सवेरे का वक़्त है। गंगा-स्नान के प्रेमी अकेले और दुकेले चार-चार छ-छ के गुच्छों में गंगा-तट से लौटकर दशाश्वमेध के तरकारी वालों और मेवाफ़रोशों से उलझ रहे हैं, मोल-तोल कर रहे हैं। दुकानें सब दुलहिनों की तरह सजी-बजी खड़ी हैं। कहीं चायवाला चाय के शौक़ीनों को गाढ़े कत्थई रंग की चाय पिला रहा है, कहीं पानवाला चाँदी का वरक़ लगा बीड़ा और ख़ुश्बूदार ज़र्दा किसी ग्राहक को पकड़ा रहा है। एक जगह बँगला अख़बारों वाला ‘युगांतर’ और ‘आनंदबाज़ार’ की हाँक लगा रहा है। सब के चेहरे पर, सब के कपड़ों में, सब की बोली में अजब एक ताज़गी है। सुनहली धूप फैल गर्इ है, जो इस बसंती मौसम में एक ख़ास रंग भर रही है, जो कि तंदुरुस्ती का रंग है, जिसके सी.एन.डे का अंग्रेज़ी दवाख़ाना और ढेरों आयुर्वेद औषधालय इस समय इंदुभूषण को अच्छे नहीं मालूम पड़ते। लेकिन थोड़ा ही थम कर विचार करने पर इंदुभूषण को यह समझते देर नहीं लगती कि इस वक़्त फ़िज़ा की जो रंगत उसे दिखाई दे रही है, वह हर वक़्त नहीं रहती, वह तो घंटे दो घंटे की बहार है, और उसके बाद तो फिर जहाँ ज़िंदगी की ओर सभी खटर-पटर है, वहाँ हारी-बीमारी भी है ही।
इंदुभूषण को बग़ल से एक आवाज़ सुनाई दी—‘कहिए महाशय जी!’
इंदुभूषण को इसका ज़रा भी गुमान नहीं था कि यह वाक्य उसी पर फेंका गया है, लिहाज़ा वह अपने विचारों के प्रवाह में अपनी उसी धीमी चाल से आगे, घाट की ओर बढ़ता रहा।
इंदुभूषण को अपनी ओर मुख़ातिब न होते देखकर वह काफ़ी गठी हुई-सी, मगर अब झूली-झूली मांसपेशियों का, अधेड़, ठिगना-सा, गंदुमी रंग का आदमी एक हाथ में कुछ साग और बैंगन वग़ैरह, एक छोटे झोले में, और दूसरे हाथ में एक डेढ़ पाँव-आध सेर का रोहू का बच्चा लिए सामने आ खड़ा हुआ—‘बोलिए न, कैसा है आप? हम आपको आवाज़ दिया, आप सुना नहीं!’
इंदुभूषण ने उसे पहचाना नहीं। उस व्यक्ति की हुलिया से, ख़ासकर उसकी बाईं आँख की फुल्ली से, इन्द्रभूषण को यह चेहरा कुछ पहचाना हुआ-सा तो लगा, बस इतना कि हाँ, यह शक्ल कहीं देखी है। मगर कब और कहाँ, यह बिलकुल याद नहीं पड़ता था। इसी विस्मृति की रेखा को पढ़ कर उस व्यक्ति ने इंदुभूषण के कुछ भी कहने के पहले, कुछ मुस्कुराकर अपनी झेंप मिटाते हुए कहा—‘आप हमको पहचाना नहीं, हम आपका पड़ोसी, आपका टोला में हमारा भी बाड़ी...।’
अब इंदुभूषण को एक-एक करके सभी बातें याद आ गईं—‘अभी उस रोज़ यही बंगाली बाबू तो उस छोर पर वाले मकान में आए हैं, अभी सात दिन भी तो हुए न होंगे, यह और इनकी तीन लड़कियाँ...’
‘याद आ गया बंगाली बाबू। ज़रा देर लगी, माफ़ कीजिएगा, पहले कभी भेंट नहीं हुई थी, इसी से। कहिए, घर में अच्छी तरह जम तो गए आप? घर अच्छा है न? बाहर से तो अच्छा लगता है।’
‘ऐक रक़म भालो बाड़ी...हम लोग का परिवार भारुम नेहिं हाय।’
‘आपके साथ बस आपकी तीन कन्याएँ हैं शायद?’
उत्तर में उस व्यक्ति ने अजीब ढंग से मुस्कुरा दिया और अपने अग़ल-बग़ल देख कर कहा—‘हाँ मशाइ, और कोई नहीं, दूसरा नहीं...मशाइ, आपका नाम?’
‘इंदुभूषण। और आपका?’
‘बेनीमाधव बोस।’
‘फिर ज़रा देर के बाद बंगाली बाबू बोले—हम सोचा, आप हमारा पड़ोसी, आपसे हमारा आलाप नहीं होने से नहीं चलेगा...आप बुरा तो नहीं मान गिया?’
दुबला-पतला गोरा-सा इंदु अभी तरुणाई की उस मंज़िल में है, जब हर नौजवान के दिल में किसी तरुणी के निकट परिचय की भूख रहती है, जब उसे ऐसे किसी साथी की ज़रूरत होती है, जिसके साथ वह अपनी नई उम्र की उस अजीब, तंग करने वाली कसमसाहट को बाँट सके। शायद इसीलिए बेनीमाधव से मिल कर उसे मन-ही-मन कुछ गुदगुदी-सी महसूस हुई। आते-जाते उसने दो तीन बार उन लड़कियों को खिड़की में खड़े देखा था।
इतवार का दिन था, सबेरे का वक़्त। वह घर के सामने सहन में डेक-चेयर डाल कर लेटा एक कहानी की किताब पढ़ रहा था।
अभी-अभी उसने एक कहानी ख़त्म की थी और किताब बंद करके वैसे ही लेटा सूनी निगाहों से सामने की ओर देख रहा था। कहानी की नायिका ने संखिया खाकर आत्मघात कर लिया था और उसकी आँख के सामने उसी का उदास मुर्झाया हुआ चेहरा घूम रहा था, और कान में उसी के आख़िरी शब्द बज रहे थे—मैं जी नहीं सकी, इसलिए मर रही हूँ।
इंदु का नौजवान मन इस बात को समझ ही नहीं पा रहा था उस लड़की ने सखिया क्यों खाई? सखिया खाना ही क्या उसके लिए अंतिम राह बची थी? क्यों मरी वह? उसने क्यों नहीं कहा—‘मैं ऐसे समाज को लात मारती हूँ...साहस? संखिया खाने का साहस था?’
उसका मन नायिका के आत्मघात पर विफल आक्रोश से भर रहा था, विफल आक्रोश इसलिए कि ख़ुद उसके मन में यह कहीं पर यह चोर था कि समाज को लात मारने की बात कहना कितना आसान है, लात मारना उतना आसान नहीं है।
अभी वह इसी कशमकश में था कि बेनीमाधव बाबू फाटक में दाख़िल हुए, वह धोती, और मैली-सी, पूरी बाँह की क़मीज़ पहने, जो कभी सफ़ेद रही होगी। किसी नए घर में पहले-पहल दाख़िल होते समय जो झिझक आदमी को होती है, वही झिझक बेनीमाधव बाबू को भी हो रही थी। फाटक खोलकर वह अंदर दाख़िल हुए थे और आगे बढ़ने के पहले अपने इर्द-गिर्द चौकन्ने खरहे की तरह देख रहे थे, कि इंदुभूषण ने उठकर उनका स्वागत किया—‘आइए बंगाली बाबू, आज इधर कैसे भूल पड़े?’
बंगाली बाबू ने वहीं से कहा—धन्यवाद...धन्यवाद...आप ठीक तो है?
इंदु का स्वस्थ ताज़ा चेहरा बेनीमाधव बाबू के इस निरे शिष्टाचार वाले सवाल का सबसे अच्छा जवाब था। उन्हें कुर्सी देते हुए इंदु ने कहा—जी मैं बिलकुल ठीक हूँ, आप अलबत्ता कुछ कमज़ोर दिखाई दे रहे हैं।
बेनीमाधव बाबू ने कहा—आपनी त जानेन इंदु बाबू, आप तो जानता हमारा ज़िंदगी...
जो बात हमारी सहानुभूति उभारने के लिए ही कही गर्इ हो, उसे सुनकर सहानुभूति के दो शब्द न कहना मुश्किल होता है। इंदु ने कहा—‘सचमुच बड़ी कठिन ज़िंदगी है आपकी।...आपकी बड़ी लड़की की उम्र क्या होगी बंगाली बाबू?’ बेनीमाधव इस सावल का आशय कुछ ख़ास नहीं समझे, लेकिन इतना ज़रूर उनके मन में कौंधे की तरह चमक गया कि इस आदमी से आत्मीयता बढ़ाने के लिए इस मौक़े का इस्तेमाल होना चाहिए।
बेनीमाधव बाबू ने अग़ल-बग़ल देखकर दबे हुए स्वर में कहा, ‘जैसे कोई गोपनीय बात कह रहे हों—जिस लड़की की बात आप कह रहा है इंदु बाबू उसका उमिर बीस साल है। उसका नाम माधवी है। उससे छोटा जो लड़की है, उसका नाम पुतुल है। उसका उमिर अठारह साल है, और हाशी...वो तो अभी बच्चा है’—कहकर वह झेंप मिटाने-जैसी हँसी हँसा, एक विचित्र खोखली हँसी।
इंदु को इतने तफ़्सीली जवाब की उम्मीद न थी। वह तो यूँ ही उसने सहानुभूतिवश पूछ लिया था, यह समझकर कि शायद सयानी लड़की की शादी की चिंता में बंगाली बाबू घुले जा रहे हैं। और बंगाली बाबू थे कि वंश-वृक्ष ही खोलकर बैठ गए। इंदु को उस चीज़ से कुछ उलहन हुई मगर उसने कुछ कहा नहीं। थोड़ी देर चुप बैठा उन्हें देखता रहा, फिर बोला—अच्छा बंगाली बाबू, अब आज्ञा दीजिए, मुझे एक जगह जाना है।
और कुर्सी पीछे को सरकाई।
इंदु को उठता देखकर अब बंगाली बाबू को उलझन हुई। अभी तो बात का सिलसिला ठीक से जम भी नहीं पाया और यह आदमी उठकर चला जा रहा है! काम की बात अभी हुई ही नहीं। और जैसे शब्द मछली के काँटे की तरह गले में फँस रहे हों उनके मुँह तक आ आ कर रुक जाती थी। अपनी लड़कियों की चर्चा निकालने में भी उनका मक़सद यही था कि यह जो मछली का काँटा उनके गले में फँस रहा था, उसे पानी के सहारे नीचे उतार दें। इतने में ही इंदु कुर्सी से उठ गया। उसकी देखा-देखी बंगाली बाबू भी कुर्सी से उठ तो गए मगर इंदु की नज़र बचाते हुए दूसरी ही किसी तरफ़ देखते खड़े रहे। इंदु समझ गया कि बंगाली बाबू मुझसे कुछ कहना चाहते हैं जो कह नहीं पा रहे हैं।
इंदु ने उन्हें सहारा देने की गरज़ से कहा—‘मेरे योग्य और कोई सेवा, बंगाली बाबू?’
डूबते को तिनके का सहारा मिला। कभी-कभी बात को बग़ैर घुमाए-फिराए सीधे-साधे कह देना ही कुल मिलाकर आसान पड़ता है, कुछ यही सोचकर बंगाली बाबू ने अग़ल-बग़ल देखकर कुछ सहमे से स्वर में कहा—‘आप हमको दस रुपिया देने सकेगा? आपके रुपया हम एक सप्ताह किंवा पनेरो में दिन में फेरोत दे देगा, आज हमारा भीषण तागिद...।’
इंदु ने कुछ कहा नहीं, अंदर से दस रुपए का एक नोट लाकर बंगाली बाबू के हाथ में दे दिया और नमस्ते करके फ़ौरन अंदर चला गया। उसको इस ख़याल से ही घुटन होती थी कि यह आदमी जो गरज़ का मारा मेरे पास आया है, इस दस रुपिट्टी को पाकर मेरे सामने खीस निपोरेगा!
लेकिन अंदर जाकर इंदु तत्काल फिर बाहर आया। वह चलते-चलते बंगाली बाबू से कहना चाहता था कि वे अपनी लड़कियों को इस बात के लिए रोक दें कि खिड़की में बहुत न खड़ी रहा करें क्योंकि शहरों में तो, फिर आप जानते ही हैं...।
उसके बाहर आने-आने तक बेनीमाधव बाबू फाटक के बाहर हो चुके थे। उसने उन्हें पुकारना ठीक नहीं समझा। सोचा, फिर कभी कह दूँगा।
कई दिन बीत गए।
गोधूलि का समय था। इंदु कालेज से लौट रहा था। आज उसे लाइब्रेरी में बहुत देर लग गई थी।
उसका घर पक्की, डामर की सड़क से कोई डेढ़ सौ गज़ भीतर को हटकर है। जहाँ डामर की सड़क छोड़कर ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते में दाख़िल होते हैं ठीक वहीं बेनीमाधव वाला पीला मकान है। पुतुल दरवाज़े पर ही खड़ी थी। पुतुल ने उसे आवाज़ दी–‘इंदु बाबू!’
इंदु कुछ झिझकते हुए उसके पास गया। पुतुल ने हलके से मुस्कुराकर कहा—‘इंदु बाबू, आपनी कखनो आमादेर एखाने आसेन ना! (आप कभी हमारे घर नहीं आते!)
इंदु ने अपने मन में कहा, लगता है बंगाली बाबू ने मेरा पूरा परिचय अपने घरवालों को दे दिया है। यह बात उसे अच्छी भी लगी।
इंदु ने कहा—‘जी, मौक़े की बात होती है। वैसे मैं आने की कई दिन से सोच रहा था। और मुस्कुराया।’
इंदु की मुस्कुराहट से पुतुल के दिल में एक धक्का-सा लगा। बोली—‘आइए।’
इंदु ने कहा—‘अभी नहीं। घर पर लोग बाट देख रहे होंगे। हो सका तो एक डेढ़ घंटे बाद आऊँगा।’
पुतुल ने उसी अंदाज़ से कहा—‘ज़रूर आइएगा।’ और फिर मुस्कराई।
इंदु वहाँ से चला तो उसके पैर हल्के पड़ रहे थे।
घर में दाख़िल होते ही एक छोटा-सा सायबान था, जो बिलकुल अँधेरा पड़ा था। उसमें एक टुटही कुर्सी एक कोने में पड़ी थी। वहाँ बेनीमाधव बाबू को न पाकर इंदु को और आगे बढ़ने में झिझक मालूम हुई। सायबान के बाद ही एक बहुत सीला हुआ-सा आँगन था, जिसमें एक अंधी-सी लालटेन एक तरफ़ को रखी हुई थी, जिसमें लाल-लाल रोशनी निकल रही थी। लोहे का एक जँगला आँगन की छत थी। एक अलगनी पर तीन-चार कपड़े सूख रहे थे, एक लाल पाट की साड़ी, दो पेटीकोट, दो-तीन बॉडिस। इंदु की हिम्मत और आगे बढ़ने की नहीं हुई। उसने आँगन में पैर रखते ही आवाज़ दी, ‘बंगाली बाबू हैं?’
माधवी नीचे ही थी। इंदु की आवाज़ सुनी। बोली—‘आइए इंदु बाबू!’
इंदु ने पूछा—‘बेनीमाधव बाबू नहीं हैं?’
माधवी ने कहा—‘कहीं गए हैं। अभी लौट आएँगे। आप ऊपर चलिए।’ और पुतुल को आवाज़ दी—‘पुतुल, तोमार इंदु बाबू एसेचेन।’
आँगन की बातचीत सुनकर पुतुल ख़ुद ही नीचे आ रही थी। बोली—‘चलिए इंदु बाबू।’ इंदु ने मुस्कुराहट से उसका जवाब दिया। फिर कहा—‘अच्छा, मैं फिर किसी रोज़ आऊँगा।’ और चलने को हुआ। लेकिन पुतुल ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे अपनी तरफ़ खींचते हुए बोली—‘आप ऊपर चलिए ना इंदु बाबू, बाबा आते होंगे।‘
इंदु के पैर अब भी आगे नहीं बढ़े। पुतुल ने रूठने के अंदाज़ में होंठ निकालते हुए कहा—‘आप इतना डरते क्यों हैं इंदु बाबू! आप तो पुरुष मानुष हाय...और हम...तो लड़की। आप क्यों डरता?’...और एक प्रकार से खींचते हुए ऊपर ले चली। बाई बग़ल से ही ज़ीना था, सँकरा-सा। ऊपर जाकर इंदु ने देखा कि अग़ल-बग़ल दो कोठरियाँ हैं। दोनों में एक-एक खाट पड़ी है और दोनों में एक-एक ढिबरी जल रही है। पुतुल ने कोठरी में दाख़िल होते ही चटपट बिस्तर की चादर की शल दूर की और इंदु की ओर ताकते हुए कहा—‘आइए न इंदु बाबू। हियाँ डरने का कोई बात नहीं है। आप हियाँ बैठिए, बाबा अभी आएगा। थोड़ा ओपेक्खा करने होगा।’
इंदु का मन बार-बार हो रहा था कि उतर कर भाग जाए, लेकिन पैर जैसे बँध-से गए थे। जाकर पुतुल के बिस्तर पर बैठ गया। उसका दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। पुतुल ने ढिबरी स्टूल पर से हटा कर ताक़ पर रख दी और स्टूल वहीं पास ही खींचकर बैठ गई। एक-डेढ़ मिनट तक पूर्ण निस्तब्धता रही। फिर उसे भंग किया पुतुल ने—‘इंदु बाबू, आप बहुत बुरे हैं।’ और मुस्कुराई। इंदु का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। उसने कोई जवाब नहीं दिया और वैसे ही, सिकुड़ा–सिमटा बैठा रहा और फिर चंद लम्हों के लिए ख़ामोशी छा गई।
‘आपका ब्याह हुआ है इंदु बाबू?’
इस बेतुके सवाल का संदर्भ उसकी समझ में नहीं आया, लेकिन इसका जवाब आसान था, शायद इसी ख़याल से उसने कहा—‘नहीं।’
पुतुल ने उसके जवाब में कहा—‘च् च् च् च् च्’, और मुस्कुराई।
इंदु ने अपने मन में कहा—‘ज़रा इसे देखो तो कैसे कर रही है! मुझे निरा मिट्टी का लोंदा समझ लिया है इसने क्या! कैसी अजीब लड़की है!’
और एक बार बहुत ज़ोर से उसका जी हुआ कि इस लड़की को, जो अभी इतनी जवान है और जो सिर्फ़ उसे सताने के लिए उसकी बग़ल में बैठकर इस तरह मुस्कुरा रही है, उठा कर इसी बिस्तरे पर पटक दे और...और उसे किसी जगह पर ऐसा हथोककर काट ले कि ख़ून निकल आए, मगर उसने ज़ब्त किया। अब तक सारी परिस्थिति कुछ-कुछ उसकी पकड़ में आने लगी थी और एक अजीब खिन्नता उसके मन में भर रही थी।
इसी तरह कोई दस मिनट गुज़र गए। तब तक बग़ल की कोठरी से किसी पुरुष की भनक इंदु के कान में पड़ी। उसने पुतुल से कहा—‘देखिए, बेनीमाधव बाबू शायद आ गए।’
पुतुल ने इस बार एक भिन्न प्रकार की हँसी के साथ कहा—‘नहीं इंदु बाबू, वह तो माधवी का...दोस्त है—नलिन।’
एकाएक इंदु बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। पुतुल भी उठ खड़ी हुई। उसके चेहरे पर न जाने कैसी घबराहट लिखी हुई थी।
‘जाइएगा?...चले जाइएगा? अभी से क्यों? आप बाबा को दस टाका दिया था न? नहीं...नहीं...नहीं’, पुतुल ने मना करने के अंदाज़ में कहा और अपने जलते हुए होंठ इंदु के होंठ पर रख दिए।
यह सब ऐसा बिजली की तरह हुआ कि इंदु एकदम बौखला गया, मगर तो भी उसे लगा कि जैसे किसी ने उसके होठों पर अंगारा रख दिया हो। ग़ुस्से से उनकी आँखें लाल हो गईं और नथने फड़कने लगे। उसने झटका देकर पुतुल को अलग किया और मज़बूत हाथों से उसके कन्धों को पकड़ कर पूरी ताक़त से उन्हें झकझोरते हुए भारी करख़्त आवाज़ में चिल्लाकर कहा—‘हाँ दिए थे...दिए थे...इसी के लिए दिए थे!...तुम उसे चुकता करोगी...तुम उसे चुकता करोगी…तुम उसे चुकता करोगी...’ कहते हुए उसने ज़ोर से उसे धक्का दिया और पुतुल जाकर सीधी खाट की पाटी पर गिरी। इंदु ने ढिबरी लेकर ज़मीन पर पटक दी और कोठरी के किवाड़ों को झपाटे से बंद करता हुआ तेज़ी से कमरे के बाहर हो गया।
झपाटे से दरवाज़े का बंद होना सुनकर माधवी अपनी कोठरी से निकलकर आई। इंदु चला जा रहा था और पुतुल पाटी से लगी–लगी सिसक रही थी। उसके शरीर को भी चोट लगी थी, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा और असल चोट लगी थी उसके मन को और वह चोट सिर्फ़ इतनी नहीं थी कि इंदु ने उसका अपमान किया है।
माधवी ने पुतुल का हाथ पकड़ कर उठाने की कोशिश करते हुए कहा—‘पागल हो गई है पुतुल? वह चला गया। जानवर! उजड्डु गँवार!’
पुतुल को माधवी के संवेदना के ये शब्द ज़हर जैसे लगे। उसने आँखें उठा कर एक मिनट, अपलक देखा और आदेश के स्वर में कहा—‘दीदी तुम यहाँ से चली जाओ...’
माधवी ने पुतुल की रोती हुई मगर कठोर आँखें देखीं और ज़रा देर को ठिठक गई। फिर कहा—‘कैसा अजीब पागलपन है...!’ और इंदु के लिए एक बड़े कुत्सित शब्द का प्रयोग किया।
पुतुल की आँखों में सान पर चढ़ी हुई कटार की-सी चमक आई और उसे नागिन की तरह फुफकारकर, किंचित् चढ़े हुए स्वर में कहा—‘दीदी तुम इसी वक़्त बाहर चली जाओ!’
माधवी ‘ज़रा इस बचपन को तो देखो, हुँ:’ बड़बड़ाती हुई बाहर निकल गई और पुतुल वैसे ही पाटी पकड़े रोती रही।
कई दिन गुज़र गए। माधवी पुतुल को पूरे वक़्त उदास और खिन्न देखकर बहुत परेशान रहती थी। बात यह थी कि माधवी से भी ज़्यादा पुतुल के ही सहारे इस मकान की ईंट टिकी हुई थीं और अब वही पुतुल आने-जाने वालों की तरफ़ से उदासीन हो रही थी। माधवी को यह बात बुरी लगती थी और उसने एक-दो बार पुतुल को समझाने की भी कोशिश की, लेकिन पुतुल को तो जैसे माधवी की शक्ल से चिढ़ हो गई थी। हर बार जब माधवी उससे कुछ कहने की कोशिश करती, तब दोनों में अच्छी-ख़ासी जंग हो जाती। यहाँ तक कि एक रोज़ माधवी ने बड़े कुत्सित ढंग से कहा—‘हाँ-हाँ, बहुत देखे हैं मैंने तुम्हारे इंदु बाबू जैसे अनेक देखेचि, नपुसंक, बड़ा गेयान (ज्ञान) देने चला है...ढोंगी!’
इसके जवाब में पुतुल ने ऐसी भयानक आँखों से माधवी को देखा कि वह एक बार डर गई। पुतुल ने दाँत पीस कर कहा—‘चुप, माधवी!’
माधवी को पुतुल का स्वर साँप की फुफकार-जैसा सुन पड़ा।
माधवी का दिल भी कोई कड़वी, ज़हरीले काँटे की तरह चुभने वाली बात कहने के लिए तिलमिला रहा था। उसने बड़े सादे अंदाज़ में, लेकिन अपनी बात में ज़हर भर कर कहा—‘अच्छा, तो अब आप सती सावित्री बनेंगी और आपके सत्यवान?...ओहि उनि...वह...ज़रूर ज़रूर...और बुरा भी क्या है!’ और ही-ही करके हँसी। उस हँसी से पुतुल के रोंगटे खड़े हो गए और वह रो पड़ी। माधवी ने एकदम मर्म पर तीर मारा था। पुतुल रोती-रोती ही भाग कर अपनी कोठरी में गई और उसे अंदर से बंद कर अपने बिस्तर पर औंधे ही गिर पड़ी, और वैसे ही पड़ी न जाने कब तक उस मैली चादर को भिगोती रही। माधवी ने विद्रूप से जिस ‘उनि’ शब्द का प्रयोग इंदु बाबू के लिए किया था, वही ‘उनि’ असंख्य आकाश जुगनुओं की तरह उसके मन के आकाश में उड़ रहा था, जल रहा था और बुझ रहा था और मन को अच्छा लग रहा था पर उससे रोशनी बिलकुल नहीं हो रही थी, उतनी भी नहीं, जितनी की ताक में रखी हुई शीशे वाली ढिबरी से, जिसे इंदु ने पटक कर फोड़ दिया था और जिसे सबेरा होते ही माधवी ने फिर मँगाकर रख दिया था। निराशा की उस काली घटा में जब जुगनू चमकते थे, तो जुही के फूलों की तरह सुंदर दीख पड़ते थे, लेकिन फिर अँधेरा और भी घना हो जाता था। पुतुल ने उठकर ढिबरी को भी बुझा दिया और फिर पड़ रही। वह जितना ही इसके बारे में सोचती थी, उतना ही उसे अपनी ज़िंदगी एक दलदल के मानिंद नज़र आती थी। सन् तैंतालिस के उस बड़े अकाल के बाद उसके माँ-बाप, दोनों नहीं रहे थे और रिश्ते के इन मामा ने आगे आकर उसकी सरपरस्ती इख़्तियार की थी, तभी से वह दलदल शुरू हुआ था और इस ढाई साल में लगातार गहरा ही होता गया था और अब? अब क्या?...अब कुछ नहीं हो सकता...और अनजान में ही एक सर्द आह उसके मुँह से निकल गई।
‘मेरे ज़ोर लगाने से क्या होगा?...मैं ज़ोर लगा भी सकूँगी–कहाँ है मेरे पास ज़ोर?...नहीं, नहीं, नहीं, कुछ नहीं है। यह घर ही भुतहा है, ख़ून चूस लेता है, मेरा कुछ नहीं हो सकता, मुझमें अब कुछ नहीं रहा। मुझे अब कोई कुएँ से नहीं निकाल सकता...’ यह ख़याल आते ही उसे इंदु पर बेहद ग़ुस्सा आया जिसने उसके अंदर यह ज़हर का बीज बो कर उसके मन की शांति भी छीन ली थी। उसके आने के पहले, ज़िंदगी जैसी भी थी, बग़ैर किसी बखेड़े के चल तो रही थी। अब न तो उसे अपने छुटकारे का ही कोई रास्ता दिखाई देता था न ही माधवी की तरह इस घटना को अपने ऊपर से वैसे झाड़ ही पाती थी कि जैसे बतख अपने पंखों पर से पानी को झाड़ देती है। दो रोज़ उसने परिस्थिति से पूरा असहयोग किया, लेकिन फिर घर के वातावरण ने, घर की असली, कुआँ खोद और पानी पी वाली हालत ने, ख़ुद उसके ढाई साल के जीवन के दैनन्दिनी अभ्यास ने, जो कि ख़ून का हिस्सा बन जाता है, उसके ऊपर जीत पाई और वह फिर धीरे-धीरे अपनी पुरानी ज़िंदगी पर लौट आई। उसके अंदर कुछ कड़ियाँ टूटी ज़रूर थीं लेकिन नतीजे पर तत्काल उनका कुछ ख़ास असर नहीं था। पुतुल के मन पर यह चीज़ साँप की तरह कुँडली मारकर बैठ गई थी कि वह दलदल में फँस चुकी है और अब उससे बाहर आने के लिए जितना ही हाथ-पैर मारेगी उतना ही उसके भीतर और समा जाएगी। ज़ाहिरा वह माधवी से पूरे पेचोताब से लड़ रही थी लेकिन असलियत में वह अंदर-ही-अंदर उसके आगे हथियार डालती जा रही थी।
पुतुल के पास से लौट कर उस रात इंदु को भी बड़ी देर तक नींद नहीं आई। रह-रह कर उसे पेट में दर्द मालूम हो रहा था, एक अजीब तक़लीफ़ थी, जिसमें ग़ुस्सा और पछतावा दोनों मिला हुआ था। उस वक़्त उसे बेपनाह ग़ुस्सा आ गया था सही, लेकिन अब तो ज्वार उतर गया था और अब उसे ख़याल सता रहा था कि मुझे लड़की के साथ ऐसा क्रूर नहीं होना चाहिए था।...तुम्हें क्या मालूम कि कौन आदमी किस मजबूरी का शिकार है, बड़े पारसा बनने चले हो! सब को अच्छा खाने को मिले और अच्छी तरह रहने को मिले और मन-मुवाफ़िक़ कपड़े पहनने को मिलें तो सब ऐसे ही पारसा हो सकते हैं...मगर इसके बाद भी शरीर बेचना उसके नज़दीक एक ऐसा गंदा काम था कि इसके लिए वह पुतुल को, या माधवी को, या बंगाली बाबू को माफ़ नहीं कर सकता था। और वह बड़ी कोशिश करने पर भी कोई दो बजे तक नहीं सो पाया। उसके मन ने जो एक मूर्ति अपनी गढ़नी शुरू ही की थी उसे हक़ीक़त के पहले ही बेदर्द हथौड़े ने तोड़कर ज़मीन पर, उसके पैरों के पास डाल दिया था। एक हल्की-सी गुदगुदी जो थी, उसे किसी ने चाकू मार दिया था। एक कली जो सिर्फ़ कली थी जिसमें अभी गंध न थी उसे किसी ने चुटकी में लेकर मसल दिया था। इंदु को रह-रह कर लगता कि उसे साँस लेने में तकलीफ़ हो रही है।
उस दिन से इंदु ने उधर से निकलना ही छोड़ दिया। उसने अब अपना एक दूसरा ही रास्ता बना लिया था, जो कुछ लंबा ज़रूर पड़ता था लेकिन इंदु को पसंद था, अगर और किसी कारण से नहीं तो सिर्फ़ इसलिए कि उस पर बंगाली बाबू का घर नहीं पड़ता था और इस बात का डर नहीं था कि पुतुल सामने पड़ जाएगी या पुकार लेगी या बेनीमाधव बाबू भटकते हुए सामने आकर खड़े हो जाएँगे और बड़ी सादगी से बोल पड़ेंगे—‘शे दिन आप आया था, हम बाड़ी में नहीं था।’
धीरे-धीरे उस रात वाली घटना को महीने भर से ऊपर हो गया और इस बीच इंदु के दिल का घाव भी अब वैसा हरा न रहा और क्षोभ तो बिलकुल ही मिट गया। उन लोगों के लिए इंदु के मन में अब केवल करुणा थी। लेकिन फिर उनके सामने जाने का साहस उसके अंदर न था।
रात के आठ बजे होंगे। वह अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। किसी ने दरवाज़े पर हल्के से, जैसे डरते-डरते, दस्तक दी। इंदु ने दरवाज़ा खोला। पुतुल सामने खड़ी थी। पुतुल! इंदु ठिठक गया। वह पुतुल की निगाहों से अपने आप को ऐसे बचा रहा था जैसे कोई अपने किसी जख़्म को रगड़ लगने से बचाए।
पुतुल ने मुस्कुराकर कहा—‘नमस्कार इंदु बाबू!’
इंदु ने उसके नमस्कार का उत्तर देते हुए देखा कि आज पुतुल की मुस्कुराहट में एक नया ही, कुछ कातर-सा, भाव है। विद्रूप की तो बात ही अलग है, उसमें चपलता भी नहीं है।
पुतुल ने कहा—‘इंदु बाबू मैं आप से माफ़ी माँगने आई हूँ।’
इंदु ने कहा—‘माफ़ी?...मुझसे?...किस बात की?’
पुतुल ने कुछ काँपते हुए स्वर में कहा—‘नहीं इंदु बाबू ऐसा न कहिए मैंने ख़ूब सोचा है, आप ने ठीक किया था।’
इंदु ने कहा—‘उस बात को मत छेड़ो मैं स्वयं...’
पुतुल ने बात काटते हुए कहा—‘कैसे नहीं इंदु बाबू? मैं कैसे भूल जाऊँ!’
फिर तीन-चार मिनट तक कोई कुछ नहीं बोला। वह पुतुल ने ही उस मौन को तोड़ा—‘आप मुझे एक भीख देंगे इंदु बाबू?’
इंदु की समझ में कुछ नहीं आया। वह एक ओर को नज़र फेरे चुपचाप बैठा रहा। अपनी जगह पर उसे डर भी लग रहा था कि घरवाले अगर कहीं देख लेंगे तो क्या कहेंगे! तभी उसके कान में पुतुल के शब्द पड़े—‘आप मेरी हाशी को बचा लीजिए। मेरी हाशी को बचा लीजिए इंदु बाबू, आप ही उसे बचा सकते हैं? वह अभी बच्ची है, अभी उस पर पाप की छाया नहीं पड़ी है, उसे नरक-कुंड से निकाल लीजिए इंदु बाबू!...’ पुतुल ऐसी जल्दी-जल्दी बोल रही थी कि जैसे कोई बीच में उसका गला घोंट देगा।
बात ख़त्म करते-करते पुतुल की आँखों में झर-झर झर-झर आँसू बहने लगे।
इंदु का मन भी आर्द्र हो आया और एक बार बड़े ज़ोर से उसका जी हुआ कि आगे बढ़ कर, पुतुल को अपनी बाँहों में लेकर उसके बकुल, सुगंधित बालों में हाथ फेरे और पुचकारकर कहे—चुप-चुप, रोते नहीं पगली? लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे?...लो...यह पानी लो मेरे हाथ से, और मुँह धो डालो। घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा। हाशी जैसे तेरी बहन वैसे मेरी बहन।
ये सारे शब्द उसके अंतस् में बने और वह पुतुल की ओर एक डग बढ़ा भी, मगर रुक गया। झाड़ियाँ, चट्टाने, संस्कार...इंदु का मुँह न खुला...
उस क्षण पुतुल का रोम-रोम सहारा माँग रहा था। मगर हाय वह सहारा न आया न आया न आया। उन दो-चार क्षणों में पंचांग ने न जाने कितनी शताब्दियाँ पलट डालीं और आख़िरकार पुतुल रोते-रोते ही दरवाज़े की ओर मुड़ी और बुझती हुई दीपशिखा की तरह भभक कर बोली—‘जाने दीजिए इंदु बाबू! भूल जाइए कि मैं कभी आई थी।’
इंदु सिर झुकाए खड़ा रहा और पुतुल जिस अँधेरे से आई थी, फिर उसी अँधेरे में लौट गई।
इन दस बरसों में मेरी ज़िंदगी ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं, मगर आज भी पुतुल मेरे दिल में रह-रह कर चिलक उठती है क्योंकि (आज आपको बतलाता हूँ) वह कमज़ोर, नपुंसक इंदु मैं ही हूँ।
sabere ka waqt hai ganga snan ke premi akele aur dukele chaar chaar chh chh ke guchchhon mein ganga tat se lautkar dashashwamedh ke tarkariwalon aur mewafroshon se ulajh rahe hain, mol tol kar rahe hain dokanen sab dulahinon ki tarah saji baji khaDi hain kahin chaywala chay ke shauqinon ko gaDhe katthai rang ki chay pila raha hai, kahin panwala chandi ka waraq laga biDa aur khushbudar zarda kisi gerahak ko pakDa raha hai ek jagah bangla akhbaronwala ‘yugantar’ aur ‘anandbazar’ ki hank laga raha hai sab ke chehre par, sab ke kapDon mein, sab ki boli mein ajab ek tazgi hai sunahli dhoop phail gari hai, jo is basanti mausam mein ek khas rang bhar rahi hai, jo ki tanturusti ka rang hai, jiske si en De ka angrezi dawakhana aur Dheron ayurwed aushadhalay is samay indubhushan ko achchhe nahin malum paDte lekin thoDa hi tham kar wichar karne par indubhushan ko ye samajhte der nahin lagti ki is waqt fi ki jo rangat use dikhai de rahi hai, wo har waqt nahin rahti, wo to ghante do ghante ki bahar hai, aur uske baad to phir jahan zindagi ki aur sabhi khatar patar hai, wahan hari bimari bhi hai hi
indubhushan ko baghal se ek awaz sunai di—kahiye mahashay jee!
indubhushan ko iska zara bhi guman nahin tha ki ye waky usi par phenka gaya hai, lihaza wo apne wicharon ke prawah mein apni usi dhimi chaal se aage, ghat ki or baDhta raha
indubhushan ko apni or mukhatib na hote dekhkar wo kafi gathi hui si, magar ab jhuli jhuli manspeshiyon ka, adheD, thigna sa, gundmi rang ka adami ek hath mein kuch sag aur baigan waghairah, ek chhote jhole mein, aur dusre hath mein ek DeDh panw aadh ser ka rohu ka bachcha liye samne aa khaDa hua—boliye na, kaisa hai aap? hum aapko awaz diya, aap suna nahin!
indubhushan ne use pahchana nahin us wekti ki huliya se, khaskar uski bain ankh ki phulli se, indrbhushan ko ye chehra kuch pahchana hua sa to laga, bus itna ki han, ye shakl kahin dekhi hai magar kab aur kahan, ye bilkul yaad nahin paDta tha isi wismriti ki rekha ko paDh kar us wekti ne indubhushan ke kuch bhi kahne ke pahle, kuch muskurakar apni jhenp mitate hue kaha—ap hamko pahchana nahin, hum aapka paDosi, aapka tola mein hamara bhi baDi
ab indubhushan ko ek ek karke sabhi baten yaad aa gain—abhi us roz yahi bangali babu to us chhor par wale makan mein aaye hain, abhi sat din bhi to hue na honge, ye aur inki teen laDkiyan
—yaad aa gaya bangali babu zara der lagi, maf kijiyega, pahle kabhi bhent nahin hui thi, isi se kahiye, ghar mein achchhi tarah jam to gaye aap? ghar achchha hai n? bahar se to achchha lagta hai
—aik raqam bhalo baDi hum log ka pariwar bharum nehin hay
—apke sath bus apaki teen kanyayen hain shayad?
uttar mein us wekti ne ajib Dhang se muskura diya aur apne aghal baghal dekh kar kaha—han mashai, aur koi nahin, dusra nahin mashai, aapka nam?
—indubhushan aur apka?
—benimadhaw bos
—phir zara der ke baad bangali babu bole—ham socha, aap hamara paDosi, aapse hamara alap nehin hone se nehin chalega aap bura to nehin man giya?
dubla patla gora sa indu abhi tarunai ki us manzil mein hai, jab har naujawan ke dil mein kisi tarunai ke nikat parichai ki bhookh rahti hai, jab use aise kisi sathi ki zarurat hoti hai, jiske sath wo apni nai umr ki us ajib, tang karne wali kasamsahat ko bant sake shayad isiliye benimadhaw se mil kar use man hi man kuch gudgudi si mahsus hui aate jate usne do teen bar un laDkiyon ko khiDki mein khaDe dekha tha
itwar ka din tha, sabere ka waqt wo ghar ke samne sahn mein Dek chair Dal kar leta ek kahani ki kitab paDh raha tha
abhi abhi usne ek kahani khatm ki thi aur kitab band karke waise hi leta suni nigahon se samne ki or dekh raha tha kahani ki nayika ne sankhiya khakar atmghat kar liya tha aur uski ankh ke samne usi ka udas murjhaya hua chehra ghoom raha tha, aur kan mein usi ke akhiri shabd baj rahe the—main ji nahin saki, isliye mar rahi hoon
indu ka naujawan man is baat ko samajh hi nahin pa raha tha us laDki ne sankhiya kyon khai? sankhiya khana hi kya uske liye antim rah bachi thee? kyon mari wah? usne kyon nahin kaha—main aise samaj ko lat marti hoon sahas? sankhiya khane ka sahas tha?
uska man nayika ke atmghat par wiphal akrosh se bhar raha tha, wiphal akrosh isliye ki khu uske man mein ye kahin par ye chor tha ki samaj ko lat marne ki baat kahna kitna asan hai, lat marana utna asan nahin hai
abhi wo isi kashmakash mein tha ki benimadhaw babu phatak mein dakhil hue, wo dhoti, aur maili si, puri banh ki qamiz pahne, jo kabhi safed rahi hogi kisi nae ghar mein pahle pahal dakhil hote samay jo jhijhak adami ko hoti hai, wahi jhijhak benimadhaw babu ko bhi ho rahi thi phatak kholkar wo andar dakhil hue the aur aage baDhne ke pahle apne ird gird chaukanne kharhe ki tarah dekh rahe the, ki indubhushan ne uthkar unka swagat kiya—aiye bangali babu, aaj idhar kaise bhool paDe?
bangali babu ne wahin se kaha—dhanyawad dhanyawad aap theek to hai?
indu ka swasth taza chehra benimadhaw babu ke is nire shishtachar wale sawal ka sabse achchha jawab tha unhen kursi dete hue indu ne kaha—ji main bilkul theek hoon, aap albatta kuch kamzor dikhai de rahe hain
benimadhaw babu ne kaha—apni t janen indu babu, aap to janta hamara zindagi
jo baat hamari sahanubhuti ubharne ke liye hi kahi gari ho, use sunkar sahanubhuti ke do shabd na kahna mushkil hota hai indu ne kaha—sachmuch baDi kathin zindagi hai apaki apaki baDi laDki ki umr kya hogi bangali babu? benimadhaw is sawal ka ashay kuch khas nahin samjhe, lekin itna zarur unke man mein kaundhe ki tarah chamak gaya ki is adami se atmiyata baDhane ke liye is mauqe ka istemal hona chahiye
benimadhaw babu ne aghal baghal dekhkar dabe hue swar mein kaha, jaise koi gopaniy baat kah rahe hon—jis laDki ki baat aap kah raha hai indu babu uska umir bees sal hai uska nam madhawi hai usse chhota jo laDki hai, uska nam putul hai uska umir atharah sal hai, aur hashi wo to abhi bachcha hai—kahkar wo jhenp mitane jaisi hansi hansa, ek wichitr khokhli hansi
indu ko itne tafsili jawab ki ummid na thi wo to yoon hi usne sahanubhutiwash poochh liya tha, ye samajhkar ki shayad sayani laDki ki shadi ki chinta mein bangali babu ghule ja rahe hain aur bangali babu the ki wansh wriksh hi kholkar baith gaye indu ko us cheez se kuch ulhan hui magar usne kuch kaha nahin thoDi der chup baitha unhen dekhta raha, phir bola—achchha bangali babu, ab aagya dijiye, mujhe ek jagah jana hai
aur kursi pichhe ko sarkai
indu ko uthta dekhkar ab bangali babu ko uljhan hui abhi to baat ka silsila theek se jam bhi nahin paya aur ye adami uthkar chala ja raha hai ! kaam ki baat abhi hui hi nahin aur jaise shabd machhli ke kante ki tarah gale mein phans rahe hon unke munh tak aa aa kar ruk jati thi apni laDkiyon ki charcha nikalne mein bhi unka maqsad yahi tha ki ye jo machhli ka kanta unke gale mein phans raha tha, use pani ke sahare niche utar den itne mein hi indu kursi se uth gaya uski dekhadekhi bangali babu bhi kursi se uth to gaye magar indu ki nazar bachate hue dusri hi kisi taraf dekhte khaDe rahe indu samajh gaya ki bangali babu mujhse kuch kahna chahte hain jo kah nahin pa rahe hain
indu ne unhen sahara dene ki garaz se kaha—mere yogya aur koi sewa, bangali babu?
Dubte ko tinke ka sahara mila kabhi kabhi baat ko baghair ghumaye phiraye sidhe sadhe kah dena hi kul milakar asan paDta hai, kuch yahi sochkar bangali babu ne aghal baghal dekhkar kuch sahme se swar mein kaha—ap hamko das rupiya dene sakega? aapke rupaya hum ek saptah kinwa panero mein din mein pherot de dega, aaj hamara bhishan tagid
indu ne kuch kaha nahin, andar se das rupae ka ek not lakar bangali babu ke hath mein de diya aur namaste karke fauran andar chala gaya usko is khayal se hi ghutan hoti thi ki ye adami jo garaz ka mara mere pas aaya hai, is das rupitti ko pakar mere samne khees niporega!
lekin andar jakar indu tatkal phir bahar aaya wo chalte chalte bangali babu se kahna chahta tha ki we apni laDkiyon ko is baat ke liye rok den ki khiDki mein bahut na khaDi raha karen kyonki shahron mein to, phir aap jante hi hain
uske bahar aane aane tak benimadhaw babu phatak ke bahar ho chuke the usne unhen pukarna theek nahin samjha socha, phir kabhi kah dunga
kai din beet gaye godhuli ka samay tha indu kalej se laut raha tha aaj use library mein bahut der lag gai thi
uska ghar pakki, Damar ki saDak se koi DeDh sau gaz bhitar ko hatkar hai jahan Damar ki saDak chhoDkar ubaD khabaD kachche raste mein dakhil hote hain theek wahin benimadhaw wala pila makan hai
putul darwaze par hi khaDi thi putul ne use awaz di–indu babu!
indu kuch jhijhakte hue uske pas gaya putul ne halke se muskurakar kaha—indu babu, aap kabhi hamare ghar nahin aate!
indu ne apne man mein kaha, lagta hai bangali babu ne mera pura parichai apne gharwalon ko de diya hai ye baat use achchhi bhi lagi
indu ne kaha—ji, mauqe ki baat hoti hai waise main aane ki kai din se soch raha tha aur muskuraya
indu ki muskurahat se putul ke dil mein ek dhakka sa laga
boli—aiye
indu ne kaha—abhi nahin ghar par log baat dekh rahe honge ho saka to ek DeDh ghante baad aunga
putul ne usi andaz se kaha—zarur aiyega aur phir muskrai indu wahan se chala to uske pair halke paD rahe the
ghar mein dakhil hote hi ek chhota sa sayaban tha, jo bilkul andhera paDa tha usmen ek tuthi kursi ek kone mein paDi thi wahan benimadhaw babu ko na pakar indu ko aur aage baDhne mein jhijhak malum hui sayaban ke baad hi ek bahut sila hua sa angan tha, jismen ek andhi si lalten ek taraf ko rakhi hui thi, jismen lal lal roshni nikal rahi thi lohe ka ek jangala angan ki chhat thi ek algani par teen chaar kapDe sookh rahe the, ek lal pat ki saDi, do petikot, do teen bauDis indu ki himmat aur aage baDhne ki nahin hui usne angan mein pair rakhte hi awaz deeh bangali babu hain?
madhawi niche hi thi indu ki awaz suni boli—aiye indu babu!
indu ne puchha—benimadhaw babu nahin hain?
madhawi ne kaha—kahin gaye hain abhi laut ayenge aap upar chaliye aur putul ko awaz di—putul, tomar indu babu esechen
angan ki batachit sunkar putul khu hi niche aa rahi thi
boli—chaliye indu babu indu ne muskurahat se uska jawab diya phir kaha—achchha, main phir kisi roz aunga aur chalne ko hua lekin putul ne aage baDhkar uska hath pakaD liya aur use apni taraf khinchte hue boli—ap upar chaliye na indu babu, baba aate honge
indu ke pair ab bhi aage nahin baDhe putul ne ruthne ke andaz mein honth nikalte hue kaha—ap itna Darte kyon hain indu babu! aap to purush manush hay aur hum to laDki aap kyon Darta?
aur ek prakar se khinchte hue upar le chali bai baghal se hi zina tha, sankra sa upar jakar indu ne dekha ki aghal baghal do kothriyan hain donon mein ek ek khat paDi hai aur donon mein ek ek Dhibri jal rahi hai putul ne kothari mein dakhil hote hi chatpat bistar ki chadar ki shal door ki aur indu ki or takte hue kaha—aiye na indu babu hiyan Darne ka koi baat nahin hai aap hiyan baithiye, baba abhi ayega thoDa opekkha karne hoga
indu ka man bar bar ho raha tha ki utar kar bhag jaye, lekin pair jaise bandh se gaye the jakar putul ke bistar par baith gaya uska dil zoron se dhaDak raha tha putul ne Dhibri stool par se hata kar taq par rakh di aur stool wahin pas hi khinchkar baith gai ek DeDh minat tak poorn nistabdhata rahi phir use bhang kiya putul ne—indu babu, aap bahut bure hain aur muskurai indu ka dil zor se dhaDakne laga usne koi jawab nahin diya aur waise hi, sikuDa–simta baitha raha aur phir chand lamhon ke liye khamoshi chha gai
—apka byah hua hai indu babu?
—is betuke sawal ka sandarbh uski samajh mein nahin aaya, lekin iska jawab asan tha, shayad isi khayal se usne kaha—nahin
putul ne uske jawab mein kaha— aur muskurai
indu ne apne man mein kaha—zara ise dekho to kaise kar rahi hai! mujhe nira mitti ka londa samajh liya hai isne kya! kaisi ajib laDki hai! aur ek bar bahut zor se uska ji hua ki is laDki ko, jo abhi itni jawan hai aur jo sirf use satane ke liye uski baghal mein baithkar is tarah muskura rahi hai, utha kar isi bistare par patak de aur aur use kisi jagah par aisa habokkar kat le ki khoon nikal aaye, magar usne zabt kiya ab tak sari paristhiti kuch kuch uski pakaD mein aane lagi thi aur ek ajib khinnata uske man mein bhar rahi thi
isi tarah koi das minat guzar gaye tab tak baghal ki kothari se kisi purush ki bhanak indu ke kan mein paDi usne putul se kaha—dekhiye, benimadhaw babu shayad aa gaye
putul ne is bar ek bhinn prakar ki hansi ke sath kaha—nahin indu babu, wo to madhawi ka dost hai—nalin
ekayek indu bistar se uth khaDa hua putul bhi uth khaDi hui uske chehre par na jane kaisi ghabrahat likhi hui thi
—jaiyega? chale jaiyega? abhi se kyon? aap baba ko das taka diya tha n? nahin nahin nahin, putul ne mana karne ke andaz mein kaha aur apne jalte hue honth indu ke honth par rakh diye
ye sab aisa bijli ki tarah hua ki indu ekdam baukhla gaya, magar to bhi use laga ki jaise kisi ne uske hothon par angara rakh diya ho ghusse se unki ankhen lal ho gain aur nathne phaDakne lage usne jhatka dekar putul ko alag kiya aur mazbut hathon se uske kandhon ko pakaD kar puri taqat se unhen jhakjhorte hue bhari karakht awaz mein chillakar kaha—han diye the diye the isi ke liye diye the! tum use chukta karogi tum use chukta karogi tum use chukta karogi kahte hue usne zor se use dhakka diya aur putul jakar sidhi khat ki pati par giri indu ne Dhibri lekar zamin par patak di aur kothari ke kiwaDon ko jhapate se band karta hua tezi se kamre ke bahar ho gaya
jhapate se darwaze ka band hona sunkar madhawi apni kothari se nikalkar i indu chala ja raha tha aur putul pati se lagi–lagi sisak rahi thi uske sharir ko bhi chot lagi thi, lekin usse kahin ziyada aur asal chot lagi thi uske man ko aur wo chot sirf itni nahin thi ki indu ne uska apman kiya hai madhawi ne putul ka hath pakaD kar uthane ki koshish karte hue kaha—pagal ho gai hai putul? wo chala gaya janwar! ujaDDu ganwar!
putul ko madhawi ke sanwedana ke ye shabd zahr jaise lage usne ankhen utha kar ek minat, aplak dekha aur adesh ke swar mein kaha—didi tum yahan se chali jao
madhawi ne putul ki roti hui magar kathor ankhen dekhin aur zara der ko thithak gai phir kaha—kaisa ajib pagalpan hai ! aur indu ke liye ek baDe kutsit shabd ka prayog kiya
putul ki ankhon mein san par chaDhi hui katar ki si chamak i aur use nagin ki tarah phuphkarkar, kinchit chaDhe hue swar mein kaha—didi tum isi waqt bahar chali jao!
madhawi ‘zara is bachpan ko to dekho, hunh’ baDbaDati hui bahar nikal gai aur putul waise hi pati pakDe roti rahi
kai din guzar gaye madhawi putul ko pure waqt udas aur khinn dekhkar bahut pareshan rahti thi baat ye thi ki madhawi se bhi ziyada putul ke hi sahare is makan ki int tiki hui theen aur ab wahi putul aane jane walon ki taraf se udasin ho rahi thi madhawi ko ye baat buri lagti thi aur usne ek do bar putul ko samjhane ki bhi koshish ki, lekin putul ko to jaise madhawi ki shakl se chiDh ho gai thi har bar jab madhawi usse kuch kahne ki koshish karti, tab donon mein achchhi khasi jang ho jati yahan tak ki ek roz madhawi ne baDe kutsit Dhang se kaha—han han, bahut dekhe hain mainne tumhare indu babu jaise anek dekhechi, napusank, baDa geyan (gyan) dene chala hai Dhongi!
iske jawab mein putul ne aisi bhayanak ankhon se madhawi ko dekha ki wo ek bar Dar gai putul ne dant pees kar kaha—chup, madhawi!
madhawi ko putul ka swar sanp ki phuphkar jaisa sun paDa
madhawi ka dil bhi koi kaDwi, zahrile kante ki tarah chubhnewali baat kahne ke liye tilmila raha tha usne baDe sade andaz mein, lekin apni baat mein zahr bhar kar kaha—achchha, to ab aap sati sawitri banengi aur aapke satyawan? ohi uni wo zarur zarur aur bura bhi kya hai! aur hi hi karke hansi us hansi se putul ke rongte khaDe ho gaye aur wo ro paDi madhawi ne ekdam marm par teer mara tha putul roti roti hi bhag kar apni kothari mein gai aur use andar se band kar apne bistar par aundhe hi gir paDi, aur waise hi paDi na jane kab tak us maili chadar ko bhigoti rahi madhawi ne widrup se jis ‘uni’ shabd ka prayog indu babu ke liye kiya tha, wahi ‘uni’ asankhy akash jugnuon ki tarah uske man ke akash mein uD raha tha, jal raha tha aur bujh raha tha aur man ko achchha lag raha tha par usse raushani bilkul nahin ho rahi thi, utni bhi nahin, jitni ki tak mein rakhi hui shishe wali Dhibri se, jise indu ne patak kar phoD diya tha aur jise sabera hote hi madhawi ne phir mangakar rakh diya tha nirasha ki us kali ghata mein jab jugnu chamakte the, to juhi ke phulon ki tarah sundar deekh paDte the, lekin phir andhera aur bhi ghana ho jata tha putul ne uthkar Dhibri ko bhi bujha diya aur phir paD rahi wo jitna hi iske bare mein sochti thi, utna hi use apni zindagi ek daldal ke manind nazar aati thi san taintalis ke us baDe akal ke baad uske man bap, donon nahin rahe the aur rishte ke in mama ne aage aakar uski saraprasti ikhtiyar ki thi, tabhi se wo daldal shuru hua tha aur is Dhai sal mein lagatar gahra hi hota gaya tha aur ab? ab kya? ab kuch nahin ho sakta aur anjan mein hi ek sard aah uske munh se nikal gai
—mere zor lagane se kya hoga? main zor laga bhi sakungi–kahan hai mere pas zor? nahin, nahin, nahin, kuch nahin hai ye ghar hi bhutha hai, khoon choos leta hai, mera kuch nahin ho sakta, mujhmen ab kuch nahin raha mujhe ab koi kuen se nahin nikal sakta ye khayal aate hi use indu par behad ghussa aaya jisne uske andar ye zahr ka beej bo kar uske man ki shanti bhi chheen li thi uske aane ke pahle, zindagi jaisi bhi thi, baghair kisi bakheDe ke chal to rahi thi ab na to use apne chhutkare ka hi koi rasta dikhai deta tha na hi madhawi ki tarah is ghatna ko apne upar se waise jhaD hi pati thi ki jaise batakh apne pankhon par se pani ko jhaD deti hai do roz usne paristhiti se pura asahyog kiya, lekin phir ghar ke watawarn ne, ghar ki asli, kuan khod aur pani pi wali haalat ne, khu uske Dhai sal ke jiwan ke dainandini abhyas ne, jo ki khoon ka hissa ban jata hai, uske upar jeet pai aur wo phir dhire dhire apni purani zindagi par laut i uske andar kuch kaDiyan tuti zarur theen lekin natije par tatkal unka kuch khas asar nahin tha putul ke man par ye cheez sanp ki tarah kunDali markar baith gai thi ki wo daldal mein phans chuki hai aur ab usse bahar aane ke liye jitna hi hath pair maregi utna hi uske bhitar aur sama jayegi zahira wo madhawi se pure pechotab se laD rahi thi lekin asliyat mein wo andar hi andar uske aage hathiyar Dalti ja rahi thi
putul ke pas se laut kar us raat indu ko bhi baDi der tak neend nahin i rah rah kar use pet mein dard malum ho raha tha, ek ajib taqlif thi, jismen ghussa aur pachhtawa donon mila hua tha us waqt use bepanah ghussa aa gaya tha sahi, lekin ab to jwar utar gaya tha aur ab use khayal sata raha tha ki mujhe laDki ke sath aisa kroor nahin hona chahiye tha tumhein kya malum ki kaun adami kis majburi ka shikar hai, baDe parsa banne chale ho! sab ko achchha khane ko mile aur achchhi tarah rahne ko mile aur man muwafi kapDe pahanne ko milen to sab aise hi parsa ho sakte hain magar iske baad bhi sharir bechna uske nazdik ek aisa ganda kaam tha ki iske liye wo putul ko, ya madhawi ko, ya bangali babu ko maf nahin kar sakta tha aur wo baDi koshish karne par bhi koi do baje tak nahin so paya uske man ne jo ek murti apni gaDhni shuru hi ki thi use haqiqat ke pahle hi bedard hathauDe ne toDkar zamin par, uske pairon ke pas Dal diya tha ek halki si gudgudi jo thi, use kisi ne chaku mar diya tha ek kali jo sirf kali thi jismen abhi gandh na thi use kisi ne chutki mein lekar masal diya tha indu ko rah rah kar lagta ki use sans lene mein taklif ho rahi hai
us din se indu ne udhar se nikalna hi chhoD diya usne ab apna ek dusra hi rasta bana liya tha, jo kuch lamba zarur paDta tha lekin indu ko pasand tha, agar aur kisi karan se nahin to sirf isliye ki us par bangali babu ka ghar nahin paDta tha aur is baat ka Dar nahin tha ki putul samne paD jayegi ya pukar legi ya benimadhaw babu bhatakte hue samne aakar khaDe ho jayenge aur baDi sadgi se bol paDenge—she din aap aaya tha, hum baDi mein nahin tha
dhire dhire us raat wali ghatna ko mahine bhar se upar ho gaya aur is beech indu ke dil ka ghaw bhi ab waisa hara na raha aur kshaobh to bilkul hi mit gaya un logon ke liye indu ke man mein ab kewal karuna thi lekin phir unke samne jane ka sahas uske andar na tha
raat ke aath baje honge wo apne kamre mein baitha paDh raha tha kisi ne darwaze par halke se, jaise Darte Darte, dastak di indu ne darwaza khola putul samne khaDi thi putul! indu thithak gaya wo putul ki nigahon se apne aap ko aise bacha raha tha jaise koi apne kisi jakhm ko ragaD lagne se bachaye
putul ne muskurakar kaha—namaskar indu babu!
indu ne uske namaskar ka uttar dete hue dekha ki aaj putul ki muskurahat mein ek naya hi, kuch katar sa, bhaw hai widrup ki to baat hi alag hai, usmen chapalta bhi nahin hai
putul ne kaha—indu babu main aap se mafi mangne i hoon
indu ne kaha—mafi? mujhse? kis baat kee?
putul ne kuch kanpte hue swar mein kaha—nahin indu babu aisa na kahiye mainne khoob socha hai, aap ne theek kiya tha
indu ne kaha—us baat ko mat chheDo main swayan
putul ne baat katte hue kaha—kaise nahin indu babu? main kaise bhool jaun!
phir teen chaar minat tak koi kuch nahin bola wo putul ne hi us maun ko toDa—ap mujhe ek bheekh denge indu babu?
indu ki samajh mein kuch nahin aaya wo ek or ko nazar phere chupchap baitha raha apni jagah par use Dar bhi lag raha tha ki gharwale agar kahin dekh lenge to kya kahenge! tabhi uske kan mein putul ke shabd paDe—ap meri hashi ko bacha lijiye meri hashi ko bacha lijiye indu babu, aap hi use bacha sakte hain? wo abhi bachchi hai, abhi us par pap ki chhaya nahin paDi hai, use narak kunD se nikal lijiye indu babu! putul aisi jaldi jaldi bol rahi thi ki jaise koi beech mein uska gala ghont dega
baat khatm karte karte putul ki ankhon mein jhar jhar jhar jhar ansu bahne lage
indu ka man bhi aardr ho aaya aur ek bar baDe zor se uska ji hua ki aage baDh kar, putul ko apni banhon mein lekar uske bakul, sugandhit balon mein hath phere aur puchkarkar kahe—chupchup, rote nahin pagli? log dekhenge to kya kahenge? lo ye pani lo mere hath se, aur munh dho Dalo ghabrao mat, sab theek ho jayega hashi jaise teri bahan waise meri bahan
ye sare shabd uske antas mein bane aur wo putul ki or ek Dag baDha bhi, magar ruk gaya jhaDiyan, chattane, sanskar indu ka munh na khula
us kshan putul ka rom rom sahara mang raha tha magar hay wo sahara na aaya na aaya na aaya un do chaar kshnon mein panchang ne na jane kitni shatabdiyan palat Dalin aur akhiraka putul rote rote hi darwaze ki or muDi aur bujhti hui dipashikha ki tarah bhabhak kar boli—jane dijiye indu babu! bhool jaiye ki main kabhi i thi
indu sir jhukaye khaDa raha aur putul jis andhere se i thi, phir usi andhere mein laut gai
in das barson mein meri zindagi ne anek utar chaDhaw dekhe hain, magar aaj bhi putul mere dil mein rah rah kar chilak uthti hai kyonki (aj aapko batlata hoon) wo kamzor, napunsak indu main hi hoon
sabere ka waqt hai ganga snan ke premi akele aur dukele chaar chaar chh chh ke guchchhon mein ganga tat se lautkar dashashwamedh ke tarkariwalon aur mewafroshon se ulajh rahe hain, mol tol kar rahe hain dokanen sab dulahinon ki tarah saji baji khaDi hain kahin chaywala chay ke shauqinon ko gaDhe katthai rang ki chay pila raha hai, kahin panwala chandi ka waraq laga biDa aur khushbudar zarda kisi gerahak ko pakDa raha hai ek jagah bangla akhbaronwala ‘yugantar’ aur ‘anandbazar’ ki hank laga raha hai sab ke chehre par, sab ke kapDon mein, sab ki boli mein ajab ek tazgi hai sunahli dhoop phail gari hai, jo is basanti mausam mein ek khas rang bhar rahi hai, jo ki tanturusti ka rang hai, jiske si en De ka angrezi dawakhana aur Dheron ayurwed aushadhalay is samay indubhushan ko achchhe nahin malum paDte lekin thoDa hi tham kar wichar karne par indubhushan ko ye samajhte der nahin lagti ki is waqt fi ki jo rangat use dikhai de rahi hai, wo har waqt nahin rahti, wo to ghante do ghante ki bahar hai, aur uske baad to phir jahan zindagi ki aur sabhi khatar patar hai, wahan hari bimari bhi hai hi
indubhushan ko baghal se ek awaz sunai di—kahiye mahashay jee!
indubhushan ko iska zara bhi guman nahin tha ki ye waky usi par phenka gaya hai, lihaza wo apne wicharon ke prawah mein apni usi dhimi chaal se aage, ghat ki or baDhta raha
indubhushan ko apni or mukhatib na hote dekhkar wo kafi gathi hui si, magar ab jhuli jhuli manspeshiyon ka, adheD, thigna sa, gundmi rang ka adami ek hath mein kuch sag aur baigan waghairah, ek chhote jhole mein, aur dusre hath mein ek DeDh panw aadh ser ka rohu ka bachcha liye samne aa khaDa hua—boliye na, kaisa hai aap? hum aapko awaz diya, aap suna nahin!
indubhushan ne use pahchana nahin us wekti ki huliya se, khaskar uski bain ankh ki phulli se, indrbhushan ko ye chehra kuch pahchana hua sa to laga, bus itna ki han, ye shakl kahin dekhi hai magar kab aur kahan, ye bilkul yaad nahin paDta tha isi wismriti ki rekha ko paDh kar us wekti ne indubhushan ke kuch bhi kahne ke pahle, kuch muskurakar apni jhenp mitate hue kaha—ap hamko pahchana nahin, hum aapka paDosi, aapka tola mein hamara bhi baDi
ab indubhushan ko ek ek karke sabhi baten yaad aa gain—abhi us roz yahi bangali babu to us chhor par wale makan mein aaye hain, abhi sat din bhi to hue na honge, ye aur inki teen laDkiyan
—yaad aa gaya bangali babu zara der lagi, maf kijiyega, pahle kabhi bhent nahin hui thi, isi se kahiye, ghar mein achchhi tarah jam to gaye aap? ghar achchha hai n? bahar se to achchha lagta hai
—aik raqam bhalo baDi hum log ka pariwar bharum nehin hay
—apke sath bus apaki teen kanyayen hain shayad?
uttar mein us wekti ne ajib Dhang se muskura diya aur apne aghal baghal dekh kar kaha—han mashai, aur koi nahin, dusra nahin mashai, aapka nam?
—indubhushan aur apka?
—benimadhaw bos
—phir zara der ke baad bangali babu bole—ham socha, aap hamara paDosi, aapse hamara alap nehin hone se nehin chalega aap bura to nehin man giya?
dubla patla gora sa indu abhi tarunai ki us manzil mein hai, jab har naujawan ke dil mein kisi tarunai ke nikat parichai ki bhookh rahti hai, jab use aise kisi sathi ki zarurat hoti hai, jiske sath wo apni nai umr ki us ajib, tang karne wali kasamsahat ko bant sake shayad isiliye benimadhaw se mil kar use man hi man kuch gudgudi si mahsus hui aate jate usne do teen bar un laDkiyon ko khiDki mein khaDe dekha tha
itwar ka din tha, sabere ka waqt wo ghar ke samne sahn mein Dek chair Dal kar leta ek kahani ki kitab paDh raha tha
abhi abhi usne ek kahani khatm ki thi aur kitab band karke waise hi leta suni nigahon se samne ki or dekh raha tha kahani ki nayika ne sankhiya khakar atmghat kar liya tha aur uski ankh ke samne usi ka udas murjhaya hua chehra ghoom raha tha, aur kan mein usi ke akhiri shabd baj rahe the—main ji nahin saki, isliye mar rahi hoon
indu ka naujawan man is baat ko samajh hi nahin pa raha tha us laDki ne sankhiya kyon khai? sankhiya khana hi kya uske liye antim rah bachi thee? kyon mari wah? usne kyon nahin kaha—main aise samaj ko lat marti hoon sahas? sankhiya khane ka sahas tha?
uska man nayika ke atmghat par wiphal akrosh se bhar raha tha, wiphal akrosh isliye ki khu uske man mein ye kahin par ye chor tha ki samaj ko lat marne ki baat kahna kitna asan hai, lat marana utna asan nahin hai
abhi wo isi kashmakash mein tha ki benimadhaw babu phatak mein dakhil hue, wo dhoti, aur maili si, puri banh ki qamiz pahne, jo kabhi safed rahi hogi kisi nae ghar mein pahle pahal dakhil hote samay jo jhijhak adami ko hoti hai, wahi jhijhak benimadhaw babu ko bhi ho rahi thi phatak kholkar wo andar dakhil hue the aur aage baDhne ke pahle apne ird gird chaukanne kharhe ki tarah dekh rahe the, ki indubhushan ne uthkar unka swagat kiya—aiye bangali babu, aaj idhar kaise bhool paDe?
bangali babu ne wahin se kaha—dhanyawad dhanyawad aap theek to hai?
indu ka swasth taza chehra benimadhaw babu ke is nire shishtachar wale sawal ka sabse achchha jawab tha unhen kursi dete hue indu ne kaha—ji main bilkul theek hoon, aap albatta kuch kamzor dikhai de rahe hain
benimadhaw babu ne kaha—apni t janen indu babu, aap to janta hamara zindagi
jo baat hamari sahanubhuti ubharne ke liye hi kahi gari ho, use sunkar sahanubhuti ke do shabd na kahna mushkil hota hai indu ne kaha—sachmuch baDi kathin zindagi hai apaki apaki baDi laDki ki umr kya hogi bangali babu? benimadhaw is sawal ka ashay kuch khas nahin samjhe, lekin itna zarur unke man mein kaundhe ki tarah chamak gaya ki is adami se atmiyata baDhane ke liye is mauqe ka istemal hona chahiye
benimadhaw babu ne aghal baghal dekhkar dabe hue swar mein kaha, jaise koi gopaniy baat kah rahe hon—jis laDki ki baat aap kah raha hai indu babu uska umir bees sal hai uska nam madhawi hai usse chhota jo laDki hai, uska nam putul hai uska umir atharah sal hai, aur hashi wo to abhi bachcha hai—kahkar wo jhenp mitane jaisi hansi hansa, ek wichitr khokhli hansi
indu ko itne tafsili jawab ki ummid na thi wo to yoon hi usne sahanubhutiwash poochh liya tha, ye samajhkar ki shayad sayani laDki ki shadi ki chinta mein bangali babu ghule ja rahe hain aur bangali babu the ki wansh wriksh hi kholkar baith gaye indu ko us cheez se kuch ulhan hui magar usne kuch kaha nahin thoDi der chup baitha unhen dekhta raha, phir bola—achchha bangali babu, ab aagya dijiye, mujhe ek jagah jana hai
aur kursi pichhe ko sarkai
indu ko uthta dekhkar ab bangali babu ko uljhan hui abhi to baat ka silsila theek se jam bhi nahin paya aur ye adami uthkar chala ja raha hai ! kaam ki baat abhi hui hi nahin aur jaise shabd machhli ke kante ki tarah gale mein phans rahe hon unke munh tak aa aa kar ruk jati thi apni laDkiyon ki charcha nikalne mein bhi unka maqsad yahi tha ki ye jo machhli ka kanta unke gale mein phans raha tha, use pani ke sahare niche utar den itne mein hi indu kursi se uth gaya uski dekhadekhi bangali babu bhi kursi se uth to gaye magar indu ki nazar bachate hue dusri hi kisi taraf dekhte khaDe rahe indu samajh gaya ki bangali babu mujhse kuch kahna chahte hain jo kah nahin pa rahe hain
indu ne unhen sahara dene ki garaz se kaha—mere yogya aur koi sewa, bangali babu?
Dubte ko tinke ka sahara mila kabhi kabhi baat ko baghair ghumaye phiraye sidhe sadhe kah dena hi kul milakar asan paDta hai, kuch yahi sochkar bangali babu ne aghal baghal dekhkar kuch sahme se swar mein kaha—ap hamko das rupiya dene sakega? aapke rupaya hum ek saptah kinwa panero mein din mein pherot de dega, aaj hamara bhishan tagid
indu ne kuch kaha nahin, andar se das rupae ka ek not lakar bangali babu ke hath mein de diya aur namaste karke fauran andar chala gaya usko is khayal se hi ghutan hoti thi ki ye adami jo garaz ka mara mere pas aaya hai, is das rupitti ko pakar mere samne khees niporega!
lekin andar jakar indu tatkal phir bahar aaya wo chalte chalte bangali babu se kahna chahta tha ki we apni laDkiyon ko is baat ke liye rok den ki khiDki mein bahut na khaDi raha karen kyonki shahron mein to, phir aap jante hi hain
uske bahar aane aane tak benimadhaw babu phatak ke bahar ho chuke the usne unhen pukarna theek nahin samjha socha, phir kabhi kah dunga
kai din beet gaye godhuli ka samay tha indu kalej se laut raha tha aaj use library mein bahut der lag gai thi
uska ghar pakki, Damar ki saDak se koi DeDh sau gaz bhitar ko hatkar hai jahan Damar ki saDak chhoDkar ubaD khabaD kachche raste mein dakhil hote hain theek wahin benimadhaw wala pila makan hai
putul darwaze par hi khaDi thi putul ne use awaz di–indu babu!
indu kuch jhijhakte hue uske pas gaya putul ne halke se muskurakar kaha—indu babu, aap kabhi hamare ghar nahin aate!
indu ne apne man mein kaha, lagta hai bangali babu ne mera pura parichai apne gharwalon ko de diya hai ye baat use achchhi bhi lagi
indu ne kaha—ji, mauqe ki baat hoti hai waise main aane ki kai din se soch raha tha aur muskuraya
indu ki muskurahat se putul ke dil mein ek dhakka sa laga
boli—aiye
indu ne kaha—abhi nahin ghar par log baat dekh rahe honge ho saka to ek DeDh ghante baad aunga
putul ne usi andaz se kaha—zarur aiyega aur phir muskrai indu wahan se chala to uske pair halke paD rahe the
ghar mein dakhil hote hi ek chhota sa sayaban tha, jo bilkul andhera paDa tha usmen ek tuthi kursi ek kone mein paDi thi wahan benimadhaw babu ko na pakar indu ko aur aage baDhne mein jhijhak malum hui sayaban ke baad hi ek bahut sila hua sa angan tha, jismen ek andhi si lalten ek taraf ko rakhi hui thi, jismen lal lal roshni nikal rahi thi lohe ka ek jangala angan ki chhat thi ek algani par teen chaar kapDe sookh rahe the, ek lal pat ki saDi, do petikot, do teen bauDis indu ki himmat aur aage baDhne ki nahin hui usne angan mein pair rakhte hi awaz deeh bangali babu hain?
madhawi niche hi thi indu ki awaz suni boli—aiye indu babu!
indu ne puchha—benimadhaw babu nahin hain?
madhawi ne kaha—kahin gaye hain abhi laut ayenge aap upar chaliye aur putul ko awaz di—putul, tomar indu babu esechen
angan ki batachit sunkar putul khu hi niche aa rahi thi
boli—chaliye indu babu indu ne muskurahat se uska jawab diya phir kaha—achchha, main phir kisi roz aunga aur chalne ko hua lekin putul ne aage baDhkar uska hath pakaD liya aur use apni taraf khinchte hue boli—ap upar chaliye na indu babu, baba aate honge
indu ke pair ab bhi aage nahin baDhe putul ne ruthne ke andaz mein honth nikalte hue kaha—ap itna Darte kyon hain indu babu! aap to purush manush hay aur hum to laDki aap kyon Darta?
aur ek prakar se khinchte hue upar le chali bai baghal se hi zina tha, sankra sa upar jakar indu ne dekha ki aghal baghal do kothriyan hain donon mein ek ek khat paDi hai aur donon mein ek ek Dhibri jal rahi hai putul ne kothari mein dakhil hote hi chatpat bistar ki chadar ki shal door ki aur indu ki or takte hue kaha—aiye na indu babu hiyan Darne ka koi baat nahin hai aap hiyan baithiye, baba abhi ayega thoDa opekkha karne hoga
indu ka man bar bar ho raha tha ki utar kar bhag jaye, lekin pair jaise bandh se gaye the jakar putul ke bistar par baith gaya uska dil zoron se dhaDak raha tha putul ne Dhibri stool par se hata kar taq par rakh di aur stool wahin pas hi khinchkar baith gai ek DeDh minat tak poorn nistabdhata rahi phir use bhang kiya putul ne—indu babu, aap bahut bure hain aur muskurai indu ka dil zor se dhaDakne laga usne koi jawab nahin diya aur waise hi, sikuDa–simta baitha raha aur phir chand lamhon ke liye khamoshi chha gai
—apka byah hua hai indu babu?
—is betuke sawal ka sandarbh uski samajh mein nahin aaya, lekin iska jawab asan tha, shayad isi khayal se usne kaha—nahin
putul ne uske jawab mein kaha— aur muskurai
indu ne apne man mein kaha—zara ise dekho to kaise kar rahi hai! mujhe nira mitti ka londa samajh liya hai isne kya! kaisi ajib laDki hai! aur ek bar bahut zor se uska ji hua ki is laDki ko, jo abhi itni jawan hai aur jo sirf use satane ke liye uski baghal mein baithkar is tarah muskura rahi hai, utha kar isi bistare par patak de aur aur use kisi jagah par aisa habokkar kat le ki khoon nikal aaye, magar usne zabt kiya ab tak sari paristhiti kuch kuch uski pakaD mein aane lagi thi aur ek ajib khinnata uske man mein bhar rahi thi
isi tarah koi das minat guzar gaye tab tak baghal ki kothari se kisi purush ki bhanak indu ke kan mein paDi usne putul se kaha—dekhiye, benimadhaw babu shayad aa gaye
putul ne is bar ek bhinn prakar ki hansi ke sath kaha—nahin indu babu, wo to madhawi ka dost hai—nalin
ekayek indu bistar se uth khaDa hua putul bhi uth khaDi hui uske chehre par na jane kaisi ghabrahat likhi hui thi
—jaiyega? chale jaiyega? abhi se kyon? aap baba ko das taka diya tha n? nahin nahin nahin, putul ne mana karne ke andaz mein kaha aur apne jalte hue honth indu ke honth par rakh diye
ye sab aisa bijli ki tarah hua ki indu ekdam baukhla gaya, magar to bhi use laga ki jaise kisi ne uske hothon par angara rakh diya ho ghusse se unki ankhen lal ho gain aur nathne phaDakne lage usne jhatka dekar putul ko alag kiya aur mazbut hathon se uske kandhon ko pakaD kar puri taqat se unhen jhakjhorte hue bhari karakht awaz mein chillakar kaha—han diye the diye the isi ke liye diye the! tum use chukta karogi tum use chukta karogi tum use chukta karogi kahte hue usne zor se use dhakka diya aur putul jakar sidhi khat ki pati par giri indu ne Dhibri lekar zamin par patak di aur kothari ke kiwaDon ko jhapate se band karta hua tezi se kamre ke bahar ho gaya
jhapate se darwaze ka band hona sunkar madhawi apni kothari se nikalkar i indu chala ja raha tha aur putul pati se lagi–lagi sisak rahi thi uske sharir ko bhi chot lagi thi, lekin usse kahin ziyada aur asal chot lagi thi uske man ko aur wo chot sirf itni nahin thi ki indu ne uska apman kiya hai madhawi ne putul ka hath pakaD kar uthane ki koshish karte hue kaha—pagal ho gai hai putul? wo chala gaya janwar! ujaDDu ganwar!
putul ko madhawi ke sanwedana ke ye shabd zahr jaise lage usne ankhen utha kar ek minat, aplak dekha aur adesh ke swar mein kaha—didi tum yahan se chali jao
madhawi ne putul ki roti hui magar kathor ankhen dekhin aur zara der ko thithak gai phir kaha—kaisa ajib pagalpan hai ! aur indu ke liye ek baDe kutsit shabd ka prayog kiya
putul ki ankhon mein san par chaDhi hui katar ki si chamak i aur use nagin ki tarah phuphkarkar, kinchit chaDhe hue swar mein kaha—didi tum isi waqt bahar chali jao!
madhawi ‘zara is bachpan ko to dekho, hunh’ baDbaDati hui bahar nikal gai aur putul waise hi pati pakDe roti rahi
kai din guzar gaye madhawi putul ko pure waqt udas aur khinn dekhkar bahut pareshan rahti thi baat ye thi ki madhawi se bhi ziyada putul ke hi sahare is makan ki int tiki hui theen aur ab wahi putul aane jane walon ki taraf se udasin ho rahi thi madhawi ko ye baat buri lagti thi aur usne ek do bar putul ko samjhane ki bhi koshish ki, lekin putul ko to jaise madhawi ki shakl se chiDh ho gai thi har bar jab madhawi usse kuch kahne ki koshish karti, tab donon mein achchhi khasi jang ho jati yahan tak ki ek roz madhawi ne baDe kutsit Dhang se kaha—han han, bahut dekhe hain mainne tumhare indu babu jaise anek dekhechi, napusank, baDa geyan (gyan) dene chala hai Dhongi!
iske jawab mein putul ne aisi bhayanak ankhon se madhawi ko dekha ki wo ek bar Dar gai putul ne dant pees kar kaha—chup, madhawi!
madhawi ko putul ka swar sanp ki phuphkar jaisa sun paDa
madhawi ka dil bhi koi kaDwi, zahrile kante ki tarah chubhnewali baat kahne ke liye tilmila raha tha usne baDe sade andaz mein, lekin apni baat mein zahr bhar kar kaha—achchha, to ab aap sati sawitri banengi aur aapke satyawan? ohi uni wo zarur zarur aur bura bhi kya hai! aur hi hi karke hansi us hansi se putul ke rongte khaDe ho gaye aur wo ro paDi madhawi ne ekdam marm par teer mara tha putul roti roti hi bhag kar apni kothari mein gai aur use andar se band kar apne bistar par aundhe hi gir paDi, aur waise hi paDi na jane kab tak us maili chadar ko bhigoti rahi madhawi ne widrup se jis ‘uni’ shabd ka prayog indu babu ke liye kiya tha, wahi ‘uni’ asankhy akash jugnuon ki tarah uske man ke akash mein uD raha tha, jal raha tha aur bujh raha tha aur man ko achchha lag raha tha par usse raushani bilkul nahin ho rahi thi, utni bhi nahin, jitni ki tak mein rakhi hui shishe wali Dhibri se, jise indu ne patak kar phoD diya tha aur jise sabera hote hi madhawi ne phir mangakar rakh diya tha nirasha ki us kali ghata mein jab jugnu chamakte the, to juhi ke phulon ki tarah sundar deekh paDte the, lekin phir andhera aur bhi ghana ho jata tha putul ne uthkar Dhibri ko bhi bujha diya aur phir paD rahi wo jitna hi iske bare mein sochti thi, utna hi use apni zindagi ek daldal ke manind nazar aati thi san taintalis ke us baDe akal ke baad uske man bap, donon nahin rahe the aur rishte ke in mama ne aage aakar uski saraprasti ikhtiyar ki thi, tabhi se wo daldal shuru hua tha aur is Dhai sal mein lagatar gahra hi hota gaya tha aur ab? ab kya? ab kuch nahin ho sakta aur anjan mein hi ek sard aah uske munh se nikal gai
—mere zor lagane se kya hoga? main zor laga bhi sakungi–kahan hai mere pas zor? nahin, nahin, nahin, kuch nahin hai ye ghar hi bhutha hai, khoon choos leta hai, mera kuch nahin ho sakta, mujhmen ab kuch nahin raha mujhe ab koi kuen se nahin nikal sakta ye khayal aate hi use indu par behad ghussa aaya jisne uske andar ye zahr ka beej bo kar uske man ki shanti bhi chheen li thi uske aane ke pahle, zindagi jaisi bhi thi, baghair kisi bakheDe ke chal to rahi thi ab na to use apne chhutkare ka hi koi rasta dikhai deta tha na hi madhawi ki tarah is ghatna ko apne upar se waise jhaD hi pati thi ki jaise batakh apne pankhon par se pani ko jhaD deti hai do roz usne paristhiti se pura asahyog kiya, lekin phir ghar ke watawarn ne, ghar ki asli, kuan khod aur pani pi wali haalat ne, khu uske Dhai sal ke jiwan ke dainandini abhyas ne, jo ki khoon ka hissa ban jata hai, uske upar jeet pai aur wo phir dhire dhire apni purani zindagi par laut i uske andar kuch kaDiyan tuti zarur theen lekin natije par tatkal unka kuch khas asar nahin tha putul ke man par ye cheez sanp ki tarah kunDali markar baith gai thi ki wo daldal mein phans chuki hai aur ab usse bahar aane ke liye jitna hi hath pair maregi utna hi uske bhitar aur sama jayegi zahira wo madhawi se pure pechotab se laD rahi thi lekin asliyat mein wo andar hi andar uske aage hathiyar Dalti ja rahi thi
putul ke pas se laut kar us raat indu ko bhi baDi der tak neend nahin i rah rah kar use pet mein dard malum ho raha tha, ek ajib taqlif thi, jismen ghussa aur pachhtawa donon mila hua tha us waqt use bepanah ghussa aa gaya tha sahi, lekin ab to jwar utar gaya tha aur ab use khayal sata raha tha ki mujhe laDki ke sath aisa kroor nahin hona chahiye tha tumhein kya malum ki kaun adami kis majburi ka shikar hai, baDe parsa banne chale ho! sab ko achchha khane ko mile aur achchhi tarah rahne ko mile aur man muwafi kapDe pahanne ko milen to sab aise hi parsa ho sakte hain magar iske baad bhi sharir bechna uske nazdik ek aisa ganda kaam tha ki iske liye wo putul ko, ya madhawi ko, ya bangali babu ko maf nahin kar sakta tha aur wo baDi koshish karne par bhi koi do baje tak nahin so paya uske man ne jo ek murti apni gaDhni shuru hi ki thi use haqiqat ke pahle hi bedard hathauDe ne toDkar zamin par, uske pairon ke pas Dal diya tha ek halki si gudgudi jo thi, use kisi ne chaku mar diya tha ek kali jo sirf kali thi jismen abhi gandh na thi use kisi ne chutki mein lekar masal diya tha indu ko rah rah kar lagta ki use sans lene mein taklif ho rahi hai
us din se indu ne udhar se nikalna hi chhoD diya usne ab apna ek dusra hi rasta bana liya tha, jo kuch lamba zarur paDta tha lekin indu ko pasand tha, agar aur kisi karan se nahin to sirf isliye ki us par bangali babu ka ghar nahin paDta tha aur is baat ka Dar nahin tha ki putul samne paD jayegi ya pukar legi ya benimadhaw babu bhatakte hue samne aakar khaDe ho jayenge aur baDi sadgi se bol paDenge—she din aap aaya tha, hum baDi mein nahin tha
dhire dhire us raat wali ghatna ko mahine bhar se upar ho gaya aur is beech indu ke dil ka ghaw bhi ab waisa hara na raha aur kshaobh to bilkul hi mit gaya un logon ke liye indu ke man mein ab kewal karuna thi lekin phir unke samne jane ka sahas uske andar na tha
raat ke aath baje honge wo apne kamre mein baitha paDh raha tha kisi ne darwaze par halke se, jaise Darte Darte, dastak di indu ne darwaza khola putul samne khaDi thi putul! indu thithak gaya wo putul ki nigahon se apne aap ko aise bacha raha tha jaise koi apne kisi jakhm ko ragaD lagne se bachaye
putul ne muskurakar kaha—namaskar indu babu!
indu ne uske namaskar ka uttar dete hue dekha ki aaj putul ki muskurahat mein ek naya hi, kuch katar sa, bhaw hai widrup ki to baat hi alag hai, usmen chapalta bhi nahin hai
putul ne kaha—indu babu main aap se mafi mangne i hoon
indu ne kaha—mafi? mujhse? kis baat kee?
putul ne kuch kanpte hue swar mein kaha—nahin indu babu aisa na kahiye mainne khoob socha hai, aap ne theek kiya tha
indu ne kaha—us baat ko mat chheDo main swayan
putul ne baat katte hue kaha—kaise nahin indu babu? main kaise bhool jaun!
phir teen chaar minat tak koi kuch nahin bola wo putul ne hi us maun ko toDa—ap mujhe ek bheekh denge indu babu?
indu ki samajh mein kuch nahin aaya wo ek or ko nazar phere chupchap baitha raha apni jagah par use Dar bhi lag raha tha ki gharwale agar kahin dekh lenge to kya kahenge! tabhi uske kan mein putul ke shabd paDe—ap meri hashi ko bacha lijiye meri hashi ko bacha lijiye indu babu, aap hi use bacha sakte hain? wo abhi bachchi hai, abhi us par pap ki chhaya nahin paDi hai, use narak kunD se nikal lijiye indu babu! putul aisi jaldi jaldi bol rahi thi ki jaise koi beech mein uska gala ghont dega
baat khatm karte karte putul ki ankhon mein jhar jhar jhar jhar ansu bahne lage
indu ka man bhi aardr ho aaya aur ek bar baDe zor se uska ji hua ki aage baDh kar, putul ko apni banhon mein lekar uske bakul, sugandhit balon mein hath phere aur puchkarkar kahe—chupchup, rote nahin pagli? log dekhenge to kya kahenge? lo ye pani lo mere hath se, aur munh dho Dalo ghabrao mat, sab theek ho jayega hashi jaise teri bahan waise meri bahan
ye sare shabd uske antas mein bane aur wo putul ki or ek Dag baDha bhi, magar ruk gaya jhaDiyan, chattane, sanskar indu ka munh na khula
us kshan putul ka rom rom sahara mang raha tha magar hay wo sahara na aaya na aaya na aaya un do chaar kshnon mein panchang ne na jane kitni shatabdiyan palat Dalin aur akhiraka putul rote rote hi darwaze ki or muDi aur bujhti hui dipashikha ki tarah bhabhak kar boli—jane dijiye indu babu! bhool jaiye ki main kabhi i thi
indu sir jhukaye khaDa raha aur putul jis andhere se i thi, phir usi andhere mein laut gai
in das barson mein meri zindagi ne anek utar chaDhaw dekhe hain, magar aaj bhi putul mere dil mein rah rah kar chilak uthti hai kyonki (aj aapko batlata hoon) wo kamzor, napunsak indu main hi hoon
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।