ”
shakaldip babu bachche ki tarah khush hote hue bole, “bahut achchha. koi chinta ki baat nahin. bhagvan sab kalyan karenge. babua kamre hi mein hain na?”
jamuna ne svikriti se sir liya diya.
shakaldip babu muskurate hue uthe. unka chehra patla paD gaya tha, ankhe dhans gai theen aur mukh par munchhen jhaDu ki bhanti farq rahi theen. wo jamuna se ye kahkar ki ‘tum apna kaam dekho, main abhi aaya’, qadam ko dabate hue bahar ke kamre ki or baDhe. unke pair kaanp rahe the aur unka sara sharir kaanp raha tha, unki saans gale mein atak atak ja rahi thi.
unhonne pahle osare hi mein se sir baDhakar kamre mein jhanka. bahar vala darvaza aur khiDkiyan band theen, parinamasvrup kamre mein andhera tha. pahle to kuch na dikhai paDa aur unka hriday dhak dhak karne laga. lekin unhonne thoDa aur aage baDhkar ghaur se dekha, to charpai par koi vyakti chhati par donon haath bandhe chitt paDha tha. wo narayan hi tha. wo dhire se chor ki bhanti pairon ko dabakar kamre ke andar dakhil hue.
unke chehre par asvabhavik vishvas ki muskurahat thirak rahi thi. wo mez ke paas pahunchakar chupchap khaDe ho ge aur andhere hi mein kitab ulatne pulatne lage. lagbhag DeDh do minat tak vahin usi tarah khaDe rahne par wo sarahaniy phurti se ghumkar niche baith ge aur khisakkar charpai ke paas chale ge aur charpai ke niche jhaank jhankakar dekhne lage, jaise koi cheez khoj rahe hon.
tatpashchat paas mein rakhi narayan ki chappal ko utha liya aur ek do kshan usko ulatne pulatne ke pashchat usko dhire se vahin rakh diya. ant mein wo saans rokkar dhire dhire is tarah uthne lage, jaise koi cheez khojne aaye the, lekin usmen asaphal hokar chupchap vapas laut rahe hon. khaDe hote samay wo apna sir narayan ke mukh ke nikat le ge aur unhonne narayan ko ankhen phaaD phaDkar ghaur se dekha. uski ankhe band theen aur wo chupchap paDa hua tha, lekin kisi prakar ki aahat, kisi prakar ka shabd nahin sunai de raha tha. shakaldip babu ekdam Dar ge aur unhonne kanpte hriday se apna bayan kaan narayan ke mukh ke bilkul nazdik kar diya. aur us samay unki khushi ka thikana na raha, jab unhonne apne laDke ki saans ko niymit roop se chalte paya.
wo chupchap jis tarah aaye the, usi tarah bahar nikal ge. pata nahin kab se, jamuna darvaze par khaDi chinta ke saath bhitar jhaank rahi thi. usne pati ka munh dekha aur ghabrakar puchha, “kya baat hai? aap aisa kyon kar rahe hain? mujhe baDa Dar lag raha hai. ”
shakaldip babu ne ishare se usko bolne se mana kiya aur phir usko sanket se bulate hue apne kamre mein chale ge. jamuna ne kamre mein pahunchakar pati ko chintit evan utsuk drishti se dekha.
shakaldip babu ne gadgad svar mein kaha, “babua so rahe hain. ”
wo aage kuch na bol sake. unki ankhen bhar aai theen. wo dusri or dekhne lage.
shakaldip babu kahin ek ghante baad vapas laute. ghar mein pravesh karne ke poorv unhonne osare ke kamre mein jhanka, koi bhi muvakkil nahin tha aur muharrir sahab bhi ghayab the. wo bhitar chale ge aur apne kamre ke samne osare mein khaDe hokar bandar ki bhanti ankhe malaka malkakar unhonne rasoighar ki or dekha. unki patni jamuna, chauke ke paas piDhe par baithi honth par honth dabaye munh phulaye tarkari kaat rahi thi. wo mand mand muskurate hue apni patni ke paas chale ge. unke mukh par asadharan santosh, vishvas evan utsaah ka bhaav ankit tha. ek ghante poorv aisi baat nahin thi.
baat is prakar arambh hui. shakaldip babu sabere dataun kulla karne ke baad apne kamre mein baithe hi the ki jamuna ne ek tashtari mein do jalebiyan nashte ke liye samne rakh deen. wo bina kuch bole jalpan karne lage. jamuna pahle to ek aadh minat chup rahi. phir pati ke mukh ki or uDti nazar se dekhne ke baad usne baat chheDi, “do teen din se babua bahut udaas rahte hain. ”
“kyaa?” sir uthakar shakaldip babu ne puchha aur unki bhaunhe tan gain. jamuna ne vyarth mein muskurate hue kaha, “kal bole, is saal Dipti kalaktri ki bahut si jaghen hain, par babuji se kahte Dar lagta hai. kah rahe the, do chaar din mein fees bhejne ki tarikh beet jayegi. ”
shakaldip babu ka baDa laDka narayan, ghar mein babua ke naam se hi pukara jata tha. umr uski lagbhag 24 varsh ki thi. pichhle teen chaar saal se bahut si parikshaon mein baithne, em. el. e. logon ke darvazon ke chakkar lagane tatha aur bhi ulte sidhe fan istemal karne ke bavjud usko ab tak koi naukari nahin mil saki thi. do baar Dipti kalaktri ke imtihan mein bhi wo baith chuka tha, par durbhagya! ab ek avsar use aur milna tha, jisko wo chhoDna na chahta tha, aur use vishvas tha ki chunki jaghen kafi hain aur wo abki ji jaan se parishram karega, isliye bahut sambhav hai ki wo le liya jaye.
shakaldip babu mukhtar the. lekin idhar DeDh do saal se mukhtari ki gaDi unke chalaye na chalti thi. buDhauti ke karan ab unki avaz mein na wo taDap rah gai thi, na sharir mein wo taqat aur na chaal mein wo akaD, isliye muvakkil unke yahan kam hi pahunchte. kuch to aakar bhi bhaDak jate. is haalat mein wo raam ka naam lekar kachahri jate, aksar kuch pa jate, jisse donon joon chauka chulha chal jata.
jamuna ki baat sunkar wo ekdam bigaD ge. krodh se unka munh vikrit ho gaya aur wo sir ko jhatakte hue, katah kukur ki tarah bole, “to main kya karun? main to hairan pareshan ho gaya hoon. tum log meri jaan lene par tule hue ho. saaf saaf sun lo, main teen baar kahta hoon, mujhse nahin hoga, mujhse nahin hoga, mujhse nahin hoga. ”
jamuna kuch na boli, kyonki wo janti thi ki pati ka krodh karna svabhavik hai.
shakaldip babu ek do kshan chup rahe, phir dayen haath ko uupar niche nachate hue bole, “phir iski garanti hi kya hai ki is dafe babu sahab le hi liye jayenge? mamuli e. ji. aufis ki klarki mein to puchhe nahin ge, Dipti kalaktri mein kaun puchhega? aap mein kya khubi hai, sahab ki aap Dipti kalaktar ho hi jayenge? tharD klaas bi. e. aap hain, chaubison ghante matargashti aap karte hain, din raat sigret aap phunkte hain. aap mein kaun se surkhab ke par lage hain? baDe baDe bah ge, gadha puchhe kitna pani! phir karam karam ki baat hoti hai. bhai, samajh lo, tumhare karam mein naukari likhi hi nahin. are haan, agar sabhi kukur kashi hi sevenge to hanDiya kaun chatega? Dipti kalaktri, Dipti kalaktri! sach puchho, to Dipti kalaktri naam se mujhe ghrina ho gai hai!”
aur honth bichak ge.
jamuna ne ab mridu svar mein unke kathan ka prativad kiya, “aisi kubhasha munh se nahin nikalni chahiye. hamare laDke mein dosh hi kaun sa hai? lakhon mein ek hai. sabr ki sau dhaar, mera to dil kahta hai is baar babua zarur le liye jayenge. phir pahli bhookh pyaas ka laDka hai, maan baap ka sukh to janta hi nahin. itna bhi nahin hoga, to uska dil toot jayega. yoon hi na malum kyon hamesha udaas rahta hai, theek se khata pita nahin, theek se bolta nahin, pahle ki tarah gata gungunata nahin. na malum mere laDle ko kya ho gaya hai. ” ant mein uska gala bhar aaya aur wo dusri or munh karke ankhon mein aaye ansuon ko rokne ka prayas karne lagi.
jamuna ko rote hue dekhkar shakaldip babu aape se bahar ho ge. krodh tatha vyangya se munh chiDhate hue bole, “laDka hai to lekar chato! sari khurafat ki jaD tum hi ho, aur koi nahin! tum mujhe zinda rahne dena nahin chahtin, jis din meri jaan niklegi, tumhari chhati thanDi hogi!” wo hanfane lage. unhonne jamuna par nirdaytapurvak aisa zabardast aarop kiya tha, jise wo sah na saki. roti hui boli, “achchhi baat hai, agar main sari khurafat ki jaD hoon to main kamini ki bachchi, jo aaj se koi baat. . . ” rulai ke mare wo aage na bol saki aur tezi se kamre se bahar nikal gai.
shakaldip babu kuch nahin bole, balki vahin baithe rahe. munh unka tana hua tha aur gardan teDhi ho gai thi. ek aadh minat tak usi tarah baithe rahne ke pashchat wo zamin par paDe akhbar ke ek phate purane tukDe ko uthakar is tallinta se paDhne lage, jaise kuch bhi na hua ho.
lagbhag pandrah bees minat tak wo usi tarah paDhte rahe. phir achanak uth khaDe hue. unhonne lungi ki tarah lipti dhoti ko kholkar theek se pahan liya aur uupar se apna parsi kot Daal liya, jo kuch maila ho gaya tha aur jismen do chippiyan lagi theen, aur purana pamp shu pahan, haath mein chhaDi le, ek do baar khansakar bahar nikal ge.
pati ki baat se jamuna ke hriday ko gahra aghat pahuncha tha. shakaldip babu ko bahar jate hue usne dekha, par wo kuch nahin boli. wo munh phulaye chupchap ghar ke atram satram kaam karti rahi. aur ek ghante baad bhi jab shakaldip babu bahar se laut uske paas aakar khaDe hue, tab bhi wo kuch na boli, chupchap tarkari katti rahi.
shakaldip babu ne khansakar kaha, “sunti ho, ye DeDh sau rupe rakh lo. qarib sau rupe babua ki fees mein lagenge aur pachas rupe alag rakh dena, koi aur kaam aa paDe. ”
jamuna ne haath baDhakar rupe to avashya le liye, par ab bhi kuch nahin boli.
lekin shakaldip babu atyadhik prasann the aur unhonne utsahpurn avaz mein kaha, “sau rupe babua ko de dena, aaj hi fees bhej den. honge, zarur honge, babua Dipti kalaktar avashya honge. koi karan hi nahin ki wo na liye jayen. laDke ke zehn mein koi kharabi thoDe hai. raam raam. . . ! nahin, chinta ki koi baat nahin. narayan ji is baar bhagvan ki kripa se Dipti kalaktar avashya honge. ”
jamuna ab bhi chup rahi aur rupyon ko trank mein rakhne ke liye uthkar apne kamre mein chali gai.
shakaldip babu apne kamre ki or laut paDe. par kuch door jakar phir ghoom paDe aur jis kamre mein jamuna gai thi, uske darvaze ke samne aakar khaDe ho ge aur jamuna ko trank mein rupe band karte hue dekhte rahe. phir bole, “ghalati kisi ki nahin. sara dosh to mera hai. dekho na, main baap hokar kahta hoon ki laDka naqabil hai! nahin, nahin, sari khurafat ki jaD main hi hoon, aur koi nahin. ”
ek do kshan wo khaDe rahe, lekin tab bhi jamuna ne koi uttar nahin diya to kamre mein jakar wo apne kapDe utarne lage.
narayan ne usi din Dipti kalaktri ki fees tatha faarm bhej diye.
dusre din aadat ke khilaf pratःkal hi shakaldip babu ki neend uchat gai. wo haDabDakar ankhen malte hue uth khaDe hue aur bahar osare mein aakar charon or dekhne lage. ghar ke sabhi log nidra mein nimagn the. soe hue logon ki sanson ki avaz aur machchhron ki bhanbhan sunai de rahi thi. charon or andhera tha. lekin bahar ke kamre se dhimi raushani aa rahi thi. shakaldip babu chaunk paDe aur pairon ko dabaye kamre ki or baDhe.
unki umr pachas ke uupar hogi. wo gore, nate aur duble patle the. unke mukh par anaginat rekhaon ka jaal buna tha aur unki banhon tatha gardan par chamDe jhool rahe the.
darvaze ke paas pahunchakar, unhonne panje ke bal khaDe ho, honth dabakar kamre ke andar jhanka. unka laDka narayan mez par rakhi lalten ke samne sir jhukaye dhyanapurvak kuch paDh raha tha. shakaldip babu kuch der tak ankhon ko sashcharya phailakar apne laDke ko dekhte rahe, jaise kisi ananddayi rahasya ka unhonne achanak pata laga liya ho. phir wo chupchap dhire se pichhe hat ge aur vahin khaDe hokar zara muskuraye aur phir dabe paanv dhire dhire vapas laute aur apne kamre ke samne osare ke kinare khaDe hokar asman ko utsuktapurvak niharne lage.
unki aadat chhah, saDhe chhah baje se pahle uthne ki nahin thi. lekin aaj uth ge the, to man aprasann nahin hua. asman mein tare ab bhi chatak dikhai de rahe the, aur bahar ke peDon ko hilati hui aur khapDe ko sparsh karke angan mein na malum kis disha se aati jati hava unko anandit evan utsahit kar rahi thi. wo punः muskura paDe aur unhonne dhire se phusaphusaya, “chalo, achchha hi hai. ”
aur achanak unmen na malum kahan ka utsaah aa gaya. unhonne usi samay hi dataun karna shuru kar diya. in karyon se nibatne ke baad bhi andhera hi raha, to balti mein pani bhara aur use ghusalkhane mein le jakar snaan karne lage. snaan se nivritt hokar jab wo bahar nikle, to unke sharir mein ek apurv tazgi tatha man mein ek avarnniy utsaah tha.
yadyapi unhonne apne sabhi karya chupchap karne ki koshish ki thi, to bhi deh durbal hone ke karan kuch khatpat ho gai, jiske parinamasvrup unki patni ki neend khul gai. jamuna ko to pahle chor vor ka sandeh hua, lekin usne jhatpat aakar jab dekha, to ashcharyachkit ho gai. shakaldip babu angan mein khaDe khaDe akash ko nihar rahe the.
jamuna ne chintatur svar mein kaha, “itni jaldi snaan ki zarurat kya thee? itna sabere to kabhi bhi nahin utha jaya jata tha? kuch ho hava gaya, to?”
jamuna bigaD gai, “dhire dhire kyon bolun, isi lachchhan se parsal bimar paD jaya gaya tha. ”
shakaldip babu ko ashanka hui ki is tarah batachit karne se takrar baDh jayega, shor sharaba hoga, isliye unhonne patni ki baat ka koi uttar nahin diya. wo pichhe ghoom paDe aur apne kamre mein aakar lalten jalakar chupchap ramayan ka paath karne lage.
puja samapt karke jab wo uthe, to ujala ho gaya tha. wo kamre se bahar nikal aaye. ghar ke baDe log to jaag ge the, par bachche abhi tak soe the. jamuna bhanDar ghar mein kuch khatar patar kar rahi thi. shakaldip babu taaD ge aur wo bhanDar ghar ke darvaze ke samne khaDe ho ge aur kamar par donon haath rakhkar kutuhal ke saath apni patni ko kunDe mein se chaval nikalte hue dekhte rahe.
kuch der baad unhonne parashn kiya, “narayan ki amma, ajkal tumhara puja paath nahin hota kyaa? aur jhempkar wo muskuraye.
shakaldip babu iske poorv sada radhasvamiyon par bigaDte the aur mauqa bemauqa unki kaDi alochana bhi karte the. isko lekar aurton mein kabhi kabhi rona pitna tak bhi ho jata tha. isliye aaj bhi jab shakaldip babu ne puja paath ki baat ki, to jamuna ne samjha ki wo vyangya kar rahe hain. usne bhi pratyuttar diya, “ham logon ko puja paath se kya matlab? hamko to narak mein hi jana hai. jinko sarag jana ho, wo karen!”
“lo bigaD gain,” shakaldip babu mand mand muskurate hue jhat se bole, “are, main mazaq thoDe kar raha tha! main baDi ghalati par tha, radhasvami to baDe prabhavashali devta hain. ”
jamuna ko radhasvami ko devta kahna bahut bura laga aur wo tinakkar boli, “radhasvami ko devta kahte hain? wo to parampita parmesar hain, unka lok sabse uupar hai, uske niche hi brahma, vishnu aur mahesh ke lok aate hain. ”
“theek hai, theek hai, lekin kuch puja paath bhi karogi? sunte hain sachche man se radhasvami ki puja karne se sabhi manorath siddh ho jate hain. ” shakaldip babu uttar dekar kanpte honthon mein muskurane lage.
jamuna ne punः bhul sudhar kiya, “ismen dikhana thoDe hota hai; man mein naam le liya jata hai. sabhi manorath ban jate hain aur marne ke baad aatma parampita mein mil jati hai. phir chaurasi nahin bhugatna paDta. ”
shakaldip babu ne sotsah kaha, “theek hai, bahut achchhi baat hai. zara aur sabere uthkar naam le liya karo. subah nahane se tabiyat din bhar saaf rahti hai. kal se tum bhi shuru kar do. main to abhaga tha ki meri ankhen aaj tak band rahi. khair, koi baat nahin, ab bhi kuch nahin bigDa hai, kal se tum bhi savere chaar baje uth jana. ”
unko bhay hua ki jamuna kahin unke prastav ka virodh na kare, isliye itna kahne ke baad wo pichhe ghumkar khisak ge. lekin achanak kuch yaad karke wo laut paDe. paas aakar unhonne patni se muskurate hue puchha, “babua ke liye nashte ka intizam kya karogi?”
“theek hai, lekin aaj halva kyon nahin bana letin? ghar ka bana saman achchha hota hai. aur kuch meve manga lo. ”
“halve ke liye ghi nahin hai. phir itne paise kahan hain?” jamuna ne majburi zahir ki.
“pachas rupe to bache hain na, usmen se kharch karo. ann jal ka sharir, laDke ko theek se khane pine ka na milega, to wo imtihan kya dega? rupe ki chinta mat karo, main abhi zinda hoon!” itna kahkar shakaldip babu thahaka lagakar hans paDe. vahan se hatne ke poorv wo patni ko ye bhi hidayat dete ge, “ek baat aur karo. tum laDke logon se Dantakar kah dena ki ve bahar ke kamre mein jakar bazar na lagayen, nahin to maar paDegi. haan, paDhne mein badha pahunchegi. dusri baat ye ki babua se kah dena, wo bahar ke kamre mein baithkar itminan se paDhen, main bahar sahn mein baith lunga. ”
shakaldip babu sabere ek DeDh ghante bahar ke kamre mein baithte the. vahan wo muvakkilon ke aane ki prtiksha karte aur unhen samjhate bujhate.
aur wo us din sachmuch hi makan ke bahar pipal ke peD ke niche, jahan paryapt chhaya rahti thi, ek mez aur kursiyan lagakar baith ge. jaan pahchan ke log vahan se guzre, to unhen vahan baithe dekhkar ashcharya hua. jab saDak se guzarte hue babbanlal peshakar ne unse puchha ki “bhai sahab, aaj kya baat hai?” to unhonne zor se chillakar kaha ki “bhitar baDi garmi hai. ” aur unhonne jokar ki tarah munh bana diya aur ant mein thahaka markar hans paDe, jaise koi bahut baDa mazaq kar diya ho.
shaam ko jahan roz wo pahle hi kachahri se aa jate the, us din der se laute. unhonne patni ke haath mein chaar rupe to diye hi, saath hi do seb tatha kainchi sigret ke paanch paiket bhi baDha diye.
“sigret kya hogi?” jamuna ne sashcharya puchha.
“tumhare liye hai”, shakaldip babu ne dhire se kaha aur dusri or dekhkar muskurane lage, lekin unka chehra sharm se kuch tamtama gaya.
jamuna ne mathe par ki saDi ko niche khinchte hue kaha, “kabhi sigret pi bhi hai ki aaj hi piungi. is umr mein mazaq karte laaj nahin ati?”
shakaldip babu kuch bole nahin aur thoDa muskurakar idhar udhar dekhne lage. phir gambhir hokar unhonne dusri or dekhte hue dhire se kaha, “babua ko de dena”, aur wo turant vahan se chalte bane.
jamuna bhaunchak hokar kuch der unko dekhti rahi, kyonki aaj ke poorv to wo yahi dekhti aa rahi thi ki narayan ke dhumrapan ke wo sakht khilaf rahe hain aur isko lekar kai baar laDke ko Daant Dapat chuke hain. uski samajh mein kuch na aaya, to wo ye kahkar muskura paDi ki buddhi sathiya gai hai.
narayan din bhar paDhne likhne ke baad tahalne gaya hua tha. shakaldip babu jaldi se kapDe badalkar haath mein jhaDu le bahar ke kamre mein ja pahunche. unhonne dhire dhire kamre ko achchhi tarah jhaDa buhara, iske baad narayan ki mez ko saaf kiya tatha mezposh ko zor zor se kai baar jhaaD phatakkar safai ke saath us par bichha diya. ant mein narayan ki charpai par paDe bichhaune ko kholkar usmen ki ek ek cheez ko jhaaD phatkarkar yatnpurvak bichhane lage.
itne mein jamuna ne aakar dekha, to mridu svar mein kaha, “kachahri se aane par yahi kaam rah gaya hai kyaa? bichhauna roz bichh hi jata hai aur kamre ki mahrin safai kar hi deti hai. ”
“achchha, theek hai. main apni tabiyat se kar raha hoon, koi zabardasti thoDi hai. ” shakaldip babu ke mukh par halke jhemp ka bhaav ankit ho gaya tha aur wo apni patni ki or na dekhte hue aisi avaz mein bole, jaise unhonne achanak ye karya arambh kar diya tha—“aur jab itna kar hi liya hai, to beech mein chhoDne se kya laabh, pura hi kar len. ” kachahri se aane ke baad roz ka unka niyam ye tha ki wo kuch nashta pani karke charpai par let jate the. unko aksar neend aa jati thi aur wo lagbhag aath baje tak sote rahte the. yadi neend na bhi aati, to bhi wo isi tarah chupchap paDe rahte the.
“nashta taiyar hai”, ye kahkar jamuna vahan se chali gai.
shakaldip babu kamre ko chamacham karne, bichhaune lagane tatha kursiyon ko tartib se sajane ke pashchat angan mein aakar khaDe ho ge aur bematlab thanakkar hanste hue bole, “apna kaam sada apne haath se karna chahiye, naukron ka kya thikana?”
lekin unki baat par sambhvatः kisi ne dhyaan nahin diya aur na uska uttar hi.
dhire dhire din bitte ge aur narayan kathin parishram karta raha. kuch dinon se shakaldip babu sayankal ghar se lagbhag ek meel ki duri par sthit shivji ke ek mandir mein bhi jane lage the. wo bahut chalta mandir tha aur usmen bhaktajnon ki bahut bheeD hoti thi. kachahri se aane ke baad wo narayan ke kamre ko jhaDte buharte, uska bichhauna lagate, mez kursiyan sajate aur ant mein nashta karke mandir ke liye ravana ho jate. mandir mein ek DeDh ghante tak rahte aur lagbhag das baje ghar aate. ek din jab wo mandir se laute, to saDhe das baj ge the. unhonne dabe paanv osare mein paanv rakha aur apni aadat ke anusar kuch der tak muskurate hue jhaank jhankakar kothari mein narayan ko paDhte hue dekhte rahe. phir bhitar ja apne kamre mein chhaDi rakhkar, nal par haath pair dhokar, bhojan ke liye chauke mein jakar baith ge.
patni ne khana paros diya. shakaldip babu ne munh mein kaur chubhlate hue puchha, “babua ko meve de diye the?”
wo aaj sayankal jab kachahri se laute the, to meve lete aaye the. unhonne meve ko patni ke havale karte hue kaha tha ki ise sirf narayan ko hi dena, aur kisi ko nahin.
jamuna ko jhapki aa rahi thi, lekin usne pati ki baat sun li, chaunkkar boli, “kahan? meva trank mein rakh diya tha, socha tha, babua ghumkar ayenge to chupke se de dungi. par laDke to danav doot bane hue hain, ona kona, antara santara, sabhi jagah pahunch jate hain. tuntun ne kahin se dekh liya aur usne sara ka sara kha Dala. ”
tuntun shakaldip babu ka sabse chhota barah varsh ka atyant hi natkhat laDka tha.
“kyon?” shakaldip babu chilla paDe. unka munh khul gaya tha aur unki jeebh par roti ka ek chhota tukDa drishtigochar ho raha tha. jamuna kuch na boli. ab shakaldip babu ne ghusse mein patni ko munh chiDhate hue kaha, “kha gaya, kha gaya! tum kyon na kha gai! tum logon ke khane ke liye hi lata hoon na? hoon! kha gaya!”
jamuna bhi tinak uthi, “to kya ho gaya? kabhi meva mishri, phal mool to unko milta nahin, bechare khuddi chunni jo kuch milta hai, usi par sabr bandhe rahte hain. apne haath se kharidkar kabhi kuch diya bhi to nahin gaya. laDka hi to hai, man chal gaya, kha liya. phir mainne use bahut mara bhi, ab uski jaan to nahin le lungi. ”
“achchha to khao tum aur tumhare laDke! khoob maze mein khao! aise khane par lanat hai!” wo ghusse se thar thar kanpte hue chilla paDe aur phir chauke se uthkar kamre mein chale ge.
jamuna bhay, apman aur ghusse se rone lagi. usne bhi bhojan nahin kiya aur vahan se uthkar charpai par munh Dhankakar paD rahi. lekin dusre din pratःkal bhi shakaldip babu ka ghussa thanDa na hua aur unhonne nahane dhone tatha puja paath karne ke baad sabse pahla kaam ye kiya ki jab tuntun jaga, to unhonne usko apne paas bulaya aur usse puchha ki usne meva kyon khaya? jab usko koi uttar na sujha aur wo bhakku bankar apne pita ki or dekhne laga, to shakaldip babu ne use kai tamache jaD diye.
Dipti kalaktri ki pariksha ilahabad mein hone vali thi aur vahan ravana hone ke din aa ge. is beech narayan ne itna adhik parishram kiya ki sabhi ashcharyachkit the. wo attharah unnis ghante tak paDhta. uski paDhai mein koi badha upasthit nahin hone pati, bas use paDhna tha. uska kamra saaf milta, uska bichhauna bichha milta, donon joon gaanv ke shuddh ghi ke saath daal bhaat,roti, tarkari milti. sharir ki shakti tatha dimagh ki tazgi ko banaye rakhne ke liye nashte mein sabere halva doodh tatha shaam ko meve ya phal. aur to aur, laDke ki tabiyat na uchte, isliye sigret ki bhi samuchit vyavastha thi. jab sigret ke paiket khatm hote, to jamuna uske paas chaar paanch paiket aur rakh aati.
jis din narayan ko ilahabad jana tha, shakaldip babu ki chhutti thi aur ve sabere hi ghumne nikal ge. wo kuch der tak kampni garDan mein ghumte rahe, phir vahan tabiyat na lagi, to nadi ke kinare pahunch ge. vahan bhi man na laga, to apne param mitr kailash bihari mukhtar ke yahan chale ge. vahan bahut der tak gap saDaka karte rahe, aur jab gaDi ka samay nikat aaya, to jaldi jaldi ghar aaye.
gaDi nau baje khulti thi. jamuna tatha narayan ki patni nirmala ne sabere hi uthkar jaldi jaldi khana bana liya tha. narayan ne khana khaya aur sabko prnaam kar steshan ko chal paDa. shakaldip babu bhi steshan ge. narayan ko vida karne ke liye uske chaar paanch mitr bhi steshan par pahunche the. jab tak gaDi nahin aai thi, narayan pletfarm par un mitron se baten karta raha. shakaldip babu alag khaDe idhar udhar is tarah dekhte rahe, jaise narayan se unka koi parichay na ho. aur jab gaDi aai aur narayan apne pita tatha mitron ke sahyog se gaDi mein pure saman ke saath chaDh gaya, to shakaldip babu vahan se dhire se khisak ge aur vhilar ke buk staul par ja khaDe hue. buk staul ka adami jaan pahchan ka tha, usne namaskar karke puchha, “kahiye, mukhtar sahab, aaj kaise aana hua?”
shakaldip babu ne santoshpurvak muskurate hue uttar diya, “laDka ilahabad ja raha hai, Dipti kalaktri ka imtihan dene. shaam tak pahunch jayega. DyoDhe darje ke paas jo Dibba hai na, usi mein hai. niche jo chaar paanch laDke khaDe hain, ve uske mitr hai. socha, bhai hum log buDhe thahre, laDke imtihan vimtihan ki baat kar rahe honge, kya samjhenge, isliye idhar chala aaya. ” unki ankhe hasya se sankuchit ho gain.
vahan wo thoDi der tak rahe. iske baad jakar ghaDi mein samay dekha, kuch der tak taraghar ke bahar taar babu ko khatar patar karte hue nihara aur phir vahan se hatkar relgaDiyon ke aane jane ka taim tebul paDhne lage. lekin unka dhyaan sambhvatः gaDi ki or hi tha, kyonki jab tren khulne ki ghanti baji, to vahan se bhagkar narayan ke mitron ke pichhe aa khaDe hue.
narayan ne jab unko dekha, to usne jhatpat niche utarkar pair chhue. “khush raho, beta, bhagvan tumhari manokamana puri kare!” unhonne laDke se budabudakar kaha aur dusri or dekhne lage.
narayan baith gaya aur ab gaDi khulne hi vali thi. achanak shakaldip babu ka dahina haath apne kot ki jeb mein gaya. unhonne jeb se koi cheez lagbhag bahar nikal li, aur wo kuch aage bhi baDhe, lekin phir na malum kya sochkar ruk ge. unka chehra tamtama sa gaya aur jaldibazi mein wo idhar udhar dekhne lage. gaDi siti dekar khul gai to shakaldip babu chaunk uthe. unhonne jeb se wo cheez nikalkar mutthi mein baandh li aur use narayan ko dene ke liye dauD paDe. wo durbal tatha buDhe adami the, isliye unse tez kya dauDa jata, wo pairon mein phurti lane ke liye apne hathon ko is tarah bhaanj rahe the, jaise koi rogi, mariyal laDka apne sathiyon ke beech khel kood ke dauran koi halki phulki shararat karne ke baad tezi se dauDne ke liye gardan ko jhukakar hathon ko chakr ki bhanti ghumata hai. unke pair thap thap ki avaz ke saath pletfarm par gir rahe the, aur unki harakton ka unke mukh par koi vishesh prabhav drishtigochar nahin ho raha tha, bas yahi malum hota ki wo kuch pareshan hain. pletfarm par ekatrit logon ka dhyaan unki or akarshit ho gaya. kuch logon ne mauj mein aakar zor se lalkara, kuch ne kilkariyan marin aur kuch logon ne dauD ke prati unki tatasth mudra ko dekhkar betahasha hansna arambh kiya. lekin ye unka saubhagya hi tha ki gaDi abhi khuli hi thi aur speeD mein nahin aai thi. parinamasvrup unka hasyajnak prayas saphal hua aur unhonne Dibbe ke samne pahunchakar utsuk tatha chintit mudra mein Dibbe se sir nikalkar jhankte hue narayan ke haath mein ek puDiya dete hue kaha, “beta, ise shraddha ke saath kha lena, bhagvan shankar ka parsad hai. ”
puDiya mein kuch batashe the, jo unhonne kal shaam ko shivji ko chaDhaye the aur jise pata nahin kyon, narayan ko dena bhool ge the. narayan ke mitr kutuhal se muskurate hue unki or dekh rahe the, aur jab wo paas aa ge, to ek ne puchha, “babu ji, kya baat thi, hamse kah dete. ” shakaldip babu ye kahkar ki, “koi baat nahin, kuch rupe the, socha, main hi de doon, tezi se aage baDh ge. ”
pariksha samapt hone ke baad narayan ghar vapas aa gaya. usne sachmuch parche bahut achchhe kiye the aur usne gharvalon se saaf saaf kah diya ki yadi koi beimani na hui, to wo intravyu mein avashya bulaya jayega. gharvalon ki baat to dusri thi, lekin jab muhalle aur shahr ke logon ne ye baat suni, to unhonne vishvas nahin kiya. log vyangya mein kahne lage, har saal to yahi kahte hain bachchu! wo koi dusre hote hain, jo intravyu mein bulaye jate hain!
lekin baat narayan ne jhooth nahin kahi thi, kyonki ek din uske paas suchana aai ki usko ilahabad mein pradeshik lok seva aayog ke samaksh intravyu ke liye upasthit hona hai. ye samachar bijli ki tarah sare shahr mein phail gaya. bahut saal baad is shahr se koi laDka Dipti kalaktri ke intravyu ke liye bulaya gaya tha. logon mein ashcharya ka thikana na raha.
sayankal kachahri se aane par shakaldip babu sidhe angan mein ja khaDe ho ge aur zor se thathakar hans paDe. phir kamre mein jakar kapDe utarne lage. shakaldip babu ne kot ko khunti par tangate hue lapakkar aati hui jamuna se kaha, “ab karo na raaj! hamesha shor machaye rahti thi ki ye nahin hai, wo nahin hai! ye mamuli baat nahin hai ki babua intravyu mein bulaye ge hain, aaya hi samjho!”
“jab aa jayen, tabhi na”, jamuna ne kanjusi se muskurate hue kaha. shakaldip babu thoDa hanste hue bole, “tumko ab bhi sandeh hai? lo, main kahta hoon ki babua zarur ayenge, zarur ayenge! nahin aaye, to main apni moonchh muDva dunga. aur koi kahe ya na kahe, main to is baat ko pahle se hi janta hoon. are, main hi kyon, sara shahr yahi kahta hai. ambika babu vakil mujhe badhai dete hue bole, intravyu mein bulaye jane ka matlab ye hai ki agar intravyu thoDa bhi achchha ho gaya, to chunav nishchit hai. ” meri naak mein dam tha, jo bhi sunta, badhai dene chala aata. ”
“muhalle ke laDke mujhe bhi aakar badhai de ge hain. janki, kamal aur gauri to abhi abhi ge hain. jamuna ne svapnil ankhon se apne pati ko dekhte hue suchana di. ”
“to tumhari koi mamuli hasti hai! are, tum Dipti kalaktar ki maan ho na, jee!” itna kahkar shakaldip babu thahaka markar hans paDe. jamuna kuch nahin boli, balki usne muski katkar saDi ka palla sir ke aage thoDa aur khinchkar munh teDha kar liya. shakaldip babu ne jute nikalkar charpai par baithte hue dhire se kaha, “are bhai, hamko tumko kya lena hai, ek kone mein paDkar ramnam japa karenge. lekin main to abhi ye soch raha hoon ki kuch saal tak aur mukhtari karunga. nahin, yahi theek rahega. ” unhonne gaal phulakar ek do baar moonchh par taav diye.
jamuna ne iska prativad kiya, “laDka manega thoDe, kheench le jayega. hamesha ye dekhkar uski chhati phatti rahti hai ki babu ji itni mehnat karte hain aur wo kuch bhi madad nahin karta. ”
“kuchh kah raha tha kyaa?” shakaldip babu ne dhire se puchha aur patni ki or na dekhkar darvaze ke bahar munh banakar dekhne lage.
jamuna ne ashvasan diya, “main janti nahin kyaa? uska chehra batata hai. baap ko itna kaam karte dekhkar usko kuch achchha thoDe lagta hai!” ant mein usne naak suDak liye.
narayan pandrah din baad intravyu dene gaya. aur usne intravyu bhi kafi achchha kiya. wo ghar vapas aaya, to uske hriday mein atyadhik utsaah tha, aur jab usne ye bataya ki jahan aur laDkon ka pandrah bees minat tak hi intravyu hua, uska pure pachas minat tak intravyu hota raha aur usne sabhi prashnon ka santoshajnak uttar diye, to ab ye sabhi ne maan liya ki narayan ka liya jana nishchit hai.
dusre din kachahri mein phir vakilon aur mukhtaron ne shakaldip babu ko badhaiyan deen aur vishvas prakat kiya ki narayan avashya chun liya jayega. shakaldip babu muskurakar dhanyavad dete aur lage hathon narayan ke vyaktigat jivan ki ek do baten bhi suna dete aur ant mein sir ko aage baDhakar phusphusahat mein dil ka raaj prakat karte, “apse kahta hoon, pahle mere man mein shanka thi, shanka kya solhon aane shanka thi, lekin aap logon ki dua se ab wo door ho gai hai. ”
jab wo ghar laute, to narayan, gauri aur kamal darvaze ke samne khaDe baten kar rahe the. narayan intravyu ke sambandh mein hi kuch bata raha tha. wo apne pita ji ko aata dekhkar dhire dhire bolne laga. shakaldip babu chupchap vahan se guzar ge, lekin do teen gaz hi aage ge honge ki gauri ki avaz unko sunai paDi, “are tumhara ho gaya, ab tum mauz karo!” itna sunte ki shakaldip babu ghoom paDe aur laDkon ke paas aakar unhonne puchha, “kyaa?” unki ankhen sankuchit ho gai theen aur unki mudra aisi ho gai thi, jaise kisi mahfil mein zabardasti ghus aaye hon.
laDke ek dusre ko dekhkar shishttapurvak honthon mein muskuraye. phir gauri ne apne kathan ko aspasht kiya, “main kah raha tha narayan se, babu ji, ki unka chuna jana nishchit hai. ”
shakaldip babu ne saDak se guzarti hui ek motar ko ghaur se dekhne ke baad dhire dhire kaha, “haan, dekhiye na, jahan ek se ek dhurandhar laDke pahunchte hain, sabse to bees minat hi intravyu hota hai, par inse pure pachas minat! agar nahin lena hota, to pachas minat tak tang karne ki kya zarurat thi, paanch das minat puchhatachh karke. . . ”
gauri ne sir hilakar unke kathan ka samarthan kiya aur kamal ne kaha, “pahle ka zamana hota, to kaha bhi nahin ja sakta, lekin ab to beimani beimani utni nahin hoti hogi. ”
shakaldip babu ne ankhen sankuchit karke halki phulki avaz mein puchha, “beimani nahin hoti na?”
“haan, ab utni nahin hoti. pahle baat dusri thi. wo zamana ab lad gaya. ” gauri ne uttar diya.
shakaldip babu achanak apni avaz par zor dete hue bole, “are, ab kaisi beimani sahab, goli mariye, agar beimani hi karni hoti, to itni der tak inka intravyu hota? intravyu mein bulaya hi na hota aur bulate bhi to chaar paanch minat puchhatachh karke vida kar dete. ”
iska kisi ne uttar nahin diya, to wo muskurate hue ghumkar ghar mein chale ge.
ghar mein pahunchne par jamuna se bole, “babua abhi se hi kisi afsar ki tarah lagte hain. darvaze par babua, gauri aur kamal baten kar rahe hain. mainne door hi se ghaur kiya, jab narayan babu bolte hain, to unke bolne aur haath hilane se ek ajib hi shaan tapakti hai. unke doston mein aisi baat kahan?”
“aaj duphar mein mujhe kah rahe the ki tujhe motar mein ghumaunga. ” jamuna ne khushakhabri sunai.
shakaldip babu khush hokar naak suDakte hue bole, “are, to usko motar ki kami hogi, ghumna na jitna chahna. ” wo sahsa chup ho ge aur khoe khoe is tarah muskurane lage, jaise koi svadisht cheez khane ke baad man hi man uska maza le rahe hon.
kuch der baad unhonne patni se parashn kiya, “kya kah raha tha, motar mein ghumaunga?”
jamuna ne phir vahi baat dohra di.
shakaldip babu ne dhire se donon hathon se tali bajate hue muskurakar kaha, “chalo, achchha hai. ” unke mukh par apurv svapnil santosh ka bhaav ankit tha.
saat aath dinon mein natija nikalne ka anuman tha. sabhi ko vishvas ho gaya tha ki narayan le liya jayega aur sabhi natije ki bechaini se prtiksha kar rahe the.
ab shakaldip babu aur bhi vyast rahne lage. puja paath ka unka karyakram purvavat jari tha. logon se batachit karne mein unko kafi maza aane laga aur wo batachit ke dauran aisi sthiti utpann kar dete ki logon ko kahna paDta ki narayan avashya hi le liya jayega. wo apne ghar par ekatrit narayan tatha uske mitron ki baten chhipkar sunte aur kabhi kabhi achanak unke dal mein ghus jate tatha zabardasti baat karne lagte. kabhi kabhi narayan ko apne pita ki ye harkat bahut buri lagti aur wo krodh mein dusri or dekhne lagta. raat mein shakaldip babu chaunkkar uth baithte aur bahar aakar kamre mein laDke ko sote hue dekhne lagte ya angan mein khaDe hokar akash ko niharne lagte.
ek din unhonne sabere hi sabko sunakar zor se kaha, “narayan ki maan, mainne aaj sapna dekha hai ki narayan babu Dipti kalaktar ho ge. ”
jamuna rasoi ke baramde mein baithi chaval phatak rahi thi aur usi ke paas narayan ki patni, nirmala, ghunghat kaDhe daal been rahi thi.
jamuna ne sir uthakar apne pati ki or dekhte hue parashn kiya, “sapna sabere dikhai paDa tha kyaa?”
“sabere ke nahin to shaam ke sapne ke bare mein tumse kahne auunga? are, ekdam brahmamuhurt mein dekha tha! dekhta hoon ki akhbar mein natija nikal gaya hai aur usmen narayan babu ka bhi naam hain ab ye yaad nahin ki kaun nambar tha, par itna kah sakta hoon ki naam kafi uupar tha. ”
“amma ji, sabere ka sapna to ekdam sachcha hota hai na!” nirmala ne dhire se jamuna se kaha.
malum paDta hai ki nirmala ki avaz shakaldip babu ne sun li, kyonki unhonne vihansakar parashn kiya, “kaun bol raha hai, Diptain hain kyaa?” ant mein wo thahaka markar hans paDe.
“haan, kah rahi hain ki savere ka sapna sachcha hota hai. sachcha hota hi hai. ” jamuna ne muskurakar bataya.
nirmala sharm se sankuchit ho gai. usne apne badan ko sikoD tatha peeth ko niche jhukakar apne munh ko apne donon ghutnon ke beech chhipa liya.
agle din bhi sabere shakaldip babu ne gharvalon ko suchana di ki unhonne aaj bhi hu ba hu vaisa hi sapna dekha hai.
jamuna ne apni naak ki or dekhte hue kaha, “sabere ka sapna to hamesha hi sachcha hota hai. jab bahu ko laDka honevala tha, mainne sabere sabere sapna dekha ki koi sarag ki devi haath mein balak liye asman se angan mein utar rahi hai. bas, mainne samajh liya ki laDka hi hai. laDka hi nikla. ”
shakaldip babu ne josh mein aakar kaha, “aur maan lo ki jhooth hai, to ye sapna ek din dikhai paDta, dusre din bhi hu ba hu vahin sapna kyon dikhai deta, phir wo bhi brahmamuhurt mein hee!”
“bahu ne bhi aisa hi sapna aaj sabere dekha hai!”
“Diptain ne bhee?” shakaldip babu ne muski katte hue kaha.
“haan, Diptain ne hi. theek sabere unhonne dekha ki ek bangale mein hum log rah rahe hain aur hamare darvaze par motar khaDi hai. ” jamuna ne uttar diya.
ek din raat ko lagbhag ek baje shakaldip babu ne uthkar patni ko jagaya aur usko alag le jate hue besharm mahabrahman ki bhanti hanste hue parashn kiya, “kaho bhai, kuch khane ko hoga? bahut der se neend hi nahin lag rahi hai, pet kuch maang raha hai. pahle mainne socha, jane bhi do, ye koi khane ka samay hai, par isse kaam bante na dikha, to tumko jagaya. shaam ko khaya tha, sab pach gaya. ”
jamuna achambhe ke saath ankhen phaaD phaDkar apne pati ko dekh rahi thi. dampatya jivan ke itne dirghakal mein kabhi bhi, yahan tak ki shadi ke prarambhik dinon mein bhi, shakaldip babu ne raat mein usko jagakar kuch khane ko nahin manga tha. wo jhunjhla paDi aur usne asantosh vyakt kiya, “aisa pet to kabhi bhi nahin tha. malum nahin, is samay rasoi mein kuch hai ya nahin. ”
shakaldip babu jhempkar muskurane lage.
ek do kshan baad jamuna ne ankhe malkar puchha, “babua ke meve mein se thoDa doon kyaa?”
shakaldip babu jhat se bole, “are, raam raam! meva to, tum janti ho, mujhe bilkul pasand nahin. jao, tum soo, bhookh vookh thoDe hai, mazaq kiya tha. ”
ye kahkar wo dhire se apne kamre mein chale ge. lekin wo lete hi the ki jamuna kamre mein ek chhipuli mein ek roti aur guD lekar aai. shakaldip babu hanste hue uth baithe.
shakaldip babu puja paath karte, kachahri jate, duniya bhar ke logon se duniya bhar ki batachit karte, idhar udhar matargashti karte aur jab khali rahte, to kuch na kuch khane ko maang baithte. wo chator ho ge aur unke jab dekho, bhookh lag jati. is tarah kabhi roti guD kha lete, kabhi aalu bhunvakar chakh lete aur kabhi haath par chini lekar phaank jate. bhojan mein bhi wo parivartan chahne lage. kabhi khichDi ki farmaish kar dete, kabhi sattu pyaaz ki, kabhi sirf roti daal ki, kabhi makuni ki aur kabhi sirf daal bhaat ki hi. unka samay katta hi na tha aur wo samay katna chahte the.
is badaparhezi tatha manasik tanav ka natija ye nikla ki wo bimar paD ge. unko bukhar tatha dast aane lage. unki bimari se ghar ke logon ko baDi chinta hui.
jamuna ne ruansi avaz mein kaha, “baar baar kahti thi ki itni mehnat na kijiye, par sunta hi kaun hai? ab bhogna paDa na!”
par shakaldip babu par iska koi asar na hua. unhonne baat uDa di—“are, main to kachahri janevala tha, par ye sochkar ruk gaya ki ab mukhtari to chhoDni hi hai, thoDa aram kar len. ”
“mukhtari jab chhoDni hogi, hogi, is samay to donon joon ki roti daal ka intizam karna hai. ” jamuna ne chinta prakat ki. “are, tum kaisi baat karti ho? bimari hairani to sabko hoti hai, main mitti ka Dhela to hoon nahin ki gal jaunga. bas, ek aadh din ki baat hain agar bimari sakht hoti, to main is tarah tanak tanakkar bolta?” shakaldip babu ne samjhaya aur ant mein unke honthon par ek ksheen muskurahat khel gai.
wo din bhar bechain rahe. kabhi lette, kabhi uth baithte aur kabhi bahar nikalkar tahalne lagte. lekin durbal itne ho ge the ki paanch das qadam chalte hi thak jate aur phir kamre mein aakar lete rahte. karte karte shaam hui aur jab shakaldip babu ko ye bataya gaya ki kailashabihari mukhtar unka samachar lene aaye hain, to wo uth baithe aur jhatpat chadar oDh, haath mein chhaDi le patni ke laakh mana karne par bhi bahar nikal aaye. dast to band ho gaya tha, par bukhar abhi tha aur itne hi samay mein wo chiDchiDe ho ge the.
kailashabihari ne unko dekhte hi chintatur svar mein kaha, “are, tum kahan bahar aa ge, mujhe hi bhitar bula lete. ”
shakaldip babu charpai par baith ge aur ksheen hansi hanste hue bole, “are, mujhe kuch hua thoDe hain socha, aram karne ki hi aadat Dalun. ” ye kahkar wo arthpurn drishti se apne mitr ko dekhkar muskurane lage.
sab haal chaal puchhne ke baad kailash bihari ne parashn kiya, “narayan babu kahin dikhai nahin de rahe, kahin ghumne ge hain kyaa?”
shakaldip babu ne banavati udasinata prakat karte hue kaha, “haan, ge honge kahin, laDke unko chhoDte bhi to nahin, koi na koi aakar liva jata hai. ”
kailash bihari ne sarahna ki, “khoob hua, sahab! main bhi jab is laDke ko dekhta tha, dil mein sochta tha ki ye aage chalkar kuch na kuch zarur hoga. wo to, sahab, dekhne se hi pata lag jata hai. chaal mein aur bolne chalne ke tariqe mein kuch aisa hai ki. . . chaliye, hum sab is mane mein bahut bhagyashali hain. ”
shakaldip babu idhar udhar dekhne ke baad sir ko aage baDhakar salah mashavire ki avaz mein bole, “are bhai sahab, kahan tak bataun apne munh se kya kahna, par aisa sidha sada laDka to mainne dekha nahin, paDhne likhne ka to itna shauq ki chaubison ghante paDhta rahe. munh kholkar kisi se koi bhi cheez mangta nahin. ”
kailash bihari ne bhi apne laDke ki tarif mein kuch baten pesh kar deen, “laDke to mere bhi sidhe hain, par manjhala laDka shivnath jitna gau hai, utna koi nahin. theek narayan babu hi ki tarah hai!”
“narayan to us zamane ka koi rishi muni malum paDta hai”, shakaldip babu ne gambhirtapurvak kaha, “bas, uski ek hi aadat hai. main uski maan ko meva de deta hoon aur narayan raat mein apni maan ko jagakar khata hai. bhali buri uski bas ek yahi aadat hai. are bhaiya, tumse batata hoon, laDakpan mein hamne iska naam pannalal rakha tha, par ek din ek mahatma ghumte hue hamare ghar aaye. unhonne narayan ka haath dekha aur bole, iska naam pannalal sannalal rakhne ki zarurat nahin, bas aaj se ise narayan kaha karo, iske karm mein raja hona likha hai. pahle zamane ki baat dusri thi, lekin ajkal raja ka arth kya hai? Dipti kalaktar to ek arth mein raja hi hua!” ant mein ankhen matkakar unhonne muskurane ki koshish ki, par hanphane lage.
donon mitr bahut der tak batachit karte rahe, aur adhikansh samay ve apne apne laDkon ka gungan karte rahe.
ghar ke logon ko shakaldip babu ki bimari ki chinta thi. bukhar ke saath dast bhi tha, isliye wo bahut kamzor ho ge the, lekin wo baat ko ye kahkar uDa dete, “are, kuch nahin, ek do din mein main achchha ho jaunga. ” aur ek vaidya ki koi mamuli, sasti dava khakar do din baad wo achchhe bhi ho ge, lekin unki durbalta purvavat thi.
jis din Dipti kalaktri ka natija nikla, ravivar ka din tha.
shakaldip babu sabere ramayan ka paath tatha nashta karne ke baad mandir chale ge. chhutti ke dinon mein wo mandir pahle hi chale jate aur vahan do teen ghante, aur kabhi kabhi to chaar chaar ghante rah jate. wo aath baje mandir pahunch ge. jis gaDi se natija anevala tha, wo das baje aati thi.
shakaldip babu pahle to bahut der tak mandir ki siDhi par baithkar sustate rahe, vahan se uthkar uupar aaye, to nandlal panDe ne, jo chandan ragaD raha tha, narayan ke parikshaphal ke sambandh mein puchhatachh ki. shakaldip vahan par khaDe hokar asadharan vistar ke saath sab kuch batane lage. vahan se jab unko chhutti mili, to dhoop kafi chaDh gai thi. unhonne bhitar jakar bhagvan shiv ke pinD ke samaksh apna matha tek diya. kafi der tak wo usi tarah paDe rahe. phir uthkar unhonne charon or ghoom ghumkar mandir ke ghante bajakar mantrochcharan kiye aur gaal bajaye. ant mein bhagvan ke samaksh punः danDvat kar bahar nikle hi the ki jangabhadur sinh mastar ne shivdarshnarth mandir mein pravesh kiya aur unhonne shakaldip babu ko dekhkar ashcharya prakat kiya, “are, mukhtar sahab! ghar nahin ge? Dipti kalaktri ka natija to nikal aaya. ”
shakaldip babu ka hriday dhak se kar gaya. unke honth kanpne lage aur unhonne kathinta se muskurakar puchha, “achchha, kab aya?”
jangabhadur sinh ne bataya, “are, das baje ki gaDi se aaya. narayan babu ka naam to avashya hai, lekin…” wo kuch aage na bol sake.
shakaldip babu ka hriday joron se dhak dhak kar raha tha. unhonne apne sukhe honthon ko jeebh se tar karte hue atyant hi dhimi avaz mein puchha, “kya koi khaas baat hai?”
“koi khaas baat nahin hai. are, unka naam to hai hi, ye hai ki zara niche hai. das laDke liye jayenge, lekin mera khayal hai ki unka naam solahvan satrahvan paDega. lekin koi chinta ki baat nahin, kuch laDke to kalaktri mein chale jate hain kuch meDikal mein hi nahin aate, aur is tarah puri puri ummid hai ki narayan babu le hi liye jayenge. ”
shakaldip babu ka chehra fak paD gaya. unke pairon mein zor nahin tha aur malum paDta tha ki wo gir jayenge. jangabhadur sinh to mandir mein chale ge.
lekin wo kuch der tak vahin sir jhukakar is tarah khaDe rahe, jaise koi bhuli baat yaad kar rahe hon. phir wo chaunk paDe aur achanak unhonne tezi se chalna shuru kar diya. unke munh se dhime svar mein tezi se shiv shiv nikal raha tha. aath das gaz aage baDhne par unhonne chaal aur tez kar di, par sheeghr hi behad thak ge aur ek neem ke peD ke niche khaDe hokar hanphane lage. chaar paanch minat sustane ke baad unhonne phir chalna shuru kar diya. wo chhaDi ko uthate girate, chhati par sir gaDe tatha shiv shiv ka jaap karte, hava ke halke jhonke se dhire dhire teDhe tirchhe uDnevale sukhe patte ki bhanti Dagmag Dagmag chale ja rahe the. kuch logon ne unko namaste kiya, to unhonne dekha nahin, aur kuch logon ne unko dekhkar muskurakar aapas mein alochana pratyalochana shuru kar di, tab bhi unhonne kuch nahin dekha. logon ne santosh se, sahanubhuti se tatha afsos se dekha, par unhonne kuch bhi dhyaan nahin diya. unko bas ek hi dhun thi ki wo kisi tarah ghar pahunch jayen.
ghar pahunchakar wo apne kamre mein charpai par dham se baith ge. unke munh se keval itna hi nikla, “narayan ki amman!”
sare ghar mein murdani chhai hui thi. chhote se angan mein ganda pani, mitti, bahar se uDkar aaye hue sukhe patte tatha gande kaghaz paDe the, aur nabdan se durgandh aa rahi thi. osare mein paDi purani bansakhat par bahut se gande kapDe paDe the aur rasoighar se us vaqt bhi dhuan uth uthkar sare ghar ki saans ko ghot raha tha.
kahin koi khatar patar nahin ho rahi thi aur malum hota tha ki ghar mein koi hai hi nahin.
sheeghr hi jamuna na malum kidhar se nikalkar kamre mein aai aur pati ko dekhte hi usne ghabrakar puchha, “tabiyat to theek hai?”
shakaldip babu ne jhunjhlakar uttar diya, “mujhe kya hua hai, jee? pahle ye batao, narayan ji kahan hain?”
jamuna ne bahar ke kamre ki or sanket karte hue bataya, “usi mein paDe hai., na kuch bolte hain aur na kuch sunte hain. main paas gai, to gumsum bane rahe. main to Dar gai hoon. ”
shakaldip babu ne muskurate hue ashvasan diya, “are kuch nahin, sab kalyan hoga, chinta ki koi baat nahin. pahle ye to batao, babua ko tumne kabhi ye to nahin bataya tha ki unki fees tatha khane pine ke liye mainne 600 rupe qarz liye hain. mainne tumko manakar diya tha ki aisa kisi bhi surat mein na karna. ”
jamuna ne kaha, “main aisi bevaquf thoDe hoon. laDke ne ek do baar khod khodkar puchha tha ki itne rupe kahan se aate hain? ek baar to usne yahan tak kaha tha ki ye phal meva aur doodh band kar do, babu ji bekar mein itni fizulkharchi kar rahe hain. par mainne kah diya ki tumko fikr karne ki zarurat nahin, tum bina kisi chinta ke mehnat karo, babu ji ko idhar bahut muqadme mil rahe hain. ”
shakaldip babu bachche ki tarah khush hote hue bole, “bahut achchha. koi chinta ki baat nahin. bhagvan sab kalyan karenge. babua kamre hi mein hain na?”
jamuna ne svikriti se sir liya diya.
shakaldip babu muskurate hue uthe. unka chehra patla paD gaya tha, ankhe dhans gai theen aur mukh par munchhen jhaDu ki bhanti farq rahi theen. wo jamuna se ye kahkar ki ‘tum apna kaam dekho, main abhi aaya’, qadam ko dabate hue bahar ke kamre ki or baDhe. unke pair kaanp rahe the aur unka sara sharir kaanp raha tha, unki saans gale mein atak atak ja rahi thi.
unhonne pahle osare hi mein se sir baDhakar kamre mein jhanka. bahar vala darvaza aur khiDkiyan band theen, parinamasvrup kamre mein andhera tha. pahle to kuch na dikhai paDa aur unka hriday dhak dhak karne laga. lekin unhonne thoDa aur aage baDhkar ghaur se dekha, to charpai par koi vyakti chhati par donon haath bandhe chitt paDha tha. wo narayan hi tha. wo dhire se chor ki bhanti pairon ko dabakar kamre ke andar dakhil hue.
unke chehre par asvabhavik vishvas ki muskurahat thirak rahi thi. wo mez ke paas pahunchakar chupchap khaDe ho ge aur andhere hi mein kitab ulatne pulatne lage. lagbhag DeDh do minat tak vahin usi tarah khaDe rahne par wo sarahaniy phurti se ghumkar niche baith ge aur khisakkar charpai ke paas chale ge aur charpai ke niche jhaank jhankakar dekhne lage, jaise koi cheez khoj rahe hon.
tatpashchat paas mein rakhi narayan ki chappal ko utha liya aur ek do kshan usko ulatne pulatne ke pashchat usko dhire se vahin rakh diya. ant mein wo saans rokkar dhire dhire is tarah uthne lage, jaise koi cheez khojne aaye the, lekin usmen asaphal hokar chupchap vapas laut rahe hon. khaDe hote samay wo apna sir narayan ke mukh ke nikat le ge aur unhonne narayan ko ankhen phaaD phaDkar ghaur se dekha. uski ankhe band theen aur wo chupchap paDa hua tha, lekin kisi prakar ki aahat, kisi prakar ka shabd nahin sunai de raha tha. shakaldip babu ekdam Dar ge aur unhonne kanpte hriday se apna bayan kaan narayan ke mukh ke bilkul nazdik kar diya. aur us samay unki khushi ka thikana na raha, jab unhonne apne laDke ki saans ko niymit roop se chalte paya.
wo chupchap jis tarah aaye the, usi tarah bahar nikal ge. pata nahin kab se, jamuna darvaze par khaDi chinta ke saath bhitar jhaank rahi thi. usne pati ka munh dekha aur ghabrakar puchha, “kya baat hai? aap aisa kyon kar rahe hain? mujhe baDa Dar lag raha hai. ”
shakaldip babu ne ishare se usko bolne se mana kiya aur phir usko sanket se bulate hue apne kamre mein chale ge. jamuna ne kamre mein pahunchakar pati ko chintit evan utsuk drishti se dekha.
shakaldip babu ne gadgad svar mein kaha, “babua so rahe hain. ”
wo aage kuch na bol sake. unki ankhen bhar aai theen. wo dusri or dekhne lage.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।