वह बात न मीरा ने उठाई, न ख़ुद उसने। मिलने से पहले ज़रूर लगा था कि कोई बहुत ही ज़रूरी बात है जिस पर दोनों को बातें कर ही लेनी हैं, लेकिन जैसे हर क्षण उसी की आशंका में उसे टालते रहे। बात गले तक आ-आकर रह गई कि एक बार फिर मीरा से पूछे—क्या इस परिचय को स्थायी रूप नहीं दिया जा सकता?—लेकिन कहीं पहले की तरह उसे बुरा लगा तो? उसके बाद दोनों में कितना खिंचाव और दुराव आ गया था!
पता नहीं क्यों, ताजमहल उसे कभी ख़ूबसूरत नहीं लगा। फिर धूप में सफ़ेद संगमरमर का चौंधा लगता था, इसलिए वह उधर पीठ किए बैठा था। लेकिन चौंधा मीरा को भी तो लग सकता है न? हो सकता है, उसे ताज सुंदर ही लगता हो। परछाईं उधर यमुना की तरफ़ होगी, इधर तो सपाट धूल में झलमल करता संगमरमर है, बस। इस तपते पत्थर पर चलने में तलुओं के झुलसने की कल्पना से उसके सारे शरीर में फुरहरी दौड़ गई।
तीन साल बाद एक-दूसरे को देखा था। देखकर सिर्फ़ मुस्कुराए थे, आश्वस्त भाव से—हाँ, दोनों हैं और वैसे ही हैं—मीरा कुछ निखर आई है और शायद वह...वह पता नहीं कैसा हो गया है! जाने कितने पूरे-के-पूरे वाक्य, सवाल-जवाब उसने मीरा को मन-ही-मन सामने बैठाकर बोले थे, प्रतिक्रियाओं की कल्पना की थी और अब बस, खिसियाने ढंग से मुस्कुराकर ही स्वागत किया था। उस क्षण से ही उसे अपने मिलने की व्यर्थता का अहसास होने लगा था, जाने क्यों। क्या ऐसी बातें करेंगे वे, जो अकसर नहीं कर चुके हैं? साल-छ: महीने में एक-दूसरे के कुशल समाचार जान ही लेते हैं।
उठे हुए घुटनों के पास लॉन की घास पर मीरा का हाथ चुपचाप रखा था। बस, उँगलियाँ इस तरह उठ-गिर रही थीं, जैसे किसी बहुत नाज़ुक बाजे पर हल्के-हल्के गूँजते संगीत की ताल को बाँध रही हों। मीरा ने लोहे का छल्ला डाल रखा था—शायद शनि का प्रभाव ठीक रखने के लिए। उसने धीरे से उसकी सबसे छोटी अँगुली में अपनी अँगुली हुक की तरह अटका ली थी, फिर हाथ उठाकर दोनों हथेलियों में दबा लिया था। फिर धीरे-धीरे बातों की धारा फूट पड़ी थी।
विजय का ध्यान गया—बड़ी-बड़ी मूँछोंवाला कोई छोटा-सा कीड़ा मीरा की खुली गर्दन और ब्लाउज़ के किनारे आ गया था। झिझक हुई, ख़ुद झाड़ दे या बता दे। उसने अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लिया—प्रवेश-द्वार की सीढ़ियाँ झाड़ियों की ओट आ गई थीं, सिर्फ़ ऊपर का हिस्सा दीख रहा था। हिचकिचाते हुए कैरम का स्ट्राइकर मारने की तरह उसने कीड़ा उँगुलियों से परे छिटका दिया, नसों में सनसनाहट उतरती चली गई। उँगलियों से वह जगह यूँही झाड़ दी, मानो गंदी हो गई थी। मीरा उसी तन्मय भाव से अपनी सहेली के विवाह की पार्टी में आए लोगों का वर्णन देती रही—उसने कुछ नहीं कहा। न वहाँ रखा विजय का हाथ हटाया ही। विजय ने एक बार फिर सशंक निगाहों से इधर-उधर देखा और आगे बढ़कर उसको दोनों कनपटियों को हथेलियों से दबाकर अपने पास खींच लिया। नहीं, मीरा ने विरोध नहीं किया। मानो वह प्रत्याशा कर रही थी कि यह क्षण आएगा अवश्य। लेकिन पहले उसके माथे पर तीखी रेखाओं की परछाइयाँ उभरीं और फिर मुग्ध मुस्कुराहट की लहरों में बदल गईं...। एक अजीब, बिखरती-सी सिमटी, धूप छाँहीं मुस्कुराहट। विजय का मन हुआ, रेगिस्तान में भटकते प्यासे की तरह दोनों हाथों से सुराही को पकड़कर इस मुस्कुराहट की शराब को पागल आवेश में पीता चला जाए...पीता चला जाए...गट...गट और आख़िर लड़खड़ाकर गिर पड़े। पतले-पतले होंठों में एक नामालूम-सी फड़कन लरज़ रही थी। उस रूमानी बेहोशी में भी विजय को ख़याल आया कि पहले एक हाथ से मीरा चश्मा उतार ले—टूट न जाए। तब उसने देखा, हरियाले फव्वारों-जैसे मोरपंखियों के दो-तीन पेड़ों के पीछे पूरे-पूरे दो ताजमहल चश्मे के शीशों में उतर आए हैं...दूधिया हाथी दाँत के बने-से दो सफ़ेद नन्हे-नन्हे खिलौने...
पता नहीं क्यों, उसे ताजमहल कभी अच्छा नहीं लगा। ध्यान आया, अवांछित बूढ़े प्रहरी की तरह ताजमहल पीछे खड़ा देख रहा है। बातों के बीच वह उसे कई बार भूल गया था, लेकिन दाँतों में अटके तिनके-सा अचानक ही उसे याद आ जाता था कि वे उसकी छाया में बैठे हैं जो महान् है, जो विराट है...जो...? इतनी बड़ी इमारत! इसके समग्र सौंदर्य को एकसाथ वह कभी कल्पना में ला ही नहीं पाया...एक-एक हिस्सा देखने में कभी उसमें कुछ सुंदर लगा नहीं। लोगों के अपने ही मन का काव्य और सौंदर्य रहा होगा जो इसमें आरोपित करके देख लेते हैं। कभी मौक़ा मिलेगा तो वह हवाई जहाज़ से ताज की सुंदरता के समग्र हो पाने की कोशिश करेगा। कई विहंगम चित्र इस तरह के देखे तो हैं...और तब सारे वातावरण के बीच कोई बात लगी तो है...मगर ये चश्मे के काँचों में झलमलाते, धूप में चमकते ताज...। खिंचाव वहीं थम गया। उसने बड़े बेमालूम-से ढंग से गहरी साँस ली और अपने हाथ हटा लिए, आहिस्ते से।—’नहीं, यहाँ नहीं। कोई देख लेगा...’ यह उसे क्या हो गया...?
सहसा मीरा सचेत हो आई। उमड़ती लाज छिपाने के लिए सकपकाकर इधर-उधर देखा, कोई भी तो नहीं था। पास वाली लाल-लाल ऊँची दीवार पर अभी-अभी राज-मज़दूर-से लगनेवाले मरम्मतिए लोग आपस में हँसी-मज़ाक़ करते एक दूसरे के पीछे भागते गए हैं। बंदर की तरह दीवार पर भाग लेने का अभ्यास है। रविश के पार-पड़ोस के लॉन में दो-तीन माली पाइपों को इधर-उधर घुमाते पानी लगा रहे थे—वे भी अब नहीं हैं। खाना खाने गए होंगे। मीरा ने बग़ल से साड़ी खींचकर कंधे का पल्ला ठीक कर लिया। फिर विजय ने अनमने भाव से घास का एक फूल तोड़ा और आँखों के आगे उँगलियों में घुमाने लगा। मीरा ने चश्मा उतारकर, मुँह से हल्की-सी भाप दी और साड़ी से काँच पोंछे, बालों की लटों को कानों के पीछे अटकाया और चश्मा लगाकर कलाई की घड़ी देखी।
बड़ा बोझिल मौन आ गया था दोनों के बीच। विजय को लगा, उन्हें कुछ बोलना चाहिए, वरना यह चुप्पी का बोझ दोनों के बीच की किसी बहुत कोमल चीज़ को पीस देगा। हथेली पर यूँही उस तिनके से क्रास और त्रिकोण बनाता वह शब्दों को ठेलकर बोला, “तो फिर अब चलें...? देर बहुत हो रही है...”
मीरा ने सिर हिला दिया। लगा, जैसे वह कुछ कहते-कहते रुक गई हो या प्रतीक्षा कर रही हो कि विजय कुछ कहना चाहता है, लेकिन कह नहीं पा रहा। फिर थोड़ी देर चुप्पी रही। कोई नहीं उठा। तब फिर उसने मरे-मरे हाथों से जूतों के फीते कसे, अख़बार में रखे और संतरे और मूँगफली के छिलके फेंके। बैठने के लिए बिछाए गए रूमाल समेटे गए और दोनों टहलते हुए फाटक की तरफ़ चले आए।
तीन का समय होगा—हाथ में घड़ी होते हुए भी उसने अंदाज़ लगाया। धूप अभी भी बहुत तेज़ थी। एकाध बार गले और कनपटियों का पसीना पोंछा। आते समय तो बारह बजे थे। उस वक़्त उसे हँसी आ रही थी, मिलने का समय भी उन लोगों ने कितना विचित्र रखा है...
जैसे इस समय से बहुत दूर खड़े होकर उसने दुहराया था—बारह...बजे, जून का महीना और ताजमहल का लॉन। वह पहले आ गया था और प्रतीक्षा करता रहा था। उस समय कैसी बेचैनी, कैसी छटपटाहट, कैसी उतावली थी...यह समय बीतता क्यों नहीं है? बहुत दिनों से घड़ी की सफ़ाई नहीं हो पाई, इसलिए शायद सुस्त है। अभी तक नहीं आई। इन लड़कियों की इसी बात से सख़्त झुँझलाहट होती है। कभी समय नहीं रखतीं। जाने क्या मज़ा आता है इंतिज़ार कराने में! वह जान-बूझकर उधर आने वाले रास्ते की ओर से मुँह फेरे था। उम्मीद कर रहा था कि सहसा मुड़कर उधर देखेगा तो पाएगा कि वह आ रही है। लेकिन दो-तीन बार ऐसा कर चुकने के बाद भी वह नहीं आई। जब दूसरी ओर मुँह मोड़े रहकर भी वह कनखियों से उधर ही झाँकने की कोशिश करता तो ख़ुद अपने पर हँसी आती। अच्छा, सीढ़ियाँ उतरकर आने वाले तीन व्यक्तियों को वह और देखेगा और अगर इसमें भी मीरा नहीं हुई तो ध्यान लगाकर किताब पढ़ेगा—जब आना हो, आ जाए। एक-दो-तीन! हो सकता है, अगली वही हो। हिश, जाए जहन्नुम में नहीं आती तो, हाँ तो नहीं! अच्छा, आओ, तब तक यही सोचें कि मीरा इन तीन सालों में कैसी हो गई होगी? कैसे कपड़े पहनकर आएगी? एक-दूसरे को देखकर वे क्या करेंगे? हो सकता है, आवेश से लिपट जाएँ, कुछ बोल न पाएँ। उसके साथ ऐसा होता नहीं है, लेकिन कौन जाने, उस आवेश में...।
आख़िर वह आई तो वह उसे पास आते देखता रहा था। हर बार वह उधर से निगाहें हटाने की कोशिश करता कि उसे यूँ न देखे, पास आने पर ही देखे और हठात् मिलने के थ्रिल को महसूस करे। लेकिन वह देखता रहा था और निहायत ही संयत भाव से बोला था, “नमस्ते मीरा जी!” झेंपकर मीरा मुस्कुरा पड़ी थी। धूप में चेहरा लाल पड़ गया था। फिर दोनों इस लॉन में आ बैठे थे—ऐसे अचंचल, ऐसे आवेशहीन, जैसे रोज़ मिलते हों।
“मैंने सोचा, तुम शायद न आओ। याद न रहे।”
“आपने लिखा था तो याद कैसे नहीं रहता? लेकिन टाइम बड़ा अजीब है।”
“हाँ, शरद-पूर्णिमा की चाँदनी रात तो नहीं ही है।” अपने मज़ाक़ पर वह ख़ुद ही व्यर्थता महसूस करता, गंभीर बनकर बोला, “इस वक़्त यहाँ ज़रा एकांत होता है।”
सचमुच अजीब टाइम था—मीरा के साथ एक-एक क़दम लौटते हुए उसने सोचा—’दोपहर की धूप और... और दो प्यार करते प्राणी!’ ‘प्यार करते प्राणी...’उसने फिर दुहराया। यह प्यार था? जैसे बरसों बाद मिलने वाले दो मित्र हों, जिनमें बातें करने के विषय चुक गए हों। सफ़ेद संगमरमर पर धूप पड़ रही थी, चौंधा था इसलिए उधर पीठ कर ली थी। रह-रहकर झुँझलाहट आती—किस शाप ने हमारे ख़ून को जमा दिया है? यह हो क्या गया है हमें? कोई गर्मी नहीं, कोई आवेश और कोई उद्वेग नहीं...क्या बदल गया है इसमें? हाँ, मीरा का रंग कुछ खुल गया है...शरीर निखर आया है...
लौटते समय भी उसकी समझ में नहीं आया कि यह बोझ, यह खिंचाव क्या है...दोनों यूँही घास में काटी हुई लाल पत्थरों की जाली पर क़दम-क़दम टहलते हुए सीढ़ियों तक जाएँगे...फाटक में बैठे हुए गाइडों और दरबानों की बेधती याचक निगाहों को बलपूर्वक झुठलाते, बजरी पर चरचर-चरचर करते हुए ताँगे या रिक्शे में जा बैठेंगे...और एक मोड़ लेते ही सब कुछ पीछे छूट जाएगा।...कल वह लिखेगा—‘मेरी मीरा, कल के मेरे व्यवहार पर तुम्हें आश्चर्य हुआ होगा। हो सकता है, बुरा भी लगा हो... लेकिन...लेकिन...‘और फिर चश्मे के काँचों में झाँकता ताजमहल साकार हो आया। ‘तुम्हारी पलकों पर तैरते दो ताजमहल’—कितना सुंदर वाक्य है! (यह तो नई कविता हो गई!) टैगोर ने देखा होता तो ‘काल के गालों पर ढुलक आई आँसू की बूँद’ कभी न कहते...। कहते—’गालों पर ढुलक आए आँसुओं में झाँकते ताजमहल की रुपहली मछलियों-सी परछाइयाँ’...लेकिन मीरा की आँखों में तो उसे नमी का भी आभास नहीं हुआ था। कितने जड़ हो गए हैं हम लोग भी आजकल! वह कल वाले पत्र में लिखेगा—‘हक्सले की नक़ल नहीं कर रहा, जाने क्यों, मुझे ताजमहल कभी ख़ूबसूरत नहीं लगा। लेकिन पहली बार जब मैंने तुम्हारी पलकों पर ताज की परछाईं देखी तो देखता रह गया...पिछले दिनों की एक अजीब-सी बात मुझे याद हो आई, उस क्षण...’
अरे हाँ, अब याद आया कि क्यों वह अचानक यों सुस्त हो गया था। उस बात को भी कभी भूला जा सकता है? ‘हाँ, मेरे लिए तो वह बात ही थी...’ वह लिखेगा। उसे लगा, मन-ही-मन वह जिसे ही संबोधित कर रहा है, जिसे पत्र लिख रहा है वह साथ-साथ चलने वाली यह मीरा नहीं है। वह तो कोई और है... कहीं दूर...बहुत दू...र...वही मीरा तो उसकी असली बंधु और सखा है, यह...यह...इससे तो जब-जब मिला है, इसी तरह उदास हो गया है। लेकिन उस मीरा से मिलने का आकर्षण इसके पास खींच लाता है। इसकी तो जाने कितनी बातें हैं, जो उसे क़तई पसंद नहीं हैं। जैसे? वह याद करने की कोशिश करने लगा, जैसे उसे क्या-क्या पसंद नहीं है? जैसे इस समय उसे इसी बात पर झुँझलाहट आ रही है कि मीरा नीचे बनी जाली के पत्थरों पर ही पाँव रखकर क्यों नहीं चल रही, बीच-बीच में घास पर पाँव क्यों रख देती है...
और इस सबके पार दोनों कान लगाए रहे कि दूसरा कुछ कहे। एक बात सोचकर सहसा वह ख़ुद ही मुस्कुरा पड़ा—जब वे लोग बहुत बड़े-बड़े हो जाएँगे; समझो चालीस-पचास साल के, तो हँस-हँसकर कैसे दूसरों को अपनी-अपनी बेवक़ूफ़ियाँ सुनाया करेंगे—कैसे वे लोग छिप-छिपकर ताजमहल में मिला करते थे!
‘चार-पाँच साल हो गए होंगे उस बात को...’ उसके मन के भीतरी स्तरों पर पत्र चलता रहा। यह सब वह उस पत्र में लिखेगा नहीं, वह सिर्फ़ उस बहाने क्रमबद्ध शब्दों में उस सारी घटना को याद करने की कोशिश कर रहा है...वह, देव, राकाजी और मुनमुन इसी तरह तो लौट रहे थे, चुप-चप, उदास और मनहूस साँझ थी इसलिए परछाइयाँ ख़ूब लंबी-लंबी चली गई थीं...
अच्छी तरह याद है, सितंबर या अक्टूबर का महीना था। कॉलेज से आकर चाय का कप होंठों से लगाया ही था कि किसी ने बताया, “आपको कोई साहब बुला रहे हैं।” वह अनखाकर उठा—कौन आ गया इस वक़्त?
“अरे, आप!”
“पहचाना या नहीं, आपने?”
“अरे साहब ख़ूब, आपको नहीं पहचानूँगा?” लेकिन सचमुच उन्होंने पहचाना नहीं था। देखा ज़रूर है कहीं, शायद कलकत्ता में। ऐसा कई बार हुआ है, लेकिन वह भरसक यह जताने की कोशिश करता है कि पहचान रहा है और बातचीत से परिचय के सूत्र पकड़कर याद करने की कोशिश करता है, “आइए न भीतर...”
“नहीं मिस्टर माथुर, बैठूँगा नहीं। गली के बाहर मेरी वाइफ़ और बच्चा खड़े हैं...” उन्होंने क्षमा चाहने के लहज़े में कहा, “आप कुछ कर रहे हैं क्या?...”
“लेकिन उन्हें वहाँ...? यहीं बुला लीजिए न...”
“नहीं, देखिए, ऐसा है कि हम लोग ज़रा ताज देखने आए थे। याद आया आप भी तो यहीं रहते हैं। जगह याद नहीं थी, सो एक-डेढ़ घंटे भटकना पड़ा। ख़ैर, आप मिल गए। अब अगर कुछ काम न हो तो...बात ऐसी है कि हमें आज ही लौट जाना है...” वे सीढ़ी पर एक पाँव रखे खड़े थे, “आप किसी तरह के संकोच में न पड़िए, पाँवों में चप्पल डालिए और चले आइए।”
गली के बाहर गाड़ी खड़ी थी। पीछे का दरवाज़ा खुला था और उसको पकड़े पिछले मडगार्ड से टिकी एक महिला खड़ी थी—गहरी हरी बंगलौरी रेशम की साड़ी, बंगाली ढंग का चौड़ा-चौड़ा जूड़ा और बीचों-बीच जगमग करता अठपहलू रुपहला सितारा। मडगार्ड पर छोटा-सा चार-पाँच साल का बच्चा फिसलते जूतों को जैसे-तैसे रोके बैठा था। दोनों बाँहों से उसे सँभाले हुए वे उसकी कलाई पकड़े छोटी-सी अँगुली से धूल-लदे मडगार्ड पर लिखा रही थी—टी.ए.जे। जूतों की आवाज़ से चौंककर मुड़ीं और स्वागत में मुस्कुराई। बच्चे को सँभालकर उतारा, फिर दोनों हाथ जोड़ दिए। फिर ख़ुद ही बोली, “देखिए, आपसे वायदा किया था कि...”
“हज़रत आ ही नहीं रहे थे...” वे बीच में ही बात काटकर बोले। फिर सहसा बोले, “अच्छा राका, अब बैठो वरना अँधेरा हो जाएगा तो देखने का मज़ा भी नहीं रहेगा।”
राका...राका...हाँ, कुछ याद तो आ रहा है। ड्राइवर की बग़ल में बैठकर उसने एकाध बार घूमकर देखा, जैसे यहीं कहीं उनका नाम भी लिखा मिल जाएगा।
“कैसे हैं?—बहुत दिनों बाद मिले हैं। याद है आपको, कलकत्ता में हम लोग मिले थे...?... उस दिन हम लोगों ने आपको कितनी देर कर दी थी”... सुनहला रंग, कानों में गोल कुंडल, बहुत ही बेमालूम-सी लिपस्टिक। साड़ी का पल्ला साधने के लिए खिड़की पर टिकी हुई कुहनी...
अरे हाँ, अब याद आया—इनसे तो मुलाक़ात बड़े अजीब ढंग से हुई थी। न्यू मार्केट के एक रेस्तराँ में बैठा वह शौक़िया अपनी-अपनी संगीत-कला का प्रदर्शन करने वालों को देख रहा था। फिर जाने क्या मन में आया कि ख़ुद भी उठकर माउथ-ऑरगन पर देर तक सिनेमा के गीतों की धुनें निकालता रहा। उस छोटे-से मंच से हटकर जिस मेज़ पर वह बैठा था, उसी पर बैठे थे ये लोग, यह राका जी और मिस्टर...क्या? हाँ, मिस्टर देव।
“सचमुच आपने बहुत ही सुंदर बजाया। बड़ी अच्छी प्रैक्टिस है।” देव ने उसके बैठते ही कहा। रूमाल से बाजे को अच्छी तरह पोंछकर जेब में रख ही रहा था कि चौंक गया। राका के चेहरे पर प्रशंसा उतर आई थी और यूँही कप के ऊपर हथेली टेके, वह एकटक मेज़ को देख रही थी।
“आपकी चाय तो पानी हो गई होगी। और मँगाए देते हैं। बैरा, सुनो इधर...”
उसके मना करने पर भी चाय और आई। “छुट्टियों में घूमने आए हैं...? अच्छा, कैसा लगा कलकत्ता आपको...जी हाँ, गंद तो है बंबई के मुक़ाबले...लेकिन एक बार मन लग जाने पर छोड़ना मुश्किल हो जाता है...” फिर प्रशंसा, कृतज्ञता का आदान-प्रदान, परिचय और रात देर तक उनके लोअर सर्कुलर रोड के फ़्लैट पर बातें, खाना, कॉफ़ी और संगीत। राका को सितार का शौक़ है। देव किसी विदेशी कंपनी के इंचार्ज मैनेजर की संगति में विदेशी सिंफनियाँ पसंद करते हैं। उसका माउथ-ऑरगन सुनने के बाद राका जी ने सितार सुनाया था और फिर देव निहायत ही ख़ूबसूरत प्लास्टिक के लिफ़ाफ़ों में बंद अपने विदेशी रिकॉर्ड निकाल लाए थे। एक-एक रिकॉर्ड आध घंटे चलता था और उसमें तीन-तीन कंपोज़ीशंस थे। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया था, लेकिन वह बैठा लिफ़ाफ़ों पर लिखे हुए परिचय और संगीतज्ञ की तसवीर को ज़रूर ग़ौर से देखता रहा था। कोई चियाकोवस्की या कुछ बेंगर था जिसका नाम वे बार-बार लेते थे। एक-एक रिकॉर्ड चालीस-पचास रुपए का था। बीच-बीच में, “कभी ज़रूर आएँगे आगरा। बहुत बचपन में एक बार देखा था, शायद दिमाग़ में जो नक़्शा है उससे मेल ही न खाए। शादी के बाद एक बार देखने का प्रोग्राम बहुत दिनों से बना रहे हैं। ये तो हर छुट्टी में पीछे पड़ जाती हैं। जी नहीं, इन्होंने नहीं देखा... इधर ही रहे इनके फ़ादर वग़ैरा सब। अब तो आप वहाँ हैं ही...” उस दिन दोनों देरी के लिए रास्ते-भर क्षमा माँगते हुए अपनी गाड़ी पर ही विवेकानंद रोड तक छोड़ने आए थे। रास्ते-भर बातचीत के टुकड़े, सितार की गूँज और सिंफनी की कोई डूबती-सी दर्दीली कराह उसे अभिभूत किए रही...कैसे अजीब ढंग से परिचय हुआ है, कितना सुखी जोड़ा है उसे बहुत ही ख़ुशी हुई थी। बच्चा बाद में आया है, नाम है मुनमुन।
देव बता रहे थे, “नुमाइश में हमारा स्टाल आया है न, सो हम लोग भी दिल्ली आए थे। सोचा, इतने पास से, यूँ बिना देखे लौटना अच्छा नहीं है। आपको यूँही घसीट लाए, कोई काम तो...”
“नहीं, नहीं...” जल्दी से कहा। उसे और तो सब बातें याद आ रही थीं, लेकिन यह याद ही नहीं आ रहा था कि इन मिस्टर देव के आगे-पीछे क्या लगता है। बड़ी बेचैनी थी। कैसे जाने? बस, उस मुलाक़ात के बाद फिर कभी भेंट नहीं हुई। याददाश्त अच्छी है इन लोगों की, “आपने याद ख़ूब रखा...” सोचा, उस मुलाक़ात में ऐसी कोई ख़ास बात भी तो नहीं थी।
“जब भी हम लोग ताज की बात करते, आपकी बात याद आ जाती। और कोई दिन ऐसा नहीं गया जब ताज की बात न आई हो...” फिर राका जी की ओर देखकर ख़ुद ही बोले, “आज हमारे विवाह को सातवाँ वर्ष पूरा हुआ है...आपके सामने यह मुनमुन नहीं था...”
“मुनमुन, तुमने अंकल जी को मत्ते नहीं किया? कहो, अंकल जी, आज हमाले पापा-डैडी के विवाह की सातवीं वर्छगाँठ है...” राका जी उसके हाथ जुड़वाती बोली, “बहुत ही शैतान है। मुझे दिन-भर ख़याल रखना पड़ता है कि किसी दिन कुछ कर-करा न ले।”
“तब तो आपको बधाई देनी चाहिए...” लेकिन इस सबके पार विजय को लगा, कहीं घुटन है जो अदृश्य कुहरे की तरह गाढ़ी होती हुई छाई है। रहा नहीं गया, पूछा, “आप कुछ सुस्त हैं। तबीअत...”
“नहीं जी।” उन्होंने दोनों हाथ उठाकर एक क्लिप ठीक किया और स्वस्थ ढंग से मुस्कुराने का प्रयत्न करके कहा, “गाड़ी में बैठे-बैठै पाँच घंटे हो गए। एक घंटे से तो यहीं आपको ही खोज रहे हैं...”
“सच्च, सचमुच बहुत ज़ियादती है यह तो आपकी।” कृतज्ञता भाव से वह बोला, “कम-से-कम मुँह-हाथ तो धो ही लेतीं राका जी।”
“सब ठीक है—लौटना भी तो है न आज ही।”
फिर सभी ने ख़ूब घूम-घूमकर ताज देखा था। मुनमुन का एक हाथ देव के हाथों में था और एक राका जी के। कभी-कभी तो तीनों आपस में ही ऐसे व्यस्त होकर खो जाते कि विजय को लगता—वह बेकार ही अपनी उपस्थिति से इनके बीच विघ्न बन रहा है। ऊपर इमारत के सफ़ेद-काले चबूतरे पर देव बड़ी देर तक पैसा लुढ़काकर उसके पीछे भागते और बच्चे को खिलाते रहे, और विजय के साथ-साथ राकाजी जालियों की बनावट, दरवाज़े पर लिखी क़ुरान की आयतें और बूटों की नक़्क़ाशी देखती रहीं। साँझ की पीली-पीली सुहानी धूप थी। लॉनों की नरमी साँवली हो आई थी, मोरपंखी और चौड़े-चौड़े ताड़ जैसे पत्तों के गुंबदाकार कुंज मोमबत्ती की हरी-सुनहली लौ जैसे लगते थे—जैसे आनंद में फूले-फूले कबूतर हों और अभी हुलसकर फुरहरी ले लेंगे तो चिनगारियों की तरह सुर्ख़ फूल इधर-उधर बिखर पड़ेंगे। वे लोग भीतर क़ब्रों के पास अपनी आवाज़ गुँजाते रहे—कैसी लरजती-सी तैरती चली जाती है। जैसे बहुत ही महीन रेशों का बना हुआ, घड़ी में लगे बाल-स्प्रिंग की तरह बड़ा-सा वर्तुलाकर कुछ है जो कभी सिकुड़कर सिमट उठता है। देव की आवाज़ थी, “रा का...रा का...रा-का...” एक-दूसरे पर चढ़ते चले जाते शब्द...दूर खोते हुए...किन्हीं अनजानी घाटियों की तलहटियों में—“मुनमुन मु उ-उ न-अ-अ...” देव देर तक डूबे हुए इस खेल को खेलते रहे थे। लगता था, उनके भीतर है कुछ, जो इस खेल के माध्यम से अभिव्यक्ति पा रहा है। वह राका या मुनमुन का नाम ले देते और देर तक अँधेरे में इन शब्दों को डूबता-खोता देखते रहते—जैसे हाथ बढ़ाकर उन्हें वापस पकड़ लेना चाहते हों। उन्हें कब्रों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। बड़ी देर बाद, बहुत मुश्किल से जब वे उस वातावरण से टूटकर बाहर निकले तो बहुत उदास और खोए-खोए थे। विजय के पास से मुनमुन को लेकर ज़ोर से छाती से भींच लिया।
बाहर निकलकर आए तो देखा कि नदी किनारे वाली बुर्जी के पास राका जी चुपचाप दूर शहर और लाल पुल की ओर देखती खड़ी हैं। सिंदूरी आसमान के गहरे सिलेटी बादल नदी के चौखटे में वाश-कलर की तरह फैल गए हैं। बुर्जी से लेकर बीच के मक़बरे तक चबूतरे की काली-सफ़ेद शतरंजी को सिमटती धूप ने तिरछा बाँट लिया है...हवा में साड़ी उनके शरीर से चिपक गई है और कानों के ऊपर की लटें उच्छृंखल हो आई हैं। देव बहुत देर तक उन्हें यूँही देखते रहे, जैसे उन्हें पहचानते ही न हों। और उस सारे वातावरण में, सफ़ेद पत्थर के उस विराट क़ैदख़ाने में जैसे किसी अभिशप्त जलपरी को यूँ भटकने के लिए छोड़ दिया गया हो...। यह जगह, यह वातावरण है ही कुछ ऐसा। विजय ने अपने-आपसे कहा और जान-बूझकर दूसरी तरफ़ हट आया। शायद राका जी मुमताज़ के प्रेम की बात सोच रही हों, अपने मरने के बाद अपनी ऐसी ही यादगार चाहती हों या कुछ भी न सोच रही हों—बस, पुल से गुज़रती रेल की खिड़की से झाँकती हुई, ताज को देखकर सौंदर्य और कल्पना की स्तब्ध ऊँचाइयों में खो गई हों...
अपनी छाती तक ऊँची पीछे की दीवार से मुनमुन नदी की ओर झाँकता हुआ हाथ हिला-हिलाकर नीचे जाते बच्चों को बुला रहा था। कौवे काँव-काँव करने लगे थे। मुनमुन के पास वह संगमरमर की दीवार पर झुककर हथेलियाँ टेके सामने की धारा और पेड़ों की घनी पाँतों को देखता रहा। जाने कब देव भी बराबर ही आ खड़े हुए...काफ़ी दूर हटकर उसी तरह बुर्जी के पास झुकी राका जी...हवा में फहराती साड़ी को एक हाथ से पकड़कर रोके हुए...
“भीतर की आवाज़ और गूँज को सुनकर बड़ी अजीब-सी अनुभूति होती है...होती है न? जैसे जाने किन वीरान जंगलों और पहाड़ों में आपका कोई बहुत ही निकट का आत्मीय खो गया है और आपकी निष्फल पुकारें टूट-टूटकर उसे गुहारती चली जाती हैं...चली जाती हैं और खो जाती हैं...। न वह आत्मीय लौटता है और न आवाज़ें—जैसे युगों से किसी की भटकती आत्मा उसे पुकारती रही हो और वह है कि गूँजों और झाँइयों में ही घुल-घुलकर बिखर जाता है...डूब जाता है...बिलमता है और साकार नहीं हो पाता...”
नदी में ताज की घनी-घनी परछाईं लहरों में टूट-टूट जाती थी...अनजाने ही देव की आँखों में आँसू भर आए।
“ऐसा ही होता है, ऐसे वातावरण में ऐसा ही होता है।” विजय ने अपने-आपसे कहकर मानो स्थिति को शब्द देकर समझना चाहा, “जब कोई किसी को बहुत प्यार करे, बहुत प्यार करे, और फिर ऐसी ख़ूबसूरत मनहूस जगह आ जाए तो कुछ ऐसी ही अनुभूतियाँ मन में आती हैं...अभी लॉन पर चलेंगे, मुनमुन के साथ किलकारियाँ मारेंगे—सब ठीक हो जाएगा...”
देव ने सुना और गहरी साँस लेकर बड़ी कातर निगाहों से विजय की ओर देखा। कुछ कहते-कहते रुक गए। और दोनों चुपचाप ही टहलते हुए सामने की ओर आ गए...मुनमुन राका जी के पास चला गया था। नीचे की सीढ़ियाँ उतरते-उतरते सहसा ही देव ने विजय के कंधे पर हाथ रख दिया था। कुछ कहने को होंठ काँपे, “आपको पता है मिस्टर विजय!” विजय स्वर और मुद्रा से चौंक गया था।
“नहीं...कुछ नहीं...” ऊपर हरी साड़ी की झलक दिखी और फिर दोनों सीढ़ियाँ उतर आए। जूते पहनते हुए बोले...“आपको ताज्जुब तो बहुत होगा कि हम यूँ अचानक आपको लिवा लाए...”
“नहीं तो, इसमें ऐसी क्या बात है?” विजय ने शिष्टता से कहा।
“हाँ, बात कुछ नहीं है, लेकिन बहुत बड़ी बात है।” फिर गहरी साँस।
अब विजय को लगा कि सचमुच कोई बहुत बड़ी बात है जो देव के भीतर से निकलने के लिए झटपटा रही है। तब पहली बार उसका ध्यान इस स्थिति की विचित्रता की ओर गया। बीच के चबूतरे तक दोनों बिलकुल चुप रहे...चबूतरे के ख़ूबसूरत कोनों वाले हौज़ में आग लग गई थी...गहरे साँवले आसमान में लाल-लाल गुलाबी बादलों के बगूले उतर आए थे। उलटे ताज की परछाईं दम तोड़ते साँप-सी इनके क़दमों पर फ़न पटक-पटककर लहरा रही थी। धूप ऊपर बुर्जियों पर सिमट गई थी। उस पर आँखें टिकाए देव बड़ी देर तक यूँ ही देखते रहे। सामने मुनमुन को लिए राका जी चली आ रही थीं, लेकिन जैसे कोई किसी को नहीं देख रहा हो—हाँ, विजय कभी उसे और कभी इसे या मशक लेकर आते भिश्ती को देखता रहा। टप-टप बूँदों की सर्पाकार लाइनें उसकी उँगलियों से टपक रही थीं। बड़े साहस से शब्दों को धकेल-धकेलकर देव बोले, “यह सारी स्थिति...यह...यह टूट जाने की हद तक आ जाने वाला चरमराता तनाव... मौत के पहले के ये कह-कहे। औपचारिकता का वह बर्फ़ीला कफ़न...शायद हममें से कोई इसे अकेला नहीं सह पाता...कोई एक चाहिए था जो इसकी ओर से हमारा ध्यान हटाए रखे...इस समाप्ति का गवाह बन सके।”
“मैं समझ नहीं सका मिस्टर देव...” घबराकर विजय ने पूछा था।
बूटों के दोनों पंजों पर ज़रा-सा मचककर देव निहायत ही इत्मिनान से धीरे से हँसे। “आप...आप—विजय साहब, यह हमारी आख़िरी संध्या है...” और विजय के कुछ पूछने से पहले ही उन्होंने कह डाला। “मैंने और राका ने निश्चय किया है कि अब हम लोगों को अलग ही हो जाना चाहिए...दोनों तरफ़ से शायद सहने की हद हो गई है...नसों का यह तनाव मुझे या उसे पागल बना दे, या कोई ऐसी-वैसी बेहूदगी करने पर मजबूर करे, इससे अच्छा हो कि दोनों अलग ही रहें। चाहे तो वह किसी के साथ सैटिल हो जाए। वह मुनमुन को रखना चाहती है, रखे। वैसे जब भी वह उसके बाधक लगे, निस्संकोच मेरे पास भेज दे...”
विजय का सिर भन्ना उठा। वह चुपचाप हौज़ की गहराई से तड़पती ताज की परछाईं पर निगाहें टिकाए रहा।
“लेकिन आप दोनों...” विजय ने कहना चाहा।
देव ने हाथ फैलाकर रोक दिया, “वह सब हो चुका। सारी स्थितियाँ ख़त्म हो गई। हमने तय किया कि क्यों न अपनी अंतिम संध्या हँसी-ख़ुशी काटें...मित्र बने रहकर ही हँसते-हँसते विदा लें...” फिर कुछ देर तक चुप रहकर कहा, “राका को बड़ी इच्छा थी कि ताज देखे, शादी की पहली रात उसने चाहा था कि हनीमून यहाँ ही हो...लेकिन...लेकिन...” फिर हाथ झटक दिया, “अजब संयोग है न?—लेकिन...”
लेकिन विजय को लगा था जैसे किसी डैम की रेलिंग पर झुका खड़ा है और नीचे से लाखों टन पानी धाड़-धाड़ करता गिरता चला जा रहा है...गिरता चला जा रहा है...और उसका सिर चकरा उठा—। नहीं, उससे किसी ने कुछ भी नहीं कहा। यह सब तो सिर्फ़ वह कल्पना कर रहा है। कहीं ऐसी अविश्वसनीय बात...ध्यान उसका टूटा देव की आवाज़ से, ‘उसे रोको राका, माली वग़ैरह मना करेंगे...नहीं मुनमुन!’ स्वर बहुत मुलायम था। और फिर देव ने दौड़कर प्यार से मुनमुन को दोनों बाँहों में उठा लिया और उसके पेट में अपना मुँह गड़ा दिया...मुनमुन खिलखिलाकर हँस पड़ा...आँखों में लाड़-भरे राका जी मुस्कुराती रहीं। नहीं, अभी जो कुछ सुना था, वह इन लोगों के आपसी संबंधों के बारे में नहीं था—हो नहीं सकता।
बहुत बार विजय ने राका जी का चेहरा देखना चाहा, लेकिन लगा, वे इधर-उधर के सारे वातावरण को ही पीने में व्यस्त हैं। चिड़ियाँ चहचहाने लगी थीं...
इन्हीं जालियों पर इसी तरह तो वे लोग चल रहे थे कि पास आकर धीरे से देव ने कहा था, “ राका से कुछ मत पूछिएगा...”
क्या पूछेगा वह राका जी से...?
“सॉरी, आपको यूँ घसीट लाए हम लोग...”
और इस बार कातर निगाहों से देखने की बारी विजय की थी...इतना ग़लत समझते हैं आप...
चार-पाँच साल हो गए, लेकिन बात कितनी ताज़ी हो आई है...वह, देव, राका जी और मुनमुन इसी तरह लौट रहे थे, चुपचाप, उदास और मनहूस...साँझ का बजरा रात का किनारा छूने लगा था। जैसे किसी वर्षों की तूफ़ानी यात्रा से वे तीनों लौटकर आ रहे हों। पेड़ों और इमारतों की परछाइयाँ ख़ूब लंबी-लंबी चौड़ी धारियों की तरह पीछे चली गई थीं...कुंजों और लॉन की हरियालियाँ अजीब टटकी-टटकी हो उठी थीं... हरियाली के सुरमई धुँधले काँच पर सफ़ेद फूल छिटक आए थे...
मीरा के चश्मे के काँचों में झाँकती परछाईं को देखकर, जाने क्यों उसे वही याद ताज़ी हो गई थी...वही ताज जो उस दिन हौज़ में मानो आसमानी जार्जेट के पीछे से झाँक रहा था और अपने-आपसे लड़ते हुए देव उसे बता रहे थे।...आज अगर देव होते तो क्या जवाब देता...? तो क्या वे भी उसी तरह अलग हो रहे हैं...?
सहसा चौंककर उसने मीरा को देखा। उसे लगा, जैसे उसने कुछ कहा है, “कुछ कह रही थीं क्या?”
“मैं?...नहीं तो।” फिर वही मौन और घिसटती उदासी का कंबल।
लगा, जैसे कोई मुर्दा-क्षण है जिसका एक सिरा मीरा पकड़े है और दूसरा वह, और उसे चुपचाप दोनों रात के सन्नाटे में कहीं दफ़नाने के लिए जा रहे हों...डरते हों कि किसी की निगाहें न पड़ जाएँ—कोई जान न ले कि वे हत्यारे हैं...कहीं किसी झाड़ी के पीछे इस लाश को फेंक देंगे और ख़ुश्बूदार रूमालों से कसकर ख़ून पोंछते हुए चले जाएँगे...भीड़ में खो जाएँगे...। जैसे एक-दूसरे की ओर देखने में डर लगता है...कहीं आरोप करती आँखें हत्या स्वीकारने के मजबूर न कर दें...
बाहर वे दोनों ताँगा लेंगे...झटके से मोड़ लेता हुआ ताँगा ढाल पर दौड़ पड़ेगा और ताजमहल पीछे छूटता जाएगा...और फिर ‘अच्छा’ कहकर सूखे होंठों के भरे स्वर पर मुस्कुराहट का कफ़न लपेटकर दोनों एक-दूसरे से विदा लेंगे...।
wo baat na mera ne uthai, na khu usne milne se pahle zarur laga tha ki koi bahut hi zaruri baat hai jis par donon ko baten kar hi leni hain, lekin jaise har kshan usi ki ashanka mein use talte rahe baat gale tak aa aakar rah gai ki ek bar phir mera se puchhe—kya is parichai ko sthayi roop nahin diya ja sakta?—lekin kahin pahle ki tarah use bura laga to? uske baad donon mein kitna khinchaw aur duraw aa gaya tha!
pata nahin kyon, tajamhal use kabhi khubsurat nahin laga phir dhoop mein safed sangmarmar ka chaundha lagta tha, isliye wo udhar peeth kiye baitha tha lekin chaundha mera ko bhi to lag sakta hai n? ho sakta hai, use taj sundar hi lagta ho parchhain udhar yamuna ki taraf hogi, idhar to sapat dhool mein jhalmal karta sangmarmar hai, bus is tapte patthar par chalne mein taluon ke jhulasne ki kalpana se uske sare sharir mein phurahri dauD gai
teen sal baad ek dusre ko dekha tha dekhkar sirf muskuraye the, ashwast bhaw se—han, donon hain aur waise hi hain—mira kuch nikhar i hai aur shayad wo wo pata nahin kaisa ho gaya hai! jane kitne pure ke pure waky, sawal jawab usne mera ko man hi man samne baithakar bole the, prtikriyaon ki kalpana ki thi aur ab bus, khisiyane Dhang se muskurakar hi swagat kiya tha us kshan se hi use apne milne ki wyarthata ka ahsas hone laga tha, jane kyon kya aisi baten karenge we, jo aksar nahin kar chuke hain? sal chhe mahine mein ek dusre ke kushal samachar jaan hi lete hain
uthe hue ghutnon ke pas lawn ki ghas par mera ka hath chupchap rakha tha bus, ungliyan is tarah uth gir rahi theen, jaise kisi bahut nazuk baje par halke halke gunjte sangit ki tal ko bandh rahi hon mera ne lohe ka chhalla Dal rakha tha—shayad shani ka prabhaw theek rakhne ke liye usne dhire se uski sabse chhoti anguli mein apni anguli hook ki tarah atka li thi, phir hath uthakar donon hatheliyon mein daba liya tha phir dhire dhire baton ki dhara phoot paDi thi
wijay ka dhyan gaya—baDi baDi munchhonwala koi chhota sa kiDa mera ki khuli gardan aur blouse ke kinare aa gaya tha jhijhak hui, khu jhaD de ya bata de usne apna munh dusri or ghuma liya—prawesh dwar ki siDhiyan jhaDiyon ki ot aa gai theen, sirf upar ka hissa deekh raha tha hichkichate hue carrom ka stricker marne ki tarah usne kiDa anguliyon se pare chhitka diya, nason mein sansanahat utarti chali gai ungliyon se wo jagah yunhi jhaD di, mano gandi ho gai thi mera usi tanmay bhaw se apni saheli ke wiwah ki party mein aaye logon ka warnan deti rahi—usne kuch nahin kaha na wahan rakha wijay ka hath hataya hi wijay ne ek bar phir sashank nigahon se idhar udhar dekha aur aage baDhkar usko donon kanpatiyon ko hatheliyon se dabakar apne pas kheench liya nahin, mera ne wirodh nahin kiya mano wo pratyasha kar rahi thi ki ye kshan ayega awashy lekin pahle uske mathe par tikhi rekhaon ki parchhaiyan ubhrin aur phir mugdh muskurahat ki lahron mein badal gain ek ajib, bikharti si simti, dhoop chhanhin muskurahat wijay ka man hua, registan mein bhatakte pyase ki tarah donon hathon se surahi ko pakaDkar is muskurahat ki sharab ko pagal awesh mein pita chala jaye pita chala jaye gat gat aur akhir laDakhDakar gir paDe patle patle honthon mein ek namalum si phaDkan laraz rahi thi us rumani behoshi mein bhi wijay ko khayal aaya ki pahle ek hath se mera chashma utar le—tut na jaye tab usne dekha, hariyale phawwaron jaise morpankhiyon ke do teen peDon ke pichhe pure pure do tajamhal chashme ke shishon mein utar aaye hain dudhiya hathi dant ke bane se do safed nannhe nannhe khilaune
pata nahin kyon, use tajamhal kabhi achchha nahin laga dhyan aaya, awanchhit buDhe prahri ki tarah tajamhal pichhe khaDa dekh raha hai baton ke beech wo use kai bar bhool gaya tha, lekin danton mein atke tinke sa achanak hi use yaad aa jata tha ki we uski chhaya mein baithe hain jo mahan hai, jo wirat hai jo ? itni baDi imarat! iske samagr saundarya ko eksath wo kabhi kalpana mein la hi nahin paya ek ek hissa dekhne mein kabhi usmen kuch sundar laga nahin logon ke apne hi man ka kawy aur saundarya raha hoga jo ismen aropit karke dekh lete hain kabhi mauqa milega to wo hawai jahaz se taj ki sundarta ke samagr ho pane ki koshish karega kai wihangam chitr is tarah ke dekhe to hain aur tab sare watawarn ke beech koi baat lagi to hai magar ye chashme ke kanchon mein jhalamlate, dhoop mein chamakte taj khinchaw wahin tham gaya usne baDe bemalum se Dhang se gahri sans li aur apne hath hata liye, ahiste se —nahin, yahan nahin koi dekh lega ’ ye use kya ho gaya ?
sahsa mera sachet ho i umaDti laj chhipane ke liye sakapkakar idhar udhar dekha, koi bhi to nahin tha pas wali lal lal unchi diwar par abhi abhi raj mazdur se lagnewale marammatiye log aapas mein hansi mazaq karte ek dusre ke pichhe bhagte gaye hain bandar ki tarah diwar par bhag lene ka abhyas hai rawish ke par paDos ke lawn mein do teen mali paipon ko idhar udhar ghumate pani laga rahe the—we bhi ab nahin hain khana khane gaye honge mera ne baghal se saDi khinchkar kandhe ka palla theek kar liya phir wijay ne anamne bhaw se ghas ka ek phool toDa aur ankhon ke aage ungliyon mein ghumane laga mera ne chashma utarkar, munh se halki si bhap di aur saDi se kanch ponchhe, balon ki laton ko kanon ke pichhe atkaya aur chashma lagakar kalai ki ghaDi dekhi
baDa bojhil maun aa gaya tha donon ke beech wijay ko laga, unhen kuch bolna chahiye, warna ye chuppi ka bojh donon ke beech ki kisi bahut komal cheez ko pees dega hatheli par yunhi us tinke se kras aur trikon banata wo shabdon ko thelkar bola, “to phir ab chalen ? der bahut ho rahi hai ”
mera ne sir hila diya laga, jaise wo kuch kahte kahte ruk gai ho ya pratiksha kar rahi ho ki wijay kuch kahna chahta hai, lekin kah nahin pa raha phir thoDi der chuppi rahi koi nahin utha tab phir usne mare mare hathon se juton ke phite kase, akhbar mein rakhe aur santare aur mungaphali ke chhilke phenke baithne ke liye bichhaye gaye rumal samete gaye aur donon tahalte hue phatak ki taraf chale aaye
teen ka samay hoga—hath mein ghaDi hote hue bhi usne andaz lagaya dhoop abhi bhi bahut tez thi ekadh bar gale aur kanpatiyon ka pasina ponchha aate samay to barah baje the us waqt use hansi aa rahi thi, milne ka samay bhi un logon ne kitna wichitr rakha hai
jaise is samay se bahut door khaड़e hokar usne duhraya tha—barah baje, june ka mahina aur tajamhal ka lawn wo pahle aa gaya tha aur pratiksha karta raha tha us samay kaisi bechaini, kaisi chhatpatahat, kaisi utawli thi ye samay bitta kyon nahin hai? bahut dinon se ghaDi ki safai nahin ho pai, isliye shayad sust hai abhi tak nahin i in laDakiyon ki isi baat se sakht jhunjhlahat hoti hai kabhi samay nahin rakhtin jane kya maza aata hai intizar karane mein! wo jaan bujhkar udhar aane wale raste ki or se munh phere tha ummid kar raha tha ki sahsa muDkar udhar dekhega to payega ki wo aa rahi hai lekin do teen bar aisa kar chukne ke baad bhi wo nahin i jab dusri or munh moDe rahkar bhi wo kanakhiyon se udhar hi jhankne ki koshish karta to khu apne par hansi aati achchha, siDhiyan utarkar aane wale teen wyaktiyon ko wo aur dekhega aur agar ismen bhi mera nahin hui to dhyan lagakar kitab paDhega—jab aana ho, aa jaye ek do teen! ho sakta hai, agli wahi ho hish, jaye jahannum mein nahin aati to, han to nahin! achchha, aao, tab tak yahi sochen ki mera in teen salon mein kaisi ho gai hogi? kaise kapड़e pahankar ayegi? ek dusre ko dekhkar we kya karenge? ho sakta hai, awesh se lipat jayen, kuch bol na payen uske sath aisa hota nahin hai, lekin kaun jane, us awesh mein
akhir wo i to wo use pas aate dekhta raha tha har bar wo udhar se nigahen hatane ki koshish karta ki use yoon na dekhe, pas aane par hi dekhe aur hathat milne ke thril ko mahsus kare lekin wo dekhta raha tha aur nihayat hi sanyat bhaw se bola tha, namaste mera jee!’’ jhempkar mera muskura paDi thi dhoop mein chehra lal paD gaya tha phir donon is lawn mein aa baithe the—aise achanchal, aise aweshahin, jaise roz milte hon
mainne socha, tum shayad na aao yaad na rahe ’’
apne likha tha to yaad kaise nahin rahta? lekin time baDa ajib hai ’’
han, sharad purnaima ki chandni raat to nahin hi hai ’’ apne mazaq par wo khu hi wyarthata mahsus karta, gambhir bankar bola, is waqt yahan zara ekant hota hai ’’
sachmuch ajib time tha—mira ke sath ek ek qadam lautte hue usne socha—dopahar ki dhoop aur aur do pyar karte parani!’ pyar karte parani ‘usne phir duhraya ye pyar tha? jaise barson baad milne wale do mitr hon, jinmen baten karne ke wishay chuk gaye hon safed sangmarmar par dhoop paD rahi thi, chaundha tha isliye udhar peeth kar li thi rah rahkar jhunjhlahat ati—kis shap ne hamare khoon ko jama diya hai? ye ho kya gaya hai hamein? koi garmi nahin, koi awesh aur koi udweg nahin kya badal gaya hai ismen? han, mera ka rang kuch khul gaya hai sharir nikhar aaya hai
lautte samay bhi uski samajh mein nahin aaya ki ye bojh, ye khinchaw kya hai donon yunhi ghas mein kati hui lal pattharon ki jali par qadam qadam tahalte hue siDhiyon tak jayenge phatak mein baithe hue gaiDon aur darbanon ki bedhti yachak nigahon ko balpurwak jhuthlate, bajri par charchar charchar karte hue tange ya rikshe mein ja baithenge aur ek moD lete hi sab kuch pichhe chhoot jayega kal wo likhega—meri mera, kal ke mere wywahar par tumhein ashchary hua hoga ho sakta hai, bura bhi laga ho lekin lekin ‘aur phir chashme ke kanchon mein jhankta tajamhal sakar ho aaya tumhari palkon par tairte do tajamhal’—kitna sundar waky hai! (yah to nai kawita ho gai!) tagore ne dekha hota to kal ke galon par Dhulak i ansu ki boond’ kabhi na kahte kahte—galon par Dhulak aaye ansuon mein jhankte tajamhal ki rupahli machhaliyon si parchhaiyan’ lekin mera ki ankhon mein to use nami ka bhi abhas nahin hua tha kitne jaड़ ho gaye hain hum log bhi ajkal! wo kal wale patr mein likhega—haksle ki naqal nahin kar raha, jane kyon, mujhe tajamhal kabhi khubsurat nahin laga lekin pahli bar jab mainne tumhari palkon par taj ki parchhain dekhi to dekhta rah gaya pichhle dinon ki ek ajib si baat mujhe yaad ho i, us kshan ’
are han, ab yaad aaya ki kyon wo achanak yon sust ho gaya tha us baat ko bhi kabhi bhula ja sakta hai? han, mere liye to wo baat hi thi wo likhega use laga, man hi man wo jise hi sambodhit kar raha hai, jise patr likh raha hai wo sath sath chalne wali ye mera nahin hai wo to koi aur hai kahin door bahut du r wahi mera to uski asli bandhu aur sakha hai, ye ye isse to jab jab mila hai, isi tarah udas ho gaya hai lekin us mera se milne ka akarshan iske pas kheench lata hai iski to jane kitni baten hain, jo use qati pasand nahin hain jaise? wo yaad karne ki koshish karne laga, jaise use kya kya pasand nahin hai? jaise is samay use isi baat par jhunjhlahat aa rahi hai ki mera niche bani jali ke pattharon par hi panw rakhkar kyon nahin chal rahi, beech beech mein ghas par panw kyon rakh deti hai
aur is sabke par donon kan lagaye rahe ki dusra kuch kahe ek baat sochkar sahsawah khu hi muskura paDa—jab we log bahut baDe baDe ho jayenge; samjho chalis pachas sal ke, to hans hansakar kaise dusron ko apni apni bewqufiyan sunaya karenge—kaise we log chhip chhipkar tajamhal mein mila karte the!
chaar panch sal ho gaye honge us baat ko uske man ke bhitari stron par patr chalta raha ye sab wo us patr mein likhega nahin, wo sirf us bahane krambaddh shabdon mein us sari ghatna ko yaad karne ki koshish kar raha hai wo, dew, rakaji aur munmun isi tarah to laut rahe the, chup chap, udas aur manhus sanjh thi isliye parchhaiyan khoob lambi lambi chali gai theen
achchhi tarah yaad hai, september ya october ka mahina tha college se aakar chay ka kap honthon se lagaya hi tha ki kisi ne bataya, apko koi sahab bula rahe hain ’’ wo ankhakar utha—kaun aa gaya is waqt?
are, ap!’’
pahchana ya nahin, apne?’’
are sahab khoob, aapko nahin pahchanunga?’’ lekin sachmuch unhonne pahchana nahin tha dekha zarur hai kahin, shayad kalkatta mein aisa kai bar hua hai, lekin wo bharsak ye jatane ki koshish karta hai ki pahchan raha hai aur batachit se parichai ke sootr pakaDkar yaad karne ki koshish karta hai, aiye na bhitar ”
nahin mistar mathur, baithunga nahin gali ke bahar meri waif aur bachcha khaड़e hain ” unhonne kshama chahne ke lahze mein kaha, aap kuch kar rahe hain kya? ”
lekin unhen wahan ? yahin bula lijiye na ”
nahin, dekhiye, aisa hai ki hum log zara taj dekhne aaye the yaad aaya aap bhi to yahin rahte hain jagah yaad nahin thi, so ek DeDh ghante bhatakna paDa khair, aap mil gaye ab agar kuch kaam na ho to baat aisi hai ki hamein aaj hi laut jana hai ” we siDhi par ek panw rakhe khaड़e the, aap kisi tarah ke sankoch mein na paDiye, panwon mein chappal Daliye aur chale aiye ’’
gali ke bahar gaDi khaDi thi pichhe ka darwaza khula tha aur usko pakDe pichhle maDgarD se tiki ek mahila khaDi thi—gahri hari banglauri resham ki saDi, bangali Dhang ka chauDa chauDa juDa aur bichombich jagmag karta athapahlu rupahla sitara maDgarD par chhota sa chaar panch sal ka bachcha phisalte juton ko jaise taise roke baitha tha donon banhon se use sambhale hue we uski kalai pakDe chhoti si anguli se dhool lade maDgarD par likha rahi thee—t e je juton ki awaz se chaunkkar muDin aur swagat mein muskurai bachche ko sanbhalakar utara, phir donon hath joD diye phir khu hi boli, dekhiye, aapse wayada kiya tha ki ”
“hazrat aa hi nahin rahe the ” we beech mein hi baat katkar bole phir sahsa bole, achchha raka, ab baitho warna andhera ho jayega to dekhne ka maza bhi nahin rahega ’’
raka raka han, kuch yaad to aa raha hai Draiwar ki baghal mein baithkar usne ekadh bar ghumkar dekha, jaise yahin kahin unka nam bhi likha mil jayega
kaise hain?—bahut dinon baad mile hain yaad hai aapko, kalkatta mein hum log mile the ? us din hum logon ne aapko kitni der kar di thee’’ sunahla rang, kanon mein gol kunDal, bahut hi bemalum si lipstick saDi ka palla sadhne ke liye khiDki par tiki hui kuhni
are han, ab yaad aya—inse to mulaqat baDe ajib Dhang se hui thi new market ke ek restaran mein baitha wo shauqiya apni apni sangit kala ka pradarshan karne walon ko dekh raha tha phir jane kya man mein aaya ki khu bhi uthkar mouth aurgan par der tak cinema ke giton ki dhunen nikalta raha us chhote se manch se hatkar jis mez par wo baitha tha, usi par baithe the ye log, ye raka ji aur mistar kya? han, mistar dew
sachmuch aapne bahut hi sundar bajaya baDi achchhi practice hai ’’ dew ne uske baithte hi kaha rumal se baje ko achchhi tarah ponchhkar jeb mein rakh hi raha tha ki chaunk gaya raka ke chehre par prashansa utar i thi aur yunhi kap ke upar hatheli teke, wo ektak mez ko dekh rahi thi
apaki chay to pani ho gai hogi aur mangaye dete hain baira, suno idhar ”
uske mana karne par bhi chay aur i chhuttiyon mein ghumne aaye hain ? achchha, kaisa laga kalkatta aapko ji han, gand to hai bambai ke muqable lekin ek bar man lag jane par chhoDna mushkil ho jata hai ” phir prashansa, kritaj~nata ka adan pradan, parichai aur raat der tak unke loar circular roD ke flat par baten, khana, coffe aur sangit raka ko sitar ka shauq hai dew kisi wideshi company ke incharge manager ki sangti mein wideshi simphaniyan pasand karte hain uska mouth aurgan sunne ke baad raka ji ne sitar sunaya tha aur phir dew nihayat hi khubsurat plastic ke lifafon mein band apne wideshi record nikal laye the ek ek record aadh ghante chalta tha aur usmen teen teen kampojishans the uski samajh mein kuch bhi nahin aaya tha, lekin wo baitha lifafon par likhe hue parichai aur sangitaj~n ki taswir ko zarur ghaur se dekhta raha tha koi chiyakowaski ya kuch bengar tha jiska nam we bar bar lete the ek ek record chalis pachas rupae ka tha beech beech mein, kabhi zarur ayenge agara bahut bachpan mein ek bar dekha tha, shayad dimagh mein jo naqsha hai usse mel hi na khaye shadi ke baad ek bar dekhne ka program bahut dinon se bana rahe hain ye to har chhutti mein pichhe paD jati hain ji nahin, inhonne nahin dekha idhar hi rahe inke father waghaira sab ab to aap wahan hain hi ” us din donon deri ke liye raste bhar kshama mangte hue apni gaDi par hi wiwekanand roD tak chhoDne aaye the raste bhar batachit ke tukDe, sitar ki goonj aur simphni ki koi Dubti si dardili karah use abhibhut kiye rahi kaise ajib Dhang se parichai hua hai, kitna sukhi joDa hai use bahut hi khushi hui thi bachcha baad mein aaya hai, nam hai munmun
dew bata rahe the, numaish mein hamara stall aaya hai na, so hum log bhi dilli aaye the socha, itne pas se, yoon bina dekhe lautna achchha nahin hai aapko yunhi ghasit laye, koi kaam to ”
nahin, nahin ” jaldi se kaha use aur to sab baten yaad aa rahi theen, lekin ye yaad hi nahin aa raha tha ki in mistar dew ke aage pichhe kya lagta hai baDi bechaini thi kaise jane? bus, us mulaqat ke baad phir kabhi bhent nahin hui yadadasht achchhi hai in logon ki, apne yaad khoob rakha ” socha, us mulaqat mein aisi koi khas baat bhi to nahin thi
jab bhi hum log taj ki baat karte, apaki baat yaad aa jati aur koi din aisa nahin gaya jab taj ki baat na i ho ” phir raka ji ki or dekhkar khu hi bole, aaj hamare wiwah ko satwan warsh pura hua hai aapke samne ye munmun nahin tha ”
munmun, tumne uncle ji ko matte nahin kiya? kaho, uncle ji, aaj hamale papa daddy ke wiwah ki satwin warchhganth hai ” raka ji uske hath juDwati boli, bahut hi shaitan hai mujhe din bhar khayal rakhna paDta hai ki kisi din kuch kar kara na le ’’
tab to aapko badhai deni chahiye ” lekin is sabke par wijay ko laga, kahin ghutan hai jo adrshy kuhre ki tarah gaDhi hoti hui chhai hai raha nahin gaya, puchha, aap kuch sust hain tabiat ”
nahin ji ’’ unhonne donon hath uthakar ek klip theek kiya aur swasth Dhang se muskurane ka prayatn karke kaha, gaDi mein baithe baithai panch ghante ho gaye ek ghante se to yahin aapko hi khoj rahe hain ”
chch, sachmuch bahut ziyadati hai ye to apaki ’’ kritaj~nata bhaw se wo bola, kam se kam munh hath to dho hi letin raka ji ’’
sab theek hai—lautna bhi to hai na aaj hi ’’
phir sabhi ne khoob ghoom ghumkar taj dekha tha munmun ka ek hath dew ke hathon mein tha aur ek raka ji ke kabhi kabhi to tinon aapas mein hi aise wyast hokar kho jate ki wijay ko lagta—wah bekar hi apni upasthiti se inke beech wighn ban raha hai upar imarat ke safed kale chabutre par dew baDi der tak paisa luDhkakar uske pichhe bhagte aur bachche ko khilate rahe, aur wijay ke sath sath rakaji jaliyon ki banawat, darwaze par likhi quran ki ayaten aur buton ki naqqashi dekhti rahin sanjh ki pili pili suhani dhoop thi launon ki narmi sanwli ho i thi, morpankhi aur chauDe chauDe taड़ jaise patton ke gumbdakar kunj mombatti ki hari sunahli lau jaise lagte the—jaise anand mein phule phule kabutar hon aur abhi hulaskar phurahri le lenge to chingariyon ki tarah surkh phool idhar udhar bikhar paDenge we log bhitar qabron ke pas apni awaz gunjate rahe—kaisi larajti si tairti chali jati hai jaise bahut hi muhin reshon ka bana hua, ghaDi mein lage baal spring ki tarah baDa sa wartulakar kuch hai jo kabhi sikuDkar simat uthta hai dew ki awaz thi, ra ka ra ka ra ka ” ek dusre par chaDhte chale jate shabd door khote hue kinhin anjani ghatiyon ki talhatiyon mein—munmun mu u u na a a ” dew der tak Dube hue is khel ko khelte rahe the lagta tha, unke bhitar hai kuch, jo is khel ke madhyam se abhiwyakti pa raha hai wo raka ya munmun ka nam le dete aur der tak andhere mein in shabdon ko Dubta khota dekhte rahte—jaise hath baDhakar unhen wapas pakaD lena chahte hon unhen kabron mein koi dilchaspi nahin thi baDi der baad, bahut mushkil se jab we us watawarn se tutkar bahar nikle to bahut udas aur khoe khoe the wijay ke pas se munmun ko lekar zor se chhati se bheench liya
bahar nikalkar aaye to dekha ki nadi kinare wali burji ke pas raka ji chupchap door shahr aur lal pul ki or dekhti khaDi hain sinduri asman ke gahre sileti badal nadi ke chaukhate mein wash kalar ki tarah phail gaye hain burji se lekar beech ke maqbare tak chabutre ki kali safed shatranji ko simatti dhoop ne tirchha bant liya hai hawa mein saDi unke sharir se chipak gai hai aur kanon ke upar ki laten uchchhrinkhal ho i hain dew bahut der tak unhen yunhi dekhte rahe, jaise unhen pahchante hi na hon aur us sare watawarn mein, safed patthar ke us wirat qaidkhane mein jaise kisi abhishapt jalapri ko yoon bhatakne ke liye chhoD diya gaya ho ye jagah, ye watawarn hai hi kuch aisa wijay ne apne aapse kaha aur jaan bujhkar dusri taraf hat aaya shayad raka ji mumtaj ke prem ki baat soch rahi hon, apne marne ke baad apni aisi hi yadgar chahti hon ya kuch bhi na soch rahi hon—bus, pul se guzarti rail ki khiDki se jhankti hui, taj ko dekhkar saundarya aur kalpana ki stabdh unchaiyon mein kho gai hon
apni chhati tak unchi pichhe ki diwar se munmun nadi ki or jhankta hua hath hila hilakar niche jate bachchon ko bula raha tha kauwe kanw kanw karne lage the munmun ke pas wo sangmarmar ki diwar par jhukkar hatheliyan teke samne ki dhara aur peDon ki ghani panton ko dekhta raha jane kab dew bhi barabar hi aa khaड़e hue kafi door hatkar usi tarah burji ke pas jhuki raka ji hawa mein phahrati saDi ko ek hath se pakaDkar roke hue
bhitar ki awaz aur goonj ko sunkar baDi ajib si anubhuti hoti hai hoti hai n? jaise jane kin wiran jangalon aur pahaDon mein aapka koi bahut hi nikat ka atmiy kho gaya hai aur apaki nishphal pukaren toot tutkar use guharti chali jati hain chali jati hain aur kho jati hain na wo atmiy lautta hai aur na awazen—jaise yugon se kisi ki bhatakti aatma use pukarti rahi ho aur wo hai ki gunjon aur jhaniyon mein hi ghul ghulkar bikhar jata hai Doob jata hai bilamta hai aur sakar nahin ho pata ”
nadi mein taj ki ghani ghani parchhain lahron mein toot toot jati thi anjane hi dew ki ankhon mein ansu bhar aaye
aisa hi hota hai, aise watawarn mein aisa hi hota hai ’’ wijay ne apne aapse kahkar mano sthiti ko shabd dekar samajhna chaha, jab koi kisi ko bahut pyar kare, bahut pyar kare, aur phir aisi khubsurat manhus jagah aa jaye to kuch aisi hi anubhutiyan man mein aati hain abhi lawn par chalenge, munmun ke sath kilkariyan marenge—sab theek ho jayega ”
dew ne suna aur gahri sans lekar baDi katar nigahon se wijay ki or dekha kuch kahte kahte ruk gaye aur donon chupchap hi tahalte hue samne ki or aa gaye munmun raka ji ke pas chala gaya tha niche ki siDhiyan utarte utarte sahsa hi dew ne wijay ke kandhe par hath rakh diya tha kuch kahne ko honth kanpe, apko pata hai mistar wijay!’’ wijay swar aur mudra se chaunk gaya tha
nahin kuch nahin ” upar hari saDi ki jhalak dikhi aur phir donon siDhiyan utar aaye jute pahante hue bole apko tajjub to bahut hoga ki hum yoon achanak aapko liwa laye ”
nahin to, ismen aisi kya baat hai?’’ wijay ne shishtata se kaha
han, baat kuch nahin hai, lekin bahut baDi baat hai ’’ phir gahri sans
ab wijay ko laga ki sachmuch koi bahut baDi baat hai jo dew ke bhitar se nikalne ke liye jhatapta rahi hai tab pahli bar uska dhyan is sthiti ki wichitrata ki or gaya beech ke chabutre tak donon bilkul chup rahe chabutre ke khubsurat konon wale hauz mein aag lag gai thi gahre sanwle asman mein lal lal gulabi badalon ke bagule utar aaye the ulte taj ki parchhain dam toDte sanp si inke qadmon par fan patak patakkar lahra rahi thi dhoop upar burjiyon par simat gai thi us par ankhen tikaye dew baDi der tak yoon hi dekhte rahe samne munmun ko liye raka ji chali aa rahi theen, lekin jaise koi kisi ko nahin dekh raha ho—han, wijay kabhi use aur kabhi ise ya mashak lekar aate bhishti ko dekhta raha tap tap bundon ki sarpakar lainen uski ungliyon se tapak rahi theen baDe sahas se shabdon ko dhakel dhakelkar dew bole, ye sari sthiti ye ye toot jane ki had tak aa jane wala charamrata tanaw maut ke pahle ke ye kah kahe aupacharikta ka wo barfila kafan shayad hammen se koi ise akela nahin sah pata koi ek chahiye tha jo iski or se hamara dhyan hataye rakhe is samapti ka gawah ban sake ’’
main samajh nahin saka mistar dew ” ghabrakar wijay ne puchha tha
buton ke donon panjon par zara sa machakkar dew nihayat hi itminan se dhire se hanse aap ap—wijay sahab, ye hamari akhiri sandhya hai ” aur wijay ke kuch puchhne se pahle hi unhonne kah Dala mainne aur raka ne nishchay kiya hai ki ab hum logon ko alag hi ho jana chahiye donon taraf se shayad sahne ki had ho gai hai nason ka ye tanaw mujhe ya use pagal bana de, ya koi aisi waisi behudgi karne par majbur kare, isse achchha ho ki donon alag hi rahen chahe to wo kisi ke sath saitil ho jaye wo munmun ko rakhna chahti hai, rakhe waise jab bhi wo uske badhak lage, nissankoch mere pas bhej de ”
wijay ka sir bhanna utha wo chupchap hauz ki gahrai se taDapti taj ki parchhain par nigahen tikaye raha
lekin aap donon ” wijay ne kahna chaha
dew ne hath phailakar rok diya, wo sab ho chuka sari sthitiyan khatm ho gai hamne tay kiya ki kyon na apni antim sandhya hansi khushi katen mitr bane rahkar hi hanste hanste wida len ” phir kuch der tak chup rahkar kaha, raka ko baDi ichha thi ki taj dekhe, shadi ki pahli raat usne chaha tha ki honeymoon yahan hi ho lekin lekin ’’ phir hath jhatak diya, ajab sanyog hai n?—lekin ”
lekin wijay ko laga tha jaise kisi Daim ki railing par jhuka khaDa hai aur niche se lakhon tan pani dhaD dhaD karta girta chala ja raha hai girta chala ja raha hai aur uska sir chakra utha— nahin, usse kisi ne kuch bhi nahin kaha ye sab to sirf wo kalpana kar raha hai kahin aisi awishwasniy baat dhyan uska tuta dew ki awaz se, use roko raka, mali waghairah mana karenge nahin munmun!’ swar bahut mulayam tha aur phir dew ne dauDkar pyar se munmun ko donon banhon mein utha liya aur uske pet mein apna munh gaDa diya munmun khilakhilakar hans paDa ankhon mein laD bhare raka ji muskurati rahin nahin, abhi jo kuch suna tha, wo in logon ke aapsi sambandhon ke bare mein nahin tha—ho nahin sakta
bahut bar wijay ne raka ji ka chehra dekhana chaha, lekin laga, we idhar udhar ke sare watawarn ko hi pine mein wyast hain chiDiyan chahchahane lagi theen
inhin jaliyon par isi tarah to we log chal rahe the ki pas aakar dhire se dew ne kaha tha, raka se kuch mat puchiyega ”
kya puchhega wo raka ji se ?
sorry, aapko yoon ghasit laye hum log ”
aur is bar katar nigahon se dekhne ki bari wijay ki thi itna ghalat samajhte hain aap
chaar panch sal ho gaye, lekin baat kitni tazi ho i hai wo, dew, raka ji aur munmun isi tarah laut rahe the, chupchap, udas aur manhus sanjh ka bajra raat ka kinara chhune laga tha jaise kisi warshon ki tufani yatra se we tinon lautkar aa rahe hon peDon aur imaraton ki parchhaiyan khoob lambi lambi chauDi dhariyon ki tarah pichhe chali gai theen kunjon aur lawn ki haryaliyan ajib tatki tatki ho uthi theen hariyali ke surami dhundhale kanch par safed phool chhitak aaye the
mera ke chashme ke kanchon mein jhankti parchhain ko dekhkar, jane kyon use wahi yaad tazi ho gai thi wahi taj jo us din hauz mein mano asmani jarjet ke pichhe se jhank raha tha aur apne aapse laDte hue dew use bata rahe the aaj agar dew hote to kya jawab deta ? to kya we bhi usi tarah alag ho rahe hain ?
sahsa chaunkkar usne mera ko dekha use laga, jaise usne kuch kaha hai, kuch kah rahi theen kya?’’
main? nahin to ’’ phir wahi maun aur ghisatti udasi ka kanbal
laga, jaise koi murda kshan hai jiska ek sira mera pakDe hai aur dusra wo, aur use chupchap donon raat ke sannate mein kahin dafnane ke liye ja rahe hon Darte hon ki kisi ki nigahen na paD jayen—koi jaan na le ki we hatyare hain kahin kisi jhaDi ke pichhe is lash ko phenk denge aur khushbudar rumalon se kaskar khoon ponchhte hue chale jayenge bheeD mein kho jayenge jaise ek dusre ki or dekhne mein Dar lagta hai kahin aarop karti ankhen hattya swikarne ke majbur na kar den
bahar we donon tanga lenge jhatke se moD leta hua tanga Dhaal par dauD paDega aur tajamhal pichhe chhutta jayega aur phir achchha’ kahkar sukhe honthon ke bhare swar par muskurahat ka kafan lapetkar donon ek dusre se wida lenge
wo baat na mera ne uthai, na khu usne milne se pahle zarur laga tha ki koi bahut hi zaruri baat hai jis par donon ko baten kar hi leni hain, lekin jaise har kshan usi ki ashanka mein use talte rahe baat gale tak aa aakar rah gai ki ek bar phir mera se puchhe—kya is parichai ko sthayi roop nahin diya ja sakta?—lekin kahin pahle ki tarah use bura laga to? uske baad donon mein kitna khinchaw aur duraw aa gaya tha!
pata nahin kyon, tajamhal use kabhi khubsurat nahin laga phir dhoop mein safed sangmarmar ka chaundha lagta tha, isliye wo udhar peeth kiye baitha tha lekin chaundha mera ko bhi to lag sakta hai n? ho sakta hai, use taj sundar hi lagta ho parchhain udhar yamuna ki taraf hogi, idhar to sapat dhool mein jhalmal karta sangmarmar hai, bus is tapte patthar par chalne mein taluon ke jhulasne ki kalpana se uske sare sharir mein phurahri dauD gai
teen sal baad ek dusre ko dekha tha dekhkar sirf muskuraye the, ashwast bhaw se—han, donon hain aur waise hi hain—mira kuch nikhar i hai aur shayad wo wo pata nahin kaisa ho gaya hai! jane kitne pure ke pure waky, sawal jawab usne mera ko man hi man samne baithakar bole the, prtikriyaon ki kalpana ki thi aur ab bus, khisiyane Dhang se muskurakar hi swagat kiya tha us kshan se hi use apne milne ki wyarthata ka ahsas hone laga tha, jane kyon kya aisi baten karenge we, jo aksar nahin kar chuke hain? sal chhe mahine mein ek dusre ke kushal samachar jaan hi lete hain
uthe hue ghutnon ke pas lawn ki ghas par mera ka hath chupchap rakha tha bus, ungliyan is tarah uth gir rahi theen, jaise kisi bahut nazuk baje par halke halke gunjte sangit ki tal ko bandh rahi hon mera ne lohe ka chhalla Dal rakha tha—shayad shani ka prabhaw theek rakhne ke liye usne dhire se uski sabse chhoti anguli mein apni anguli hook ki tarah atka li thi, phir hath uthakar donon hatheliyon mein daba liya tha phir dhire dhire baton ki dhara phoot paDi thi
wijay ka dhyan gaya—baDi baDi munchhonwala koi chhota sa kiDa mera ki khuli gardan aur blouse ke kinare aa gaya tha jhijhak hui, khu jhaD de ya bata de usne apna munh dusri or ghuma liya—prawesh dwar ki siDhiyan jhaDiyon ki ot aa gai theen, sirf upar ka hissa deekh raha tha hichkichate hue carrom ka stricker marne ki tarah usne kiDa anguliyon se pare chhitka diya, nason mein sansanahat utarti chali gai ungliyon se wo jagah yunhi jhaD di, mano gandi ho gai thi mera usi tanmay bhaw se apni saheli ke wiwah ki party mein aaye logon ka warnan deti rahi—usne kuch nahin kaha na wahan rakha wijay ka hath hataya hi wijay ne ek bar phir sashank nigahon se idhar udhar dekha aur aage baDhkar usko donon kanpatiyon ko hatheliyon se dabakar apne pas kheench liya nahin, mera ne wirodh nahin kiya mano wo pratyasha kar rahi thi ki ye kshan ayega awashy lekin pahle uske mathe par tikhi rekhaon ki parchhaiyan ubhrin aur phir mugdh muskurahat ki lahron mein badal gain ek ajib, bikharti si simti, dhoop chhanhin muskurahat wijay ka man hua, registan mein bhatakte pyase ki tarah donon hathon se surahi ko pakaDkar is muskurahat ki sharab ko pagal awesh mein pita chala jaye pita chala jaye gat gat aur akhir laDakhDakar gir paDe patle patle honthon mein ek namalum si phaDkan laraz rahi thi us rumani behoshi mein bhi wijay ko khayal aaya ki pahle ek hath se mera chashma utar le—tut na jaye tab usne dekha, hariyale phawwaron jaise morpankhiyon ke do teen peDon ke pichhe pure pure do tajamhal chashme ke shishon mein utar aaye hain dudhiya hathi dant ke bane se do safed nannhe nannhe khilaune
pata nahin kyon, use tajamhal kabhi achchha nahin laga dhyan aaya, awanchhit buDhe prahri ki tarah tajamhal pichhe khaDa dekh raha hai baton ke beech wo use kai bar bhool gaya tha, lekin danton mein atke tinke sa achanak hi use yaad aa jata tha ki we uski chhaya mein baithe hain jo mahan hai, jo wirat hai jo ? itni baDi imarat! iske samagr saundarya ko eksath wo kabhi kalpana mein la hi nahin paya ek ek hissa dekhne mein kabhi usmen kuch sundar laga nahin logon ke apne hi man ka kawy aur saundarya raha hoga jo ismen aropit karke dekh lete hain kabhi mauqa milega to wo hawai jahaz se taj ki sundarta ke samagr ho pane ki koshish karega kai wihangam chitr is tarah ke dekhe to hain aur tab sare watawarn ke beech koi baat lagi to hai magar ye chashme ke kanchon mein jhalamlate, dhoop mein chamakte taj khinchaw wahin tham gaya usne baDe bemalum se Dhang se gahri sans li aur apne hath hata liye, ahiste se —nahin, yahan nahin koi dekh lega ’ ye use kya ho gaya ?
sahsa mera sachet ho i umaDti laj chhipane ke liye sakapkakar idhar udhar dekha, koi bhi to nahin tha pas wali lal lal unchi diwar par abhi abhi raj mazdur se lagnewale marammatiye log aapas mein hansi mazaq karte ek dusre ke pichhe bhagte gaye hain bandar ki tarah diwar par bhag lene ka abhyas hai rawish ke par paDos ke lawn mein do teen mali paipon ko idhar udhar ghumate pani laga rahe the—we bhi ab nahin hain khana khane gaye honge mera ne baghal se saDi khinchkar kandhe ka palla theek kar liya phir wijay ne anamne bhaw se ghas ka ek phool toDa aur ankhon ke aage ungliyon mein ghumane laga mera ne chashma utarkar, munh se halki si bhap di aur saDi se kanch ponchhe, balon ki laton ko kanon ke pichhe atkaya aur chashma lagakar kalai ki ghaDi dekhi
baDa bojhil maun aa gaya tha donon ke beech wijay ko laga, unhen kuch bolna chahiye, warna ye chuppi ka bojh donon ke beech ki kisi bahut komal cheez ko pees dega hatheli par yunhi us tinke se kras aur trikon banata wo shabdon ko thelkar bola, “to phir ab chalen ? der bahut ho rahi hai ”
mera ne sir hila diya laga, jaise wo kuch kahte kahte ruk gai ho ya pratiksha kar rahi ho ki wijay kuch kahna chahta hai, lekin kah nahin pa raha phir thoDi der chuppi rahi koi nahin utha tab phir usne mare mare hathon se juton ke phite kase, akhbar mein rakhe aur santare aur mungaphali ke chhilke phenke baithne ke liye bichhaye gaye rumal samete gaye aur donon tahalte hue phatak ki taraf chale aaye
teen ka samay hoga—hath mein ghaDi hote hue bhi usne andaz lagaya dhoop abhi bhi bahut tez thi ekadh bar gale aur kanpatiyon ka pasina ponchha aate samay to barah baje the us waqt use hansi aa rahi thi, milne ka samay bhi un logon ne kitna wichitr rakha hai
jaise is samay se bahut door khaड़e hokar usne duhraya tha—barah baje, june ka mahina aur tajamhal ka lawn wo pahle aa gaya tha aur pratiksha karta raha tha us samay kaisi bechaini, kaisi chhatpatahat, kaisi utawli thi ye samay bitta kyon nahin hai? bahut dinon se ghaDi ki safai nahin ho pai, isliye shayad sust hai abhi tak nahin i in laDakiyon ki isi baat se sakht jhunjhlahat hoti hai kabhi samay nahin rakhtin jane kya maza aata hai intizar karane mein! wo jaan bujhkar udhar aane wale raste ki or se munh phere tha ummid kar raha tha ki sahsa muDkar udhar dekhega to payega ki wo aa rahi hai lekin do teen bar aisa kar chukne ke baad bhi wo nahin i jab dusri or munh moDe rahkar bhi wo kanakhiyon se udhar hi jhankne ki koshish karta to khu apne par hansi aati achchha, siDhiyan utarkar aane wale teen wyaktiyon ko wo aur dekhega aur agar ismen bhi mera nahin hui to dhyan lagakar kitab paDhega—jab aana ho, aa jaye ek do teen! ho sakta hai, agli wahi ho hish, jaye jahannum mein nahin aati to, han to nahin! achchha, aao, tab tak yahi sochen ki mera in teen salon mein kaisi ho gai hogi? kaise kapड़e pahankar ayegi? ek dusre ko dekhkar we kya karenge? ho sakta hai, awesh se lipat jayen, kuch bol na payen uske sath aisa hota nahin hai, lekin kaun jane, us awesh mein
akhir wo i to wo use pas aate dekhta raha tha har bar wo udhar se nigahen hatane ki koshish karta ki use yoon na dekhe, pas aane par hi dekhe aur hathat milne ke thril ko mahsus kare lekin wo dekhta raha tha aur nihayat hi sanyat bhaw se bola tha, namaste mera jee!’’ jhempkar mera muskura paDi thi dhoop mein chehra lal paD gaya tha phir donon is lawn mein aa baithe the—aise achanchal, aise aweshahin, jaise roz milte hon
mainne socha, tum shayad na aao yaad na rahe ’’
apne likha tha to yaad kaise nahin rahta? lekin time baDa ajib hai ’’
han, sharad purnaima ki chandni raat to nahin hi hai ’’ apne mazaq par wo khu hi wyarthata mahsus karta, gambhir bankar bola, is waqt yahan zara ekant hota hai ’’
sachmuch ajib time tha—mira ke sath ek ek qadam lautte hue usne socha—dopahar ki dhoop aur aur do pyar karte parani!’ pyar karte parani ‘usne phir duhraya ye pyar tha? jaise barson baad milne wale do mitr hon, jinmen baten karne ke wishay chuk gaye hon safed sangmarmar par dhoop paD rahi thi, chaundha tha isliye udhar peeth kar li thi rah rahkar jhunjhlahat ati—kis shap ne hamare khoon ko jama diya hai? ye ho kya gaya hai hamein? koi garmi nahin, koi awesh aur koi udweg nahin kya badal gaya hai ismen? han, mera ka rang kuch khul gaya hai sharir nikhar aaya hai
lautte samay bhi uski samajh mein nahin aaya ki ye bojh, ye khinchaw kya hai donon yunhi ghas mein kati hui lal pattharon ki jali par qadam qadam tahalte hue siDhiyon tak jayenge phatak mein baithe hue gaiDon aur darbanon ki bedhti yachak nigahon ko balpurwak jhuthlate, bajri par charchar charchar karte hue tange ya rikshe mein ja baithenge aur ek moD lete hi sab kuch pichhe chhoot jayega kal wo likhega—meri mera, kal ke mere wywahar par tumhein ashchary hua hoga ho sakta hai, bura bhi laga ho lekin lekin ‘aur phir chashme ke kanchon mein jhankta tajamhal sakar ho aaya tumhari palkon par tairte do tajamhal’—kitna sundar waky hai! (yah to nai kawita ho gai!) tagore ne dekha hota to kal ke galon par Dhulak i ansu ki boond’ kabhi na kahte kahte—galon par Dhulak aaye ansuon mein jhankte tajamhal ki rupahli machhaliyon si parchhaiyan’ lekin mera ki ankhon mein to use nami ka bhi abhas nahin hua tha kitne jaड़ ho gaye hain hum log bhi ajkal! wo kal wale patr mein likhega—haksle ki naqal nahin kar raha, jane kyon, mujhe tajamhal kabhi khubsurat nahin laga lekin pahli bar jab mainne tumhari palkon par taj ki parchhain dekhi to dekhta rah gaya pichhle dinon ki ek ajib si baat mujhe yaad ho i, us kshan ’
are han, ab yaad aaya ki kyon wo achanak yon sust ho gaya tha us baat ko bhi kabhi bhula ja sakta hai? han, mere liye to wo baat hi thi wo likhega use laga, man hi man wo jise hi sambodhit kar raha hai, jise patr likh raha hai wo sath sath chalne wali ye mera nahin hai wo to koi aur hai kahin door bahut du r wahi mera to uski asli bandhu aur sakha hai, ye ye isse to jab jab mila hai, isi tarah udas ho gaya hai lekin us mera se milne ka akarshan iske pas kheench lata hai iski to jane kitni baten hain, jo use qati pasand nahin hain jaise? wo yaad karne ki koshish karne laga, jaise use kya kya pasand nahin hai? jaise is samay use isi baat par jhunjhlahat aa rahi hai ki mera niche bani jali ke pattharon par hi panw rakhkar kyon nahin chal rahi, beech beech mein ghas par panw kyon rakh deti hai
aur is sabke par donon kan lagaye rahe ki dusra kuch kahe ek baat sochkar sahsawah khu hi muskura paDa—jab we log bahut baDe baDe ho jayenge; samjho chalis pachas sal ke, to hans hansakar kaise dusron ko apni apni bewqufiyan sunaya karenge—kaise we log chhip chhipkar tajamhal mein mila karte the!
chaar panch sal ho gaye honge us baat ko uske man ke bhitari stron par patr chalta raha ye sab wo us patr mein likhega nahin, wo sirf us bahane krambaddh shabdon mein us sari ghatna ko yaad karne ki koshish kar raha hai wo, dew, rakaji aur munmun isi tarah to laut rahe the, chup chap, udas aur manhus sanjh thi isliye parchhaiyan khoob lambi lambi chali gai theen
achchhi tarah yaad hai, september ya october ka mahina tha college se aakar chay ka kap honthon se lagaya hi tha ki kisi ne bataya, apko koi sahab bula rahe hain ’’ wo ankhakar utha—kaun aa gaya is waqt?
are, ap!’’
pahchana ya nahin, apne?’’
are sahab khoob, aapko nahin pahchanunga?’’ lekin sachmuch unhonne pahchana nahin tha dekha zarur hai kahin, shayad kalkatta mein aisa kai bar hua hai, lekin wo bharsak ye jatane ki koshish karta hai ki pahchan raha hai aur batachit se parichai ke sootr pakaDkar yaad karne ki koshish karta hai, aiye na bhitar ”
nahin mistar mathur, baithunga nahin gali ke bahar meri waif aur bachcha khaड़e hain ” unhonne kshama chahne ke lahze mein kaha, aap kuch kar rahe hain kya? ”
lekin unhen wahan ? yahin bula lijiye na ”
nahin, dekhiye, aisa hai ki hum log zara taj dekhne aaye the yaad aaya aap bhi to yahin rahte hain jagah yaad nahin thi, so ek DeDh ghante bhatakna paDa khair, aap mil gaye ab agar kuch kaam na ho to baat aisi hai ki hamein aaj hi laut jana hai ” we siDhi par ek panw rakhe khaड़e the, aap kisi tarah ke sankoch mein na paDiye, panwon mein chappal Daliye aur chale aiye ’’
gali ke bahar gaDi khaDi thi pichhe ka darwaza khula tha aur usko pakDe pichhle maDgarD se tiki ek mahila khaDi thi—gahri hari banglauri resham ki saDi, bangali Dhang ka chauDa chauDa juDa aur bichombich jagmag karta athapahlu rupahla sitara maDgarD par chhota sa chaar panch sal ka bachcha phisalte juton ko jaise taise roke baitha tha donon banhon se use sambhale hue we uski kalai pakDe chhoti si anguli se dhool lade maDgarD par likha rahi thee—t e je juton ki awaz se chaunkkar muDin aur swagat mein muskurai bachche ko sanbhalakar utara, phir donon hath joD diye phir khu hi boli, dekhiye, aapse wayada kiya tha ki ”
“hazrat aa hi nahin rahe the ” we beech mein hi baat katkar bole phir sahsa bole, achchha raka, ab baitho warna andhera ho jayega to dekhne ka maza bhi nahin rahega ’’
raka raka han, kuch yaad to aa raha hai Draiwar ki baghal mein baithkar usne ekadh bar ghumkar dekha, jaise yahin kahin unka nam bhi likha mil jayega
kaise hain?—bahut dinon baad mile hain yaad hai aapko, kalkatta mein hum log mile the ? us din hum logon ne aapko kitni der kar di thee’’ sunahla rang, kanon mein gol kunDal, bahut hi bemalum si lipstick saDi ka palla sadhne ke liye khiDki par tiki hui kuhni
are han, ab yaad aya—inse to mulaqat baDe ajib Dhang se hui thi new market ke ek restaran mein baitha wo shauqiya apni apni sangit kala ka pradarshan karne walon ko dekh raha tha phir jane kya man mein aaya ki khu bhi uthkar mouth aurgan par der tak cinema ke giton ki dhunen nikalta raha us chhote se manch se hatkar jis mez par wo baitha tha, usi par baithe the ye log, ye raka ji aur mistar kya? han, mistar dew
sachmuch aapne bahut hi sundar bajaya baDi achchhi practice hai ’’ dew ne uske baithte hi kaha rumal se baje ko achchhi tarah ponchhkar jeb mein rakh hi raha tha ki chaunk gaya raka ke chehre par prashansa utar i thi aur yunhi kap ke upar hatheli teke, wo ektak mez ko dekh rahi thi
apaki chay to pani ho gai hogi aur mangaye dete hain baira, suno idhar ”
uske mana karne par bhi chay aur i chhuttiyon mein ghumne aaye hain ? achchha, kaisa laga kalkatta aapko ji han, gand to hai bambai ke muqable lekin ek bar man lag jane par chhoDna mushkil ho jata hai ” phir prashansa, kritaj~nata ka adan pradan, parichai aur raat der tak unke loar circular roD ke flat par baten, khana, coffe aur sangit raka ko sitar ka shauq hai dew kisi wideshi company ke incharge manager ki sangti mein wideshi simphaniyan pasand karte hain uska mouth aurgan sunne ke baad raka ji ne sitar sunaya tha aur phir dew nihayat hi khubsurat plastic ke lifafon mein band apne wideshi record nikal laye the ek ek record aadh ghante chalta tha aur usmen teen teen kampojishans the uski samajh mein kuch bhi nahin aaya tha, lekin wo baitha lifafon par likhe hue parichai aur sangitaj~n ki taswir ko zarur ghaur se dekhta raha tha koi chiyakowaski ya kuch bengar tha jiska nam we bar bar lete the ek ek record chalis pachas rupae ka tha beech beech mein, kabhi zarur ayenge agara bahut bachpan mein ek bar dekha tha, shayad dimagh mein jo naqsha hai usse mel hi na khaye shadi ke baad ek bar dekhne ka program bahut dinon se bana rahe hain ye to har chhutti mein pichhe paD jati hain ji nahin, inhonne nahin dekha idhar hi rahe inke father waghaira sab ab to aap wahan hain hi ” us din donon deri ke liye raste bhar kshama mangte hue apni gaDi par hi wiwekanand roD tak chhoDne aaye the raste bhar batachit ke tukDe, sitar ki goonj aur simphni ki koi Dubti si dardili karah use abhibhut kiye rahi kaise ajib Dhang se parichai hua hai, kitna sukhi joDa hai use bahut hi khushi hui thi bachcha baad mein aaya hai, nam hai munmun
dew bata rahe the, numaish mein hamara stall aaya hai na, so hum log bhi dilli aaye the socha, itne pas se, yoon bina dekhe lautna achchha nahin hai aapko yunhi ghasit laye, koi kaam to ”
nahin, nahin ” jaldi se kaha use aur to sab baten yaad aa rahi theen, lekin ye yaad hi nahin aa raha tha ki in mistar dew ke aage pichhe kya lagta hai baDi bechaini thi kaise jane? bus, us mulaqat ke baad phir kabhi bhent nahin hui yadadasht achchhi hai in logon ki, apne yaad khoob rakha ” socha, us mulaqat mein aisi koi khas baat bhi to nahin thi
jab bhi hum log taj ki baat karte, apaki baat yaad aa jati aur koi din aisa nahin gaya jab taj ki baat na i ho ” phir raka ji ki or dekhkar khu hi bole, aaj hamare wiwah ko satwan warsh pura hua hai aapke samne ye munmun nahin tha ”
munmun, tumne uncle ji ko matte nahin kiya? kaho, uncle ji, aaj hamale papa daddy ke wiwah ki satwin warchhganth hai ” raka ji uske hath juDwati boli, bahut hi shaitan hai mujhe din bhar khayal rakhna paDta hai ki kisi din kuch kar kara na le ’’
tab to aapko badhai deni chahiye ” lekin is sabke par wijay ko laga, kahin ghutan hai jo adrshy kuhre ki tarah gaDhi hoti hui chhai hai raha nahin gaya, puchha, aap kuch sust hain tabiat ”
nahin ji ’’ unhonne donon hath uthakar ek klip theek kiya aur swasth Dhang se muskurane ka prayatn karke kaha, gaDi mein baithe baithai panch ghante ho gaye ek ghante se to yahin aapko hi khoj rahe hain ”
chch, sachmuch bahut ziyadati hai ye to apaki ’’ kritaj~nata bhaw se wo bola, kam se kam munh hath to dho hi letin raka ji ’’
sab theek hai—lautna bhi to hai na aaj hi ’’
phir sabhi ne khoob ghoom ghumkar taj dekha tha munmun ka ek hath dew ke hathon mein tha aur ek raka ji ke kabhi kabhi to tinon aapas mein hi aise wyast hokar kho jate ki wijay ko lagta—wah bekar hi apni upasthiti se inke beech wighn ban raha hai upar imarat ke safed kale chabutre par dew baDi der tak paisa luDhkakar uske pichhe bhagte aur bachche ko khilate rahe, aur wijay ke sath sath rakaji jaliyon ki banawat, darwaze par likhi quran ki ayaten aur buton ki naqqashi dekhti rahin sanjh ki pili pili suhani dhoop thi launon ki narmi sanwli ho i thi, morpankhi aur chauDe chauDe taड़ jaise patton ke gumbdakar kunj mombatti ki hari sunahli lau jaise lagte the—jaise anand mein phule phule kabutar hon aur abhi hulaskar phurahri le lenge to chingariyon ki tarah surkh phool idhar udhar bikhar paDenge we log bhitar qabron ke pas apni awaz gunjate rahe—kaisi larajti si tairti chali jati hai jaise bahut hi muhin reshon ka bana hua, ghaDi mein lage baal spring ki tarah baDa sa wartulakar kuch hai jo kabhi sikuDkar simat uthta hai dew ki awaz thi, ra ka ra ka ra ka ” ek dusre par chaDhte chale jate shabd door khote hue kinhin anjani ghatiyon ki talhatiyon mein—munmun mu u u na a a ” dew der tak Dube hue is khel ko khelte rahe the lagta tha, unke bhitar hai kuch, jo is khel ke madhyam se abhiwyakti pa raha hai wo raka ya munmun ka nam le dete aur der tak andhere mein in shabdon ko Dubta khota dekhte rahte—jaise hath baDhakar unhen wapas pakaD lena chahte hon unhen kabron mein koi dilchaspi nahin thi baDi der baad, bahut mushkil se jab we us watawarn se tutkar bahar nikle to bahut udas aur khoe khoe the wijay ke pas se munmun ko lekar zor se chhati se bheench liya
bahar nikalkar aaye to dekha ki nadi kinare wali burji ke pas raka ji chupchap door shahr aur lal pul ki or dekhti khaDi hain sinduri asman ke gahre sileti badal nadi ke chaukhate mein wash kalar ki tarah phail gaye hain burji se lekar beech ke maqbare tak chabutre ki kali safed shatranji ko simatti dhoop ne tirchha bant liya hai hawa mein saDi unke sharir se chipak gai hai aur kanon ke upar ki laten uchchhrinkhal ho i hain dew bahut der tak unhen yunhi dekhte rahe, jaise unhen pahchante hi na hon aur us sare watawarn mein, safed patthar ke us wirat qaidkhane mein jaise kisi abhishapt jalapri ko yoon bhatakne ke liye chhoD diya gaya ho ye jagah, ye watawarn hai hi kuch aisa wijay ne apne aapse kaha aur jaan bujhkar dusri taraf hat aaya shayad raka ji mumtaj ke prem ki baat soch rahi hon, apne marne ke baad apni aisi hi yadgar chahti hon ya kuch bhi na soch rahi hon—bus, pul se guzarti rail ki khiDki se jhankti hui, taj ko dekhkar saundarya aur kalpana ki stabdh unchaiyon mein kho gai hon
apni chhati tak unchi pichhe ki diwar se munmun nadi ki or jhankta hua hath hila hilakar niche jate bachchon ko bula raha tha kauwe kanw kanw karne lage the munmun ke pas wo sangmarmar ki diwar par jhukkar hatheliyan teke samne ki dhara aur peDon ki ghani panton ko dekhta raha jane kab dew bhi barabar hi aa khaड़e hue kafi door hatkar usi tarah burji ke pas jhuki raka ji hawa mein phahrati saDi ko ek hath se pakaDkar roke hue
bhitar ki awaz aur goonj ko sunkar baDi ajib si anubhuti hoti hai hoti hai n? jaise jane kin wiran jangalon aur pahaDon mein aapka koi bahut hi nikat ka atmiy kho gaya hai aur apaki nishphal pukaren toot tutkar use guharti chali jati hain chali jati hain aur kho jati hain na wo atmiy lautta hai aur na awazen—jaise yugon se kisi ki bhatakti aatma use pukarti rahi ho aur wo hai ki gunjon aur jhaniyon mein hi ghul ghulkar bikhar jata hai Doob jata hai bilamta hai aur sakar nahin ho pata ”
nadi mein taj ki ghani ghani parchhain lahron mein toot toot jati thi anjane hi dew ki ankhon mein ansu bhar aaye
aisa hi hota hai, aise watawarn mein aisa hi hota hai ’’ wijay ne apne aapse kahkar mano sthiti ko shabd dekar samajhna chaha, jab koi kisi ko bahut pyar kare, bahut pyar kare, aur phir aisi khubsurat manhus jagah aa jaye to kuch aisi hi anubhutiyan man mein aati hain abhi lawn par chalenge, munmun ke sath kilkariyan marenge—sab theek ho jayega ”
dew ne suna aur gahri sans lekar baDi katar nigahon se wijay ki or dekha kuch kahte kahte ruk gaye aur donon chupchap hi tahalte hue samne ki or aa gaye munmun raka ji ke pas chala gaya tha niche ki siDhiyan utarte utarte sahsa hi dew ne wijay ke kandhe par hath rakh diya tha kuch kahne ko honth kanpe, apko pata hai mistar wijay!’’ wijay swar aur mudra se chaunk gaya tha
nahin kuch nahin ” upar hari saDi ki jhalak dikhi aur phir donon siDhiyan utar aaye jute pahante hue bole apko tajjub to bahut hoga ki hum yoon achanak aapko liwa laye ”
nahin to, ismen aisi kya baat hai?’’ wijay ne shishtata se kaha
han, baat kuch nahin hai, lekin bahut baDi baat hai ’’ phir gahri sans
ab wijay ko laga ki sachmuch koi bahut baDi baat hai jo dew ke bhitar se nikalne ke liye jhatapta rahi hai tab pahli bar uska dhyan is sthiti ki wichitrata ki or gaya beech ke chabutre tak donon bilkul chup rahe chabutre ke khubsurat konon wale hauz mein aag lag gai thi gahre sanwle asman mein lal lal gulabi badalon ke bagule utar aaye the ulte taj ki parchhain dam toDte sanp si inke qadmon par fan patak patakkar lahra rahi thi dhoop upar burjiyon par simat gai thi us par ankhen tikaye dew baDi der tak yoon hi dekhte rahe samne munmun ko liye raka ji chali aa rahi theen, lekin jaise koi kisi ko nahin dekh raha ho—han, wijay kabhi use aur kabhi ise ya mashak lekar aate bhishti ko dekhta raha tap tap bundon ki sarpakar lainen uski ungliyon se tapak rahi theen baDe sahas se shabdon ko dhakel dhakelkar dew bole, ye sari sthiti ye ye toot jane ki had tak aa jane wala charamrata tanaw maut ke pahle ke ye kah kahe aupacharikta ka wo barfila kafan shayad hammen se koi ise akela nahin sah pata koi ek chahiye tha jo iski or se hamara dhyan hataye rakhe is samapti ka gawah ban sake ’’
main samajh nahin saka mistar dew ” ghabrakar wijay ne puchha tha
buton ke donon panjon par zara sa machakkar dew nihayat hi itminan se dhire se hanse aap ap—wijay sahab, ye hamari akhiri sandhya hai ” aur wijay ke kuch puchhne se pahle hi unhonne kah Dala mainne aur raka ne nishchay kiya hai ki ab hum logon ko alag hi ho jana chahiye donon taraf se shayad sahne ki had ho gai hai nason ka ye tanaw mujhe ya use pagal bana de, ya koi aisi waisi behudgi karne par majbur kare, isse achchha ho ki donon alag hi rahen chahe to wo kisi ke sath saitil ho jaye wo munmun ko rakhna chahti hai, rakhe waise jab bhi wo uske badhak lage, nissankoch mere pas bhej de ”
wijay ka sir bhanna utha wo chupchap hauz ki gahrai se taDapti taj ki parchhain par nigahen tikaye raha
lekin aap donon ” wijay ne kahna chaha
dew ne hath phailakar rok diya, wo sab ho chuka sari sthitiyan khatm ho gai hamne tay kiya ki kyon na apni antim sandhya hansi khushi katen mitr bane rahkar hi hanste hanste wida len ” phir kuch der tak chup rahkar kaha, raka ko baDi ichha thi ki taj dekhe, shadi ki pahli raat usne chaha tha ki honeymoon yahan hi ho lekin lekin ’’ phir hath jhatak diya, ajab sanyog hai n?—lekin ”
lekin wijay ko laga tha jaise kisi Daim ki railing par jhuka khaDa hai aur niche se lakhon tan pani dhaD dhaD karta girta chala ja raha hai girta chala ja raha hai aur uska sir chakra utha— nahin, usse kisi ne kuch bhi nahin kaha ye sab to sirf wo kalpana kar raha hai kahin aisi awishwasniy baat dhyan uska tuta dew ki awaz se, use roko raka, mali waghairah mana karenge nahin munmun!’ swar bahut mulayam tha aur phir dew ne dauDkar pyar se munmun ko donon banhon mein utha liya aur uske pet mein apna munh gaDa diya munmun khilakhilakar hans paDa ankhon mein laD bhare raka ji muskurati rahin nahin, abhi jo kuch suna tha, wo in logon ke aapsi sambandhon ke bare mein nahin tha—ho nahin sakta
bahut bar wijay ne raka ji ka chehra dekhana chaha, lekin laga, we idhar udhar ke sare watawarn ko hi pine mein wyast hain chiDiyan chahchahane lagi theen
inhin jaliyon par isi tarah to we log chal rahe the ki pas aakar dhire se dew ne kaha tha, raka se kuch mat puchiyega ”
kya puchhega wo raka ji se ?
sorry, aapko yoon ghasit laye hum log ”
aur is bar katar nigahon se dekhne ki bari wijay ki thi itna ghalat samajhte hain aap
chaar panch sal ho gaye, lekin baat kitni tazi ho i hai wo, dew, raka ji aur munmun isi tarah laut rahe the, chupchap, udas aur manhus sanjh ka bajra raat ka kinara chhune laga tha jaise kisi warshon ki tufani yatra se we tinon lautkar aa rahe hon peDon aur imaraton ki parchhaiyan khoob lambi lambi chauDi dhariyon ki tarah pichhe chali gai theen kunjon aur lawn ki haryaliyan ajib tatki tatki ho uthi theen hariyali ke surami dhundhale kanch par safed phool chhitak aaye the
mera ke chashme ke kanchon mein jhankti parchhain ko dekhkar, jane kyon use wahi yaad tazi ho gai thi wahi taj jo us din hauz mein mano asmani jarjet ke pichhe se jhank raha tha aur apne aapse laDte hue dew use bata rahe the aaj agar dew hote to kya jawab deta ? to kya we bhi usi tarah alag ho rahe hain ?
sahsa chaunkkar usne mera ko dekha use laga, jaise usne kuch kaha hai, kuch kah rahi theen kya?’’
main? nahin to ’’ phir wahi maun aur ghisatti udasi ka kanbal
laga, jaise koi murda kshan hai jiska ek sira mera pakDe hai aur dusra wo, aur use chupchap donon raat ke sannate mein kahin dafnane ke liye ja rahe hon Darte hon ki kisi ki nigahen na paD jayen—koi jaan na le ki we hatyare hain kahin kisi jhaDi ke pichhe is lash ko phenk denge aur khushbudar rumalon se kaskar khoon ponchhte hue chale jayenge bheeD mein kho jayenge jaise ek dusre ki or dekhne mein Dar lagta hai kahin aarop karti ankhen hattya swikarne ke majbur na kar den
bahar we donon tanga lenge jhatke se moD leta hua tanga Dhaal par dauD paDega aur tajamhal pichhe chhutta jayega aur phir achchha’ kahkar sukhe honthon ke bhare swar par muskurahat ka kafan lapetkar donon ek dusre se wida lenge
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।