चमारों के गाँव में बल्हारों का एक परिवार था, जो जोहड़ के पार रहता था। चमारों और बल्हारों के बीच एक सीमा रेखा की तरह था जोहड़। बरसात के दिनों में जब जोहड़ पानी से भर जाता था तब बल्हारों का संपर्क गाँव से एकदम कट जाता था। बाक़ी समय में पानी कम हो जाने से किसी तरह वे पार करके गाँव पहुँचते थे। यानी बल्हारों के गाँव तक जाने का कोई रास्ता नहीं था। रास्ता बनाने की ज़रूरत कभी किसी ने महसूस ही नहीं की थी।
जब किसी चमार को उनकी ज़रूरत पड़ती, तो जोहड़ के किनारे खड़े होकर आवाज़ लगा देता। जोहड़ इतना बड़ा भी नहीं था, कि बल्हारों तक आवाज़ ही न पहुँचे। आवाज़ सुनकर वे बाहर आ जाते थे।
परिवार में सिर्फ़ दो जन ही रह गए थे—सुरजा, जिसकी उम्र ढल चुकी थी; और उसकी बेटी संतों, जो शादी के तीसरे साल में ही विधवा होकर मायके लौट आई थी। सुरजा की घरवाली को मरे भी तीन साल हो गए थे। घर-बाहर की तमाम ज़िम्मेदारियाँ संतों ने सँभाल रखी थी। सुरजा वैसे भी काफ़ी कमज़ोर हो चला था। उसे सूझता भी कम था। लेकिन फिर भी गाँव के छोटे-मोटे काम वह कर ही देता था।
सुरजा का एक बेटा भी था, जो दस-बारह साल की उम्र में ही घर छोड़कर भाग गया था। कुछ साल इधर-उधर भटकने के बाद उसे रेलवे में नौकरी मिल गई थी। इस नौकरी ने ही उसे पढ़ने-लिखने की ओर आकर्षित किया था। इसी तरह उसने हाईस्कूल करके तकनीकी प्रशिक्षण लिया और रेलवे में ही फिटर हो गया था। नाम था कल्लू, जो अब कल्लन हो गया था।
जब संतों की शादी हुई थी, सारा ख़र्च कल्लन ने ही उठाया था। सुरजा के पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी। कल्लन की शादी भी रेलवे कॉलोनी में ही हो गई थी। उसके ससुर भी रेलवे में ही थे। उसे पढ़ी-लिखी पत्नी मिली थी, जिसके कारण उसके रहने-सहन में फ़र्क़ आ गया था। उसके जीवन का ढर्रा ही बदल गया था।
गाँव वह यदाकदा ही आता था। लेकिन जब भी वह गाँव आता, चमार उसे अजीब-सी नज़रों से देखते थे। कल्लू से कल्लन हो जाने को वे स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। उनकी दृष्टि में वह अभी भी बल्हार ही था, समाज-व्यवस्था में सबसे नीचे यानी अछूतों में भी अछूत।
गाँव में वह अपने आपको अकेला महसूस करता था। परिवार के बाहर एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जिससे वह दो घड़ी बतिया सके। गाँव के पढ़े-लिखे लोग भी उससे कटे-कटे रहते थे। आख़िर वह था तो बल्हार ही, जोहड़ पार रहने वाला। गाँव वाले उसे कल्लू बल्हार ही कहकर बुलाते थे। उसे यह संबोधन अच्छा नहीं लगता था। नश्तर की तरह उसे बाँधकर हीन भावना से भर देता था।
इस बार वह काफ़ी दिन बाद गाँव आया था। उसने आते ही सुरजा से कहा, “बापू, मेरे साथ दिल्ली चलो। सरकारी मकान में सब एक साथ रह लेंगे।”
“ना बेट्टे, इब आख़री बख़त में यो गाँव क्यूँ छुड़वावे... पुरखों ने यहाँ आक्के किसी जमान्ने में डेरा डाल्ला था। यहीं मर-खप्प गए, इसी माट्टी में। इस जोहड़ की ढैंग पे रहके जिनगी काट दी। इब कहाँ जांगे,” सुरजा ने आँखें मिचमिचाकर अपने मन की बात कही थी, जैसे अतीत में वह कुछ ढूँढ़ रहा था।
कल्लन ने संतों की ओर देखा। वह तो चाहती थी, इस जहालत से छुटकारा मिले। लेकिन बापू की बात काटने का उसमें न कभी पहले हौसला था, न अब है, बस चुपचाप बैठकर पैरे के अंगूठे से मिट्टी कुरेदने लगी थी। जैसे उसका सोच उसे कहीं बहुत दूर ले जा रहा था, जहाँ दूर-दूर तक भी कोई किनारा दिखाई नहीं पड़ता था। कल्लन ने ज़ोर देकर कहा, “बापू, यहाँ न तो इज़्ज़त है, ना रोटी, चमारों की नज़र में भी हम सिर्फ़ बल्हार हैं... यहाँ तुम्हारी वजह से आना पड़ता है... मेरे बच्चे यहाँ आना नहीं चाहते... उन्हें यहाँ अच्छा ही नहीं लगता...”
उसकी बात बीच में ही काटकर सुरजा बोला, “तो बेट्टे, हियाँ मत आया कर... म्हारी तो कट जागी इसी तरह। बस, संतों की फ़िकर है। यो अकेल्ली रह जागी... यो टूटा-फूटा घर भी शायद अगली बारिश ना देख पावे। तुझे जो म्हारी चिंता है, तो तू इस घर कू पक्का बणवादे...” सुरजा के मन में यह बात कई बार आई थी। लेकिन कह नहीं पाया था। आज मौक़ा पाकर कह दिया।
“बापू, मेरे पास जो दो-चार पैसे हैं, उन्हें यहाँ लगाकर क्या होगा। आपके बाद मैं तो यहाँ रहूँगा नहीं... संतों मेरे साथ दिल्ली चली जाएगी,” कल्लन ने साफ़-साफ़ कह दिया।
सुनते ही सुरजा भड़क गया। उसके मुँह से गालियाँ फूटने लगीं। चिल्लाकर बोला, “तू! मेरे मरने का इंतिज़ार भी क्यूँ करै है... इसे आज ही ले जा। और हाँ, अपणे पैसों की धौंस मुझे ना दिखा... अपने धौरे रख... जहाँ इतनी कटगी है, आगे बी कट ही जागी।”
उन दोनों के बीच जैसे अचानक संवाद सूत्र बिखर गए थे। ख़ामोशी उनके इर्द-गिर्द फैल गई थी।
सुबह होते ही कल्लन दिल्ली चला गया था। पैसों का बंदोबस्त करके वह हफ़्ते भर में लौट आया था। साथ में पत्नी सरोज और दस साल की बेटी सलोनी भी आई थी। बेटे को वे उसकी ननिहाल में छोड़कर आ गए थे। कल्लन ने आते ही बापू से कहा, “किसी मिस्तरी से बात करो। कल ईंटों का ट्रक आ जाएगा।”
सुनते ही सुरजा की आँखों में चमक आ गई थी। उसे कल्लन की बात पर विश्वास ही नहीं हुआ था। लेकिन कल्लन ने उसे विश्वास दिला दिया था। वह उसी वक़्त मिस्तरी की तलाश में निकल पड़ा था।
गाँव में ज़्यादातर मकान सूरतराम ठेकेदार ने बनाए थे। सुरजा उसी के पास पहुँचा, “ठेकेदारजी, म्हारा भी एक मकान बणा दो।”
सूरतराम ने पहले तो सूरजा को ऊपर से नीचे तक देखा। तन पर ढंग का कपड़ा नहीं और चला है पक्का मकान बनवाने। सूरतराम जल्दी में था। उसे कहीं जाना था। उसने हँसकर सुरजा को टाल दिया, “आज तो टेम ना है, फिर बात करेंगे।”
सुरजा ने हार नहीं मानी। सुबह ही वह मुँहअँधेरे निकल पड़ा था। पास के गाँव में साबिर मिस्तरी था। पुराना कारीगर। सुरजा ने उसे अपने आने का मक़सद बताया। साबिर मान गया था, “ठीक है, मैं कल आके देख लूँगा। अपना मेहनताना पेशगी लूँगा।
“ठीक है मिस्तरीजी। कल आ जाओ... जोहड़ पे ही म्हारा घर है,” सुरजा अपनी ख़ुशी छिपा नहीं पा रहा था। लौटते समय उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। कमज़ोर शरीर में भी जैसे स्फूर्ति भर गई थी।
जब तक वह लौटकर घर पहुँचा, ईंटें आ चुकी थीं। लाल-लाल ईंटों को देखकर सुरजा अपनी थकावट भूल गया था। वह उल्लास से भर उठा था। उसने ऐसी ख़ुशी इससे पहले कभी महसूस ही नहीं की थी।
जोहड़ पार ईंटे उतरती देखना गाँव के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था। पूरे गाँव में जैसे भूचाल आ गया था। गाँव के कई लोग जोहड़ के किनारे खड़े थे।
रामजीलाल कीर्तन सभा का प्रधान था। रविदास जयंती पर रात-भर कीर्तन चलता था। भीड़ में वह भी खड़ा था। जब उससे रहा नहीं गया तो चिल्लाकर बोला, “अबे ओ! सुरजा... यो इन्टे कोण लाया है?”
सुरजा ने उत्साहित होकर कहा, “अजी बस, म्हारा कल्लण पक्का घर बणवा रिया है।”
रामजीलाल की आँखें फटी की फटी रह गईं। अपने भीतर उठते ईर्ष्या-द्वेष को दबाकर उसने कहा, “यो तो चोखी बात है सुरजा... पर पक्का मकान बणवाने से पहले परधानजी से तो पूछ लिया था या नहीं?”
रामजीलाल की बात तीर की तरह सुरजा के सीने में उतर गई। उसे लगा, जैसे कोई सूदखोर साहूकार सामने खड़ा धमकी दे रहा है। ग़ुस्से पर काबू पाने का असफल प्रयास करते हुए सुरजा ग़ुर्राया, “परधान से क्या पूछणा...?”
“फेर भी पूछ तो लेणा चाहिए था,” कहकर रामजीलाल तो चला गया लेकिन सुरजा को संशय में डाल गया था।
रामजीलाल सीधा प्रधान के पहुँचा। जोहड़ पार के हालात नमक-मिर्च लगाकर उसने प्रधान बलराम सिंह के सामने रखे। बलराम सिंह ने उस वक़्त कोई प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं की। सिर्फ़ सिर हिलाकर मूँछों पर हाथ फेरता रहा। प्रधान भी घाघ था। वह रामजीलाल की फ़ितरत से वाक़िफ़ था। उसके चले जाने के बाद वह कुछ ग़मगीन-सा हो गया था। सुरजा बल्हार पक्का मकान बनवा रहा है, यह बात उसे बैचेन करने के लिए काफ़ी थी। वैसे भी सुरजा गाँव के लिए अब उतना उपयोगी नहीं था।
यह ख़बर पूरे गाँव में फैल गई थी, जोहड़ पार बल्हारों का पक्का मकान बन रहा है। रेलवे की कमाई है, ईंटों का ट्रक आ गया है। सीमेंट, रेत, बजरी, सरिये आ रहे हैं। बात फैलते-फैलते इतनी फैल गई कि मकान नहीं गाँव की छाती पर हवेली बनेगी। खिड़की-दरवाज़ों के लिए सागौन की लकड़ी आ रही है, सुना है रंगीन संगमरमर के टाइल भी आ रहे हैं। जितने मुँह उतनी बातें।
अगले दिन सुबह ही प्रधान का आदमी आ धमका था जोहड़ के किनारे। सुरजा को मन मार के उसके साथ जाना पड़ा।
सुरजा को देखते ही बलराम सिंह चीखा, “अंटी में चार पैसे आ गए तो अपनी औक़ात भूल गया। बल्हारों को यहाँ इसलिए नहीं बसाया था कि हमारी छाती पर हवेली खड़ी करेंगे... वह ज़मीन जिस पर तुम रहते हो, हमारे बाप-दादों की है। जिस हाल में हो... रहते रहो... किसी को एतिराज़ नहीं होगा। सिर उठा के खड़ा होने की कोशिश करोगे तो गाँव से बाहर कर देंगे।”
बलराम सिंह का एक-एक शब्द बुझे तीर की तरह सुरजा के जिस्म को छलनी छलनी कर गया था। सुरजा की आँखों के सामने ज़िंदगी के खट्टे-मीठे दिन नाचने लगे। जैसे कल ही की बात हो। क्या नहीं किया सुरजा ने इस गाँव के लिए, और बलराम चुनाव के दिनों में एक-एक वोट के लिए कैसे मिन्नतें करता था, तब सुरजा बल्हार नहीं, सुरजा ताऊ हो जाता था। सुरजा ने एक सर्द साँस छोड़ी। बिना कोई जवाब दिए वापस चल दिया। बलराम सिंह ने आवाज़ देकर रोकना चाहा। लेकिन वह रुका नहीं। बलराम सिंह की चींख़ अब गालियों में बदल गई, जो बाहर तक सुनाई पड़ रही थी।
घर पहुँचते ही सुरजा ने कल्लन से कहा, “तू सच कहवे था कल्लू... यो गाँव रहणे लायक़ ना है।” उसकी लंबी मूँछे ग़ुस्से में फड़फड़ा रही थीं। आँखों के कोर भीगे हुए थे।
“बापू, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा... ये ईंटें तो कोई भी ख़रीद लेगा, ये मकान बनने नहीं देंगे,” कल्लन ने सुरजा को समझाने की कोशिश की। लेकिन सुरजा ने भी ज़िद पकड़ ली थी, वह झुकेगा नहीं। जो होगा देखा जाएगा। उसने मन ही मन दोहराया।
“ना, बेट्टे, मकान तो ईब बणके रहवेगा... जान दे दूँगा, पर यो गाँव छोड़के ना जाऊँगा,” सुरजा ने गहरे आत्मविश्वास से कहा।
कल्लन अजीब-सी दुविधा में फँस गया था। भावावेश में आकर वह ईंटें तो ले आया था, पर गाँव के हालात देखकर उसे डर लग रहा था। कहीं कोई बावेला न उठ खड़ा हो। पत्नी सरोज और बेटी सलोनी साथ आ गए थे। लेकिन सलोनी को यहाँ आते ही बुख़ार हो गया था। सरोज के पास जो दो-चार गोलियाँ थीं, वे दे दी थीं सलोनी को। लेकिन बुख़ार कम नहीं हुआ था। सरोज का मन घबरा रहा था। वह लगातार कल्लन से जाने की जिद कर रही थी, “बेकार यहाँ मकान पर पैसा लगा रहे हो। संतों हमारे संग रहेगी। बापू को समझाओ।” लेकिन कल्लन सुरजा को समझाने में असमर्थ था। उसने सरोज से कहा, “अब, आख़िरी बखत में बापू का जी दुखाना क्या ठीक होगा?” सरोज चुप हो गई थी।
सुरजा ने रात-भर जागकर ईंटों की रखवाली की थी। एक पल के लिए भी आँखें नहीं झपकी थीं सुबह होते ही वह साबिर मिस्तरी को बुलाने चल दिया था। सुरजा को डर था, कहीं कोई उसे उलटी-सीधी पट्टी न पढ़ा दे, उसे अब किसी पर भी विश्वास नहीं था।
सलोनी का बुख़ार कम नहीं हो रहा था। सरोज ने कल्लन से किसी डॉक्टर को बुलाने के लिए कहा। गाँव-भर में सिर्फ़ एक डॉक्टर था। कल्लन उसे ही बुलाने के लिए चल दिया।
कल्लन को देखते ही डॉक्टर ने मना कर दिया। सामान्य पूछताछ करके कुछ गोलियाँ पुड़िया में बाँधकर दे दी। कल्लन ने बहुत मिन्नतें कीं, “डॉक्टर साहब, एक बार चल के तो देख लो?” डॉक्टर टस से मस नहीं हुआ। कल्लन ने कहा, “मरीज़ को यहीं आपके क्लीनिक में लेकर आ जाता हूँ।”
“नहीं... यहाँ मत लाना... कल से मेरी दुकान ही बंद हो जाएगी। यह मत भूलो तुम बल्हार हो,” डॉक्टर ने साफ़-साफ़ चेतावनी दी, “ये दवा उसे खिला दो, ठीक हो जाएगी।”
कल्लन निराश लौट आया था। डॉक्टर ने जो गोलियाँ दी थीं, वे भी असरहीन थीं। बुख़ार से बदन तप रहा था। तेज़ बुख़ार के कारण वह लगातार बड़बड़ा रही थी। संतों उसकी सेवा-टहल में लगी थी। एक मिनट के लिए भी वहाँ से नहीं हटी थी। सरोज की चिंता बढ़ रही थी। उसके मन में तरह-तरह की शंकाएँ उठ रही थीं।
सुरजा सुबह का गया दोपहर बाद लौटा था। थका-हारा, हताशा उसे इस हाल में देखकर कल्लन ने पूछा “क्या हुआ बापू?” सुरजा ने निढाल स्वर में कहा, 'होणा क्या था? मिस्तरी कहीं दूर रिश्तेदारी में गया है। दस-पंद्रह दिन बाद आवेगा... बेट्टे! मुझे ना लगे इब वो आवेगा।” सुरजा ने अपने मन की हताशा ज़ाहिर की।
“क्यों, बापू, हम तो उसकी मेहनत का पैसा उसे पेशगी दे रहे थे, फिर भी वह मुकर गया,” कल्लन ने तअज्जुब ज़ाहिर किया।
“गाँव के ही किसी ने उसे रोका होगा... साबिर ऐसा आदमी ना है... वह भी इनसे डर गिया दिक्खे,” सुरजा ने गहरे अवसाद में डूबकर कहा। दोनों गहरी चिंता में डूब गए थे।
“सलोनी का जी कैसा है?” सुरजा ने पूछा।
“उसकी तबीयत ज़्यादा ही बिगड़ गई है। अस्तपाल ले जाना पड़ेगा,” कल्लन ने चिंता व्यक्त की।
'किसी झाड़-फूँक वाले कू बुलाऊँ...” कहीं कुछ ओपरा ना हो?” सुरजा ने मन की शंका जताई।
“नहीं, बापू... मैं कल सुबह ही उसे लेकर शहर जाऊँगा। बस, आज की रात ठीक-ठाक कट जाए,” कल्लन के स्वर में गहरी पीड़ा भरी हुई थी। सुरजा ने उसे ढाढ़स बँधाया।
पूरी रात जागते हुए कटी थी। सलोनी की तबीयत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई थी। सुबह होते ही कल्लन ने सलोनी को पीठ पर लादा। उसके इर्द-गिर्द ठीक से कपड़ा लपेटा। सरोज साथ थी। वे धूप चढ़ने से पहले शहर पहुँच जाना चाहते थे।
शहर गाँव से लगभग आठ-दस किलोमीटर दूर था। आने-जाने का कोई साधन नहीं था। कल्लन ने गाँव के संपन्न चमारों से बैलगाड़ी माँगी थी, लेकिन बल्हारों को वे गाड़ी देने को तैयार नहीं थे।
पीठ पर लादकर सलोनी को ले चलना कठिन हो रहा था। वह बार-बार पीठ से नीचे की ओर लुढ़क रही थी। कल्लन की पत्नी सहारा देते हुए उसके पीछे-पीछे चल रही थी। वे जल्दी से जल्दी शहर पहुँचना चाहते थे। लेकिन रास्ता काटे नहीं कट रहा था।
जैसे-जैसे धूप चढ़ रही थी, सलोनी का जिस्म निढाल हो रहा था। उसकी साँसे धीमी पड़ गई थीं। शहर लगभग आधा किलोमीटर दूर रह गया था। अचानक कल्लन को लगा जैसे सलोनी का भार कुछ बढ़ गया है। बुख़ार से तपता जिस्म ठंडा पड़ गया था। उसने सरोज से कहा, “देखो तो सलोनी ठीक तो है।”
सलोनी के शरीर में कोई स्पंदन ही नहीं था। सरोज दहाड़ मारकर चीख़ पड़ी थी, “मेरी बेटी को क्या हो गया... देखो तो यह हिल क्यों नहीं रही।” उसने रोते हुए कहा।
कल्लन ने सलोनी को पीठ से उतारकर सड़क के किनारे लिटा दिया था। वह हताश ठगा सा खड़ा था। उसके अंतस में एक हड़कंप सी मच गई थी। दस वर्ष की जीती-जागती सलोनी उसके हाथों में ही मुर्दा जिस्म में बदल गई थी। सब कुछ आँखों के सामने घटा था। वे ज़ोर-ज़ोर से चीख़कर रो रहे थे। रास्ता सुनसान था। उनकी चीख़ें सुनने वाला भी कोई दूर-दूर तक नहीं था। वे काफ़ी देर इसी तरह बैठे रोते रहे। उन्हें सूझ ही नहीं रहा था—क्या करें। सड़क किनारे कच्चे रास्ते पर सलोनी के शव को लिए वे तड़प रहे थे। काफ़ी देर बाद एक व्यक्ति शहर की ओर से आता दिखाई पड़ा। उन्हें उम्मीद की एक झलक दिखाई दी। शायद आने वाला उनकी कोई मदद करे।
राहगीर क्षण-भर उनके पास रुका। लेकिन बिना कुछ कहे, आगे बढ़ गया। शायद उसने उन्हें पहचान लिया था। उसी गाँव का था। कल्लन को लगा इंसान की 'ज़ात' ही सब कुछ है।
आख़िर वे उठे और बेटी का शव कंधों पर रखकर गाँव की ओर लौट चले। कंधों पर जितना बोझ था, उससे कहीं ज़्यादा बोझ उनके भीतर समाया हुआ था। सलोनी के बचपन की किलकारियाँ रह-रहकर उनकी स्मृतियों में कुलाँचे भर रही थीं। भारी मन से वे सलोनी का शव उठाए गाँव की ओर बढ़ रहे थे। रास्ता जैसे ख़त्म ही नहीं हो रहा था। जितना समय शहर के पास पहुँचने में लगा था, उससे ज़्यादा गाँव पहुँचने में लग रहा था। सरोज का हाल बहुत ही चिंताजनक था। वह सिर्फ़ घिसट रही थी। टूट तो कल्लन भी गया था लेकिन किसी तरह स्वयं को सँभाले हुए था। सरोज अधमरी-सी हो गई थी। उससे चला नहीं जा रहा था।
सुरजा ने उन्हें दूर से ही देख लिया था। पहचाना तो उन्हें पास आने पर ही। लेकिन दूर से आती आकृतियों को देखकर उसने अंदाज़ा लगा लिया था। वे जिस तरह सलोनी को ला रहे थे, देखकर उसका माथा ठनका। वह घर से निकलकर सड़क तक आ गया था। सलोनी का शव देखकर वह स्वयं को नहीं सँभाल पा रहा था। वह तड़प उठा था। ज़मीन पर दोहत्थड़ मार-मारकर वह रोने लगा था। कल्लन की आँखों से भी बेतहाशा आँसू बह रहे थे। उनका रोना-धोना सुनकर संतों भी आ गई थी। उन्हें ढाढ़स बँधाने वाला कोई नहीं था।
शहर से लौटने में उन्हें वैसे ही समय ज़्यादा हो गया था। किसी को बुलाने के लिए भी समय नहीं था। रात-भर इंतिज़ार करने की स्थिति में नहीं थे। कल्लन चाहता था कि शाम होने से पहले ही दाह-संस्कार हो जाए। सलोनी के शव को देखकर सरोज बार-बार बेहोश हो रही थी।
समस्या थी लकड़ियों की। दाह-संस्कार के लिए लकड़ियाँ उनके पास नहीं थीं। सुरजा और संतों लकड़ियों का इंतिज़ाम करने के लिए निकल पड़े थे। उन्होंने चमारों के दरवाज़ों पर जाकर गुहार लगाई थी। लेकिन कोई भी मदद करने को तैयार नहीं था। घंटा-भर भटकने के बाद भी वे इतनी लकड़ी नहीं जुटा पाए थे कि ठीक से दाह-संस्कार हो सके। घर में उपले थे। संतों ने कहा, “लकड़ियों की जगह उपले ही ले जाओ।”
चमारों का शमशान गाँव के निकट था। लेकिन उसमें बल्हारों को अपने मुर्दे फूँकने की इजाज़त नहीं थी। कल्लन की माँ के समय भी ऐसी ही समस्या आई थी। चमारों ने साफ़ मना कर दिया था। गाँव से बाहर तीन-चार किलोमीटर दूर ले जाकर फूँकना पड़ा था। इतनी दूर सलोनी के शव को ले जाना... लकड़ी, उपले भी ले जाने थे। सुरजा और कल्लन के अलावा कोई नहीं था, जो इस कार्य में हाथ बँटा सकता था।
बल्हारों के मुर्दे को हाथ लगाने या शवयात्रा में शामिल होने गाँव का कोई भी व्यक्ति नहीं आया था। 'ज़ात' उनका रास्ता रोक रही थी। कल्लन ने काफ़ी कोशिश की थी। वह रविदास मंडल, डॉक्टर अम्बेडकर युवक सभा के लोगों से जाकर मिला था। लेकिन कोई भी साथ आने को तैयार नहीं था। किसी न किसी बहाने वे सब कन्नी काट गए थे।
रेलवे कॉलोनी में ‘अंबेडकर जयंती’ के भाषण उसे याद आने लगे थे। उसने उन तमाम विचारों को झटक दिया था। गहरी वितृष्णा उसके भीतर उठ रही थी। उसे लगा, वे तमाम भाषण खोखले और बेहद बनावटी थे।
कल्लन ने सुरजा से कहा, “बापू! और देर मत करो...” उन दोनों ने कपड़े में लिपटे सलोनी के शव को उठा लिया था। स्त्रियों के शमशान जाने का रिवाज बल्हारों में नहीं था। लेकिन संतों और सरोज के लिए इस रिवाज को तोड़ देने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था। संतों ने लकड़ियों का गट्ठर सिर पर रखकर हाथ में आग और हाँडी उठा लिए थे। पीछे-पीछे सरोज उपलों भरा टोकरा लिए चल पड़ी थी।
इस शवयात्रा को देखने के लिए चमारिनें अपनी छतों पर चढ़ गई थीं। उनकी आँखों के कोर भीगे हुए थे। लेकिन बेबस थीं, अपने-अपने दायरे में क़ैद। बल्हार तो आख़िर बल्हार ही थे। अपने ही नहीं, उन्हें तो दूसरों के मुर्दे भी ढोने की आदत थी...
चमारों का गाँव और उसमें एक बल्हार परिवार।
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uski baat beech mein hi katkar surja bola, “to bette, hiyan mat aaya kar mhari to kat jagi isi tarah bus, santon ki fikar hai yo akelli rah jagi yo tuta phuta ghar bhi shayad agli barish na dekh pawe tujhe jo mhari chinta hai, to tu is ghar ku pakka banwade ” surja ke man mein ye baat kai bar i thi lekin kah nahin paya tha aaj mauqa pakar kah diya
“bapu, mere pas jo do chaar paise hain, unhen yahan lagakar kya hoga aapke baad main to yahan rahunga nahin santon mere sath dilli chali jayegi,” kallan ne saf saf kah diya
sunte hi surja bhaDak gaya uske munh se galiyan phutne lagin chillakar bola, “too! mere marne ka intizar bhi kyoon karai hai ise aaj hi le ja aur han, apne paison ki dhauns mujhe na dikha apne dhaure rakh jahan itni katgi hai, aage b kat hi jagi
un donon ke beech jaise achanak sanwad sootr bikhar gaye the khamoshi unke ird gird phail gai thi
subah hote hi kallan dilli chala gaya tha paison ka bandobast karke wo hafte bhar mein laut aaya tha sath mein patni saroj aur dal sal ki beti saloni bhi i thi bete ko we uski nanihal mein chhoDkar aa gaye the kallan ne aate hi bapu se kaha, “kisi mistari se baat karo kal inton ka truck aa jayega
sunte hi surja ki ankhon mein chamak aa gai thi use kallan ki baat par wishwas hi nahin hua tha lekin kallan ne use wishwas dila diya tha wo usi waqt mistari ki talash mein nikal paDa tha
ganw mein ziyadatar makan suratram thekedar ne banaye the surja usi ke pas pahuncha, “thekedarji, mhara bhi ek makan bana do
suratram ne pahle to suraja ko upar se niche tak dekha tan par Dhang ka kapDa nahin aur chala hai pakka makan banwane suratram jaldi mein tha use kahin jana tha usne hansakar surja ko tal diya, “aj to tem na hai, phir baat karenge
surja ne haar nahin mani subah hi wo munhandhere nikal paDa tha pas ke ganw mein sabir mistari tha purana karigar surja ne use apne aane ka maqsad bataya sabir man gaya tha, “theek hai, main kal aake dekh lunga apna mehnatana peshgi lunga
theek hai mistriji kal aa jao johaD pe hi mhara ghar hai,” surja apni khushi chhipa nahin pa raha tha lautte samay uske panw zamin par nahin paD rahe the kamzor sharir mein bhi jaise sphurti bhar gai thi
jab tak wo lautkar ghar pahuncha, inten aa chuki theen lal lal inton ko dekhkar surja apni thakawat bhool gaya tha wo ullas se bhar utha tha usne aisi khushi isse pahle kabhi mahsus hi nahin ki thi
johaD par inte utarti dekhana ganw ke liye kisi ashchary se kam nahin tha pure ganw mein jaise bhuchal aa gaya tha ganw ke kai log johaD ke kinare khaDe the
ramjilal kirtan sabha ka pardhan tha rawidas jayanti par raat bhar kirtan chalta tha bheeD mein wo bhi khaDa tha jab usse raha nahin gaya to chillakar bola, “abe o! surja yo inte kon laya hai?
surja ne utsahit hokar kaha, “aji bus, mhara kallan pakka ghar banwa riya hai
ramjilal ki ankhen phati ki phati rah gain apne bhitar uthte irshya dwesh ko dabakar usne kaha, “yo to chokhi baat hai surja par pakka makan banwane se pahle pardhanji se to poochh liya tha ya nahin?
ramjilal ki baat teer ki tarah surja ke sine mein utar gai use laga, jaise koi sudakhor sahukar samne khaDa dhamki de raha hai ghusse par kabu pane ka asaphal prayas karte hue surja ghurraya, “pardhan se kya puchhna ?
“pher bhi poochh to lena chahiye tha,” kahkar ramjilal to chala gaya lekin surja ko sanshay mein Dal gaya tha
ramjilal sidha pardhan ke pahuncha johaD par ke halat namak mirch lagakar usne pardhan balram singh ke samne rakhe balram singh ne us waqt koi pratikriya zahir nahin ki sirf sir hilakar munchhon par hath pherta raha pardhan bhi ghagh tha wo ramjilal ki fitrat se waqif tha uske chale jane ke baad wo kuch ghamgin sa ho gaya tha surja balhar pakka makan banwa raha hai, ye baat use baichen karne ke liye kafi thi waise bhi surja ganw ke liye ab utna upyogi nahin tha
ye khabar pure ganw mein phail gai thi, johaD par balharon ka pakka makan ban raha hai railway ki kamai hai, inton ka truck aa gaya hai cement, ret, bajri, sariye aa rahe hain baat phailte phailte itni phail ki makan nahin ganw ki chhati par haweli banegi khiDki darwazon ke liye sagaun ki lakDi aa rahi hai, suna hai rangin sangmarmar ke tile bhi aa rahe hain jitne munh utni baten
agle din subah hi pardhan ka adami aa dhamka tha johaD ke kinare surja ko man mar ke uske sath jana paDa
surja ko dekhte hi balram singh chikha, “anti mein chaar paise aa gaye to apni auqat bhool gaya balharon ko yahan isliye nahin basaya tha ki hamari chhati par haweli khaDi karenge wo zamin jis par tum rahte ho, hamare bap dadon ki hai jis haal mein ho rahte raho kisi ko etiraz nahin hoga sir utha ke khaDa hone ki koshish karoge to ganw se bahar kar denge
balram singh ka ek ek shabd bujhe teer ki tarah surja ke jism ko chhalni chhalni kar gaya tha surja ki ankhon ke samne zindagi ke khatte mithe din nachne lage jaise kal hi ki baat ho kya nahin kiya surja ne is ganw ke liye, aur balram chunaw ke dinon mein ek ek wote ke liye kaise minnaten karta tha, tab surja balhar nahin, surja tau ho jata tha surja ne ek sard sans chhoDi bina koi jawab diye wapas chal diya balram singh ne awaz dekar rokna chaha lekin wo ruka nahin balram singh ki cheenkh ab galiyon mein badal gai, jo bahar tak sunai paD rahi thi
ghar pahunchte hi surja ne kallan se kaha, “tu sach kahwe tha kallu yo ganw rahne layaq na hai ” uski lambi munchhe ghusse mein phaDphaDa rahi theen ankhon ke kor bhige hue the
“bapu, abhi bhi kuch nahin bigDa ye inten to koi bhi kharid lega, ye makan banne nahin denge,” kallan ne surja ko samjhane ki koshish ki lekin surja ne bhi zid pakaD li thi, wo jhukega nahin jo hoga dekha jayega usne man hi man dohraya
“na, bette, makan to ib banke rahwega jaan de dunga, par yo ganw chhoDke na jaunga,” surja ne gahre atmawishwas se kaha
kallan ajib si duwidha mein phans gaya tha bhawawesh mein aakar wo inten to le aaya tha, par ganw ke halat dekhkar use Dar lag raha tha kahin koi bawela na uth khaDa ho patni saroj aur beti saloni sath aa gaye the lekin saloni ko yahan aate hi bukhar ho gaya tha saroj ke pas jo do chaar goliyan theen, we de di theen saloni ko lekin bukhar kam nahin hua tha saroj ka man ghabra raha tha wo lagatar kallan se jane ki jid kar rahi thi, “bekar yahan makan par paisa laga rahe ho santon hamare sang rahegi bapu ko samjhao ” lekin kallan surja ko samjhane mein asmarth tha usne saroj se kaha, “ab, akhiri bakhat mein bapu ka ji dukhana kya theek hoga?” saroj chup ho gai thi
surja ne raat bhar jagkar inton ki rakhwali ki thi ek pal ke liye bhi ankhen nahin jhapki theen subah hote hi wo sabir mistari ko bulane chal diya tha surja ko Dar tha, kahin koi use ulti sidhi patti na paDha de, use ab kisi par bhi wishwas nahin tha
saloni ka bukhar kam nahin ho raha tha saroj ne kallan se kisi doctor ko bulane ke liye kaha ganw bhar mein sirf ek doctor tha kallan use hi bulane ke liye chal diya
kallan ko dekhte hi doctor ne mana kar diya samany puchhatachh karke kuch goliyan puDiya mein bandhakar de di kallan ne bahut minnaten keen, “doctor sahab, ek bar chal ke to dekh lo?” doctor tas se mas nahin hua kallan ne kaha, “mariz ko yahin aapke klinik mein lekar aa jata hoon
“nahin yahan mat lana kal se meri dukan hi band ho jayegi ye mat bhulo tum balhar ho,” doctor ne saf saf chetawni di, “ye dawa use khila do, theek ho jayegi
kallan nirash laut aaya tha doctor ne jo goliyan di theen, we bhi asarhin theen bukhar se badan tap raha tha tez bukhar ke karan wo lagatar baDbaDa rahi thi santon uski sewa tahal mein lagi thi ek minat ke liye bhi wahan se nahin hati thi saroj ki chinta baDh rahi thi uske man mein tarah tarah ki shankayen uth rahi theen
surja subah ka gaya dopahar baad lauta tha thaka hara, hatasha use is haal mein dekhkar kallan ne puchha “kya hua bapu?” surja ne niDhal swar mein kaha, hona kya tha? mistari kahin door rishtedari mein gaya hai das pandrah din baad awega bette! mujhe na lage ib wo awega ” surja ne apne man ki hatasha zahir ki
“kyon, bapu, hum to uski mehnat ka paisa use peshgi de rahe the, phir bhi wo mukar gaya,” kallan ne tajjub zahir kiya
“ganw ke hi kisi ne use roka hoga sabir aisa adami na hai wo bhi inse Dar giya dikkhe,” surja ne gahre awsad mein Dubkar kaha donon gahri chinta mein Doob gaye the
“saloni ka ji kaisa hai?” surja ne puchha
uski tabiat ziyada hi bigaD gai hai astpal le jana paDega, kallan ne chinta wyakt ki
kisi jhaD phunkwale ku bulaun ” kahin kuch opara na ho?” surja ne man ki shanka jatai
“nahin, bapu main kal subah hi use lekar shahr jaunga bus, aaj ki raat theek thak kat jaye,” kallan ke swar mein gahri piDa bhari hui thi surja ne use DhaDhas bandhaya
puri raat jagte hue kati thi saloni ki tabiat bahut ziyada bigaD gai thi subah hote hi kallan ne saloni ko peeth par lada uske ird gird theek se kapDa lapeta saroj sath thi we dhoop chaDhne se pahle shahr pahunch jana chahte the
shahr ganw se lagbhag aath das kilomitar door tha aane jane ka koi sadhan nahin tha kallan ne ganw ke sanpann chamaron se bailagaड़i mangi thi, lekin balharon ko we gaDi dene ko taiyar nahin the
peeth par ladkar saloni ko le chalna kathin ho raha tha wo bar bar peeth se niche ki or luDhak rahi thi kallan ki patni sahara dete hue uske pichhe pichhe chal rahi thi we jaldi se jaldi shahr pahunchna chahte the lekin rasta kate nahin kat raha tha
jaise jaise dhoop chaDh rahi thi, saloni ka jism niDhal ho raha tha uski sanse dhimi paD gai theen shahr lagbhag aadha kilomitar door rah gaya tha achanak kallan ko laga jaise saloni ka bhaar kuch baDh gaya hai bukhar se tapta jism thanDa paD gaya tha usne saroj se kaha, “dekho to saloni theek to hai
saloni ke sharir mein koi spandan hi nahin tha saroj dahaD markar cheekh paDi thi, “meri beti ko kya ho gaya dekho to ye hil kyon nahin rahi ” usne rote hue kaha
kallan ne saloni ko peeth se utarkar saDak ke kinare lita diya tha wo hatash thaga sa khaDa tha uske antas mein ek haDkamp si mach gai thi das warsh ki jiti jagti saloni uske hathon mein hi murda jism mein badal gai thi sab kuch ankhon ke samne ghata tha we zor zor se chikhkar ro rahe the rasta sunsan tha unki chikhen sunne wala bhi koi door door tak nahin tha we kafi der isi tarah baithe rote rahe unhen soojh hi nahin raha tha—kya karen saDak kinare kachche raste par saloni ke shau ko liye we taDap rahe the kafi der baad ek wekti shahr ki or se aata dikhai paDa unhen ummid ki ek jhalak dikhai di shayad anewala unki koi madad kare
rahgir kshan bhar unke pas ruka lekin bina kuch kahe, aage baDh gaya shayad usne unhen pahchan liya tha usi ganw ka tha kallan ko laga insan ki zat hi sab kuch hai
akhir we uthe aur beti ka shau kandhon par rakhkar ganw ki or laut chale kandhon par jitna bojh tha, usse kahin ziyada bojh unke bhitar samaya hua tha saloni ke bachpan ki kilkariyan rah rahkar unki smritiyon mein kulanche bhar rahi theen bhari man se we saloni ka shau uthaye ganw ki or baDh rahe the rasta jaise khatm hi nahin ho raha tha jitna samay shahr ke pas pahunchne mein laga tha, usse ziyada ganw pahunchne mein lag raha tha saroj ka haal bahut hi chintajanak tha wo sirf ghisat rahi thi toot to kallan bhi gaya tha lekin kisi tarah swayan ko sambhale hue tha saroj adhamri si ho gai thi usse chala nahin ja raha tha
surja ne unhen door se hi dekh liya tha pahchana to unhen pas aane par hi lekin door se aati akritiyon ko dekhkar usne andaza laga liya tha we jis tarah saloni ko la rahe the, dekhkar uska matha thanka wo ghar se nikalkar saDak tak aa gaya tha saloni ka shau dekhkar wo swayan ko nahin sanbhal pa raha tha wo taDap utha tha zamin par dohatthaD mar markar wo rone laga tha kallan ki ankhon se bhi betahasha ansu bah rahe the unka rona dhona sunkar santon bhi aa gai thi unhen DhaDhas bandhanewala koi nahin tha
shahr se lautne mein unhen waise hi samay ziyada ho gaya tha kisi ko bulane ke liye bhi samay nahin tha raat bhar intizar karne ki sthiti mein nahin the kallan chahta tha ki sham hone se pahle hi dah sanskar ho jaye saloni ke shau ko dekhkar saroj bar bar behosh ho rahi thi
samasya thi lakDiyon ki dah sanskar ke liye lakDiyan unke pas nahin theen surja aur santon lakDiyon ka intizam karne ke liye nikal paDe the unhonne chamaron ke darwazon par jakar guhar lagai thi lekin koi bhi madad karne ko taiyar nahin tha ghanta bhar bhatakne ke baad bhi we itni lakDi nahin juta pae the ki theek se dah sanskar ho sake ghar mein uple the santon ne kaha, “lakaDiyon ki jagah uple hi le jao
chamaron ka shamshan ganw ke nikat tha lekin usmen balharon ko apne murde phunkne ki ijazat nahin thi kallan ki man ke samay bhi aisi hi samasya i thi chamaron ne saf mana kar diya tha ganw se bahar teen chaar kilomitar door le jakar phunkna paDa tha itni door saloni ke shau ko le jana lakDi, uple bhi le jane the surja aur kallan ke alawa koi nahin tha, jo is kary mein hath banta sakta tha
balharon ke murde ko hath lagane ya shawyatra mein shamil hone ganw ka koi bhi wekti nahin aaya tha zat unka rasta rok rahi thi kallan ne kafi koshish ki thi wo rawidas manDal, doctor ambeDkar yuwak sabha ke logon se jakar mila tha lekin koi bhi sath aane ko taiyar nahin tha kisi na kisi bahane we sab kanni kat gaye the
railway colony mein ambeDkar jayanti ke bhashan use yaad aane lage the usne un tamam wicharon ko jhatak diya tha gahri witrshna uske bhitar uth rahi thi use laga, we tamam bhashan khokhle aur behad banawati the
kaltan ne surja se kaha, “bapu! aur der mat karo ” un donon ne kapDe mein lipte saloni ke shau ko utha liya tha istriyon ke shamshan jane ka riwaj balharon mein nahin tha lekin santon aur saroj ke liye is riwaj ko toD dene ke alawa koi aur rasta nahin bacha tha santon ne lakDiyon ka gatthar sir par rakhkar hath mein aag aur hanDi utha liye the pichhe pichhe saroj uplon bhara tokra liye chal paDi thi
is shawyatra ko dekhne ke liye chamarinen apni chhaton par chaDh gai theen unki ankhon ke kor bhige hue the lekin bebas theen, apne apne dayre mein qaid balhar to akhir balhar hi the apne hi nahin, unhen to dusron ke murde bhi Dhone ki aadat thi
chamaron ka ganw aur usmen ek balhar pariwar
chamaron ke ganw mein balharon ka ek pariwar tha, jo johaD ke par rahta tha chamaron aur balharon ke beech ek sima rekha ki tarah tha johaD barsat ke dinon mein jab johaD pani se bhar jata tha tab balharon ka sanpark ganw se ekdam kat jata tha baqi samay mein pani kam ho jane se kisi tarah we par karke ganw pahunchte the yani balharon ke ganw tak jane ka koi rasta nahin tha rasta banane ki zarurat kabhi kisi ne mahsus hi nahin ki thi
jab kisi chamar ko unki zarurat paDti, to johaD ke kinare khaDe hokar awaz laga deta johaD itna baDa bhi nahin tha, ki balharon tak awaz hi na pahunche awaz sunkar we bahar aa jate the
pariwar mein sirf do jan hi rah gaye the—surja, jiski umr Dhal chuki thee; aur uski beti santon, jo shadi ke tisre sal mein hi widhwa hokar mayke laut i thi surja ki gharwali ko mare bhi teen sal ho gaye the ghar bahar ki tamam zimmedariyan santon ne sanbhal rakhi thi surja waise bhi kafi kamzor ho chala tha use sujhta bhi kam tha lekin phir bhi ganw ke chhote mote kaam wo kar hi deta tha
surja ka ek beta bhi tha, jo das barah sal ki umr mein hi ghar chhoDkar bhag gaya tha kuch sal idhar udhar bhatakne ke baad use railway mein naukari mil gai thi is naukari ne hi use paDhne likhne ki or akarshait kiya tha isi tarah usne haiskul karke takniki prashikshan liya aur railway mein hi phitar ho gaya tha nam tha kallu, jo ab kallan ho gaya tha
jab santon ki shadi hui thi, sara kharch kallan ne hi uthaya tha surja ke pas to phuti kauDi bhi nahin thi kallan ki shadi bhi railway colony mein hi ho gai thi uske sasur bhi railway mein hi the use paDhi likhi patni mili thi, jiske karan uske rahne sahn mein farq aa gaya tha uske jiwan ka Dharra hi badal gaya tha
ganw wo yadakda hi aata tha lekin jab bhi wo ganw aata, chamar use ajib si nazron se dekhte the kallu se kallan ho jane ko we swikar nahin kar pa rahe the unki drishti mein wo abhi bhi balhar hi tha, samaj wyawastha mein sabse niche yani achhuton mein bhi achhut
ganw mein wo apne aapko akela mahsus karta tha pariwar ke bahar ek bhi aisa wekti nahin tha, jisse wo do ghaDi batiya sako ganw ke paDhe likhe log bhi usse kate kate rahte the akhir wo tha to balhar hi, johaD par rahnewala ganw wale use kallu balhar hi kahkar bulate the use ye sambodhan achchha nahin lagta tha nashtar ki tarah use bandhakar heen bhawna se bhar deta tha
is bar wo kafi din baad ganw aaya tha usne aate hi surja se kaha, “bapu, mere sath dilli chalo sarkari makan mein sab ek sath rah lenge
“na bette, ib akhri bakhat mein yo ganw kyoon chhuDwawe purkhon ne yahan aakke kisi jamanne mein Dera Dalla tha yahin mar khapp gaye, isi matti mein is johaD ki laing pe rahke jingi kat di ib kahan jange,” surja ne ankhen michamichakar apne man ki baat kahi thi, jaise atit mein wo kuch DhoonDh raha tha
kallan ne santon ki or dekha wo to chahti thi, is jahalat se chhutkara mile lekin bapu ki baat katne ka usmen na kabhi pahle hausla tha, na ab hai, bus chupchap baithkar paire ke anguthe se mitti kuredne lagi thi jaise uska soch use kahin bahut door le ja raha tha, jahan door door tak bhi koi kinara dikhai nahin paDta tha kallan ne zor dekar kaha, “bapu, yahan na to izzat hai, na roti, chamaron ki nazar mein bhi hum sirf balhar hain yahan tumhari wajah se aana paDta hai mere bachche yahan aana nahin chahte unhen yahan achchha hi nahin lagta ”
uski baat beech mein hi katkar surja bola, “to bette, hiyan mat aaya kar mhari to kat jagi isi tarah bus, santon ki fikar hai yo akelli rah jagi yo tuta phuta ghar bhi shayad agli barish na dekh pawe tujhe jo mhari chinta hai, to tu is ghar ku pakka banwade ” surja ke man mein ye baat kai bar i thi lekin kah nahin paya tha aaj mauqa pakar kah diya
“bapu, mere pas jo do chaar paise hain, unhen yahan lagakar kya hoga aapke baad main to yahan rahunga nahin santon mere sath dilli chali jayegi,” kallan ne saf saf kah diya
sunte hi surja bhaDak gaya uske munh se galiyan phutne lagin chillakar bola, “too! mere marne ka intizar bhi kyoon karai hai ise aaj hi le ja aur han, apne paison ki dhauns mujhe na dikha apne dhaure rakh jahan itni katgi hai, aage b kat hi jagi
un donon ke beech jaise achanak sanwad sootr bikhar gaye the khamoshi unke ird gird phail gai thi
subah hote hi kallan dilli chala gaya tha paison ka bandobast karke wo hafte bhar mein laut aaya tha sath mein patni saroj aur dal sal ki beti saloni bhi i thi bete ko we uski nanihal mein chhoDkar aa gaye the kallan ne aate hi bapu se kaha, “kisi mistari se baat karo kal inton ka truck aa jayega
sunte hi surja ki ankhon mein chamak aa gai thi use kallan ki baat par wishwas hi nahin hua tha lekin kallan ne use wishwas dila diya tha wo usi waqt mistari ki talash mein nikal paDa tha
ganw mein ziyadatar makan suratram thekedar ne banaye the surja usi ke pas pahuncha, “thekedarji, mhara bhi ek makan bana do
suratram ne pahle to suraja ko upar se niche tak dekha tan par Dhang ka kapDa nahin aur chala hai pakka makan banwane suratram jaldi mein tha use kahin jana tha usne hansakar surja ko tal diya, “aj to tem na hai, phir baat karenge
surja ne haar nahin mani subah hi wo munhandhere nikal paDa tha pas ke ganw mein sabir mistari tha purana karigar surja ne use apne aane ka maqsad bataya sabir man gaya tha, “theek hai, main kal aake dekh lunga apna mehnatana peshgi lunga
theek hai mistriji kal aa jao johaD pe hi mhara ghar hai,” surja apni khushi chhipa nahin pa raha tha lautte samay uske panw zamin par nahin paD rahe the kamzor sharir mein bhi jaise sphurti bhar gai thi
jab tak wo lautkar ghar pahuncha, inten aa chuki theen lal lal inton ko dekhkar surja apni thakawat bhool gaya tha wo ullas se bhar utha tha usne aisi khushi isse pahle kabhi mahsus hi nahin ki thi
johaD par inte utarti dekhana ganw ke liye kisi ashchary se kam nahin tha pure ganw mein jaise bhuchal aa gaya tha ganw ke kai log johaD ke kinare khaDe the
ramjilal kirtan sabha ka pardhan tha rawidas jayanti par raat bhar kirtan chalta tha bheeD mein wo bhi khaDa tha jab usse raha nahin gaya to chillakar bola, “abe o! surja yo inte kon laya hai?
surja ne utsahit hokar kaha, “aji bus, mhara kallan pakka ghar banwa riya hai
ramjilal ki ankhen phati ki phati rah gain apne bhitar uthte irshya dwesh ko dabakar usne kaha, “yo to chokhi baat hai surja par pakka makan banwane se pahle pardhanji se to poochh liya tha ya nahin?
ramjilal ki baat teer ki tarah surja ke sine mein utar gai use laga, jaise koi sudakhor sahukar samne khaDa dhamki de raha hai ghusse par kabu pane ka asaphal prayas karte hue surja ghurraya, “pardhan se kya puchhna ?
“pher bhi poochh to lena chahiye tha,” kahkar ramjilal to chala gaya lekin surja ko sanshay mein Dal gaya tha
ramjilal sidha pardhan ke pahuncha johaD par ke halat namak mirch lagakar usne pardhan balram singh ke samne rakhe balram singh ne us waqt koi pratikriya zahir nahin ki sirf sir hilakar munchhon par hath pherta raha pardhan bhi ghagh tha wo ramjilal ki fitrat se waqif tha uske chale jane ke baad wo kuch ghamgin sa ho gaya tha surja balhar pakka makan banwa raha hai, ye baat use baichen karne ke liye kafi thi waise bhi surja ganw ke liye ab utna upyogi nahin tha
ye khabar pure ganw mein phail gai thi, johaD par balharon ka pakka makan ban raha hai railway ki kamai hai, inton ka truck aa gaya hai cement, ret, bajri, sariye aa rahe hain baat phailte phailte itni phail ki makan nahin ganw ki chhati par haweli banegi khiDki darwazon ke liye sagaun ki lakDi aa rahi hai, suna hai rangin sangmarmar ke tile bhi aa rahe hain jitne munh utni baten
agle din subah hi pardhan ka adami aa dhamka tha johaD ke kinare surja ko man mar ke uske sath jana paDa
surja ko dekhte hi balram singh chikha, “anti mein chaar paise aa gaye to apni auqat bhool gaya balharon ko yahan isliye nahin basaya tha ki hamari chhati par haweli khaDi karenge wo zamin jis par tum rahte ho, hamare bap dadon ki hai jis haal mein ho rahte raho kisi ko etiraz nahin hoga sir utha ke khaDa hone ki koshish karoge to ganw se bahar kar denge
balram singh ka ek ek shabd bujhe teer ki tarah surja ke jism ko chhalni chhalni kar gaya tha surja ki ankhon ke samne zindagi ke khatte mithe din nachne lage jaise kal hi ki baat ho kya nahin kiya surja ne is ganw ke liye, aur balram chunaw ke dinon mein ek ek wote ke liye kaise minnaten karta tha, tab surja balhar nahin, surja tau ho jata tha surja ne ek sard sans chhoDi bina koi jawab diye wapas chal diya balram singh ne awaz dekar rokna chaha lekin wo ruka nahin balram singh ki cheenkh ab galiyon mein badal gai, jo bahar tak sunai paD rahi thi
ghar pahunchte hi surja ne kallan se kaha, “tu sach kahwe tha kallu yo ganw rahne layaq na hai ” uski lambi munchhe ghusse mein phaDphaDa rahi theen ankhon ke kor bhige hue the
“bapu, abhi bhi kuch nahin bigDa ye inten to koi bhi kharid lega, ye makan banne nahin denge,” kallan ne surja ko samjhane ki koshish ki lekin surja ne bhi zid pakaD li thi, wo jhukega nahin jo hoga dekha jayega usne man hi man dohraya
“na, bette, makan to ib banke rahwega jaan de dunga, par yo ganw chhoDke na jaunga,” surja ne gahre atmawishwas se kaha
kallan ajib si duwidha mein phans gaya tha bhawawesh mein aakar wo inten to le aaya tha, par ganw ke halat dekhkar use Dar lag raha tha kahin koi bawela na uth khaDa ho patni saroj aur beti saloni sath aa gaye the lekin saloni ko yahan aate hi bukhar ho gaya tha saroj ke pas jo do chaar goliyan theen, we de di theen saloni ko lekin bukhar kam nahin hua tha saroj ka man ghabra raha tha wo lagatar kallan se jane ki jid kar rahi thi, “bekar yahan makan par paisa laga rahe ho santon hamare sang rahegi bapu ko samjhao ” lekin kallan surja ko samjhane mein asmarth tha usne saroj se kaha, “ab, akhiri bakhat mein bapu ka ji dukhana kya theek hoga?” saroj chup ho gai thi
surja ne raat bhar jagkar inton ki rakhwali ki thi ek pal ke liye bhi ankhen nahin jhapki theen subah hote hi wo sabir mistari ko bulane chal diya tha surja ko Dar tha, kahin koi use ulti sidhi patti na paDha de, use ab kisi par bhi wishwas nahin tha
saloni ka bukhar kam nahin ho raha tha saroj ne kallan se kisi doctor ko bulane ke liye kaha ganw bhar mein sirf ek doctor tha kallan use hi bulane ke liye chal diya
kallan ko dekhte hi doctor ne mana kar diya samany puchhatachh karke kuch goliyan puDiya mein bandhakar de di kallan ne bahut minnaten keen, “doctor sahab, ek bar chal ke to dekh lo?” doctor tas se mas nahin hua kallan ne kaha, “mariz ko yahin aapke klinik mein lekar aa jata hoon
“nahin yahan mat lana kal se meri dukan hi band ho jayegi ye mat bhulo tum balhar ho,” doctor ne saf saf chetawni di, “ye dawa use khila do, theek ho jayegi
kallan nirash laut aaya tha doctor ne jo goliyan di theen, we bhi asarhin theen bukhar se badan tap raha tha tez bukhar ke karan wo lagatar baDbaDa rahi thi santon uski sewa tahal mein lagi thi ek minat ke liye bhi wahan se nahin hati thi saroj ki chinta baDh rahi thi uske man mein tarah tarah ki shankayen uth rahi theen
surja subah ka gaya dopahar baad lauta tha thaka hara, hatasha use is haal mein dekhkar kallan ne puchha “kya hua bapu?” surja ne niDhal swar mein kaha, hona kya tha? mistari kahin door rishtedari mein gaya hai das pandrah din baad awega bette! mujhe na lage ib wo awega ” surja ne apne man ki hatasha zahir ki
“kyon, bapu, hum to uski mehnat ka paisa use peshgi de rahe the, phir bhi wo mukar gaya,” kallan ne tajjub zahir kiya
“ganw ke hi kisi ne use roka hoga sabir aisa adami na hai wo bhi inse Dar giya dikkhe,” surja ne gahre awsad mein Dubkar kaha donon gahri chinta mein Doob gaye the
“saloni ka ji kaisa hai?” surja ne puchha
uski tabiat ziyada hi bigaD gai hai astpal le jana paDega, kallan ne chinta wyakt ki
kisi jhaD phunkwale ku bulaun ” kahin kuch opara na ho?” surja ne man ki shanka jatai
“nahin, bapu main kal subah hi use lekar shahr jaunga bus, aaj ki raat theek thak kat jaye,” kallan ke swar mein gahri piDa bhari hui thi surja ne use DhaDhas bandhaya
puri raat jagte hue kati thi saloni ki tabiat bahut ziyada bigaD gai thi subah hote hi kallan ne saloni ko peeth par lada uske ird gird theek se kapDa lapeta saroj sath thi we dhoop chaDhne se pahle shahr pahunch jana chahte the
shahr ganw se lagbhag aath das kilomitar door tha aane jane ka koi sadhan nahin tha kallan ne ganw ke sanpann chamaron se bailagaड़i mangi thi, lekin balharon ko we gaDi dene ko taiyar nahin the
peeth par ladkar saloni ko le chalna kathin ho raha tha wo bar bar peeth se niche ki or luDhak rahi thi kallan ki patni sahara dete hue uske pichhe pichhe chal rahi thi we jaldi se jaldi shahr pahunchna chahte the lekin rasta kate nahin kat raha tha
jaise jaise dhoop chaDh rahi thi, saloni ka jism niDhal ho raha tha uski sanse dhimi paD gai theen shahr lagbhag aadha kilomitar door rah gaya tha achanak kallan ko laga jaise saloni ka bhaar kuch baDh gaya hai bukhar se tapta jism thanDa paD gaya tha usne saroj se kaha, “dekho to saloni theek to hai
saloni ke sharir mein koi spandan hi nahin tha saroj dahaD markar cheekh paDi thi, “meri beti ko kya ho gaya dekho to ye hil kyon nahin rahi ” usne rote hue kaha
kallan ne saloni ko peeth se utarkar saDak ke kinare lita diya tha wo hatash thaga sa khaDa tha uske antas mein ek haDkamp si mach gai thi das warsh ki jiti jagti saloni uske hathon mein hi murda jism mein badal gai thi sab kuch ankhon ke samne ghata tha we zor zor se chikhkar ro rahe the rasta sunsan tha unki chikhen sunne wala bhi koi door door tak nahin tha we kafi der isi tarah baithe rote rahe unhen soojh hi nahin raha tha—kya karen saDak kinare kachche raste par saloni ke shau ko liye we taDap rahe the kafi der baad ek wekti shahr ki or se aata dikhai paDa unhen ummid ki ek jhalak dikhai di shayad anewala unki koi madad kare
rahgir kshan bhar unke pas ruka lekin bina kuch kahe, aage baDh gaya shayad usne unhen pahchan liya tha usi ganw ka tha kallan ko laga insan ki zat hi sab kuch hai
akhir we uthe aur beti ka shau kandhon par rakhkar ganw ki or laut chale kandhon par jitna bojh tha, usse kahin ziyada bojh unke bhitar samaya hua tha saloni ke bachpan ki kilkariyan rah rahkar unki smritiyon mein kulanche bhar rahi theen bhari man se we saloni ka shau uthaye ganw ki or baDh rahe the rasta jaise khatm hi nahin ho raha tha jitna samay shahr ke pas pahunchne mein laga tha, usse ziyada ganw pahunchne mein lag raha tha saroj ka haal bahut hi chintajanak tha wo sirf ghisat rahi thi toot to kallan bhi gaya tha lekin kisi tarah swayan ko sambhale hue tha saroj adhamri si ho gai thi usse chala nahin ja raha tha
surja ne unhen door se hi dekh liya tha pahchana to unhen pas aane par hi lekin door se aati akritiyon ko dekhkar usne andaza laga liya tha we jis tarah saloni ko la rahe the, dekhkar uska matha thanka wo ghar se nikalkar saDak tak aa gaya tha saloni ka shau dekhkar wo swayan ko nahin sanbhal pa raha tha wo taDap utha tha zamin par dohatthaD mar markar wo rone laga tha kallan ki ankhon se bhi betahasha ansu bah rahe the unka rona dhona sunkar santon bhi aa gai thi unhen DhaDhas bandhanewala koi nahin tha
shahr se lautne mein unhen waise hi samay ziyada ho gaya tha kisi ko bulane ke liye bhi samay nahin tha raat bhar intizar karne ki sthiti mein nahin the kallan chahta tha ki sham hone se pahle hi dah sanskar ho jaye saloni ke shau ko dekhkar saroj bar bar behosh ho rahi thi
samasya thi lakDiyon ki dah sanskar ke liye lakDiyan unke pas nahin theen surja aur santon lakDiyon ka intizam karne ke liye nikal paDe the unhonne chamaron ke darwazon par jakar guhar lagai thi lekin koi bhi madad karne ko taiyar nahin tha ghanta bhar bhatakne ke baad bhi we itni lakDi nahin juta pae the ki theek se dah sanskar ho sake ghar mein uple the santon ne kaha, “lakaDiyon ki jagah uple hi le jao
chamaron ka shamshan ganw ke nikat tha lekin usmen balharon ko apne murde phunkne ki ijazat nahin thi kallan ki man ke samay bhi aisi hi samasya i thi chamaron ne saf mana kar diya tha ganw se bahar teen chaar kilomitar door le jakar phunkna paDa tha itni door saloni ke shau ko le jana lakDi, uple bhi le jane the surja aur kallan ke alawa koi nahin tha, jo is kary mein hath banta sakta tha
balharon ke murde ko hath lagane ya shawyatra mein shamil hone ganw ka koi bhi wekti nahin aaya tha zat unka rasta rok rahi thi kallan ne kafi koshish ki thi wo rawidas manDal, doctor ambeDkar yuwak sabha ke logon se jakar mila tha lekin koi bhi sath aane ko taiyar nahin tha kisi na kisi bahane we sab kanni kat gaye the
railway colony mein ambeDkar jayanti ke bhashan use yaad aane lage the usne un tamam wicharon ko jhatak diya tha gahri witrshna uske bhitar uth rahi thi use laga, we tamam bhashan khokhle aur behad banawati the
kaltan ne surja se kaha, “bapu! aur der mat karo ” un donon ne kapDe mein lipte saloni ke shau ko utha liya tha istriyon ke shamshan jane ka riwaj balharon mein nahin tha lekin santon aur saroj ke liye is riwaj ko toD dene ke alawa koi aur rasta nahin bacha tha santon ne lakDiyon ka gatthar sir par rakhkar hath mein aag aur hanDi utha liye the pichhe pichhe saroj uplon bhara tokra liye chal paDi thi
is shawyatra ko dekhne ke liye chamarinen apni chhaton par chaDh gai theen unki ankhon ke kor bhige hue the lekin bebas theen, apne apne dayre mein qaid balhar to akhir balhar hi the apne hi nahin, unhen to dusron ke murde bhi Dhone ki aadat thi
chamaron ka ganw aur usmen ek balhar pariwar
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000) (पृष्ठ 26)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
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