अगस्त से वह असंतुष्ट था, जबकि उस महीने से मालूम नहीं क्यों उसे सबसे ज़्यादा उम्मीदें थीं। महीने की शुरुआत बरसाती थी। केवल पूर्णमासी के बाद दिन बड़े, स्वच्छ और नीले हुए।
एक समतल रेल यार्ड से रेलवे लाइन चट्टानों को काटती हुई जाती थी। उत्तरी छोर के क्षितिज पर एक बड़ी घटा बढ़ी आ रही थी। अजीब प्रभाव था—बादल का तना एक अनगढ़ पकड़ में जकड़ा लगता था, मानो वह बहुत नीचे चला गया हो और चट्टानों के कटाव में फँस गया हो।
उसने उसे घूरा। ऐसा लगा, मानो वह बादल की झुर्रीदार बाज़ू पर कोई काला दाग़ देख रहा हो। उसके चारों ओर की हवा विरल हो गई, उसे चक्कर आने लगे, साँस लेना कठिन हो गया। अनुभव तेज़ी से एक धुँधली संवेदना में बदल गया। झुर्री की ओर का बादल का धब्बा ग़ायब हो गया था, उसकी एक फ़ीते जैसी पूँछ निकल आई थी और नज़रों से ऐसे ग़ायब हो गई थी, जैसे कोई ग़लत चित्र रेटीना से ओझल हो जाता है। काफ़ी दिनों के बाद उसे मुक्ति का ऐसा अनुभव हुआ, पता नहीं कब और कहाँ से—यह केवल एक संवेदना थी, अनुभूति का बचा हुआ एक अंश, उस क्षण से उपजा, या फिर सारी ज़िंदगी से। उसने सोचा कि घटा की ऊपरी परत से शायद सुदूर आने वाले पतझड़ को देख सकते हैं।
हाट की ओर से प्लास्टिक बैग और सब्ज़ी की टोकरियाँ लिए हुए औरतें उसकी ओर आईं। उनमें से कई सड़क किनारे खड़ी गाड़ियों की ओर चली गईं। एक गहरे रंग के बालों वाला आदमी ग्रीक रेस्तराँ के दरवाज़े की चौखट पर टेक लगाए हुए था। दरवाज़े के ऊपर की लाइट अभी भी जल रही थी, जबकि यह चमकीली दोपहर थी।
रिटायर्ड लोग बाज़ार के छोर वाले सॉसेज बूथ पर जमा थे। वे हर हाट वाले दिन वहाँ होते। लगता था वे अपने जीवन के बचे दिनों से क्या करना है, इसके बारे में अनिश्चित थे। एक उजाड़ पड़ी सड़ी टेबल के कोने पर एक दीन भिखमंगा झुका हुआ बैठा था। एक रिटायर्ड आदमी ने उसे सॉसेज का एक टुकड़ा दिया।
वह हाट की भीड़ के साथ हो लिया और देखने की कोशिश करने लगा कि मटर के ढेर अभी बाज़ार में दीखने लगे हैं या नहीं। शलजम थे, आलू, गाजर, चुकंदर और पतली मूलियाँ थीं।
“सेब! अच्छे सेब। सुनहरे, पारदर्शी, चख कर देखो!”
लड़की का चेहरा संवेदनशील था और लगता था किसी भी क्षण वह रो पड़ेगी। सेब बढ़ाने वाला हाथ दुबला था और अँगुलियाँ पतली।
जब वह सेब खा रहा था, वह लड़की से बातें करने लगा। उसने साल की फसल के बारे में पूछा। उसे ख़ुद इसका गुण और आकार मालूम था; उसके घर पर बग़ीचे में फलों के भार से पेड़ों की डालियाँ झुक गई थीं। उनमें टाँड़ लगानी पड़ी थी। इस साल भी फसल की खपत में मुश्किल होगी। वह अपने आप को जूस स्टैंड पर खड़ा सेबों को कुचलते और निचोड़ते देख रहा था। यह सितंबर या अक्टूबर की शुरुआत होगी। वह सिट्ठी को प्लास्टिक के बैगों में भर बाहर जाएगा, और बाहर की हवा उसकी भोंह को शीतल कर देगी, उसे बताते हुए कि एक साल और बीत गया। सबसे बड़ी बेवक़ूफ़ी का काम जो वह कर सकता था, वह था उस लड़की से सेब ख़रीदना।
जब वह उसकी बातें सुन रहा था, प्रत्येक चीज़ अनोखे ढंग से बदल गई। यह एक सुखद, उन्मुक्त अंदरूनी भावना थी। उसने उत्तरी दिशा में घटा के लिए देखा, पर हाट के आसपास की ऊँची इमारतों ने उसे नज़रों से छुपा रखा था। कोई भी चीज़ अब पहले जैसी नहीं थी। लोग, सब्जियाँ, कबूतर और समुद्री पक्षी, मौसम से भूरी हो गई टेबल, यहाँ तक कि बाज़ार के रास्ते के काले पत्थर भी...मानो वह उन्हें पहली बार देख रहा हो। मानो उसने बाहर की अंधकारपूर्ण और एकाकी दुनिया से निकलकर एक सघन, प्यार, गर्माहट और रौशनी से भरपूर ज़िंदगी में प्रवेश किया हो और पूछ रहा हो—क्या दुनिया ऐसी ही है? ऐसा लगा मानो लड़की के संग बिताया क्षणिक अंतराल सालों-साल रहा हो।
उसने उससे एक किलो सेब ख़रीदे, एक-एक कर उसकी हथेली पर सिक्के गिने। उसका हाथ शीतल और थोड़ा-सा नम था, जैसे भोर में फल। उसकी नज़र लड़की की बाँह पर पड़ी। सुनहरी, पारदर्शी, उसने सोचा।
हाट लोगों से भरी थी, पर उनका अब कोई महत्व नहीं रह गया था और वह बिना सोचे उनके बीच से रास्ता बनाता चला जा सकता था। उसने वही किया, एक हाथ में सेब का थैला और दूसरे हाथ में अधखाया सेब लिया। पता नहीं क्यों वह डरा हुआ था। यह क्या हो रहा था? बाज़ार के छोर की कॉफ़ी दुकान के लिए उसने चारों ओर देखा, जहाँ बाज़ार के फेरीवाले जाया करते थे।
एक मेहराब की भीतरी अहाते के धुँधलके से हौज़ निकला। इससे निकला पानी फ़ुटपाथ के डामर से टकराया और एक ललछोंह धार में बहता हुआ मैनहोल द्वारा निगल लिया गया। लबादा पहने एक आदमी ने उसका नोज़ल पकड़ा हुआ था। उसके नारंगी लबादे की पीठ पर छपा था—इमारत का रखवाला। उसके रबर बूट के ऊपरी भाग नयेपन से चमक रहे थे, सड़क के जीवन को प्रतिबिंबित करते हुए...राह चलते लोग, पानी से बचते हुए, तेज़ी से अपनी राह पर जाते, दिन के ज़रूरी कामों को अपने मन में लिए।
उसे रुकता देख, आदमी ने दोबारा देखा, इस बार ज़्यादा प्रेम से, शायद इसलिए कि कोई उसके नीरस काम में रस ले रहा था। “डेडमैन का बटन। तुमें मालूम है वह क्या है?” डामर से लाल धब्बा निकल गया, और उसने सोचा कि यहाँ रंग की बाल्टी गिर गई थी।
“जुवोनेन लोकोमोटिव का इंजीनियर हुआ करता था,’’ वह अभी भी प्रश्न के बारे में सोच रहा था, जब रखवाला बोलता गया। “उसका अंतिम काम एक ट्राम ड्राइव करना था।” पानी की धार रुक गई। पानी के दबाव ने हौज़ पर तनाव डाला, लेकिन वह तनाव सह गया। हौज़ दोहरा होकर उसकी बाँह पर झूल रहा था, अपने लबादे की निचली पॉकेट से रखवाले ने सिगरेट का पैक निकाला।
“कैब में केवल ड्राइवर रहता है। डेडमैन का बटन, एक स्विच, ड्राइवर के पैर के पास होता है। जब ड्राइव कर रहे होते हैं, उसके ऊपर पैर रखना होता है। अगर ड्राइवर को कुछ होता है, जैसे बीमारी का दौरा, उसके पैर का दबाव रुक जाता है और इमरजेंसी ब्रेक अपने आप लग जाता है। इसी तरह इसे बनाया गया है ।”
आकाश में सूरज ने जगह बदल ली और इमारत की छाया दीवाल के क़रीब आ गई। डामर जो धूप में था गर्मी से भाप छोड़ने लगा और उससे एक तीखी, गंदी गंध उठने लगी।
“एक बार जब जुवोनेन गाड़ी चला रहा था, लोगों ने उसे ड्राइवर की जगह से पैंसेंजर कंपार्टमेंट की ओर भागते देखा। वहाँ उसने ख़ुद को सीधे फ़र्श पर गिरा दिया। तुरंत ही गाड़ी रुक गई। यात्री अवश्य ही थोड़ा डर गए होंगे। जब जुवोनेन अपना हैट खोज रहा था, उस जगह कंडक्टर आया। जुवोनेन ने बताया कि वह अभ्यास कर रहा था। जब वे एक ओवरपास के सामने पहुँचे, उसने सोचा वह क्या करेगा यदि बगल से लट्ठों से भरा एक ट्रक आए और ठीक उसके सामने रुक जाए।”
“और इस उपाय ने काम किया।”
“उस समय। उस तरह की ट्रिक। उसका अनुभव इतना स्पष्ट था कि उसने बिना अस्तित्व वाले ट्रक को देखा। लेकिन ट्रक केवल उसके दिमाग़ में चल रहा था। लोग कहते हैं कि पहले भी उसने वे चीज़ें देखीं थीं, जो औरों को नहीं दीखतीं थीं।”
बाज़ार के छोर पर एक आदमी एक ट्रक में कंद के बोरे चढ़ा रहा था। रखवाले की नज़रें उसी काम पर टिकीं लग रहीं थीं।
“वह गाड़ी वापस स्टेशन तक ले आया। हालाँकि कंडक्टर उसकी बग़ल में ही था। और उसने उसके बाद कोई ट्रक नहीं देखा। यह जॉब पर उसकी अंतिम शिफ़्ट थी। उसकी ड्राइविंग पर तत्काल रोक लगा दी गई।”
रखवाले ने स्प्रे नोजल की पिस्तौल का घोड़ा दबा दिया और फ़व्वारे के फोर्स को ठीक करने लगा। पानी ने फिर से डामर पर चोट की और फिर से लाल हो गया और पानी मैनहोल के ढक्कन की जाली में अदृश्य हो गया।
“यह जुवोनेन का ख़ून है, “उसने कंधे के ऊपर से कहा। “छठी मंज़िल की बाल्कनी से डेढ़ घंटे पहले वह वहाँ गिरा। पता नहीं उसने वहाँ क्या देखा?”
वह कॉफ़ी के लिए नहीं गया। बाज़ार की गलियों में टेबल के बीच से चलते हुए अब उसकी भावनाएँ वही नहीं थीं।
“सेब! अच्छे सेब। सुनहरे, पारदर्शी। चखकर देखो!”
बिना किसी पहचान की झलक के लड़की ने उसे अपने सेब के ढेर के पीछे से देखा। उसे पक्का करने में कुछ समय लगा—अब वह उसे नहीं जानती थी! खोखे के पास, सड़ी मेज़ के कोने पर वह भिखमंगा अभी भी बैठा था, ज़िंदगी से उतना ही बेज़ार जितना वह स्थान था जहाँ वह बैठा था। रिटायर्ड लोगों का समूह छोटा हो गया था।
उसने उसके बग़ल में सेब का थैला रख दिया, भिखमंगे ने काले पत्थरों पर फुदकते व्यस्त कबूतरों से नज़रें उठाईं पर उन आँखों में कोई संदेश नहीं था।
बाद में, चट्टानों को काटती दूर विलीन होती रेलवे लाइन को देखते हुए उसने पाया कि बादलों का बड़ा खंभा उत्तरी आकाश से ग़ायब हो गया है।
agast se wo asantusht tha, jabki us mahine se malum nahin kyon use sabse zyada ummiden theen. mahine ki shuruat barsati thi. keval purnmasi ke baad din baDe, svachchh or nile hue.
ek samtal rel yaarD se relve lain chattanon ko katti hui jati thi. uttari chhor ke kshitij par ek baDi ghata baDhi aa rahi thi. ajib prabhav tha—badal ka tana ek angaDh pakaD mein jakDa lagta tha, manon wo bahut niche chala gaya ho aur chattanon ke katav mein phans gaya ho. usne use ghura. aisa laga, manon wo badal ki jhurridar bazu par koi kala
daagh dekh raha ho. uske charon or ki hava viral ho gai, use chakkar aane lage, saans lena kathin ho gaya. anubhav tezi se ek dhundhli sanvedna mein badal gai. jhurri ki or ka badal ka dhabba ghayab ho gaya tha, uski ek fite jaisi poonchh nikal aai thi aur nazron se aise ghayab ho gai thi, jaise koi ghalat chitr retina se ojhal ho jata hai. kafi dinon ke baad use mukti ka aisa anubhav hua, pata nahin kab aur kahan se—yah keval ek sanvedna thi, anubhuti ka bacha hua ek ansh, us kshan se upja, ya phir sari zindagi se. usne
socha ki ghata ki uupri parat se shayad sudur aane vale patjhaD ko dekh sakte hain.
haat ki or se plastik baig aur sabzi ki tokariyan liye hue aurten uski or ain. unmen se kai saDak kinare khaDi gaDiyon ki or chali gain. ek gahre rang ke balon vala adami greek restaran ke darvaze ki chaukhat par tek lagaye hue tha. darvaze ke uupar ki lait abhi bhi jal rahi thi, jabki ye chamkili dopahar thi.
ritayarD log bazar ke chhor vale sausej booth par jama the. ve har haat vale din vahan hote. lagta tha ve apne jivan ke bache dinon se kya karna hai, iske bare mein anishchit the. ek ujaaD paDi saDi tebal ke kone par ek deen bhikhmanga jhuka hua baitha tha. ek ritayarD adami ne use sausej ka ek tukDa diya.
wo haat ki bheeD ke saath ho liya aur dekhne ki koshish karne laga ki matar ke Dher abhi bazar mein dikhne lage hain ya nahin. shaljam the, aalu, gajar, chukandar aur patli muliyan theen.
“seb! achchhe seb. sunahre, paradarshi, chakh kar dekho!”
jab wo seb kha raha tha, wo laDki se baten karne laga. usne saal ki phasal ke bare mein puchha. use khud iska gun aur akar malum tha; uske ghar par baghiche mein phalon ke bhaar se peDon ki Daliyan jhuk gai theen. unmen taanD lagani paDi thi. is saal bhi phasal ki khapat mein mushkil hogi. wo apne aap ko joos stainD par khaDa sebon ko kuchalte aur nichoDte dekh raha tha. ye sitambar ya aktubar ki shuruat hogi. wo sitthi ko plastik ke baigon mein bhar bahar jayega, aur bahar ki hava uski bhonh ko shital kar degi, use batate hue ki ek saal aur beent gaya. sabse baDi bevaqufi ka kaam jo wo kar sakta tha, wo tha us laDki se seb kharidna.
jab wo uski baten sun raha tha, pratyek cheez anokhe Dhang se badal gai. ye ek sukhad, unmukt andaruni bhavna thi. usne uttari disha mein ghata ke liye dekha, par haat ke asapas ki uunchi imarton ne use nazron se chhupa rakha tha. koi bhi cheez ab pahle jaisi nahin thi. log, sabjiyan, kabutar aur samudri pakshi, mausam se bhuri ho gai tebal, yahan tak ki bazar ke raste ke kale patthar bhi. . . manon wo unhen pahli baar dekh raha ho. manon usne bahar ki andhkarpurn aur ekaki duniya se nikalkar ek saghan, pyaar, garmahat aur raushani se bharpur zindagi mein pravesh kiya ho aur poochh raha ho—kya duniya aisi hi hai? aisa laga manon laDki ke sang bitaya kshnik antral salon saal raha ho.
usne usse ek kilo seb kharide, ek ek kar uski hatheli par sikke gine. uska haath shital aur thoDa sa nam tha, jaise bhor mein phal. uski nazar laDki ki baanh par paDi. sunahri, paradarshi, usne socha.
haat logon se bhari thi, par unka ab koi mahatv nahin rah gaya tha aur wo bina soche unke beech se rasta banata chala ja sakta tha. usne vahi kiya, ek haath mein seb ka thaila aur dusre haath mein adhkhaya seb liye. pata nahin kyon wo Dara hua tha. ye kya ho raha tha? bazar ke chhor ki kaufi dukan ke liye usne charon or dekha, jahan bazar ke pherivale jaya karte the.
ek mehrab ki bhitari ahate ke dhundhalake se hoz nikla. isse nikla pani futpath ke Damar se takraya aur ek lalchhonh dhaar mein bahta hua mainhol dvara nigal liya gaya. labada pahne ek adami ne uska nozal pakDa hua tha. uske narangi labade ki peeth par chhapa tha—imarat ka rakhvala. uske rabar boot ke uupri bhaag nayepan se chamak rahe the, saDak ke jivan ko pratibimbit karte hue. . . raah chalte log, pani se bachte hue, tezi se apni raah par jate, din ke zaruri kamon ko apne man mein liye.
use rukta dekh, adami ne dobara dekha, is baar zyada prem se, shayad isliye ki koi uske niras kaam mein ras le raha tha. “DeDmain ka batan. tumen malum hai wo kya hai?” Damar se laal dhabba nikal gaya, aur usne socha ki yahan rang ki balti gir gai thi.
“juvonen lokomotiv ka injiniyar hua karta tha, “vah abhi bhi parashn ke bare mein soch raha tha, jab rakhvala bolta gaya. “uska antim kaam ek traam Draiv karna tha. ” pani ki dhaar ruk gai. pani ke dabav ne hoz par tanav Dala, lekin wo tanav sah gaya. hoz dohra hokar uski baanh par jhool raha tha, apne labade ki nichli pauket se rakhvale ne sigret ka paik nikala.
“kaib mein keval Draivar rahta hai. DeDmain ka batan, ek svich, Draivar ke pair ke paas hota hai. jab Draiv kar rahe hote hain, uske uupar pair rakhna hota hai. agar Draivar ko kuch hota hai, jaise bimari ka daura, uske pair ka dabav ruk jata hai aur imarjensi break apne aap lag jata hai. isi tarah ise banaya gaya akash mein suraj ne jagah badal li aur imarat ki chhaya dival ke qarib aa gai. Damar jo dhoop mein tha garmi se bhaap chhoDne laga aur usse ek tikhi, gandi gandh uthne lagi.
“ek baar jab juvonen gaDi chala raha tha, logon ne use Draivar ki jagah se painsenjar kampartment ki or bhagte dekha. vahan usne khud ko sidhe farsh par gira diya. turant hi gaDi ruk gai. yatri avashya hi thoDa Dar ge honge. jab juvonen apna hait khoj raha tha, us jagah kanDaktar aaya. juvonen ne bataya ki wo abhyas kar raha tha. jab ve ek ovarpas ke samne pahunche, usne socha wo kya karega yadi bagal se latthon se bhara ek trak aaye aur theek uske samne ruk jaye. ”
“aur is upaay kaam kiya. ”
“us samay. us tarah ki trik. uska anubhav itna aspasht tha ki usne bina astitv vale trak ko dekha. lekin trak keval uske dimagh mein chal raha tha. log kahte hain ki pahle bhi usne ve chizen dekhin theen, jo auron ko nahin dikhtin theen. ”
bazar ke chhor par ek adami ek trak mein kand ke bore chaDha raha tha. rakhvale ki nazren usi kaam par tikin lag rahin theen.
“vah gaDi vapas steshan tak le aaya. halanki kanDaktar uski baghal mein hi tha. aur usne uske baad koi trak nahin dekha. ye jaub par uski antim shift thi. uski Draiving par tatkal rok laga di gai. ”
rakhvale ne spre nojal ki pistaul ka ghoDa daba diya aur favvare ke fors ko theek karne laga. pani ne phir se Damar par chot ki aur phir se laal ho gaya aur pani mainhol ke Dhakkan ki jali mein adrishya ho gaya.
“yah juvonen ka khoon hai, “usne kandhe ke uupar se kaha. “chhathi manzil ki balkni se DeDh ghante pahle wo vahan gira. pata nahin usne vahan kya dekha?”
wo kaufi ke liye nahin gaya. bazar ki galiyon mein tebal ke beech se chalte hue ab uski bhavnayen vahi nahin theen.
bina kisi pahchan ki jhalak ke laDki ne use apne seb ke Dher ke pichhe se dekha. use pakka karne mein kuch samay laga—ab wo use nahin janti thee! khokhe ke paas, saDi mez ke kone par wo bhikhmanga abhi bhi baitha tha, zindagi se utna hi bejar jitna wo sthaan tha jahan wo baitha tha. ritayarD logon ka samuh chhota ho gaya tha.
usne uske baghal mein seb ka thaila rakh diya, bhikhmange ne kale patthron par phudakte vyast kabutron se nazren uthai par un ankhon mein koi sandesh nahin tha.
baad mein, chattanon ko katti door vilin hoti relve lain ko dekhte hue usne paya ki badlon ka baDa khambha uttari akash se ghayab ho gaya hai.
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wo kaufi ke liye nahin gaya. bazar ki galiyon mein tebal ke beech se chalte hue ab uski bhavnayen vahi nahin theen.
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baad mein, chattanon ko katti door vilin hoti relve lain ko dekhte hue usne paya ki badlon ka baDa khambha uttari akash se ghayab ho gaya hai.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 81)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।