प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा दसवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन कंपनी के काम के सिलसिले में उस क़स्बे से गुज़रना पड़ता था। क़स्बा बहुत बड़ा नहीं था। जिसे पक्का मकान कहा जा सके वैसे कुछ ही मकान और जिसे बाज़ार कहा जा सके वैसा एक ही बाज़ार था। क़स्बे में एक लड़कों का स्कूल, एक लड़कियों का स्कूल, एक सीमेंट का छोटा-सा कारख़ाना, दो ओपन एयर सिनेमाघर और एक ठो नगरपालिका भी थी। नगरपालिका थी तो कुछ-न-कुछ करती भी रहती थी। कभी कोई सड़क पक्की करवा दी, कभी कुछ पेशाबघर बनवा दिए, कभी कबूतरों की छतरी बनवा दी तो कभी कवि सम्मेलन करवा दिया। इसी नगरपालिका के किसी उत्साही बोर्ड या प्रशासनिक अधिकारी ने एक बार 'शहर' के मुख्य बाज़ार के मुख्य चौराहे पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की एक संगमरमर की प्रतिमा लगवा दी। यह कहानी उसी प्रतिमा के बारे में है, बल्कि उसके भी एक छोटे से हिस्से के बारे में।
पूरी बात तो अब पता नहीं, लेकिन लगता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होने और अच्छी मूर्ति की लागत अनुमान और उपलब्ध बजट से कहीं बहुत ज़्यादा होने के कारण काफ़ी समय ऊहापोह और चिट्ठी-पत्री में बरबाद हुआ होगा और बोर्ड की शासनावधि समाप्त होने की घड़ियों में किसी स्थानीय कलाकार को ही अवसर देने का निर्णय किया गया होगा, और अंत में क़स्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर—मान लीजिए मोतीलाल जी—को ही यह काम सौंप दिया गया होगा, जो महीने-भर में मूर्ति बनाकर 'पटक देने' का विश्वास दिला रहे थे।
जैसा कि कहा जा चुका है, मूर्ति संगमरमर की थी। टोपी की नोक से कोट के दूसरे बटन तक कोई दो फुट ऊँची। जिसे कहते हैं बस्ट। और सुंदर थी। नेताजी सुंदर लग रहे थे। कुछ-कुछ मासूम और कमसिन। फ़ौजी वर्दी में। मूर्ति को देखते ही 'दिल्ली चलो' और 'तुम मुझे ख़ून दो...' वग़ैरह याद आने लगते थे। इस दृष्टि से यह सफल और सराहनीय प्रयास था। केवल एक चीज़ की कसर थी जो देखते ही खटकती थी। नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं था। यानी चश्मा तो था, लेकिन संगमरमर का नहीं था। एक सामान्य और सचमुच के चश्मे का चौड़ा काला फ़्रेम मूर्ति को पहना दिया गया था। हालदार साहब जब पहली बार इस क़स्बे से गुज़रे और चौराहे पर पान खाने रुके तभी उन्होंने इसे लक्षित किया और उनके चेहरे पर एक कौतुकभरी मुसकान फैल गई। वाह भई! यह आइडिया भी ठीक है। मूर्ति पत्थर की, लेकिन चश्मा रियल!
जीप क़स्बा छोड़कर आगे बढ़ गई तब भी हालदार साहब इस मूर्ति के बारे में ही सोचते रहे, और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कुल मिलाकर क़स्बे के नागरिकों का यह प्रयास सराहनीय ही कहा जाना चाहिए। महत्त्व मूर्ति के रंग-रूप या क़द का नहीं, उस भावना का है वरना तो देश-भक्ति भी आजकल मज़ाक़ की चीज़ होती जा रही हैं।
दूसरी बार जब हालदार साहब उधर से गुज़रे तो उन्हें मूर्ति में कुछ अंतर दिखाई दिया। ध्यान से देखा तो पाया कि चश्मा दूसरा है। पहले मोटे फ़्रेमवाला चौकोर चश्मा था, अब तार के फ़्रेमवाला गोल चश्मा है। हालदार साहब का कौतुक और बढ़ा। वाह भई! क्या आइडिया है। मूर्ति कपड़े नहीं बदल सकती लेकिन चश्मा तो बदल ही सकती है।
तीसरी बार फिर नया चश्मा था।
हालदार साहब की आदत पड़ गई, हर बार क़स्बे से गुज़रते समय चौराहे पर रुकना, पान खाना और मूर्ति को ध्यान से देखना। एक बार जब कौतूहल दुर्दमनीय हो उठा तो पानवाले से ही पूछ लिया, क्यों भई! क्या बात है? यह तुम्हारे नेताजी का चश्मा हर बार बदल कैसे जाता है?
पानवाले के ख़ुद के मुँह में पान ठुँसा हुआ था। वह एक काला मोटा और ख़ुशमिज़ाज आदमी था। हालदार साहब का प्रश्न सुनकर वह आँखों-ही-आँखों में हँसा। उसकी तोंद थिरकी। पीछे घूमकर उसने दुकान के नीचे पान थूका और अपनी लाल-काली बत्तीसी दिखाकर बोला, कैप्टन चश्मेवाला करता है।
क्या करता है? हालदार साहब कुछ समझ नहीं पाए।
चश्मा चेंज कर देता है। पानवाले ने समझाया।
क्या मतलब? क्यों चेंज कर देता है? हालदार साहब अब भी नहीं समझ पाए।
कोई गिराक आ गया समझो। उसको चौड़े चौखट चाहिए। तो कैप्टन किदर से लाएगा? तो उसको मूर्तिवाला दे दिया। उदर दूसरा बिठा दिया।
अब हालदार साहब को बात कुछ-कुछ समझ में आई। एक चश्मेवाला है जिसका नाम कैप्टन है। उसे नेताजी को बग़ैर चश्मेवाली मूर्ति बुरी लगती है। बल्कि आहत करती है, मानो चश्मे के बग़ैर नेताजी को असुविधा हो रही हो इसलिए वह अपनी छोटी-सी दुकान में उपलब्ध गिने-चुने फ़्रेंमों में से एक नेताजी की मूर्ति पर फिट कर देता है। लेकिन जब कोई ग्राहक आता है और उसे वैसे ही फ़्रेंम की दरकार होती है जैसा मूर्ति पर लगा है तो कैप्टन चश्मेवाला मूर्ति पर लगा फ़्रेम—संभवतः नेताजी से क्षमा माँगते हुए—लाकर ग्राहक को दे देता है और बाद में नेताजी को दूसरा फ़्रेम लौटा देता है। वाह! भई ख़ूब! क्या आइडिया है।
लेकिन भाई! एक बात अभी भी समझ में नहीं आई। हालदार साहब ने पानवाले से फिर पूछा, नेताजी का ओरिजिनल चश्मा कहाँ गया?
पानवाला दूसरा पान मुँह में ठूँस चुका था। दुपहर का समय था, 'दुकान' पर भीड़-भाड़ अधिक नहीं थी। वह फिर आँखों-ही-आँखों में हँसा। उसकी तोंद थिरकी। कत्थे की डंडी फेंक, पीछे मुड़कर उसने नीचे पीक थूकी और मुसकराता हुआ बोला, मास्टर बनाना भूल गया।
पानवाले के लिए यह एक मज़ेदार बात थी लेकिन हालदार साहब के लिए चकित और द्रवित करने वाली। यानी वह ठीक ही सोच रहे थे। मूर्ति के नीचे लिखा 'मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल' वाक़ई क़स्बे का अध्यापक था। बेचारे ने महीने-भर में मूर्ति बनाकर पटक देने का वादा कर दिया होगा। बना भी ली होगी लेकिन पत्थर में पारदर्शी चश्मा कैसे बनाया जाए—काँचवाला—यह तय नहीं कर पाया होगा। या कोशिश की होगी और असफल रहा होगा। या बनाते-बनाते 'कुछ और बारीकी' के चक्कर में चश्मा टूट गया होगा। या पत्थर का चश्मा अलग से बनाकर फिट किया होगा और वह निकल गया होगा। उफ़...!
हालदार साहब को यह सब कुछ बड़ा विचित्र और कौतुकभरा लग रहा था। इन्हीं ख़यालों में खोए-खोए पान के पैसे चुकाकर, चश्मेवाले को देश-भक्ति के समक्ष नतमस्तक होते हुए वह जीप की तरफ़ चले, फिर रुके, पीछे मुड़े और पानवाले के पास जाकर पूछा, क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है? या आज़ाद हिंद फ़ौज का भूतपूर्व सिपाही?
पानवाला नया पान खा रहा था। पान पकड़े अपने हाथ को मुँह से डेढ़ इंच दूर रोककर उसने हालदार साहब को ध्यान से देखा, फिर अपनी लाल-काली बत्तीसी दिखाई और मुसकराकर बोला—नहीं साब! वो लँगड़ा क्या जाएगा फ़ौज में। पागल है पागल! वो देखो, वो आ रहा है। आप उसी से बात कर लो। फ़ोटो-वोटो छपवा दो उसका कहीं।
हालदार साहब को पानवाले द्वारा एक देशभक्त का इस तरह मज़ाक़ उड़ाया जाना अच्छा नहीं लगा। मुड़कर देखा तो अवाक् रह गए। एक बेहद बुढ़ा मरियल-सा लँगड़ा आदमी सिर पर गाँधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी-सी संदूकची और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टंगे बहुत-से चश्मे लिए अभी-अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस टिका रहा था। तो इस बेचारे की दुकान भी नहीं! फेरी लगाता है! हालदार साहब चक्कर में पड़ गए। पूछना चाहते थे, इसे कैप्टन क्यों कहते हैं? क्या यह इसका वास्तविक नाम है? लेकिन पानवाले ने साफ़ बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार नहीं। ड्राइवर भी बेचैन हो रहा था। काम भी था। हालदार साहब जीप में बैठकर चले गए।
दो साल तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में उस क़स्बे से गुज़रते रहे और नेताजी की मूर्ति में बदलते हुए चश्मों को देखते रहे। कभी गोल चश्मा होता, तो कभी चौकोर, कभी लाल, कभी काला, कभी धूप का चश्मा, कभी बड़े काँचों वाला गोगो चश्मा...पर कोई-न-कोई चश्मा होता ज़रूर...उस धूलभरी यात्रा में हालदार साहब को कौतुक और प्रफुल्लता के कुछ क्षण देने के लिए।
फिर एक बार ऐसा हुआ कि मूर्ति के चेहरे पर कोई भी, कैसा भी चश्मा नहीं था। उस दिन पान की दुकान भी बंद थी। चौराहे की अधिकांश दुकाने बंद थीं।
अगली बार भी मूर्ति की आँखों पर चश्मा नहीं था। हालदार साहब ने पान खाया और धीरे से पानवाले से पूछा—क्यों भई, क्या बात है? आज तुम्हारे नेताजी की आँखों पर चश्मा नहीं है?
पानवाला उदास हो गया। उसने पीछे मुड़कर मुँह का पान नीचे थूका और सिर झुकाकर अपनी धोती के सिरे से आँखें पोंछता हुआ बोला—साहब! कैप्टन मर गया।
और कुछ नहीं पूछ पाए हालदार साहब कुछ पल चुपचाप खड़े रहे, फिर पान के पैसे चुकाकर जीप में आ बैठे और रवाना हो गए।
बार-बार सोचते, क्या होगा उस कौम का जो अपने देश की ख़ातिर घर-गृहस्थी-जवानी-ज़िंदगी सब कुछ होम देने वालों पर भी हँसती है और अपने लिए बिकने के मौक़े ढूँढ़ती है। दुखी हो गए। पंद्रह दिन बाद फिर उसी क़स्बे से गुज़रे। क़स्बे में घुसने से पहले ही ख़याल आया कि क़स्बे की हृदयस्थली में सुभाष की प्रतिमा अवश्य ही प्रतिष्ठापित होगी, लेकिन सुभाष की आँखों पर चश्मा नहीं होगा।...क्योंकि मास्टर बनाना भूल गया।...और कैप्टन मर गया। सोचा, आज वहाँ रुकेंगे नहीं, पान भी नहीं खाएँगे, मूर्ति की तरफ़ देखेंगे भी नहीं, सीधे निकल जाएँगे। ड्राइवर से कह दिया, चौराहे पर रुकना नहीं, आज बहुत काम है, पान आगे कहीं खा लेंगे।
लेकिन आदत से मज़बूर आँखें चौराहा आते ही मूर्ति की तरफ़ उठ गईं। कुछ ऐसा देखा कि चीख़े, रोको! जीप स्पीड में थी, ड्राइवर ने ज़ोर से ब्रेक मारे। रास्ता चलते लोग देखने लगे। जीप रुकते-न-रुकते हालदार साहब जीप से कूदकर तेज़-तेज़ क़दमों से मूर्ति की तरफ़ लपके और उसके ठीक सामने जाकर अटेंशन में खड़े हो गए।
मूर्ति की आँखों पर सरकंडे से बना छोटा-सा चश्मा रखा हुआ था, जैसा बच्चे बना लेते हैं। हालदार साहब भावुक हैं। इतनी-सी बात पर उनकी आँखें भर आईं।
haldar sahab ko har pandrahven din kampni ke kaam ke silsile mein us qasbe se guzarna paDta tha. qasba bahut baDa nahin tha. jise pakka makan kaha ja sake vaise kuch hi makan aur jise bazar kaha ja sake vaisa ek hi bazar tha. qasbe mein ek laDkon ka skool, ek laDakiyon ka skool, ek siment ka chhota sa karakhana, do opan eyar sinemaghar aur ek tho nagarpalika bhi thi. nagarpalika thi to kuch na kuch karti bhi rahti thi. kabhi koi saDak pakki karva di, kabhi kuch peshabaghar banva diye, kabhi kabutron ki chhatri banva di to kabhi kavi sammelan karva diya. isi nagarpalika ke kisi utsahi borD ya prashasanik adhikari ne ek baar shahr ke mukhya bazar ke mukhya chaurahe par netaji subhashchandr bos ki ek sangamarmar ki pratima lagva di. ye kahani usi pratima ke bare mein hai, balki uske bhi ek chhote se hisse ke bare mein.
puri baat to ab pata nahin, lekin lagta hai ki desh ke achchhe murtikaron ki jankari nahin hone aur achchhi murti ki lagat anuman aur uplabdh bajat se kahin bahut zyada hone ke karan kafi samay uuhapoh aur chitthi patri mein barbad hua hoga aur borD ki shasnavadhi samapt hone ki ghaDiyon mein kisi sthaniy kalakar ko hi avsar dene ka nirnay kiya gaya hoga, aur ant mein qasbe ke iklaute hai skool ke iklaute Draing mastar—man lijiye motilal ji—ko hi ye kaam saump diya gaya hoga, jo mahine bhar mein murti banakar patak dene ka vishvas dila rahe the.
jaisa ki kaha ja chuka hai, murti sangamarmar ki thi. topi ki nok se kot ke dusre batan tak koi do phut uunchi. jise kahte hain bast. aur sundar thi. netaji sundar lag rahe the. kuch kuch masum aur kamsin. fauji vardi mein. murti ko dekhte hi dilli chalo aur tum mujhe khoon do. . . vaghairah yaad aane lagte the. is drishti se ye saphal aur sarahaniy prayas tha. keval ek cheez ki kasar thi jo dekhte hi khatakti thi. netaji ki ankhon par chashma nahin tha. yani chashma to tha, lekin sangamarmar ka nahin tha. ek samanya aur sachmuch ke chashme ka chauDa kala frem murti ko pahna diya gaya tha. haldar sahab jab pahli baar is qasbe se guzre aur chaurahe par paan khane ruke tabhi unhonne ise lakshit kiya aur unke chehre par ek kautukabhri muskan phail gai. vaah bhai! ye aiDiya bhi theek hai. murti patthar ki, lekin chashma riyal!
jeep qasba chhoDkar aage baDh gai tab bhi haldar sahab is murti ke bare mein hi sochte rahe, aur ant mein is nishkarsh par pahunche ki kul milakar qasbe ke nagarikon ka ye prayas sarahaniy hi kaha jana chahiye. mahattv murti ke rang roop ya qad ka nahin, us bhavna ka hai varna to desh bhakti bhi ajkal mazaq ki cheez hoti ja rahi hain.
dusri baar jab haldar sahab udhar se guzre to unhen murti mein kuch antar dikhai diya. dhyaan se dekha to paya ki chashma dusra hai. pahle mote fremvala chaukor chashma tha, ab taar ke fremvala gol chashma hai. haldar sahab ka kautuk aur baDha. vaah bhai! kya aiDiya hai. murti kapDe nahin badal sakti lekin chashma to badal hi sakti hai.
tisri baar phir naya chashma tha.
haldar sahab ki aadat paD gai, har baar qasbe se guzarte samay chaurahe par rukna, paan khana aur murti ko dhyaan se dekhana. ek baar jab kautuhal durdamniy ho utha to panvale se hi poochh liya, kyon bhai! kya baat hai? ye tumhare netaji ka chashma har baar badal kaise jata hai?
panvale ke khud ke munh mein paan thunsa hua tha. wo ek kala mota aur khushamizaj adami tha. haldar sahab ka parashn sunkar wo ankhon hi ankhon mein hansa. uski tond thirki. pichhe ghumkar usne dukan ke niche paan thuka aur apni laal kali battisi dikhakar bola, kaiptan chashmevala karta hai.
kya karta hai? haldar sahab kuch samajh nahin pae.
chashma chenj kar deta hai. panvale ne samjhaya.
kya matlab? kyon chenj kar deta hai? haldar sahab ab bhi nahin samajh pae.
koi girak aa gaya samjho. usko chauDe chaukhat chahiye. to kaiptan kidar se layega? to usko murtivala de diya. udar dusra bitha diya.
ab haldar sahab ko baat kuch kuch samajh mein aai. ek chashmevala hai jiska naam kaiptan hai. use netaji ko baghair chashmevali murti buri lagti hai. balki aahat karti hai, mano chashme ke baghair netaji ko asuvidha ho rahi ho isliye wo apni chhoti si dukan mein uplabdh gine chune frenmon mein se ek netaji ki murti par phit kar deta hai. lekin jab koi grahak aata hai aur use vaise hi frenm ki darkar hoti hai jaisa murti par laga hai to kaiptan chashmevala murti par laga frem—sambhvatः netaji se kshama mangte hue—lakar grahak ko de deta hai aur baad mein netaji ko dusra frem lauta deta hai. vaah! bhai khoob! kya aiDiya hai.
lekin bhai! ek baat abhi bhi samajh mein nahin aai. haldar sahab ne panvale se phir puchha, netaji ka orijinal chashma kahan gaya?
panvala dusra paan munh mein thoons chuka tha. duphar ka samay tha, dukan par bheeD bhaaD adhik nahin thi. wo phir ankhon hi ankhon mein hansa. uski tond thirki. katthe ki DanDi phenk, pichhe muDkar usne niche peek thuki aur musakrata hua bola, mastar banana bhool gaya.
panvale ke liye ye ek mazedar baat thi lekin haldar sahab ke liye chakit aur drvit karne vali. yani wo theek hi soch rahe the. murti ke niche likha murtikar mastar motilal vaqii qasbe ka adhyapak tha. bechare ne mahine bhar mein murti banakar patak dene ka vada kar diya hoga. bana bhi li hogi lekin patthar mein paradarshi chashma kaise banaya jaye—kanchvala—yah tay nahin kar paya hoga. ya koshish ki hogi aur asaphal raha hoga. ya banate banate kuch aur bariki ke chakkar mein chashma toot gaya hoga. ya patthar ka chashma alag se banakar phit kiya hoga aur wo nikal gaya hoga. uf. . . !
haldar sahab ko ye sab kuch baDa vichitr aur kautukabhra lag raha tha. inhin khayalon mein khoe khoe paan ke paise chukakar, chashmevale ko desh bhakti ke samaksh natmastak hote hue wo jeep ki taraf chale, phir ruke, pichhe muDe aur panvale ke paas jakar puchha, kya kaiptan chashmevala netaji ka sathi hai? ya azad hind fauj ka bhutapurv sipahi?
panvala naya paan kha raha tha. paan pakDe apne haath ko munh se DeDh inch door rokkar usne haldar sahab ko dhyaan se dekha, phir apni laal kali battisi dikhai aur musakrakar bola—nahin saab! wo langDa kya jayega fauj mein. pagal hai pagal! wo dekho, wo aa raha hai. aap usi se baat kar lo. foto voto chhapva do uska kahin.
haldar sahab ko panvale dvara ek deshabhakt ka is tarah mazaq uDaya jana achchha nahin laga. muDkar dekha to avak rah ge. ek behad buDha mariyal sa langDa adami sir par gandhi topi aur ankhon par kala chashma lagaye ek haath mein ek chhoti si sandukchi aur dusre haath mein ek baans par tange bahut se chashme liye abhi abhi ek gali se nikla tha aur ab ek band dukan ke sahare apna baans tika raha tha. to is bechare ki dukan bhi nahin! pheri lagata hai! haldar sahab chakkar mein paD ge. puchhna chahte the, ise kaiptan kyon kahte hain? kya ye iska vastavik naam hai? lekin panvale ne saaf bata diya tha ki ab wo is bare mein aur baat karne ko taiyar nahin. Draivar bhi bechain ho raha tha. kaam bhi tha. haldar sahab jeep mein baithkar chale ge.
do saal tak haldar sahab apne kaam ke silsile mein us qasbe se guzarte rahe aur netaji ki murti mein badalte hue chashmon ko dekhte rahe. kabhi gol chashma hota, to kabhi chaukor, kabhi laal, kabhi kala, kabhi dhoop ka chashma, kabhi baDe kanchon vala gogo chashma. . . par koi na koi chashma hota jarur. . . us dhulabhri yatra mein haldar sahab ko kautuk aur praphullata ke kuch kshan dene ke liye.
phir ek baar aisa hua ki murti ke chehre par koi bhi, kaisa bhi chashma nahin tha. us din paan ki dukan bhi band thi. chaurahe ki adhikansh dukane band theen.
agli baar bhi murti ki ankhon par chashma nahin tha. haldar sahab ne paan khaya aur dhire se panvale se puchha—kyon bhai, kya baat hai? aaj tumhare netaji ki ankhon par chashma nahin hai?
panvala udaas ho gaya. usne pichhe muDkar munh ka paan niche thuka aur sir jhukakar apni dhoti ke sire se ankhen ponchhta hua bola—sahab! kaiptan mar gaya.
aur kuch nahin poochh pae haldar sahab kuch pal chupchap khaDe rahe, phir paan ke paise chukakar jeep mein aa baithe aur ravana ho ge.
baar baar sochte, kya hoga us kaum ka jo apne desh ki khatir ghar grihasthi javani zindagi sab kuch hom dene valon par bhi hansti hai aur apne liye bikne ke mauqe DhunDhati hai. dukhi ho ge. pandrah din baad phir usi qasbe se guzre. qasbe mein ghusne se pahle hi khayal aaya ki qasbe ki hridyasthli mein subhash ki pratima avashya hi pratishthapit hogi, lekin subhash ki ankhon par chashma nahin hoga. . . . kyonki mastar banana bhool gaya. . . . aur kaiptan mar gaya. socha, aaj vahan rukenge nahin, paan bhi nahin khayenge, murti ki taraf dekhenge bhi nahin, sidhe nikal jayenge. Draivar se kah diya, chaurahe par rukna nahin, aaj bahut kaam hai, paan aage kahin kha lenge.
lekin aadat se mazbur ankhen chauraha aate hi murti ki taraf uth gain. kuch aisa dekha ki chikhe, roko! jeep speeD mein thi, Draivar ne zor se break mare. rasta chalte log dekhne lage. jeep rukte na rukte haldar sahab jeep se kudkar tez tez qadmon se murti ki taraf lapke aur uske theek samne jakar atenshan mein khaDe ho ge.
murti ki ankhon par sarkanDe se bana chhota sa chashma rakha hua tha, jaisa bachche bana lete hain. haldar sahab bhavuk hain. itni si baat par unki ankhen bhar ain.
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lekin bhai! ek baat abhi bhi samajh mein nahin aai. haldar sahab ne panvale se phir puchha, netaji ka orijinal chashma kahan gaya?
panvala dusra paan munh mein thoons chuka tha. duphar ka samay tha, dukan par bheeD bhaaD adhik nahin thi. wo phir ankhon hi ankhon mein hansa. uski tond thirki. katthe ki DanDi phenk, pichhe muDkar usne niche peek thuki aur musakrata hua bola, mastar banana bhool gaya.
panvale ke liye ye ek mazedar baat thi lekin haldar sahab ke liye chakit aur drvit karne vali. yani wo theek hi soch rahe the. murti ke niche likha murtikar mastar motilal vaqii qasbe ka adhyapak tha. bechare ne mahine bhar mein murti banakar patak dene ka vada kar diya hoga. bana bhi li hogi lekin patthar mein paradarshi chashma kaise banaya jaye—kanchvala—yah tay nahin kar paya hoga. ya koshish ki hogi aur asaphal raha hoga. ya banate banate kuch aur bariki ke chakkar mein chashma toot gaya hoga. ya patthar ka chashma alag se banakar phit kiya hoga aur wo nikal gaya hoga. uf. . . !
haldar sahab ko ye sab kuch baDa vichitr aur kautukabhra lag raha tha. inhin khayalon mein khoe khoe paan ke paise chukakar, chashmevale ko desh bhakti ke samaksh natmastak hote hue wo jeep ki taraf chale, phir ruke, pichhe muDe aur panvale ke paas jakar puchha, kya kaiptan chashmevala netaji ka sathi hai? ya azad hind fauj ka bhutapurv sipahi?
panvala naya paan kha raha tha. paan pakDe apne haath ko munh se DeDh inch door rokkar usne haldar sahab ko dhyaan se dekha, phir apni laal kali battisi dikhai aur musakrakar bola—nahin saab! wo langDa kya jayega fauj mein. pagal hai pagal! wo dekho, wo aa raha hai. aap usi se baat kar lo. foto voto chhapva do uska kahin.
haldar sahab ko panvale dvara ek deshabhakt ka is tarah mazaq uDaya jana achchha nahin laga. muDkar dekha to avak rah ge. ek behad buDha mariyal sa langDa adami sir par gandhi topi aur ankhon par kala chashma lagaye ek haath mein ek chhoti si sandukchi aur dusre haath mein ek baans par tange bahut se chashme liye abhi abhi ek gali se nikla tha aur ab ek band dukan ke sahare apna baans tika raha tha. to is bechare ki dukan bhi nahin! pheri lagata hai! haldar sahab chakkar mein paD ge. puchhna chahte the, ise kaiptan kyon kahte hain? kya ye iska vastavik naam hai? lekin panvale ne saaf bata diya tha ki ab wo is bare mein aur baat karne ko taiyar nahin. Draivar bhi bechain ho raha tha. kaam bhi tha. haldar sahab jeep mein baithkar chale ge.
do saal tak haldar sahab apne kaam ke silsile mein us qasbe se guzarte rahe aur netaji ki murti mein badalte hue chashmon ko dekhte rahe. kabhi gol chashma hota, to kabhi chaukor, kabhi laal, kabhi kala, kabhi dhoop ka chashma, kabhi baDe kanchon vala gogo chashma. . . par koi na koi chashma hota jarur. . . us dhulabhri yatra mein haldar sahab ko kautuk aur praphullata ke kuch kshan dene ke liye.
phir ek baar aisa hua ki murti ke chehre par koi bhi, kaisa bhi chashma nahin tha. us din paan ki dukan bhi band thi. chaurahe ki adhikansh dukane band theen.
agli baar bhi murti ki ankhon par chashma nahin tha. haldar sahab ne paan khaya aur dhire se panvale se puchha—kyon bhai, kya baat hai? aaj tumhare netaji ki ankhon par chashma nahin hai?
panvala udaas ho gaya. usne pichhe muDkar munh ka paan niche thuka aur sir jhukakar apni dhoti ke sire se ankhen ponchhta hua bola—sahab! kaiptan mar gaya.
aur kuch nahin poochh pae haldar sahab kuch pal chupchap khaDe rahe, phir paan ke paise chukakar jeep mein aa baithe aur ravana ho ge.
baar baar sochte, kya hoga us kaum ka jo apne desh ki khatir ghar grihasthi javani zindagi sab kuch hom dene valon par bhi hansti hai aur apne liye bikne ke mauqe DhunDhati hai. dukhi ho ge. pandrah din baad phir usi qasbe se guzre. qasbe mein ghusne se pahle hi khayal aaya ki qasbe ki hridyasthli mein subhash ki pratima avashya hi pratishthapit hogi, lekin subhash ki ankhon par chashma nahin hoga. . . . kyonki mastar banana bhool gaya. . . . aur kaiptan mar gaya. socha, aaj vahan rukenge nahin, paan bhi nahin khayenge, murti ki taraf dekhenge bhi nahin, sidhe nikal jayenge. Draivar se kah diya, chaurahe par rukna nahin, aaj bahut kaam hai, paan aage kahin kha lenge.
lekin aadat se mazbur ankhen chauraha aate hi murti ki taraf uth gain. kuch aisa dekha ki chikhe, roko! jeep speeD mein thi, Draivar ne zor se break mare. rasta chalte log dekhne lage. jeep rukte na rukte haldar sahab jeep se kudkar tez tez qadmon se murti ki taraf lapke aur uske theek samne jakar atenshan mein khaDe ho ge.
murti ki ankhon par sarkanDe se bana chhota sa chashma rakha hua tha, jaisa bachche bana lete hain. haldar sahab bhavuk hain. itni si baat par unki ankhen bhar ain.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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