गाड़ी चल पड़ी तो उसका मन हुआ प्लेटफ़ार्म पर रूमाल हिलाते बसंत को बुला ले। उसके अगल-बग़ल मुसाफ़िरों और विदा देने वालों का झुंड निकलता जा रहा था और वह भीड़ से बचता हुआ लगातार अपना रूमाल हिलाता जा रहा था। यहाँ तक तो उसकी ज़िद चल गई थी लेकिन इसके बाद सुमिता ने कहा था कि वह उसे साथ नहीं ले जा सकेगी। स्वर में कुछ ऐसा खिंचाव था कि बसंत अपना सामान ‘क्लोक रूम’ में ही छोड़ आया था। फिर गाड़ी जब तक नहीं चली, वह खिड़की के सींखचों से सिर टिकाए चुपचाप खड़ा रहा। सुमिता कभी उसकी ओर देख लेती, फिर मुँह फेर कर दूसरी ओर बाहर देखने लगती। बसंत की नाक, उसके होंठ और चिबुक खिड़की से भीतर हो आए थे। खिड़की पर इस तरह खड़े होने की उसकी पुरानी आदत थी। उससे पता नहीं कैसा-कैसा होने लगता था सुमिता के मन में। वह कहता, ‘मिस शर्मा!’
‘आ जाइए अंदर।’
‘नहीं, मैं जल्दी में हूँ। बस यूँही चला आया था।’
और वह तेज़ क़दमों से चला जाता।
अब वह कहाँ होगा। शायद सामान उठाकर किसी होटल में चला गया होगा। लौटने के लिए तो उसे कल सुबह एक दूसरी गाड़ी का इंतिज़ार करना होगा। कल सुबह तक वह कहाँ होगी? मेरठ। फिर?... उसने चाहा कि नींद आ जाए और सुबह उठने पर सोम उसे स्टेशन पर खड़े मिल जाएँ। कैसे वे मिलेंगे? क्या उन्हें कोई ख़बर है? और ख़बर होती भी तो भी क्या वे स्टेशन आते? तब वह क्यों जा रही हैं?...
वह खिड़की से बाहर देखने लगी। खिड़की से बाहर अधर में सिर झुकाए बसंत जैसे कहीं चला जा रहा हो...। भागती हुई रेल से बाहर दिखने वाले तार क्षितिज पर खिंची हुई पतली सफ़ेद लकीरों की तरह लगते थे। हल्के नीले रंग वाला आकाश, पेड़, मैदान, पगडंडियाँ, बग़ीचे, गाँव, अँधेरे में टिम-टिमाती रोशनियाँ-सब पनियाले कोहरे में डूबे हुए-से। भागती हुई ट्रेन के साथ कोहरे की पट्टी भी जैसे दौड़ रही थी। कोहरे के बीच से कहीं पेड़ों की फुनगियाँ तो दिख जाती लेकिन बीच का भाग घनी पट्टी के बीच ढका रहता। जैसे पेड़ का ऊपरी हिस्सा हवा में निराधार टँगा हो। यही दृश्य लगातार चलता जाता...। फिर रात का सन्नाटा, छूटते हुए स्टेशन, कुलियों और मुसाफ़िरों का शोर, और फिर कोहरे में डूबा इंजन का सोला-सा खाँसता-सा स्वर...।
उसने खिड़की से सिर टिकाकर आँखें मूँद लीं। भीतर कहीं एक आकृति उभरी। लगता बसंत है। उसके होंठ सींखचों के भीतर बिलकुल उसके गालों से सटे हैं। ठंड के कारण उसकी गर्म साँसों की भाप रह-रह कर उसके चेहरे पर फैल रही है। उसकी बरूनियाँ गालों को सहला रही हैं और वह दोनों बाँहों से खिड़की के सींखचों के साथ ही उसे जकड़े हुए टँगा हुआ चला आ रहा है। बाँहों की जकड़ ढीली हुई नहीं कि वह चलती हुई रेल से नीचे...।
सोम की बाँहें भी तो इसी तरह उठती थीं। बिस्तर पर लेटे-लेटे वे दोनों बाँहें उठा देते। वह लजाती-लजाती उनमें ढल जाती। कई बार वह भागने को हुई तो उसने पाया कि वे बाँहें उसे घेरे हुए हैं। लेकिन बसंत? उसकी बाँहें? उसने उस आवाहन का प्रत्युत्तर कभी नहीं दिया। बसंत की बाँहें उठतीं और फिर नीचे गिर जातीं। शर्म से वह इधर-उधर देखने लगता और हाथ पीछे बाँधे जैसे वह अपनी उँगलियों की जकड़ छिपा लेना चाहता हो।...उसकी अंतरंग आँखों के सामने एक धुंधली-सी तस्वीर थी वहाँ सोम का चेहरा था—वही एकदम मासूम, अनुभवहीन और शांत सा। साथ ही लंबी बाँहों के घेरे, कुछ मोटे होंठ और छोटी-सी चिबुक जो सारे चेहरे को अतिरिक्त कोमलता से भर देती थी। माँ ने पहली बार देखकर कहा था, ‘यह तो कोई नार्सिसस लगता है।’ पहली बार वे देखने आए थे और ख़ुद आँखें झुकाए बैठे रहे।...कितनी सच निकली यह अनुभूति कि यह व्यक्ति जिस किसी को भी एक बार अपनी बाँहों में समेट लेगा, उसे कितना गहरा सुख...नहीं दुख, यातना, अभाव की परिक्रमा, व्यर्थ में धरती की परिक्रमा। क्या कहे वह? कुछ नहीं कह सकती। समय जैसे सारे निर्णयों को डुबो ले गया है।
शादी के दूसरे दिन सुबह उसने चंद्रा से ख़ूब घुलकर बताई थी बातें। एक-एक घड़ी का विवरण उसने दिया था। एक-एक पल का। आँखों की एक-एक झपक का। उसने कहा था, ‘सिर्फ़ पागल हो जाना शेष है। मुझे लगता है मैं हो जाऊँगी। इतना सब कैसे सँभलेगा! तुम्हीं बताओ चंद्रा। तुम जो पहेली बुझाती थीं, वह मैं समझ गई हूँ ‘दोनों सहेलियाँ एक दूसरे को जकड़े लेटी रही। थोड़ी देर बाद चंद्रा ने कहा था, ‘ऐसे भाग सबके नहीं होते...। रानी तुम ख़ुशनसीब हो...लेकिन हमें भूल न जइयो।’... ज़रूर भूल जाऊँगी...मैं दुनिया-जहान भूल जाऊँगी’... वे दोनों खिलखिलाकर हँसी तो माँ आ गईं थी।...रात भर में वह सिरस के फूल की तरह हल्की हो गई थी। एक अनुभव गृहिणी की भाँति दिन भर वह माँ भाभियों के बीच डोलती हुई बात-बात में दख़ल देती रही।
‘एक ही रात का यह असर! रानी जी, अब अरविंद की ‘डिवाइन लाइफ़’ नहीं रटोगी?’ बड़ी भाभी ने कहा था।
‘तुम हटो भाभी! मैं ख़ुद ही ‘डिवाइन लाइफ़’ हो गई हूँ।
तब तक उसने माँ को देखा। उसकी भेद-भरी मुस्कान लक्ष्य कर उसने रूठने का अभिनय किया तो सभी ठहाके लगाकर हँस पड़े थे। वह भाग कर अपने कमरे में चली गई थी।
ससुराल में फूलों की सेज। तह-पर-तह सारे तन-मन में ख़ुश्बू...जैसे सारी ज़िंदगी में सुहागरातें। उसने खिड़की के बाहर झाँककर देखा था। इलाहाबाद की तुलना में मेरठ उसे एक मामूली सा क़स्बा लगा था। स्टेशन में माधवनगर तक आते हुए सड़कों के तंग और सँकरे घुमाव, दुकानों पर जलती हुई तेल की ढ़िबरियाँ या गैसबत्तियाँ, रास्ते में कहीं बिजली और कहीं तेल के पुराने लैम्पपोस्टों के बीच अँधेरे-उजाले के कई-कई रंग। उसे सभी कुछ बड़ा प्यारा, शांत निरीह-सा लगा था। रात हुई तो चुपके से वह एक बार छत पर गई। छत से दूर-दूर तक घने, सान्द्र पपीतों के बाग़ और उनके बीच से गुज़रती हुई काली, अँधेरी सड़क। पश्चिम की ओर चुंगी-फाटक के पास ही एक बड़ा-सा ईंटों का दरवाज़ा और उसी से लगा हुआ, टुटी फूटी, पुरानी-नई क़ब्रों से इंच-इंच भरा क़ब्रगाह...वह चुपचाप नीचे उतर आई। खिड़की से टिककर बाहर देखने लगी। क़ब्रगाह पर धीरे-धीरे चाँदनी फैलती और बादलों के पर्दे में गुम हो जाती...
और इसी तरह तीन दिन और तीन रातें। बसंत पहले बहुत पूछता था, ‘इतने कम समय में ऐसा क्या मिल गया जो...।’ अब नहीं पूछता।...ऊपर से नीचे तक सुख-भार से लदी, बेहोश वह कमी अपने बाहर ताकती, कमी आपने भीतर। सारी दुनिया का अस्तित्व जैसे समाप्त हो गया था। चारों ओर ख़ाली सन्नाटा और एकांत, और उस एकांत में केवल दो प्राणी। कोई रहस्यमय, अर्थों से परे गीत का आलाप गुनगुनाते हुए। अब तो उसकी अनाम छाया भर है। वही उसे रोकती है। कातर या सबल बनाती है। अब वह स्वयं नहीं जान पाती। चंद्रा से कही गई वह बात कितनी सच निकली...‘अब केवल पागल भर होना शेष बच रहा है।’ लेकिन क्या सच में उन्हीं अर्थों में? कुल तीन दिन ही तो बीते थे। वही दिन, जिनमें उसे लगा था कि वह कई कल्पों से इसी तरह सुख में बेहोश, अजर-अमर जीती चली आई है। वे ही तीन दिन, जिन्होंने उसे यह यंत्रणा भोगने के लिए सचमुच अमर कर दिया।
...खिड़की से लगी, बाहर की ओर ताकती वह दरवाज़े से आते हुए सोम की आहट ले रही थी। बाहर क़ब्रगाह पर नीम की पत्तियाँ झर रही थीं और बीच-बीच के पक्षियों का झुंड चहचहा कर चुप हो जाता। जैसे घोंसले में जगह की कमी है। सभी को नींद आ रही है, कोई किसी को ठेलठूल देता है तो नींद टूटने के कारण वह झल्लाकर कुछ कहता है। फिर तू-तू, मैं-मैं होती है और फिर सब शांत। बचपन में वे सब भाई-बहन इसी तरह करते थे... तब माँ आ जाती थीं...उसे याद आया...तभी उसे आहट से जाना कि सोम आकर उसके पीछे पलँग पर बैठ गए है अब वे अपनी बाँहें फैलाएँगे। अब! अब...। उसने इंतिज़ार नहीं हो सका। वह पीठ के बल ही उनकी गोदी में लुढ़क गई। आँखें मूँद लीं और इंतिज़ार करने लगी।
‘मुझे ठंड लग रही है,’ उसने कहा।
एक पल बाद, कोई जवाब न पाकर, उसने आँखें उठाकर देखा। एकदम चौंक कर उठ बैठी; सोम का चेहरा तमतमाया हुआ था। आँखें सुलग रही थीं। नथुने फड़क रहे थे और होंठों के कोनों में हल्की सी झाग निकल आई थी। वे इस तरह बाहर की ओर देख रहे थे जैसे कुछ सुना ही न हो।
‘क्या हुआ, किसी से लड़कर आए हो क्या?’ उसने उसका चेहरा पकड़ कर घुमा दिया।
उन्होंने एक बार घूर कर देखा और एक धक्के से उठाकर अलग कर दिया। धक्का इतने ज़ोर से दिया गया था कि वह बिस्तर पर लुढ़क-सी गई। फिर भी वह कुछ नहीं बोली, उठकर बैठ गई। फिर उसने लिहाफ़ खींचकर अपने पैरों पर डाल लिया। फिर एकाएक उससे रहा नहीं गया। बाँहों में चेहरा ढककर वह फफक पड़ी।
‘क्यों, क्यों, क्यों? आख़िर क्यों?’ उन्होंने उसकी बाँह ज़ोर से पकड़ ली।
वह चुप उन्हें देखती रही।
‘तुम औरत हो न?’
‘...’
‘यह सब कहाँ से आता है? तुम जानती हो? नहीं जानती?’
‘...’
‘क्या हो रहा है? यह सब नहीं चलेगा, समझी! ओफ़ोफ़।’ उन्होंने एक धड़ाके के साथ खिड़की बंद कर दी। फिर न जाने क्या समझ कर खोल दी। फिर सारी खिड़कियाँ खोल दीं। दरवाज़े खोल दिए। कुछेक पल खिड़की की छड़ पकड़े बाहर क़ब्रगाह की ओर ताकते रहे। फिर पास आकर बोले, ‘जानती हो, मतलब? बोलो? ज़रूर जानती हो। क्यों नहीं जानती? क्यों, क्यों, क्यों?’ उन्होंने उसकी बाँह पकड़कर उठाना चाहा। फिर भी उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले।
‘मैं जानता हूँ, मैं’, उन्होंने अपनी छाती ठोंकते हुए कहा, ‘दुनिया की जितनी बद-चलन औरतें हैं, वे अपने पतियों को उतना ज़्यादा प्यार करती हैं। जिसकी यारी जितनी गहरी होगी, पति के लिए उसके प्यार का नाटक उतना ही गहरा और सफल होगा। मैं सच नहीं बोल रहा हूँ? मैं सब जानता हूँ। पता नहीं चलता, इतना फ़रेब इतना नाटक, इतना पाप इस नन्हे-से जिस्म में कहाँ समाता है...। बोलो? मैं समझता हूँ।’
बाँहें छोड़कर वे धम्म से पलँग पर बैठ गए।
उसने सोचा, अब वे शांत हो गए। समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा था। ‘मैं देखूँगा।’ वे सहसा तन कर खड़े हो गए। ‘कहाँ जज्च करती हो तुम लोग?’ उन्होंने उसे पकड़ कर पहले उठाया और फिर पलँग पर पटक दिया। वह टुकुर-टुकर उनका मुँह देखती रही। साड़ी उन्होंने खींचकर अलग कर दी। ब्लाउज़ के बटन एक झटाके से चटचटा कर खुल गए।
‘यहाँ?’...उसने कुछ नहीं कहा। उसके पेट और वक्षस्थल पर खरोंचों से ख़ून छलछला आया। ‘हटाओ हाथा...यहाँ...यहाँ?’ उन्होंने जगह-जगह बकोटना शुरू किया।...‘यहाँ’...तड़ाक-तड़ाक उसके दोनों गालों पर तीन-चार तमाचे जड़ दिए। ‘बोलो? नहीं बोलोगी?’ उसने तकिए में अपना मुँह गड़ा लिया। ‘नहीं बोलोगी? देने आई बिल शो यू...लेट मी हैव माइ पिस्टल।’ उन्होंने आल्मारी की ओर देखा, ‘नो, इट्स नाट हीयर’...वे कमरे से बाहर निकल गए।
वह चुपचाप उठकर दूसरे दरवाज़े से नीचे आई और सास को जगा दिया। दौड़-धूप शुरू हुई। दो आदमियों ने पकड़ कर उन्हें ज़बरदस्ती लिटाया। डॉक्टर आया। फिर थोड़ी ही देर बाद सोम के चेहरे पर वही शांत निरीह भाव लौट आया। जैसे वे बहुत थक गए हों और सोना चाहते हों। सब लोग डॉक्टर के साथ बाहर जाने लगे तो सास ने उसे चलने के लिए इशारा किया। उसने कह दिया कि वह थोड़ी देर में आएगी। फिर वह सोम के सिरहाने आकर चुपचाप बैठ गई और उनके बालों में उँगलियाँ फेरने लगी। फिर जैसे एक कोहरा-सा छंटने लगा और आँखों से मौन आँसू की लड़ियाँ बँध गईं। अब क्या होगा? क्या होगा अब? तभी उसने सुना डाक्टर बरामदे में कह रहा था, ‘मिस्टर गौड़! दि एक्सपेरीमेंट हैज़ बीन टोटली अनसक्सेफ़ुल।’ उस एक क्षण में ही वह जड़ हो गई। उसके हाथ जहाँ के तहाँ रूक गए। ‘एक्सपेरीमेंट!’ लगा कि वह चीख़ पड़ेगी। ‘एक्सपेरीमेंट’।...सोम के माथे को हल्का-सा झटका देकर वह उठ आई। उसका मन हुआ कि सोम का पिस्तौल उठाकर वह बाहर खड़े सभी लोगों को एक-एक करके गोली मार दे। उसने सोचा कि बस, इसी क्षण, चल देगी। चाहे रात उसे किसी होटल में बितानी पड़े या कहीं और। उसने घूमकर देखा-सोम की दोनों बाँहें उसकी ओर उठी हुई थीं। आँखों से दो बूँद दोनों तरफ़ गालों पर बह आई थीं और वे एक असहाय बच्चे की तरह उसकी ओर देख रहे थे। उसके भीतर से उमड़-उमड़ कर कुछ अटकने सा लगा। उसकी इच्छा हुई कि धरती फट जाए और वह समा जाए। भूचाल आए, या कुछ भी हो सोम उसे गोली ही मार दें। वह चुपचाप दाँतों से होठों को दबाए कमरे से बाहर निकल आई।
सीढ़ियाँ उतरते हुए उसने एक बार पीछे घूमकर देखा था। वह सोच नहीं सकी थी कि सोम अगर दरवाज़ा पकड़े, खड़े-खड़े उसकी ओर देख रहे होंगे तो वह क्या करेगी।...लेकिन वहाँ कोई नहीं था...। अंदर शायद फिर उन्हें दौरा आ गया था। कुछ लोग उन्हें पकड़े हुए थे। उनकी चीख़ सारे बँगले में गूँज रही थी—‘साली, कुतिया...कमीनी...थूः।’
खिड़की से टिके-टिके, जाने कब उसे नींद आ गई थी। हड़बडाकर जब वह उठी तो पाया कि सुबह हो गई है और गाड़ी मेरठ पहुँचने वाली है।...स्टेशन पर उतरते ही वह सिहर गई। वही छोटा-सा स्टेशन था। बिलकुल वैसा ही। कहीं कोई परिवर्तन नहीं। ‘यही शहर है जहाँ वह अपने को दफ़न कर गई थी।’ उसने सोचा और कुली से सामान उठवाकर स्टेशन के बाहर आ गई। यहीं उस बार उसकी सास खड़ी थीं। और साथ ही कितने अजनबी लोग, जो उसे देखने और स्वागत के लिए उपस्थित थे। दुकानें वैसी ही थीं।...तो क्या यह सीधे माधवनगर चली चले? इसी पसोपेश में वह रिक्शे पर बैठ गई। ‘किसी होटल में चलेंगे, समझे।’ कहकर वह चुप हो गई।
...दोपहर बीत गई थी। होटल की छत पर धूप में एक दरी बिछाकर वह लेटी हुई थी। धूप माथे पर कुछ तीख़ी लगने लगी तो उसने नौकर से कहकर एक खाट खड़ी कर ली। ऊपर आसमान में काफ़ी ऊँचाई पर चीलों के गिरोह भाँवरे ले रहे थे। गहरे नीले आकाश में सफ़ेद बादलों के चकत्ते पैबंद की तरह कहीं-कहीं उभरते और फिर गुम हो जाते। फिर सहसा आकाश की अथाह गहराई में से कहीं एक सफ़ेद टुकड़ा प्रकट हो जाता और हवा के इशारे पर झलमलाता हुआ सरकने लगता...
‘बेकार है तेरा यहाँ आना। तेरे मन में तो कुछ भी नहीं है सुमित!’ वह बार-बार अपने से कहती। और फिर वह कैसे मिलेगी? क्या कहेगी कि वह क्यों आई है क्या वह संयत रह सकेगी? जो भी हो, वह पूछेगी,... सोम की छाती पर मुक्के मार-मार कर पूछेगी, ‘तुमने ऐसा क्यों किया? तुमने मुझे ऐसा क्यों बना दिया? तुम मुझे क्यों नहीं छोड़ते?’ और सोम? उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे।
लेकिन जो भी हो, वह मिलेगी ज़रूर। फिर? फिर क्या? अब और क्या शेष रह गया था। इन सात वर्षों में चुप-चुप तलाक़ भी हो गया था। उस वक़्त सोम पागलख़ाने में थे। हस्ताक्षर करते वक़्त वह वहीं फूट पड़ी थी। नहीं, वह यह बिलकुल नहीं चाहती...। उसका मन होता कि वह सोम को पागलख़ाने जाकर देख आए। फिर उसने रिसर्च पूरी की। पापा ने कहा कि ‘कुछ कर ले’ तो उन्हीं की सिफ़ारिश पर उसने प्राध्यापिका का पद भी स्वीकार कर लिया। उसके दूसरे दिन उसने पापा को चिट्ठी लिखी थी, ‘पापा, मुझे अब और कुछ करने के लिए मत कहना। मैं ठीक हूँ।’ वहीं रहते हुए उसे चंद्रा से ख़बर मिली कि सोम अच्छे हो गए हैं और उन्हें नौकरी पर फिर से बहाल कर लिया गया है। उसे संतोष हुआ था और उसने सोचा था कि एक बार बिना किसी को बताए वह मेरठ चली जाए और उन्हें देख आए। लेकिन उनके ज़रा-सा भी ‘डिस्टर्ब होने की कल्पना से ही वह काँप उठती और उसका जाना रह जाता...
इसी पसोपेश में एक दिन चंद्रा की चिट्ठी आई। लिखा था, ‘सोम ने फिर से शादी कर ली है।’ वह सन्न रह गई। सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ। उसे चंद्रा को तार दिया कि यह ख़बर कहाँ तक सच है। जवाब में चंद्रा ने लिखा कि ‘यहाँ सभी को पता है। साथ ही एक साप्ताहिक में उसने सोम और उस लड़की की तस्वीर छपी हुई देखी है। तस्वीर की कटिंग वह भेज रही है।’ तस्वीर देखकर भी उसे विश्वास नहीं हो रहा था। कई बार स्टूल पर कोने में रखी सोम की तस्वीर से वह मिलान करती और देखती रह जाती। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या सोचे? अपने साथ कैसा व्यवहार करे। चुपचाप वह बाहर निकल आई। कुछ लड़कियाँ उसके साथ रोज़ ‘न्यू-साइट’ तक घूमने जाया करतीं थीं। उसने सभी को मना कर दिया दुनियाँ की किसी भी घटना या अघटना पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था कुछ भी संभव है यहाँ और कुछ भी असंभव है। विशेषकर जिसे अनहोना समझा जाता है वह तो घटित होकर ही रहता है। उसे लगा कि किसी ने तुम्बी लगा कर उसका रक्त चूस लिया है और एक कठपुतली की तरह निर्जीव, अनुभूतिहीन, वह चुपचाप चली जा रही है।
होस्टल में वह काफ़ी देर से लौटी थी। कई लड़कियाँ दरवाज़े पर बैठी फुसफुसा रही थीं। और दिन होता तो वह डाँट देती, लेकिन आज कुछ नहीं बोली। उसे लग रहा था कि वह इन सबसे गई-गुज़री है। उसकी कोई अहमियत नहीं है। अंदर आकर वह लेट रही। खिड़की के बाहर अँधेरे में देखते हुए उसके भीतर एक मरोड़-सी उठने लगी। जैसे सींखचों के बाहर की हर चीज़ परार्इ हो गई हो। उसकी इच्छा हुई कि हाथ बढ़ाकर, बाहर अँधेरे में डूबी हुई सारी हरियाली और झरझराती हवा को अपने अंदर खींच ले। फिर उस रात...बेदम-सी करवटें बदलती हुई न जाने किसी अनदेखे को सुनाकर वह कराहती छटपटाती रही...
सुबह उठी तो लगा जैसे किसी पराए देश में जागी है। रात भर में ही जैसे सारा जीवन खिड़कियों को राह सरक कर गुम हो गया था। जैसे अंदर का सब कुछ निचुड़ कर बह गया था और उसका सूखा हुआ कंकाल एक मूर्ति की तरह खिड़की पर बैठा दिया गया था। हाथ-मुँह धोते वक़्त वह न जाने किसी दूसरी अनहोनी का इंतिज़ार करती रही। घंटों बाथरूम के फ़र्श पर बैठी ठिठुरती रही।—‘डायनिंग हाल’ में गई तो उससे कुछ भी खाया नहीं गया। कौर मुँह में डालते ही उल्टी-सी आने लगती। छोड़कर वह उठ आई। फिर उसे महसूस हुआ कि इस कमरे में वह एक क्षण को भी नहीं रह सकती। जल्दी-जल्दी कपड़े बदल कर वह यूनिवर्सिटी चली गई। क्लास में जाते वक़्त उसे लगा जैसे सभी उसी को देख रहे हैं। उसकी पीठ पर बाँहों पर, आँखों में, भँवों में सब कुछ लिखकर टाँक दिया गया है।...
क्लास ख़त्म होने पर उससे वहाँ नहीं रहा गया। ‘स्टाफ़रूम’ की ओर जाने के बजाय वह पैदल ही होस्टल चल पड़ी। कमरे का ध्यान आया तो उसने सोचा अब कहाँ जाए। फिर वह अपने आप ‘न्यूसाइट’ की ओर मुड़ गई। धीरे-धीरे दिन डूब गया। हल्की-सी ठंड गहरा गई। अँधेरा उठने लगा। उस अँधेरे में क्षितिज की रेखाएँ तोड़ते हुए निःशब्द पक्षी थे। बादलों के नन्हें-नन्हें छल्लों में लाल मछलियाँ थीं। कहाँ दूर ट्रेन की लयात्मक टूटती हुई आवाज़ थी। सब कुछ कितनी तेज़ी से टूट रहा था। हवा रूकती हुई-सी लग रही थी। उसके फेफड़े बेदम हो रहे थे। पूरब की ओर झील में लाल कमल मुंद रहे थे और दूर-दूर तक ऊँचे-ऊँचे टीलों, घाटियों और खेतों के बीच कँकरीले रास्तों, पगडंडियों और खाइयों में अंधकार भरता जा रहा था। वह घास में मुँह के बल लेट गई ओर फफक-फफक कर रोने लगी। सन्नाटे में उसका सिसकना साफ़-साफ़ सुनार्इ दे रहा था, जैसे बच्चा आधी रात को माँ को बिछौने पर न पाकर डरता हुआ धीरे-धीरे सिसकने लगता है। उसकी मुठ्ठियों में नुची हुई घास भर गई थी और उसी तरह मुँह के बल पड़ी हुई वह न जाने कब सो गई थी...
छत पर की धूप न जाने कब की सरक गई थी। साँझ हो गई थी। ‘चीला’ हवाएँ बदन चीरती हुई सरसराने लगी थीं। ठंड के कारण आसमान अजीब ढंग से सिकुड़ा हुआ लगता था। चारों और घरों और बाजों झुर्रियाँ-सी उतर रही थीं वह उठ खड़ी हुई और होटल के लड़के से रिक्शा बुलाने को कहकर, कमरे में चली गई। उसे कपड़ों का ख़याल आया। क्या पहनकर वह जाए! इतने भयावह दुख में भी वह अनुभूति उसे सुख से आर्द्र कर गई। जैसे सोम कहीं इंतिज़ार कर रहे हों। अभी भरे-भरे मन से जाकर उनसे लिपट जाना हो...रिक्शे पर चलते हुए उन सभी जगहों की धुंधली-सी तस्वीर साफ़ हो गई। लेकिन परिचय का वह स्तर बदल गया था। अभिभूत होकर डूब जाने के वे विस्मय भरे एकांत अब कहाँ थे।...सँकरी गलियों में हाथकर्घे घर्र-घर्र करते हुए चल रहे थे। जहाँ-तहाँ ढिबरियों की रौशनी या बिजली की हँसी ओढ़े शाम झिलमिला रही थी।...सड़क पर ही वह रिक्शे से उतर गई। सामने वही हापुड़-नौचंदी की चुंगी, उस ओर वही बड़ा सा फाटक और फिर हापुड़ की ओर जाती हुई अँधेरी सड़क।...उस खिड़की से यह सब दिखता था। अचानक वह सिहर गई और उसने शाल खींच कर बाँहों को ठीक से ढक लिया।...सड़क छोड़कर वह गली में आ गई।
मकान के चबूतरे पर चढ़ते ही उसकी धड़कने बढ़ गईं। भीतर रौशनी झलक रही थी। सामने वाली खिड़की खुली थी। दरवाज़े पर लगी सफ़ेद ‘काल-बेल’ चमक रही थी। उसके हाथ ‘काल-बेल’ दबाने ही जा रहे थे कि अंदर से सोम के ठहाके की आवाज़ सुन पड़ी। वह सहम कर काँप गई। क्या एक बार की गहरी पहचान इंसान को कभी नहीं भूलती?...खिड़की की राह उसने देखा-सोम एक नन्हीं-सी बच्ची को उछाल रहे हैं। बच्ची रोती जा रही है और मान नहीं रही है। पत्नी फ़र्श पर बैठी हुई एक दूसरे बच्चे को कुछ खिला रही है। उसकी पीठ खिड़की की ओर थी। क्षण भर को सोम की बात भूलकर पत्नी की पीठ वह एकटक देखती रही। उसने चाहा कि एक बार उस स्त्री का मुँह देख ले। सोम का चेहरा भी दूसरी ओर था और उनके कंधे पर चीख़ती हुई बच्ची का आँसुओं से तर गोल-मटोल मुखड़ा भर दिख रहा था।
अचानक उसे यह सब कुछ बड़ा अटपटा-सा लगा। उसने घूम कर पीछे गली में देखा। आते-जाते लोग उसे इस तरह खिड़की से झाँकती देखकर क्या सोचेंगे! वे दुबले नहीं दिख रहे थे। कंधे और भी पुष्ट और चौड़े हो गए थे। कमर मोटी लग रही थी।
...यही देह कभी कितनी अपनी थी, जिसने उसे इस तरह पागल बना दिया था, उसने सोचा और एक क्षण को फिर उसने देखना चाहा कि...। बच्ची खिलखिला रही थी और वे झुककर लगातार पत्नी के गालों को चूम रहे थे।...वह जल्दी से नीचे उतर आई और गली में यूँ चलने लगी जैसे यहीं कहीं रहती हो। सड़क पर आकर उसने इधर-उधर ताका। कोई रिक्शा आस-पास दिखार्इ नहीं पड़ा। चुंगी-फाटक पार करके वह आगे बढ़ गई। कुछ दूर अँधेरी सड़क पर चलने के बाद वह नौचंदी के बड़े वाले मैदान की ओर मुड़ गई। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि कहाँ जा रही है। उसे स्वयं अपने चलने की यादगार भी भूल गई थी। अचानक उसने अपने को क़ब्रगाहों के बीच में पाया। पलाश और झाऊ के झारखंडों के बीच पुरानी हुई क़ब्र उसके पाँवों के नीचे थीं।...पहली बार यहीं पर उसे शक हुआ था। ‘सूरज कुंड’ की ओर से घूमते हुए सोम और वह ठंडी रात में यहाँ आए थे। तब उसे कितना डर लगा था। और अब? ‘क्या तुम्हें डर लगता है?’ उसने ख़ुद से पूछा।
इससे ज़्यादा डर तो उसे सोम की खिड़की पर खड़े-खड़े लगा था। कैसा डर...? चलते-चलते कभी वह एक धंसी हुई क़ब्र में हो जाती, फिर किसी दूसरी क़ब्र पर चढ़कर उसे पार करना होता। यह खड़ी हो गई और पगडंडी का अंदाज़ लगाने लगी। कुछ दूर पर एक छोटी-सी मस्जिद देखी। भीतर कोई नन्हा सा दीपक बाल गया था। हवा की सिहरन से सूखे पत्ते खड़खड़ा कर उड़ते और फिर सब शांत। पलाश और झाऊ के झारखंडों के बीच से अजीब-अजीब कलूटी, आदिम, अनदेखी आकृतियाँ उभरने लगीं।
क्या वह ज़िंदा है, दफ़न नहीं हो गई है? क्या उसका जिस्म उसकी क़ब्रगाह नहीं? क़ब्रगाह जिसे वह सौंपना चाहती है। चाहती है कि कोई उस पर फूल चढ़ाए।...फिर भी वह नहीं सौंप पाती।...एक नर्इ बनी हुई क़ब्र पर बैठ गई। इच्छा हुई यहीं लेट जाए और कोई ऊपर से मिट्टी डाल दे। मन वितृष्णा से भर आया...कोई किसी का दुख नहीं समझ सकता। वह किसी को भी दोष नहीं देती। पापा को भी नहीं। क्या किसी के भी वश में है कि वह दूसरे को सुखी रख सके। ऐसा चाहा जा सकता है, लेकिन चाहने से ही तो सभी कुछ नहीं हो जाता।...
पिछले सात वर्षों से वही कमरा...और वही रातें। जिनमें एक पल को भी वह जगी रहना नहीं चाहती। लेकिन नींद?... आँख झपकते ही वह चिहुँक कर उठ बैठती। जैसे कोई साँस चुरा ले भागने की फ़िक्र में दरवाज़े पर घात लगाए हो। झट वह बत्ती जला देती। कहीं कुछ भी नहीं। भीतर इतनी थकान और इतना दबाव...हाथ-पैरों के जोड़ों पर त्वचा के नीचे नसों का धड़कना साफ़-साफ़ दिख पड़ता। तकिए पर कानों की राह धुकधुकी सुनते-सुनते वह ऊब जाती। करवटें बदलती...फिर बदलती...फिर...फिर। फिर नींद में सपनों के अंबार हर करवट पर किसी विराट सपने के भयावह खंड टूट-टूट कर जुड़ते जाते।...सुबह उठने पर वह शाम से भी ज़ियादा थकी होती। सारे बदन में केवल नसों का धड़कता जाल महसूस होता।
बीच-बीच में कभी-कभी माँ आकर एकाध हफ़्ते के लिए रह जाती। पिछली दफ़ा उन्हें पता चल गया था। जब भी सुबह वह ‘इनो’ का गिलास माँगती, वे समझ जातीं। माँ केवल चुपचाप देखतीं और होंठ दाँतों तले दबाए चुपचाप चली जाती। वह मनाती, ‘कुछ नहीं माँ, वो नींद नहीं—आती न, इसलिए...वह लिपट जाती।
‘तो तू नींद की गोलियाँ क्यों नहीं रखती?’
और किसी दिन एक साथ कई गोलियाँ खा लूँ...तो माँ?’
माँ आँसू पोंछती हुई चौके में चली जातीं। ‘तू बस नौकरी छोड़ और चल...’ वह कहतीं। उसका मन होता, पूछे, ‘कहाँ माँ?’ लेकिन वह चुप रह जाती। युनिवर्सिटी जाने लगती तो माँ कहती,....‘देखो बेटा। देर न करना।’ वे हमेशा भरभराई हुई लगतीं।
धर्मशाले के पीछे एक छोटी-सी जगह थी। बुढ़िया को वह भाभी कहती। बर्फ़ में रखी हुई ‘बियर’ की बोतल निकालकर वह ख़ुद ही रख लेती। भाभी पकौड़े और पापड़ भून लाती। तब तक वह ‘काकटेल’ बनाती। फिर थोड़ी देर बाद आवाज़ें दूर-दूर लगने लगती। सारा माहौल, लोग, भीड़, सवारियाँ सब काफ़ी दूर-दूर लगते। अपनी आवाज़ भी जैसे काफ़ी दूर से बोली गई लगती। जल्दी लौट आने पर भी माँ समझ जाती।
‘माँ, पापा से मत कहना, मैं इतनी गिर गई हूँ।’ फिर माँ-बेटी दोनों फूट पड़तीं।
‘तू किताबें क्यों नहीं पढ़ती?’ माँ कहती
‘सारी किताबें मुझे चिढ़ाती है माँ। सब जगह मेरी ही बात लिखी है।’ वह खिलखिला पड़ती।
माँ चौंक कर उसे देखती रह जाती।
फिर माँ के चले जाने के बाद वह उसी तरह असहाय हो जाती; घंटों बिस्तर पर, फ़र्श पर या दरवाज़े की संधि पर उकडूं बैठी रहती। सूने दिन या रात के एकांत में उसे लगता कोई आवाज़ दे रहा है—‘सुमित’! वह चौंक कर चारों ओर देखती रह जाती। नहीं, यह भ्रम है। ऐसी बातों पर उसे क़तई विश्वास नहीं होता।...बारिश का होना, पहाड़ियों और खेतों में संध्या के आलोक का बुझना, रातों का ढलना या दिन की तीखी धूम के पंजे फैलाना।...सब में उसे एक भयावह छाया-सी नज़र आती। उसे फिर वही आवाज़ सुन पड़ती...‘सुमित!’ वह घूमकर चारों ओर ताकती और एक अजब-से सुख-भाव से बोल पड़ती...हूँ, ...बोलो?’
फिर वह सन्नाटे की उसी आवाज़ का इंतिज़ार करती।
ऐसे ही क्षणों में पैंट की जेबों में हाथ ठूँसे बसंत कभी-कभी दिख जाता। बहुधा क्लास से लौटते वक़्त वह स्टाफ़ रूम की खिड़की पर आकर खड़ा हो जाता...‘मिस शर्मा’। जैसे नींद-सी टूटती। वह कुर्सी घुमाकर उसे देखती रह जाती, ‘आ जाइए न अंदर।’
‘क्लास है।’ वह खिड़की के छड़ पकड़े मुस्कुरा पड़ता। उसकी नाक, होंठ और चिबुक खिड़की के भीतर आ जाते। वह थोड़ी देर तक खड़ा रहता, फिर चला जाता।
उस दिन सारी रात उसने निश्चय किया था। डर लगा रहता था कि कहीं नशे में तो वह ऐसा नहीं सोच रही है। सुबह मीटिंग थी। मीटिंग ख़त्म होने के बाद उसने बसंत को आवाज़ दी। पहले उसके हाथ उठे, फिर वह पीछे हाथ बाँधे आकर मुस्कुराता हुआ खड़ा हो गया। फिर बोला, ‘आज आप ख़ुश दिख रही हैं।’
‘चलिए, थोड़ा घूम आएँ।’ उसने बात को बदलते हुए कहा।
सड़क छोड़कर वे ऊँचे-नीचे रास्ते पर हो लिए। टीले पर चढ़ते वक़्त एकाध जगह बसंत ने हाथ बढ़ाना चाहा तो उसने ऐसे जताया जैसे देख नहीं रही हो। एक जगह कुछ चौड़ी सी खाई थी बसंत फिर अपना हाथ बढ़ाकर खड़ा हो गया। एक पल के बाद उसने हाथ पकड़ लिया और खाई पार कर गई। एक ऊँचे टीले पर चढ़कर वे बैठ गए। सूर्य डूब रहा था। बसंत का चेहरा सूर्य के लालिम रंग में भींजकर एकदम सुर्ख़ हो रहा था।...एकाएक फिर न जाने कैसे उसे सोम का चेहरा याद आया।...क्यों ऐसा है? क्यों? किसी भी एकांत में सोम की मुद्राएँ घिर आती हैं? उसने सिर झटक लिया...सुमित प्लीज़!’ उसने मन-ही-मन कहा, ‘ठीक है...बाद में जो भी कह लेना।’...उसकी आँखों में आँसू आ गए। बसंत से छिपाने के लिए मुँह दूसरी ओर फेर लिया। उसकी इच्छा हुई कि उठ चलने को कहे। सब बेकार है।
‘ठंड काफ़ी है।’ बसंत ने तभी कहा। उसकी दोनों बाँहें ऊपर आसमान की ओर उठी हुई थीं।
‘आपने पुलोवर नहीं पहना।’ उसने कहा।
‘मैं अपने लिए नहीं कह रहा।’ बसंत ने कहा।
फिर दोनों चुप हो गए। बसंत रह-रह के कोई पत्थर उठाता और नीचे खाई की ओर लुढ़का देता। कभी लड़-खड़ाते हुए पत्थर की आवाज़ सुनाई पड़ती, कभी नहीं।
एकाएक उसने करवट घूम कर अपनी एक बाँह बढ़ाकर सम्पूर्ण रूप से उसे खींच लिया। वह शायद उठकर चलना चाह रही थी। उस अप्रत्याशित से कुछ भी समझ नहीं पार्इ। बसंत ने और भी ज़ोर से चिपटाते हुए कहा, ‘आप उन्हें बहुत चाहती हैं न?’
कुछ जवाब देते नहीं बना उससे। सोम! एक अकेला व्यक्ति...उसकी सारी प्रकृति, सम्पूर्ण मन, देह और आत्मा में बिछा हुआ। क्या अधिकार है? किसी को भी क्या अधिकार है कि वह अपनी आत्मा को इतना निरीह बना दे? वह कहना चाहती थी, ना, मैं उस शख़्स से बेहद नफ़रत करती हूँ। ना, मैं स्वतंत्र हूँ। मैं बिलकुल अकेली हूँ...अकेली बन के दिखा सकती हूँ। मुझे तुम कहीं भी ले चलो...मैं,’ लेकिन उसके मुँह से कुछ भी नहीं निकला।
‘कितनी बड़ी बात है यह।’ बसंत ने कहा।
‘कितनी बड़ी बात है! ना बसंत’, उसने कहना चाहा, ‘यह एक भयानक मौत है जिसे तिल-तिल महसूस करना होता है। कोई मुझसे पूछे कि ‘तुम्हारी उम्र ज्योतिष के अनुसार कितने वर्ष है?’ तो मैं उससे पूछने को कहूँगी ‘तुम्हारी मौत ज्योतिष के अनुसार अभी कितने वर्षों तक चलेगी।’ बसंत, मैं कुछ नहीं चाहती। नहीं चाहती यह पतिव्रव्य और प्रेम का बड़प्पन। मैं पाप करना चाहती हूँ। मैं गिरना चाहती हूँ। मैं सीता, सावित्री, दमयन्ती, राधा...कुछ नहीं बनना चाहती...मैं जानती हूँ कि मैं पुण्यात्मा नहीं हूँ। दुख पाना कोई पुण्य-कर्म नहीं है।’ लेकिन, वह एकदम चुप थी।
‘कितना अजीब है यह संसार!’ बसंत ने उसी तरह कहा, ‘जो एक बार सुख से सज़ा देता है वह अपना दिया वापस नहीं ले जाता। यूँ कहें कि नहीं ले जा पाता। उसे लौटाने का अधिकार दाता को नहीं रह जाता। और फिर उस सुख की बाढ़ में हम आजीवन ऊभ-चूभ होते रहते हैं। फिर क्या होता है? फिर शायद कुछ नहीं हो पाता। कुछ सुख होते ही ऐसे हैं जो हमें सदा के लिए पागल कर देते हैं...’ आगे वह खो-सा गया।
एकाएक उसके भीतर कोई चीज़ लड़खड़ाने लगी। उसने एक झटके से अपने को अलग कर लिया और खड़ी हो गई। यह हो क्या गया? यह उसने क्या कर दिया? उसकी इच्छा हुई कि ख़ूब ज़ोर से चीख़े— ‘नहीं, सोम...नहीं।’ भरभरा कर आँसू निकल आए। बसंत भी उठकर खड़ा हो गया। धीरे-से उसने उसकी बाँह छुई—’क्या हुआ मिस’... आप यहाँ से जाइए। मुझे छोड़ दीजिए...जाइए।’ उसने बाँह झटक दी जैसे वहाँ बिच्छू ने डंक मार दिया हो।
बसंत ने एक बार कहना चाहा। तभी उसने आँखें उठाईं। फिर वह कुछ नहीं बोला। उसके हाथ वैसे ही पीछे बँधे हुए थे जैसे अपनी अंगुलियों की जकड़ छिपा लेना चाहता हो।
बग़ल की झाड़ी में हल्की-सी खड़खड़ाहट हुई। वह चौंक गई। हवा के झोंके में पत्तियाँ ज़मीन पर घिसट रही थी वह उठ खड़ी हुई। झाड़ियों के बीच से रास्ता बनाती हुई वह नौचन्दी के बड़े वाले मैदान में निकल आई। बड़े-बड़े टिन के ‘शेड्स’ में अँधेरा और भी घना हो रहा था।...चलती हुई, बड़े फाटक से निकल कर वह फिर सड़क पर आ गई। सोम का मकान वहाँ से दिख रहा था। पीछे वाली खिड़की खुली थी और रौशनी के दायरे में कोई नारी-मूर्ति बालों में कंघी कर रही।...फिर खिड़की बंद हो गई। रिक्शों को ताकती वह आगे बढ़ रही थी अभी उसने देखा-दरवाज़ा खुल गया है और वही नारी-मूर्ति एक बच्चे को उँगली पकड़ाए सड़क की ओर चली आ रही है। वह जहाँ-की-तहाँ खड़ी रह गई। स्त्री ने सड़क पर आकर एक बार पीछे की ओर देखा, फिर बच्चे को उठा लिया। सारे साज-सिंगार के बावजूद वह विशेष सुंदर नहीं लग रही थी। फिर भी देह भरी-पूरी थी और चेहरा भावहीन था। तुलना में उसने अपने को एक बार परखने की कोशिश की तो लगा कि उसका चेहरा अँवरा गया है, आँखें धंस गई हैं। सारी देह का रक्त-माँस सूख गया है और कपड़ों के भीतर वह किसी तरह अपने कंकाल को छिपाए, लड़खड़ाती हुई चल रही है।
तभी दरवाज़े के बाहर सोम का लंबा-तगड़ा शरीर प्रकट हुआ। एक ओर हटकर वह चुपचाप उन्हें सड़क की ओर आते देखती रही। दो-चार क़दम चलकर वे खड़े हो गए ओर सिगार सुलगाने लगे। कश खींचते ही सिगार को आँच में उनका चेहरा दमक कर फिर अँधरे में ओझल हो गया।
होटल लौटकर वह बिना खाए-पिए बिस्तर पर पड़ गई थी।
गहरी नींद में उसे लगा, कोई उसके हाथ की उँगलियाँ जीभ से चाट रहा है। उसकी एक बाँह लिहाफ़ के बाहर पड़ी-पड़ी एकदम सर्द हो गई थी। सिहर कर वह जग गई।...अँधेरे में कहीं कोई आहट नहीं लगी। उसने बेड़-स्विच जला दिया। कमरा ठंड से सिकुड़ कर जैसे और भी छोटा लग रहा था।...एक कोने में गर्द से भरी एक चूहेदानी रखी हुई थी। लगता था महीनों पहले किसी मुसाफ़िर की शिकायत पर होटल मैनेजर ने चूहेदानी रखवाई होगी। होटल की ख़स्ता हालत और ज़िंदगी से यह ज़ाहिर था कि किसी ने चूहेदानी को फिर से हटाने का कष्ट नहीं उठाया था।...उसने देखा-एक चूहिया महीनों पहले, शायद चूहेदानी में फँस गई थी। उसक शरीर एकदम सूखकर काँटा हो गया था। चूहेदानी की सींखचों पर अपने अगले दो पैरों को रखकर थूथने को बाहर निकालते हुए उसने निकलने की बहुत कोशिश की होगी, लेकिन उसी मुद्रा में लड़ते-लड़ते वह सूख गई।...चूहेदानी के बाहर एक बड़ा-सा चूहा सशंक नेत्रों से कभी उसकी ओर देखता और कभी अपने दोनों अगले पाँव ऊपर उठाकर अपने थूथन से चुहिया का थूथन हिलाता...
उसने मुँह फेर लिया और बत्ती बुझा दी। करवट बदलते वक़्त तख़्त पर, बावजूद बिस्तर के, कूल्हे की हड्डियाँ गड़ रही थीं।
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dopahar beet gai thi hotel ki chhat par dhoop mein ek dari bichhakar wo leti hui thi dhoop mathe par kuch tikhi lagne lagi to usne naukar se kahkar ek khat khaDi kar li upar asman mein kafi unchai par chilon ke giroh bhanware le rahe the gahre nile akash mein safed badlon ke chakatte paiband ki tarah kahin kahin ubharte aur phir gum ho jate phir sahsa akash ki athah gahrai mein se kahin ek safed tukDa prakat ho jata aur hawa ke ishare par jhalamlata hua sarakne lagta
bekar hai tera yahan aana tere man mein to kuch bhi nahin hai sumit! wo bar bar apne se kahti aur phir wo kaise milegi? kya kahegi ki wo kyon i hai kya wo sanyat rah sakegi? jo bhi ho, wo puchhegi, som ki chhati par mukke mar mar kar puchhegi, tumne aisa kyon kiya? tumne mujhe aisa kyon bana diya? tum mujhe kyon nahin chhoDte? aur som? uske sath kaisa wywahar karenge
lekin jo bhi ho, wo milegi zarur phir? phir kya? ab aur kya shesh rah gaya tha in sat warshon mein chup chup talaq bhi ho gaya tha us waqt som pagalkhane mein the hastakshar karte waqt wo wahin phoot paDi thi nahin, wo ye bilkul nahin chahti uska man hota ki wo som ko pagalkhane jakar dekh aaye phir usne research puri ki papa ne kaha ki kuch kar le to unhin ki sifarish par usne pradhyapika ka pad bhi swikar kar liya uske dusre din usne papa ko chitthi likhi thi, ‘papa, mujhe ab aur kuch karne ke liye mat kahna main theek hoon wahin rahte hue use chandra se khabar mili ki som achchhe ho gaye hain aur unhen naukari par phir se bahal kar liya gaya hai use santosh hua tha aur usne socha tha ki ek bar bina kisi ko bataye wo merath chali jaye aur unhen dekh aaye lekin unke zara sa bhi Distarb hone ki kalpana se hi wo kanp uthti aur uska jana rah jata
isi pasopesh mein ek din chandra ki chitthi i likha tha, som ne phir se shadi kar li hai wo sann rah gai sahsa use wishwas nahin hua use chandra ko tar diya ki ye khabar kahan tak sach hai jawab mein chandra ne likha ki yahan sabhi ko pata hai sath hi ek saptahik mein usne som aur us laDki ki taswir chhapi hui dekhi hai taswir ki kating wo bhej rahi hai taswir dekhkar bhi use wishwas nahin ho raha tha kai bar stool par kone mein rakhi som ki taswir se wo milan karti aur dekhti rah jati uski samajh mein nahin aa raha tha ki wo kya soche? apne sath kaisa wywahar kare chupchap wo bahar nikal i kuch laDkiyan uske sath roz ‘new sait tak ghumne jaya kartin theen usne sabhi ko mana kar diya duniyan ki kisi bhi ghatna ya aghatna par use wishwas nahin ho raha tha kuch bhi sambhaw hai yahan aur kuch bhi asambhaw hai wisheshkar jise anhona samjha jata hai wo to ghatit hokar hi rahta hai use laga ki kisi ne tumbi laga kar uska rakt choos liya hai aur ek kathputli ki tarah nirjiw, anubhutihin, wo chupchap chali ja rahi hai
hostel mein wo kafi der se lauti thi kai laDkiyan darwaze par baithi phusphusa rahi theen aur din hota to wo Dant deti, lekin aaj kuch nahin boli use lag raha tha ki wo in sabse gai guzri hai uski koi ahmiyat nahin hai andar aakar wo let rahi khiDki ke bahar andhere mein dekhte hue uske bhitar ek maroD si uthne lagi jaise sinkhchon ke bahar ki har cheez parari ho gai ho uski ichha hui ki hath baDhakar, bahar andhere mein Dubi hui sari hariyali aur jharajhrati hawa ko apne andar kheench le phir us raat bedam si karawten badalti hui na jane kisi andekhe ko sunakar wo karahti chhatpatati rahi
subah uthi to laga jaise kisi paraye desh mein jagi hai raat bhar mein hi jaise sara jiwan khiDakiyon ko rah sarak kar gum ho gaya tha jaise andar ka sab kuch nichuD kar bah gaya tha aur uska sukha hua kankal ek murti ki tarah khiDki par baitha diya gaya tha hath munh dhote waqt wo na jane kisi dusri anhoni ka intizar karti rahi ghanton bathrum ke farsh par baithi thithurti rahi —Dayning haal mein gai to usse kuch bhi khaya nahin gaya kaur munh mein Dalte hi ulti si aane lagti chhoDkar wo uth i phir use mahsus hua ki is kamre mein wo ek kshan ko bhi nahin rah sakti jaldi jaldi kapDe badal kar wo uniwersity chali gai class mein jate waqt use laga jaise sabhi usi ko dekh rahe hain uski peeth par banhon par, ankhon mein, bhanwon mein sab kuch likhkar tank diya gaya hai
class khatm hone par usse wahan nahin raha gaya ‘stafrum ki or jane ke bajay wo paidal hi hostel chal paDi kamre ka dhyan aaya to usne socha ab kahan jaye phir wo apne aap ‘nyusait ki or muD gai dhire dhire din Doob gaya halki si thanD gahra gai andhera uthne laga us andhere mein kshaitij ki rekhayen toDte hue niःshabd pakshi the badlon ke nanhen nanhen chhallon mein lal machhliyan theen kahan door train ki layatmak tutti hui awaz thi sab kuch kitni tezi se toot raha tha hawa rukti hui si lag rahi thi uske phephDe bedam ho rahe the purab ki or jheel mein lal kamal mund rahe the aur door door tak unche unche tilon, ghatiyon aur kheton ke beech kankrile raston, pagDanDiyon aur khaiyon mein andhkar bharta ja raha tha wo ghas mein munh ke bal let gai or phaphak phaphak kar rone lagi sannate mein uska sisakna saf saf sunari de raha tha, jaise bachcha aadhi raat ko man ko bichhaune par na pakar Darta hua dhire dhire sisakne lagta hai uski muththiyon mein nuchi hui ghas bhar gai thi aur usi tarah munh ke bal paDi hui wo na jane kab so gai thi
chhat par ki dhoop na jane kab ki sarak gai thi sanjh ho gai thi chila hawayen badan chirti hui sarsarane lagi theen thanD ke karan asman ajib Dhang se sikuDa hua lagta tha charon aur gharon aur bajon jhurriyan si utar rahi theen wo uth khaDi hui aur hotel ke laDke se rickshaw bulane ko kahkar, kamre mein chali gai use kapDon ka khayal aaya kya pahankar wo jaye! itne bhayawah dukh mein bhi wo anubhuti use sukh se aardr kar gai jaise som kahin intizar kar rahe hon abhi bhare bhare man se jakar unse lipat jana ho rikshe par chalte hue un sabhi jaghon ki dhundhli si taswir saf ho gai lekin parichai ka wo star badal gaya tha abhibhut hokar Doob jane ke we wismay bhare ekant ab kahan the sankari galiyon mein hathkarghe ghar gharr karte hue chal rahe the jahan tahan Dhibariyon ki raushani ya bijli ki hansi oDhe sham jhilmila rahi thi saDak par hi wo rikshe se utar gai samne wahi hapuD nauchandi ki chungi, us or wahi baDa sa phatak aur phir hapuD ki or jati hui andheri saDak us khiDki se ye sab dikhta tha achanak wo sihar gai aur usne shaal kheench kar banhon ko theek se Dhak liya saDak chhoDkar wo gali mein aa gai
makan ke chabutre par chaDhte hi uski dhaDakne baDh gain bhitar raushani jhalak rahi thi samne wali khiDki khuli thi darwaze par lagi safed kal bel chamak rahi thi uske hath ‘kal bel dabane hi ja rahe the ki andar se som ke thahake ki awaz sun paDi wo saham kar kanp gai kya ek bar ki gahri pahchan insan ko kabhi nahin bhulti? khiDki ki rah usne dekha som ek nanhin si bachchi ko uchhaal rahe hain bachchi roti ja rahi hai aur man nahin rahi hai patni farsh par baithi hui ek dusre bachche ko kuch khila rahi hai uski peeth khiDki ki or thi kshan bhar ko som ki baat bhulkar patni ki peeth wo ektak dekhti rahi usne chaha ki ek bar us istri ka munh dekh le som ka chehra bhi dusri or tha aur unke kandhe par chikhti hui bachchi ka ansuon se tar gol matol mukhDa bhar dikh raha tha
achanak use ye sab kuch baDa atpata sa laga usne ghoom kar pichhe gali mein dekha aate jate log use is tarah khiDki se jhankti dekhkar kya sochenge! we duble nahin dikh rahe the kandhe aur bhi pusht aur chauDe ho gaye the kamar moti lag rahi thi
yahi deh kabhi kitni apni thi, jisne use is tarah pagal bana diya tha, usne socha aur ek kshan ko phir usne dekhana chaha ki bachchi khilkhila rahi thi aur we jhukkar lagatar patni ke galon ko choom rahe the wo jaldi se niche utar i aur gali mein yoon chalne lagi jaise yahin kahin rahti ho saDak par aakar usne idhar udhar taka koi rickshaw aas pas dikhari nahin paDa chungi phatak par karke wo aage baDh gai kuch door andheri saDak par chalne ke baad wo nauchandi ke baDe wale maidan ki or muD gai uski samajh mein nahin aa raha tha ki kahan ja rahi hai use swayan apne chalne ki yadgar bhi bhool gai thi achanak usne apne ko qabrgahon ke beech mein paya palash aur jhau ke jharkhanDon ke beech purani hui qabr uske panwon ke niche theen pahli bar yahin par use shak hua tha ‘suraj kunD ki or se ghumte hue som aur wo thanDi raat mein yahan aaye the tab use kitna Dar laga tha aur ab? kya tumhein Dar lagta hai? usne khu se puchha
isse ziyada Dar to use som ki khiDki par khaDe khaDe laga tha kaisa Dar ? chalte chalte kabhi wo ek dhansi hui qabr mein ho jati, phir kisi dusri qabr par chaDhkar use par karna hota ye khaDi ho gai aur pagDanDi ka andaz lagane lagi kuch door par ek chhoti si masjid dekhi bhitar koi nanha sa dipak baal gaya tha hawa ki siharan se sukhe patte khaDakhDa kar uDte aur phir sab shant palash aur jhau ke jharkhanDon ke beech se ajib ajib kaluti, aadim, andekhi akritiyan ubharne lagin
kya wo zinda hai, dafan nahin ho gai hai? kya uska jism uski qabrgah nahin? qabrgah jise wo saumpna chahti hai chahti hai ki koi us par phool chaDhaye phir bhi wo nahin saump pati ek nari bani hui qabr par baith gai ichha hui yahin let jaye aur koi upar se mitti Dal de man witrshna se bhar aaya koi kisi ka dukh nahin samajh sakta wo kisi ko bhi dosh nahin deti papa ko bhi nahin kya kisi ke bhi wash mein hai ki wo dusre ko sukhi rakh sake aisa chaha ja sakta hai, lekin chahne se hi to sabhi kuch nahin ho jata
pichhle sat warshon se wahi kamra aur wahi raten jinmen ek pal ko bhi wo jagi rahna nahin chahti lekin neend? ankh jhapakte hi wo chihunk kar uth baithti jaise koi sans chura le bhagne ki fir mein darwaze par ghat lagaye ho jhat wo batti jala deti kahin kuch bhi nahin bhitar itni thakan aur itna dabaw hath pairon ke joDon par twacha ke niche nason ka dhDakna saf saf dikh paDta takiye par kanon ki rah dhukdhuki sunte sunte wo ub jati karawten badalti phir badalti phir phir phir neend mein sapnon ke ambar har karwat par kisi wirat sapne ke bhayawah khanD toot toot kar juDte jate subah uthne par wo sham se bhi ziyada thaki hoti sare badan mein kewal nason ka dhaDakta jal mahsus hota
beech beech mein kabhi kabhi man aakar ekadh hafte ke liye rah jati pichhli dafa unhen pata chal gaya tha jab bhi subah wo ino ka gilas mangti, we samajh jatin man kewal chupchap dekhtin aur honth danton tale dabaye chupchap chali jati wo manati, kuch nahin man, wo neend nahin—ati na, isliye wo lipat jati
to tu neend ki goliyan kyon nahin rakhti?
aur kisi din ek sath kai goliyan kha loon to man?
man ansu ponchhti hui chauke mein chali jatin tu bus naukari chhoD aur chal wo kahtin uska man hota, puchhe, kahan man? lekin wo chup rah jati yuniwarsiti jane lagti to man kahti, dekho beta der na karna we hamesha bharabhrai hui lagtin
dharmshale ke pichhe ek chhoti si jagah thi buDhiya ko wo bhabhi kahti barf mein rakhi hui biyar ki botal nikalkar wo khu hi rakh leti bhabhi pakauDe aur papaD bhoon lati tab tak wo kaktel banati phir thoDi der baad awazen door door lagne lagti sara mahaul, log, bheeD, swariyan sab kafi door door lagte apni awaz bhi jaise kafi door se boli gai lagti jaldi laut aane par bhi man samajh jati
man, papa se mat kahna, main itni gir gai hoon phir man beti donon phoot paDtin
tu kitaben kyon nahin paDhti? man kahti
sari kitaben mujhe chiDhati hai man sab jagah meri hi baat likhi hai wo khilkhila paDti
man chaunk kar use dekhti rah jati
phir man ke chale jane ke baad wo usi tarah asahaye ho jati; ghanton bistar par, farsh par ya darwaze ki sandhi par ukDun baithi rahti sune din ya raat ke ekant mein use lagta koi awaz de raha hai—sumit! wo chaunk kar charon or dekhti rah jati nahin, ye bhram hai aisi baton par use qati wishwas nahin hota barish ka hona, pahaDiyon aur kheton mein sandhya ke aalok ka bujhna, raton ka Dhalna ya din ki tikhi dhoom ke panje phailana sab mein use ek bhayawah chhaya si nazar aati use phir wahi awaz sun paDti sumit! wo ghumkar charon or takti aur ek ajab se sukh bhaw se bol paDti hoon, bolo?
phir wo sannate ki usi awaz ka intizar karti
aise hi kshnon mein paint ki jebon mein hath thunse basant kabhi kabhi dikh jata bahudha class se lautte waqt wo staff room ki khiDki par aakar khaDa ho jata miss sharma jaise neend si tutti wo kursi ghumakar use dekhti rah jati, a jaiye na andar
class hai wo khiDki ke chhaD pakDe muskura paDta uski nak, honth aur chibuk khiDki ke bhitar aa jate wo thoDi der tak khaDa rahta, phir chala jata
us din sari raat usne nishchay kiya tha Dar laga rahta tha ki kahin nashe mein to wo aisa nahin soch rahi hai subah miting thi miting khatm hone ke baad usne basant ko awaz di pahle uske hath uthe, phir wo pichhe hath bandhe aakar muskurata hua khaDa ho gaya phir bola, aaj aap khush dikh rahi hain
chaliye, thoDa ghoom ayen usne baat ko badalte hue kaha
saDak chhoDkar we unche niche raste par ho liye tile par chaDhte waqt ekadh jagah basant ne hath baDhana chaha to usne aise jataya jaise dekh nahin rahi ho ek jagah kuch chauDi si khai thi basant phir apna hath baDhakar khaDa ho gaya ek pal ke baad usne hath pakaD liya aur khai par kar gai ek unche tile par chaDhkar we baith gaye surya Doob raha tha basant ka chehra surya ke lalim rang mein bhinjkar ekdam surkh ho raha tha ekayek phir na jane kaise use som ka chehra yaad aaya kyon aisa hai? kyon? kisi bhi ekant mein som ki mudrayen ghir aati hain? usne sir jhatak liya sumit pleez! usne man hi man kaha, theek hai baad mein jo bhi kah lena uski ankhon mein ansu aa gaye basant se chhipane ke liye munh dusri or pher liya uski ichha hui ki uth chalne ko kahe sab bekar hai
thanD kafi hai basant ne tabhi kaha uski donon banhen upar asman ki or uthi hui theen
apne pulowar nahin pahna usne kaha
main apne liye nahin kah raha basant ne kaha
phir donon chup ho gaye basant rah rah ke koi patthar uthata aur niche khai ki or luDhka deta kabhi laD khaDate hue patthar ki awaz sunai paDti, kabhi nahin
ekayek usne karwat ghoom kar apni ek banh baDhakar sampurn roop se use kheench liya wo shayad uthkar chalna chah rahi thi us apratyashit se kuch bhi samajh nahin pari basant ne aur bhi zor se chiptate hue kaha, aap unhen bahut chahti hain n?
kuch jawab dete nahin bana usse som! ek akela wekti uski sari prakrti, sampurn man, deh aur aatma mein bichha hua kya adhikar hai? kisi ko bhi kya adhikar hai ki wo apni aatma ko itna nirih bana de? wo kahna chahti thi, na, main us shakhs se behad nafar karti hoon na, main swtantr hoon main bilkul akeli hoon akeli ban ke dikha sakti hoon mujhe tum kahin bhi le chalo , lekin uske munh se kuch bhi nahin nikla
kitni baDi baat hai ye basant ne kaha
kitni baDi baat hai! na basant, usne kahna chaha, ye ek bhayanak maut hai jise til til mahsus karna hota hai koi mujhse puchhe ki tumhari umr jyotish ke anusar kitne warsh hai? to main usse puchhne ko kahungi tumhari maut jyotish ke anusar abhi kitne warshon tak chalegi basant, main kuch nahin chahti nahin chahti ye patiwrawya aur prem ka baDappan main pap karna chahti hoon main girna chahti hoon main sita, sawitri, damyanti, radha kuch nahin banna chahti main janti hoon ki main punyatma nahin hoon dukh pana koi punny karm nahin hai lekin, wo ekdam chup thi
kitna ajib hai ye sansar! basant ne usi tarah kaha, jo ek bar sukh se saza deta hai wo apna diya wapas nahin le jata yoon kahen ki nahin le ja pata use lautane ka adhikar data ko nahin rah jata aur phir us sukh ki baDh mein hum ajiwan ubh choobh hote rahte hain phir kya hota hai? phir shayad kuch nahin ho pata kuch sukh hote hi aise hain jo hamein sada ke liye pagal kar dete hain aage wo kho sa gaya
ekayek uske bhitar koi cheez laDkhaDane lagi usne ek jhatke se apne ko alag kar liya aur khaDi ho gai ye ho kya gaya? ye usne kya kar diya? uski ichha hui ki khoob zor se chikhe— nahin, som nahin bharabhra kar ansu nikal aaye basant bhi uthkar khaDa ho gaya dhire se usne uski banh chhui—‘kya hua miss aap yahan se jaiye mujhe chhoD dijiye jaiye usne banh jhatak di jaise wahan bichchhu ne Dank mar diya ho
basant ne ek bar kahna chaha tabhi usne ankhen uthain phir wo kuch nahin bola uske hath waise hi pichhe bandhe hue the jaise apni anguliyon ki jakaD chhipa lena chahta ho
baghal ki jhaDi mein halki si khaDkhaDahat hui wo chaunk gai hawa ke jhonke mein pattiyan zamin par ghisat rahi thi wo uth khaDi hui jhaDiyon ke beech se rasta banati hui wo nauchandi ke baDe wale maidan mein nikal i baDe baDe tin ke sheDs mein andhera aur bhi ghana ho raha tha chalti hui, baDe phatak se nikal kar wo phir saDak par aa gai som ka makan wahan se dikh raha tha pichhe wali khiDki khuli thi aur raushani ke dayre mein koi nari murti balon mein kanghi kar rahi phir khiDki band ho gai rikshon ko takti wo aage baDh rahi thi abhi usne dekha darwaza khul gaya hai aur wahi nari murti ek bachche ko ungli pakDaye saDak ki or chali aa rahi hai wo jahan ki tahan khaDi rah gai istri ne saDak par aakar ek bar pichhe ki or dekha, phir bachche ko utha liya sare saj singar ke bawjud wo wishesh sundar nahin lag rahi thi phir bhi deh bhari puri thi aur chehra bhawahin tha tulna mein usne apne ko ek bar parakhne ki koshish ki to laga ki uska chehra anwara gaya hai, ankhen dhans gai hain sari deh ka rakt mans sookh gaya hai aur kapDon ke bhitar wo kisi tarah apne kankal ko chhipaye, laDkhaDati hui chal rahi hai
tabhi darwaze ke bahar som ka lamba tagDa sharir prakat hua ek or hatkar wo chupchap unhen saDak ki or aate dekhti rahi do chaar qadam chalkar we khaDe ho gaye or cigar sulgane lage kash khinchte hi cigar ko anch mein unka chehra damak kar phir andhare mein ojhal ho gaya
hotel lautkar wo bina khaye piye bistar par paD gai thi
gahri neend mein use laga, koi uske hath ki ungliyan jeebh se chat raha hai uski ek banh lihaf ke bahar paDi paDi ekdam sard ho gai thi sihar kar wo jag gai andhere mein kahin koi aahat nahin lagi usne beD switch jala diya kamra thanD se sikuD kar jaise aur bhi chhota lag raha tha ek kone mein gard se bhari ek chuhedani rakhi hui thi lagta tha mahinon pahle kisi musafi ki shikayat par hotel manager ne chuhedani rakhawai hogi hotel ki khasta haalat aur zindagi se ye zahir tha ki kisi ne chuhedani ko phir se hatane ka kasht nahin uthaya tha usne dekha ek chuhiya mahinon pahle, shayad chuhedani mein phans gai thi usak sharir ekdam sukhkar kanta ho gaya tha chuhedani ki sinkhchon par apne agle do pairon ko rakhkar thuthne ko bahar nikalte hue usne nikalne ki bahut koshish ki hogi, lekin usi mudra mein laDte laDte wo sookh gai chuhedani ke bahar ek baDa sa chuha sashank netron se kabhi uski or dekhta aur kabhi apne donon agle panw upar uthakar apne thuthan se chuhiya ka thuthan hilata
usne munh pher liya aur batti bujha di karwat badalte waqt takht par, bawjud bistar ke, kulhe ki haDDiyan gaD rahi theen
gaDi chal paDi to uska man hua pletfarm par rumal hilate basant ko bula le uske agal baghal musafiron aur wida dene walon ka jhunD nikalta ja raha tha aur wo bheeD se bachta hua lagatar apna rumal hilata ja raha tha yahan tak to uski zid chal gai thi lekin iske baad sumita ne kaha tha ki wo use sath nahin le ja sakegi swar mein kuch aisa khinchaw tha ki basant apna saman klok room mein hi chhoD aaya tha phir gaDi jab tak nahin chali, wo khiDki ke sinkhchon se sir tikaye chupchap khaDa raha sumita kabhi uski or dekh leti, phir munh pher kar dusri or bahar dekhne lagti basant ki nak, uske honth aur chibuk khiDki se bhitar ho aaye the khiDki par is tarah khaDe hone ki uski purani aadat thi usse pata nahin kaisa kaisa hone lagta tha sumita ke man mein wo kahta, miss sharma!
a jaiye andar
nahin, main jaldi mein hoon bus yunhi chala aaya tha
aur wo tez qadmon se chala jata
ab wo kahan hoga shayad saman uthakar kisi hotel mein chala gaya hoga lautne ke liye to use kal subah ek dusri gaDi ka intizar karna hoga kal subah tak wo kahan hogi? merath phir? usne chaha ki neend aa jaye aur subah uthne par som use station par khaDe mil jayen kaise we milenge? kya unhen koi khabar hai? aur khabar hoti bhi to bhi kya we station aate? tab wo kyon ja rahi hain?
wo khiDki se bahar dekhne lagi khiDki se bahar adhar mein sir jhukaye basant jaise kahin chala ja raha ho bhagti hui rail se bahar dikhne wale tar kshaitij par khinchi hui patli safed lakiron ki tarah lagte the halke nile rang wala akash, peD, maidan, pagDanDiyan, baghiche, ganw, andhere mein tim timati raushaniyan sab paniyale kohre mein Dube hue se bhagti hui train ke sath kohre ki patti bhi jaise dauD rahi thi kohre ke beech se kahin peDon ki phunagiyan to dikh jati lekin beech ka bhag ghani patti ke beech Dhaka rahta jaise peD ka upri hissa hawa mein niradhar tanga ho yahi drishya lagatar chalta jata phir raat ka sannata, chhutte hue station, kuliyon aur musafiron ka shor, aur phir kohre mein Duba injan ka sola sa khansata sa swar
usne khiDki se sir tikakar ankhen moond leen bhitar kahin ek akriti ubhri lagta basant hai uske honth sinkhchon ke bhitar bilkul uske galon se sate hain thanD ke karan uski garm sanson ki bhap rah rah kar uske chehre par phail rahi hai uski baruniyan galon ko sahla rahi hain aur wo donon banhon se khiDki ke sinkhchon ke sath hi use jakDe hue tanga hua chala aa raha hai banhon ki jakaD Dhili hui nahin ki wo chalti hui rail se niche
som ki banhen bhi to isi tarah uthti theen bistar par lete lete we donon banhen utha dete wo lajati lajati unmen Dhal jati kai bar wo bhagne ko hui to usne paya ki we banhen use ghere hue hain lekin basant? uski banhen? usne us awahan ka pratyuttar kabhi nahin diya basant ki banhen uthtin aur phir niche gir jatin sharm se wo idhar udhar dekhne lagta aur hath pichhe bandhe jaise wo apni ungliyon ki jakaD chhipa lena chahta ho uski antrang ankhon ke samne ek dhundhli si taswir thi wahan som ka chehra tha—wahi ekdam masum, anubhawhin aur shant sa sath hi lambi banhon ke ghere, kuch mote honth aur chhoti si chibuk jo sare chehre ko atirikt komalta se bhar deti thi man ne pahli bar dekhkar kaha tha, ye to koi narsisas lagta hai pahli bar we dekhne aaye the aur khu ankhen jhukaye baithe rahe kitni sach nikli ye anubhuti ki ye wekti jis kisi ko bhi ek bar apni banhon mein samet lega, use kitna gahra sukh nahin dukh, yatana, abhaw ki parikrama, byarth mein dharti ki parikrama kya kahe wah? kuch nahin kah sakti samay jaise sare nirnyon ko Dubo le gaya hai
shadi ke dusre din subah usne chandra se khoob ghulkar batai thi baten ek ek ghaDi ka wiwarn usne diya tha ek ek pal ka ankhon ki ek ek jhapak ka usne kaha tha, sirf pagal ho jana shesh hai mujhe lagta hai main ho jaungi itna sab kaise sanbhlega! tumhin batao chandra tum jo paheli bujhati theen, wo main samajh gai hoon ‘donon saheliyan ek dusre ko jakDe leti rahi thoDi der baad chandra ne kaha tha, aise bhag sabke nahin hote rani tum khushansib ho lekin hamein bhool na jaiyo zarur bhool jaungi main duniya jahan bhool jaungi we donon khilakhilakar hansi to man aa gain thi raat bhar mein wo siras ke phool ki tarah halki ho gai thi ek anubhaw grihinai ki bhanti din bhar wo man bhabhiyon ke beech Dolti hui baat baat mein dakhal deti rahi
ek hi raat ka ye asar! rani ji, ab arwind ki Diwain laif nahin ratogi? baDi bhabhi ne kaha tha
tum hato bhabhi! main khu hi Diwain laif ho gai hoon
tab tak usne man ko dekha uski bhed bhari muskan lakshya kar usne ruthne ka abhinay kiya to sabhi thahake lagakar hans paDe the wo bhag kar apne kamre mein chali gai thi
sasural mein phulon ki sej tah par tah sare tan man mein khushbu jaise sari zindagi mein suhagraten usne khiDki ke bahar jhankakar dekha tha allahabad ki tulna mein merath use ek mamuli sa qasba laga tha station mein madhawangar tak aate hue saDkon ke tang aur sankare ghumaw, dukanon par jalti hui tel ki Dhibariyan ya gaisbattiyan, raste mein kahin bijli aur kahin tel ke purane laimpposton ke beech andhere ujale ke kai kai rang use sabhi kuch baDa pyara, shant nirih sa laga tha raat hui to chupke se wo ek bar chhat par gai chhat se door door tak ghane, sandr papiton ke bagh aur unke beech se guzarti hui kali, andheri saDak pashchim ki or chungi phatak ke pas hi ek baDa sa inton ka darwaza aur usi se laga hua, tuti phuti, purani nai qabron se inch inch bhara qabrgah wo chupchap niche utar i khiDki se tikkar bahar dekhne lagi qabrgah par dhire dhire chandni phailti aur badlon ke parde mein gum ho jati
aur isi tarah teen din aur teen raten basant pahle bahut puchhta tha, itne kam samay mein aisa kya mil gaya jo ab nahin puchhta upar se niche tak sukh bhaar se ladi, behosh wo kami apne bahar takti, kami aapne bhitar sari duniya ka astitw jaise samapt ho gaya tha charon or khali sannata aur ekant, aur us ekant mein kewal do parani koi rahasyamay, arthon se pare geet ka alap gungunate hue ab to uski anam chhaya bhar hai wahi use rokti hai katar ya sabal banati hai ab wo swayan nahin jaan pati chandra se kahi gai wo baat kitni sach nikli ab kewal pagal bhar hona shesh bach raha hai lekin kya sach mein unhin arthon mein? kul teen din hi to bite the wahi din, jinmen use laga tha ki wo kai kalpon se isi tarah sukh mein behosh, ajar amar jiti chali i hai we hi teen din, jinhonne use ye yantrna bhogne ke liye sachmuch amar kar diya
khiDki se lagi, bahar ki or takti wo darwaze se aate hue som ki aahat le rahi thi bahar qabrgah par neem ki pattiyan jhar rahi theen aur beech beech ke pakshiyon ka jhunD chahchaha kar chup ho jata jaise ghonsle mein jagah ki kami hai sabhi ko neend aa rahi hai, koi kisi ko thelthul deta hai to neend tutne ke karan wo jhallakar kuch kahta hai phir tu tu, main main hoti hai aur phir sab shant bachpan mein we sab bhai bahan isi tarah karte the tab man aa jati theen use yaad aaya tabhi use aahat se jana ki som aakar uske pichhe palang par baith gaye hai ab we apni banhen phailayenge ab! ab usne intizar nahin ho saka wo peeth ke bal hi unki godi mein luDhak gai ankhen moond leen aur intizar karne lagi
mujhe thanD lag rahi hai, usne kaha
ek pal baad, koi jawab na pakar, usne ankhen uthakar dekha ekdam chaunk kar uth baithi; som ka chehra tamtamaya hua tha ankhen sulag rahi theen nathune phaDak rahe the aur honthon ke konon mein halki si jhag nikal i thi we is tarah bahar ki or dekh rahe the jaise kuch suna hi na ho
kya hua, kisi se laDkar aaye ho kya? usne uska chehra pakaD kar ghuma diya
unhonne ek bar ghoor kar dekha aur ek dhakke se uthakar alag kar diya dhakka itne zor se diya gaya tha ki wo bistar par luDhak si gai phir bhi wo kuch nahin boli, uthkar baith gai phir usne lihaf khinchkar apne pairon par Dal liya phir ekayek usse raha nahin gaya banhon mein chehra Dhakkar wo phaphak paDi
kyon, kyon, kyon? akhir kyon? unhonne uski banh zor se pakaD li
wo chup unhen dekhti rahi
tum aurat ho n?
ye sab kahan se aata hai? tum janti ho? nahin janti?
kya ho raha hai? ye sab nahin chalega, samjhi! ofof unhonne ek dhaDake ke sath khiDki band kar di phir na jane kya samajh kar khol di phir sari khiDkiyan khol deen darwaze khol diye kuchhek pal khiDki ki chhaD pakDe bahar qabrgah ki or takte rahe phir pas aakar bole, janti ho, matlab? bolo? zarur janti ho kyon nahin janti? kyon, kyon, kyon? unhonne uski banh pakaDkar uthana chaha phir bhi uski samajh mein nahin aa raha tha ki wo kya bole
main janta hoon, main, unhonne apni chhati thonkte hue kaha, duniya ki jitni bad chalan aurten hain, we apne patiyon ko utna ziyada pyar karti hain jiski yari jitni gahri hogi, pati ke liye uske pyar ka natk utna hi gahra aur saphal hoga main sach nahin bol raha hoon? main sab janta hoon pata nahin chalta, itna fareb itna natk, itna pap is nannhe se jism mein kahan samata hai bolo? main samajhta hoon
banhen chhoDkar we dhamm se palang par baith gaye
usne socha, ab we shant ho gaye samajh mein to kuch bhi nahin aa raha tha main dekhunga we sahsa tan kar khaDe ho gaye kahan jajch karti ho tum log? unhonne use pakaD kar pahle uthaya aur phir palang par patak diya wo tukur tukar unka munh dekhti rahi saDi unhonne khinchkar alag kar di blouse ke button ek jhatake se chatchata kar khul gaye
yahan? usne kuch nahin kaha uske pet aur wakshasthal par kharonchon se khoon chhalachhla aaya ‘hatao hatha yahan yahan? unhonne jagah jagah bakotna shuru kiya yahan taDak taDak uske donon galon par teen chaar tamache jaD diye
bolo? nahin bologi? usne takiye mein apna munh gaDa liya ‘nahin bologi? dene i bil sho yu let mi haiw mai pistol unhonne almari ki or dekha, no, its nat hiyar we kamre se bahar nikal gaye
i aim jast ritarning mai little Darling haiw peshens Dont looz yor karej
wo chupchap uthkar dusre darwaze se niche i aur sas ko jaga diya dauD dhoop shuru hui do adamiyon ne pakaD kar unhen zabardasti litaya Daktar aaya phir thoDi hi der baad som ke chehre par wahi shant nirih bhaw laut aaya jaise we bahut thak gaye hon aur sona chahte hon sab log Daktar ke sath bahar jane lage to sas ne use chalne ke liye ishara kiya usne kah diya ki wo thoDi der mein ayegi phir wo som ke sirhane aakar chupchap baith gai aur unke balon mein ungliyan pherne lagi phir jaise ek kohara sa chhantne laga aur ankhon se maun ansu ki laDiyan bandh gain ab kya hoga? kya hoga ab? tabhi usne suna Daktar baramde mein kah raha tha, mistar gauD! di eksperiment haiz been totli ansaksephul us ek kshan mein hi wo jaD ho gai uske hath jahan ke tahan rook gaye ‘eksperiment! laga ki wo cheekh paDegi ‘eksperiment som ke mathe ko halka sa jhatka dekar wo uth i uska man hua ki som ka pistol uthakar wo bahar khaDe sabhi logon ko ek ek karke goli mar de usne socha ki bus, isi kshan, chal degi chahe raat use kisi hotel mein bitani paDe ya kahin aur usne ghumkar dekha som ki donon banhen uski or uthi hui theen ankhon se do boond donon taraf galon par bah i theen aur we ek asahaye bachche ki tarah uski or dekh rahe the uske bhitar se umaD umaD kar kuch atakne sa laga uski ichha hui ki dharti phat jaye aur wo sama jaye bhuchal aaye, ya kuch bhi ho som use goli hi mar den wo chupchap danton se hothon ko dabaye kamre se bahar nikal i
siDhiyan utarte hue usne ek bar pichhe ghumkar dekha tha wo soch nahin saki thi ki som agar darwaza pakDe, khaDe khaDe uski or dekh rahe honge to wo kya karegi lekin wahan koi nahin tha andar shayad phir unhen daura aa gaya tha kuch log unhen pakDe hue the unki cheekh sare bangale mein goonj rahi thi—‘sali, kutiya kamini thooः
khiDki se tike tike, jane kab use neend aa gai thi haDabDakar jab wo uthi to paya ki subah ho gai hai aur gaDi merath pahunchne wali hai station par utarte hi wo sihar gai wahi chhota sa station tha bilkul waisa hi kahin koi pariwartan nahin yahi shahr hai jahan wo apne ko dafan kar gai thi usne socha aur kuli se saman uthwakar station ke bahar aa gai yahin us bar uski sas khaDi theen aur sath hi kitne ajnabi log, jo use dekhne aur swagat ke liye upasthit the dukanen waisi hi theen to kya ye sidhe madhawangar chali chale? isi pasopesh mein wo rikshe par baith gai kisi hotel mein chalenge, samjhe kahkar wo chup ho gai
dopahar beet gai thi hotel ki chhat par dhoop mein ek dari bichhakar wo leti hui thi dhoop mathe par kuch tikhi lagne lagi to usne naukar se kahkar ek khat khaDi kar li upar asman mein kafi unchai par chilon ke giroh bhanware le rahe the gahre nile akash mein safed badlon ke chakatte paiband ki tarah kahin kahin ubharte aur phir gum ho jate phir sahsa akash ki athah gahrai mein se kahin ek safed tukDa prakat ho jata aur hawa ke ishare par jhalamlata hua sarakne lagta
bekar hai tera yahan aana tere man mein to kuch bhi nahin hai sumit! wo bar bar apne se kahti aur phir wo kaise milegi? kya kahegi ki wo kyon i hai kya wo sanyat rah sakegi? jo bhi ho, wo puchhegi, som ki chhati par mukke mar mar kar puchhegi, tumne aisa kyon kiya? tumne mujhe aisa kyon bana diya? tum mujhe kyon nahin chhoDte? aur som? uske sath kaisa wywahar karenge
lekin jo bhi ho, wo milegi zarur phir? phir kya? ab aur kya shesh rah gaya tha in sat warshon mein chup chup talaq bhi ho gaya tha us waqt som pagalkhane mein the hastakshar karte waqt wo wahin phoot paDi thi nahin, wo ye bilkul nahin chahti uska man hota ki wo som ko pagalkhane jakar dekh aaye phir usne research puri ki papa ne kaha ki kuch kar le to unhin ki sifarish par usne pradhyapika ka pad bhi swikar kar liya uske dusre din usne papa ko chitthi likhi thi, ‘papa, mujhe ab aur kuch karne ke liye mat kahna main theek hoon wahin rahte hue use chandra se khabar mili ki som achchhe ho gaye hain aur unhen naukari par phir se bahal kar liya gaya hai use santosh hua tha aur usne socha tha ki ek bar bina kisi ko bataye wo merath chali jaye aur unhen dekh aaye lekin unke zara sa bhi Distarb hone ki kalpana se hi wo kanp uthti aur uska jana rah jata
isi pasopesh mein ek din chandra ki chitthi i likha tha, som ne phir se shadi kar li hai wo sann rah gai sahsa use wishwas nahin hua use chandra ko tar diya ki ye khabar kahan tak sach hai jawab mein chandra ne likha ki yahan sabhi ko pata hai sath hi ek saptahik mein usne som aur us laDki ki taswir chhapi hui dekhi hai taswir ki kating wo bhej rahi hai taswir dekhkar bhi use wishwas nahin ho raha tha kai bar stool par kone mein rakhi som ki taswir se wo milan karti aur dekhti rah jati uski samajh mein nahin aa raha tha ki wo kya soche? apne sath kaisa wywahar kare chupchap wo bahar nikal i kuch laDkiyan uske sath roz ‘new sait tak ghumne jaya kartin theen usne sabhi ko mana kar diya duniyan ki kisi bhi ghatna ya aghatna par use wishwas nahin ho raha tha kuch bhi sambhaw hai yahan aur kuch bhi asambhaw hai wisheshkar jise anhona samjha jata hai wo to ghatit hokar hi rahta hai use laga ki kisi ne tumbi laga kar uska rakt choos liya hai aur ek kathputli ki tarah nirjiw, anubhutihin, wo chupchap chali ja rahi hai
hostel mein wo kafi der se lauti thi kai laDkiyan darwaze par baithi phusphusa rahi theen aur din hota to wo Dant deti, lekin aaj kuch nahin boli use lag raha tha ki wo in sabse gai guzri hai uski koi ahmiyat nahin hai andar aakar wo let rahi khiDki ke bahar andhere mein dekhte hue uske bhitar ek maroD si uthne lagi jaise sinkhchon ke bahar ki har cheez parari ho gai ho uski ichha hui ki hath baDhakar, bahar andhere mein Dubi hui sari hariyali aur jharajhrati hawa ko apne andar kheench le phir us raat bedam si karawten badalti hui na jane kisi andekhe ko sunakar wo karahti chhatpatati rahi
subah uthi to laga jaise kisi paraye desh mein jagi hai raat bhar mein hi jaise sara jiwan khiDakiyon ko rah sarak kar gum ho gaya tha jaise andar ka sab kuch nichuD kar bah gaya tha aur uska sukha hua kankal ek murti ki tarah khiDki par baitha diya gaya tha hath munh dhote waqt wo na jane kisi dusri anhoni ka intizar karti rahi ghanton bathrum ke farsh par baithi thithurti rahi —Dayning haal mein gai to usse kuch bhi khaya nahin gaya kaur munh mein Dalte hi ulti si aane lagti chhoDkar wo uth i phir use mahsus hua ki is kamre mein wo ek kshan ko bhi nahin rah sakti jaldi jaldi kapDe badal kar wo uniwersity chali gai class mein jate waqt use laga jaise sabhi usi ko dekh rahe hain uski peeth par banhon par, ankhon mein, bhanwon mein sab kuch likhkar tank diya gaya hai
class khatm hone par usse wahan nahin raha gaya ‘stafrum ki or jane ke bajay wo paidal hi hostel chal paDi kamre ka dhyan aaya to usne socha ab kahan jaye phir wo apne aap ‘nyusait ki or muD gai dhire dhire din Doob gaya halki si thanD gahra gai andhera uthne laga us andhere mein kshaitij ki rekhayen toDte hue niःshabd pakshi the badlon ke nanhen nanhen chhallon mein lal machhliyan theen kahan door train ki layatmak tutti hui awaz thi sab kuch kitni tezi se toot raha tha hawa rukti hui si lag rahi thi uske phephDe bedam ho rahe the purab ki or jheel mein lal kamal mund rahe the aur door door tak unche unche tilon, ghatiyon aur kheton ke beech kankrile raston, pagDanDiyon aur khaiyon mein andhkar bharta ja raha tha wo ghas mein munh ke bal let gai or phaphak phaphak kar rone lagi sannate mein uska sisakna saf saf sunari de raha tha, jaise bachcha aadhi raat ko man ko bichhaune par na pakar Darta hua dhire dhire sisakne lagta hai uski muththiyon mein nuchi hui ghas bhar gai thi aur usi tarah munh ke bal paDi hui wo na jane kab so gai thi
chhat par ki dhoop na jane kab ki sarak gai thi sanjh ho gai thi chila hawayen badan chirti hui sarsarane lagi theen thanD ke karan asman ajib Dhang se sikuDa hua lagta tha charon aur gharon aur bajon jhurriyan si utar rahi theen wo uth khaDi hui aur hotel ke laDke se rickshaw bulane ko kahkar, kamre mein chali gai use kapDon ka khayal aaya kya pahankar wo jaye! itne bhayawah dukh mein bhi wo anubhuti use sukh se aardr kar gai jaise som kahin intizar kar rahe hon abhi bhare bhare man se jakar unse lipat jana ho rikshe par chalte hue un sabhi jaghon ki dhundhli si taswir saf ho gai lekin parichai ka wo star badal gaya tha abhibhut hokar Doob jane ke we wismay bhare ekant ab kahan the sankari galiyon mein hathkarghe ghar gharr karte hue chal rahe the jahan tahan Dhibariyon ki raushani ya bijli ki hansi oDhe sham jhilmila rahi thi saDak par hi wo rikshe se utar gai samne wahi hapuD nauchandi ki chungi, us or wahi baDa sa phatak aur phir hapuD ki or jati hui andheri saDak us khiDki se ye sab dikhta tha achanak wo sihar gai aur usne shaal kheench kar banhon ko theek se Dhak liya saDak chhoDkar wo gali mein aa gai
makan ke chabutre par chaDhte hi uski dhaDakne baDh gain bhitar raushani jhalak rahi thi samne wali khiDki khuli thi darwaze par lagi safed kal bel chamak rahi thi uske hath ‘kal bel dabane hi ja rahe the ki andar se som ke thahake ki awaz sun paDi wo saham kar kanp gai kya ek bar ki gahri pahchan insan ko kabhi nahin bhulti? khiDki ki rah usne dekha som ek nanhin si bachchi ko uchhaal rahe hain bachchi roti ja rahi hai aur man nahin rahi hai patni farsh par baithi hui ek dusre bachche ko kuch khila rahi hai uski peeth khiDki ki or thi kshan bhar ko som ki baat bhulkar patni ki peeth wo ektak dekhti rahi usne chaha ki ek bar us istri ka munh dekh le som ka chehra bhi dusri or tha aur unke kandhe par chikhti hui bachchi ka ansuon se tar gol matol mukhDa bhar dikh raha tha
achanak use ye sab kuch baDa atpata sa laga usne ghoom kar pichhe gali mein dekha aate jate log use is tarah khiDki se jhankti dekhkar kya sochenge! we duble nahin dikh rahe the kandhe aur bhi pusht aur chauDe ho gaye the kamar moti lag rahi thi
yahi deh kabhi kitni apni thi, jisne use is tarah pagal bana diya tha, usne socha aur ek kshan ko phir usne dekhana chaha ki bachchi khilkhila rahi thi aur we jhukkar lagatar patni ke galon ko choom rahe the wo jaldi se niche utar i aur gali mein yoon chalne lagi jaise yahin kahin rahti ho saDak par aakar usne idhar udhar taka koi rickshaw aas pas dikhari nahin paDa chungi phatak par karke wo aage baDh gai kuch door andheri saDak par chalne ke baad wo nauchandi ke baDe wale maidan ki or muD gai uski samajh mein nahin aa raha tha ki kahan ja rahi hai use swayan apne chalne ki yadgar bhi bhool gai thi achanak usne apne ko qabrgahon ke beech mein paya palash aur jhau ke jharkhanDon ke beech purani hui qabr uske panwon ke niche theen pahli bar yahin par use shak hua tha ‘suraj kunD ki or se ghumte hue som aur wo thanDi raat mein yahan aaye the tab use kitna Dar laga tha aur ab? kya tumhein Dar lagta hai? usne khu se puchha
isse ziyada Dar to use som ki khiDki par khaDe khaDe laga tha kaisa Dar ? chalte chalte kabhi wo ek dhansi hui qabr mein ho jati, phir kisi dusri qabr par chaDhkar use par karna hota ye khaDi ho gai aur pagDanDi ka andaz lagane lagi kuch door par ek chhoti si masjid dekhi bhitar koi nanha sa dipak baal gaya tha hawa ki siharan se sukhe patte khaDakhDa kar uDte aur phir sab shant palash aur jhau ke jharkhanDon ke beech se ajib ajib kaluti, aadim, andekhi akritiyan ubharne lagin
kya wo zinda hai, dafan nahin ho gai hai? kya uska jism uski qabrgah nahin? qabrgah jise wo saumpna chahti hai chahti hai ki koi us par phool chaDhaye phir bhi wo nahin saump pati ek nari bani hui qabr par baith gai ichha hui yahin let jaye aur koi upar se mitti Dal de man witrshna se bhar aaya koi kisi ka dukh nahin samajh sakta wo kisi ko bhi dosh nahin deti papa ko bhi nahin kya kisi ke bhi wash mein hai ki wo dusre ko sukhi rakh sake aisa chaha ja sakta hai, lekin chahne se hi to sabhi kuch nahin ho jata
pichhle sat warshon se wahi kamra aur wahi raten jinmen ek pal ko bhi wo jagi rahna nahin chahti lekin neend? ankh jhapakte hi wo chihunk kar uth baithti jaise koi sans chura le bhagne ki fir mein darwaze par ghat lagaye ho jhat wo batti jala deti kahin kuch bhi nahin bhitar itni thakan aur itna dabaw hath pairon ke joDon par twacha ke niche nason ka dhDakna saf saf dikh paDta takiye par kanon ki rah dhukdhuki sunte sunte wo ub jati karawten badalti phir badalti phir phir phir neend mein sapnon ke ambar har karwat par kisi wirat sapne ke bhayawah khanD toot toot kar juDte jate subah uthne par wo sham se bhi ziyada thaki hoti sare badan mein kewal nason ka dhaDakta jal mahsus hota
beech beech mein kabhi kabhi man aakar ekadh hafte ke liye rah jati pichhli dafa unhen pata chal gaya tha jab bhi subah wo ino ka gilas mangti, we samajh jatin man kewal chupchap dekhtin aur honth danton tale dabaye chupchap chali jati wo manati, kuch nahin man, wo neend nahin—ati na, isliye wo lipat jati
to tu neend ki goliyan kyon nahin rakhti?
aur kisi din ek sath kai goliyan kha loon to man?
man ansu ponchhti hui chauke mein chali jatin tu bus naukari chhoD aur chal wo kahtin uska man hota, puchhe, kahan man? lekin wo chup rah jati yuniwarsiti jane lagti to man kahti, dekho beta der na karna we hamesha bharabhrai hui lagtin
dharmshale ke pichhe ek chhoti si jagah thi buDhiya ko wo bhabhi kahti barf mein rakhi hui biyar ki botal nikalkar wo khu hi rakh leti bhabhi pakauDe aur papaD bhoon lati tab tak wo kaktel banati phir thoDi der baad awazen door door lagne lagti sara mahaul, log, bheeD, swariyan sab kafi door door lagte apni awaz bhi jaise kafi door se boli gai lagti jaldi laut aane par bhi man samajh jati
man, papa se mat kahna, main itni gir gai hoon phir man beti donon phoot paDtin
tu kitaben kyon nahin paDhti? man kahti
sari kitaben mujhe chiDhati hai man sab jagah meri hi baat likhi hai wo khilkhila paDti
man chaunk kar use dekhti rah jati
phir man ke chale jane ke baad wo usi tarah asahaye ho jati; ghanton bistar par, farsh par ya darwaze ki sandhi par ukDun baithi rahti sune din ya raat ke ekant mein use lagta koi awaz de raha hai—sumit! wo chaunk kar charon or dekhti rah jati nahin, ye bhram hai aisi baton par use qati wishwas nahin hota barish ka hona, pahaDiyon aur kheton mein sandhya ke aalok ka bujhna, raton ka Dhalna ya din ki tikhi dhoom ke panje phailana sab mein use ek bhayawah chhaya si nazar aati use phir wahi awaz sun paDti sumit! wo ghumkar charon or takti aur ek ajab se sukh bhaw se bol paDti hoon, bolo?
phir wo sannate ki usi awaz ka intizar karti
aise hi kshnon mein paint ki jebon mein hath thunse basant kabhi kabhi dikh jata bahudha class se lautte waqt wo staff room ki khiDki par aakar khaDa ho jata miss sharma jaise neend si tutti wo kursi ghumakar use dekhti rah jati, a jaiye na andar
class hai wo khiDki ke chhaD pakDe muskura paDta uski nak, honth aur chibuk khiDki ke bhitar aa jate wo thoDi der tak khaDa rahta, phir chala jata
us din sari raat usne nishchay kiya tha Dar laga rahta tha ki kahin nashe mein to wo aisa nahin soch rahi hai subah miting thi miting khatm hone ke baad usne basant ko awaz di pahle uske hath uthe, phir wo pichhe hath bandhe aakar muskurata hua khaDa ho gaya phir bola, aaj aap khush dikh rahi hain
chaliye, thoDa ghoom ayen usne baat ko badalte hue kaha
saDak chhoDkar we unche niche raste par ho liye tile par chaDhte waqt ekadh jagah basant ne hath baDhana chaha to usne aise jataya jaise dekh nahin rahi ho ek jagah kuch chauDi si khai thi basant phir apna hath baDhakar khaDa ho gaya ek pal ke baad usne hath pakaD liya aur khai par kar gai ek unche tile par chaDhkar we baith gaye surya Doob raha tha basant ka chehra surya ke lalim rang mein bhinjkar ekdam surkh ho raha tha ekayek phir na jane kaise use som ka chehra yaad aaya kyon aisa hai? kyon? kisi bhi ekant mein som ki mudrayen ghir aati hain? usne sir jhatak liya sumit pleez! usne man hi man kaha, theek hai baad mein jo bhi kah lena uski ankhon mein ansu aa gaye basant se chhipane ke liye munh dusri or pher liya uski ichha hui ki uth chalne ko kahe sab bekar hai
thanD kafi hai basant ne tabhi kaha uski donon banhen upar asman ki or uthi hui theen
apne pulowar nahin pahna usne kaha
main apne liye nahin kah raha basant ne kaha
phir donon chup ho gaye basant rah rah ke koi patthar uthata aur niche khai ki or luDhka deta kabhi laD khaDate hue patthar ki awaz sunai paDti, kabhi nahin
ekayek usne karwat ghoom kar apni ek banh baDhakar sampurn roop se use kheench liya wo shayad uthkar chalna chah rahi thi us apratyashit se kuch bhi samajh nahin pari basant ne aur bhi zor se chiptate hue kaha, aap unhen bahut chahti hain n?
kuch jawab dete nahin bana usse som! ek akela wekti uski sari prakrti, sampurn man, deh aur aatma mein bichha hua kya adhikar hai? kisi ko bhi kya adhikar hai ki wo apni aatma ko itna nirih bana de? wo kahna chahti thi, na, main us shakhs se behad nafar karti hoon na, main swtantr hoon main bilkul akeli hoon akeli ban ke dikha sakti hoon mujhe tum kahin bhi le chalo , lekin uske munh se kuch bhi nahin nikla
kitni baDi baat hai ye basant ne kaha
kitni baDi baat hai! na basant, usne kahna chaha, ye ek bhayanak maut hai jise til til mahsus karna hota hai koi mujhse puchhe ki tumhari umr jyotish ke anusar kitne warsh hai? to main usse puchhne ko kahungi tumhari maut jyotish ke anusar abhi kitne warshon tak chalegi basant, main kuch nahin chahti nahin chahti ye patiwrawya aur prem ka baDappan main pap karna chahti hoon main girna chahti hoon main sita, sawitri, damyanti, radha kuch nahin banna chahti main janti hoon ki main punyatma nahin hoon dukh pana koi punny karm nahin hai lekin, wo ekdam chup thi
kitna ajib hai ye sansar! basant ne usi tarah kaha, jo ek bar sukh se saza deta hai wo apna diya wapas nahin le jata yoon kahen ki nahin le ja pata use lautane ka adhikar data ko nahin rah jata aur phir us sukh ki baDh mein hum ajiwan ubh choobh hote rahte hain phir kya hota hai? phir shayad kuch nahin ho pata kuch sukh hote hi aise hain jo hamein sada ke liye pagal kar dete hain aage wo kho sa gaya
ekayek uske bhitar koi cheez laDkhaDane lagi usne ek jhatke se apne ko alag kar liya aur khaDi ho gai ye ho kya gaya? ye usne kya kar diya? uski ichha hui ki khoob zor se chikhe— nahin, som nahin bharabhra kar ansu nikal aaye basant bhi uthkar khaDa ho gaya dhire se usne uski banh chhui—‘kya hua miss aap yahan se jaiye mujhe chhoD dijiye jaiye usne banh jhatak di jaise wahan bichchhu ne Dank mar diya ho
basant ne ek bar kahna chaha tabhi usne ankhen uthain phir wo kuch nahin bola uske hath waise hi pichhe bandhe hue the jaise apni anguliyon ki jakaD chhipa lena chahta ho
baghal ki jhaDi mein halki si khaDkhaDahat hui wo chaunk gai hawa ke jhonke mein pattiyan zamin par ghisat rahi thi wo uth khaDi hui jhaDiyon ke beech se rasta banati hui wo nauchandi ke baDe wale maidan mein nikal i baDe baDe tin ke sheDs mein andhera aur bhi ghana ho raha tha chalti hui, baDe phatak se nikal kar wo phir saDak par aa gai som ka makan wahan se dikh raha tha pichhe wali khiDki khuli thi aur raushani ke dayre mein koi nari murti balon mein kanghi kar rahi phir khiDki band ho gai rikshon ko takti wo aage baDh rahi thi abhi usne dekha darwaza khul gaya hai aur wahi nari murti ek bachche ko ungli pakDaye saDak ki or chali aa rahi hai wo jahan ki tahan khaDi rah gai istri ne saDak par aakar ek bar pichhe ki or dekha, phir bachche ko utha liya sare saj singar ke bawjud wo wishesh sundar nahin lag rahi thi phir bhi deh bhari puri thi aur chehra bhawahin tha tulna mein usne apne ko ek bar parakhne ki koshish ki to laga ki uska chehra anwara gaya hai, ankhen dhans gai hain sari deh ka rakt mans sookh gaya hai aur kapDon ke bhitar wo kisi tarah apne kankal ko chhipaye, laDkhaDati hui chal rahi hai
tabhi darwaze ke bahar som ka lamba tagDa sharir prakat hua ek or hatkar wo chupchap unhen saDak ki or aate dekhti rahi do chaar qadam chalkar we khaDe ho gaye or cigar sulgane lage kash khinchte hi cigar ko anch mein unka chehra damak kar phir andhare mein ojhal ho gaya
hotel lautkar wo bina khaye piye bistar par paD gai thi
gahri neend mein use laga, koi uske hath ki ungliyan jeebh se chat raha hai uski ek banh lihaf ke bahar paDi paDi ekdam sard ho gai thi sihar kar wo jag gai andhere mein kahin koi aahat nahin lagi usne beD switch jala diya kamra thanD se sikuD kar jaise aur bhi chhota lag raha tha ek kone mein gard se bhari ek chuhedani rakhi hui thi lagta tha mahinon pahle kisi musafi ki shikayat par hotel manager ne chuhedani rakhawai hogi hotel ki khasta haalat aur zindagi se ye zahir tha ki kisi ne chuhedani ko phir se hatane ka kasht nahin uthaya tha usne dekha ek chuhiya mahinon pahle, shayad chuhedani mein phans gai thi usak sharir ekdam sukhkar kanta ho gaya tha chuhedani ki sinkhchon par apne agle do pairon ko rakhkar thuthne ko bahar nikalte hue usne nikalne ki bahut koshish ki hogi, lekin usi mudra mein laDte laDte wo sookh gai chuhedani ke bahar ek baDa sa chuha sashank netron se kabhi uski or dekhta aur kabhi apne donon agle panw upar uthakar apne thuthan se chuhiya ka thuthan hilata
usne munh pher liya aur batti bujha di karwat badalte waqt takht par, bawjud bistar ke, kulhe ki haDDiyan gaD rahi theen
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1960-1970) (पृष्ठ 27)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।