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ख़ुदाराम

khudaram

पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

और अधिकपांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

    1

    हमारे क़स्बे के इनायत अली कल तक नौमुसलिम थे। उनका परिवार केवल सात वर्षों से ख़ुदा के आगे घुटने टेक रहा था। इसके पहले उनके सिर पर भी चोटी थी, माथे पर तिलक था और घर में ठाकुरजी थे। हमारे समाज ने उनके निरपराध परिवार को ज़बर्दस्ती मंदिर से ढकेलकर मसजिद में भेज दिया था।

    बात यों थी: इनायत अली के बाप उल्फ़त अली जब हिंदू थे, देवनंदन प्रसाद थे, तब उनसे अनजाने में एक अपराध बन पड़ा था। एक दिन एक दुखिया ग़रीब युवती ने उनके घर आश्रय माँगा। पता-ठिकाना पूछने पर उसने एक गाँव का नाम ले लिया। कहा-

    मैं बिलकुल अनाथ हूँ। मेरे मालिक को गुज़रे छह महीने से ऊपर हो गए। जब तक वह थे, मुझे कोई फ़िक्र थी। ज़मींदार की नौकरी से चार पैसे पैदा करके, वही हमारी दुनिया चलाते थे। उनके वक़्त ग़रीब होने पर भी मैं किसी की चाकरी नहीं करती थी। अब उनके बाद, उसी गाँव में पेट के लिए परदा छोड़ते मुझे शर्म मालूम होने लगी। इसलिए उस गाँव को छोड़, इस शहर में नौकरी तलाश रही हूँ। मुझे और कुछ नहीं, चार रोटियाँ और चार गज़ कपड़े की ज़रूरत है। आपको भगवान ने चार पैसे दिए हैं। मेरी हालत पर रहम कीजिए। मुझे अपने घर के एक कोने में रहने और बाक़ी ज़िंदगी ईश्वर का नाम लेने में बिताने दीजिए। आपका भला होगा।

    ज़ात पूछने पर उसने अपने को अहीरिन बताया। देवनंदन प्रसाद जी सरल हृदय थे। स्त्री की हालत पर दया गई। उनकी स्त्री ने भी अहीरिन की मदद ही की। कहा-

    रख लो न। चौका-बर्तन किया करेगी, पानी भरेगी, दो रोटी खाएगी और पड़ी रहेगी।

    अहीरिन रख ली गई। दो महीनों तक वह घर का काम-काज सँभालती रही। इसके बाद एक दिन एकाएक वज्रपात हुआ। जाने कहाँ से ढूँढता-ढूँढता एक आदमी देवनंदन जी के यहाँ आया। पूछने लगा-

    बाबूजी, आपने कोई नई मज़दूरिन रखी है?

    क्यों भाई? तुम्हारे इस सवाल का क्या मतलब है?

    बाबूजी, दो महीनों से मेरी औरत लापता है। मैं उसी की तलाश में चारों ओर की ख़ाक छान रहा हूँ। ज़रा-सी बात पर लड़कर भाग खड़ी हुई। औरत की ज़ात, अपने हठ के आगे मर्द की इज़्ज़त को कुछ समझती ही नहीं।

    इसी समय हाथ में घड़ा और रस्सी लिए वह अहीरिन घर से बाहर निकली। उसे देखते ही वह पुरुष झपटकर उसके पास पहुँचा।

    अरे, फ़िरोज़ी! यह क्या? किसके लिए पानी भरने जा रही है?

    इधर आओ जी। ज़रा कड़े होकर देवनंदन जी ने कहा-

    यह कैसा पागलपन है? तुम किसे फ़िरोज़ी कह रहे हो? वह हमारी मज़दूरिन है। हमारे लिए पानी लेने जा रही है। उसका नाम फ़िरोज़ी नहीं, रुकमिनियाँ है। किसी ग़ैर औरत का इस तरह अपमान करते तुम्हें शर्म नहीं आती?

    जोश में देवनंदन जी इतना कह तो गए, मगर रुकमिनियाँ के चेहरे पर नज़र पड़ते ही उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उस पुरुष को देखते ही अहीरिन रुकमिनियाँ का मुँह काला पड़ गया। वह काठमारी-सी जहाँ की तहाँ खड़ी रह गई।

    रुकमिनियाँ को फ़िरोज़ी कहने वाले ने देवनंदन को ओर देखकर कहा- बाबूजी, आपने धोखा खाया। यह हिंदू नहीं, मुसलमान है। रुकमिनियाँ नहीं, मेरी भागी हुई बीबी फ़िरोज़ी है।

    देवनंदन के काटो तो ख़ून नहीं।

    2

    शाम को, घर के सरदारों के घूमने-फिरने, मिलने-जुलने के लिए निकल जाने के बाद मुहल्ले की बूढ़ी औरतें और जवान लड़कियाँ अपने-अपने दरवाज़ों पर बैठकर ज़ोर-ज़ोर से देवनंदन और फ़िरोज़ी की चर्चा करने लगीं।

    बाबा रे बाबा! एक बूढ़ी ने राग अलापा— औरत का ऐसा दीदा! मर्द को छोड़कर दूसरे देश और दूसरे के घर पर चली आई।

    मुँहझौंसी थी तो तुर्किन, बन गर्इ अहीरिन! मुसलमान औरतों में लाज नहीं होती, माँ! वह तो इस तरह अपने मालिक को छोड़कर दूसरों के यहाँ चली आई, मुझे तो घर के बाहर भी जाने में डर मालूम होता है। निगोड़ी और क्या थी, पतुरिया थी। एक विवाहित लड़की ने कहा।

    सामने के दरवाज़े पर से दूसरी अधेड़ औरत ने कहा- अब देखो रघुनंदन के बाप का क्या होता है! दो महीनों तक तुर्किन के हाथ का पानी पीकर और उससे चौका-बर्तन कराकर उन्होंने अपना धर्म खो दिया है। हमारे... तो कह रहे थे कि अब उनके घर से कोई नाता रखा जाएगा।

    नाता कैसे रखा जा सकता है! पहली बूढ़ी ने कहा, धर्म तो कच्चा सूत होता है। ज़रा-सा इधर-उधर होते ही टूट जाता है। फिर हमारा हिंदू का धर्म! राम-राम! जिसको छूना मना है, सुबह जिसका मुँह देखना पाप है, उनके हाथ से देवनंदन ने जल ग्रहण किया। डूब गया... देवनंदन का ख़ानदान डूब गया। अब उससे खान-पान का नाता रख कौन अपना लोक-परलोक बिगाड़ेगा!

    विवाहिता लड़की बोली-

    यह बात शहर भर में फैल गई होगी। दो-चार आदमी जानते होते तो छिपाते भी। सुबह उस तुर्किन का आदमी चोटी पकड़कर धों-धों पीटता हुआ उसे ले जा रहा था। सबने देखा, सब जान गए।

    बस। दूसरे दिन मुहल्ले के मुखिया ने देवनंदन को बुलाकर कहा- देखो भाई, अब तुम अपने लिए किसी दूसरे कुएँ से पानी मँगाया करो।

    क्यों?

    तुम अब हिंदू नहीं, मुसलमान हो। दो महीने तक मुसलमान से पानी भराने और चौका-बर्तन कराने के बाद भी क्या तुम्हारा हिंदू रहना संभव है?

    मैंने कुछ जान-बूझकर तो मुसलमानिन के हाथ का पानी पिया नहीं। उसने मुझे धोखा दिया। इसमें मेरा क्या अपराध हो सकता है?

    भैया मेरे, हम हिंदू हैं। कोई जान-बूझकर गो-हत्या करने के लिए गाय के गले में रस्सा नहीं बाँधता। फिर भी, बँधी हुई गाय के मरने पर बाँधने वाले को हत्या लगती है। प्रायश्चित करना पड़ता है।

    यह ठीक है। उसके जाने के बाद ही मैंने तमाम मकान साफ़ कराया-लिपाया-पोताया है। मिट्टी के बर्तन बदलवा दिए हैं। धातु के बर्तन को आग से शुद्ध कर लिया है। इस पर भी जो कुछ प्रायश्चित कराना हो, करा लो। मैं कहीं भागा तो नहीं जा रहा हूँ।

    प्रायश्चित-चर्चा चलने पर व्यवस्था के लिए पुरोहित और पंडितों की पुकार हुई। बस ब्राह्रणों ने चारों वेद, छह शास्त्र, छत्तीसों स्मृति और अठारहों पुराण का मत लेकर यह व्यवस्था दी कि अब देवनंदन पूरे म्लेच्छ हो गए। यह किसी तरह भी हिंदू नहीं हो सकते।

    उधर देवनंदन की दुर्दशा का हाल सुनकर मुसलमानों ने बड़ी प्रसन्नता से अपनी छाती खोल दी। क़स्बे के सभी प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित मुसलमानों ने देवनंदन को अपनी ओर बड़े प्रेम, बड़े आदर से खींचा।

    चले आओ! हम ज़ात-पाँत नहीं, केवल हक़ को मानते हैं। इसलाम में मुहब्बत भरी हुई है। ख़ुदा ग़रीबपरवर है। हिंदुओं की ठोकर खाने से अच्छा है कि हमारी पलकों पर बैठो... मुसलमान हो जाओ।

    लाचार, समाज से अपमानित, परित्यक्त, पतित देवनंदन सपरिवार अल्लाह मियाँ की शरण में चले। वह और करते ही क्या! मनुष्य स्वभाव से ही समाज चाहता है, सहानुभूति चाहता है, प्रेम चाहता है। हिंदू समाज ने इन सब दरवाज़ों को देवनंदन के लिए बंद कर दिया। इतना हो जाने पर उनके लिए मुसलमान होने के सिवा दूसरा कोई पथ ही नहीं था। देवनंदन, उल्फ़त अली बन गए और उनका पुत्र रघुनंदन, इनायत अली।

    देवनंदन की छाती पर समाज ने ऐसा क्रूर धक्का मारा कि धर्म-परिवर्तन के नौ महीने बाद ही वे इस दुनिया से कूच कर गए।

    3

    जिन दिनों की घटना ऊपर लिखी गई है, उन्हें भूत के गर्भ में गए सात वर्ष हो गए। तब से हमारे क़स्बे की हालत अब बहुत कुछ बदल-सी गई है। पहले हमारे यहाँ सामाजिक या राजनीतिक जीवन बिलकुल नहीं था। सभी पेट के धंधे की धुन में व्यस्त थे। उन दिनों हमारी दस हज़ार की बस्ती में, क्लब या सोसाइटी के नाते तहसील का अहाता मात्र था, जहाँ नित्य सायंकाल नगर के दस-पाँच चापलूस धनी तहसीलदार-से हें-हें करने के लिए या टेनिस खेलने के लिए एकत्र हुआ करते थे। आर्य-समाज का बदनाम नाम तो घर-घर था, मगर सच्चा आर्य-समाजी एक भी था। एक सज्जन आगरे के 'आर्यमित्र' के ग्राहक थे। वह स्वामी दयानंद का नाम लेकर कभी-कभी नवयुवकों के विनोद के साधन बना करते थे। वह बनते तो थे आर्य-समाजी, मगर बिलकुल मौखिक। हमें ठीक याद है, वह पुराने समाज की सभी प्रथा या कुप्रथाओं को मानते थे। एक बार उनकी स्त्री ने उनसे सत्यनारायण की कथा सुनने का आग्रह किया और उन्होंने अस्वीकार कर दिया। बस, इसी बात पर आर्य-समाजी पति के मुख पर सनातनी चंडी झाड़ू फेरने, कालिख लगाने और चूना करने को तैयार हो गई। तीन दिनों तक मुहल्ले वालों की नींद हराम हो गई। विवश होकर 'महाशयजी' को स्त्री के आगे झुकना पड़ा।

    मगर, अब क़स्बे का वातावरण बिलकुल परिवर्तित हो गया। गत असहयोग-सहयोग आंदोलन के प्रसाद से हमारा क़स्बा भी बहुत कुछ जीवित हो उठा है। अब हमारे यहाँ बाक़ायदा आर्य-समाज भवन है, और हैं उसके मंत्री तथा सभापति। एक पुस्तकालय भी है और उसके सभी मंत्री-सभापति हैं। हिंदी के अनेक पत्र, अंग्रेज़ी के दो-तीन दैनिक आते हैं। सैकड़ों बालक, युवक और वृद्ध अख़बारी-जीवी बन गए हैं। ऐसे अख़बार-जीवियों की संख्या प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।

    उस दिन आर्य-समाज के मंत्री पंडित वासुदेव शर्मा समाज-भवन में ही बैठे कोई उर्दू अख़बार पढ़ रहे थे। भवन के बाहर-बरामदे में दो पंजाबी 'महाशय' पायजामा और कमीज़ पहने सायं-संध्या कर रहे थे। उसी समय एक दुबला-पतला लम्बा-सा पुरुष भवन में आया। उसकी आहट पा शर्माजी ने चश्माच्छादित आँखों से उसकी ओर देखा। पहचान गए—

    कहो मियाँ इनायत अली, आज इधर कैसे?

    आप ही की सेवा में कुछ निवेदन करने आया हूँ।

    शर्माजी ने चश्मा उतार लिया। उसे कुरते के कोने से साफ़ करने के बाद पुन: नाक पर चढ़ाते-चढ़ाते बोले—

    भाई इनायत, बड़ी शुद्ध हिंदी बोलते हो?

    जी हाँ, शर्माजी, मैं बहुत शुद्ध हिंदी बोल सकता हूँ। इसका कारण यही है कि मेरी नसों में बहुत शुद्ध हिंदू रक्त बह रहा है। समाज ने ज़बर्दस्ती मेरे पिता को मुसलमान होने के लिए विवश किया, नहीं तो आज मैं भी उतना ही हिंदू होता, जितने आप या कोई भी दूसरा हिंदुत्व का अभिमानी। ख़ैर, मुझे आपसे कुछ कहना है...

    कहिए, क्या आज्ञा है?

    मैं पुन: हिंदू होना चाहता हूँ।

    हिंदू होना? आश्चर्य से मुख विस्फारित कर शर्माजी ने पूछा।

    जी हाँ! अब मुसलमान रहने में लोक-परलोक दोनों का नाश दिखाई पड़ता है। इसलिए नहीं कि उस धर्म में कोई विशेषता नहीं है, बल्कि इसलिए कि मेरा और मेरे परिवार का हृदय मुसलमान धर्म के योग्य नहीं। अनंत काल का हिंदू-हृदय—हिंदू सभ्यता का पक्षपाती शांत हृदय—

    मुसलमानी रीति-नीति और सभ्यता का उपयोग करने में बिल्कुल अयोग्य साबित हुआ है। मेरी स्त्री नित्य प्रात:काल ख़ुदा-ख़ुदा नहीं, राम-राम जपती हैं। मैं मुसलमान रहकर क्या करूँगा? मेरी माता गंगा-स्नान और बदरिकाश्रम यात्रा के लिए तड़पा करती हैं। मेरा हृदय तो उन्हें मक्का-मदीना का भक्त बनाने की धृष्टता कर सकता है और वह बन सकती हैं। मैं मुसलमान रहकर क्या करूँगा? मैं स्वयं मसजिद में जाकर हृदय के मालिक को याद नहीं कर सकता। मेरा हिंदू हृदय मसजिद के द्वार पर पहुँचते ही एक विचित्र स्पंदन करने लगता है। उस स्पंदन का अर्थ ख़ुदा और मसजिद वाले के प्रति अनुराग नहीं हो सकता, घृणा भी नहीं हो सकती। वह स्पंदन घृणा और अनुराग के मध्य का निवासी है। इन्हीं सब कारणों से बहुत सोच-समझकर अब मैंने शुद्ध होकर हिंदू होने का निश्चय किया है।

    पंजाबी महाशय भी संध्या समाप्त कर ओम-ओम करते हुए भीतर गए। शर्माजी ने इनायत अली उर्फ़ रघुनंदन का परिचय देते हुए उनके प्रस्ताव पर उन दोनों महाशयों की सम्मति माँगी।

    धन्य हो महाशय जी! एक महाशय बोले- ऋषि दयानंद की कृपा होगी तो हमारे वे सब बिछड़े भाई एक-न-एक दिन फिर अपने आर्य धर्म में चले आएँगे। इन्हें ज़रूर शुद्ध कीजिए।

    4

    हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य का बाज़ार गर्म होने के एक महीना पूर्व एक विचित्र पुरुष हमारे क़स्बे में आए। उनकी अवस्था पचास वर्षों से अधिक जान पड़ती थी। वह वस्त्र के नाम पर केवल लँगोटी धारण किया करते थे। वही उनकी सारी गृहस्थी और संपत्ति थी। उनका मुख तो रोबीला नहीं था, पर उस पर विचित्र आकर्षण दिखाई देता था। दाढ़ी फुट भर लम्बी थी। सर के बाल भी बड़े-बड़े थे।

    उनमें एक ऐसा चमत्कार था, जिससे क़स्बे के छोटे-छोटे लड़के उन पर जान दिया करते थे। हाँ, उनका नाम बताना तो भूल ही गया। वह अपने को 'ख़ुदाराम' कहा करते थे। ख़ुदाराम गली में आए हैं, यह सुनते ही लड़कों की मंडली जान छोड़कर उनकी ओर झपट पड़ती— ख़ुदाराम, पैसे दो! ख़ुदाराम, पैसे दो! की आवाज़ से गली गूँज उठती थी। पहले तो ख़ुदाराम दो-चार बार लड़कों को मुँह बिगाड़-बिगाड़कर डराने की कोशिश करते, फिर दो-तीन बच्चों को पीठ पर चढ़ाकर, बग़ल में दबाकर या कंधों पर उठाकर भाग खड़े होते भागो! भागो! हो हो हो? लेना जी? आदि कहते हुए अन्य लड़के ख़ुदाराम को रगेद लेते। अंत में लाचार हो वह खड़े हो जाते, बच्चों को पीठ या कंधे के नीचे उतार देते और पूछने लगते-

    बंदरो! क्या चाहिए?

    पैसे ख़ुदाराम, पैसे!

    ख़ुदाराम बड़े ज़ोर से हँसते-हँसते ख़ाली मुट्ठी को बंद कर इधर-उधर हाथ चलाने लगते। चारों ओर झन्न-झन्न की आवाज़ गूँज उठती। लड़के प्रसन्न होकर पैसे लूटने लगते—और ख़ुदाराम नौ दो ग्यारह हो जाते।

    ख़ुदाराम को सबसे अधिक इन लड़कों ने मशहूर किया।

    इसके बाद एक घटना और हुई, जिससे उनकी शोहरत चौगुनी बढ़ गई। किसी ग़रीब चमार के पाँच वर्ष के पुत्र को हैज़ा हो गया था। उसके पास वैद्य, हकीम या डाक्टर बाबू के लिए पैसे नहीं थे। कई जगह जाने पर भी किसी ने उस अभागे की सुध ली। बेचारा लड़का उपचार के अभाव पर मरने लगा।

    उसी समय उधर से ख़ुदाराम लड़कों की मंडली के साथ गुज़रे। चमार की स्त्री को दरवाज़े पर बैठकर रोते देख, वह उसके सामने जाकर खड़े हो गए। पूछने लगे-

    क्यों रो रही है?

    स्त्री ने उत्तर तो कुछ दिया, हाँ, स्वर को 'पंचम' से 'निषाद' कर दिया।

    क्यों रोती है? बोलती ही नहीं, तुझे भी पैसे चाहिए?

    पैसे नहीं, स्त्री ने इस बार हिचकते-हिचकते उत्तर दिया, दवा चाहिए। मेरा लाल हैज़े से मर रहा है!

    तेरे बच्चे को हैज़ा हो गया है? पगली कहीं की। इतना खाना क्यों खिला दिया? मुझे तो कभी कुछ खिलाती नहीं। कुछ खिला तो तेरा बच्चा अभी चंगा हो जाए।

    बाबा, मेरे घर में तुम्हारे खाने लायक़ है ही क्या? कहो तो चने खिलाऊँ।

    ला, ला। जो कुछ भी हो, दौड़कर ले आ। तेरा बच्चा अभी अच्छा हो जाएगा।

    स्त्री अपने मकान में गई और एक छोटी-सी पोटली में पाव-डेढ़-पाव भुने चने ले आई। ख़ुदाराम ने पोटली लेकर बालक-मंडली को चने दान करना आरंभ किया। देखते-देखते पोटली साफ़ हो गई। केवल चार-पाँच चने बच रहे। स्त्री के हाथ में देते हुए उन्होंने कहा-

    इन चनों को पीसकर बच्चे को पिला दे। यह उसका हिस्सा है। ले जा!

    दूसरे दिन उसी चमारिन ने क़स्बे भर में यह बात मशहूर कर दी कि ख़ुदाराम पागल नहीं, होशियार हैं। मामूली आदमी नहीं, फ़क़ीर हैं, देवता हैं।

    फिर तो हिंदू-मुसलमान दोनों जाति के लोगों ने—विशेषत: स्त्रियों ने, ख़ुदाराम को जाने क्या-क्या बना डाला। कितनों के बच्चे उनकी ऊट-पटाँग औषधियों से अच्छे हो गए। कितनों को ख़ुदाराम की कृपा से नौकरी मिल गई। कितने मुक़दमे जीत गए। क़स्बा का क़स्बा उन्हें पूछने लगा।

    मगर, ख़ुदाराम ज्यों के त्यों रहे। उनका दिन-रात का चारों ओर लड़कों की मंडली के साथ घूमना रुका। अच्छे से अच्छे धनी भी उन्हें कपड़े पहना सके। किसी के आग्रह करने पर वह कपड़े-धोती, कुरता-टोपी पहन तो लेते, मगर उसके घर से आगे बढ़ते ही टोपी किसी लड़के के मस्तक पर होती, धोती किसी ग़रीब के झोंपड़े पर और कुर्ता किसी भिखमंगे के तन पर। किसी-किसी दिन तो दो-दो बजे रात को किसी गली में ख़ुदाराम को कंठ-ध्वनि सुनाई पड़ती—

    तू है मेरा ख़ुदा मैं हूँ तेरा ख़ुदा,

    तू ख़ुदा मैं ख़ुदा, फिर जुदाई कहाँ?

    5

    सात आदमी आपस में बात करते हुए समाज-भवन की ओर जा रहे थे। उनमें एक तो समाज के मंत्री महाशय थे, दो हमारे परिचित पंजाबी और चार बाहर से आए हुए दूसरे आर्य-समाजी थे। बातें इस प्रकार हो रही थीं—

    मुसलमान लोग भरसक इनायत अली को हिंदू होने देंगे।

    क्यों होने देंगे? अजी अब वह ज़माना लद गया। यहाँ के सभी हिंदू हमारे साथ हैं।

    लड़ाई हो जाने का भय है।

    अगर इस बात को लेकर कोई लड़े तो लड़े। बेवकूफ़ी का भार लड़ाई छेड़ने वाले पर होगा।

    अच्छा, हम लोग इनायत के परिवार को केवल शुद्ध करें—वेद भगवान की सवारी निकालने से लाभ?

    एक साथ कह उठे- वाह! वेद भगवान की सवारी क्यों निकालें। हम अपने बिछुड़े भाई को पाएँगे। ऐसे मौक़े पर आनंद-मंगल मनाने से डरें क्यों?

    सवारी पर, पहले महाशय ने कहा- मुसलमानों ने आक्रमण करने का निश्चय कर लिया है। यह मैं सच्ची ख़बर सुना रहा हूँ।

    देखो भाई, इस तरह दबने से काम चलेगा। हम किसी के धार्मिक कृत्यों में बाधा नहीं देते, तो कोई हमारे पथ में रोड़े क्यों डालेगा? फिर, अगर उन्होंने छेड़ा, तो देखा जाएगा। भय के नाम पर धर्म कभी छोड़ा जाएगा।

    इसी समय बग़ल की एक गली से लँगोटी लगाए ख़ुदाराम निकले। वह वही गुनगुना रहे थे—

    तू है मेरा ख़ुदा, मैं हूँ तेरा ख़ुदा,

    तू ख़ुदा, मैं ख़ुदा, फिर जुदाई कहाँ?

    मंत्री महाशय ने पुकारा-

    ख़ुदाराम!

    चुप रहो! ख़ुदाराम ने कहा—मैं कोई युक्ति सोच रहा हूँ।

    कैसी युक्ति सोच रहे हो, ख़ुदाराम? हमें भी तो बताओ।

    सोच रहा हूँ कि क्या उपाय करूँ कि ख़ुदा-ख़ुदा में लड़ाई हो। तुम लोग लड़ोगे?

    नहीं, लड़ने का विचार नहीं है, पर सवारी ज़रूर निकलेगी।

    खाना नहीं खाऊँगा, पर मुँह में कौर ज़रूर डालूँगा। हा हा हा हा! यही मतलब है न?

    लाचारी है, ख़ुदाराम।

    तो धर्म के नाम पर ख़ून की नदी बहेगी? हा हा हा हा। तुम लोग इंसान क्यों हुए? तुम्हें तो भालू होना चाहिए था। शेर होना चाहिए था, भेड़िया होना चाहिए था। वैसी अवस्था में तुम्हारी रक्त-पिपासा मज़े में शांत होती। धर्म के नाम पर लड़ने वाले इंसान क्यों होते हैं?

    अपरिचित आगंतुक आर्यों ने शर्माजी से पूछा-

    क्या यह पागल है?

    हाँ-हाँ, ख़ुदाराम ने कहा- क़ुरान नहीं पढ़ा है, इसलिए पागल है, सत्यार्थ प्रकाश नहीं देखा है, इसलिए पागल है, धर्म के नाम ख़ूँ-रेज़ी नहीं पसंद करता, इसलिए पागल है, खद्दर का कुर्ता नहीं पहनता, इसलिए पागल है, लेक्चर नहीं दे सकता, इसलिए ख़ुदाराम ज़रूर पागल है। हा हा हा हा! ख़ुदाराम पागल है। मुसलमान कहते हैं—तू पागल है, इस बीच में पड़। हिंदू भी यही कहते हैं। अच्छी बात है—लड़ो! अगर होशियारी का नाम लड़ना ही है तो—लड़ो।

    तू भी इंसान है, मैं भी इंसान हूँ,

    गर सलामत हैं हम, तो ख़ुदाई कहाँ।

    तू है मेरा ख़ुदा, मैं हूँ तेरा ख़ुदा,

    तू ख़ुदा, मैं ख़ुदा, फिर जुदाई कहाँ?

    ख़ुदाराम नाचता-कूदता 'हो हो हो' करता अपने रास्ते लगा।

    6

    क़स्बे के हज़ारों हिंदू मर्द समाज-मंदिर की ओर वेद भगवान के जुलूस में शामिल होने के लिए चले गए। मुसलमान पुरुष भी, पुराने पीर की मसजिद में, जुलूस में बाधा डालने के लिए सशस्त्र एकत्र हो गए। हिंदू और मुसलमान दोनों घरों पर या तो बूढ़े बचे थे या बच्चे और स्त्रियाँ। घर-घर का दरवाज़ा भीतर से बंद था।

    एक मुसलमान के दरवाज़े पर किसी ने आवाज़ दी—

    माँ!

    कौन है?

    ज़रा बाहर आओ, मैं हूँ ख़ुदाराम।

    दरवाज़ा खोलकर बूढ़ी बाहर निकली।

    क्या है ख़ुदाराम? खाना चाहिए?'

    नहीं माँ, आज एक भीख माँगने आया हूँ—देगी न?

    क्या है फ़कीर? तुम्हें क्या कमी है? माँगो, तुमने मेरी बेटी की जान बचाई है। हम हमेशा तुम्हारे ग़ुलाम रहेंगे। माँगो क्या लोगे?'

    पहले क़सम खा—देगी न?

    क़सम पाक परवरदिगार की। ख़ुदाराम, तुम्हारी चीज़ अगर मेरे इम्कान में होगी, तो ज़रूर दूँगी।

    तो, चलो मेरे साथ! हम लोग हिंदू-मुसलमानों का झगड़ा रोकें। बच्चों को भी ले लो। मैं मुहल्ले भर की—क़स्बे भर की औरतों, बच्चों की पलटन लेकर दोनों जातियों के पुरुषों पर आक्रमण करूँगा, उन्हें ख़ुदा या धर्म के नाम पर लड़ने से रोकूँगा।

    मुसलमान जननी अवाक-सी खड़ी रह गई! ख़ुदाराम कहता क्या है?

    चुप क्यों हो गई, माँ? तूने मुझे भीख देने की क़सम खाई है। मैं तेरे हित की बात कहता हूँ! इस रक्तपात में पुरुषों के नहीं, स्त्रियों के कलेजे का ख़ून बहाया जाता है। स्त्रियाँ विधवा होती हैं, माताएँ अपने बच्चे खोती हैं, बहिनें अपमानित होती हैं। पुरुषों की यह ज़ियादती तुम्हीं लोगों के रोके से रुकेगी। चलो! उन पत्थरों के आगे रोओ और उन्हें लड़ने से रोको। उन्हें बताओ कि तुम्हारे शरीर तुम्हारी माताओं की धरोहर हैं। उनकी इच्छा के विरुद्ध उनका नाश करने वाले तुम कौन हो? देर करो, नहीं तो सब चौपट हो जाएगा।

    एक ओर उत्तेजित मुसलमान ख़ुदा के नाम पर ईंट और डंडे चलाने पर उतारू थे, दूसरी ओर हिंदू वेद भगवान का जूलूस, शुद्ध (इनायत अली) रघुनंदन प्रसाद के परिवार के साथ और हज़ारों हिंदुओं के साथ मसजिद के पास डटा था। युद्ध छिड़ने ही वाला था कि गंगा की कल-कल धारा की तरह हज़ारों स्त्रियों की कंठ-ध्वनि मुसलमान-दल के पीछे सुनाई पड़ी। पहले ख़ुदाराम गाते और उनके बाद स्त्रियाँ उसी पद को दुहराती थीं—

    तू है मेरा ख़ुदा, मैं हूँ तेरा ख़ुदा,

    तू ख़ुदा मैं ख़ुदा, फिर जुदाई कहाँ?

    छोटे-छोटे बच्चों के कंठ की उस कोमलता के आगे, माताओं के कंठ की करुण धारा के आगे, उत्तेजित युवकों के हृदय की राक्षसता मुग्ध होकर, पुलकित होकर और नतमस्तक होकर खड़ी हो गई! मुसलमान-दल ने स्त्रियों के इस जुलूस के लिए चुपचाप रास्ता दे दिया। हिंदूदल वाले आँखें फाड़-फाड़कर ख़ुदाराम और उसकी स्वर्गीय सेना की ओर देखने लगे। उस सेना में हरेक हिंदू और प्रत्येक मुसलमान के घर की माताएँ और बहिनें, बेटे और बेटियाँ थीं।

    तुम लोग क्यों यहाँ आईं? मुसलमानों ने भी पूछा।

    तुम लोग क्यों यहाँ आईं? हिंदुओं ने भी प्रतिध्वनि की तरह मुसलमानों के प्रश्नों को दुहराया। एक मुसलमान बूढ़ी आगे बढ़ी- हम आई हैं तुम्हें मरने से बचाने के लिए। तुम हमारे बेटे—वे बेटे, जिन्हें हमने रात-रात भर जागकर, भूखों रहकर, दुआएँ माँगकर अपनी आँखों को ख़ुश रखने के लिए, दिल को शांत रखने के लिए इतना बड़ा किया है। तुम्हारे लिए हम ख़ुदा की इबादत करती हैं—तुम्हीं हमारे ख़ुदा हो।

    यह क्या हो रहा है? धर्म के नाम पर ख़ून बहाने की क्या ज़रूरत है? तुम्हें यह शरारत किस शैतान ने सिखाई है? बच्चो, तुम्हारी माँएँ तुम्हें खोकर अँधी हो जाएँगी। उनकी ज़िंदगी ख़राब हो जाएगी। बहिश्त पाने पर भी तुम्हें चैन मिल सकेगा! लड़ो मत! ख़ून से पाजी शैतान भले ही ख़ुश हो जाए, पर ख़ुदा कभी नहीं ख़ुश हो सकता। ख़ुदा अगर ख़ून पसंद करता, तो हमारे वज़ू करने के लिए पानी बनाकर ख़ून ही बनाता। गंगा ख़ूनी गंगा होती, समुंदर ख़ून का समुंदर होता। ख़ून के फेर में पड़ो, मेरे कलेजे। ख़ुदा ख़ून नहीं पसंद करता।

    वेद के पगलो, ख़ुदाराम ने हिंदुओं को ललकारा—चलो, ले जाओ अपना जुलूस? माताएँ तुम्हें रास्ता देती हैं।

    मुसलमानों के हाथ के शस्त्र नीचे झुक गए। बाजा बजाने वाले बाजा बजाना भूल गए। माताओं ने रास्ता बनाया और वेद भगवान की सवारी हज़ारों मंत्र-मुग्ध हिंदुओं के साथ निकल गई।

    सावन के बादल की तरह मधुर ध्वनि से ख़ुदाराम पुन: गरजे, माता वसुंधरा की तरह माताओं के हृदय से पुन: प्रतिध्वनि हुई—

    तूने मंदिर बनाया, तू भगवान है,

    मैंने मसजिद उठाई, मैं रहमान हूँ।

    तू भी भगवान है, मैं भी भगवान हूँ

    तू ख़ुदा, मैं ख़ुदा फिर जुदाई कहाँ?

    इस पवित्र जुलूस के नेता थे ख़ुदाराम, उनके पीछे हिंदू-मुसलमान बच्चे, बच्चों के पीछे दोनों जाति की माताएँ और सबके पीछे मुसलमान पुरुष—जुलूस के सशस्त्र रक्षकों की तरह चल रहे थे। प्रकृति पुलकित कलेवरा थी, तारिकाएँ खिलखिला रही थीं, चंद्रमा हँस रहा था। वह दृश्य पृथ्वी का स्वर्ग था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गल्प-संसार-माला, भाग-1 (पृष्ठ 127)
    • संपादक : जैनेंद्र कुमार
    • रचनाकार : पांडेय बेचन शर्मा उग्र
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 1977

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