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छोटी सी डोरी

chhoti si Dori

गी द मोपासाँ

गी द मोपासाँ

छोटी सी डोरी

गी द मोपासाँ

और अधिकगी द मोपासाँ

    बाज़ार का दिन होने के कारण गॉदवेल से शहर की ओर जाने वाली सारी सड़कों पर हलचल थी। किसान अपनी पत्नियों के साथ उमड़ पड़े थे। सारे मर्द सरक-सरक कर ही चल पा रहे थे, क्योंकि एक तो वे हल चला-चला कर बुर तरह थक चुके थे, दूसरे गेहूँ की कटाई करने के कारण उनके हाथ की काँख भी भर आई थी। थकान के मारे चूर हो चुके इन मर्दों का सीधे खड़े हो पाना भी मुश्किल हो गया था। लेकिन हाँ, उनके नीले कलफ़दार कुर्ते ज़रूर चकाचक लग रहे थे। उन कुर्तों के गले और कलाइयों पर छोटी-छोटी सफ़ेद डिज़ाइन बनी हुई थीं। मगर ये कपड़े उनके टांटिया शरीर पर ऐसे लग रहे थे, जैसे कोई ग़ुब्बारा उड़ने की तैयारी में हो और उसमें से आदमी के हाथ, पैर और सिर लटक रहे हों।

    कुछ लोग गाय या बछड़े को रस्सी से बाँध कर चल रहे थे। उनकी बीवियाँ जानवरों के पुट्ठों पर पेड़ की टहनी से बने हंटर फटकारते हुए पीछे-पीछे चल रहीं थीं। उनके हाथों में डलिया लटकी हुई थीं, जिनमें से मुर्गे या बत्तख अपनी चोंच बाहर निकाल रहे थे। इन महिलाओं की चाल पुरुषों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा तेज़ थी। अपने सपाट सीने पर उन्होंने छोटा-सा शाल ओढ़ रखा था। सिर पर सफ़ेद कपड़ा लपेट कर उस पर टोपी पहन रखी थी। वहीं उस उबड़-खाबड़ रास्ते से एक वैगन गुज़र रही थी। उसमें दो आदमी सट कर बैठे हुए थे और पायदान पर एक महिला, जिसने हिचकोले से बचने के लिए गाड़ी को कस के थाम रखा था।

    गॉदवेल का चौराहा इंसान और जानवरों की भीड़ से ठसाठस था। मवेशियों के सींग, अमीर किसानों के रोएंदार लंबे हैट और महिलाओं का श्रृंगार उस भीड़ में भी अलग ही नज़र रहे थे। कहीं कर्णभेदी कोलाहल था, तो कहीं लंबी चीख़ पुकार। कभी-कभी किसी किसान का ठहाका या खूंटे से बंधी किसी गाय के रंभाने की आवाज़ उस शोर को दबा देती थी। दूसरी ओर अस्तबल, डेरी, घास और पसीने की मिली-जुली गंध वही एहसास करा रही थी, जो कमोबेश खेत- खलिहान के इंसान जानवरों की गंध से मिलता है।

    ब्रेजूत का मेत्र ओशेकम अभी अभी गॉदवेल पहुँचा था। यकायक उसकी निगाह ज़मीन पर पड़ी छोटी-सी डोरी पर पड़ी। एक सच्चा नॉर्मन होने के नाते वह महाकंजूस था और उसका यह मानना था कि जो भी चीज़ काम की लगे, उसको उठाने में कोई शर्म नहीं करनी चाहिए। हालाँकि गठिया का दर्द होने के कारण उसे झुकने में तकलीफ़ होती थी, मगर उसने कष्ट किया और वह डोरी उठा ली।

    जब वह उस को लपेट-लपेट कर उसका गुच्छा बना रहा था, तभी उसकी निगाह सामने वाले मकान की दहलीज़ पर खड़े मेत्र मेलेन्देन पर पड़ी, जो उसी की ओर घूर रहा था। मेलेन्देन घोड़ों की लगाम कसने का काम करता था। किसी ज़माने में एक रस्सी के मामले में उन दोनों में कहासुनी हो चुकी थी और फ़िलहाल वे एक दूसरे से नफ़रत करते थे। मेत्र ओशेकम थोड़ा खिसिया गया। उसने डोरी का गुच्छा अपने पायजामे की जेब में डाला और फिर ऐसे नाटक करने लगा, मानो ज़मीन पर गिरी हुई किसी चीज़ को ढूँढ़ रहा हो, फिर पलटा और बाज़ार की ओर रवाना हो गया।

    थोड़ी ही देर में वह भीड़ में गुम हो गया। वहाँ सब तरफ़ मोल-भाव चल रहा था। किसानों का आना-जाना लगा हुआ था। कभी वे किसी चीज़ को हैरत से देखते, तो कभी उनके चेहरे पर एक क़िस्म की चिंता उभर आती कि कहीं ठग लिए जाएँ। वे दुकानदार की आँखों में झाँक कर ऐसी तरकीब तलाशना चाहते थे, जिससे वे उसका या उसके माल का नुक़्स ताड़ लें।

    महिलाओं ने अपने पैरों के पास टोकरियाँ रखी हुईं थीं, वे मुर्ग़े और बत्तखों को कसकर थामे थीं। इन प्राणियों को पैरों से बाँध कर रखा हुआ था। डर के मारे इनकी कलंगियाँ लाल हो चुकी थीं। ये महिलाएँ ग्राहक की बोली बड़े निर्विकार मन से सुनती थीं, फिर अपने भाव को कुछ कम करने का सोचती थीं और ज्योंही ग्राहक धीमे से खिसकता दिखता, वे पुकार कर कहती थीं, ‘‘ठीक है, मेत्र ओथिरन, मैं तुमको इतने में ही देती हूँ।’’

    धीमे-धीमे वह चौराहा ख़ाली होने लगा, दोपहर होने को आई थी, जो लोग बाज़ार में इतनी देर से थे, वे अपनी दुकानों की ओर लौटने लगे थे।

    जूइंदे के विशाल कमरे में दावत उड़ रही थी, उसके बरांडे में लोगों ने अपने वाहन खड़े कर रखे थे। इन वाहनों में गाड़ी, टमटम और वैगन से लेकर पुरानी खटारा तक सभी शामिल थे। खाने की मेज़ के सामने अँगीठी सुलगी हुई थी।

    उसकी आँच से सामने की पंक्ति में बैठे लोगों के चेहरे रोशन हो रहे थे। चिकन, मटन और सिके हुए माँस की महक से लोग ख़ुश हो रहे थे और रह-रहकर उनके मुँह में पानी रहा था। किसानों का पूरा अभिजात्य वर्ग उस दावत में जुटा हुआ था। मेत्रे जूइंदे शराब की दुकान का मालिक और घोड़ों का सौदागर था, दूसरे शब्दों में कहें तो वह एक धूर्त अमीर था।

    खाने की थाली पर थाली परोसी जा रही थीं और उतनी ही गति से ख़ाली भी हो रही थीं। ग्लास उंड़ेले जा रहे थे। हर आदमी अपने प्रेम प्रसंग, अपनी ख़रीद-फ़रोख़्त के क़िस्से उगल रहा था। फसल पर बहस मुबाहिसे हो रहे थे। मौसम हरियाली के लिए तो बिल्कुल अनुकूल था, लेकिन गेहूँ के लिए भारी पड़ रहा था।

    यकायक उस घर के अहाते में एक ढिंढोरची के नगाड़े की आवाज़ सुनाई दी, कुछेक लोगों को छोड़ मुनादी सुनने के लिए सभी लोग दरवाज़े के पास आकर खड़े हो गए। कुछ खिड़की में से झाँकने लगे। उनके मुँह अभी भी जूठे थे और हाथों में नैपकिन मौजूद थे। जब लोगों का शोर थमा, तो ढिंढोरची ने ऐलान किया—

    ‘सुनो, सुनो, सुनो, गॉदवेल के लोगों को ख़ासतौर पर और बाज़ार में मौजूद सभी लोगों को आमतौर पर यह सूचित किया जाता है कि आज सुबह नौ से दस बजे के दरमियाँ बेंजवेल की सड़क पर चमड़े की एक काली पॉकेटबुक गुम हो गई है। इसमें पाँच सौ फ्रेंक रखे हुए थे और कुछ धंधे के काग़ज़ात थे। जिस किसी को भी वह मिले, मेहरबानी करके मेयर के दफ़्तर में या मेनवेल के मेत्र फॉर्चून ओब्रेक के पास जमा कर दें, लाने वाले को बीस फ्रेंक का ईनाम दिया जाएगा।’

    इसके बाद वह ढिंढोरची चला गया। थोड़ी ही दूर पर एक बार फिर उसकी डुगडुगी सुनाई दी, फिर इस घटना के बारे में चर्चा करने का सिलसिला शुरू हुआ। इस बात के कयास लगाए जाने लगे कि मेत्र ओब्रेक को वह काली पॉकेटबुक मिलेगी कि नहीं।

    दावत ख़त्म हुई। वे अपनी कॉफ़ी ख़त्म कर रहे थे, तभी एक पुलिस वाला दहलीज़ पर धमका।

    उसने पूछा, ‘क्या ब्रेजूत का मेत्र ओशेकम यहाँ मौजूद है?’

    टेबल के आख़िरी सिरे पर बैठे मेत्र ओशेकम ने जवाब दिया, ‘हाँ, मैं यहीं हूँ।’

    पुलिसवाला शुरू हुआ, ‘मेत्र ओशेकम! क्या तुम मेरे साथ मेयर के दफ़्तर चलोंगे? वे तुमसे कुछ बात करना चाहते हैं।’

    किसान अड़चन में पड़ गया, उसने अपनी ब्रांडी का गिलास ख़ाली किया, उठा और सुबह की बनिस्पत ज़्यादा तकलीफ़ के साथ झुकते हुए चलने लगा।

    टुन्न होने के कारण उसे हर क़दम भारी लग रहा था। कहने लगा, ‘बस अभी चलता हूँ।’

    मेयर अपनी आर्मचेयर में बैठा-बैठा उसी का इंतज़ार कर रहा था। वह पड़ोस का नोटरी था। एक धीर-गंभीर मगर शानदार व्यक्तित्व का धनी।

    उसने कहा, ‘मेत्र ओशेकम, आज सुबह तुमको बेंजवेल की सड़क पर मेनवेल के मेत्र फॉर्चून ओब्रेक की पॉकेटबुक उठाते हुए देखा गया है।’

    देहाती दंग रह गया, शक की निगाहों से देखे जाने के कारण वह पहले से ही डरा हुआ था। ‘मैंने? मैंने? मैंने? पॉकेटबुक उठाई थी?’

    ‘हाँ, वो तुम ही थे।’

    ‘हुज़ूर, मैंने तो इसके बारे में सुना तक नहीं।’

    ‘लेकिन तुम देखे गए थे।’

    ‘मुझे देखा था? किसने देखा था?’

    ‘लगाम कसने वाले मॉसजी मेलेंदेन ने’।

    बूढ़े को घटना याद गई, वह समझ गया और ताव में गया।

    ‘उस गँवार ने मुझे देखा था? मेयर साहब! उसने मुझे ये सुतली उठाते हुए देखा था।’ यह कहते ही उसने पायजामे की जेब में रखा सुतली का टुकड़ा दिखाया।

    लेकिन मेयर ने संदेह में अपनी गर्दन हिलाई।

    ‘मेत्र ओशेकम, तुम्हारी बातों पर मुझे यक़ीन नहीं हो रहा है। मॉसजी मेलेंदेन एक समझदार और भरोसेमंद आदमी है। वह सुतली के टुकड़े को पॉकेटबुक समझने की ग़लती क़तई नहीं कर सकता।’

    किसान ग़ुस्से से आग बबूला हो उठा, उसने ज़मीन पर थूकते हुए एक बार फिर दोहराया।

    ‘क़सम से, यह सच नहीं है, मेयरसाब, मैं अपनी अंतरात्मा के साथ कहता हूँ कि यह सही नहीं है।’

    मेयर ने कहा, ‘भाल उठाने के बाद तुम ज़मीन पर बहुत देर तक यह तलाश कर रहे थे कि कुछ रक़म तो नहीं गिरी है।’

    भला आदमी तो सन्न रह गया।

    ‘किसी ईमानदार आदमी की इज़्ज़त उतारने के लिए कोई इतना झूठ कैसे बोल सकता है।’

    लेकिन उसके विरोध के कोई मायने नहीं थे। उसे मॉसजी मेलेंदेन के सामने खड़ा किया गया। वह अपनी बात पर क़ायम रहा। दोनों ने एक-दूसरे के साथ गाली-गलौज की, मेत्र ओशेकम ने ख़ुद अनुरोध किया कि उसकी तलाशी ली जाए। तलाशी ली गई और कुछ भी नहीं मिला। आख़िरकार मेयर ने परेशान होकर उसे छोड़ दिया और कहा कि वह पब्लिक प्रॉसिक्यूटर से मशविरा करके नए ऑर्डर जारी करेगा।

    यह ख़बर हवा की तरह फैल गई, जैसे ही वह मेयर के दफ़्तर से बाहर निकला भीड़ ने उसे घेर लिया और हर आदमी सवाल करने लगा, वह सभी को सुतली वाला क़िस्सा सुनाने लगा। मगर किसी ने उस पर यक़ीन नहीं किया, सभी ने उसकी हँसी उड़ाई।

    रास्ते में वह अपने हर मित्र को रोकता, उसको सुतली वाला क़िस्सा बताता और अपनी जेब को अंदर से पलट कर बताता कि देखो यह केवल सुतली का टुकड़ा है।

    वे कहते: ‘धूर्त बूढ़े, दफ़ा हो जाओ।’

    और वह ग़ुस्सा हो जाता, भड़क उठता, गर्म हो जाता, दु:खी हो जाता। आख़िर क्यों लोग उसकी बातों का भरोसा नहीं कर रहे हैं? उसे समझ ही नहीं आता था कि क्या करे? बस अपनी बात दोहराता रहता।

    दिन ढल रहा था, अब उसे रवाना होना था, वह अपने तीन पड़ोसियों के साथ रवाना हुआ। रास्ते में उसने उन्हें वह जगह बताई, जहाँ से उसने सुतली का टुकड़ा उठाया था। रास्ते भर वह अपनी वही राम-कहानी बताता रहा। अपनी यही दास्तां ब्रेजूत के गाँव के लोगों को बताने के लिए वह शाम को उधर से होकर गुज़रा, मगर सभी ने उस पर संदेह किया।

    रात को वह बीमार पड़ गया।

    अगले दिन एक घटना हुई, वाइमनवेल में एक किसान मेत्र ब्रेटन था। उसके नौकर मैरियस पॉमेल ने दोपहर को एक बजे मेलेंदेन के मेत्र ओब्रेक को पॉकेटबुक और उसमें रखे सामान लौटा दिए। इस आदमी ने दावा किया कि यह पॉकेटबुक उसे रास्ते में पड़ी मिली थी, लेकिन चूँकि वह पढ़ना नहीं जानता था, इसलिए वह उसे घर ले आया और अपने मालिक को दे दी।

    पड़ोसियों के जरिए यह ख़बर मेत्र ओशेकम तक पहुँची। वह तुरंत सर्किट तक गया और अपनी कहानी दोहराने लगा, एक ऐसी कहानी जिसका अंत सुखद था, वह ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा था।

    ‘मुझे दु:ख इस बात का नहीं है कि वह झूठ था शर्मनाक तो है एक झूठे इल्ज़ाम के बहाने सारी दुनिया को अँधेरे में रखना।’

    वह दिन भर अपने इस अनुभव का ढोल पीटता रहा। वह हाइवे से गुज़रने वाले हर आदमी से, कलाली से निकलने वाले हरेक दारूकुट्टे से, रविवार की प्रार्थना करके चर्च से लौट रहे तमाम भक्तों से, सभी से अपनी रामकहानी कह रहा था। इस वास्ते उसने अजनबियों को भी रोका। अब वह शांत था। लेकिन कुछ तो था, जो उसे बेचैन किए था। ऐसा लग रहा था, लोग उसे गंभीरता से नहीं ले रहे थे। वे सहमत हों, ऐसा भी नहीं जान पड़ता था। उसे ऐसा लगता था कि पीठ पीछे लोग उसकी खिल्ली उड़ा रहे हैं।

    अगले सप्ताह मंगलवार को जब वह गॉदवेल के बाज़ार गया, तो उसे इस मुद्दे पर लोगों से बात करने की तीव्र इच्छा महसूस हुई।

    जब वह मेलेंदेन के घर के सामने से गुजर रहा था, तो देखा वह हँस रहा है।

    क्यों?

    उसने क्रेकटॉट के एक किसान को पकड़ा, लेकिन उसने भी उसकी बात बीच में ही काटते हुए दन्न से उसके पेट में एक मुक्का जड़ दिया और कहा, ‘अबे धूर्त।’ फिर उसने मुँह फेर लिया।

    मेत्र ओशेकम उलझन में पड़ गया कि आख़िर उसे धूर्त क्यों कहा जा रहा है?

    जब वह जूइंदे की कलाली पर बैठा था, तभी उसने फिर अपना पुराण चालू किया। तभी मॉविले का एक घोड़े का सौदागर उसे कहने लगा, ‘आओ, आओ दग़ाबाज़, यह बड़ी पुरानी चाल है, मुझे तुम्हारे सुतली के टुकड़े के बारे में सब पता है।’

    ओशेकम हकलाने लगा, ‘लेकिन पॉकेटबुक तो मिल चुकी है...’

    तो वह बोला, ‘बस कर रे बुढ़ऊ, देखा एक आदमी ने था, रिपोर्ट दूसरे ने की थी और इन दोनों ही वारदातों से तुम्हारा संबंध है।’

    किसान का गला रुंध गया, उसे समझ में गया कि लोग यही मानकर चल रहे हैं कि इस पॉकेटबुक को उसी ने उठाया था और इसे लौटाने का काम उसके अपराध के साझेदार ने किया है। उसने विरोध करने की कोशिश की, मगर सारी टेबल पर हँसी की लहर उमड़ पड़ी थी। वह अपना खाना भी पूरा कर सका और तानों के बीच खाना छोड़ आया।

    जब वह घर लौटा तो ग़ुस्से और शर्म से लाल था। मन में उलझन थी और शरीर मारे ग़ुस्से के काँप रहा था। नॉर्मन होने के नाते स्वाभाविक रूप से एक चालाक और शेख़ी बघारने वाला यह आदमी आज अपनी उदासी को जज़्ब नहीं कर पा रहा था। उसकी चालाकी से ज़माना वाक़िफ़ था, लेकिन आज ख़ुद को निर्दोष साबित करने के लिए उसकी मासूमियत ही उलझन पैदा कर रही थी। वह संदेह के अन्याय का मारा हुआ था।

    उसने फिर से उस घटना को दोहराना शुरू किया। अब वह हर बार अपनी कहानी को थोड़ा और विस्तार देने लगा था, नई ऊर्जा, नए कारण, नए विरोध और नई धूमधाम के साथ। जब भी वह अकेला होता, इसी उधेड़बुन में रहता कि सुतली के टुकड़े की इस कहानी को कैसे लंबा किया जाए?

    उसे यह ख़ुशफ़हमी थी कि उसके क़िस्से में कई पेंच हैं और ऐसे क़िस्सों की रचना एक कुशाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति ही कर सकता है।

    ‘अरे यह सब तो झूठी सफ़ाई है’ पीठ पीछे लोग कहते रहते।

    अब उसे लगने लगा कि दिल चीर कर अपनी बात कहने के बावजूद उसकी सारी कोशिशें नाकाम रही हैं, वह सभी की निगाहों से गिर चुका है। अब लोग उसका मज़ा लेने के लिए उसे घेर-घेर कर सुतली वाला क़िस्सा सुनकर अपना मनोरंजन उसी प्रकार करते हैं, जैसे किसी फ़ौजी से उसकी बहादुरी के कारनामे सुन-सुनकर, उसे इस बात का भीतर तक सदमा पहुँचा और वह कमज़ोर होने लगा।

    दिसंबर ख़त्म होते-होते उसने बिस्तर पकड़ लिया था।

    जनवरी में उसकी मौत हुई। मौत की दहलीज़ पर सन्निपात के दौरान भी अपने बेक़सूर होने की उसकी कोशिश जारी थी। वह यही दोहराता रहा, ‘सुतली का टुकड़ा...सुतली का टुकड़ा...ये देखिए मेयरसाब।’

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 95)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : गी दि मोपासाँ
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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