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चूहेदानी

chuhedani

दूधनाथ सिंह

दूधनाथ सिंह

चूहेदानी

दूधनाथ सिंह

और अधिकदूधनाथ सिंह

    गाड़ी चल पड़ी तो उसका मन हुआ प्लेटफ़ार्म पर रूमाल हिलाते बसंत को बुला ले। उसके अगल-बग़ल मुसाफ़िरों और विदा देने वालों का झुंड निकलता जा रहा था और वह भीड़ से बचता हुआ लगातार अपना रूमाल हिलाता जा रहा था। यहाँ तक तो उसकी ज़िद चल गई थी लेकिन इसके बाद सुमिता ने कहा था कि वह उसे साथ नहीं ले जा सकेगी। स्वर में कुछ ऐसा खिंचाव था कि बसंत अपना सामान ‘क्लोक रूम’ में ही छोड़ आया था। फिर गाड़ी जब तक नहीं चली, वह खिड़की के सींखचों से सिर टिकाए चुपचाप खड़ा रहा। सुमिता कभी उसकी ओर देख लेती, फिर मुँह फेर कर दूसरी ओर बाहर देखने लगती। बसंत की नाक, उसके होंठ और चिबुक खिड़की से भीतर हो आए थे। खिड़की पर इस तरह खड़े होने की उसकी पुरानी आदत थी। उससे पता नहीं कैसा-कैसा होने लगता था सुमिता के मन में। वह कहता, ‘मिस शर्मा!’

    ‘आ जाइए अंदर।’

    ‘नहीं, मैं जल्दी में हूँ। बस यूँही चला आया था।’

    और वह तेज़ क़दमों से चला जाता।

    अब वह कहाँ होगा। शायद सामान उठाकर किसी होटल में चला गया होगा। लौटने के लिए तो उसे कल सुबह एक दूसरी गाड़ी का इंतिज़ार करना होगा। कल सुबह तक वह कहाँ होगी? मेरठ। फिर?... उसने चाहा कि नींद जाए और सुबह उठने पर सोम उसे स्टेशन पर खड़े मिल जाएँ। कैसे वे मिलेंगे? क्या उन्हें कोई ख़बर है? और ख़बर होती भी तो भी क्या वे स्टेशन आते? तब वह क्यों जा रही हैं?...

    वह खिड़की से बाहर देखने लगी। खिड़की से बाहर अधर में सिर झुकाए बसंत जैसे कहीं चला जा रहा हो...। भागती हुई रेल से बाहर दिखने वाले तार क्षितिज पर खिंची हुई पतली सफ़ेद लकीरों की तरह लगते थे। हल्के नीले रंग वाला आकाश, पेड़, मैदान, पगडंडियाँ, बग़ीचे, गाँव, अँधेरे में टिम-टिमाती रोशनियाँ-सब पनियाले कोहरे में डूबे हुए-से। भागती हुई ट्रेन के साथ कोहरे की पट्टी भी जैसे दौड़ रही थी। कोहरे के बीच से कहीं पेड़ों की फुनगियाँ तो दिख जाती लेकिन बीच का भाग घनी पट्टी के बीच ढका रहता। जैसे पेड़ का ऊपरी हिस्सा हवा में निराधार टँगा हो। यही दृश्य लगातार चलता जाता...। फिर रात का सन्नाटा, छूटते हुए स्टेशन, कुलियों और मुसाफ़िरों का शोर, और फिर कोहरे में डूबा इंजन का सोला-सा खाँसता-सा स्वर...।

    उसने खिड़की से सिर टिकाकर आँखें मूँद लीं। भीतर कहीं एक आकृति उभरी। लगता बसंत है। उसके होंठ सींखचों के भीतर बिलकुल उसके गालों से सटे हैं। ठंड के कारण उसकी गर्म साँसों की भाप रह-रह कर उसके चेहरे पर फैल रही है। उसकी बरूनियाँ गालों को सहला रही हैं और वह दोनों बाँहों से खिड़की के सींखचों के साथ ही उसे जकड़े हुए टँगा हुआ चला रहा है। बाँहों की जकड़ ढीली हुई नहीं कि वह चलती हुई रेल से नीचे...।

    सोम की बाँहें भी तो इसी तरह उठती थीं। बिस्तर पर लेटे-लेटे वे दोनों बाँहें उठा देते। वह लजाती-लजाती उनमें ढल जाती। कई बार वह भागने को हुई तो उसने पाया कि वे बाँहें उसे घेरे हुए हैं। लेकिन बसंत? उसकी बाँहें? उसने उस आवाहन का प्रत्युत्तर कभी नहीं दिया। बसंत की बाँहें उठतीं और फिर नीचे गिर जातीं। शर्म से वह इधर-उधर देखने लगता और हाथ पीछे बाँधे जैसे वह अपनी उँगलियों की जकड़ छिपा लेना चाहता हो।...उसकी अंतरंग आँखों के सामने एक धुंधली-सी तस्वीर थी वहाँ सोम का चेहरा था—वही एकदम मासूम, अनुभवहीन और शांत सा। साथ ही लंबी बाँहों के घेरे, कुछ मोटे होंठ और छोटी-सी चिबुक जो सारे चेहरे को अतिरिक्त कोमलता से भर देती थी। माँ ने पहली बार देखकर कहा था, ‘यह तो कोई नार्सिसस लगता है।’ पहली बार वे देखने आए थे और ख़ुद आँखें झुकाए बैठे रहे।...कितनी सच निकली यह अनुभूति कि यह व्यक्ति जिस किसी को भी एक बार अपनी बाँहों में समेट लेगा, उसे कितना गहरा सुख...नहीं दुख, यातना, अभाव की परिक्रमा, व्यर्थ में धरती की परिक्रमा। क्या कहे वह? कुछ नहीं कह सकती। समय जैसे सारे निर्णयों को डुबो ले गया है।

    शादी के दूसरे दिन सुबह उसने चंद्रा से ख़ूब घुलकर बताई थी बातें। एक-एक घड़ी का विवरण उसने दिया था। एक-एक पल का। आँखों की एक-एक झपक का। उसने कहा था, ‘सिर्फ़ पागल हो जाना शेष है। मुझे लगता है मैं हो जाऊँगी। इतना सब कैसे सँभलेगा! तुम्हीं बताओ चंद्रा। तुम जो पहेली बुझाती थीं, वह मैं समझ गई हूँ ‘दोनों सहेलियाँ एक दूसरे को जकड़े लेटी रही। थोड़ी देर बाद चंद्रा ने कहा था, ‘ऐसे भाग सबके नहीं होते...। रानी तुम ख़ुशनसीब हो...लेकिन हमें भूल जइयो।’... ज़रूर भूल जाऊँगी...मैं दुनिया-जहान भूल जाऊँगी’... वे दोनों खिलखिलाकर हँसी तो माँ गईं थी।...रात भर में वह सिरस के फूल की तरह हल्की हो गई थी। एक अनुभव गृहिणी की भाँति दिन भर वह माँ भाभियों के बीच डोलती हुई बात-बात में दख़ल देती रही।

    ‘एक ही रात का यह असर! रानी जी, अब अरविंद की ‘डिवाइन लाइफ़’ नहीं रटोगी?’ बड़ी भाभी ने कहा था।

    ‘तुम हटो भाभी! मैं ख़ुद ही ‘डिवाइन लाइफ़’ हो गई हूँ।

    तब तक उसने माँ को देखा। उसकी भेद-भरी मुस्कान लक्ष्य कर उसने रूठने का अभिनय किया तो सभी ठहाके लगाकर हँस पड़े थे। वह भाग कर अपने कमरे में चली गई थी।

    ससुराल में फूलों की सेज। तह-पर-तह सारे तन-मन में ख़ुश्बू...जैसे सारी ज़िंदगी में सुहागरातें। उसने खिड़की के बाहर झाँककर देखा था। इलाहाबाद की तुलना में मेरठ उसे एक मामूली सा क़स्बा लगा था। स्टेशन में माधवनगर तक आते हुए सड़कों के तंग और सँकरे घुमाव, दुकानों पर जलती हुई तेल की ढ़िबरियाँ या गैसबत्तियाँ, रास्ते में कहीं बिजली और कहीं तेल के पुराने लैम्पपोस्टों के बीच अँधेरे-उजाले के कई-कई रंग। उसे सभी कुछ बड़ा प्यारा, शांत निरीह-सा लगा था। रात हुई तो चुपके से वह एक बार छत पर गई। छत से दूर-दूर तक घने, सान्द्र पपीतों के बाग़ और उनके बीच से गुज़रती हुई काली, अँधेरी सड़क। पश्चिम की ओर चुंगी-फाटक के पास ही एक बड़ा-सा ईंटों का दरवाज़ा और उसी से लगा हुआ, टुटी फूटी, पुरानी-नई क़ब्रों से इंच-इंच भरा क़ब्रगाह...वह चुपचाप नीचे उतर आई। खिड़की से टिककर बाहर देखने लगी। क़ब्रगाह पर धीरे-धीरे चाँदनी फैलती और बादलों के पर्दे में गुम हो जाती...

    और इसी तरह तीन दिन और तीन रातें। बसंत पहले बहुत पूछता था, ‘इतने कम समय में ऐसा क्या मिल गया जो...।’ अब नहीं पूछता।...ऊपर से नीचे तक सुख-भार से लदी, बेहोश वह कमी अपने बाहर ताकती, कमी आपने भीतर। सारी दुनिया का अस्तित्व जैसे समाप्त हो गया था। चारों ओर ख़ाली सन्नाटा और एकांत, और उस एकांत में केवल दो प्राणी। कोई रहस्यमय, अर्थों से परे गीत का आलाप गुनगुनाते हुए। अब तो उसकी अनाम छाया भर है। वही उसे रोकती है। कातर या सबल बनाती है। अब वह स्वयं नहीं जान पाती। चंद्रा से कही गई वह बात कितनी सच निकली...‘अब केवल पागल भर होना शेष बच रहा है।’ लेकिन क्या सच में उन्हीं अर्थों में? कुल तीन दिन ही तो बीते थे। वही दिन, जिनमें उसे लगा था कि वह कई कल्पों से इसी तरह सुख में बेहोश, अजर-अमर जीती चली आई है। वे ही तीन दिन, जिन्होंने उसे यह यंत्रणा भोगने के लिए सचमुच अमर कर दिया।

    ...खिड़की से लगी, बाहर की ओर ताकती वह दरवाज़े से आते हुए सोम की आहट ले रही थी। बाहर क़ब्रगाह पर नीम की पत्तियाँ झर रही थीं और बीच-बीच के पक्षियों का झुंड चहचहा कर चुप हो जाता। जैसे घोंसले में जगह की कमी है। सभी को नींद रही है, कोई किसी को ठेलठूल देता है तो नींद टूटने के कारण वह झल्लाकर कुछ कहता है। फिर तू-तू, मैं-मैं होती है और फिर सब शांत। बचपन में वे सब भाई-बहन इसी तरह करते थे... तब माँ जाती थीं...उसे याद आया...तभी उसे आहट से जाना कि सोम आकर उसके पीछे पलँग पर बैठ गए है अब वे अपनी बाँहें फैलाएँगे। अब! अब...। उसने इंतिज़ार नहीं हो सका। वह पीठ के बल ही उनकी गोदी में लुढ़क गई। आँखें मूँद लीं और इंतिज़ार करने लगी।

    ‘मुझे ठंड लग रही है,’ उसने कहा।

    एक पल बाद, कोई जवाब पाकर, उसने आँखें उठाकर देखा। एकदम चौंक कर उठ बैठी; सोम का चेहरा तमतमाया हुआ था। आँखें सुलग रही थीं। नथुने फड़क रहे थे और होंठों के कोनों में हल्की सी झाग निकल आई थी। वे इस तरह बाहर की ओर देख रहे थे जैसे कुछ सुना ही हो।

    ‘क्या हुआ, किसी से लड़कर आए हो क्या?’ उसने उसका चेहरा पकड़ कर घुमा दिया।

    उन्होंने एक बार घूर कर देखा और एक धक्के से उठाकर अलग कर दिया। धक्का इतने ज़ोर से दिया गया था कि वह बिस्तर पर लुढ़क-सी गई। फिर भी वह कुछ नहीं बोली, उठकर बैठ गई। फिर उसने लिहाफ़ खींचकर अपने पैरों पर डाल लिया। फिर एकाएक उससे रहा नहीं गया। बाँहों में चेहरा ढककर वह फफक पड़ी।

    ‘क्यों, क्यों, क्यों? आख़िर क्यों?’ उन्होंने उसकी बाँह ज़ोर से पकड़ ली।

    वह चुप उन्हें देखती रही।

    ‘तुम औरत हो न?’

    ‘...’

    ‘यह सब कहाँ से आता है? तुम जानती हो? नहीं जानती?’

    ‘...’

    ‘क्या हो रहा है? यह सब नहीं चलेगा, समझी! ओफ़ोफ़।’ उन्होंने एक धड़ाके के साथ खिड़की बंद कर दी। फिर जाने क्या समझ कर खोल दी। फिर सारी खिड़कियाँ खोल दीं। दरवाज़े खोल दिए। कुछेक पल खिड़की की छड़ पकड़े बाहर क़ब्रगाह की ओर ताकते रहे। फिर पास आकर बोले, ‘जानती हो, मतलब? बोलो? ज़रूर जानती हो। क्यों नहीं जानती? क्यों, क्यों, क्यों?’ उन्होंने उसकी बाँह पकड़कर उठाना चाहा। फिर भी उसकी समझ में नहीं रहा था कि वह क्या बोले।

    ‘मैं जानता हूँ, मैं’, उन्होंने अपनी छाती ठोंकते हुए कहा, ‘दुनिया की जितनी बद-चलन औरतें हैं, वे अपने पतियों को उतना ज़्यादा प्यार करती हैं। जिसकी यारी जितनी गहरी होगी, पति के लिए उसके प्यार का नाटक उतना ही गहरा और सफल होगा। मैं सच नहीं बोल रहा हूँ? मैं सब जानता हूँ। पता नहीं चलता, इतना फ़रेब इतना नाटक, इतना पाप इस नन्हे-से जिस्म में कहाँ समाता है...। बोलो? मैं समझता हूँ।’

    बाँहें छोड़कर वे धम्म से पलँग पर बैठ गए।

    उसने सोचा, अब वे शांत हो गए। समझ में तो कुछ भी नहीं रहा था। ‘मैं देखूँगा।’ वे सहसा तन कर खड़े हो गए। ‘कहाँ जज्च करती हो तुम लोग?’ उन्होंने उसे पकड़ कर पहले उठाया और फिर पलँग पर पटक दिया। वह टुकुर-टुकर उनका मुँह देखती रही। साड़ी उन्होंने खींचकर अलग कर दी। ब्लाउज़ के बटन एक झटाके से चटचटा कर खुल गए।

    ‘यहाँ?’...उसने कुछ नहीं कहा। उसके पेट और वक्षस्थल पर खरोंचों से ख़ून छलछला आया। ‘हटाओ हाथा...यहाँ...यहाँ?’ उन्होंने जगह-जगह बकोटना शुरू किया।...‘यहाँ’...तड़ाक-तड़ाक उसके दोनों गालों पर तीन-चार तमाचे जड़ दिए। ‘बोलो? नहीं बोलोगी?’ उसने तकिए में अपना मुँह गड़ा लिया। ‘नहीं बोलोगी? देने आई बिल शो यू...लेट मी हैव माइ पिस्टल।’ उन्होंने आल्मारी की ओर देखा, ‘नो, इट्स नाट हीयर’...वे कमरे से बाहर निकल गए।

    ‘आई ऐम जस्ट रिटर्निंग माई लिटिल डार्लिंग। हैव पेशेन्स। डोंट लूज़ योर करेज।’

    वह चुपचाप उठकर दूसरे दरवाज़े से नीचे आई और सास को जगा दिया। दौड़-धूप शुरू हुई। दो आदमियों ने पकड़ कर उन्हें ज़बरदस्ती लिटाया। डॉक्टर आया। फिर थोड़ी ही देर बाद सोम के चेहरे पर वही शांत निरीह भाव लौट आया। जैसे वे बहुत थक गए हों और सोना चाहते हों। सब लोग डॉक्टर के साथ बाहर जाने लगे तो सास ने उसे चलने के लिए इशारा किया। उसने कह दिया कि वह थोड़ी देर में आएगी। फिर वह सोम के सिरहाने आकर चुपचाप बैठ गई और उनके बालों में उँगलियाँ फेरने लगी। फिर जैसे एक कोहरा-सा छंटने लगा और आँखों से मौन आँसू की लड़ियाँ बँध गईं। अब क्या होगा? क्या होगा अब? तभी उसने सुना डाक्टर बरामदे में कह रहा था, ‘मिस्टर गौड़! दि एक्सपेरीमेंट हैज़ बीन टोटली अनसक्सेफ़ुल।’ उस एक क्षण में ही वह जड़ हो गई। उसके हाथ जहाँ के तहाँ रूक गए। ‘एक्सपेरीमेंट!’ लगा कि वह चीख़ पड़ेगी। ‘एक्सपेरीमेंट’।...सोम के माथे को हल्का-सा झटका देकर वह उठ आई। उसका मन हुआ कि सोम का पिस्तौल उठाकर वह बाहर खड़े सभी लोगों को एक-एक करके गोली मार दे। उसने सोचा कि बस, इसी क्षण, चल देगी। चाहे रात उसे किसी होटल में बितानी पड़े या कहीं और। उसने घूमकर देखा-सोम की दोनों बाँहें उसकी ओर उठी हुई थीं। आँखों से दो बूँद दोनों तरफ़ गालों पर बह आई थीं और वे एक असहाय बच्चे की तरह उसकी ओर देख रहे थे। उसके भीतर से उमड़-उमड़ कर कुछ अटकने सा लगा। उसकी इच्छा हुई कि धरती फट जाए और वह समा जाए। भूचाल आए, या कुछ भी हो सोम उसे गोली ही मार दें। वह चुपचाप दाँतों से होठों को दबाए कमरे से बाहर निकल आई।

    सीढ़ियाँ उतरते हुए उसने एक बार पीछे घूमकर देखा था। वह सोच नहीं सकी थी कि सोम अगर दरवाज़ा पकड़े, खड़े-खड़े उसकी ओर देख रहे होंगे तो वह क्या करेगी।...लेकिन वहाँ कोई नहीं था...। अंदर शायद फिर उन्हें दौरा गया था। कुछ लोग उन्हें पकड़े हुए थे। उनकी चीख़ सारे बँगले में गूँज रही थी—‘साली, कुतिया...कमीनी...थूः।’

    खिड़की से टिके-टिके, जाने कब उसे नींद गई थी। हड़बडाकर जब वह उठी तो पाया कि सुबह हो गई है और गाड़ी मेरठ पहुँचने वाली है।...स्टेशन पर उतरते ही वह सिहर गई। वही छोटा-सा स्टेशन था। बिलकुल वैसा ही। कहीं कोई परिवर्तन नहीं। ‘यही शहर है जहाँ वह अपने को दफ़न कर गई थी।’ उसने सोचा और कुली से सामान उठवाकर स्टेशन के बाहर गई। यहीं उस बार उसकी सास खड़ी थीं। और साथ ही कितने अजनबी लोग, जो उसे देखने और स्वागत के लिए उपस्थित थे। दुकानें वैसी ही थीं।...तो क्या यह सीधे माधवनगर चली चले? इसी पसोपेश में वह रिक्शे पर बैठ गई। ‘किसी होटल में चलेंगे, समझे।’ कहकर वह चुप हो गई।

    ...दोपहर बीत गई थी। होटल की छत पर धूप में एक दरी बिछाकर वह लेटी हुई थी। धूप माथे पर कुछ तीख़ी लगने लगी तो उसने नौकर से कहकर एक खाट खड़ी कर ली। ऊपर आसमान में काफ़ी ऊँचाई पर चीलों के गिरोह भाँवरे ले रहे थे। गहरे नीले आकाश में सफ़ेद बादलों के चकत्ते पैबंद की तरह कहीं-कहीं उभरते और फिर गुम हो जाते। फिर सहसा आकाश की अथाह गहराई में से कहीं एक सफ़ेद टुकड़ा प्रकट हो जाता और हवा के इशारे पर झलमलाता हुआ सरकने लगता...

    ‘बेकार है तेरा यहाँ आना। तेरे मन में तो कुछ भी नहीं है सुमित!’ वह बार-बार अपने से कहती। और फिर वह कैसे मिलेगी? क्या कहेगी कि वह क्यों आई है क्या वह संयत रह सकेगी? जो भी हो, वह पूछेगी,... सोम की छाती पर मुक्के मार-मार कर पूछेगी, ‘तुमने ऐसा क्यों किया? तुमने मुझे ऐसा क्यों बना दिया? तुम मुझे क्यों नहीं छोड़ते?’ और सोम? उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे।

    लेकिन जो भी हो, वह मिलेगी ज़रूर। फिर? फिर क्या? अब और क्या शेष रह गया था। इन सात वर्षों में चुप-चुप तलाक़ भी हो गया था। उस वक़्त सोम पागलख़ाने में थे। हस्ताक्षर करते वक़्त वह वहीं फूट पड़ी थी। नहीं, वह यह बिलकुल नहीं चाहती...। उसका मन होता कि वह सोम को पागलख़ाने जाकर देख आए। फिर उसने रिसर्च पूरी की। पापा ने कहा कि ‘कुछ कर ले’ तो उन्हीं की सिफ़ारिश पर उसने प्राध्यापिका का पद भी स्वीकार कर लिया। उसके दूसरे दिन उसने पापा को चिट्ठी लिखी थी, ‘पापा, मुझे अब और कुछ करने के लिए मत कहना। मैं ठीक हूँ।’ वहीं रहते हुए उसे चंद्रा से ख़बर मिली कि सोम अच्छे हो गए हैं और उन्हें नौकरी पर फिर से बहाल कर लिया गया है। उसे संतोष हुआ था और उसने सोचा था कि एक बार बिना किसी को बताए वह मेरठ चली जाए और उन्हें देख आए। लेकिन उनके ज़रा-सा भी ‘डिस्टर्ब होने की कल्पना से ही वह काँप उठती और उसका जाना रह जाता...

    इसी पसोपेश में एक दिन चंद्रा की चिट्ठी आई। लिखा था, ‘सोम ने फिर से शादी कर ली है।’ वह सन्न रह गई। सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ। उसे चंद्रा को तार दिया कि यह ख़बर कहाँ तक सच है। जवाब में चंद्रा ने लिखा कि ‘यहाँ सभी को पता है। साथ ही एक साप्ताहिक में उसने सोम और उस लड़की की तस्वीर छपी हुई देखी है। तस्वीर की कटिंग वह भेज रही है।’ तस्वीर देखकर भी उसे विश्वास नहीं हो रहा था। कई बार स्टूल पर कोने में रखी सोम की तस्वीर से वह मिलान करती और देखती रह जाती। उसकी समझ में नहीं रहा था कि वह क्या सोचे? अपने साथ कैसा व्यवहार करे। चुपचाप वह बाहर निकल आई। कुछ लड़कियाँ उसके साथ रोज़ ‘न्यू-साइट’ तक घूमने जाया करतीं थीं। उसने सभी को मना कर दिया दुनियाँ की किसी भी घटना या अघटना पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था कुछ भी संभव है यहाँ और कुछ भी असंभव है। विशेषकर जिसे अनहोना समझा जाता है वह तो घटित होकर ही रहता है। उसे लगा कि किसी ने तुम्बी लगा कर उसका रक्त चूस लिया है और एक कठपुतली की तरह निर्जीव, अनुभूतिहीन, वह चुपचाप चली जा रही है।

    होस्टल में वह काफ़ी देर से लौटी थी। कई लड़कियाँ दरवाज़े पर बैठी फुसफुसा रही थीं। और दिन होता तो वह डाँट देती, लेकिन आज कुछ नहीं बोली। उसे लग रहा था कि वह इन सबसे गई-गुज़री है। उसकी कोई अहमियत नहीं है। अंदर आकर वह लेट रही। खिड़की के बाहर अँधेरे में देखते हुए उसके भीतर एक मरोड़-सी उठने लगी। जैसे सींखचों के बाहर की हर चीज़ परार्इ हो गई हो। उसकी इच्छा हुई कि हाथ बढ़ाकर, बाहर अँधेरे में डूबी हुई सारी हरियाली और झरझराती हवा को अपने अंदर खींच ले। फिर उस रात...बेदम-सी करवटें बदलती हुई जाने किसी अनदेखे को सुनाकर वह कराहती छटपटाती रही...

    सुबह उठी तो लगा जैसे किसी पराए देश में जागी है। रात भर में ही जैसे सारा जीवन खिड़कियों को राह सरक कर गुम हो गया था। जैसे अंदर का सब कुछ निचुड़ कर बह गया था और उसका सूखा हुआ कंकाल एक मूर्ति की तरह खिड़की पर बैठा दिया गया था। हाथ-मुँह धोते वक़्त वह जाने किसी दूसरी अनहोनी का इंतिज़ार करती रही। घंटों बाथरूम के फ़र्श पर बैठी ठिठुरती रही।—‘डायनिंग हाल’ में गई तो उससे कुछ भी खाया नहीं गया। कौर मुँह में डालते ही उल्टी-सी आने लगती। छोड़कर वह उठ आई। फिर उसे महसूस हुआ कि इस कमरे में वह एक क्षण को भी नहीं रह सकती। जल्दी-जल्दी कपड़े बदल कर वह यूनिवर्सिटी चली गई। क्लास में जाते वक़्त उसे लगा जैसे सभी उसी को देख रहे हैं। उसकी पीठ पर बाँहों पर, आँखों में, भँवों में सब कुछ लिखकर टाँक दिया गया है।...

    क्लास ख़त्म होने पर उससे वहाँ नहीं रहा गया। ‘स्टाफ़रूम’ की ओर जाने के बजाय वह पैदल ही होस्टल चल पड़ी। कमरे का ध्यान आया तो उसने सोचा अब कहाँ जाए। फिर वह अपने आप ‘न्यूसाइट’ की ओर मुड़ गई। धीरे-धीरे दिन डूब गया। हल्की-सी ठंड गहरा गई। अँधेरा उठने लगा। उस अँधेरे में क्षितिज की रेखाएँ तोड़ते हुए निःशब्द पक्षी थे। बादलों के नन्हें-नन्हें छल्लों में लाल मछलियाँ थीं। कहाँ दूर ट्रेन की लयात्मक टूटती हुई आवाज़ थी। सब कुछ कितनी तेज़ी से टूट रहा था। हवा रूकती हुई-सी लग रही थी। उसके फेफड़े बेदम हो रहे थे। पूरब की ओर झील में लाल कमल मुंद रहे थे और दूर-दूर तक ऊँचे-ऊँचे टीलों, घाटियों और खेतों के बीच कँकरीले रास्तों, पगडंडियों और खाइयों में अंधकार भरता जा रहा था। वह घास में मुँह के बल लेट गई ओर फफक-फफक कर रोने लगी। सन्नाटे में उसका सिसकना साफ़-साफ़ सुनार्इ दे रहा था, जैसे बच्चा आधी रात को माँ को बिछौने पर पाकर डरता हुआ धीरे-धीरे सिसकने लगता है। उसकी मुठ्ठियों में नुची हुई घास भर गई थी और उसी तरह मुँह के बल पड़ी हुई वह जाने कब सो गई थी...

    छत पर की धूप जाने कब की सरक गई थी। साँझ हो गई थी। ‘चीला’ हवाएँ बदन चीरती हुई सरसराने लगी थीं। ठंड के कारण आसमान अजीब ढंग से सिकुड़ा हुआ लगता था। चारों और घरों और बाजों झुर्रियाँ-सी उतर रही थीं वह उठ खड़ी हुई और होटल के लड़के से रिक्शा बुलाने को कहकर, कमरे में चली गई। उसे कपड़ों का ख़याल आया। क्या पहनकर वह जाए! इतने भयावह दुख में भी वह अनुभूति उसे सुख से आर्द्र कर गई। जैसे सोम कहीं इंतिज़ार कर रहे हों। अभी भरे-भरे मन से जाकर उनसे लिपट जाना हो...रिक्शे पर चलते हुए उन सभी जगहों की धुंधली-सी तस्वीर साफ़ हो गई। लेकिन परिचय का वह स्तर बदल गया था। अभिभूत होकर डूब जाने के वे विस्मय भरे एकांत अब कहाँ थे।...सँकरी गलियों में हाथकर्घे घर्र-घर्र करते हुए चल रहे थे। जहाँ-तहाँ ढिबरियों की रौशनी या बिजली की हँसी ओढ़े शाम झिलमिला रही थी।...सड़क पर ही वह रिक्शे से उतर गई। सामने वही हापुड़-नौचंदी की चुंगी, उस ओर वही बड़ा सा फाटक और फिर हापुड़ की ओर जाती हुई अँधेरी सड़क।...उस खिड़की से यह सब दिखता था। अचानक वह सिहर गई और उसने शाल खींच कर बाँहों को ठीक से ढक लिया।...सड़क छोड़कर वह गली में गई।

    मकान के चबूतरे पर चढ़ते ही उसकी धड़कने बढ़ गईं। भीतर रौशनी झलक रही थी। सामने वाली खिड़की खुली थी। दरवाज़े पर लगी सफ़ेद ‘काल-बेल’ चमक रही थी। उसके हाथ ‘काल-बेल’ दबाने ही जा रहे थे कि अंदर से सोम के ठहाके की आवाज़ सुन पड़ी। वह सहम कर काँप गई। क्या एक बार की गहरी पहचान इंसान को कभी नहीं भूलती?...खिड़की की राह उसने देखा-सोम एक नन्हीं-सी बच्ची को उछाल रहे हैं। बच्ची रोती जा रही है और मान नहीं रही है। पत्नी फ़र्श पर बैठी हुई एक दूसरे बच्चे को कुछ खिला रही है। उसकी पीठ खिड़की की ओर थी। क्षण भर को सोम की बात भूलकर पत्नी की पीठ वह एकटक देखती रही। उसने चाहा कि एक बार उस स्त्री का मुँह देख ले। सोम का चेहरा भी दूसरी ओर था और उनके कंधे पर चीख़ती हुई बच्ची का आँसुओं से तर गोल-मटोल मुखड़ा भर दिख रहा था।

    अचानक उसे यह सब कुछ बड़ा अटपटा-सा लगा। उसने घूम कर पीछे गली में देखा। आते-जाते लोग उसे इस तरह खिड़की से झाँकती देखकर क्या सोचेंगे! वे दुबले नहीं दिख रहे थे। कंधे और भी पुष्ट और चौड़े हो गए थे। कमर मोटी लग रही थी।

    ...यही देह कभी कितनी अपनी थी, जिसने उसे इस तरह पागल बना दिया था, उसने सोचा और एक क्षण को फिर उसने देखना चाहा कि...। बच्ची खिलखिला रही थी और वे झुककर लगातार पत्नी के गालों को चूम रहे थे।...वह जल्दी से नीचे उतर आई और गली में यूँ चलने लगी जैसे यहीं कहीं रहती हो। सड़क पर आकर उसने इधर-उधर ताका। कोई रिक्शा आस-पास दिखार्इ नहीं पड़ा। चुंगी-फाटक पार करके वह आगे बढ़ गई। कुछ दूर अँधेरी सड़क पर चलने के बाद वह नौचंदी के बड़े वाले मैदान की ओर मुड़ गई। उसकी समझ में नहीं रहा था कि कहाँ जा रही है। उसे स्वयं अपने चलने की यादगार भी भूल गई थी। अचानक उसने अपने को क़ब्रगाहों के बीच में पाया। पलाश और झाऊ के झारखंडों के बीच पुरानी हुई क़ब्र उसके पाँवों के नीचे थीं।...पहली बार यहीं पर उसे शक हुआ था। ‘सूरज कुंड’ की ओर से घूमते हुए सोम और वह ठंडी रात में यहाँ आए थे। तब उसे कितना डर लगा था। और अब? ‘क्या तुम्हें डर लगता है?’ उसने ख़ुद से पूछा।

    इससे ज़्यादा डर तो उसे सोम की खिड़की पर खड़े-खड़े लगा था। कैसा डर...? चलते-चलते कभी वह एक धंसी हुई क़ब्र में हो जाती, फिर किसी दूसरी क़ब्र पर चढ़कर उसे पार करना होता। यह खड़ी हो गई और पगडंडी का अंदाज़ लगाने लगी। कुछ दूर पर एक छोटी-सी मस्जिद देखी। भीतर कोई नन्हा सा दीपक बाल गया था। हवा की सिहरन से सूखे पत्ते खड़खड़ा कर उड़ते और फिर सब शांत। पलाश और झाऊ के झारखंडों के बीच से अजीब-अजीब कलूटी, आदिम, अनदेखी आकृतियाँ उभरने लगीं।

    क्या वह ज़िंदा है, दफ़न नहीं हो गई है? क्या उसका जिस्म उसकी क़ब्रगाह नहीं? क़ब्रगाह जिसे वह सौंपना चाहती है। चाहती है कि कोई उस पर फूल चढ़ाए।...फिर भी वह नहीं सौंप पाती।...एक नर्इ बनी हुई क़ब्र पर बैठ गई। इच्छा हुई यहीं लेट जाए और कोई ऊपर से मिट्टी डाल दे। मन वितृष्णा से भर आया...कोई किसी का दुख नहीं समझ सकता। वह किसी को भी दोष नहीं देती। पापा को भी नहीं। क्या किसी के भी वश में है कि वह दूसरे को सुखी रख सके। ऐसा चाहा जा सकता है, लेकिन चाहने से ही तो सभी कुछ नहीं हो जाता।...

    पिछले सात वर्षों से वही कमरा...और वही रातें। जिनमें एक पल को भी वह जगी रहना नहीं चाहती। लेकिन नींद?... आँख झपकते ही वह चिहुँक कर उठ बैठती। जैसे कोई साँस चुरा ले भागने की फ़िक्र में दरवाज़े पर घात लगाए हो। झट वह बत्ती जला देती। कहीं कुछ भी नहीं। भीतर इतनी थकान और इतना दबाव...हाथ-पैरों के जोड़ों पर त्वचा के नीचे नसों का धड़कना साफ़-साफ़ दिख पड़ता। तकिए पर कानों की राह धुकधुकी सुनते-सुनते वह ऊब जाती। करवटें बदलती...फिर बदलती...फिर...फिर। फिर नींद में सपनों के अंबार हर करवट पर किसी विराट सपने के भयावह खंड टूट-टूट कर जुड़ते जाते।...सुबह उठने पर वह शाम से भी ज़ियादा थकी होती। सारे बदन में केवल नसों का धड़कता जाल महसूस होता।

    बीच-बीच में कभी-कभी माँ आकर एकाध हफ़्ते के लिए रह जाती। पिछली दफ़ा उन्हें पता चल गया था। जब भी सुबह वह ‘इनो’ का गिलास माँगती, वे समझ जातीं। माँ केवल चुपचाप देखतीं और होंठ दाँतों तले दबाए चुपचाप चली जाती। वह मनाती, ‘कुछ नहीं माँ, वो नींद नहीं—आती न, इसलिए...वह लिपट जाती।

    ‘तो तू नींद की गोलियाँ क्यों नहीं रखती?’

    और किसी दिन एक साथ कई गोलियाँ खा लूँ...तो माँ?’

    माँ आँसू पोंछती हुई चौके में चली जातीं। ‘तू बस नौकरी छोड़ और चल...’ वह कहतीं। उसका मन होता, पूछे, ‘कहाँ माँ?’ लेकिन वह चुप रह जाती। युनिवर्सिटी जाने लगती तो माँ कहती,....‘देखो बेटा। देर करना।’ वे हमेशा भरभराई हुई लगतीं।

    धर्मशाले के पीछे एक छोटी-सी जगह थी। बुढ़िया को वह भाभी कहती। बर्फ़ में रखी हुई ‘बियर’ की बोतल निकालकर वह ख़ुद ही रख लेती। भाभी पकौड़े और पापड़ भून लाती। तब तक वह ‘काकटेल’ बनाती। फिर थोड़ी देर बाद आवाज़ें दूर-दूर लगने लगती। सारा माहौल, लोग, भीड़, सवारियाँ सब काफ़ी दूर-दूर लगते। अपनी आवाज़ भी जैसे काफ़ी दूर से बोली गई लगती। जल्दी लौट आने पर भी माँ समझ जाती।

    ‘माँ, पापा से मत कहना, मैं इतनी गिर गई हूँ।’ फिर माँ-बेटी दोनों फूट पड़तीं।

    ‘तू किताबें क्यों नहीं पढ़ती?’ माँ कहती

    ‘सारी किताबें मुझे चिढ़ाती है माँ। सब जगह मेरी ही बात लिखी है।’ वह खिलखिला पड़ती।

    माँ चौंक कर उसे देखती रह जाती।

    फिर माँ के चले जाने के बाद वह उसी तरह असहाय हो जाती; घंटों बिस्तर पर, फ़र्श पर या दरवाज़े की संधि पर उकडूं बैठी रहती। सूने दिन या रात के एकांत में उसे लगता कोई आवाज़ दे रहा है—‘सुमित’! वह चौंक कर चारों ओर देखती रह जाती। नहीं, यह भ्रम है। ऐसी बातों पर उसे क़तई विश्वास नहीं होता।...बारिश का होना, पहाड़ियों और खेतों में संध्या के आलोक का बुझना, रातों का ढलना या दिन की तीखी धूम के पंजे फैलाना।...सब में उसे एक भयावह छाया-सी नज़र आती। उसे फिर वही आवाज़ सुन पड़ती...‘सुमित!’ वह घूमकर चारों ओर ताकती और एक अजब-से सुख-भाव से बोल पड़ती...हूँ, ...बोलो?’

    फिर वह सन्नाटे की उसी आवाज़ का इंतिज़ार करती।

    ऐसे ही क्षणों में पैंट की जेबों में हाथ ठूँसे बसंत कभी-कभी दिख जाता। बहुधा क्लास से लौटते वक़्त वह स्टाफ़ रूम की खिड़की पर आकर खड़ा हो जाता...‘मिस शर्मा’। जैसे नींद-सी टूटती। वह कुर्सी घुमाकर उसे देखती रह जाती, ‘आ जाइए अंदर।’

    ‘क्लास है।’ वह खिड़की के छड़ पकड़े मुस्कुरा पड़ता। उसकी नाक, होंठ और चिबुक खिड़की के भीतर जाते। वह थोड़ी देर तक खड़ा रहता, फिर चला जाता।

    उस दिन सारी रात उसने निश्चय किया था। डर लगा रहता था कि कहीं नशे में तो वह ऐसा नहीं सोच रही है। सुबह मीटिंग थी। मीटिंग ख़त्म होने के बाद उसने बसंत को आवाज़ दी। पहले उसके हाथ उठे, फिर वह पीछे हाथ बाँधे आकर मुस्कुराता हुआ खड़ा हो गया। फिर बोला, ‘आज आप ख़ुश दिख रही हैं।’

    ‘चलिए, थोड़ा घूम आएँ।’ उसने बात को बदलते हुए कहा।

    सड़क छोड़कर वे ऊँचे-नीचे रास्ते पर हो लिए। टीले पर चढ़ते वक़्त एकाध जगह बसंत ने हाथ बढ़ाना चाहा तो उसने ऐसे जताया जैसे देख नहीं रही हो। एक जगह कुछ चौड़ी सी खाई थी बसंत फिर अपना हाथ बढ़ाकर खड़ा हो गया। एक पल के बाद उसने हाथ पकड़ लिया और खाई पार कर गई। एक ऊँचे टीले पर चढ़कर वे बैठ गए। सूर्य डूब रहा था। बसंत का चेहरा सूर्य के लालिम रंग में भींजकर एकदम सुर्ख़ हो रहा था।...एकाएक फिर जाने कैसे उसे सोम का चेहरा याद आया।...क्यों ऐसा है? क्यों? किसी भी एकांत में सोम की मुद्राएँ घिर आती हैं? उसने सिर झटक लिया...सुमित प्लीज़!’ उसने मन-ही-मन कहा, ‘ठीक है...बाद में जो भी कह लेना।’...उसकी आँखों में आँसू गए। बसंत से छिपाने के लिए मुँह दूसरी ओर फेर लिया। उसकी इच्छा हुई कि उठ चलने को कहे। सब बेकार है।

    ‘ठंड काफ़ी है।’ बसंत ने तभी कहा। उसकी दोनों बाँहें ऊपर आसमान की ओर उठी हुई थीं।

    ‘आपने पुलोवर नहीं पहना।’ उसने कहा।

    ‘मैं अपने लिए नहीं कह रहा।’ बसंत ने कहा।

    फिर दोनों चुप हो गए। बसंत रह-रह के कोई पत्थर उठाता और नीचे खाई की ओर लुढ़का देता। कभी लड़-खड़ाते हुए पत्थर की आवाज़ सुनाई पड़ती, कभी नहीं।

    एकाएक उसने करवट घूम कर अपनी एक बाँह बढ़ाकर सम्पूर्ण रूप से उसे खींच लिया। वह शायद उठकर चलना चाह रही थी। उस अप्रत्याशित से कुछ भी समझ नहीं पार्इ। बसंत ने और भी ज़ोर से चिपटाते हुए कहा, ‘आप उन्हें बहुत चाहती हैं न?’

    कुछ जवाब देते नहीं बना उससे। सोम! एक अकेला व्यक्ति...उसकी सारी प्रकृति, सम्पूर्ण मन, देह और आत्मा में बिछा हुआ। क्या अधिकार है? किसी को भी क्या अधिकार है कि वह अपनी आत्मा को इतना निरीह बना दे? वह कहना चाहती थी, ना, मैं उस शख़्स से बेहद नफ़रत करती हूँ। ना, मैं स्वतंत्र हूँ। मैं बिलकुल अकेली हूँ...अकेली बन के दिखा सकती हूँ। मुझे तुम कहीं भी ले चलो...मैं,’ लेकिन उसके मुँह से कुछ भी नहीं निकला।

    ‘कितनी बड़ी बात है यह।’ बसंत ने कहा।

    ‘कितनी बड़ी बात है! ना बसंत’, उसने कहना चाहा, ‘यह एक भयानक मौत है जिसे तिल-तिल महसूस करना होता है। कोई मुझसे पूछे कि ‘तुम्हारी उम्र ज्योतिष के अनुसार कितने वर्ष है?’ तो मैं उससे पूछने को कहूँगी ‘तुम्हारी मौत ज्योतिष के अनुसार अभी कितने वर्षों तक चलेगी।’ बसंत, मैं कुछ नहीं चाहती। नहीं चाहती यह पतिव्रव्य और प्रेम का बड़प्पन। मैं पाप करना चाहती हूँ। मैं गिरना चाहती हूँ। मैं सीता, सावित्री, दमयन्ती, राधा...कुछ नहीं बनना चाहती...मैं जानती हूँ कि मैं पुण्यात्मा नहीं हूँ। दुख पाना कोई पुण्य-कर्म नहीं है।’ लेकिन, वह एकदम चुप थी।

    ‘कितना अजीब है यह संसार!’ बसंत ने उसी तरह कहा, ‘जो एक बार सुख से सज़ा देता है वह अपना दिया वापस नहीं ले जाता। यूँ कहें कि नहीं ले जा पाता। उसे लौटाने का अधिकार दाता को नहीं रह जाता। और फिर उस सुख की बाढ़ में हम आजीवन ऊभ-चूभ होते रहते हैं। फिर क्या होता है? फिर शायद कुछ नहीं हो पाता। कुछ सुख होते ही ऐसे हैं जो हमें सदा के लिए पागल कर देते हैं...’ आगे वह खो-सा गया।

    एकाएक उसके भीतर कोई चीज़ लड़खड़ाने लगी। उसने एक झटके से अपने को अलग कर लिया और खड़ी हो गई। यह हो क्या गया? यह उसने क्या कर दिया? उसकी इच्छा हुई कि ख़ूब ज़ोर से चीख़े— ‘नहीं, सोम...नहीं।’ भरभरा कर आँसू निकल आए। बसंत भी उठकर खड़ा हो गया। धीरे-से उसने उसकी बाँह छुई—’क्या हुआ मिस’... आप यहाँ से जाइए। मुझे छोड़ दीजिए...जाइए।’ उसने बाँह झटक दी जैसे वहाँ बिच्छू ने डंक मार दिया हो।

    बसंत ने एक बार कहना चाहा। तभी उसने आँखें उठाईं। फिर वह कुछ नहीं बोला। उसके हाथ वैसे ही पीछे बँधे हुए थे जैसे अपनी अंगुलियों की जकड़ छिपा लेना चाहता हो।

    बग़ल की झाड़ी में हल्की-सी खड़खड़ाहट हुई। वह चौंक गई। हवा के झोंके में पत्तियाँ ज़मीन पर घिसट रही थी वह उठ खड़ी हुई। झाड़ियों के बीच से रास्ता बनाती हुई वह नौचन्दी के बड़े वाले मैदान में निकल आई। बड़े-बड़े टिन के ‘शेड्स’ में अँधेरा और भी घना हो रहा था।...चलती हुई, बड़े फाटक से निकल कर वह फिर सड़क पर गई। सोम का मकान वहाँ से दिख रहा था। पीछे वाली खिड़की खुली थी और रौशनी के दायरे में कोई नारी-मूर्ति बालों में कंघी कर रही।...फिर खिड़की बंद हो गई। रिक्शों को ताकती वह आगे बढ़ रही थी अभी उसने देखा-दरवाज़ा खुल गया है और वही नारी-मूर्ति एक बच्चे को उँगली पकड़ाए सड़क की ओर चली रही है। वह जहाँ-की-तहाँ खड़ी रह गई। स्त्री ने सड़क पर आकर एक बार पीछे की ओर देखा, फिर बच्चे को उठा लिया। सारे साज-सिंगार के बावजूद वह विशेष सुंदर नहीं लग रही थी। फिर भी देह भरी-पूरी थी और चेहरा भावहीन था। तुलना में उसने अपने को एक बार परखने की कोशिश की तो लगा कि उसका चेहरा अँवरा गया है, आँखें धंस गई हैं। सारी देह का रक्त-माँस सूख गया है और कपड़ों के भीतर वह किसी तरह अपने कंकाल को छिपाए, लड़खड़ाती हुई चल रही है।

    तभी दरवाज़े के बाहर सोम का लंबा-तगड़ा शरीर प्रकट हुआ। एक ओर हटकर वह चुपचाप उन्हें सड़क की ओर आते देखती रही। दो-चार क़दम चलकर वे खड़े हो गए ओर सिगार सुलगाने लगे। कश खींचते ही सिगार को आँच में उनका चेहरा दमक कर फिर अँधरे में ओझल हो गया।

    होटल लौटकर वह बिना खाए-पिए बिस्तर पर पड़ गई थी।

    गहरी नींद में उसे लगा, कोई उसके हाथ की उँगलियाँ जीभ से चाट रहा है। उसकी एक बाँह लिहाफ़ के बाहर पड़ी-पड़ी एकदम सर्द हो गई थी। सिहर कर वह जग गई।...अँधेरे में कहीं कोई आहट नहीं लगी। उसने बेड़-स्विच जला दिया। कमरा ठंड से सिकुड़ कर जैसे और भी छोटा लग रहा था।...एक कोने में गर्द से भरी एक चूहेदानी रखी हुई थी। लगता था महीनों पहले किसी मुसाफ़िर की शिकायत पर होटल मैनेजर ने चूहेदानी रखवाई होगी। होटल की ख़स्ता हालत और ज़िंदगी से यह ज़ाहिर था कि किसी ने चूहेदानी को फिर से हटाने का कष्ट नहीं उठाया था।...उसने देखा-एक चूहिया महीनों पहले, शायद चूहेदानी में फँस गई थी। उसक शरीर एकदम सूखकर काँटा हो गया था। चूहेदानी की सींखचों पर अपने अगले दो पैरों को रखकर थूथने को बाहर निकालते हुए उसने निकलने की बहुत कोशिश की होगी, लेकिन उसी मुद्रा में लड़ते-लड़ते वह सूख गई।...चूहेदानी के बाहर एक बड़ा-सा चूहा सशंक नेत्रों से कभी उसकी ओर देखता और कभी अपने दोनों अगले पाँव ऊपर उठाकर अपने थूथन से चुहिया का थूथन हिलाता...

    उसने मुँह फेर लिया और बत्ती बुझा दी। करवट बदलते वक़्त तख़्त पर, बावजूद बिस्तर के, कूल्हे की हड्डियाँ गड़ रही थीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1960-1970) (पृष्ठ 27)
    • संपादक : केवल गोस्वामी
    • रचनाकार : दूधनाथ सिंह
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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