मुझे मालूम है बाबा, लिफ़ाफ़े पर मेरी हस्तलिपि देखकर लिफ़ाफ़े को खोलते हुए तुम्हारे हाथ काँप गए होंगे। तुम बहुत एहतियात के साथ लिफ़ाफ़ा खोलोगे कि भीतर रखा हुआ मेरा ख़त फट न जाए।
सोचते होंगे कि एक साल बाद आख़िर मैं तुम लोगों को ख़त क्यों लिखने बैठी। कभी तुम अपने डाकघर से, कभी बाबला या बउदी अपने ऑफ़िस से फ़ोन कर ही लेते हैं फिर ख़त लिखने की क्या ज़रूरत! नहीं, डरो मत, ऐसा कुछ भी नया घटित नहीं हुआ है। कुछ नया हो भी क्या सकता है।
बस, हुआ इतना कि पिछले एक सप्ताह से मैं अपने को बार-बार तुम लोगों को ख़त लिखने से रोकती रही। क्यों? बताती हूँ। तुम्हें पता है न, बंबई में बरसात का मौसम शुरू हो गया है। मैं तो मना रही थी कि बरसात जितनी टल सके, टल जाए, लेकिन वह समय से पहले ही आ धमकी। और मुझे जिसका डर था वही हुआ। इस बार बरसात में पार्क की गीली मिट्टी सनी सड़क से उठकर उन्हीं लाल केंचुओं की फ़ौज घर के भीतर तक चली आई है। रसोई में जाओ तो मोरी के कोनों से ये केंचुए मुँह उचका-उचका कर झाँकते हैं, नहाने जाओ तो बाल्टी के नीचे कोने पर वे बेख़ौफ़ चिपके रहते हैं। कभी-कभी पैरों के नीचे अचानक कुछ पिलपिला-सा महसूस होता है और मैं डर जाती हूँ कि कहीं मेरे पाँव के नीचे आकर कोई केंचुआ मर तो नहीं गया?
इस बार मुझे बाँकुड़ा का वह अपना (देखो, अब भी वही घर अपना लगता है) घर बहुत याद आया। बस, ये यादें ही तुम्हारे साथ बाँटना चाहती थी। पता नहीं तुम्हें याद है या नहीं, पता नहीं बाबला को भी याद होगा या नहीं, हम कितनी बेसब्री से बरसात के आने का इंतिज़ार करते थे। मौसम की पहली बारसात देखकर हम कैसे उछलते-कूदते माँ को बारिश के आने की ख़बर देते जैसे पानी की बूँदें सिर्फ़ हमें ही दिखाई देती हैं, और किसी को नहीं। पत्तों पर टप-टप-टप बूँदों की आवाज़ और उसके साथ हवा में गमकती फैलती मिट्टी की महक हमें पागल कर देती थी। हम अख़बार को काट-काट कर काग़ज़ की नावें बनाते और उन्हें तालाब में छोड़ते। माँ झींकती रहती और हम सारा दिन पोखर के पास और आँगन के बाहर, हाथ में नमक की पोटली लिए बरसाती केंचुओं को ढूँढ़ते रहते थे। वे इधर-उधर बिलबिलाते से हमसे छिपते फिरते थे और हम उन्हें ढूँढ-ढूँढ़ कर मारते थे। नमक डालने पर उनका लाल रंग कैसे बदलता था, केंचुए हिलते थे और उनका शरीर सिकुड़कर रस्सी हो जाता था। बाबला और मुझमें होड़ लगती थी कि किसने कितने ज़ियादा केंचुओं को मारा। बाबला तो एक-एक केंचुए पर मुट्ठी भर-भर कर नमक डाल देता था।
माँ तुम्हें याद है, तुम कितना चिल्लाती थीं बाबला पर.. इतना नमक डालने की क्या ज़रूरत है रे खोका। पर फिर हर बार जीतता भी तो बाबला ही था... उसके मारे हुए केंचुओं की संख्या ज़ियादा होती थी। बाबा, तुम डाकघर से लौटते तो पूछते...तुम दोनों हत्यारों ने आज कितनों की हत्या की? फिर मुझे अपने पास बिठाकर प्यार से समझाते...बाबला की नक़ल क्यों करती है रे! तू तो माँ अन्नपूर्णा है, देवीस्वरूपा, तुझे क्या जीव-जंतुओं की हत्या करना शोभा देता है? भगवान पाप देगा रे।
आज मुझे लगता है बाबा, तुम ठीक कहते थे। हत्या चाहे मानुष की हो या जीव-जंतु की, हत्या तो हत्या है।
तो क्या बाबा, उस पाप की सज़ा यह है कि बाँकुड़ा के बाँसपुकुर से चलकर इतनी दूर मुंबई के अँधेरी इलाक़े के महाकाली केब्स रोड के फ़्लैट में आने के बाद भी वे सब केंचुए मुझे घेर-घेरकर डराते हैं, जिन्हें पुकुर के आस-पास नमक छिड़क-छिड़क कर मैंने मार डाला था।
यह मेरी शादी के बाद की पाँचवी बरसात है। बरसात के ठीक पहले ही तुमने मेरी शादी की थी। जब बाँकुड़ा से मुंबई के लिए मैं रवाना हुई, तुम सबकी नम आँखों में कैसे दिए टिमटिमा रहे थे जैसे तुम्हारी बेटी न जाने कौन से परीलोक जा रही है, जहाँ दिव्य अप्सराएँ उसके स्वागत में फूलों के थाल हाथों में लिए खड़ी होंगी। यह परीलोक, जो तुम्हारा देखा हुआ नहीं था पर तुम्हारी बेटी के सुंदर रूप के चलते उसकी झोली में आ गिरा था, वर्ना क्या अन्नपूर्णा और क्या उसके डाकिये बापू शिबू मंडल की औक़ात थी कि उन्हें रेलवे की स्थाई नौकरी वाला सुदर्शन वर मिलता? तुम दोनों तो अपने जमाई राजा को देख-देख कर ऐसे फूले नहीं समाते थे कि मुझे बी.ए. की सालाना परीक्षा में भी बैठने नहीं दिया और दूसरे दर्जे की आरक्षित डोली में बिठाकर विदा कर दिया।
जब मैं अपनी बिछुआ-झाँझर सँभाले इस परीलोक के द्वार दादर स्टेशन पर उतरी तो देखा जैसे तालाब में तैरना भूल गई हूँ। इतने आदमी तो मैंने अपने पूरे गाँव में नहीं देखे थे। यहाँ स्टेशन के पुल की भीड़ के हुजूम के साथ सीढ़ियाँ उतरते हुए लगा जैसे पेड़ के सूखे पत्तों की तरह हम सब हवा की एक दिशा में झर रहे हैं। देहाती-सी लाल साड़ी में तुम्हारे जीवन भर की जमा-पूँजी के गहने और कपड़ों का बक्सा लिए जब अँधेरी की ट्रेन में इनके साथ बैठी तो साथ बैठे लोग मुझे ऐसे घूर रहे थे जैसे मैं और बाबला कभी-कभार कलकत्ता के चिड़ियाघर में वनमानुष को घूरते थे। और जब महाकाली केब्स रोड के घर का जंग खाया ताला खोला तो जानते हो, सबसे पहले दहलीज़ पर मेरा स्वागत किया था—दहलीज़ की फांकों में सिमटे-सरकते, गर्दन उचकाते लाल-लाल केंचुओं ने। उस दिन मैं बहुत ख़ुश थी। मुझे लगा, मेरा बाँकुड़ा मेरे आँचल से बँधा-बँधा मेरे साथ चला आया है। मैं मुस्कुराई थी। पर मेरे पति तो उन्हें देखते ही ख़ूँखार हो उठे। उन्होंने चप्पल उठाई और चटाख़-चटाख़ सबको रौंद डाला। एक-एक वार में उन्होंने सबका काम तमाम कर डाला था। तब मेरे मन में पहली बार इन केंचुओं के लिए माया-ममता उभर आई थी। उन्हें उस तरह कुचले जाते हुए देखना मेरे लिए बहुत यातनादायक था।
दस दिन हमें एकांत देकर आख़िर इनकी माँ और बहन भी अपने घर लौट आई थीं। अब हम रसोई में परदा डालकर सोने लगे थे। रसोई की मोरी को लाख बंद करो, ये केंचुए आना बंद नहीं करते थे। पति अक्सर अपनी रेलवे की ड्यूटी पर सफ़र में रहते और मैं रसोई में। और रसोई में बेशुमार केंचुए थे। मुझे लगता था, मैंने अपनी माँ की जगह ले ली है और अब मुझे सारा जीवन रसोई की इन दीवारों के बीच इन केंचुओं के साथ गुजारना है। एक दिन एक केंचुआ मेरी निगाह बचाकर रसोई से बाहर चला गया और सास ने उसे देख लिया। उनकी आँखें ग़ुस्से से लाल हो गईं। उन्होंने चाय के खौलते हुए पानी की केतली उठाई और रसोई में बिलबिलाते सब केंचुओं पर गालियाँ बरसाते हुए उबलता पानी डाल दिया। सच मानो बाबा, मेरे पूरे शरीर पर जैसे फफोले पड़ गए थे, जैसे खौलता हुआ पानी उन पर नहीं, मुझ पर डाला गया हो। वे सब फ़ौरन मर गए, एक भी नहीं बचा। लेकिन मैं ज़िंदा रही। मुझे तब समझ में आया कि मुझे अब बाँकुड़ा के बिना ज़िंदा रहना है। पर ऐसा क्यों हुआ बाबा, कि मुझे केंचुओं से डर लगने लगा। अब वे जब भी आते, मैं उन्हें वापस मोरी में धकेलती, पर मारती नहीं। उन दिनों मैंने यह सब तुम्हें ख़त में लिखा तो था, पर तुम्हें मेरे ख़त कभी मिले ही नहीं। हो सकता है, यह भी न मिले। यह मिल भी जाए तो तुम कहो कि नहीं मिला। फ़ोन पर मैंने पूछा भी था—चिट्ठी मिली? तुमने अविश्वास से पूछा—पोस्ट तो की थी या...। मैं हँस दी थी—अपने पास रखने के लिए थोड़े ही लिखी थी।
फ़ोन पर इतनी बातें करना संभव कहाँ है। फ़ोन की तारों पर मेरी आवाज़ जैसे ही तुम तक तैरती हुई पहुँचती है, तुम्हें लगता है, सब ठीक है। जैसे मेरा ज़िंदा होना ही मेरे ठीक रहने की निशानी है। और फ़ोन पर तुम्हारी आवाज़ सुनकर मैं परेशान हो जाती हूँ क्योंकि फ़ोन पर मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि तुम जिस आवाज़ को मेरी आवाज़ समझ रहे हो, वह मेरी नहीं है। तुम फ़ोन पर मेरा कुशल-क्षेम ही सुनना चाहते हो और मैं तुम्हें केंचुओं के बारे में कैसे बता सकती हूँ? तुम्हारी आवाज़ से मैं चाहकर भी तो लिपट नहीं सकती। मुझे तब सत्रह सौ किलोमीटर की दूरी बुरी तरह खलने लगती है।
इतनी लंबी दूरी को पार कर डेढ़ साल पहले जब मैं वहाँ बाँकुड़ा पहुँची थी, मुझे लगा था, मैं किसी अजनबी गाँव में आ गई हूँ जो मेरा नहीं है। मुझे वापस जाना ही है, यह सोचकर मैं अपने आने को भी भोग नहीं पायी। मैंने शिथिल होकर ख़बर दी थी कि मुझे तीसरा महीना चढ़ा है। मैं आगे कुछ कह पाती कि तुम सब में ख़ुशी की लहर दौड़ गई थी। माँ ने मुझे गले से लगा लिया था, बउदी ने माथा चूम लिया था। मैं रोई थी, चीख़ी थी, मैंने मिन्नतें की थीं कि मुझे यह बच्चा नहीं चाहिए, कि उस घर में बच्चे की किलकारियाँ सिसकियों में बदल जाएँगी, पर तुम सब पर कोई असर नहीं हुआ। तुम चारों मुझे घेरकर खड़े हो गए...भला पहला बच्चा भी कोई गिराता है, पहले बच्चे को गिराने से फिर गर्भ ठहराता ही नहीं, माँ बनने में ही नारी की पूर्णता है, माँ बनने के बाद सब ठीक हो जाता है, औरत को जीने का अर्थ मिल जाता है। माँ, तुम अपनी तरह मुझे भी पूर्ण होते हुए देखना चाहती थी। मैंने तुम्हारी बात मान ली और तुम सब के सपनों को पेट में सँजोकर वापस लौट गई।
वापस। उसी महाकाली की ग़ुफ़ाओं वाले फ़्लैट में। उन्हीं केंचुओं के पास। बस, फ़र्क़ यह था कि अब वे बाहर फ़र्श से हटकर मेरे शरीर के भीतर रेंग रहे थे। नौ महीने में अपने पेट में एक दहशत को आकार लेते हुए महसूस करती रही। पाँचवें महीने मेरे पेट में जब उस आकार ने हिलना-डुलना शुरू किया, मैं भय से काँपने लगी थी। मुझे लगा, मेरे पेट में वही बरसाती केंचुए रेंग रहे हैं, सरक रहे हैं। आख़िर वह घड़ी भी आई, जब उन्हें मेरे शरीर से बाहर आना था और सच माँ, जब लंबी बेहोशी के बाद मैंने आँख खोलकर अपने बग़ल में लेटी सलवटों वाली चमड़ी लिए अपनी जुड़वाँ बेटियों को देखा, मैं सकते में आ गई। उनकी शक्ल वैसी ही गिजगिजी लाल केंचुओं जैसी झुर्रीदार थी। मैंने तुमसे कहा भी था...देखो तो माँ, ये दोनों कितनी बदशक्ल हैं, पतले-पलते, ढीले-ढीले हाथ-पैर और साँवली-मरगिल्ली-सी। तुमने कहा था, बड़ी बोकी है रे तू, कैसी बातें करती है, ये साक्षात लक्ष्मी-सरस्वती एक साथ आई हैं तेरे घर। तुम सब ने कलकत्ता जाकर अपनी बेटी और जमाई बाबू के लिए कितनी ख़रीदारी की थी, बउदी ने ख़ास सोने का सेट भिजवाया था। सब दान-दहेज समेटकर तुम यहाँ आईं और चालीस दिन मेरी, इन दोनों की और मेरे ससुराल वालों की सेवा-टहल करके लौट गई। इन लक्ष्मी-सरस्वती के साथ मुझे बाँधकर तुम तो बाँकुड़ा के बाँसपुकुर लौट गईं, मुझे बार-बार यही सुनना पड़ा—एक कपाल कुंडला को अस्पताल भेजा था, दो को और साथ ले आई। बाबा, कभी मन होता था—इन दोनों को बाँधकर तुम्हारे पास पार्सल से भिजवा दूँ कि मुझसे ये नहीं संभलतीं, अपनी ये लक्ष्मी सरस्वती-सी नातिनें तुम्हें ही मुबारक हों पर हर बार इनकी बिटर-बिटर-सी ताकती हुई आँखें मुझे रोक लेती थीं।
माँ, मुझे बार-बार ऐसा क्यों लगता है कि मैं तुम्हारी तरह एक अच्छी माँ कभी नहीं बन पाऊँगी जो जीवन भर रसोई की चारदीवारी में बाबला और मेरे लिए पकवान बनाती रही और फ़ालिज की मारी ठाकुर माँ की चादरें धोती-समेटती रही। तुम्हारी नातिनों की आँखें मुझसे यह सब माँगती हैं जो मुझे लगता है, मैं कभी उन्हें दे नहीं पाऊँगी।
इन पाँच-सात महीनों में कब दिन चढ़ता था, कब रात ढल जाती थी, मुझे तो पता ही नहीं चला। इस बार की बरसात ने आकर मेरी आँखों पर छाए सारे परदे गिरा दिए हैं। ये दोनों घिसटना सीख गई हैं। सारा दिन कीचड़-मिट्टी में सनी केंचुओं से खेलती रहती हैं। जब ये घुटनों से घिसटती हैं, मुझे केंचुए रेंगते दिखाई देते हैं और जब बाहर सड़क पर मैदान के पास की गीली मिट्टी में केंचुओं को सरकते देखती हूँ तो उनमें इन दोनों की शक्ल दिखाई देती है। मुझे डर लगता है, कहीं मेरे पति घर में घुसते ही इन पर चप्पलों की चटाख़-चटाख़ बौछार न कर दें या मेरी सास इन पर केतली का खौलता हुआ पानी न डाल दें। मैं जानती हूँ, यह मेरा वहम है पर यह लाइलाज है और मैं अब इस वहम का बोझ नहीं उठा सकती।
इन दोनों को अपने पास ले जा सको तो ले जाना। बाबला और बउदी शायद इन्हें अपना लें। बस, इतना चाहती हूँ कि बड़ी होने पर ये दोनों अगर आसमान को छूना चाहें तो यह जानते हुए भी कि वे आसमान को कभी नहीं छू पाएँगी, इन्हें रोकना मत।
इन दोनों के रूप में तुम्हारी बेटी तुम्हें सूद सहित वापस लौटा रही हूँ। इनमें तुम मुझे देख पाओगे शायद।
बाबा, तुम कहते थे न-आत्माएँ कभी नहीं मरतीं। इस विराट व्योम में, शून्य में, वे तैरती रहती हैं—परम शांत होकर। मैं उस शाँति को छू लेना चाहती हूँ। मैं थक गई हूँ बाबा। हर शरीर के थकने की अपनी सीमा होती है। मैं जल्दी थक गई, इसमें दोष तो मेरा ही है। तुम दोनों मुझे माफ़ कर सको तो कर देना।
इति।
तुम्हारी आज्ञाकारिणी बेटी,
अन्नपूर्णा मंडल
pyari man aur baba,
charn sparsh
mujhe malum hai baba, lifafe par meri hastalipi dekhkar lifafe ko kholte hue tumhare hath kanp gaye honge tum bahut ehtiyat ke sath lifafa khologe ki bhitar rakha hua mera khat phat na jaye
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mujhe malum hai baba, lifafe par meri hastalipi dekhkar lifafe ko kholte hue tumhare hath kanp gaye honge tum bahut ehtiyat ke sath lifafa khologe ki bhitar rakha hua mera khat phat na jaye
sochte honge ki ek sal baad akhir main tum logon ko khat kyon likhne baithi kabhi tum apne Dakghar se, kabhi babla ya baudi apne office se phone kar hi lete hain phir khat likhne ki kya zarurat! nahin, Daro mat, aisa kuch bhi naya ghatit nahin hua hai kuch naya ho bhi kya sakta hai
bus, hua itna ki pichhle ek saptah se main apne ko bar bar tum logon ko khat likhne se rokti rahi kyon? batati hoon tumhein pata hai na, bambai mein barsat ka mausam shuru ho gaya hai main to mana rahi thi ki barsat jitni tal sake, tal jaye, lekin wo samay se pahle hi aa dhamki aur mujhe jiska Dar tha wahi hua is bar barsat mein park ki gili mitti sani saDak se uthkar unhin lal kenchuon ki fauj ghar ke bhitar tak chali i hai rasoi mein jao to mori ke konon se ye kenchue munh uchka uchka kar jhankte hain, nahane jao to balti ke niche kone par we bekhauf chipke rahte hain kabhi kabhi pairon ke niche achanak kuch pilpila sa mahsus hota hai aur main Dar jati hoon ki kahin mere panw ke niche aakar koi kenchua mar to nahin gaya?
is bar mujhe bankuDa ka wo apna (dekho, ab bhi wahi ghar apna lagta hai) ghar bahut yaad aaya bus, ye yaden hi tumhare sath bantna chahti thi pata nahin tumhein yaad hai ya nahin, pata nahin babla ko bhi yaad hoga ya nahin, hum kitni besabri se barsat ke aane ka intizar karte the mausam ki pahli barsat dekhkar hum kaise uchhalte kudte man ko barish ke aane ki khabar dete jaise pani ki bunden sirf hamein hi dikhai deti hain, aur kisi ko nahin patton par tap tap tap bundon ki awaz aur uske sath hawa mein gamakti phailti mitti ki mahak hamein pagal kar deti thi hum akhbar ko kat kat kar kaghaz ki nawen banate aur unhen talab mein chhoDte man jhinkti rahti aur hum sara din pokhar ke pas aur angan ke bahar, hath mein namak ki potli liye barsati kenchuon ko DhunDhate rahte the we idhar udhar bilbilate se hamse chhipte phirte the aur hum unhen DhoonDh DhoonDh kar marte the namak Dalne par unka lal rang kaise badalta tha, kenchue hilte the aur unka sharir sikuDkar rassi ho jata tha babla aur mujhmen hoD lagti thi ki kisne kitne ziyada kenchuon ko mara babla to ek ek kenchue par mutthi bhar bhar kar namak Dal deta tha
man tumhein yaad hai, tum kitna chillati theen babla par itna namak Dalne ki kya zarurat hai re khoka par phir har bar jitta bhi to babla hi tha uske mare hue kenchuon ki sankhya ziyada hoti thi baba, tum Dakghar se lautte to puchhte tum donon hatyaron ne aaj kitnon ki hattya kee? phir mujhe apne pas bithakar pyar se samjhate babla ki naqal kyon karti hai re! tu to man annpurna hai, dewiswrupa, tujhe kya jeew jantuon ki hattya karna shobha deta hai? bhagwan pap dega re
aj mujhe lagta hai baba, tum theek kahte the hattya chahe manush ki ho ya jeew jantu ki, hattya to hattya hai
to kya baba, us pap ki saza ye hai ki bankuDa ke banspukur se chalkar itni door mumbi ke andheri ilaqe ke mahakali kebs roD ke flat mein aane ke baad bhi we sab kenchue mujhe gher gherkar Darate hain, jinhen pukur ke aas pas namak chhiDak chhiDak kar mainne mar Dala tha
ye meri shadi ke baad ki panchawi barsat hai barsat ke theek pahle hi tumne meri shadi ki thi jab bankuDa se mumbi ke liye main rawana hui, tum sabki nam ankhon mein kaise diye timtima rahe the jaise tumhari beti na jane kaun se parilok ja rahi hai, jahan diwy apsarayen uske swagat mein phulon ke thaal hathon mein liye khaDi hongi ye parilok, jo tumhara dekha hua nahin tha par tumhari beti ke sundar roop ke chalte uski jholi mein aa gira tha, warna kya annpurna aur kya uske Dakiye bapu shibu manDal ki auqat thi ki unhen railway ki sthai naukari wala sudarshan war milta? tum donon to apne jamai raja ko dekh dekh kar aise phule nahin samate the ki mujhe b e ki salana pariksha mein bhi baithne nahin diya aur dusre darje ki arakshait Doli mein bithakar wida kar diya
jab main apni bichhua jhanjhar sambhale is parilok ke dwar dadar station par utri to dekha jaise talab mein tairna bhool gai hoon itne adami to mainne apne pure ganw mein nahin dekhe the yahan station ke pul ki bheeD ke hujum ke sath siDhiyan utarte hue laga jaise peD ke sukhe patton ki tarah hum sab hawa ki ek disha mein jhar rahe hain dehati si lal saDi mein tumhare jiwan bhar ki jama punji ke gahne aur kapDon ka baksa liye jab andheri ki train mein inke sath baithi to sath baithe log mujhe aise ghoor rahe the jaise main aur babla kabhi kabhar kalkatta ke chiDiyaghar mein wanmanush ko ghurte the aur jab mahakali kebs roD ke ghar ka jang khaya tala khola to jante ho, sabse pahle dahliz par mera swagat kiya tha—dahliz ki phankon mein simte sarakte, gardan uchkate lal lal kenchuon ne us din main bahut khush thi mujhe laga, mera bankuDa mere anchal se bandha bandha mere sath chala aaya hai main muskurai thi par mere pati to unhen dekhte hi khunkhar ho uthe unhonne chappal uthai aur chatakh chatakh sabko raund Dala ek ek war mein unhonne sabka kaam tamam kar Dala tha tab mere man mein pahli bar in kenchuon ke liye maya mamta ubhar i thi unhen us tarah kuchle jate hue dekhana mere liye bahut yatnadayak tha
das din hamein ekant dekar akhir inki man aur bahan bhi apne ghar laut i theen ab hum rasoi mein parda Dalkar sone lage the rasoi ki mori ko lakh band karo, ye kenchue aana band nahin karte the pati aksar apni railway ki duty par safar mein rahte aur main rasoi mein aur rasoi mein beshumar kenchue the mujhe lagta tha, mainne apni man ki jagah le li hai aur ab mujhe sara jiwan rasoi ki in diwaron ke beech in kenchuon ke sath gujarna hai ek din ek kenchua meri nigah bachakar rasoi se bahar chala gaya aur sas ne use dekh liya unki ankhen ghusse se lal ho gain unhonne chay ke khaulte hue pani ki ketli uthai aur rasoi mein bilbilate sab kenchuon par galiyan barsate hue ubalta pani Dal diya sach mano baba, mere pure sharir par jaise phaphole paD gaye the, jaise khaulta hua pani un par nahin, mujh par Dala gaya ho we sab fauran mar gaye, ek bhi nahin bacha lekin main zinda rahi mujhe tab samajh mein aaya ki mujhe ab bankuDa ke bina zinda rahna hai par aisa kyon hua baba, ki mujhe kenchuon se Dar lagne laga ab we jab bhi aate, main unhen wapas mori mein dhakelti, par marti nahin un dinon mainne ye sab tumhein khat mein likha to tha, par tumhein mere khat kabhi mile hi nahin ho sakta hai, ye bhi na mile ye mil bhi jaye to tum kaho ki nahin mila phone par mainne puchha bhi tha—chitthi mili? tumne awishwas se puchha—post to ki thi ya main hans di thi—apne pas rakhne ke liye thoDe hi likhi thi
phone par itni baten karna sambhaw kahan hai phone ki taron par meri awaz jaise hi tum tak tairti hui pahunchti hai, tumhein lagta hai, sab theek hai jaise mera zinda hona hi mere theek rahne ki nishani hai aur phone par tumhari awaz sunkar main pareshan ho jati hoon kyonki phone par main tumhein bata nahin sakti ki tum jis awaz ko meri awaz samajh rahe ho, wo meri nahin hai tum phone par mera kushal kshaem hi sunna chahte ho aur main tumhein kenchuon ke bare mein kaise bata sakti hoon? tumhari awaz se main chahkar bhi to lipat nahin sakti mujhe tab satrah sau kilomitar ki duri buri tarah khalne lagti hai
itni lambi duri ko par kar DeDh sal pahle jab main wahan bankuDa pahunchi thi, mujhe laga tha, main kisi ajnabi ganw mein aa gai hoon jo mera nahin hai mujhe wapas jana hi hai, ye sochkar main apne aane ko bhi bhog nahin payi mainne shithil hokar khabar di thi ki mujhe tisra mahina chaDha hai main aage kuch kah pati ki tum sab mein khushi ki lahr dauD gai thi man ne mujhe gale se laga liya tha, baudi ne matha choom liya tha main roi thi, chikhi thi, mainne minnten ki theen ki mujhe ye bachcha nahin chahiye, ki us ghar mein bachche ki kilkariyan sisakiyon mein badal jayengi, par tum sab par koi asar nahin hua tum charon mujhe gherkar khaDe ho gaye bhala pahla bachcha bhi koi girata hai, pahle bachche ko girane se phir garbh thahrata hi nahin, man banne mein hi nari ki purnata hai, man banne ke baad sab theek ho jata hai, aurat ko jine ka arth mil jata hai man, tum apni tarah mujhe bhi poorn hote hue dekhana chahti thi mainne tumhari baat man li aur tum sab ke sapnon ko pet mein sanjokar wapas laut gai
wapas usi mahakali ki ghufaon wale flat mein unhin kenchuon ke pas bus, farq ye tha ki ab we bahar farsh se hatkar mere sharir ke bhitar reng rahe the nau mahine mein apne pet mein ek dahshat ko akar lete hue mahsus karti rahi panchawen mahine mere pet mein jab us akar ne hilna Dulna shuru kiya, main bhay se kanpne lagi thi mujhe laga, mere pet mein wahi barsati kenchue reng rahe hain, sarak rahe hain akhir wo ghaDi bhi i, jab unhen mere sharir se bahar aana tha aur sach man, jab lambi behoshi ke baad mainne ankh kholkar apne baghal mein leti salawton wali chamDi liye apni juDwan betiyon ko dekha, main sakte mein aa gai unki shakl waisi hi gijagiji lal kenchuon jaisi jhurridar thi mainne tumse kaha bhi tha dekho to man, ye donon kitni badshakl hain, patle palte, Dhile Dhile hath pair aur sanwli margilli si tumne kaha tha, baDi boki hai re tu, kaisi baten karti hai, ye sakshat lakshmi saraswati ek sath i hain tere ghar tum sab ne kalkatta jakar apni beti aur jamai babu ke liye kitni kharidari ki thi, baudi ne khas sone ka set bhijwaya tha sab dan dahej sametkar tum yahan ain aur chalis din meri, in donon ki aur mere sasural walon ki sewa tahal karke laut gai in lakshmi saraswati ke sath mujhe bandhakar tum to bankuDa ke banspukur laut gain, mujhe bar bar yahi sunna paDa—ek kapal kunDla ko aspatal bheja tha, do ko aur sath le i baba, kabhi man hota tha—in donon ko bandhakar tumhare pas parcel se bhijwa doon ki mujhse ye nahin sambhaltin, apni ye lakshmi saraswati si natinen tumhein hi mubarak hon par har bar inki bitar bitar si takti hui ankhen mujhe rok leti theen
man, mujhe bar bar aisa kyon lagta hai ki main tumhari tarah ek achchhi man kabhi nahin ban paungi jo jiwan bhar rasoi ki charadiwari mein babla aur mere liye pakwan banati rahi aur falij ki mari thakur man ki chadren dhoti sametti rahi tumhari natinon ki ankhen mujhse ye sab mangti hain jo mujhe lagta hai, main kabhi unhen de nahin paungi
in panch sat mahinon mein kab din chaDhta tha, kab raat Dhal jati thi, mujhe to pata hi nahin chala is bar ki barsat ne aakar meri ankhon par chhaye sare parde gira diye hain ye donon ghisatna seekh gai hain sara din kichaD mitti mein sani kenchuon se khelti rahti hain jab ye ghutnon se ghisatti hain, mujhe kenchue rengte dikhai dete hain aur jab bahar saDak par maidan ke pas ki gili mitti mein kenchuon ko sarakte dekhti hoon to unmen in donon ki shakl dikhai deti hai mujhe Dar lagta hai, kahin mere pati ghar mein ghuste hi in par chapplon ki chatakh chatakh bauchhar na kar den ya meri sas in par ketli ka khaulta hua pani na Dal den main janti hoon, ye mera wahm hai par ye lailaj hai aur main ab is wahm ka bojh nahin utha sakti
in donon ko apne pas le ja sako to le jana babla aur baudi shayad inhen apna len bus, itna chahti hoon ki baDi hone par ye donon agar asman ko chhuna chahen to ye jante hue bhi ki we asman ko kabhi nahin chhu payengi, inhen rokna mat
in donon ke roop mein tumhari beti tumhein sood sahit wapas lauta rahi hoon inmen tum mujhe dekh paoge shayad
baba, tum kahte the na atmayen kabhi nahin martin is wirat wyom mein, shunya mein, we tairti rahti hain—param shant hokar main us shanti ko chhu lena chahti hoon main thak gai hoon baba har sharir ke thakne ki apni sima hoti hai main jaldi thak gai, ismen dosh to mera hi hai tum donon mujhe maf kar sako to kar dena
iti
tumhari agyakarini beti,
annpurna manDal
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980) (पृष्ठ 122)
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