बाज़ार का दिन होने के कारण गॉदवेल से शहर की ओर जाने वाली सारी सड़कों पर हलचल थी। किसान अपनी पत्नियों के साथ उमड़ पड़े थे। सारे मर्द सरक-सरक कर ही चल पा रहे थे, क्योंकि एक तो वे हल चला-चला कर बुर तरह थक चुके थे, दूसरे गेहूँ की कटाई करने के कारण उनके हाथ की काँख भी भर आई थी। थकान के मारे चूर हो चुके इन मर्दों का सीधे खड़े हो पाना भी मुश्किल हो गया था। लेकिन हाँ, उनके नीले कलफ़दार कुर्ते ज़रूर चकाचक लग रहे थे। उन कुर्तों के गले और कलाइयों पर छोटी-छोटी सफ़ेद डिज़ाइन बनी हुई थीं। मगर ये कपड़े उनके टांटिया शरीर पर ऐसे लग रहे थे, जैसे कोई ग़ुब्बारा उड़ने की तैयारी में हो और उसमें से आदमी के हाथ, पैर और सिर लटक रहे हों।
कुछ लोग गाय या बछड़े को रस्सी से बाँध कर चल रहे थे। उनकी बीवियाँ जानवरों के पुट्ठों पर पेड़ की टहनी से बने हंटर फटकारते हुए पीछे-पीछे चल रहीं थीं। उनके हाथों में डलिया लटकी हुई थीं, जिनमें से मुर्गे या बत्तख अपनी चोंच बाहर निकाल रहे थे। इन महिलाओं की चाल पुरुषों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा तेज़ थी। अपने सपाट सीने पर उन्होंने छोटा-सा शाल ओढ़ रखा था। सिर पर सफ़ेद कपड़ा लपेट कर उस पर टोपी पहन रखी थी। वहीं उस उबड़-खाबड़ रास्ते से एक वैगन गुज़र रही थी। उसमें दो आदमी सट कर बैठे हुए थे और पायदान पर एक महिला, जिसने हिचकोले से बचने के लिए गाड़ी को कस के थाम रखा था।
गॉदवेल का चौराहा इंसान और जानवरों की भीड़ से ठसाठस था। मवेशियों के सींग, अमीर किसानों के रोएंदार लंबे हैट और महिलाओं का श्रृंगार उस भीड़ में भी अलग ही नज़र आ रहे थे। कहीं कर्णभेदी कोलाहल था, तो कहीं लंबी चीख़ पुकार। कभी-कभी किसी किसान का ठहाका या खूंटे से बंधी किसी गाय के रंभाने की आवाज़ उस शोर को दबा देती थी। दूसरी ओर अस्तबल, डेरी, घास और पसीने की मिली-जुली गंध वही एहसास करा रही थी, जो कमोबेश खेत- खलिहान के इंसान व जानवरों की गंध से मिलता है।
ब्रेजूत का मेत्र ओशेकम अभी अभी गॉदवेल पहुँचा था। यकायक उसकी निगाह ज़मीन पर पड़ी छोटी-सी डोरी पर पड़ी। एक सच्चा नॉर्मन होने के नाते वह महाकंजूस था और उसका यह मानना था कि जो भी चीज़ काम की लगे, उसको उठाने में कोई शर्म नहीं करनी चाहिए। हालाँकि गठिया का दर्द होने के कारण उसे झुकने में तकलीफ़ होती थी, मगर उसने कष्ट किया और वह डोरी उठा ली।
जब वह उस को लपेट-लपेट कर उसका गुच्छा बना रहा था, तभी उसकी निगाह सामने वाले मकान की दहलीज़ पर खड़े मेत्र मेलेन्देन पर पड़ी, जो उसी की ओर घूर रहा था। मेलेन्देन घोड़ों की लगाम कसने का काम करता था। किसी ज़माने में एक रस्सी के मामले में उन दोनों में कहासुनी हो चुकी थी और फ़िलहाल वे एक दूसरे से नफ़रत करते थे। मेत्र ओशेकम थोड़ा खिसिया गया। उसने डोरी का गुच्छा अपने पायजामे की जेब में डाला और फिर ऐसे नाटक करने लगा, मानो ज़मीन पर गिरी हुई किसी चीज़ को ढूँढ़ रहा हो, फिर पलटा और बाज़ार की ओर रवाना हो गया।
थोड़ी ही देर में वह भीड़ में गुम हो गया। वहाँ सब तरफ़ मोल-भाव चल रहा था। किसानों का आना-जाना लगा हुआ था। कभी वे किसी चीज़ को हैरत से देखते, तो कभी उनके चेहरे पर एक क़िस्म की चिंता उभर आती कि कहीं ठग न लिए जाएँ। वे दुकानदार की आँखों में झाँक कर ऐसी तरकीब तलाशना चाहते थे, जिससे वे उसका या उसके माल का नुक़्स ताड़ लें।
महिलाओं ने अपने पैरों के पास टोकरियाँ रखी हुईं थीं, वे मुर्ग़े और बत्तखों को कसकर थामे थीं। इन प्राणियों को पैरों से बाँध कर रखा हुआ था। डर के मारे इनकी कलंगियाँ लाल हो चुकी थीं। ये महिलाएँ ग्राहक की बोली बड़े निर्विकार मन से सुनती थीं, फिर अपने भाव को कुछ कम करने का सोचती थीं और ज्योंही ग्राहक धीमे से खिसकता दिखता, वे पुकार कर कहती थीं, ‘‘ठीक है, मेत्र ओथिरन, मैं तुमको इतने में ही देती हूँ।’’
धीमे-धीमे वह चौराहा ख़ाली होने लगा, दोपहर होने को आई थी, जो लोग बाज़ार में इतनी देर से थे, वे अपनी दुकानों की ओर लौटने लगे थे।
जूइंदे के विशाल कमरे में दावत उड़ रही थी, उसके बरांडे में लोगों ने अपने वाहन खड़े कर रखे थे। इन वाहनों में गाड़ी, टमटम और वैगन से लेकर पुरानी खटारा तक सभी शामिल थे। खाने की मेज़ के सामने अँगीठी सुलगी हुई थी।
उसकी आँच से सामने की पंक्ति में बैठे लोगों के चेहरे रोशन हो रहे थे। चिकन, मटन और सिके हुए माँस की महक से लोग ख़ुश हो रहे थे और रह-रहकर उनके मुँह में पानी आ रहा था। किसानों का पूरा अभिजात्य वर्ग उस दावत में जुटा हुआ था। मेत्रे जूइंदे शराब की दुकान का मालिक और घोड़ों का सौदागर था, दूसरे शब्दों में कहें तो वह एक धूर्त अमीर था।
खाने की थाली पर थाली परोसी जा रही थीं और उतनी ही गति से ख़ाली भी हो रही थीं। ग्लास उंड़ेले जा रहे थे। हर आदमी अपने प्रेम प्रसंग, अपनी ख़रीद-फ़रोख़्त के क़िस्से उगल रहा था। फसल पर बहस मुबाहिसे हो रहे थे। मौसम हरियाली के लिए तो बिल्कुल अनुकूल था, लेकिन गेहूँ के लिए भारी पड़ रहा था।
यकायक उस घर के अहाते में एक ढिंढोरची के नगाड़े की आवाज़ सुनाई दी, कुछेक लोगों को छोड़ मुनादी सुनने के लिए सभी लोग दरवाज़े के पास आकर खड़े हो गए। कुछ खिड़की में से झाँकने लगे। उनके मुँह अभी भी जूठे थे और हाथों में नैपकिन मौजूद थे। जब लोगों का शोर थमा, तो ढिंढोरची ने ऐलान किया—
‘सुनो, सुनो, सुनो, गॉदवेल के लोगों को ख़ासतौर पर और बाज़ार में मौजूद सभी लोगों को आमतौर पर यह सूचित किया जाता है कि आज सुबह नौ से दस बजे के दरमियाँ बेंजवेल की सड़क पर चमड़े की एक काली पॉकेटबुक गुम हो गई है। इसमें पाँच सौ फ्रेंक रखे हुए थे और कुछ धंधे के काग़ज़ात थे। जिस किसी को भी वह मिले, मेहरबानी करके मेयर के दफ़्तर में या मेनवेल के मेत्र फॉर्चून ओब्रेक के पास जमा कर दें, लाने वाले को बीस फ्रेंक का ईनाम दिया जाएगा।’
इसके बाद वह ढिंढोरची चला गया। थोड़ी ही दूर पर एक बार फिर उसकी डुगडुगी सुनाई दी, फिर इस घटना के बारे में चर्चा करने का सिलसिला शुरू हुआ। इस बात के कयास लगाए जाने लगे कि मेत्र ओब्रेक को वह काली पॉकेटबुक मिलेगी कि नहीं।
दावत ख़त्म हुई। वे अपनी कॉफ़ी ख़त्म कर रहे थे, तभी एक पुलिस वाला दहलीज़ पर आ धमका।
उसने पूछा, ‘क्या ब्रेजूत का मेत्र ओशेकम यहाँ मौजूद है?’
टेबल के आख़िरी सिरे पर बैठे मेत्र ओशेकम ने जवाब दिया, ‘हाँ, मैं यहीं हूँ।’
पुलिसवाला शुरू हुआ, ‘मेत्र ओशेकम! क्या तुम मेरे साथ मेयर के दफ़्तर चलोंगे? वे तुमसे कुछ बात करना चाहते हैं।’
किसान अड़चन में पड़ गया, उसने अपनी ब्रांडी का गिलास ख़ाली किया, उठा और सुबह की बनिस्पत ज़्यादा तकलीफ़ के साथ झुकते हुए चलने लगा।
टुन्न होने के कारण उसे हर क़दम भारी लग रहा था। कहने लगा, ‘बस अभी चलता हूँ।’
मेयर अपनी आर्मचेयर में बैठा-बैठा उसी का इंतज़ार कर रहा था। वह पड़ोस का नोटरी था। एक धीर-गंभीर मगर शानदार व्यक्तित्व का धनी।
उसने कहा, ‘मेत्र ओशेकम, आज सुबह तुमको बेंजवेल की सड़क पर मेनवेल के मेत्र फॉर्चून ओब्रेक की पॉकेटबुक उठाते हुए देखा गया है।’
देहाती दंग रह गया, शक की निगाहों से देखे जाने के कारण वह पहले से ही डरा हुआ था। ‘मैंने? मैंने? मैंने? पॉकेटबुक उठाई थी?’
‘हाँ, वो तुम ही थे।’
‘हुज़ूर, मैंने तो इसके बारे में सुना तक नहीं।’
‘लेकिन तुम देखे गए थे।’
‘मुझे देखा था? किसने देखा था?’
‘लगाम कसने वाले मॉसजी मेलेंदेन ने’।
बूढ़े को घटना याद आ गई, वह समझ गया और ताव में आ गया।
‘उस गँवार ने मुझे देखा था? मेयर साहब! उसने मुझे ये सुतली उठाते हुए देखा था।’ यह कहते ही उसने पायजामे की जेब में रखा सुतली का टुकड़ा दिखाया।
लेकिन मेयर ने संदेह में अपनी गर्दन हिलाई।
‘मेत्र ओशेकम, तुम्हारी बातों पर मुझे यक़ीन नहीं हो रहा है। मॉसजी मेलेंदेन एक समझदार और भरोसेमंद आदमी है। वह सुतली के टुकड़े को पॉकेटबुक समझने की ग़लती क़तई नहीं कर सकता।’
किसान ग़ुस्से से आग बबूला हो उठा, उसने ज़मीन पर थूकते हुए एक बार फिर दोहराया।
‘क़सम से, यह सच नहीं है, मेयरसाब, मैं अपनी अंतरात्मा के साथ कहता हूँ कि यह सही नहीं है।’
मेयर ने कहा, ‘भाल उठाने के बाद तुम ज़मीन पर बहुत देर तक यह तलाश कर रहे थे कि कुछ रक़म तो नहीं गिरी है।’
भला आदमी तो सन्न रह गया।
‘किसी ईमानदार आदमी की इज़्ज़त उतारने के लिए कोई इतना झूठ कैसे बोल सकता है।’
लेकिन उसके विरोध के कोई मायने नहीं थे। उसे मॉसजी मेलेंदेन के सामने खड़ा किया गया। वह अपनी बात पर क़ायम रहा। दोनों ने एक-दूसरे के साथ गाली-गलौज की, मेत्र ओशेकम ने ख़ुद अनुरोध किया कि उसकी तलाशी ली जाए। तलाशी ली गई और कुछ भी नहीं मिला। आख़िरकार मेयर ने परेशान होकर उसे छोड़ दिया और कहा कि वह पब्लिक प्रॉसिक्यूटर से मशविरा करके नए ऑर्डर जारी करेगा।
यह ख़बर हवा की तरह फैल गई, जैसे ही वह मेयर के दफ़्तर से बाहर निकला भीड़ ने उसे घेर लिया और हर आदमी सवाल करने लगा, वह सभी को सुतली वाला क़िस्सा सुनाने लगा। मगर किसी ने उस पर यक़ीन नहीं किया, सभी ने उसकी हँसी उड़ाई।
रास्ते में वह अपने हर मित्र को रोकता, उसको सुतली वाला क़िस्सा बताता और अपनी जेब को अंदर से पलट कर बताता कि देखो यह केवल सुतली का टुकड़ा है।
वे कहते: ‘धूर्त बूढ़े, दफ़ा हो जाओ।’
और वह ग़ुस्सा हो जाता, भड़क उठता, गर्म हो जाता, दु:खी हो जाता। आख़िर क्यों लोग उसकी बातों का भरोसा नहीं कर रहे हैं? उसे समझ ही नहीं आता था कि क्या करे? बस अपनी बात दोहराता रहता।
दिन ढल रहा था, अब उसे रवाना होना था, वह अपने तीन पड़ोसियों के साथ रवाना हुआ। रास्ते में उसने उन्हें वह जगह बताई, जहाँ से उसने सुतली का टुकड़ा उठाया था। रास्ते भर वह अपनी वही राम-कहानी बताता रहा। अपनी यही दास्तां ब्रेजूत के गाँव के लोगों को बताने के लिए वह शाम को उधर से होकर गुज़रा, मगर सभी ने उस पर संदेह किया।
रात को वह बीमार पड़ गया।
अगले दिन एक घटना हुई, वाइमनवेल में एक किसान मेत्र ब्रेटन था। उसके नौकर मैरियस पॉमेल ने दोपहर को एक बजे मेलेंदेन के मेत्र ओब्रेक को पॉकेटबुक और उसमें रखे सामान लौटा दिए। इस आदमी ने दावा किया कि यह पॉकेटबुक उसे रास्ते में पड़ी मिली थी, लेकिन चूँकि वह पढ़ना नहीं जानता था, इसलिए वह उसे घर ले आया और अपने मालिक को दे दी।
पड़ोसियों के जरिए यह ख़बर मेत्र ओशेकम तक पहुँची। वह तुरंत सर्किट तक गया और अपनी कहानी दोहराने लगा, एक ऐसी कहानी जिसका अंत सुखद था, वह ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा था।
‘मुझे दु:ख इस बात का नहीं है कि वह झूठ था शर्मनाक तो है एक झूठे इल्ज़ाम के बहाने सारी दुनिया को अँधेरे में रखना।’
वह दिन भर अपने इस अनुभव का ढोल पीटता रहा। वह हाइवे से गुज़रने वाले हर आदमी से, कलाली से निकलने वाले हरेक दारूकुट्टे से, रविवार की प्रार्थना करके चर्च से लौट रहे तमाम भक्तों से, सभी से अपनी रामकहानी कह रहा था। इस वास्ते उसने अजनबियों को भी रोका। अब वह शांत था। लेकिन कुछ तो था, जो उसे बेचैन किए था। ऐसा लग रहा था, लोग उसे गंभीरता से नहीं ले रहे थे। वे सहमत हों, ऐसा भी नहीं जान पड़ता था। उसे ऐसा लगता था कि पीठ पीछे लोग उसकी खिल्ली उड़ा रहे हैं।
अगले सप्ताह मंगलवार को जब वह गॉदवेल के बाज़ार गया, तो उसे इस मुद्दे पर लोगों से बात करने की तीव्र इच्छा महसूस हुई।
जब वह मेलेंदेन के घर के सामने से गुजर रहा था, तो देखा वह हँस रहा है।
क्यों?
उसने क्रेकटॉट के एक किसान को पकड़ा, लेकिन उसने भी उसकी बात बीच में ही काटते हुए दन्न से उसके पेट में एक मुक्का जड़ दिया और कहा, ‘अबे धूर्त।’ फिर उसने मुँह फेर लिया।
मेत्र ओशेकम उलझन में पड़ गया कि आख़िर उसे धूर्त क्यों कहा जा रहा है?
जब वह जूइंदे की कलाली पर बैठा था, तभी उसने फिर अपना पुराण चालू किया। तभी मॉविले का एक घोड़े का सौदागर उसे कहने लगा, ‘आओ, आओ दग़ाबाज़, यह बड़ी पुरानी चाल है, मुझे तुम्हारे सुतली के टुकड़े के बारे में सब पता है।’
ओशेकम हकलाने लगा, ‘लेकिन पॉकेटबुक तो मिल चुकी है...’
तो वह बोला, ‘बस कर रे बुढ़ऊ, देखा एक आदमी ने था, रिपोर्ट दूसरे ने की थी और इन दोनों ही वारदातों से तुम्हारा संबंध है।’
किसान का गला रुंध गया, उसे समझ में आ गया कि लोग यही मानकर चल रहे हैं कि इस पॉकेटबुक को उसी ने उठाया था और इसे लौटाने का काम उसके अपराध के साझेदार ने किया है। उसने विरोध करने की कोशिश की, मगर सारी टेबल पर हँसी की लहर उमड़ पड़ी थी। वह अपना खाना भी पूरा न कर सका और तानों के बीच खाना छोड़ आया।
जब वह घर लौटा तो ग़ुस्से और शर्म से लाल था। मन में उलझन थी और शरीर मारे ग़ुस्से के काँप रहा था। नॉर्मन होने के नाते स्वाभाविक रूप से एक चालाक और शेख़ी बघारने वाला यह आदमी आज अपनी उदासी को जज़्ब नहीं कर पा रहा था। उसकी चालाकी से ज़माना वाक़िफ़ था, लेकिन आज ख़ुद को निर्दोष साबित करने के लिए उसकी मासूमियत ही उलझन पैदा कर रही थी। वह संदेह के अन्याय का मारा हुआ था।
उसने फिर से उस घटना को दोहराना शुरू किया। अब वह हर बार अपनी कहानी को थोड़ा और विस्तार देने लगा था, नई ऊर्जा, नए कारण, नए विरोध और नई धूमधाम के साथ। जब भी वह अकेला होता, इसी उधेड़बुन में रहता कि सुतली के टुकड़े की इस कहानी को कैसे लंबा किया जाए?
उसे यह ख़ुशफ़हमी थी कि उसके क़िस्से में कई पेंच हैं और ऐसे क़िस्सों की रचना एक कुशाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति ही कर सकता है।
‘अरे यह सब तो झूठी सफ़ाई है’ पीठ पीछे लोग कहते रहते।
अब उसे लगने लगा कि दिल चीर कर अपनी बात कहने के बावजूद उसकी सारी कोशिशें नाकाम रही हैं, वह सभी की निगाहों से गिर चुका है। अब लोग उसका मज़ा लेने के लिए उसे घेर-घेर कर सुतली वाला क़िस्सा सुनकर अपना मनोरंजन उसी प्रकार करते हैं, जैसे किसी फ़ौजी से उसकी बहादुरी के कारनामे सुन-सुनकर, उसे इस बात का भीतर तक सदमा पहुँचा और वह कमज़ोर होने लगा।
दिसंबर ख़त्म होते-होते उसने बिस्तर पकड़ लिया था।
जनवरी में उसकी मौत हुई। मौत की दहलीज़ पर सन्निपात के दौरान भी अपने बेक़सूर होने की उसकी कोशिश जारी थी। वह यही दोहराता रहा, ‘सुतली का टुकड़ा...सुतली का टुकड़ा...ये देखिए मेयरसाब।’
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‘haan, wo tum hi the. ’
‘huzur, mainne to iske bare mein suna tak nahin. ’
‘lekin tum dekhe ge the. ’
‘mujhe dekha tha? kisne dekha tha?’
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raste mein wo apne har mitr ko rokta, usko sutli vala qissa batata aur apni jeb ko andar se palat kar batata ki dekho ye keval sutli ka tukDa hai.
ve kahteh ‘dhoort buDhe, dafa ho jao. ’
aur wo ghussa ho jata, bhaDak uthta, garm ho jata, duhkhi ho jata. akhir kyon log uski baton ka bharosa nahin kar rahe hain? use samajh hi nahin aata tha ki kya kare? bas apni baat dohrata rahta.
din Dhal raha tha, ab use ravana hona tha, wo apne teen paDosiyon ke saath ravana hua. raste mein usne unhen wo jagah batai, jahan se usne sutli ka tukDa uthaya tha. raste bhar wo apni vahi raam kahani batata raha. apni yahi dastan brejut ke gaanv ke logon ko batane ke liye wo shaam ko udhar se hokar guzra, magar sabhi ne us par sandeh kiya.
raat ko wo bimar paD gaya.
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paDosiyon ke jariye ye khabar metr oshekam tak pahunchi. wo turant sarkit tak gaya aur apni kahani dohrane laga, ek aisi kahani jiska ant sukhad tha, wo khushi se phula nahin sama raha tha.
‘mujhe duhakh is baat ka nahin hai ki wo jhooth tha sharmanak to hai ek jhuthe ilzaam ke bahane sari duniya ko andhere mein rakhna. ’
wo din bhar apne is anubhav ka Dhol pitta raha. wo haive se guzarne vale har adami se, kalali se nikalne vale harek darukutte se, ravivar ki pararthna karke charch se laut rahe tamam bhakton se, sabhi se apni ramakhani kah raha tha. is vaste usne ajanabiyon ko bhi roka. ab wo shaant tha. lekin kuch to tha, jo use bechain kiye tha. aisa lag raha tha, log use gambhirta se nahin le rahe the. ve sahmat hon, aisa bhi nahin jaan paDta tha. use aisa lagta tha ki peeth pichhe log uski khilli uDa rahe hain.
agle saptah mangalvar ko jab wo gaudvel ke bazar gaya, to use is mudde par logon se baat karne ki teevr ichchha mahsus hui.
jab wo melenden ke ghar ke samne se gujar raha tha, to dekha wo hans raha hai.
kyon?
usne krektaut ke ek kisan ko pakDa, lekin usne bhi uski baat beech mein hi katte hue dann se uske pet mein ek mukka jaD diya aur kaha, ‘abe dhoort. ’ phir usne munh pher liya.
metr oshekam uljhan mein paD gaya ki akhir use dhoort kyon kaha ja raha hai?
jab wo juinde ki kalali par baitha tha, tabhi usne phir apna puran chalu kiya. tabhi mauvile ka ek ghoDe ka saudagar use kahne laga, ‘ao, aao daghabaz, ye baDi purani chaal hai, mujhe tumhare sutli ke tukDe ke bare mein sab pata hai. ’
oshekam haklane laga, ‘lekin pauketbuk to mil chuki hai. . . ’
to wo bola, ‘bas kar re buDhuu, dekha ek adami ne tha, riport dusre ne ki thi aur in donon hi vardaton se tumhara sambandh hai. ’
kisan ka gala rundh gaya, use samajh mein aa gaya ki log yahi mankar chal rahe hain ki is pauketbuk ko usi ne uthaya tha aur ise lautane ka kaam uske apradh ke sajhedar ne kiya hai. usne virodh karne ki koshish ki, magar sari tebal par hansi ki lahr umaD paDi thi. wo apna khana bhi pura na kar saka aur tanon ke beech khana chhoD aaya.
jab wo ghar lauta to ghusse aur sharm se laal tha. man mein uljhan thi aur sharir mare ghusse ke kaanp raha tha. naurman hone ke nate svabhavik roop se ek chalak aur shekhi bagharne vala ye adami aaj apni udasi ko jajb nahin kar pa raha tha. uski chalaki se zamana vaqif tha, lekin aaj khud ko nirdosh sabit karne ke liye uski masumiyat hi uljhan paida kar rahi thi. wo sandeh ke anyay ka mara hua tha.
usne phir se us ghatna ko dohrana shuru kiya. ab wo har baar apni kahani ko thoDa aur vistar dene laga tha, nai uurja, ne karan, ne virodh aur nai dhumdham ke saath. jab bhi wo akela hota, isi udheDbun mein rahta ki sutli ke tukDe ki is kahani ko kaise lamba kiya jaye?
use ye khushafahmi thi ki uske qisse mein kai pench hain aur aise qisson ki rachna ek kushagr buddhi vala vyakti hi kar sakta hai.
‘are ye sab to jhuthi safai hai’ peeth pichhe log kahte rahte.
ab use lagne laga ki dil cheer kar apni baat kahne ke bavjud uski sari koshishen nakam rahi hain, wo sabhi ki nigahon se gir chuka hai. ab log uska maza lene ke liye use gher gher kar sutli vala qissa sunkar apna manoranjan usi prakar karte hain, jaise kisi fauji se uski bahaduri ke karname sun sunkar, use is baat ka bhitar tak sadma pahuncha aur wo kamzor hone laga.
disambar khatm hote hote usne bistar pakaD liya tha.
janavri mein uski maut hui. maut ki dahliz par sannipat ke dauran bhi apne beqsur hone ki uski koshish jari thi. wo yahi dohrata raha, ‘sutli ka tukDa. . . sutli ka tukDa. . . ye dekhiye meyarsab. ’
bazar ka din hone ke karan gaudvel se shahr ki or jane vali sari saDkon par halchal thi. kisan apni patniyon ke saath umaD paDe the. sare mard sarak sarak kar hi chal pa rahe the, kyonki ek to ve hal chala chala kar bur tarah thak chuke the, dusre gehun ki katai karne ke karan unke haath ki kaankh bhi bhar aai thi. thakan ke mare choor ho chuke in mardon ka sidhe khaDe ho pana bhi mushkil ho gaya tha. lekin haan, unke nile kalafdar kurte zarur chakachak lag rahe the. un kurti ke gale aur kalaiyon par chhoti chhoti safed Dizain bani hui theen. magar ye kapDe unke tantiya sharir par aise lag rahe the, jaise koi ghubbara uDne ki taiyari mein ho aur usmen se adami ke haath, pair aur sir latak rahe hon.
kuch log gaay ya bachhDe ko rassi se baandh kar chal rahe the. unki biviyan janavron ke putthon par peD ki tahni se bane hantar phatkarte hue pichhe pichhe chal rahin theen. unke hathon mein Daliya latki hui theen, jinmen se murge ya battakh apni chonch bahar nikal rahe the. in mahilaon ki chaal purushon ke muqable kahin zyada tez thi. apne sapat sine par unhonne chhota sa shaal oDh rakha tha. sir par safed kapDa lapet kar us par topi pahan rakhi thi. vahin us ubaD khabaD raste se ek vaigan guzar rahi thi. usmen do adami sat kar baithe hue the aur payadan par ek mahila, jisne hichkole se bachne ke liye gaDi ko kas ke thaam rakha tha.
gaudvel ka chauraha insaan aur janavron ki bheeD se thasathas tha. maveshiyon ke seeng, amir kisanon ke roendar lambe hait aur mahilaon ka shrringar us bheeD mein bhi alag hi nazar aa rahe the. kahin karnbhedi kolahal tha, to kahin lambi cheekh pukar. kabhi kabhi kisi kisan ka thahaka ya khunte se bandhi kisi gaay ke rambhane ki avaz us shor ko daba deti thi. dusri or astabal, Deri, ghaas aur pasine ki mili juli gandh vahi ehsaas kara rahi thi, jo kamobesh khet khalihan ke insaan va janavron ki gandh se milta hai.
brejut ka metr oshekam abhi abhi gaudvel pahuncha tha. yakayak uski nigah zamin par paDi thoDi si Dori par paDi. ek sachcha naurman hone ke nate wo mahakanjus tha aur uska ye manna tha ki jo bhi cheez kaam ki lage, usko uthane mein koi sharm nahin karni chahiye. halanki gathiya ka dard hone ke karan use jhukne mein taklif hoti thi, magar usne kasht kiya aur wo Dori utha li.
jab wo us ko lapet lapet kar uska guchchha bana raha tha, tabhi uski nigah samne vale makan ki dahliz par khaDe metr melenden par paDi, jo usi ki or ghoor raha tha. melenden ghoDon ki lagam kasne ka kaam karta tha. kisi zamane mein ek rassi ke mamle mein un donon mein kahasuni ho chuki thi aur filhal ve ek dusre se nafrat karte the. metr oshekam thoDa khisiya gaya. usne Dori ka guchchha apne payjame ki jeb mein Dala aur phir aise naatk karne laga, manon zamin par giri hui kisi cheez ko DhoonDh raha ho, phir palta aur bazar ki or ravana ho gaya.
thoDi hi der mein wo bheeD mein gum ho gaya. vahan sab taraf mol bhaav chal raha tha. kisanon ka aana jana laga hua tha. kabhi ve kisi cheez ko hairat se dekhte, to kabhi unke chehre par ek qism ki chinta ubhar aati ki kahin thag na liye jayen. ve dukandar ki ankhon mein jhaank kar aisi tarkib talashna chahte the, jisse ve uska ya uske maal ka nuqs taaD len.
mahilaon ne apne pairon ke paas tokariyan rakhi huin theen, ve murghe aur battkhon ko kaskar thame theen. in praniyon ko pairon se baandh kar rakha hua tha. Dar ke mare inki kalangiyan laal ho chuki theen. ye mahilayen grahak ki boli baDe nirvikar man se sunti theen, phir apne bhaav ko kuch kam karne ka sochti theen aur jyonhi grahak dhime se khisakta dikhta, ve pukar kar kahti theen, ‘theek hai, metr othiran, main tumko itne mein hi deti hoon. ’
dhime dhime wo chauraha khali hone laga, dopahar hone ko aai thi, jo log bazar mein itni der se the, ve apni dukanon ki or lautne lage the.
juinde ke vishal kamre mein davat uD rahi thi, uske baranDe mein logon ne apne vahan khaDe kar rakhe the. in vahnon mein gaDi, tamtam aur vaigan se lekar purani khatara tak sabhi shamil the. khane ki mez ke samne angithi sulgi hui thi.
uski anch se samne ki pankti mein baithe logon ke chehre roshan ho rahe the. chikan, matan aur sike hue maans ki mahak se log khush ho rahe the aur rah rahkar unke munh mein pani aa raha tha. kisanon ka pura abhijatya varg us davat mein juta hua tha. metre juinde sharab ki dukan ka malik aur ghoDon ka saudagar tha, dusre shabdon mein kahen to wo ek dhoort amir tha.
khane ki thali par thali parosi ja rahi theen aur utni hi gati se khali bhi ho rahi theen. glaas unDele ja rahe the. har adami apne prem prsang, apni kharid farokht ke qisse ugal raha tha. phasal par bahs mubahise ho rahe the. mausam hariyali ke liye to bilkul anukul tha, lekin gehun ke liye bhari paD raha tha.
yakayak us ghar ke ahate mein ek DhinDhorchi ke nagaDe ki avaz sunai di, kuchhek logon ko chhoD munadi sunne ke liye sabhi log darvaze ke paas aakar khaDe ho ge. kuch khiDki mein se jhankne lage. unke munh abhi bhi juthe the aur hathon mein naipkin maujud the. jab logon ka shor thama, to DhinDhorchi ne ailan kiya—
‘suno, suno, suno, gaudvel ke logon ko khastaur par aur bazar mein maujud sabhi logon ko aam taur par ye suchit kiya jata hai ki aaj subah nau se das baje ke darmiyan benjvel ki saDak par chamDe ki ek kali pauketbuk gum ho gai hai. ismen paanch sau phrenk rakhe hue the aur kachh dhandhe ke kaghzat the. jis kisi ko bhi wo mile, mehrbani karke meyar ke daftar mein ya mainnvel ke metr phaurchun obrek ke paas jama kar den, lane vale ko bees phrenk ka iinam diya jayega. ’
iske baad wo DhinDhorchi chala gaya. thoDi hi door par ek baar phir uski DugDugi sunai di, phir is ghatna ke bare mein charcha karne ka silsila shuru hua is baat ke kayas lagaye jane lage ki metr obrek ko wo kali pauketbuk milegi ki nahin.
davat khatm hui. ve apni kaufi khatm kar rahe the, tabhi ek pulis vala dahliz par aa dhamka.
usne puchha, ‘kya brejut ka metr oshekam yahan maujud hai?’
tebal ke akhiri sire par baithe metr oshekam ne javab diya, ‘haan, main yahin hoon. ’
pulisvala shuru hua, ‘metr oshekam! kya tum mere saath meyar ke daftar chalonge? ve tumse kuch baat karna chahte hain. ’
kisan aDchan mein paD gaya, usne apni branDi ka gilas khali kiya, utha aur subah ki banispat zyada taklif ke saath jhukte hue chalne laga.
tunn hone ke karan use har qadam bhari lag raha tha. kahne laga, ‘bas abhi chalta hoon. ’
meyar apni armcheyar mein baitha baitha usi ka intzaar kar raha tha. wo paDos ka notri tha. ek dheer gambhir magar shanadar vyaktitv ka dhani.
usne kaha, ‘metr oshekam, aaj subah tumko benjvele ki saDak par menvel ke metr phaurchun obrek ki pauketbuk uthate hue dekha gaya hai. ’
dehati dang rah gaya, shak ki nigahon se dekhe jane ke karan wo pahle se hi Dara hua tha. ‘mainne? mainne? mainne? pauketbuk uthai thee?’
‘haan, wo tum hi the. ’
‘huzur, mainne to iske bare mein suna tak nahin. ’
‘lekin tum dekhe ge the. ’
‘mujhe dekha tha? kisne dekha tha?’
‘lagam kasne vale mausji melenden ne’.
buDhe ko ghatna yaad aa gai, wo samajh gaya aur taav mein aa gaya.
‘us ganvar ne mujhe dekha tha? meyar sahab! usne mujhe ye sutli uthate hue dekha tha. ’ ye kahte hi usne payjame ki jeb mein rakha sutli ka tukDa dikhaya.
lekin meyar ne sandeh mein apni gardan hilai.
‘metr oshekam, tumhari baton par mujhe yaqin nahin ho raha hai. mausji melenden ek samajhdar aur bharosemand adami hai. wo sutli ke tukDe ko pauketbuk samajhne ki ghalati qatii nahin kar sakta. ’
kisan ghusse se aag babula ho utha, usne zamin par thukte hue ek baar phir dohraya.
‘qasam se, ye sach nahin hai, meyarsab, main apni antratma ke saath kahta hoon ki ye sahi nahin hai. ’
meyar ne kaha, ‘bhaal uthane ke baad tum zamin par bahut der tak ye talash kar rahe the ki kuch raqam to nahin giri hai. ’
bhala adami to sann rah gaya.
‘kisi iimandar adami ki izzat utarne ke liye koi itna jhooth kaise bol sakta hai. ’
lekin uske virodh ke koi mayne nahin the. use mausji melenden ke samne khaDa kiya gaya. wo apni baat par qayam raha. donon ne ek dusre ke saath gali galauj ki, metr oshekam ne khud anurodh kiya ki uski talashi li jaye. talashi li gai aur kuch bhi nahin mila. akhirkar meyar ne pareshan hokar use chhoD diya aur kaha ki wo pablik prausikyutar se mashavira karke ne aurDar jari karega.
ye khabar hava ki tarah phail gai, jaise hi wo meyar ke daftar se bahar nikla bheeD ne use gher liya aur har adami saval karne laga, wo sabhi ko sutli vala qissa sunane laga. magar kisi ne us par yaqin nahin kiya, sabhi ne uski hansi uDai.
raste mein wo apne har mitr ko rokta, usko sutli vala qissa batata aur apni jeb ko andar se palat kar batata ki dekho ye keval sutli ka tukDa hai.
ve kahteh ‘dhoort buDhe, dafa ho jao. ’
aur wo ghussa ho jata, bhaDak uthta, garm ho jata, duhkhi ho jata. akhir kyon log uski baton ka bharosa nahin kar rahe hain? use samajh hi nahin aata tha ki kya kare? bas apni baat dohrata rahta.
din Dhal raha tha, ab use ravana hona tha, wo apne teen paDosiyon ke saath ravana hua. raste mein usne unhen wo jagah batai, jahan se usne sutli ka tukDa uthaya tha. raste bhar wo apni vahi raam kahani batata raha. apni yahi dastan brejut ke gaanv ke logon ko batane ke liye wo shaam ko udhar se hokar guzra, magar sabhi ne us par sandeh kiya.
raat ko wo bimar paD gaya.
agle din ek ghatna hui, vaimanvel mein ek kisan metr bretan tha. uske naukar mairiyas paumel ne dopahar ko ek baje mendevel ke metr obrek ko pauketbuk aur usmen rakhe saman lauta diye. is adami ne dava kiya ki ye pauketbuk use raste mein paDi mili thi, lekin chunki wo paDhna nahin janta tha, isliye wo use ghar le aaya aur apne malik ko de di.
paDosiyon ke jariye ye khabar metr oshekam tak pahunchi. wo turant sarkit tak gaya aur apni kahani dohrane laga, ek aisi kahani jiska ant sukhad tha, wo khushi se phula nahin sama raha tha.
‘mujhe duhakh is baat ka nahin hai ki wo jhooth tha sharmanak to hai ek jhuthe ilzaam ke bahane sari duniya ko andhere mein rakhna. ’
wo din bhar apne is anubhav ka Dhol pitta raha. wo haive se guzarne vale har adami se, kalali se nikalne vale harek darukutte se, ravivar ki pararthna karke charch se laut rahe tamam bhakton se, sabhi se apni ramakhani kah raha tha. is vaste usne ajanabiyon ko bhi roka. ab wo shaant tha. lekin kuch to tha, jo use bechain kiye tha. aisa lag raha tha, log use gambhirta se nahin le rahe the. ve sahmat hon, aisa bhi nahin jaan paDta tha. use aisa lagta tha ki peeth pichhe log uski khilli uDa rahe hain.
agle saptah mangalvar ko jab wo gaudvel ke bazar gaya, to use is mudde par logon se baat karne ki teevr ichchha mahsus hui.
jab wo melenden ke ghar ke samne se gujar raha tha, to dekha wo hans raha hai.
kyon?
usne krektaut ke ek kisan ko pakDa, lekin usne bhi uski baat beech mein hi katte hue dann se uske pet mein ek mukka jaD diya aur kaha, ‘abe dhoort. ’ phir usne munh pher liya.
metr oshekam uljhan mein paD gaya ki akhir use dhoort kyon kaha ja raha hai?
jab wo juinde ki kalali par baitha tha, tabhi usne phir apna puran chalu kiya. tabhi mauvile ka ek ghoDe ka saudagar use kahne laga, ‘ao, aao daghabaz, ye baDi purani chaal hai, mujhe tumhare sutli ke tukDe ke bare mein sab pata hai. ’
oshekam haklane laga, ‘lekin pauketbuk to mil chuki hai. . . ’
to wo bola, ‘bas kar re buDhuu, dekha ek adami ne tha, riport dusre ne ki thi aur in donon hi vardaton se tumhara sambandh hai. ’
kisan ka gala rundh gaya, use samajh mein aa gaya ki log yahi mankar chal rahe hain ki is pauketbuk ko usi ne uthaya tha aur ise lautane ka kaam uske apradh ke sajhedar ne kiya hai. usne virodh karne ki koshish ki, magar sari tebal par hansi ki lahr umaD paDi thi. wo apna khana bhi pura na kar saka aur tanon ke beech khana chhoD aaya.
jab wo ghar lauta to ghusse aur sharm se laal tha. man mein uljhan thi aur sharir mare ghusse ke kaanp raha tha. naurman hone ke nate svabhavik roop se ek chalak aur shekhi bagharne vala ye adami aaj apni udasi ko jajb nahin kar pa raha tha. uski chalaki se zamana vaqif tha, lekin aaj khud ko nirdosh sabit karne ke liye uski masumiyat hi uljhan paida kar rahi thi. wo sandeh ke anyay ka mara hua tha.
usne phir se us ghatna ko dohrana shuru kiya. ab wo har baar apni kahani ko thoDa aur vistar dene laga tha, nai uurja, ne karan, ne virodh aur nai dhumdham ke saath. jab bhi wo akela hota, isi udheDbun mein rahta ki sutli ke tukDe ki is kahani ko kaise lamba kiya jaye?
use ye khushafahmi thi ki uske qisse mein kai pench hain aur aise qisson ki rachna ek kushagr buddhi vala vyakti hi kar sakta hai.
‘are ye sab to jhuthi safai hai’ peeth pichhe log kahte rahte.
ab use lagne laga ki dil cheer kar apni baat kahne ke bavjud uski sari koshishen nakam rahi hain, wo sabhi ki nigahon se gir chuka hai. ab log uska maza lene ke liye use gher gher kar sutli vala qissa sunkar apna manoranjan usi prakar karte hain, jaise kisi fauji se uski bahaduri ke karname sun sunkar, use is baat ka bhitar tak sadma pahuncha aur wo kamzor hone laga.
disambar khatm hote hote usne bistar pakaD liya tha.
janavri mein uski maut hui. maut ki dahliz par sannipat ke dauran bhi apne beqsur hone ki uski koshish jari thi. wo yahi dohrata raha, ‘sutli ka tukDa. . . sutli ka tukDa. . . ye dekhiye meyarsab. ’
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 95)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।