(सृष्टि रचियता ब्रह्मा ने सब जीवों का नसीब उनके ललाट पर खोद दिया है, कोई पारखी निगाह ज्योतिषी ही उसे पढ़ सकता है)
ज़िला भंडारा से ख़त? वहॉं मेरा कौन है? कहीं वैष्णो देवी या भभूति बाबा के नाम पर चलाए जा रहे गुमराह अभियान की लम्पट पकड़ से निजात पाने के लिए किसी ‘एक और’ मासूम शिकार ने तो नहीं लिखा। दाम और दंड की कनफोड़ डुगडुगी बजाती हुई एक चिट्ठी तो हर महीने आ ही जाती है। फ़लाँ ने बाबा के नाम पर इतने पर्चे छपवाए तो कैसे उसे विदेश यात्रा का योग मिला... फ़लाँ ने माँ के प्रचार की चिट्ठी रद्दी में सरका दी तो कैसे स्कूटर हादसे में उसकी टाँग चली गई। आजिज़ आ गया हूँ। और सच कहूँ अपनी तमाम विवेकशीलता और दृष्टिकोण के बावजूद इन ख़तरों से अभी भी कहीं कोई कंपन करवट ले उठता है। असफलताओं और हताशाओं नें कितना पिदाया है मुझे। कहीं इसकी वजह... वो तो भला हो लोक सेवा आयोग का जिसने छब्बीस की उम्र खिसकने से पहले, यक़ीनन कुछ रहम खाकर, डूबते को तिनके का सहारा दे दिया। कितने ही दिन-महीने अख़बार मेरे लिए, अख़बार न होकर रोज़गार समाचार बना रहा है और डाकिया कोई संभाव्य देवदूत।
और एक दिन जब वह नियुक्ति पत्र लाया था तो मंटो की ‘खोल दो’ कहानी अंदर कैसे भभक पड़ी थी।
अपरिचित चिट्ठियों से डर मुझे यों ही नहीं लगता है।
लेकिन ‘कंसल’ के स्थान पर ‘अंकल’ का संबोधन!
जो डर किसी सुनसान अँधेरे की तरह आतंकित कर रहा था, किसी सुनहली-गुनगुनी धूप-सा बिखर गया। तो यह आदित्य है। यानी आदित्य नारायण सतपती। एम. ए. के दिनों का मेरा उड़िया दोस्त। लेकिन सम्भलपुर के बजाए वह भंडारा में क्या कर रहा है। चार साल से भी ऊपर हो आया मुझे एम.ए. किए हुए।
इतना ही वक़्त सतपती को हो गया होगा दिल्ली छोड़े।
ख़ैर चिट्ठी पढ़ता हूँ। अभी पता लग जाएगा।
“न कुल्ला, न दातुन, न टट्टी, न पोशाब, बस आते ही चिट्ठियों में लग गया। गिका कहीं उड़ी जा रही हैं, हमतेऊ ज्यादा जरुली है”, माँ ने पानी का गिलास थमाते हुए कहा।
ठीक बात थी। अभी मैंने अपने फीते भी नहीं खोले थे। अपना लंबोदर बैग खाने की मेज़ पर पटककर फ़्रिज की तरफ़ बढ़ गया था जो घर में पत्रों का ऐतिहासिक दड़बा था। नागपुर की अकादमी में चल रही राजकीय ट्रेनिंग से सप्ताहांत पलायन का यह एक और उत्सव था। अचरज की बात थी कि ऐच्छिक अवकाश जैसी चीज़ भी प्रशिक्षार्थियों को स्वेच्छा या सुविधा से नहीं मिल सकती थी। आंध्रप्रदेशी सोमा शेखर रेड्डी को नक्सली धमकियों का सहारा था तो पंजाब के गुरमीत सिंह को उग्रवादियों से राहत मिलती थी। मुझे सहारा दिया ‘लड़की देखने’ ने।
“अरे मम्मी, नागपुर से आ रहे हैं तो अपनी गर्लफ़्रैंड से तार करवाकर चले होंगे”, ये मणि भाभी थीं। सुबह-सुबह अपने बैंक जाने की तैयारी में।
अपरी ज़्यादती का अहसास होते ही मैं सहजता ओढ़ते हुए सबकी तरफ़ देखकर खिल उठा, “माँ ज़रा चाय बनाओ।”
माँ जब तक चाय लाती, मैं सतपती का ख़त पढ़ चुका था। रेलवे में पीडब्लूआई सरीके काम कर रहा था। शादी कर ली थी और ढाई साल की बेटी चंद्रिका का पिता बन चुका था। सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था। ससुर मध्य रेलवे में उच्च अधिकारी हैं। आजकल डैपूटेशन पर। पत्नी कम ही पढ़ी-लिखी है और घर पर ही रहती हैं। मुझे पत्र लीखने की सोच ही रहा था काफ़ी दीनों से। लेकिन टलता चला जा रहा था। कुछ रोज़ के लिए पत्नी मैके चली गई थी। पत्र पुराने पते पर ही लिखा क्योंकि मैं कहीं भी हूँ, मुझ तक तो वह पहुँच ही जाएगा। प्रशांत भाई का रिज़र्व बैंक में प्रमोशन आ गया है। एकाध वर्ष यहीं और कट जाए तो फिर उड़ीसा की सोची जाए। लिखा था अपने बारे में काफ़ी लिख चुका है। अब मैं ख़त मिलने पर उसे अपनी ताज़ा स्थिति से अवगत कराऊँ शादी वग़ैर हो गई क्या? डी-स्कूल जाना होता है क्या...
डी-स्कूल यानी दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनोमिक्स। बहुत कुछ अविस्मरणीय जुड़ा है इस स्कूल से। सर्वोत्तम क्लब का जैसे पासपोर्ट हमारे हाथ लग गया था। ये वही तो जगह थी जिसमें जगदीश भगवती, अमर्त्य सेन, राजकृष्णा, सुखमय चक्रवर्ती जैसे दिग्गजों की परछाइयाँ अभी भी नज़र आती हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय ही नहीं, पूरे भारतवर्ष का एक गौरवशाली प्रतीक। लंदन स्कूल की तर्ज पर वी के आर वी राव द्वारा स्थापित यक़ीनन अंतर्राष्ट्रीय संस्थान।
लेकिन शुरू में कितना खिंचा-खिंचा, अलगाव-सा रहा था। कितनी मुश्किल पढ़ाई और कितना बेगाना माहौल। जिसे देखो वहीं अँग्रेज़ी बघार रहा है। उसे चाहे जाने दो लेकिन यह गिरोह प्रवृत्ति क्यों? कोई बाहर से अकेला आया हो तो वो क्या करे। शुरू के दिनों में डी-स्कूल के फाटक में घुसते ही जो उत्कृष्टता-बोध घर करने लगता था, वहीं, क्लास में तलछट पर दरका दिए जाने पर, एक दुर्गम हीनता-बोध में रूपांतरित हो जाता था। हिंदू, स्टीफ़न, श्रीराम और हंसराज कॉलेजों की ऐसी दमक थी कि अन्य सभी दोयम और रबूद घोषित कर दिए जाते थे। लेडी श्रीराम भी शायद उन्हीं में था।
उसी मानसिकता में जब आदित्य को भी पाया तो एक नैसर्गिक मैत्रीभाव उगते ही पुख़्ता हो पुख़्ता हो उठा था।
“मैं रविंशा कालेज कटक से”, उसने कहा।
“मैं श्यामलाल कालेज दिल्ली से”, मैंने जोड़ा।
यह उन्हीं दिनों की बात है जब हिंदू कालेज से आए राकेश गोस्वामी ने स्टीफ़न के मयंक रतूड़ी को अपने परिचय में सगर्व कहा था, “मेरे पिता सोशियॉलॉजी के प्रोफ़ेसर है।”
“कौन”
“तुम नहीं जानते”
“नहीं”
“प्रोफ़ेसर दिनेश गोस्वामी।”
“अबे प्रोफ़ेसर है तो क्या मेरी झाँट कूटेगा।”
मैं और आदित्य ठीक पीछे की सीट पर थे। आदित्य और राकेश बस इतना ही जान पाए कि राकेश को ‘स्नब’ कर दिया है। पंचलाइन के निकलते ही मेरी हँसी छुट भागी। इसी बाबत मयंक से दोस्ती की पूरी गुंजाइश दिखी जो साकार भी हुई। उस दिन यह भी लग गया कि डी-स्कूल की जिन दीवारों को हमने पवित्रता से परे की पवित्रता का दर्जा दिया हुआ है उस पर भी किसी भदेस रंगरेज़ ने कूचियाँ फिराई हुई हैं।
अपने डगमगाते मनोबल को इस वाकये ने बड़ी नाज़ुकी से संभाल दिया गया था।
मयंक को तो इसी दिन से ‘पहाड़ी’ का सर्वनाम नवाज़ दिया गया था।
पूरे हींग-कुलीन माहौल में अपने जैसे ‘देसियों’ को अलग जगह बनने लगी थी।
एक पखवाड़े के बाद मेरा नामकरण ‘अंकल’ कर दिया गया था। संदर्भ था उसी दिन रिलीज़ हुई ‘ख़लनायक’ फ़िल्म के प्लाज़ा में प्रथम शो का समूह दर्शन।
बस स्टॉप पर ही, आते हुए वाहन को देखकर एक कमसिन ने मुझसे पूछा था, “अंकल, ये बस कनॉट प्लेस जाएगी।”
उससे पहले कि मैं उसके प्रश्न के आपत्तिजनक भाग सोच पाता, मुँह सो निकल गया “हाँ”।
उस दिन के बाद से विनय कुमार कंसल को ‘अंकल’ के सर्टिफ़िकेटों के सिवाय सभी जगहों से धकिया दिया गया था। शुरू में ज़रूर कुछ असुविधा लगी। मन में ख़याल भी आया कि मैं भी औरों को ‘चिलम’, ‘ढक्कन’, ‘घंटू’ या ‘आडू’ जैसे ‘सम्मान’ परोसूँगा, लेकिन बात कुछ बन नहीं पाई। एक-दो महीने में ही मैं ‘अंकल’ के साथ कम्फ़र्टेबल हो गया था। कोई कहता, “साले अंकल कल क्यों नहीं आया” या “अंकल ज़्यादा चुतियापा मत कर, चल” तो मुझे कुछ भी अटपटा नहीं लगा।
वैसे भी मेरे टकलू होने की शुरूआत तो हो ही चुकी थी।
हाँ, सतपती ने मुझे विनय कहना बहुत देर बाद छोड़ा। वह भी मेरे कहने पर क्योंकि घर पर ‘विन्नी’ तथा डी-स्कूल में ‘अंकल’ मेरे अवचेतन से इस कदर चस्पां हो गए थे कि ‘विनय’ के लिए जगह ही नहीं बचती थी। बस टीचर्स अपवाद थे।
हम दोनों प्रगति मैदान एक प्रदर्शनी देखने जा रहे थे। माल रोड से ही ‘मुद्रिका’ पकड़नी थी।
“बाइसाब ये बस प्रगति मैदान जाएगा”, पायदान से आगे चढ़कर ख़ाली-सी बस में, अपनी टूटी-फूटी हिंदी के सहारे सतपती ने कंडक्टर से पूछा।
“किसी को बतइयों नई” अपने काग़ज़ पर कुछ काट-पीट करते कंडक्टर ने बीना नज़रें उठाए कहा।
मैंने उसे दो रुपए थमा दिए और लोट-पोट हँसने लगा। सतपती भौंचक और ठका-सा था। उतरते ही जब मैंने उसे सूत्र समझाया तो पूरी भड़ास के साथ बोला, “साला बहुत चूतिया था” हमारे साथ रहकर उसे इस शब्द की सार्वभौमिकता का ज्ञान हो चुका था। बेवक़ूफ़, ठुस्स या गँवार से भी ऊपर की चीज़ होता है...
“चूतिया नहीं जाट था... वह भी हरीयाणवी” मैंने समझाया।
हम अपनी बस के इंतज़ार में ही थे कि तभी कुछ झिझकते हुए वह बोला, “विनय एक कॉइन...”
मैं दहल उठा। महीने से भी ऊपर हुए परिचय के दौरान उसे वहीं आधी बाजू की हरी क़मीज़ और भदमैली चप्पलें पहनते देख मुझे उसकी तंगहाली का अहसास तो हो रहा था पर यह ज्ञान कदाचित नहीं था कि व इस क़दर फप्फस है।
बांय बांय करती असहजता के बावजूद मैंने पाँच का एक नोट उसकी हथेली से चिपका दिया “नो नो ए कॉइन विल डू” प्रतिरोध में कही आत्मसम्मान भी घुला हुआ था, लेकिन ज़रूरत उस पर भारी पड़ रही थी।
“कीप इट” कहकर मैं बिना देखे ही आई हुई एक बस में घुसड़ गया।
उसके बाद एक-दो रोज़ सतपती मिलने पर असहज-सा हो जाता। उसे लग रग रहा था वह बहुत जल्द ही मेरे समक्ष निर्वस्त्र हो गया था।
कक्षाएँ सुबह 9.20 से प्रारंभ होकर दुपहर 1.10 तक चलती थीं। तीन बजे के बाद रतन टाटा लायब्रेरी (जिसे सभी लोग आर टी एल कहते थे) में जमने वालों को पोटुओं पर गिना जा सकता था। सतपती हमेशा दिखता था।
ऐसे ही एक रोज़ हम कैंटीन के बजाए पानसिंह की गुमटी पर चाय पी रहे थे। तभी उसने ख़ुलासा किया था।
उसके परिवार में माँ के अलावा एक छोटी बहन और हैं गाँव में। दोनों घर-बाहर में मजूरी करके, बाँस के छबड़े-डलिया बनाकर गुज़ारा करते हैं। पिता भी मज़दूर थे—भूमिहीन मज़दूर, लेकिन उसके दो बरस का होते ही वे चल बसे। कोई नहीं जान पाया उन्हें क्या हुआ था। माँ का कहना है उन्हें पीलिया था। संपत्ति के नाम पर गाँव के सिमाने पर बनी चालीस-पचास झोंपड़ियों में एक उसकी भी है। शुरू में वह भी गाँव में मजूरी करता था लेकिन कुछ दिनों बाद वह पड़ोसी बड़े गाँव में भी जाने लगा। यहाँ पर एक स्कूल भी था। वहीं से उसने पढ़ना शुरू किया।
दूर के रिश्तेदारों में एक प्रशांत भाई थे जो उसे पढ़ने के लिए ख़ूब उकसाते थे। माँ ने कह दिया था, “बेटा रोटी के लिए मैं तुझसे आसरा नहीं रखती, पर पढ़ाई के लिए तू मुझे उम्मीद मत रखना।” इसका नतीजा यह हुआ कि प्रारंभिक दौर में ही उसे कई मर्तबा एक ही क्लास में कई प्रयास करने पड़े गए। स्कूल की फ़ीस दस या बारह पैसा हुआ करती थी, लेकिन उसे भी भरना किसी विपत्ति से कम नहीं लगता था।
दस रोज़ भूखा रहकर भी लगता था महीना कितनी जल्दी आ जाता है। किसी गाँव वाले की शादी-बरात में भरपेट भोजन होता था। एक-दो अध्यापक सहृदय थे, लेकिन जहाँ अधिसंख्य छात्र उसकी जैसी ही स्थिति के हों तो कौन अध्यापक किस-किसकी मदद करता।
आठवीं तक की पढ़ाई उसे सबसे मुश्किल लगी क्योंकि उसके बाद एक तो वह शारीरिक रूप से अधिक श्रम करने लायक़ हो गया था, दुसरे प्रशांत भाई के प्रयासों से उसकी फ़ीस माफ़ की जाने लगी थी। नौवीं के बाद प्रशांत भाई ने उसे संभलपुर के स्कूल में डलवा दिया था। अपने से छोटी कक्षाओं के बच्चों को ट्यूशन देकर वह तभी से अपना ख़र्चा निकालने लगा था। 12वीं में साइंस स्ट्रीम में रहने का कारण ट्रयूशंस ही थे। प्रशांत भाई उससे तीन-चार साल बड़े थे और स्कूल ही नहीं ज़िले में भी प्रथम आते थे। पिछले साल ही रिज़र्व बैंक ज्वॉयन किया है उन्होंने। जे.एन.यू. से एम-फ़िल करने के बाद। उन्होंने ही जैसे उसके कैरियर की लकीर अपने क़दमों से खींची है। बारहवीं में राज्य में रेंक होल्डर होने के बावजूद उन्होंने ही बी एस सी के बजाए बी ए आनर्स करने का सुझाव दिया था। कटक के रविंशा कॉलिज में दाख़िला मिल गया तो फिर उन्होंने ही डी-स्कूल के शौर्य से उसे परिचित करवाया था। अर्थशास्त्र का शायद ही कोई नोबेल लौरियेट ही जो कभी न कभी वहाँ भाषण देने न आया हो, उन्होंने बताया था।
प्रशांत भाई की अपनी स्थिति भी कोई ठीक नहीं थी मगर वह बहुत हिम्मती आदमी हैं और दूसरों को भी हिम्मत देते हैं। रविंशा कॉलिज में न सिर्फ़ उसकी फ़ीस माफ़ रही बल्कि वज़ीफ़ा भी मिलता था जिसकी बचत से वह दिल्ली आ पाया।
यहाँ भी प्रशांत भाई ने ही ग्वॉयर हॉल (हॉस्टल) के अपने एक उड़िया मित्र का उसे गेस्ट बनवा दिया है। लेकिन आज स्थिति यह है कि सिर छुपाने को छत तो उसे मिल गई है मगर हर शाम, खाने के लिए, उसे कुछ ‘जुगाड़’ करना पड़ता है। इसमें शामिल है अपने पुराने और हमदम पेशे-ट्रयूशंस की खोज...
इतना कहकर वह एकदम उठ खड़ा हुआ “विनय, मैंने तुम्हें सब कुछ बता दिया है। पर तुम किसी को नहीं बताओगे, मुझे उम्मीद है। ये ठीक है कि मैं अपने सफल होकर ही रहूँगा। यह मेरा कठिन समय है, लेकिन हर स्याह रात सूर्योदय तक ही तो रहती है।”
उसके हौसले और साफ़गोई का मैं उसी वक़्त क़ायल हो गया था। गाँव से चलकर डी-स्कूल आने का मेरा ग्राफ़ मुझ बेहद संघर्षपूर्ण लगता था, लेकिन सतपती के जीवन के संमुख वह बहुत ही बौना और आरामदायक लगने लगा था।
मणि भाभी को विश्वास में लेकर सतपती के लिए सौ रुपए माँगे थे, जो उन्होंने सतही तकल्लुफ़ के बिना ही दे दिए थे। इधर पहाड़ी और अरुण नागपाल ने मिलकर उसके लिए किसी से ढाई सौ रुपए मासिक का इंतज़ाम करवा दिया था। वह उसके लिए मैसादि के ख़र्चें का पोत पूरा करा देता था।
हाँ यह सब होते-होते कोई छ एक महीने तो निकल ही गए थे।
दिसंबर के आख़िर तक दिल्ली में सर्दी अपने यौवन तक आ चढ़ती है। आर टी एल के तमाम खिड़की-दरवाज़े बंद रखने पर भी अध्ययन कक्ष इतना विराट तो था ही कि अपने मेहमानों को दो-दो स्वेटर पहनवा दे। सतपती के पास था एक घिसा हुआ मैरून रंग का आधा स्वैटर और वही आधी बाज़ू की हरी धारीदार क़मीज़।
मगर सतपती डटा रहता।
नववर्ष के रोज़ भी मैंने उसे अपनी ‘उसी’ सीट पर जमा पाया जो अब तक उसकी ‘पैट’ हो चुकी थी। उसी दिन मैंने ज्योति भटनागर को उसकी सीट पर, झुककर, बातें करते देखा था।
अपने गैंग की व्याकरण के हिसाब से ज्योति क्लास की सबसे ‘तरमाल’ थी। 36-24-36 की लुभावनी आकृति। सेक्सी साँवला रंग। ठीक-ठीक नैन नक़्श। ऊपर से अमीर। सतपती बेटा तरमाल खाओ और तर जाओ।
सतपती ने लेकिन हर बार ज़िरह करने पर बताया कि ऐसा-वैसा कुछ भी नहीं है। “लेकिन हमारे गुट में पाँचों में क्या तू ही सबसे स्मार्ट है,” पंकज जैसे तराज़ू लेकर बैठा था।
“नहीं तो”
“तो बता फिर क्या है तुझमें जो...”
“मैं क्या कह सकता हूँ...वैसे जब कुछ है ही नहीं तो...,” कहकर वह जान छुड़ाने की कोशिश करता।
हम सब जानते थे कि दोनों के बीच कुछ भी नहीं था—शायद कुछ हो भी नहीं सकता था, लेकिन इसी बहाने मितभाषी सतपती की टाँग खींचने में कोई बुराई नहीं लगता थी। ज्योति के गुदगुदे कोणों-त्रिकोणों से मसख़री करने का शायद सतपती एक नायब माध्यम था।
पूरे वर्ष न तो उसने कभी क्लास में कोई प्रश्न पूछा था और भागती-सी हैलो से ज़्यादा किसी लड़की से बात की थी। इसके बावजूद भी वह हमारे जैसे लुक्का-छिनाल गैंग का हिस्सा था, यही बात सभी को चकित करती थी। लेकिन यह सच था।
एम. ए. प्रीवियस का रिज़ल्ट काफ़ी चौंकाने वाला था। स्टीफ़न हिंदू समेत बी.ए. के कई धुरंधर तीसरे खाने में पड़े थे। हम लोग ठीक-ठाक पास थे।
पहाड़ी की प्रथम श्रेणी थी। बस सतपती लुढ़क गया था।
ज्योति ने टॉप किया था।
“कितना ही टॉप कर ले, आएगी तो नीचे ही” भड़ास तहेदिल से अरुण के मुँह से निकली थी।
“यार ये तो एक नीच ट्रेजडी हो गई”
यह पहाड़ी था।
“डोंट वरी,आई विल फ़ाइट बैक।”
हमारे सामूहिक अफ़सोस पर सतपती ने दिलेरी दिखाई थी।
और मैं तो अच्छी तरह मानने लगा था कि सतपती भरपूर दिलेर है। एक वर्ष रहकर वह डी-स्कूल की संस्कृति से एक्लैमिटाइज्ड हो ही गया था। अंतिम वर्ष वाले भी बहुत लोग प्रीवियस के कई परचों को अमूनन ही दोहराते थे—बेहतर प्राप्तांकों के लिए। कोई एक कोई दो। क्या हुआ सतपती चारों परचे दे देगा। पहाड़ी और अरुण का किया हुआ इंतज़ाम भी एक वर्ष खींचा जा सकता था। गोपनीयता की शर्त पर उसने मुझे यह बता दिया था कि नतीजों से पहले ही उसे नज़दीक मुखर्जी नगर में ही एक ट्यूशन मिल गई थी। बी.ए. की। अतः अब वह ज़्यादा दतचित्त होकर पढ़ सकेगा। हाँ यह ज़रूर है कि कुछ चीज़ें बीना वजह स्थगित हो जाएँगी। जब आपकी लड़ाई ही समय के खिलाफ़ हो तो समय खोना उन ज़रूरी मोहरों को खोना हो सकता है जो अंततः उसके अंजाम को ही बेमानी सिद्ध कर दें।
सतपती पर इसका असर साफ़ था। वही लैक्चर हाल, वहीं कुर्सियाँ, वही परचे और वहीं अध्यापक। जो चीज़ पहले एक मीठी घुट्टी लगती थी, इस बार एक कड़वी दवा से भी बदतर दिखती थी। लेकिन मक़सद भी तो सामने था। सनद थी कि डी-स्कूल से पढ़ा प्रशासन शोध और शिक्षा-किसी भी जगत की आख़िरी हदों तक पहुँचने का माद्दा रखता है। उसके लिए सब कुछ जैसे पकी पकाई खीर की तरह आता है। और वह सब जब वह उच्च शिक्षा के लिए विदेश नहीं जा रहा है। हाँ, उसे डी-स्कूल की रगड़ाई तो बर्दाश्त करनी पड़ेगी। सोना आग से गुज़रकर ही तो गहना बनता है।
यह सब बातें जितना हर कोई जानता था उतना ही सतपती भी। इसलिए सत्र खुलते ही उसने आरटीएल में फिर से चौकड़ी ज़मानी चालू कर दी। उससे वहीं खुसर-पुसर बतियाते पता लगा था कि ज्योति ने अपने पिछले साल के नोट्स उसे दे दिए हैं। और अपनी तरफ़ से पूरे सहयोग का आश्वासन भी।
“पूरे सहयोग का?” अरुण ने शब्दों को खींचकर कहा।
“ओ कम आन,” कहकर वह ब्लश कर गया।
“तेरी इसी अदा पर तो वह मरती होगी।” यह मैं था।
बग़ल में बैठे एक खडूस पाठक ने ‘एक्सक्यूज मी’ कहकर हमारी बातों पर वहीं पूर्ण विराम लगा दिया।
इन दिनों आरटीएल ही सतपती से मिलने का विश्वसनीय स्थाल बन गई थी क्योंकि इधर वह अपनी कक्षाओं में रहता और हम लोग अपनी में। किसी भी प्रोफ़ेसर के लेक्चर को ‘बंक करने की हमारी सामर्थ्य नहीं थी। क्योंकि वही चीज़ किसी पुस्तक या जर्नल से पढ़ने का अर्थ था पूरे दर्शन का सफ़ाया और फिर भी बात ‘उतनी’ नहीं बन पाती थी।
लेकिन तमाम मेहनत और एकाग्रता के साथ-साथ हमें यह बहुत साफ़ दिख रहा था कि हम सही जगह पर हैं। इसलिए हौसले शायद ही कभी नाबुलंद हुए हों।
सतपती अवश्य कुछ मुर्झाया-मुर्झाया दिखता था।
“इस बैच के छात्र अपने जैसे नहीं हैं।” उसने महीने भर बार नतीजन कहा था। पीछे छूट जाने के बाद भी वह अपनी को हमारे साथ तादात्म्य करता।
“सभी बैचिज एक से होते हैं आदित्य, द लॉ आफ़ एवरेजिज इज देयर एवरी व्हेयर। उन्नीस-बीस का कोई फ़र्क़ हो तो हो...”
“उन्नीस-बीस का नहीं, बहुत ज़्यादा का फ़र्क़ है” वह अडिग था।
“हाँ एक फ़र्क़ तो यही है कि...ज्योति या उसके ‘टक्कर’ का माल इसमें नहीं है” पहाड़ी ने चुस्की ली।
“तुम लोग हमेशा ग़लत समझते हो”, वह खिन्न हो उठा।
“नहीं यार मैं तो मज़ाक़...” पहाड़ी ने तुरंत पल्टी खाई।
“अब यार तुझे पूरे बैच से क्या लेना, तुझे तो पढ़ना है ना...और फिर हम लोग तो यहीं हैं ना...” अरुण ने हौले-से हस्तक्षेप किया। ‘देट आई नो’ उसके शब्द कुछ अनकहे-से थे।
बाद में अरुण ने पहाड़ी के समझाया था कि वह उसे ज्योति को लेकर ‘टीज’ न किया करे क्योंकि उसे लगता है कि सतपती ज्योति को लेकर बहुत ‘टची’ हो उठता है।
वैसे भी कहाँ राजा भोज कहाँ गँगू तेली।
दशहरे की पाक्षिक छुट्टियाँ चल रही थीं। आरटीएल जाने के लिए मैं डी-स्कूल प्रवेश करने वाला ही था कि पानसिंह की गुमटी से झटका खाकर एक आवाज़ मुझ तक पहुँची, “अकंल”, यह सतपती था। मेरे पूरे होशो-हवास में वह पहली बार अंकल बोला था। दो रोज़ पहले ही इस मामले में हमारे बात हुई थी।
“चाय पीनी है”, मैं मुड़ा तो हाथ का अँगूठा अपने मुँह की तरफ़ इंगित कर उसने पछा।
“पी लेते हैं
चाय ख़त्म होने की थी।
मैंने देखा वह कुछ कहना चाहते हुए भी नहीं बोल रहा है।
“कोई ख़ास बात,” मैंने दो टूक पूछा।
“ख़ास तो है पर सोचता हूँ पूछूँ कि नहीं...”
इस सस्पैंस पर मुझे कहना ही पड़ा, “क्या बात है? बोल ना।”
कुछ क्षणों के लिए उसके चेहरे पर एक मातमी संगीनियत पसर गई। या जो पहले से बैठी थी और भभक गई।
मैं भी निःशब्द रहा। कुछ प्रतीक्षारत-सा। पता नहीं क्या हुआ इसे?
“गाँव से लैटर आया है, बमुश्किल कुछ शब्द निकले।”
“क्या?”
“गाँव में आग लगने से कई घर नष्ट हो गए हैं...हमारा भी...माँ ने कहलवाया है कि या तो मैं वापस आ जाऊँ या कुछ इंतज़ाम करवा दूँ।”
“…”
“…”
“अंकल क्या कुछ हेल्प हो सकती है,” आवाज़ में निरीह भाव रिस रहा था। पाँव का अँगूठा जबरन ज़मीन से कुछ मिट्टी खुरचने में लगा था। आँखे, न मिलने के प्रयास में, इधर-इधर भटक रही थीं।
“क्यों नहीं यार”...लेकिन यार मेरी हालत भी तू जानता ही है...सौ पचास से ज़्यादा...” मैंने पूरे सहयोग और स्पष्ट भाव से कहा।
“इससे ही काफ़ी हो जाएगा,” कहकर उसने अपनी जेब से एक काग़ज़ निकालकर मेरे आगे कर दिया। कोई 20-25 नाम थे ।
“द लिस्ट बीगिंस विद यू,” शब्दों में अनचीन्हा सुकून सना था। पहाड़ी, अरुण और पंकज के भी नाम थे। ज्योति भी थी, हालाँकि काफ़ी नीचे।
देर रात तक कशमकश कर लिस्ट बनाई गई लगती थी।
कुछ रोज़ बाद, मौक़ा मिलने पर, उसकी अनुपस्थिति में जब मैंने अपनी चौकड़ी में बात चलाई तो पहाड़ी मुझ पर बिफ़र पड़ा।
“अंकल, तुझे जो हेल्प करनी है कर दे...वी आर नॉट गोइंग टू डिश आउट ए सिंगल पैनी...” पहाड़ी का इतना क्रूर और निर्णायक रुख़।
“गाँव में उसका घर जलकर राख हो गया है...” मैंने पहाड़ी को ठंडा कर, अपनी संवेदनाएँ अधिक प्रकट करते हुए कहा।
“सो व्हाट?”
“सो व्हाट का क्या मतलब यार...सतपती अपना यार तो रहा ही है।”
“यार है अंकल तभी तो हमने हमेशा उसके लिए सोचा है। तूने मुझे कभी नहीं बताया, लेकिन मुझे पता है तू भी उसकी मदद करता रहा है। दैट इस सो गुड ऑफ़ यू। बट नाउ ही इज़ टेकिंग अस फ़ॉर ए राइड...वी हैव ऑवर लिमिटेशंस...” वह जैसे कुछ कहते-कहते झल्लाहट में रुक गया।
मैं जैसे किसी दलदल में फँस गया था। मेरी नीयत तो साफ़ थी मगर पहाड़ी की बात भी कुछ-कुछ जँच रही थी। पहाड़ी का यह वाक्य कि ‘पता नहीं इस आग वाली बात में कितना सच कितना झूठ है’ मुझे ख़राब नहीं लगी।
हमने तय किया कि इस बाबत आगे कोई बात नहीं होगी। कुछ दिनों सतपती डी-स्कूल में नहीं दिखा, लेकिन जब मिला तब विषय संबंधी छुटपुट स्पष्टीकरणों के अलावों हमारे बीच कोई बात नहीं हुई।
आख़िरी दशक के पूर्वांश की फ़रवरी की एक शाम थी। अमरीकी अर्थशास्त्री गॉलब्रैथ का अभिभाषण हुआ था। तब हम सभी ने ख़ूब मस्त होकर ठहाके लगाए थे। एक कोने में आठ-दस लोग घेरा बनाकर चाय के साथ गपिया रहे थे।
“गॉलब्रैथ को तो अब गाल बजाना बंद कर देना चाहिए।”
“क्यों भई क्यों”
“बुड्ढा कोई नई बात तो करता नहीं है...एफ़्ल्यूएंट सोसाइटी के बाद बताओ इसने कोई ढंग का आर्टिकल भी लिखा हो...”
“अब देखो पहले बात करता था पूँजीवाद और समाजवाद के एकीकरण की... द ग्रेट थ्योरी ऑफ़ कनवरजैंस...देख लो आज क्या हो रहा है...”
“भई थ्यौरी इज़ थ्यौरी...इट कैन गो रांग”
“यही तो आपत्ति है कि हमारा अर्थशास्त्र गेम थ्यौरी और फ़लाँ थ्यौरी बनकर रह गया है... जीवन से जुड़ना तो इसे प्रागैतिहासिक लगता है...हर, किसी स्थापना की नींव में ही हमेशा हवाई मान्यताएँ”
“उस हिसाब से तो गॉलब्रेथ ही क्यों और भी भुतेरे गिन लो...”
“कुछ हद तक अपने महलॉनोबीस भी...”
“कहाँ महसलॉनोबिस जैसा थियौरिस्ट और कहाँ ख़ाली गपड़चौथ करने वाला गॉलब्रेथ...”
“हाँ, महलॉनोबिस भी...लेकिन उसकी स्थापनाएँ ग़लत नहीं थीं...नेहरु ने उसके क्रियांवयन के लिए जो ढाँचा चुना, वो ही उन पर भारी पड़ गया...”
“यह तुम्हारी स्थापना नहीं, मान्यता है...”
तुम कुछ भी समझो...वैसे भी आज के अर्थशास्त्र ने दोनों के बीच कोई फ़र्क़ कहाँ छोड़ा है...जो आप स्थापित करना चाहते हैं उसे पहले ही मान लो...और फिर एक ख़ूबसूरत मॉडल के जरिए उसे सांख्यिकी के अंजर-पंजर से ढाँप दो…”
किसी भी नामी-गिरमी हस्ती के अभिभाषण के बाद इस तरह की खट्टी-मीठी डकारें अकसर ही ली जाती थी। सतपती ऐसी किसी भी बहस का भागीदार न होते हुए भी पूरा रस लेता था।
शायद इन्हीं क्षणों में वह डी-स्कूल व्दारा उसे टिपाई गई घिनौनी नाकामी के दंश को झेलने की शक्ति तलाशाता था। यही उसका जीवट था।
लेकिन इस वर्ष के नतीजों ने फिर से हमें स्तब्ध और झकझोर दिया। सतपती किसी भी परचे में पास नहीं था। उधर पहाड़ी ने ख़ूब नंबर खींचे थे। अरुण के डॉट चालीस फ़ीसदी थे, लेकिन इससे पहले ही वह प्रशासनिक सेवा का नियुक्ति पत्र ले चुका था मेरा नतीजा भी ख़राब ही था क्योंकि कॉलिज प्रवक्ता बनने का मेरा सपना एक प्रतिशत नंबर कम होने की वजह से पूरा नहीं हो सकता। हाँ, रिसर्च वगैरा में ज़रूर कहीं खप सकता था।
लेकिन सतपती। वह अब क्या करेगा। होशियार भी है। मेहनती भी इतना। फिर भी ये हश्र। पूरा तब्सरा करने के बाद हमें यही कहकर सब्र करना पड़ा कि हर साल डी-स्कूल जिन दो-चार अच्छे-अच्छों को ठिकाने लगाता है, तो सतपती को भी लगा दिया।
पुअर फैलो, और क्या।
उन दिनों के बाद से ज़िंदगी रुकी हो कौन कहेगा। बल्कि उसके बाद तो उसकी रफ़्तार और फाँय-फाँय हो गई थी। पहाड़ी उच्चतर शीक्षा के लिए इंडियाना विश्वविद्यालय चला गया था। अरुण को मणिपुर कैडर मिला था और पंकज ने एक ही झटके में तीन-तीन बैंकों को क्वालीफ़ाई करने के बाद स्टेट बैंक ज्वॉइन कर लिया था। मुझे एक बड़े संस्थान में शोध-सहायक की नौकरी मिल गई थी, जिसकी मेज़-कुर्सी-पुस्तकालय का पुर-उपयोग मैंने सिविल सेवा परीक्षा के लिए किया था और घिस-घिसकर उस मक़ाम तक पहुँच भी गया।
प्रारंभिक प्रशिक्षण के लिए जगह मिली थी नागपुर।
सतपती का उन दिनों के बाद से ही कुछ पता नहीं था।
अजब संयोग। यानी सतपती से बाकायदा मुलाक़ात हो सकेगी। भंडारा तो वहाँ से नज़दीक ही है। ख़त बंद करते-करते एक पुलकित भाव मुझमें प्रवेश कर चुका था। मैंने दिल्ली से ही उसे जवाब दे मारा। नागपुर अकादमी का अपना पता भी। सख़्त हिदायत दी थी कि अपने रेलवे में होने का फ़ायदा उठाकर यथाशीघ्र मिल ले। मज़ा आएगा। ख़ूब बातें करेंगे।
और सच, मेरी अपेक्षाओं पर वह एकदम खरा उतरा। नागपुर वापसी के दूसरे रोज़ ही पट्ठा सामने था। वैसी ही गर्मजोशी और ‘सतपती’ खिलखिलाहट (दो-चार और उड़िया मित्रों से मिलने के बाद आज कह सकता हूँ, ज़रूर इसका स्नोत वहाँ की ज़मीन ही होगी)। वैसा ही साँवला रंग। चेहरा पहले की बजाए भरा हुआ। पेट थुलथुल होने की अदृश्य तैयारी में। जूतों के चमड़े को देखकर भी लग गया था कि या तो सरकारी हैं या सस्ते स्थानीय।
समाचारों और सूचनाओं के अलमस्त बदला-बदली के बाद हम फिर-फिर कर डी-स्कूल और उससे जुड़े हर शै पर अपनी चोंच चिकनाते रहे।
“अरे मिलना तो दूर अब तो चिट्ठी-पत्री भी नहीं होती है। मेरा तो तुम जानते हो वही स्थाई पता है, लेकिन जब साले दूसरे ही नहीं लिखते तो और क्या हो सकता है? लगता है सब अपनी बीवियों में मस्त हो गए।”
“वक़्त हमारा सब कुछ बदल डालता है और कैसे बदल डालता है इसका भी आभास नहीं लगने देता है...अब मुझे ही लो...”
“हाँ यार डी-स्कूल के बाद तुमने क्या-क्या किया, ये मैं पहले ही पूछना चाह रहा था...”
मेरे पूछने पर, बताने के पहले, उसने बहुत दूर अंतरिक्ष को देखने जैसा भाव किया। मन एक दो बार-शायद ‘कहाँ से शुरू करूँ’ जैसा प्रयत्न किया। मुझे उकसाना पड़ा। “बताओ-बताओ”
“डी-स्कूल ने जितना मुझे दिया शायद उतना ले भी लिया। प्रशांत भाई ने वहाँ का अद्भुत सपना मेरे अंदर जगा दिया था और जब वहाँ मेरा एडमिशन हो गया तो एवरेस्ट शिखर पर चढ़ने पर तेनसिंह को हुई ख़ुशी को मैंने जज़्ब किया था।
रविंशा कॉलिज के प्रिंसिपल छोटराय साहब ने मेरी पीठ पर हाथ फिराकर शाबाशी दी थी। पिछले पाँच वर्षो में डी-स्कूल जाने वाला मैं पहला छात्र था। पहाड़ी, अरुण, पंकज और तुम्हारे जैसे दोस्त मिले...एक से एक महान और सादगी पूर्ण अध्यापक...कितना निश्छल और कंपटीटिव माहौल...”
“ज्योति भटनागर जैसी दोस्त।” उसकी संगीन होती फ़ेहरिश्त को मैंने कतर के हल्का किया।
“हाँ ज्योति भटनागर भी। उसने बिना संतुलन खोए स्वीकार किया।”
यह मेरे लिए ‘न्यूज़’ थी।
मैं सोच रहा था कि वह मेरी मसख़री को हर बार की तरह अपनी टाँग खिंचाई के रूप में ही लेकर एक तरफ़ छिटक देगा।
“तो क्या तुम दोनों बीच वाक़ई कुछ था?” मेरे अंतस के ठहरे हुए आशंकित डर में जैंसे कुछ हलचल हुई। ज्योति अपन से हरफ़नमौला बेहतर थी लेकिन कोई अपने से दोयम उसे उड़ा ले जाए वह भी तो सर्वथा अनुचित था।
“था भी और नहीं भी,” अपनी हँसी को थोड़ा रिलीज़ करके उसने वापस खींच लिया। फिर बोला, “लेकिन आज सोचता हूँ, बहुत कुछ हो सकता था।”
“कैसे?” मैं मुद्दे तक पहुँचना चाह रहा था, उत्सुक और एकटक सुन रहा था।
“वह बहुत ही समझदार लड़की थी...बहुत ही समझदार।”
“अब असली बात पर भी आएगा...”
“प्रथम वर्ष में फ्लंक होने के बाद एक दिन उसने मुझे रोककर कहा था कि अपने टॉप करने की उसे उतनी ख़ुशी नहीं हुई है जितना मेरे फ़ेल होने का दुःख। मैं हैरत में आ गया कि जिस लड़की से ‘हलो हाय’ के अलावा एक शब्द का आदान-प्रदान न हुआ हो, वह कैसे इतनी तरल भावना से सोच सकती है। लेकिन उसी ने बताया कि वह हमारे गुट में मेरी मौजूदगी को बहुत चुपचापी से लक्ष्य करती रही है। वह इसी बात की क़ायल थी कि एक नंबर के भदेसों के साथ रहकर भी मेरे मुँह से कभी टुच्ची बात नहीं निकली। दूसरे क्लासमेट्स भी, ज़िक्र आने पर, मेरे बारे में अच्छी राय ही देते थे। तुम्हें मालूम नहीं होगा, अपने क्लास नोट्स भी उसने अपने घर यानी ग्रेटर कैलाश बुलाकर दिए थे। उसका घर, बाप रे, क्या आलीशान था। उसे देखकर मैंने सोचा था कि पाँच सितारा भी शायद और क्या होते होंगे। उसके पिता फ़ौज से ब्रिगेडियर रिटायर होकर दो-चार बड़ी कंपनियों के सलाहकार हो गए थे। माँ एक कपड़ों की निर्यात फ़र्म चला रही थी। एकमात्र भाई-बड़ा, अमरीका में कानून की पढ़ाई करने के बाद किसी मशहूर फ़र्म के लिए काम कर रहा था। डी-स्कूल में वह जितनी मितभाषी थी, अपने घर पर उतनी की गर्मजोश और बातून। उसकी पहल को देखकर कई बार मैंने अपनी क़िस्मत को धन्यवाद दिया। डी-स्कूल आना भी जैसे उसके सानिध्य में ही सार्थक हो गया। पता नहीं क्या सोचकर उसने मुझे दिलासा दी थी कि डी-स्कूल ही दुनिया में सब कुछ नहीं है। मैं विश्वविद्यालय से लॉ कर सकता हूँ जिसके बाद किसी भी सीनियर वकील के साथ काम मिल जाएगा।
“मैं उसके स्नेह से विवश होकर ‘उस तरफ़’ जाने न जाने की ऊहापोह में ही था कि तभी गाँव में आग लगने का हादसा हो गया। तुम लोग तो किसी कारणवश कुछ नहीं कर पाए थे पर मैं इतना मज़बूर था कि ज्योति का ही सहारा...उसने बिना कोई सवाल किए तीन हज़ार मुझे थमा दिए थे, जो उस विपदा से निबटने के लिए पर्याप्त थे।
“उसके बाद, अंकल, मुझे अर्थशास्त्र जैसे विषय में रुचि कम संशय अधिक होने लगा। मुझे पता नहीं क्यों और कैसे लगने लगा कि उपभोक्ता-विक्रेता और अर्थव्यवस्था के जिन मॉडल्स और समीकरणों को इकॉनॉमैट्रिक्स के जरिए डी-स्कूल हमें सिखा रहा था उनमें कितनी मूलभूत गड़बड़ है, झूठ है। जिन समीकरणों की ओट में मुझे गाँव में अपनी जली हुई झोंपड़ी दिखती थी, हो सकता है, ज्योति या पहाड़ी को उसमें, उसी समय योजना आयोग दिखता हो...और हो सकता है दोनों ही अपनी जगह ठीक हो...तो फिर ये माज़रा क्या है...
“मैं मानता भी था कि इस मानसिक बुनावट में एक घातक कच्चापन है लेकिन अपनी हालत को जब मैं ज्योति के साथ रखकर देखता तो यही लगता कि तक़दीर या क़िस्मत नाम भी कोई चीज़ होती है जो हम सबकी ज़िंदगी ही नहीं ज़िंदगी के आगे-पीछे को भी तय कर देती है...
“तुमने देखा होगा, मैं कितनी निष्ठा और लगन के साथ पढ़ता था। दूसरे वर्ष में तो डी-स्कूल की कार्य-पद्धति की भी काफ़ी कुछ ख़बर हो गई थी (कम लिखो, समीकरणों में बात करो) लेकिन उस ढलान की रपटन ने न मुझे साँस लेने दी, न सीधा होने दिया...नतीजा तो वही होना ही था जो हुआ...”
“फिर क्या हआ?” मैंने ऐसे पूछा जैसे कोई परी-कथा सुन रहा था।
“प्रशांत भाई को जब पता लगा तो बहुत दुखी हुए थे। उन्हीं दिनों मध्य रेलवे में तरह-तरह की रिक्तताओं का बड़ा विज्ञापन उन्होंने देखा था। अर्हता थी बारहवीं में विज्ञान विषयों में कम-से-कम 50 प्रतिशत अंक। बस भरवा दिया। हाँ, साक्षात्कार के समय मध्य रेलवे में ही उच्चासीन उड़िया अफ़सर से परिचय निकाला गया। फ़ॉर योर इंफ़ॉर्मेशन, वह मेरे ससुर हैं। मानसी नाम है पत्नी का। शादी का सारा ख़र्चा उन्होंने ही उठाया था...”
इतना कुछ बोलने के बाद भी मुझे लगा सतपती कुछ कहते-कहते रुक गया है। मैं भी कुछ नहीं बोला, मुँह लटकाए देखता भर रहा।
कुछ सोचकर वह फिर बोला।
“आई थिंक आई शुड नॉट हैल यू दिस।”
पता नहीं क्या पहेली बुझा रहा है। नहीं ही बताना है तो भूमिका क्यों बाँध रहा है।
“आई विल नॉट प्रैस...ऑल अपटू यू,” मैंने सहज होकर उसे सहज करने के लिए कहा। होस्टल बॉए दुपहर बाद वाली चाए ले आया था। कमरे में कप एक ही था। अपनी चाए मैंने गिलास में भरवा ली। मैं तो चुप था ही पर उसने भी मौन साध लिया। चाय की सुड़क-सुड़क बहुत भारी होकर कमरे की निःशब्दता बींध रही थी।
“चलो तुम्हें अपना कैंपस दिखाता हूँ।”
मेरे सुझाव ने जैसे बहुत सुलहपूर्ण मार्ग निकाल लिया था।
सीढ़ियों से उतरकर हम लायब्रेरी की तरफ़ मुड़े ही थे कि चुप्पी तोड़ते हुए उसी ने पूछा, “अंकल तुम्हारी जन्म-तिथि क्या है?”
“क्यों?”
“बताओ तो।”
“ग्यारह जून...तुम्हारी?”
“बीस जनवरी।”
यहाँ तक की अदला-बदली में तो कोई बुराई नहीं थी। दोस्तों को यह पता रहे तो अच्छा ही है।
“तुम अपना आयडोल किसे मानते हो?”
“वैसे तो कई हो जाएँगे, लेकिन किसी एक का नाम लूँ तो वह होंगे महात्मा गाँधी।” मैंने उत्तर तो दिया लेकिन समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या सूत्र भिड़ा रहा है।
“होंगे ही।” उसने किसी दिव्य ज्ञान के विश्वास से कहा।”
“अबे बसकर, बहुत हो गया,” दरअसल उसके उत्तर में मुझे किसी फुहड़ टोटके की बू से अधिक कुछ नहीं लगा था।
“ग्यारह जून ही बताया था न...एक और एक कितने होते हैं, दो ना और गाँधी जी का जन्म-दिवस क्या है...दो अक्टूबर...” मेरी खीज पर उसने तर्क कसा।
उससे भिड़ने की यहाँ काफ़ी गुंजाइश थी लेकिन मेरा क]तई मूड नहीं था।
“तेरी जन्म-तिथि के अंकों का अंकों का योग भी तो ही बनता है...गाँधी जी तेरे आदर्श नहीं हैं क्या...?”
उसी के शास्त्र से खेलने पर मुझे अपनी प्रगल्भता पर गुमान हो आया।
“योग तो दो ही बनता है लेकिन साथ में ज़ीरो आने से सारी गड़बड़ हो रही है...”
जो अब कुछ नहीं तो यही शगूफ़ा। ख़ैर बचकर कहाँ जाएगा?
लायब्रेरी से पहले एक सूखी हुई नाली थी जिस पर एक पुलिया बनी थी। साफ़ सपील देखकर हम वही बैठ गए।
“क्या गड़बड़ हो रही है भाई...तेरा जितना कठिन वक़्त था, गुज़र गया। नौकरी मिल गई। घर है, परिवार है...और यों देखो तो कुछ न कुछ तो ज़िंदगी भर लगा ही रहता है।” मुझे लगा मैंने अपने अनुभव से पार जाकर कुछ कहा है। मेरे जवाब पर प्रतिक्रिया के बजाए वह बोला, “वो बाद में...पहले तुम अपनी जन्म-तिथि के अंकों का योग करो। 11 जून 1972 ही है ना। कितना हुआ 27 यानी नौ। अब गांधी जी की जन्म-तिथि लो, 2 अक्टूबर 1869 ही है ना। कितना हुआ 27 यानी नौ।
मैं यक़ीन नहीं करना चाहता था, लेकिन उसके तर्क ने फिर भी मुझे निष्कवच-सा कर दिया। बिना किसी पूर्व सूचना के मेरे और गाँधी जी के बीच उसने जो सूत्र बाँधा था वह कितना ही बीरबल की खीर हो, उतना बे-सिर पैर नहीं था जितना मैं सोच सकता था।
मेरे मुँह से बस यही निकला।
“तो तुम क्या ज्योतिष वग़ैरा को मानते हो?”
“मानता नहीं, जानता भी हूँ। अपने हिसाब से कुछ-कुछ, दूसरों के हिसाब से ठीक-ठीक।”
“तुम इसके चक्कर में कैसे आ गए यार...कहाँ डी-स्कूल का पढ़ा अर्थशास्त्र और कहाँ ज्योतिष। ...व्हॉट इज़ द कनैक्शन मैन...” मैंने सरसरी चुटकी ली।
“कनैक्शन भी शायद डी-स्कूल ही रहा है। मैं तुम्हें बता रहा था ना कि दूसरे वर्ष में ख़ुद और दुनिया के अर्थशास्त्र को लेकर मैं एक निश्चित मोहभंत की गीरफ़्त में आ गया था... मैंने बताया था कि नई...मुखर्जी नगर में मैं एक ट्रयूशन पढ़ाने जाता था ताकि डी-स्कूल के लिए अपना इंतज़ाम सुदृढ़ बना रहे। लड़की का नाम दिव्या था। पिता का नाम दुष्यंत कुमार। पढ़ाने में तो ख़ैर मुझे बोरियत होती थी, लेकिन मैं कौन-सा शौकिया पढ़ा रहा था। दुष्यंत कुमार ज्योतिष में गहन रुचि रखते थे। दिव्या को पढ़ाने के बाद हम लोग रोज़ ही ज्योतिष पर ढेर-सारी बातें करते। अब देखूँ तो ये लगता है कि आपकी ज्योतिष में रुचि होगी या नहीं यह भी आपकी कुंडली से निर्धारित होता है, लेकिन तुम ये मान सकते हो कि दुष्यंत कुमार जी ने ही मेरे रुझान को इस तरफ़ किया और दुष्यंत कुमार जी तक पहुँचने के लिए डी-स्कूल ही ज़िम्मेदार था...उन्होंने ही पहली बार मेरी जन्म-कुंडली बनाई थी और तभी भविष्यवाणी कर दी थी कि मेरी नौकरी और शादी लगभग साथ-साथ होंगे, सूर्य और शुक्र के एक ही भाव में रहने के कारण...हल्के इशारे से ही उन्होंने बताया था कि तब तक शनि की अवस्था ‘शुभ’ नहीं चल रही थी...”
“तभी से प्री-ऑर्डेंड या भाग्य जैसी चीज़ पर मेरा भरोसा बढ़ने लगा। अब पिछले चार सालों में तो काफ़ी कुछ पता चल गया है। ज्ञान, अनुभव और अंतर्बोध का ज्योतिष में बहुत महत्व है लेकिन आई टैल यू वन थिंग : एस्ट्रालॉजी इज़ ए मोर परफ़ैक्ट साइंस दैन इकॉनोमिक्स...”
अँग्रेज़ी में कहा अंतिम वाक्य किसी फ़लसफ़े की तरह नहीं एक साकार जीवन रस की तरह टपका थाः भाव भांगिमा की पिच का गीयर एकदम आगे बदलकर।
यह एक ऐसा मुद्दा था जिसमें अपनी नई भदेस मंडली यानी मुझ समेत सोमा शेखर रेड्डी, गुरमीत सिंह, अरविंद जैन और अशोक दहिया की अगाध दिलचस्पी थी। थी या मला-मसाया ज्योतिषी होस्टल में उपलब्ध होने से हो गई, नहीं कह सकता। सभी अभी तक परंपरागत अर्थ में कुँआरे थे और एक सम्मानित नौकरी के शेर पर सवार होकर ‘सुंदर, मेधावी, अमीर और पारिवारिक’ के चौखटे में गढ़ी कोई कन्या बाज़ार में न मिल पाने के कारण एक ‘आनरेबल एग्ज़िट’ के लिए आमादा हो रहे थे। इसीलिए, ज्योतिष शरणम् गच्छामि...
और सचमुच, सतपती ने हमारी पूरी मंडली पर अपनी जादुई सामर्थ्य के झँडे गाड़ दिए। जन्म तिथि, जन्म समय और जन्म स्थान-बस इन्हीं तीन चीज़ों के सहारे पहले वह ‘जो हो चुका है’ पर टिप्पणी करता, हरेक की मनोवृत्ति और मनोदशा के बारे में विशिष्ट बातें कहता, उसके बाद ‘आगे क्या होगा’ पर हस्त-रेखाओं का पूरक सहारा बनाकर अपनी बेबाक राय देता। उसने यह भी स्वीकारोक्ति की कि उसकी भविष्यवाणी, हो सकता है, पूरी तरह सच न निकले क्योंकि ज्योतिष एक मुक़म्मल विज्ञान होते हुए भी पूर्ण से कुछ कम जानकारी की ख़ुराक पर ही चलता है जैसे किसी शहर के अक्षांका-रेखांश एक ही होते हैं, जबकि शहर का भूगोल काफ़ी फैला होता है...वग़ैरा-वग़ैरा।
शाम बहुत पहले जा चुकी थी। अपने भंडारा लौटने का अल्टीमेटम वह बहुत पहले ही दे चुका था। हम दोनों ही होते तो वह कब का निकल चुका होता मगर यहाँ तो वह अफ़सरों की सेवा करने का ‘पुण्य’ कमा रहा था।
मैस में बचा-खुचा खाना था। अभी तक दरअसल उसनें बातें भी बहुत सार्वजनिक तौर पर ही की थीं जबकि हर कोई चाह रहा था कि पारिवारिक और निजी सूचनाओं के आधार पर वह प्रत्येक से सिर्फ़ निजी बातें करे और यह सब रात देर रात को ही संभव था। दिन भर तो योगा-पीटी से लेकर कंप्यूटर में जुटे रहना पड़ता था—बजरबट्टू कोर्स डायरेक्टर की तल्ख़ निगाहों की प्रतिछाया में।
इसीलिए ‘रुको यार चले जाना’ हो रहा था ‘मैं किसी और दिन आ जाऊँगा...एंड वैरी शार्टली’ कहकर उसने हमें आश्वस्त किया। लेकिन इस माहौल में मैंने यह भी लक्ष्य किया कि एक प्रतिष्ठित सेवा के इतने सारे अफ़सरों की संगत कहीं न कहीं उसके को भी सहला रही थी। दुपहर जब आकर अभिनंदन से ख़ुश होकर लिपटा था तब एक गूढ़ वाक्य बोला था, “यू हैव डन डी-स्कूल प्रउड,” मैं चुप ही रहा था लेकिन उसके एक नाकामयाब डी-स्कूली होने के संत्रास को शिराओं ने महसूस कर लिया था।
स्टेशन के लिए मैं उसे ऑटो तक छोड़ने जा रहा था।
“रुक जाता यार एक रात यहाँ। क्या फ़र्क़ पड़ता। मस्ती करते। पता है, यार को हॉस्टल में बी.एफ़. का भी इंतज़ाम हो जाता है...” मैंने अंयमनस्क चुटकी ली।
“नहीं अंकल, रात को मेरा घर पहुँचना ज़रूरी होता है।”
“इतने आदर्श पिता और निष्ठावान पति...”
“नहीं अंकल, वो बात नहीं है।” कहकर वह रुक गया। ऐसे ही जैसे हॉस्टल में कुछ कहते-कहते रुक गया था। लेकिन पल भर में ही मेझे उसकी आवाज़ सुनाई दे गई।
“तुम एपीलैप्सी के बारे में जानते हो?” उसने, जैसे शब्दों को पकड़-पकड़कर कहा।
मैंने बस प्रश्नाकुल मुद्रा में चलते-चलते उसे देखा।
“एपीलैप्सी यानी मिरगी...मेरी वइफ़ को वही है,” कहते-कहते उसके गले में जैसे फाँस आ गई।
मेरे क़दम किसी झटके से रुक गए।
जैसे काठ मार गया हो उन्हें।
‘स्टेशन’ कहकर, विना किसी पूर्वानुमान के मैं भी उसके साथ तभी आकर रुके ऑटो में दाख़िल कर गया। मेरी ज़ुबान जैसे तालू से चिपक गई थी। मुझे पता नहीं क्यों ख़याल आया कि इस शख़्स को, जिसे मैं डी-स्कूल के दिनों से जानता हूँ, जो आज लगभग पूरा दिन मेरे साथ रहा है, मैं जानता ही नहीं हूँ।
लेकिन शीघ्र ही मैं उसकी मनःस्थिति की भयावहता अनुभव करने लगा। कुछ कहते नहीं बन रहा था। यारों द्वारा उसे देर करा दिए जाने पर जुगुप्सा उमड़ने लगी।
कुछ हिम्मत जुटाकर सामान्य-सा बनकर, मैंने दौड़ते ऑटो में ही उसकी तरफ़ गर्दन फेरी। वही एकटक बाहर ताक रहा था, साइड के दाँतों से निचले होंठ की परत उधेड़ता हुआ। यक़ीनन यही बात उसकी ज़ुबान पर दुपहर भी आते-आते रह गई थी। उसकी जन्मतिथि में आई ‘ज़ीरो की गड़बड़’ का रहस्य भी कहीं यही तो नहीं, सोचा।
भंडारा की तरफ़ की ट्रेन आने में थोड़ा टाइम था। मैं इतना विचलित था कि चुप था। कुछ उबरकर 'चाय पीओगे' निकाला तो उसके 'चलो' के साथ देने में ज़्यादा हिचक नहीं की।
मेरे वजूद पर छाए बोझ से शायद वह इत्तेफ़ाक़ करने लगा था। तभी तो चुप्पी तोड़ते हुए बोला, “शादी से पहले से ही... बल्कि बचपन से ही उसे ये शिकायत है। मुझे तब पता चला जब उसके पेट को तीन महीने हो गए थे। पहले महीने में ही हो गया था। मेरी नौकरी को चालू हुए छह-एक महीने हो आए थे। अप्रैल के आख़िर दिन थे। मौसम में थोड़ी घुटन-सी थी। शाम का समय था। मैं ट्रैक से लौटा ही था कि किचिन में डब्बों की भड़म-भड़म के साथ एक धम्म-सी आवाज़ भी हुई। मैंने लपक्कर देखा...मानसी उल्टे मुँह पड़ी थी। पूरा शरीर लकड़ी की तरह खिंचा हुआ। मैंने सीधा करके पानी के छींटे मारे। लेकिन उसका चेहरा किसी मृतक-सा भावहीन बना रहा। ऊपर से आँखें खुली हुईं।
“मैंने सोचा ज़रूर हार्ट-अटैक पड़ा है। लेकिन नाड़ी में गति थी। थोड़ी दरे में ही उसके मुँह से थूक बाहर आने लगा। गर्दन एक तरह खिंचने लगी। शरीर किसी अनियंत्रित शक्ति के प्रकोप तले अकड़ता और शिथिल होता गया। प्रैगनैंसी के आरंभिक दौर में हर स्त्री को उल्टी-मतली जैसी परेशानी ही है, यह मैं जानता था। आहिस्ते उसे उठाकर बिस्तर पर डाला और एक गीले कपड़े से चेहरे-माथे को सहलाने लगा...”
मैंने देखा सतपती उस दृश्य को उसकी एक-एक बारीकी से उजागर कर रहा था। जैसे वह फिर से उसके मुक़ाबिल हो। ‘पूरा शरीर लकड़ी की तरह खिंचा हुआ’ जब कहा तो उसकी सीधी भुजा झटके में अकड़ ही गई थी।
“कोई आधा घंटे बाद जब वह सामान्य हुई और अपने को मेरी जाँधों पर पाकर कुछ सशंकित देखने लगी तो मैंने प्यार से मुस्कुराकर पूछा, “कण होइथिला (क्या हुआ था)”
“मोते बऊए (ये मुझे होता है)”
“कण हुए (क्या होता है)”
“मुं जाणि नीं (मुझे नहीं पता)”
उसने भी तब बात को आई गई कर दिया, लेकिन जब भंडारा रेलवे डिस्पैंसरी की डॉक्टर को 'जो-जो देखा,' हुआ बताया तो उसने यही कहा “आप इनके पापा-मम्मी को बुला लाइए तभी कुछ पक्के तौर पर कहा जा सकता है।”
“लेकिन क्या हुआ है डॉक्टर साब?”
“…कि क्या प्राब्लम है”
“क्या प्राब्लम है”
“ये तो तभी कहा जा सकता है जब पूरी केस हिस्ट्री का पता लग जाए।”
“मुझे लगा मैंने डॉक्टर से फ़ालतू में ही पूछा। केस को और जटिल बना रही थी। उस थोड़ी देर के हादसे के सिवाय मानसी का सब कुछ सामान्य ही था। लेकिन मैंने अपने ससुर साब से बात की तो उन्होंने यही कहा, ‘मैं कल पहुँचता हूँ।”
डॉक्टर के पास जाने की नौबत ही नहीं आई। उन्होंने साफ़ स्वीकार किया, ‘बेटा, मानसी को बचपन से ही दो-चार महीने में एसा दौरा पड़ता है। एसे एपीलैप्सी या मिरगी कहते हैं। बहुत इलाज़ करवाया है। ऑल इंडिया से लेकर हरिद्वार के वैद्य-हक़ीमों तक का। कम हुआ है, लेकिन गया नहीं। बहुत-से डॉक्टरों ने हमें यही समझाया कि शादी होने के बाद, कई मर्तबा इसका स्वतः निदान हो जाता है...तुमको डार्क में रखा हो ऐसा नहीं है। हमारा जो फ़र्ज़ था, किया। बाक़ी क़िस्मत से कौन लड़ सकता है...”
“जब उन्होंने सब कुछ साफ़-साफ़ बता दिया तो उसे ज़रा भी छलावे-भाव ने नहीं डसा। ‘क़िस्मत’ को लेकर वह ज्योतिष में बहुत समझ-समझा चुका था। अभी तक की पूरी ज़िंदगी ख़ुद गवाह थी। मानसी के पिता ने इंटरव्यू में मदद नहीं की होती तो, डी-स्कूल का छिका-पिटा वह, किसी भी लायक़ न रह गया था। प्रशांत भाई ने ख़ूब मार्गदर्शन किया, लेकिन शादी हो जाने के बाद वो भी काफ़ी बेगाने-से हो गए थे। वैसे भी कब तक सहारा देते वो। माँ अभी भी घिसट-घिसटकर बहन का पेट पाल रही थी—मेरी चार पैसे की नौकरी लगने की मासूम उम्मीद में।
मानसी के पिता को कभी दोषी नहीं मान सकता है सतपती।
ट्रेन आ चुकी थी, लेकिन नागपुर बड़ा हाल्ट था इसलिए उसने अपनी बातों को ट्रेन में चढ़ने की जल्दी के कारण नहीं समेटा। उल्टे मुझसे कहा कि अभी ट्रेन छूटने में दसेक मिनट हैं। मैं जा सकता हूँ। घंटे भर में तो भंडारा आ ही जाना है। स्टेशन पर ही क्वार्टर है, फिर आऊँगा।
भंडारा और नागपुर से नज़दीक और क्या होगा। कितना अच्छा रहा जो आज मुलाक़ात हो गई चलो।
सतपती के इस घटनापूर्ण आने-जाने को कई सप्ताह हो गए थे। रविंशा कॉलिज और श्यामलाल कॉलिज के ‘उत्पादों’ के रूप में हुए आपसी परिचय के समय से ही इन चार सालों के अनिश्चित अंतराल के बावज़ूद, वह हमेशा अपना-सा लगा है। बीस बरस बाद मिलता तब भी संभवतः वही नैकट्य भाव रहता।
उसे छोड़कर जब हॉस्टल के अपने बिस्तर पर, एक तूफ़ान के गुज़र जाने की शांति से, खेस तानने लगा तो इसी भाव ने मुझे ओढ़ा-न बदक़िस्मती ने इसका पल्लू छोड़ा है और न इसने अपने जीवट का।
कोई डेढ़ेक महीना हो चुका था। अपनी मंडली उसे फिर से बुलाने के लिए कई बार आग्रह कर चुकी थी। चारों उसके मुरीद थे। उसके बारे में जो ज्योतिष निष्कर्ष सतपती ने दिए थे और भी कई ज्ञानियों ने दिए थे। उन्हें यह बात भी कम अपील नहीं करती थी कि जहाँ व्यावसायिक ज्योतिषी अपनी ‘पेट पूजा’ के लिए सच्चा-झूठा बोलते हैं या बाल सकते हैं, सतपती के साथ वैसा कुछ भी नहीं है। वह एकदम निष्पकट है और ज्योतिष में तो यही दुष्प्राप्य होता है।
ऐसे ही एक शाम का वक़्त था। बैडमिंटन खेलने जाने के लिए हम अपने जूते-जाँघिये तान चुके थे। तभी सतपती आ गया। उसकी तीन वर्षीय बेटी भी साथ थी। पिछली बार मैंने उससे कहा था कि कोई तीनेक महीने में नागपुर प्रशिक्षण पूरा हो जाएगा। ‘पोस्टिंग’ देखो कहाँ मिलती है।
लेकिन भविष्य में संपर्क बनाए रखने के लिए हम कटिबद्ध हो चुके थे।
उसकी बेटी चंद्रिका सकुची, झेंपी होकर अपने पापा के दोस्त के ‘घर’ को बहुत अजनबी पा रही थी—न आँटी, न बच्चे, ना सोफ़ा, न टी.वी.। “तुम यार इस समय...थोड़ी देर बाद भागने की बात करोगे,” मैंने स्मृति के साक्ष्य कहा।
“नो नो डॉन्ट वरी...मैं रात को भी यहीं रुकूँगा...तभी तो बेटी को भी साथ लाया हूँ। आजकल भंडारा में घर से कुछ लोग आए हुए हैं। मुझे शहर से कुछ सामान-समून भी लेना था तो सोचा...”
मंडली ख़ुश हो गई। शाम की ‘बैडी’ भी मिस नहीं होगी।
मंडली चंद्रिका को लेकर कोर्ट की तरफ़ जाने लगी तो सतपती ने गुहारा, “अंकलकु हइराण करिबु नाहिं (अंकल को तंग नहीं करना)”।
एक काम चलाऊ कैंटीन पास ही थी जिसमें शाम के वक़्त ही कुछ रौनक होती थी।
“ज़रा ध्यान से...हम लोग अभी आते हैं,” मैंने जैन को कहा।
“ओ डोंट यू वरी पार्टनर...सारे लोग इकट्ठे थोड़े खेलेंगे।”
उनके जाने के बाद सतपती ने अपने हाथों में संभाले भदमैले झोले से कुछ काग़ज़ पत्रक निकाले और थमाते हुए बोला, “तुम्हारी जन्मपत्री बनाई है, ये लो।”
“क्या कहता है तुम्हारा मेरे बारे में?” मैंने ऊपर से हँसकर, अंतस से आशंकित होकर पूछा।
“तुम्हारे साथ जो चीज़ें देर से रही हैं, जैसे देर से सिविल सेवा में आना या विवाह, उसका कारण है तुम्हारी लग्न राशि में चंद्रमा के साथ-साथ मंगल का बैठना...चंद्रमा के कारण तुम्हारी इच्छाएँ या शुभकामनाएँ सिद्ध तो होती हैं। लेकिन मंगल इसमें अड़चन डाल देता है। लकीली, चंद्रमा बली है इसलिए काम बिगड़ता नहीं है...”
“अच्छा।”
मैं और कहता भी क्या। बस सुनने को समर्पित हो रहा था...देखो क्या कहती है अपनी क़िस्मत...
“मंगल एक पापी पुरुष ग्रह है जबकि चंद्रमा एक शुभ-स्त्री। चंद्रमा मन का ग्रह होता है। अतः अंकल तुम्हारे अंदर मनोभावों, संवेदनाओं और कल्पनाशक्ति की कमी नहीं रहेगी। चंद्रमा कर्क राशि का स्वामी है। जातक की कुंडली के विभिन्न स्थानों यानी घरों में होने से इसका असर भी अलग-अलग हो जाता है। कुंडली के पहले, चौथे, सातवें और दसमें ग्रह बहुत शक्तिशाली होते हैं। तुम्हारी कुंडली में, ये देखों तीन जगह तो वही ग्रह विराजमान हैं जो उनके स्वामी हैं और एक जगह बैठा है-दसवें में, राशि का समग्रह...इसलिए सब कुछ शुभ ही होता है…”
“पता नहीं यार, मुझे तो शायद ही कोई चीज़ बिना पापड़ बेले मिली हो,” मैंने गहरी साँस खींचकर उसके प्रारूप से अपनी मामूली असहमति दिखाई।
“वह इसलिए है कि तुम्हारे बारहवें ग्रह यानी द्वादश में बुध के साथ-साथ शनि भी उपस्थित है जहाँ से वह चौथे और नौवें स्थान को द्विपाद दृष्टि से देख रहा है। अब चौथा ग्रह निर्धारित करता है शिक्षा और पारिवारिक सम्मिलन और नौवाँ ग्रह तय करता है धन-धान्य और पितृसुख...इस कारण, अब तुम इस केंद्रीय सेवा के लिए घर से बाहर आ गए हो, तो वापस परिवार के साथ रहने की कम संभावना है...अभी तुम्हें दिल्ली पोस्टिंग मिल भी गई तो सरकारी क्वार्टर में रहने की प्रबल संभावना है...”
अपनी ज्योतिष की शब्दावली में वह पता नहीं क्या-क्या घोषणाएँ और भविष्यवाणियाँ किए जा रहा था। कभी कुंडली वाले काग़ज़ को फिर से देख कुछ गिनने लगता और कभी हाथ की रेखओं को गौर से देख अपने निष्कर्षों का तारतम्य बिछाता। अपने झोले से पंचांग भी एकाध बार निकाला जिसमें अगले-पिछले सौ-सौ सालों तक की समय सारणी बनी हुई थी। भारत के छोटे-बड़े चार-पाँच सौ स्थलों के अंक्षाश-रेखाँश भी दिए गए थे–वहाँ होने वाले सूर्यादय के समय के साथ।
“गुरु ये बताओ...शादी का क्या है,” उम्र के ग़लत तरफ़ धकियाए जाने का भाव बहुत दिल से था।
“एक साल में हो जानी चाहिए।” उसने कुछ गणना करके बताया। मेरे मन में आया कहूँ “महाराज, इसे थोड़ा जल्दी करने का कोई उपाय।”
लेकिन कहा, “और कुछ?”
“मैंने कहा न, तुम्हारे साथ अच्छी चीज़ों के विलंब से होने का योग है। तुम्हारी होने वाली पत्नी सुंदर तो होगी ही, 99 वें प्रतिशत संभावना है कि वर्किंग भी हो। उसके दो भाई होने चाहिए। वह साइंस ग्रेजुएट होगी और...तुम्हारे बच्चे भी देर से होंगे...लेकिन मधावी होंगे...”
मुझे लगा उसने मेरे (और मेरी चिंताओं) बारे में काफ़ी कुछ बता दिया है। उसकी किसी भी बात को असत्य मानने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। “और डी-स्कूल की याद आती है कभी” मुझे समझ नहीं आया कि खुली हुई कुंडली के समक्ष ही मैंने यह प्रश्न क्यों कर डाला। संभवतः ज्योतिष से भीगी हुई धुँध को छाँटने के लिए...या सतपती से उन गुनगने दिनों की मीठी बातें करने के लिए—जिनसे मैं आज तक नहीं अधाया।
“ऑफ़ कोर्स ऑफ़ कोर्स...डी-स्कूल में हुई घोर असफलता के बावजूद मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मेरी ज़िंदगी का वही सबसे ऊँचा मकाम रहा है। वहीं मैंने ज़िंदगी को एक विशाल पैमाने पर उसकी तमाम उत्कृष्टताओं के साथ देखा था...मेरे अंदर उस वक़्त की सुनहली यादों का आवेग अकसर हिलोरें मारता है और मैं छटपटा जाता हूँ...इनफ़ैक्ट, तुम्हें भी ख़त मैंने इसीलिए लिखा था कि...”
अपनी बात की दिशा को कुछ मोड़-सा देने की ख़ातिर उसने अपना वाक्य भी अधूरा लटका दिया। थोड़ा हिल-खिसककर दीवार पर लेट गया, बाएँ कान पर हथेली से टेक लगाकर।
“अंकल ईमानदारी से कहूँ तो डी-स्कूल आज भी मेरे सपनों में बसता है। ज्योतिष भी मेरा जीवन धर्म हो चुका है, लेकिन कुछ भी डी-स्कूल को मुझे नहीं छीन सकता है...और देखना...ये सपना ज़रूर साकार होगा...मुझे पूरा विश्वास है कि चंद्रिका डी-स्कूल से पढ़कर निकलेगी। यह सब मैंने उसकी जन्म कुंडली में देखा है। तुम्हारी तरह उसका भी चंद्र ग्रह बहुत बली है प्रथम भाव में। और वहाँ से चौथे घर में आश्रय मिला है बुध को। चौथे घर से शिक्षा तय होती है और बुध एक ग्रह है जो शुभ के साथ शुभ और पापी ग्रह के साथ पापी हो जाता है। इसलिए चंद्रमा के प्रभाव में यह शुभ फल देगा...पता है यह पैदा भी सोमवार को हुई थी...इसलिए इसका मैंने नाम चंद्रिका...मेरे लिए तो यह अभी से सौभाग्यशाली हो रही है...पे कमीशन के एरियर्स मुझे इसके जन्मदिन पर मिले...उसके नाना को हरकॉन में डैपूटेशन उसी महीने मिला जब वह पैदा हुई थी...पता है हमारा भविष्य हमारे नक्षत्रों और ग्रहों के साथ-साथ परिवार के ग्रहों-नक्षत्रों से भी असरग्रस्त होता है...ज्योतिष में यह ग़ैर-विवादास्पद बात है...”
अंकल, मैंने तो फ़ैसला कर लिया है, अब जो कुछ है, यही है। दूसरा बच्चा नहीं करना हैं अपनी नौकरी भी छोटी है। इसी को जितनी उत्तम परवरिश दे सकता हूँ, दूँगा...मैं नहीं चाहता ये कभी उन बीहड़ अड़चनों को फ़ेस करे जो मैंने कीं...
चंद्रिका को नीचे गए थोड़ा समय हो गया था। उसे उससे मिलने की चिंता हो आई तो हम नीचे चले गए। बैच की कुछ लड़कियाँ चंद्रिका का मन बहला रही थीं—अपने-अपने बालभाव के साथ।
डिनर के बाद मंडल सतपती को लेकर बैठ गई। यह दौर क़रीब दो बजे तक चला।” चंद्रिका कब की सो चुकी थी।
“पापा...आ” अँधेरे में उठी तीखी चीख़ से उठा दिया। मैंने स्विच बोर्ड तक घबराते हुए...लाइट जलाई।
एक अजीब दृश्य सामने था। चंद्रिका किसी बुरी तरह झिंझोड़े गए शिकार की तरह सतपती की छाती से चिपकी पड़ी थी। बुरी तरह भयाक्रांत और निरीह-सी। जैसे कोई जानवर पीछा कर रहा हो।
“हेई दुख, सेइठि पारा...पारा बसिदि” (वो देखो...कबूतर, कबूतर बैठा है) लड़की ने भय से ही दरवाज़े की तरफ़ इशारा किया।
“पुअ किति नाहिं कोउठि नांहि” (बेटा कुछ भी नहीं है, कहीं कुछ नहीं है) पीठ थपथपाते हुए उसने आश्वस्त किया।
“ना, अदि अदि, हेई देख सेइठि बसिछि’ (नहीं, है है, वो देखो वहाँ बैठे हैं) लड़की ने बिना ध्यान दिए ही कहा और फिर से दुबक गई। थोड़ी देर चिपके रहने के बाद वह फिर बिदककर बोली, “देख देख, तुम उपरे केते पिंपुड़ि बसिदंति मोते तलकु ओंहेइदिअ” (देखो देखो तुम्हारे ऊपर के लिए दम लगाने लगी लेकिन नीचे देखते ही चीखी, “हेई देख केते बड़ मुषा मीते कामुड़िबाकु आसुदि” (वो देखो कितना बड़ा चूहा मुझे काटने आ रहा है)
यह क्रम कोई आधा घंटे चला फिर उसकी गोद में पड़ी-पड़ी सो गई। हमने कमरे की रोशनी को जलते ही रहने दिया। सुबह जब हम उठे तो वह पूरी मासूमी से सोई पड़ी थी।
“पहले भी ऐसा कभी हुआ है?” चाय पीते-पीते मैंने पूछा।
“नैवर...” गहराई आँखों से मुँह उमेठते हुए उसने कहा।
“शायद नई जगह आई है...इसलिए।”
“हो सकता है?”
“लेकिन डॉक्टर को दिखा देंगे”
“हाँ, ये ठीक रहेगा।”
डॉ. कुलकर्णी हम दोनों को बाहर बिठाकर बड़ी देर तक लड़की का मुआइना करते रहे। अकेले ही। रात की घटना की जानकारी इसकी वजह थी। वह मुझे भंडारा जैसी जगह पर रहने के फ़ायदे नुकसान गिनाता रहा। यह भी कि किस तरह ज्योतिष के कारण उसकी दफ़्तरी ज़िंदगी आसान हो गई है। बड़े-बड़े अफ़सर उसे अपने यहाँ बुलाते हैं। पे कमीशन के एरियर्स के एक बड़े हिस्से का उपयोग उसने एक फ़्रिज ख़रीदने में किया है, बाक़ी से चंद्रिका के लिए यू टी आई की राजलक्ष्मी योजना के कुछ शेयर। प्रशांत भाई का कटक जाना एकदम कम हो गया है।
चंद्रिका की कुंडली में भ्रद-योग और राज-योग दोनों बन रहे हैं। डॉक्टर काफ़ी टाइम ले रहा है...
डॉक्टर कुलकर्णी बाहर निकले तो हम दोनों उचककर खड़े हो गए। इससे पहले कि हम कुछ पूछें, हमें संबोधित करते हुए उन्होंने पूछा, “चंद्रिका की फ़ैमिली में क्या किसी को एपीलैप्सी है?”
उसके बाद क्या हुआ? छोड़िए।
हाँ, एक-दो वर्ष पहले टेलीविज़न पर दिखाया गया एक समाचार फिर-फिर कर याद आने लगा।
सत्तर-बहत्तर वर्ष पूर्व निर्मित एक पचास-साठ मंज़िला इमारत को इंग्लैंड में विस्फ़ोट से ध्वस्त करते दिखाया गया था। उसकी रख-रखाव का ख़र्चा लागत से भी ज़्यादा पड़ रहा था। इमारत गिराने की तरकीब-तकनीक एकदम अद्भूत थी। पूरी इमारत अपने आगे पीछे या दाएँ-बाएँ नहीं गिर रही थी बल्कि अपने ही ढाँचे में समाए जा रही थी। गोया वह कोई रेतीला बिल हो।
widyatr likhita yaऽso lalateऽksharmalika
dewagyastan pathedawyaktan hoshnirmal chakshusha
(sarwalli)
(sirishti rachiyta brahma ne sab jiwon ka nasib unke lalat par khod diya hai, koi parkhi nigah jyotishi hi use paDh sakta hai)
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magar satapti Data rahta
nawwarsh ke roz bhi mainne use apni usi seat par jama paya jo ab tak uski pait ho chuki thi usi din mainne jyoti bhatnagar ko uski seat par, jhukkar, baten karte dekha tha
apne gaing ki wyakaran ke hisab se jyoti class ki sabse tarmal thi 36 24 36 ki lubhawni akriti sexy sanwla rang theek thak nain naqsha upar se amir satapti beta tarmal khao aur tar jao
satapti ne lekin har bar jirah karne par bataya ki aisa waisa kuch bhi nahin hai “lekin hamare gut mein panchon mein kya tu hi sabse smart hai,” pankaj jaise taraju lekar baitha tha
nahin to”
“to bata phir kya hai tujhmen jo
“main kya kah sakta hoon waise jab kuch hai hi nahin to ,” kahkar wo jaan chhuDane ki koshish karta
hum sab jante the ki donon ke beech kuch bhi nahin tha—shayad kuch ho bhi nahin sakta tha, lekin isi bahane mitbhashai satapti ki tang khinchne mein koi burai nahin lagti thi jyoti ke gudgude konon trikonon se masakhri karne ka shayad satapti ek nayab madhyam tha
pure warsh na to usne kabhi class mein koi parashn puchha tha aur bhagti si hailo se ziyada kisi laDki se baat ki thi iske bawjud bhi wo hamare jaise lukka chhinal gaing ka hissa tha, yahi baat sabhi ko chakit karti thi lekin ye sach tha
em e priwiyas ka result kafi chaunkane wala tha stifan hindu samet b e ke kai dhurandhar tisre khane mein paDe the hum log theek thak pas the pahaDi ki pratham shrenai thi bus satapti luDhak gaya tha
jyoti ne top kiya tha
kitna hi top kar le, ayegi to niche hee” bhaDas tahedil se arun ke munh se nikli thi
“yar ye to ek neech tragedy ho gai
ye pahaDi tha
Dont wari, i wil phait baik
hamare samuhik afsos par satapti ne dileri dikhai thi
aur main to achchhi tarah manne laga tha ki satapti bharpur diler hai ek warsh rahkar wo d school ki sanskriti se eklaimitaijD ho hi gaya tha antim warsh wale bhi bahut log priwiyas ke kai parchon ko amunan hi dohrate the—behtar praptankon ke liye koi ek to koi do kya hua satapti charon parche de dega pahaDi aur arun ka kiya hua intizam bhi ek warsh khincha ja sakta tha gopniyta ki shart par usne mujhe ye bhi bata diya tha ki natijon se pahle hi use nazdik mukharji nagar mein hi ek tution mil gai thi b e ki atः ab wo ziyada datchitt hokar paDh sakega han ye zarur hai ki kuch chizen bina wajah sthagit ho jayengi jab apaki laDai hi samay ke khilaf ho to samay khona un zaruri mohron ko khona ho sakta hai jo antatः uske anjam ko hi bemani siddh kar den
satapti par iska asar saf tha wahi laikchar haal, wahi kursiyan, wahi parche aur wahi adhyapak jo cheez pahle ek mithi ghutti lagti thi, is bar ek kaDwi dawa se bhi badtar dikhti thi lekin maqsad bhi to samne tha sanad thi ki d school se paDha prashasan shodh aur shiksha kisi bhi jagat ki akhiri hadon tak pahunchne ka madda rakhta hai uske liye sab kuch jaise paki pakai kheer ki tarah aata hai aur wo sab jab jab wo uchch shiksha ke liye widesh nahin ja raha hai han, use d school ki ragDai to bardasht karni paDegi sona aag se guzarkar hi to gahna banta hai
ye sab baten jitna har koi janta tha utna hi satapti bhi isliye satr khulte hi usne artiyel mein phir se chaukDi jamani chalu kar di usse wahin khusar pusar batiyate pata laga tha ki jyoti ne apne pichhle sal ke nots use de diye hain aur apni taraf se pure sahyog ka ashwasan bhi
“pure sahyog ka? arun ne shabdon ko khinchkar kaha
“o kam aan,” kahkar wo blash kar gaya
teri isi ada par to wo marti hogi ” ye main tha
baghal mein baithe ek khaDus pathak ne ‘eksakyuj mee kahkar hamari baton par wahin poorn wiram laga diya
in dinon artiyel hi satapti se milne ka wishwasniy sthaal ban gai thi kyonki idhar wo apni kakshaon mein rahta aur hum log apni mein kisi bhi professor ke lecture ko bank karne ki hamari samarthy nahin thi kyonki wahi cheez kisi pustak ya journal se paDhne ka arth tha pure darshan ka safaya aur phir bhi baat utni nahin ban pati thi
lekin tamam mehnat aur ekagrata ke sath sath hamein ye bahut saf dikh raha tha ki hum sahi jagah par hain isliye hausale shayad hi kabhi nabuland hue hon
satapti awashy kuch mujhya muaya dikhta tha
“is batch ke chhatr apne jaise nahin hain ” usne mahine bhar baad natijan kaha tha pichhe chhoot jane ke baad wo apne ko hamare sath tadatmy karta
“sabhi baichij ek se hote hain aditya, d law aaf ewrejij iz deyar ewri wheyar unnis bees ka koi farq ho to ho
unnis bees ka nahin, bahut ziyada ka farq hai” wo aDig tha
“han ek farq to yahi hai ki jyoti ya uske takkar ka mal ismen nahin hai” pahaDi ne chuski li
tum log hamesha ghalat samajhte ho”, wo khinn ho utha
“nahin yar main to mazaq ” pahaDi ne turant palti khai
“ab yar tujhe pure batch se kya lena, tujhe to paDhna hai na aur phir hum log to yahin hain na ” arun ne haule se hastakshaep kiya det i no uske shabd kuch anakhe se the
baad mein arun ne pahaDi ko samjhaya tha ki wo use jyoti ko lekar ‘teej na kiya kare kyonki use lagta hai ki satapti jyoti ko lekar bahut tachi ho uthta hai
waise bhi kahan raja bhoj kahan gangu teli
dashahre ki pakshik chhuttiyan chal rahi theen aar t l jane ke liye main d school prawesh karne wala hi tha ki pansinh ki gumti se jhatka khakar ek awaz mujh tak pahunchi, “ankal”, ye satapti tha mere pure hosh o hawas mein wo pahli bar ankal bola tha do roz pahle hi is mamle mein hamari baat hui thi
“chay pini hai, main muDa to hath ka angutha apne munh ki taraf ingit kar usne puchha
“pi lete hain
chay khatm hone ko thi
mainne dekha wo kuch kahna chahte hue bhi nahin bol raha hai
koi khas baat,” mainne do took puchha
“khas to hai par sochta hoon puchhun ki nahin
is saspains par mujhe kahna hi paDa, “kya baat hai? bol na
kuch kshnon ke liye uske chehre par ek matami sanginiyat pasar gai ya jo pahle se baithi thi aur bhabhak gai
main bhi niःshabd raha kuch pratiksharat sa pata nahin kya hua ise?
“ganw se laitar aaya hai, bamushkil kuch shabd nikle
kya?”
“ganw mein aag lagne se kai ghar nasht ho gaye hain hamara bhi man ne kahlwaya hai ki ya to main wapas aa jaun ya kuch intijam karwa doon
”
”
“ankal kya kuch hailp ho sakti hai,” awaz mein nirih bhaw ris raha tha panw ka angutha jabran zamin se kuch mitti khurachne mein laga tha ankhen, na milne ke prayas mein, idhar udhar bhatak rahi theen
kyon nahin yar lekin yar meri haalat bhi tu janta hi hai sau pachas se ziyada ” mainne pure sahyog aur aspasht bhaw se kaha
isse hi kafi ho jayega,” kahkar usne apni jeb se ek kaghaz nikalkar mere aage kar diya koi 20 25 nam the
“d list begins wid yu,” shabdon mein anchinha sukun sana tha pahaDi, arun aur pankaj ke bhi nam the jyoti bhi thi, halanki kafi niche
der raat tak kashmakash kar list banai gai lagti thi
kuch roz baad, mauqa milne par, uski anupasthiti mein jab mainne apni chaukDi mein baat chalai to pahaDi mujh par biphar paDa
“ankal, tujhe jo help karni hai kar de wi aar not going two Dish out e singal paini ” pahaDi ka itna kroor aur nirnayak rukh
“ganw mein uska ghar jalkar rakh ho gaya hai ” mainne pahaDi ko thanDa kar, apni sanwednayen adhik prakat karte hue kaha
so what?
“so what ka kya matlab yar satapti apna yaDi to raha hi hai
“yaDi hai ankal tabhi to hamne hamesha uske liye socha hai tune mujhe kabhi nahin bataya, lekin mujhe pata hai tubhi uski madad karta raha hai dait is so good auph yu bat nau hi iz teking as phaur e raiD wi haiw auwar limiteshans ” wo jaise kuch kahte kahte jhallahat mein ruk gaya
main jaise kisi daldal mein phans gaya tha meri niyat to saf thi magar pahaDi ki baat bhi kuch kuch anch rahi thi pahaDi ka ye waky ki pata nahin is aag wali baat mein kitna sach kitna jhooth hai mujhe kharab nahin lagi
hamne tay kiya ki is babat aage koi baat nahin hogi kuch dinon satapti d school mein nahin dikha, lekin jab mila tab wishay sambandhi chhutput spashtikarnon ke alawon hamare beech koi baat nahin hui
akhiri dashak ke purwansh ki february ki ek sham thi americi arthashastri gaulbaith ka abhibhashan hua tha tab hum sabhi ne khoob mast hokar thahake lagaye the ek kone mein aath das log ghera banakar chay ke sath gapiya rahe the
“gaulabraith ko to ab gal bajana band kar dena chahiye
kyon bhai kyon
“buDDha koi nai baat to karta nahin hai ephlyuent society ke baad batao isne koi Dhang ka artikal bhi likha ho
“ab dekho pahle baat karta tha punjiwad aur samajawad ke ekikarn ki d great theory off kanawarjains dekh lo aaj kya ho raha hai ”
“bhai thyauri iz thyauri it kain go rang
“yahi to apatti ki hamara arthshastr game thyauri aur phalan thyauri bankar rah gaya hai jiwan se juDna to ise pragaitihasik lagta hai har, kisi sthapana ki neenw mein hi hamesha hawai manytayen
us hisab se to gaulabreth hi kyon aur bhi bhutere gin lo
“han, mahalaunobis bhi lekin uski sthapnayen ghalat nahin thi nehru ne unke kriyanwyan ke liye jo Dhancha chuna, wo hi un par bhari paD gaya ”
“yah tumhari sthapana nahin, manyata hai
tum kuch bhi samjho waise bhi aaj ke arthshastr ne donon ke beech koi farq kahan chhoDa hai jo aap sthapit karna chahte hain use pahle hi man lo aur phir ek khubsurat model ke zariye use sankhyiki ke anjar panjar se Dhanp do
kisi bhi nami girami hasti ke abhibhashan ke baad is tarah ki khatti mithi Dakaren aksar hi li jati thi satapti aisi kisi bhi bahs ka bhagidar na hote hue bhi pura ras leta tha
shayad inhin kshnon mein wo d school dwara use tipai gai ghinauni nakami ke dansh ko jhelne ki shakti talashta tha yahi uska jiwat tha
lekin is warsh ke natijon ne phir se hamein stabdh aur jhakjhor diya satapti kisi bhi parche mein pas nahin tha udhar pahaDi ne khoob nambar khinche the arun ke Daut chalis fisadi the, lekin isse pahle hi wo prashasanik sewa ka niyukti patr le chuka tha mera natija bhi kharab hi tha kyonki kaulij prawakta banne ka mera sapna ek pratishat nambar kam hone ki wajah se pura nahin ho sakta han, research waghaira mein zarur kahin khap sakta tha
lekin satapti wo ab kya karega hoshiyar bhi hai mehnati bhi itna phir bhi ye hashr pura tabsira karne baad hamein yahi kahkar sab karna paDa ki har sal d school jin do chaar achchhe achchhon ko thikane lagata hai, to satapti ko bhi laga diya
puar phailo, aur kya
un dinon ke baad se zindagi ruki ho ye kaun kahega balki uske baad to uski raftar aur phanya phanya ho gai thi pahaDi uchchatar shiksha ke liye inDiyana wishwawidyalay chala gaya tha arun ko manaipur kaiDar mila tha aur pankaj ne ek hi jhatke mein teen teen bainkon ko kwalifai karne ke baad state baink jwauin kar liya tha mujhe ek baDe sansthan mein shodh sahayak ki naukari mil gai thi, jiski mez kursi pustakalaya ka pur upyog mainne siwil sewa pariksha ke liye kiya tha aur ghis ghiskar us makam tak pahunch bhi gaya
prarambhik prashikshan ke liye jagah mili thi nagpur
satapti ka un dinon ke baad se hi kuch pata nahin tha
ajab sanyog yani satapti se baqayda mulaqat ho sakegi bhanDara to wahan se nazdik hi hai khat band karte karte ek pulkit bhaw mujhmen prawesh kar chuka tha mainne dilli se hi use jawab de mara nagpur akadami ka apna pata bhi sakht hidayat di thi ki apne railway mein hone ka fayda uthakar yathashighr mil le maza ayega khoob baten karenge
aur sach, meri apekshaon par wo ekdam khara utra nagpur wapsi ke dusre roz hi pattha samne tha waisi hi garmajoshi aur ‘satapti khilkhilahat (do chaar aur uDiya mitron se milne ke baad aaj kah sakta hoon, zarur iska srot wahan ki zamin hi hogi) waisa hi sanwla rang chehra pahle ki bajaye bhara hua pet thulthul hone ki adrshy taiyari mein juton ke chamDe ko dekhkar bhi lag gaya tha ki ya to sarkari hain ya saste asthaniya
samacharon aur suchnaon ke almast badla badli ke baad hum phir phir kar d school aur usse juDe har shai par apni chonch chiknate rahe
“are milna to door ab to chitthi patri bhi nahin hoti hai mera to tum jante ho wahi sthai pata hai, lekin jab sale dusre hi nahin likhte to aur kya ho sakta hai? lagta hai sab apni biwiyon mein mast ho gaye ”
“waqt hamara sab kuch badal Dalta hai aur kaise badal Dalta hai iska bhi abhas nahin lagne deta hai ab mujhe hi lo
“han yar d school ke baad tumne kya kya kiya, ye main pahle hi puchhna chah raha tha ”
mere puchhne par, batane ke pahle, usne bahut door antriksh ko dekhne jaisa bhaw kiya man hi man ek do bar shayad kahan se shuru karun jaisa prayatn kiya mujhe uksana paDa “batao batao
“d school ne jitna mujhe diya shayad utna le bhi liya prshant bhai ne wahan ka adbhut sapna mere andar jaga diya tha aur jab wahan mera eDamishan ho gaya to ewrest sikhar par chaDhne par tensinh ko hui khushi ko mainne jazb kiya tha
rawinsha kaulij ke prinsipal chhotray sahab ne meri peeth par hath phirakar shabashi di thi pichhle panch warshon mein d school jane wala main pahla chhatr tha pahaDi, arun, pankaj aur tumhare jaise dost mile ek se ek mahan aur sadgi poorn adhyapak kitna nishchhal aur kamptitiw mahaul ”
“jyoti bhatnagar jaisi dost ” uski sangin hoti pheharist ko mainne qatar ke halka kiya
“han jyoti bhatnagar bhi usne bina santulan khoye swikar kiya
ye mere liye nyooj thi
main soch raha tha ki wo meri masakhri ko har bar ki tarah apni tang khinchai roop mein hi lekar ek taraf chhitak dega
“to kya tum donon beech waqi kuch tha?” mere antas ke thahre hue ashankit Dar mein jaise kuch halchal hui jyoti apan se harafanmaula behtar thi lekin koi apne se doyam use uDa le jaye wo bhi to sarwatha anuchit tha
“tha bhi aur nahin bhi,” apni hansi ko thoDa riliz karke usne wapas kheench liya phir bola, “lekin aaj sochta hoon, bahut kuch ho sakta tha
kaise? main mudde tak pahunchna chah raha tha, utsuk aur ektak sun raha tha
“wah bahut hi samajhdar laDki thi bahut hi samajhdar ”
“ab asli baat par bhi ayega
“pratham warsh mein phlank hone ke baad ek din usne mujhe rokkar kaha tha ki apne top karne ki use utni khushi nahin hui hai jitna mere phel hone ka duःkh main hairat mein aa gaya ki jis laDki se ‘halo hay ke alawa ek shabd ka adan pradan na hua ho, wo kaise itni taral bhawna se soch sakti hai lekin usi ne bataya ki wo hamare gut mein meri maujudgi ko bahut chupchapi se lakshya karti rahi hai wo isi baat ki qayal thi ki ek nambar ke bhadeson ke sath rahkar bhi mere munh se kabhi tuchchi baat nahin nikli dusre klasmets bhi, jikr aane par, mere bare mein achchhi ray hi dete the tumhein malum nahin hoga, apne class nots bhi usne apne ghar yani gretar kailash bulakar diye the uska ghar, bap re, kya alishan tha use dekhkar mainne socha tha ki panch sitara bhi shayad aur kya hote honge uske pita fauj se brigeDiyar retire hokar do chaar baDi kampaniyon ke salahakar ho gaye the man ek kapDon ki niryat farm chala rahi thi ekmatr bhai baDa, america mein qanun ki paDhai karne ke baad kisi mashhur farm ke liye kaam kar raha tha d school mein wo jitni mitbhashai thi, apne ghar par utni ki garmjosh aur batun uski pahal ko dekhkar kai bar mainne apni qimat ko dhanyawad diya d school aana bhi jaise uske sanidhya mein hi sarthak ho gaya pata nahin kya sochkar usne mujhe dilasa di thi ki d school hi duniya mein sab kuch nahin hai main wishwawidyalay se law kar sakta hoon jiske baad kisi bhi siniyar wakil ke sath kaam mil jayega
main uske sneh se wiwash hokar us taraf jane na jane ki uhapoh mein hi tha ki tabhi ganw mein aag lagne ka hadasa ho gaya tum log to kisi karanawash kuch nahin kar pae the par main itna majbur tha ki jyoti ka hi sahara usne bina koi sawal kiye teen hazar mujhe thama diye the, jo us wipda se nibatne ke liye paryapt the
“uske baad, ankal, mujhe arthshastr jaise wishay mein ruchi kam sanshay adhik hone laga mujhe pata nahin kyon aur kaise lagne laga ki upbhokta wikreta aur arthawywastha ke jin mauDals aur samikarnon ko ikaunaumaitriks ke zariye d school hamein sikha raha tha unmen kitni mulabhut gaDbaD hai, jhooth hai jin samikarnon ki ot mein mujhe ganw mein apni jali hui jhopDi dikhti thi, ho sakta hai, jyoti ya pahaDi ko usmen, usi samay yojna aayog dikhta ho aur ho sakta hai donon hi apni jagah theek ho to phir ye majara kya hai
“main manata bhi tha ki is manasik bunawat mein ek ghatak kachchapan hai lekin apni haalat ko jab main jyoti ke sath rakhkar dekhta to yahi lagta ki taqdir ya qimat nam bhi koi cheez hoti hai jo hum sabki zindagi hi nahin zindagi ke aage pichhe ko bhi tay kar deti hai
“tumne dekha hoga, main kitni nishtha aur lagan ke sath paDhta tha dusre warsh mein to d school ki kary paddhati ki bhi kafi kuch khabar ho gai thi (kam likho, samikarnon mein baat karo) lekin us Dhalan ki raptan ne na mujhe sans lene di, na sidha hone diya natija to wahi hona hi tha jo hua ”
“phir kya hua?” mainne aise puchha jaise koi pari katha sun raha tha
“prshant bhai ko jab pata laga to bahut dukhi hue the unhin dinon madhya railway mein tarah tarah ki rikttaon ka baDa wigyapan unhonne dekha tha arhata thi barahwin mein wigyan wishyon mein kam se kam 50 pratishat ank bus bharwa diya han, sakshatkar ke samay madhya railway mein hi uchchasin uDiya afsar se parichai nikala gaya phaur yor inphaurmeshan, wahi mere sasur hain manasi nam hai patni ka shadi ka sara kharcha unhonne hi uthaya tha
itna kuch bolne ke baad bhi mujhe laga satapti kuch kahte kahte ruk gaya hai main bhi kuch nahin bola, munh latkaye dekhta bhar raha
kuch sochkar wo phir bola
“i think i shuD not hail yu dis
pata nahin kya paheli bujha raha hai nahin hi batana hai to bhumika kyon bandh raha hai
“i wil not prais all aptu yu,” mainne sahj hokar use sahj karne ke liye kaha hostel bye dopahar baad wali chay le aaya tha kamre mein kap ek hi tha apni chay mainne gilas mein bharwa li main to chup tha hi par usne bhi maun sadh liya chay ki suDak suDak bahut bhari hokar kamre ki niःshabdta bandh rahi thi
chalo tumhein apna campus dikhata hoon
mere sujhaw ne jaise bahut sulahpurn marg nikal liya tha
siDhiyon se utarkar hum layabreri ki taraf muDe hi the ki chuppi toDte hue usi ne puchha, “ankal tumhari janm tithi kya hai?
kyon?”
batao to
“gyarah june tumhari?
bees january
yahan tak ki adla badli koi burai nahin thi doston ko ye pata rahe to achchha hi hai
“tum apna ayaDiyal kise mante ho?
“waise to kai ho jayenge, lekin kisi ek ka nam loon to wo honge mahatma gandhi ” mainne uttar to diya lekin samajh nahin pa raha tha ki wo kya sootr bhiDa raha hai
honge hi usne kisi diwy gyan ke wishwas se kaha
“abe bus kar, bahut ho gaya,” darasal uske uttar mein mujhe kisi phoohD totke ki bu se adhik kuch nahin laga tha
“gyarah june hi bataya tha na ek aur ek kitne hote hain, do na aur gandhi ji ka janm diwas kya hai do aktubar ” meri kheej par usne tark kasa
usse bhiDne ki yahan kafi gunjaish thi lekin mera qati mood nahin tha teri janm tithi ke ankon ka yog bhi to do hi banta hai gandhi ji tere adarsh nahin hain kya ?
usi ke shastr se khelne par mujhe apni pragalbhata par guman ho aaya
yog to do hi banta hai lekin sath mein zero aane se sari gaDbaD ho rahi hai ”
jo ab kuch nahin to yahi shagufa khair bachkar kahan jayega?
layabreri se pahle ek sukhi hui nali thi jis par ek puliya bani thi saf sapil dekhkar hum wahi baith gaye
“kya gaDbaD ho rahi hai bhai tera jitna kathin waqt tha, guzar gaya naukari mil gai ghar hai, pariwar hai aur yoon dekho to kuch na kuch to zindagi bhar laga hi rahta hai ” mujhe laga mainne apne anubhaw se par jakar kuch kaha hai mere jawab par pratikriya ke bajaye wo bola, “wo baad mein pahle tum apni janm tithi ke ankon ka yog karo 11 june 1972 hi hai na kitna hua 27 yani nau ab gandhi ji ki janm tithi lo, 2 october 1869 hi hai na kitna hua 27 yani nau ”
main yaqin nahin karna chahta tha, lekin uske tark ne phir bhi mujhe nishkwach sa kar diya bina kisi poorw suchana ke mere aur gandhi ji ke beech usne jo sootr bandha tha wo kitna hi birbal ki kheer ho, utna be sir pair nahin tha jitna main soch sakta tha
mere munh se bus yahi nikla
to tum kya jyotish waghaira ko mante ho?
“manata nahin, janta bhi hoon apne hisab se kuch kuch, dusron ke hisab se theek theek ”
“tum iske chakkar mein kaise aa gaye yar kahan d school ka paDha arthshastr aur kahan jyotish whaut iz d kanaikshan main ” mainne sarasri chutki li
“kanaikshan bhi shayad d school hi raha hai main tumhein bata raha tha na ki dusre warsh mein khu aur duniya ke arthshastr ko lekar main ek nishchit mohbhang ki giraft mein aa gaya tha mainne bataya tha ki nai mukharji nagar mein main ek tution paDhane jata tha taki d school ke liye apna intizam sudriDh bana rahe laDki ka nam diwya tha pita ka nam dushyant kumar paDhane mein to khair mujhe boriyat hoti thi, lekin main kaun sa shauqiya paDha raha tha dushyant kumar jyotish mein gahan ruchi rakhte the diwya ko paDhane ke baad hum log roz hi jyotish par Dher sari baten karte ab dekhun to ye lagta hai ki apaki jyotish mein ruchi hogi ya nahin ye bhi apaki kunDli se nirdharit hota hai, lekin tum ye man sakte ho ki dushyant kumar ji ne hi mere rujhan ko is taraf kiya aur dushyant kumar ji tak pahunchne ke liye d school hi zimmedar tha unhonne hi pahli bar meri janm kunDli banai thi aur tabhi bhawishyawanai kar di thi ki meri naukari aur shadi lagbhag sath sath honge, surya aur shukr ke ek hi bhaw mein rahne ke karan halke ishare se hi unhonne bataya tha ki tab tak shani ki awastha shubh nahin chal rahi thi
“tabhi se pri aurDenD ya bhagya jaisi cheez par mera bharosa baDhne laga ab pichhle chaar salon mein to kafi kuch pata chal gaya hai gyan, anubhaw aur antarbodh ka jyotish mein bahut mahatw hai lekin i tail yu wan thing ha estralauji iz e mor parfaikt sains dain ikaunomiks
angrezi mein kaha antim waky kisi falsafe ki tarah nahin ek sakar jiwan ras ki tarah tapka thaः bhaw bhangima ki pitch ka giyar ekdam aage badalkar
ye ek aisa mudda tha jismen apni nai bhades manDli yani mujh samet soma shekhar reDDi, gurmit sinh, arwind jain aur ashok dahiya ki agadh dilchaspi thi thi ya mala malaya jyotishi hostel mein uplabdh hone se ho gai, nahin kah sakta sabhi abhi tak parampragat arth mein kunare the aur ek sammanit naukari ke sher par sawar hokar sundar, medhawi, amir aur pariwarik ke chaukhate mein gaDhi koi kanya bazar mein na mil pane ke karan ek anrebal egzit ke liye amada ho rahe the isiliye, jyotish sharnam gachchhami
aur sachmuch, satapti ne hamari puri manDli par apni jadui samarthy ke jhanDe gaD diye janm tithi, janm samay aur janm sthan bus inhin teen chizon ke sahare pahle wo ‘jo ho chuka hai par tippanai karta, harek ki manowritti aur manodasha ke bare mein wishisht baten kahta, uske baad aage kya hoga par hast rekhaon ka purak sahara banakar apni bebak ray deta usne ye bhi swikarokti ki ki uski bhawishyawanai, ho sakta hai, puri tarah sach na nikle kyonki jyotish ek mukammal wigyan hote hue bhi poorn se kuch kam jankari ki khurak par hi chalta hai jaise kisi shahr ke akshansh rekhansh ek hi hote hain, jabki shahr ka bhugol kafi phaila hota hai waghaira waghaira
sham bahut pahle ja chuki thi apne bhanDara lautne ka ultimatum wo bahut pahle hi de chuka tha hum donon hi hote wo kab ka nikal chuka hota magar yahan to wo afasron ki sewa karne ka punny kama raha tha
mais mein bacha khucha khana tha abhi tak darasal usne baten bhi bahut sarwajnik taur par hi ki theen jabki har koi chah raha tha ki pariwarik aur niji suchnaon ke adhar par wo pratyek se sirf niji baten kare aur ye sab raat der raat ko hi sambhaw tha din bhar to yoga piti se lekar kampyutar mein jute rahna paDta tha—bajarbattu course Dayarektar ki talkh nigahon ki pratichhaya mein
isiliye ‘ruko yar chale jana ho raha tha main kisi aur din aa jaunga enD wairi shartli kahkar usne hamein ashwast kiya lekin is mahaul mein mainne ye bhi lakshya kiya ki ek pratishthit sewa ke itne sare afasron ki sangat kahin na kahin uske aham ko bhi sahla rahi thi dopahar jab aakar abhinandan se khush hokar lipta tha tab ek gooDh waky bola tha, “yu haiw Donne d school prauD,” main chup hi raha tha lekin uske ek nakamayab d skuli hone ke santras ko shiraon ne mahsus kar liya tha
station ke liye main use ऑto tak chhoDne ja raha tha
“ruk jata yar ek raat yahan kya farq paDta masti karte pata hai, yar ko hostel mein b eph ka bhi intizam ho jata hai ” mainne anyamnask chutki li
“nahin ankal, raat ko mera ghar pahunchna zaruri hota hai
itne adarsh pita aur nishthawan pati ”
nahin ankal, wo baat nahin hai ” kahkar wo ruk gaya aise hi jaise hostel mein kuch kahte kahte ruk gaya tha lekin pal bhar mein hi mujhe uski awaz sunai de gai
“tum aipilaipsi ke bare mein jante ho?” usne, jaise shabdon ko pakaD pakaDkar kaha
mainne bus prashnakul mudra mein chalte chalte use dekha
aipilaipsi yani mirgi meri waif ko wahi hai,” kahte kahte uske gale mein jaise phans aa gai
mere qadam kisi jhatke se ruk gaye
jaise kath mar gaya ho unhen
station kahkar, bina kisi purwanuman ke main bhi uske sath tabhi aakar ruke ऑto mein dakhil kar gaya meri zuban jaise talu se chipak gai thi mujhe pata nahin kyon khayal aaya ki is shakhs ko, jise main d school ke dinon se janta hoon, jo aaj lagbhag pura din mere sath raha hai, main janta hi nahin hoon
lekin sheeghr hi main uski manःsthiti ki bhayawahta anubhaw karne laga kuch kahte hi nahin ban raha tha yaron dwara use der kara diye jane par jugupsa umaDne lagi
kuch himmat jutakar samany sa bankar, mainne dauDte ऑto mein hi uski taraf gardan pheri wo ektak bahar tak raha tha, saiD ke danton se nichle honth ki parat udheDta hua yaqinan yahi baat uski zuban par dopahar bhi aate aate rah gai thi uski janmatithi mein i zero ki gaDbaD ka rahasy bhi kahin yahi to nahin, socha
bhanDara ki taraf ki train aane mein thoDa time tha main itna wichlit tha ki chup tha kuch ubarkar chay pioge nikala to uske chalo ke sath dene mein ziyada hichak nahin ki
mere wajud par chhaye bojh se shayad wo ittifaq karne laga tha tabhi to chuppi toDte hue bola, “shadi se pahle se hi balki bachpan se hi use ye shikayat hai mujhe tab pata chala jab uske pet ko teen mahine ho gaye the pahle mahine mein hi ho gaya tha meri naukari ko chalu hue chhah ek mahine ho aaye the april ke akhir din the mausam mein thoDi ghutan si thi sham ka samay tha main track se lauta hi tha ki kichin mein Dabbon ki bhaDam bhaDam ke sath ek dhamm si awaz bhi hui mainne lapakkar dekha manasi ulte munh paDi thi pura sharir lakDi ki tarah khincha hua mainne sidha karke pani ke chhinte mare lekin uska chehra kisi mritak sa bhawahin bana raha upar se ankhen khuli huin
mainne socha zarur heart ataik paDa hai lekin naDi mein gati thi thoDi dare mein hi uske munh se thook bahar aane laga gardan ek taraf khinchne lagi sharir kisi aniyantrit shakti ke prakop tale akaDta aur shithil hota gaya praignainsi ke arambhik daur mein har istri ko ulti matli jaisi pareshani hi hai, ye main janta tha ahiste use uthakar bistar par Dala aur ek gile kapDe se chehre mathe ko sahlane laga
mainne dekha satapti us dushya ko uski ek ek bariki se ujagar kar raha tha jaise wo phir se uske muqabil ho pura sharir lakDi ki tarah khincha hua jab kaha to uski sidhi bhuja jhatke mein akaD hi gai thi
“koi aadha ghante baad jab wo samany hui aur apne ko meri jandhon par pakar kuch sashankit dekhne lagi to mainne pyar se muskurakar puchha, “kan hoithila (kya hua tha)”
“mote bajhue (ye mujhe hota hai)”
“kan hue (kya hota hai)”
mun janai ni (mujhe nahin pata)”
usne bhi tab baat ko i gai kar diya, lekin jab bhanDara railway Dispainsri ki doctor ko ‘jo jo dekha, hua bataya to usne yahi kaha “ap inke papa mammy ko bula laiye tabhi kuch pakke taur par kaha ja sakta hai
“lekin kya hua hai doctor sab?
“ ki kya problem hai
“kya problem hai
ye to tabhi kaha ja sakta hai jab puri kes history ka pata lag jaye
“mujhe laga mainne doctor se faltu mein hi puchha kes ko aur jatil bana rahi thi us thoDi der ke hadse ke siway manasi ka sab kuch samany hi tha lekin mainne apne sasur sab se baat ki to unhonne yahi kaha, main kal pahunchta hoon ”
doctor ke pas jane ki naubat hi nahin i unhonne saf swikar kiya, beta, manasi ko bachpan se hi do chaar mahine mein aisa daura paDta hai ise aipilaipsi ya mirgi kahte hain bahut ilaj karwaya hai all inDiya se lekar haridwar ke waidy hakimon tak ka kam hua hai, lekin gaya nahin bahut se Dauktron ne hamein yahi samjhaya ki shadi hone ke baad, kai martaba iska swatः nidan ho jata hai tumko Dark mein rakha ho aisa nahin hai hamara jo farz tha, kiya baqi qimat se kaun laD sakta hai
“jab unhonne sab kuch saf saf bata diya to use zara bhi chhalawe bhaw ne nahin Dasa qimat ko lekar wo jyotish mein bahut samajh samjha chuka tha abhi tak ki puri zindagi khu gawah thi manasi ke pita ne intrawyu mein madad nahin ki hoti to, d school ka chhika pita wo, kisi bhi layaq na rah gaya tha prshant bhai ne khoob margadarshan kiya, lekin shadi ho jane ke baad wo bhi kafi begane se ho gaye the waise bhi kab tak sahara dete wo man abhi bhi ghisat ghisatkar bahan ka pet pal rahi thi—meri chaar paise ki naukari lagne ki masum ummid mein ”
manasi ke pita ko kabhi doshi nahin man sakta hai satapti
train aa chuki thi, lekin nagpur baDa haalt tha isliye usne apni baton ko train mein chaDhne ki jaldi ke karan nahin sameta ulte mujhse kaha ki abhi train chhutne mein dasek minat hain main ja sakta hoon ghante bhar mein to bhanDara aa hi jana hai station par hi quarter hai, phir aunga
bhanDara aur nagpur se nazdik aur kya hoga kitna achchha raha jo aaj mulaqat ho gai chalo
satapti ke is ghatnapurn aane jane ko kai saptah ho gaye the rawinsha kaulij aur shyamlal kaulij ke ‘utpadon ke roop mein hue aapsi parichai ke samay se hi in chaar salon ke anishchit antral ke bawjud, wo hamesha apna sa laga hai bees baras baad milta tab bhi sambhwatः wahi naikaty bhaw rahta
use chhoDkar jab hostel ke apne bistar par, ek tufan ke guzar jane ki shanti se, khes tanne laga to isi bhaw ne mujhe oDha na bad qismti ne iska pallu chhoDa hai aur na isne apne jiwat ka
koi DeDhek mahina ho chuka tha apni manDli use phir se bulane ke liye kai bar agrah kar chuki thi charon uske murid the uske bare mein jo jyotish nishkarsh satapti ne diye the aur bhi kai gyaniyon ne diye the unhen ye baat bhi kam appeal nahin karti thi ki jahan wyawasayik jyotishi apni pet puja ke liye sachcha jhutha bolte hain ya bol sakte hain, satapti ke sath waisa kuch bhi nahin hai wo ekdam nishpkat hai aur jyotish mein to yahi dushprapy hota hai
aise hi ek sham ka waqt tha baiDmintan khelne jane ke liye hum apne jute janghiye tan chuke the tabhi satapti aa gaya uski teen warshaiy beti bhi sath thi pichhli bar mainne usse kaha tha ki koi tinek mahine mein nagpur prashikshan pura ho jayega ‘posting dekho kahan milti hai
lekin bhawishya mein sampark banaye rakhne ke liye hum katibaddh ho chuke the
uski beti chandrika sakuchi, jhempi hokar apne papa ke dost ke ghar ko bahut ajnabi pa rahi thi na anti, na bachche, na sofa, na t wi “tum yar is samay thoDi der baad bhagne ki baat karoge,” mainne smriti ke sakshy kaha
“no no Daunt wari main raat ko bhi yahin rukunga tabhi to beti ko bhi sath laya hoon ajkar bhanDara mein ghar se kuch log aaye hue hain mujhe shahr se kuch saman samun bhi lena tha to socha ”
manDli khush ho gai sham ki baiDi bhi miss nahin hogi
manDli chandrika ko lekar court ki taraf jane lagi to satapti ne guhara, “ankalaku hairan karibu nahin (ankal ko tang nahin karna)”
ek kaam chalau kaintin pas hi thi jismen sham ke waqt hi kuch raunaq hoti thi
zara dhyan se hum log abhi aate hain,” mainne jain ko kaha
“o Dont yu wari partnar sare log ikatthe thoDe khelenge
unke jane ke baad satapti ne apne hathon mein sambhale bhadamaile jhole se kuch kaghaz patrak nikale aur thamate hue bola, “tumhari janmapatri banai hai, ye lo
“kya kahta hai tumhara jyotish mere bare mein?” mainne upar se hansakar, antas se ashankit hokar puchha
“tumhare sath jo chizen der se ho rahi hain, jaise der se siwil sewa mein aana ya wiwah, uska karan hai tumhari lagn rashi mein chandrma ke sath sath mangal ka baithna chandrma ke karan tumhari ichhayen ya shubhkamnayen siddh to hoti hain lekin mangal ismen aDchan Dal deta hai lakili, chandrma bali hai isliye kaam bigaDta nahin hai ”
“achchha
main aur kahta bhi kya bus sunne ko samarpit ho raha tha dekho kya kahti hai apni qimat
“mangal ek papi purush grah hai jabki chandrma ek shubh istri chandrma man ka grah hota hai atः ankal tumhare andar manobhawon, sanwednaon aur kalpnashakti ki kami nahin rahegi chandrma kark rashi ka swami hai jatak ki kunDli ke wibhinn sthanon yani gharon mein hone se iska asar bhi alag alag ho jata hai kunDli ke pahle, chauthe, satwen aur dasmen grah bahut shaktishali hote hain tumhari kunDli mein, ye dekho teen jagah to wahi grah wirajman hain jo unke swami hain aur ek jagah baitha hai daswen mein, rashi ka samagrah isliye sab kuch shubh hi hota hai
“pata nahin yar, mujhe to shayad hi koi cheez bina papaD bele mili ho, mainne gahri sans khinchkar uske prarup se apni mamuli ashamti dikhai
“wah isliye hai ki tumhare barahwen grah yani dwadash mein budh ke sath sath shani bhi upasthit hai jahan se wo chauthe aur nauwen sthan ko dwipad drishti se dekh raha hai ab chautha grah nirdharit karta hai shiksha aur pariwarik sammilan aur nauwan grah tay karta hai dhan dhany aur pitrisukh is karan, ab tum is kendriy sewa ke liye ghar se bahar aa gaye ho, to wapas pariwar ke sath rahne ki kam sambhawna hai abhi tumhein dilli posting mil bhi gai to sarkari quarter mein rahne ki prabal sambhawna hai
apni jyotish ki shabdawali mein wo pata nahin kya kya ghoshnayen aur bhawishywaniyan kiye ja raha tha kabhi kunDli wale kaghaz ko phir se dekh kuch ginne lagta aur kabhi hath ki rekhaon ko ghaur se dekh apne nishkarshon ka taratamy bichhata apne jhole se panchang bhi ekadh bar nikala jismen agle pichhle sau sau salon tak ki samay saranai bani hui thi bharat ke chhote baDe chaar panch sau sthlon ke ankshash rekhansh bhi diye gaye the—wahan hone wale suryoday ke samay ke sath
“guru ye batao shadi ka kya hai,” umr ke ghalat taraf dhakiyaye jane ka bhaw bahut dil se tha
“ek sal mein ho jani chahiye ” usne kuch ganana karke bataya
mere man mein aaya kahun “maharaj, ise thoDa jaldi karne ka koi upay
lekin kaha, “aur kuchh?”
“mainne kaha na, tumhare sath achchhi chizon ke wilamb se hone ka yog hai tumhari hone wali patni sundar to hogi hi, 99wen pratishat sambhawna hai ki warking bhi ho uske do bhai hone chahiye wo sains graduate hogi aur tumhare bachche bhi der se honge lekin medhawi honge
mujhe laga usne mere (aur meri chintaon) bare mein kafi kuch bata diya hai uski kisi bhi baat ko asaty manne ki himmat nahin paD rahi thi “aur d school ki yaad aati hai kabhi” mujhe samajh nahin aaya ki khuli hui kunDli ke samaksh hi mainne ye parashn kyon kar Dala sambhwatः jyotish se bhigi hui dhundh ko chhantane ke liye ya satapti se un gungune dinon ki mithi baten karne ke liye jinse main aaj tak nahin adhaya
“auph course auph course d school mein hui ghor asphalta ke bawjud mujhe ye kahne mein koi sankoch nahin ki meri zindagi ka wahi sabse uncha maqam raha hai wahin mainne zindagi ko ek wishal paimane par uski tamam utkrishttaon ke sath dekha tha mere andar us waqt ki sunahli yadon ka aaweg aksar hiloren marta hai aur main chhatapta jata hoon in phaikt, tumhein bhi khat mainne isiliye likha tha ki
apni baat ki disha ko kuch moD sa dene ki khatir usne apna waky bhi adhura latka diya thoDa hil khisakkar diwar par let gaya, bayen kan par hatheli se tek lagakar
“ankal imandari se kahun to d school aaj bhi mere sapnon mein basta hai jyotish bhi mera jiwan dharm ho chuka hai, lekin kuch bhi d school ko mujhe nahin chheen sakta hai aur dekhana ye sapna zarur sakar hoga mujhe pura wishwas hai ki chandrika d school se paDhkar niklegi ye sab mainne uski janm kunDli mein dekha hai tumhari tarah uska bhi chandr grah bahut bali hai pratham bhaw mein aur wahan se chauthe ghar mein ashray mila hai budh ko chauthe ghar se shiksha tay hoti hai aur budh ek aisa grah hai jo shubh ke sath shubh aur papi grah ke sath papi ho jata hai isliye chandrma ke prabhaw mein ye shubh phal dega pata hai ye paida bhi somwar ko hui thi isiliye iska mainne nam chandrika mere liye to ye abhi se saubhagyashali ho rahi hai pe commission ke eriyars mujhe iske janmdin par mile uske nana ko harkaun mein Daiputeshan usi mahine mila jab wo paida hui thi pata hai hamara bhawishya hamare nakshatron aur grhon ke sath sath pariwar ke grhon nakshatron se bhi asragrast hota hai jyotish mein ye ghair wiwadaspad baat hai ”
ankal, mainne to faisla kar liya hai, ab jo kuch hai, yahi hai dusra bachcha nahin karna hain apni naukari bhi chhoti hai isi ko jitni uttam parawrish de sakta hoon, dunga main nahin chahta ye kabhi un bihaD aDachnon ko face kare jo mainne keen
chandrika ko niche gaye thoDa samay ho gaya tha use usse milne ki chinta ho i to hum niche chale gaye batch ki kuch laDkiyan chandrika ka man bahla rahi theen apne apne balbhaw ke sath
dinner ke baad manDal satapti ko lekar baith gai ye daur qarib do baje tak chala ” chandrika kab ki so chuki thi
“papa aa andhere mein uthi tikhi cheekh se utha diya mainne switch board tak ghabrate hue lait jalai
ek ajib drishya samne tha chandrika kisi buri tarah jhinjhoDe gaye shikar ki tarah satapti ki chhati se chipki paDi thi buri tarah bhayakrant aur nirih si jaise koi janwar pichha kar raha ho
hei dekh, seithi para para basidi” (wo dekho kabutar, kabutar baitha hai) laDki ne bhay se hi darwaze ki taraf ishara kiya
“pua kidi nahin kouthi nanhi” (beta kuch bhi nahin hai, kahin kuch nahin hai) peeth thapthapate hue usne ashwast kiya
“na, adi adi, hei dekh seithi basichhi (nahin, hai hai, wo dekho wahan baithe hain) laDki ne bina dhyan diye hi kaha aur phir se dubak gai thoDi der chipke rahne ke baad wo phir bidakkar boli, “dekh dekh, tum upre kete pimpuDi basidanti mote talaku onheidia” (dekho dekho tumhare upar ke liye dam lagane lagi lekin niche dekhte hi chikhi, “hei dekh kete baD musha mite kamuDibaku asudi” (wo dekho kitna baDa chuha mujhe katne aa raha hai)
ye kram koi aadha ghante chala phir uski god mein paDi paDi so gai hamne kamre ki raushani ko jalte hi rahne diya subah jab hum uthe to wo puri masumi se soi paDi thi
naiwar ” gahrai ankhon se munh umethte hue usne kaha
“shayad nai jagah i hai isliye
“ho sakta hai?
lekin doctor ko dikha denge
“han, ye theek rahega
Dau kulkarni hum donon ko bahar bithakar baDi der tak laDki ka muaina karte rahe akele hi raat ki ghatna ki jankari iski wajah thi wo mujhe bhanDara jaisi jagah par rahne ke fayde nuksan ginata raha ye bhi ki kis tarah jyotish ke karan uski daftri zindagi asan ho gai hai baDe baDe afsar use apne yahan bulate hain pe commission ke eriyars ke ek baDe hisse ka upyog usne ek friz kharidne mein kiya hai, baqi se chandrika ke liye yu t i ki rajlakshmi yojna ke kuch sheyar prshant bhai ka katak jana ekdam kam ho gaya hai
chandrika ki kunDli mein bhrad yog aur raj yog donon ban rahe hain doctor kafi time le raha hai
doctor kulkarni bahar nikle to hum donon uchakkar khaDe ho gaye isse pahle ki hum kuch puchhe, hamein sambodhit karte hue unhonne puchha, “chandrika ki faimili mein kya kisi ko epilaipsi hai?
uske baad kya hua? chhoDiye
han, ek do warsh pahle teliwizan par dikhaya gaya ek samachar phir phir kar yaad aane laga
sattar bahattar warsh poorw nirmit ek pachas sath manzi la imarat ko inglainD mein wisphot se dhwast karte dikhaya gaya tha uski rakharkhaw ka kharcha lagat se bhi ziyada paD raha tha imarat girane ki tarkib taknik ekdam adbhut thi puri imarat apne aage pichhe ya dayen bayen nahin gir rahi thi balki apne hi Dhanche mein samaye ja rahi thi goya wo koi retila bil ho
(kathadesh, mai 1999)
widyatr likhita yaऽso lalateऽksharmalika
dewagyastan pathedawyaktan hoshnirmal chakshusha
(sarwalli)
(sirishti rachiyta brahma ne sab jiwon ka nasib unke lalat par khod diya hai, koi parkhi nigah jyotishi hi use paDh sakta hai)
jila bhanDara se khat? wahan mera kaun hai? kahin waishno dewi ya bhabhuti baba ke nam par chalaye ja rahe gumrah abhiyan ki lampat pakaD se nijat pane ke liye kisi ‘ek aur masum shikar ne to nahin likha dam aur danD ki kanphoD DugDugi bajati hui ek chitthi to har mahine aa hi jati hai falan ne baba ke nam par itne parche chhapwaye to kaise use widesh yatra ka yog mila falan ne man ke parchar ki chitthi raddi mein sarka di to kaise skutar hadse mein uski tang chali gai aajiz aa gaya hoon aur sach kahun apni tamam wiwekashilata aur drishtikon ke bawjud in khatron se abhi bhi kahin koi kampan karwat le uthta hai asaphaltaon aur hatashaon ne kitna pidaya hai mujhe kahin iski wajah wo to bhala ho lok sewa aayog ka jisne chhabbis ki umr khisakne se pahle, yaqinan kuch rahm khakar, Dubte ko tinke ka sahara de diya kitne hi din mahine akhbar mere liye, akhbar na hokar rozgar samachar bana raha hai aur Dakiya koi sambhawya dewadut
aur ek din jab wo niyukti patr laya tha to manto ki ‘khol do kahani andar kaise bhabhak paDi thi
aprichit chitthiyon se Dar mujhe yunhi nahin lagta hai
lekin kansal ke sthan par ankal ka sambodhan!
jo Dar kisi sunsan andhere ki tarah atankit kar raha tha, kisi sunahli gunguni dhoop sa bikhar gaya to ye aditya hai yani aditya narayan satapti em e ke dinon ka mera uDiya dost lekin sambhalpur ke bajaye wo bhanDara mein kya kar raha hai chaar sal se bhi upar ho aaya mujhe em e kiye hue
itna hi waqt satapti ko ho gaya hoga dilli chhoDe
khair chitthi paDhta hoon abhi pata lag jayega
“n kulla, na datun, na tatti, na peshab, bus aate hi chitthiyon mein lag gaya gika kahin uDi ja rahi hain, hamteu ziyada jaruli hai, man ne pani ka gilas thamate hue kaha
theek baat thi abhi mainne apne phite bhi nahin khole the apna lambodar bag khane ki mez par patakkar friz ki taraf baDh gaya tha jo ghar mein patron ka aitihasik daDba tha nagpur ki akadami mein chal rahi rajakiy trening se saptahant palayan ka ye ek aur utsaw tha achraj ki baat thi ki aichchhik awkash jaisi cheez bhi prshiksharthiyon ko swechchha ya suwidha se nahin mil sakti thi andhraprdeshi soma shekhar reDDi ko naksali dhamakiyon ka sahara tha to panjab ke gurmit sinh ko ugrwadiyon se rahat milti thi mujhe sahara diya ‘laDki dekhne ne
“are mammy, nagpur se aa rahe hain to apni garlafrenD se tar karwakar chale honge”, ye manai bhabhi theen subah subah apne baink jane ki taiyari mein
apni ziyadati ka ahsas hote hi main sahajta oDhte hue sabki taraf dekhkar khil utha, “man zara chay banao
man jab tak chay lati, main satapti ka khat paDh chuka tha railway mein pi Dablu i sarikhe kaam kar raha tha teen baras se shadi kar li thi aur Dhai sal ki beti chandrika ka pita ban chuka tha sarkari quarter mila hua tha sasur madhya railway mein uchch adhikari hain ajkal Daiputeshan par patni kam hi paDhi likhi hai aur ghar par hi rahti hai mujhe patr likhne ki soch hi raha tha kafi dinon se lekin talta chala ja raha tha kuch roz ke liye patni maike chali gai thi patr purane pate par hi likha kyonki main kahin bhi hoon, mujh tak to wo pahunch hi jayega prshant bhai ka reserw baink mein pramoshan aa gaya hai ekadh warsh yahin aur kat jaye to phir uDisa ki sochi jaye likha tha apne bare mein kafi likh chuka hai ab main khat milne par use apni taza sthiti se awgat karaun shadi waghaira ho gai kya? d school jana hota hai kya
d school yani dilli school auph ikaunomiks bahut kuch awismarnaiy juDa hai is school se sarwottam club ka jaise passport hamare hath lag gaya tha ye wahi to jagah thi jismen jagdish bhagwati, amarty sen, rajkrishna, sukhmay chakrawarti jaise diggjon ki parchhaiyan abhi bhi nazar aati hain dilli wishwawidyalay hi nahin, pure bharatwarsh ka ek ghaurawshali pratik landan school ki tarz par wi ke aar wi raw dwara sthapit yaqinan antarrashtriy sansthan
lekin shuru mein kitna khincha khincha, algaw sa raha tha kitni mushkil paDhai aur kitna begana mahaul jise dekho wahin angrezi baghar raha hai use chahe jane do lekin ye giroh prawrtti kyon? koi bahar se akela aaya ho to wo kya kare shuru ke dinon mein d school ke phatak mein ghuste hi jo utkrishtata bodh ghar karne lagta tha, wahin, class mein talchhat par darka diye jane par, ek durgam hinta bodh mein rupantrit ho jata tha hindu, stifan, shriram aur hansraj kaulejon ki aisi damak thi ki any sabhi doyam aur rabud ghoshait kar diye jate the leDi shriram bhi shayad unhin mein tha
usi manasikta mein jab aditya ko bhi paya to ek naisargik maitribhaw ugte hi pukhta ho utha tha
main rawinsha college katak se”, usne kaha
“main shyamlal college dilli se”, mainne joDa
ye unhin dinon ki baat hai jab hindu college se aaye rakesh goswami ne stifan ke mayank ratuDi ko apne parichai mein sagarw kaha tha, “mere pita soshiyaulauji ke professor hain
“kaun
“tum nahin jante”
nahin
professor dinesh goswami
“abe professor hai to kya meri jhant kutega
main aur aditya theek pichhe ki seat par the aditya aur rakesh bus itna hi jaan pae ki rakesh ko snab kar diya hai panchlain ke nikalte hi meri hansi chhoot bhagi isi babat mayank se dosti ki puri gunjaish dikhi jo sakar bhi hui us din ye bhi lag gaya ki d school ki jin diwaron ko hamne pawitarta se pare ki pawitarta ka darja diya hua hai us par bhi kisi bhades rangrej ne kuchiyan firai hui hain
apne Dagmagate manobal ko is waqiye ne baDi nazuki se sambhal diya tha
mayank ko to isi din se ‘pahaDi ka sarwanam nawaz diya gaya tha
pure heeng kulin mahaul mein apne jaise desiyon ko alag jagah banne lagi thi
ek pakhwaDe ke baad mera namakarn ankal kar diya gaya tha sandarbh tha usi din riliz hui khalnayak film ke plaza mein pratham sho ka samuh darshan
bus staup par hi, aate hue wahan ko dekhkar ek kamsin ne mujhse puchha tha, “ankal, ye bus kanaut ples jayegi
dusse pahle ki main uske parashn ke apattijnak bhag par soch pata, munh se nikal gaya han
us din ke baad se winay kumar kansal ko ankal ke sartifiketon ke siway sabhi jaghon se dhakiya diya gaya tha shuru mein zarur kuch asuwidha lagi man mein khayal bhi aaya ki main bhi auron ko ‘chilam, Dhakkan, ghantu ya ‘aDu jaise samman parosunga, lekin baat kuch ban nahin pai ek do mahine mein hi main ankal ke sath kamfartebal ho gaya tha koi kahta, “sale ankal kal kyon nahin aaya” ya “ankal ziyada chutiyapa mat kar, chal” to mujhe kuch bhi atpata nahin laga
waise bhi mere taklu hone ki shuruat to ho hi chuki thi
han, satapti ne mujhe winay kahna bahut der baad chhoDa wo bhi mere kahne par kyonki ghar par winni tatha d school mein ankal mere awchetan se is qadar chaspa ho gaye the ki winay ke liye jagah hi nahin bachti thi bus teachers apwad the
hum donon pragti maidan ek pradarshani dekhne ja rahe the mal roD se hi mudrika pakaDni thi
“baisab ye bus pragti maidan jayega”, payadan se aage chaDhkar, khali si bus mein, apni tuti phuti hindi ke sahare satapti ne kanDaktar se puchha
“kisi ko bataiyo nai” apne kaghaz par kuch kat peet karte kanDaktar ne bina nazren uthaye kaha
mainne use do rupye thama diye aur lot pot hansne laga satapti bhaunchak aur thaka sa tha utarte hi jab mainne use sootr samjhaya to puri bhaDas ke sath bola, “sala bahut chutiya tha” hamare sath rahkar use is shabd ki sarwbhaumikta ka gyan ho chuka tha bewaquf, thuss ya ganwar se bhi upar ki cheez hota hai
chutiya nahin jat tha wo bhi hariyanwi” mainne samjhaya
hum apni bus ke intizar mein hi the ki tabhi kuch jhijhakte hue wo bola, “winay ek coin ”
main dahal utha mahine se bhi upar hue parichai ke dauran use wahin aadhi bazu ki hari qamiz aur bhadamaili chapplen pahante dekh mujhe uski tanghali ka ahsas to ho raha tha par ye gyan kadachit nahin tha ki wo is qadar phapphas hai
banya banya karti ashajta ke bawjud mainne panch ka ek not uski hatheli se chipka diya “no no e coin wil Doo” pratirodh mein kahin atmasamman bhi ghula hua tha, lekin zarurat us par bhari paD rahi thi
“keep it” kahkar main bina dekhe hi i hui ek bus mein ghusaD gaya
uske baad ek do roz satapti milne par ashaj sa ho jata use lag raha tha wo bahut jald hi mere samaksh nirwastr ho gaya tha
kakshayen subah 9 20 se prarambh hokar dopahar 1 10 tak chalti theen teen baje ke baad ratan tata layabreri (jise sabhi log aar t l kahte the) mein jamne walon ko potuon par gina ja sakta tha satapti hamesha dikhta tha
aise hi ek roz hum kaintin ke bajaye pansinh ki gumti par chay pi rahe the tabhi usne khulasa kiya tha
uske pariwar mein man ke alawa ek chhoti bahan aur hain ganw mein donon ghar bahar mein majuri karke, bans ke chhabDe Daliya banakar guzara karte hain pita bhi mazdur the—bhumihin mazdur, lekin uske do baras ka hote hi we chal base koi nahin jaan paya unhen kya hua tha man ka kahna hai unhen piliya tha sampatti ke nam par ganw ke simane par bani chalis pachas jhompaDiyon mein ek uski bhi hai shuru mein wo bhi ganw mein majuri karta tha lekin kuch dinon baad wo paDosi baDe ganw mein bhi jane laga yahan par ek school bhi tha wahin se usne paDhna shuru kiya
door ke rishtedaron mein ek prshant bhai the jo use paDhne ke liye khoob uksate the man ne kah diya tha, “beta roti ke liye main tujhse aasra nahin rakhti, par paDhai ke liye tu mujhse ummid mat rakhna ” iska natija ye hua ki prarambhik daur mein hi use kai martaba ek hi class mein kai prayas karne paDe gaye school ki fees das ya barah paisa hua karti thi, lekin use bharna kisi wipatti se kam nahin lagta tha
das roz bhukha rahkar bhi lagta tha mahina kitni jaldi aa jata hai kisi ganw wale ki shadi barat mein bharpet bhojan hota tha ek do adhyapak sahrday the, lekin jahan adhisankhya chhatr uski jaisi hi sthiti ke hon to kaun adhyapak kis kiski madad karta
athwin tak ki paDhai use sabse mushkil lagi kyonki uske baad ek to wo sharirik roop se adhik shram karne layaq ho gaya tha, dusre prshant bhai ke pryason se uski fees maf ki jane lagi thi nauwin ke baad prshant bhai ne use sambhalpur ke school mein Dalwa diya tha apne se chhoti kakshaon ke bachchon ko tution dekar wo tabhi se apna kharcha nikalne laga tha 12ween mein sains streem mein rahne ka karan tyushans hi the prshant bhai usse teen chaar sal baDe the aur school hi nahin zile mein bhi pratham aate the pichhle sal hi reserw baink jwauyan kiya hai unhonne je en yu se em phil karne ke baad unhonne hi jaise uske career ki lakir apne qadmon se khinchi hai barahwin mein rajy mein renk holDar hone ke bawjud unhonne hi b s si ke bajaye b e anars karne ka sujhaw diya tha katak ke rawinsha kaulij mein dakhila mil gaya to phir unhonne hi d school ke shaury se use parichit karwaya tha arthshastr ka shayad hi koi nabel lauriyet ho jo kabhi na kabhi wahan bhashan dene na aaya ho, unhonne bataya tha
prshant bhai ki apni sthiti bhi koi theek nahin thi magar wo bahut himmati adami hain aur dusron ko bhi himmat dete hain rawinsha kaulij mein na sirf uski fees maf rahi balki wazifa bhi milta tha jiski bachat se wo dilli aa paya
yahan bhi prshant bhai ne hi gwauyar hall (hostel) ke apne ek uDiya mitr ka use guest banwa diya hai lekin aaj sthiti ye hai ki sir chhupane ko chhat to use mil gai hai magar har sham, khane ke liye, use kuch ‘jugaD karna paDta hai ismen shamil hai apne purane aur hamdam peshe tyushans ki khoj
itna kahkar wo ekdam uth khaDa hua “winay, mainne tumhein sab kuch bata diya hai par tum kisi ko nahin bataoge, mujhe ummid hai ye theek hai ki main apne samay aur jiwan se yudh kar raha hoon, pata nahin kya anjam ho, lekin main saphal hokar hi rahunga ye mera kathin samay hai, lekin har syah raat suryoday tak hi to rahti hai
uske hausale aur safago ka main usi waqt qayal ho gaya tha ganw se chalkar d school aane ka mera graph mujhe behad sangharshpurn lagta tha, lekin satapti ke jiwan ke sammukh wo bahut hi bauna aur aramadayak lagne laga tha
manai bhabhi ko wishwas mein lekar mainne unse satapti ke liye sau rupye mange the, jo unhonne sathi takalluf ke bina hi de diye the idhar pahaDi aur arun nagapal ne milkar uske liye kisi se Dhai sau rupye masik ka intizam karwa diya tha wo uske liye maisadi ke kharche ka pot pura kara deta tha
han ye sab hote hote koi chhek mahine to nikal hi gaye the
december ke akhir tak dilli mein sardi apne yauwan tak aa chaDhti hai aar t l ke tamam khiDki darwaze band rakhne par bhi adhyayan kaksh itna wirat to tha hi ki apne mehmanon ko do do sweater pahanwa de satapti ke pas tha ek ghisa hua mairun rang ka aadha swaitar aur wahi aadhi bazu ki hari dharidar qamiz
magar satapti Data rahta
nawwarsh ke roz bhi mainne use apni usi seat par jama paya jo ab tak uski pait ho chuki thi usi din mainne jyoti bhatnagar ko uski seat par, jhukkar, baten karte dekha tha
apne gaing ki wyakaran ke hisab se jyoti class ki sabse tarmal thi 36 24 36 ki lubhawni akriti sexy sanwla rang theek thak nain naqsha upar se amir satapti beta tarmal khao aur tar jao
satapti ne lekin har bar jirah karne par bataya ki aisa waisa kuch bhi nahin hai “lekin hamare gut mein panchon mein kya tu hi sabse smart hai,” pankaj jaise taraju lekar baitha tha
nahin to”
“to bata phir kya hai tujhmen jo
“main kya kah sakta hoon waise jab kuch hai hi nahin to ,” kahkar wo jaan chhuDane ki koshish karta
hum sab jante the ki donon ke beech kuch bhi nahin tha—shayad kuch ho bhi nahin sakta tha, lekin isi bahane mitbhashai satapti ki tang khinchne mein koi burai nahin lagti thi jyoti ke gudgude konon trikonon se masakhri karne ka shayad satapti ek nayab madhyam tha
pure warsh na to usne kabhi class mein koi parashn puchha tha aur bhagti si hailo se ziyada kisi laDki se baat ki thi iske bawjud bhi wo hamare jaise lukka chhinal gaing ka hissa tha, yahi baat sabhi ko chakit karti thi lekin ye sach tha
em e priwiyas ka result kafi chaunkane wala tha stifan hindu samet b e ke kai dhurandhar tisre khane mein paDe the hum log theek thak pas the pahaDi ki pratham shrenai thi bus satapti luDhak gaya tha
jyoti ne top kiya tha
kitna hi top kar le, ayegi to niche hee” bhaDas tahedil se arun ke munh se nikli thi
“yar ye to ek neech tragedy ho gai
ye pahaDi tha
Dont wari, i wil phait baik
hamare samuhik afsos par satapti ne dileri dikhai thi
aur main to achchhi tarah manne laga tha ki satapti bharpur diler hai ek warsh rahkar wo d school ki sanskriti se eklaimitaijD ho hi gaya tha antim warsh wale bhi bahut log priwiyas ke kai parchon ko amunan hi dohrate the—behtar praptankon ke liye koi ek to koi do kya hua satapti charon parche de dega pahaDi aur arun ka kiya hua intizam bhi ek warsh khincha ja sakta tha gopniyta ki shart par usne mujhe ye bhi bata diya tha ki natijon se pahle hi use nazdik mukharji nagar mein hi ek tution mil gai thi b e ki atः ab wo ziyada datchitt hokar paDh sakega han ye zarur hai ki kuch chizen bina wajah sthagit ho jayengi jab apaki laDai hi samay ke khilaf ho to samay khona un zaruri mohron ko khona ho sakta hai jo antatः uske anjam ko hi bemani siddh kar den
satapti par iska asar saf tha wahi laikchar haal, wahi kursiyan, wahi parche aur wahi adhyapak jo cheez pahle ek mithi ghutti lagti thi, is bar ek kaDwi dawa se bhi badtar dikhti thi lekin maqsad bhi to samne tha sanad thi ki d school se paDha prashasan shodh aur shiksha kisi bhi jagat ki akhiri hadon tak pahunchne ka madda rakhta hai uske liye sab kuch jaise paki pakai kheer ki tarah aata hai aur wo sab jab jab wo uchch shiksha ke liye widesh nahin ja raha hai han, use d school ki ragDai to bardasht karni paDegi sona aag se guzarkar hi to gahna banta hai
ye sab baten jitna har koi janta tha utna hi satapti bhi isliye satr khulte hi usne artiyel mein phir se chaukDi jamani chalu kar di usse wahin khusar pusar batiyate pata laga tha ki jyoti ne apne pichhle sal ke nots use de diye hain aur apni taraf se pure sahyog ka ashwasan bhi
“pure sahyog ka? arun ne shabdon ko khinchkar kaha
“o kam aan,” kahkar wo blash kar gaya
teri isi ada par to wo marti hogi ” ye main tha
baghal mein baithe ek khaDus pathak ne ‘eksakyuj mee kahkar hamari baton par wahin poorn wiram laga diya
in dinon artiyel hi satapti se milne ka wishwasniy sthaal ban gai thi kyonki idhar wo apni kakshaon mein rahta aur hum log apni mein kisi bhi professor ke lecture ko bank karne ki hamari samarthy nahin thi kyonki wahi cheez kisi pustak ya journal se paDhne ka arth tha pure darshan ka safaya aur phir bhi baat utni nahin ban pati thi
lekin tamam mehnat aur ekagrata ke sath sath hamein ye bahut saf dikh raha tha ki hum sahi jagah par hain isliye hausale shayad hi kabhi nabuland hue hon
satapti awashy kuch mujhya muaya dikhta tha
“is batch ke chhatr apne jaise nahin hain ” usne mahine bhar baad natijan kaha tha pichhe chhoot jane ke baad wo apne ko hamare sath tadatmy karta
“sabhi baichij ek se hote hain aditya, d law aaf ewrejij iz deyar ewri wheyar unnis bees ka koi farq ho to ho
unnis bees ka nahin, bahut ziyada ka farq hai” wo aDig tha
“han ek farq to yahi hai ki jyoti ya uske takkar ka mal ismen nahin hai” pahaDi ne chuski li
tum log hamesha ghalat samajhte ho”, wo khinn ho utha
“nahin yar main to mazaq ” pahaDi ne turant palti khai
“ab yar tujhe pure batch se kya lena, tujhe to paDhna hai na aur phir hum log to yahin hain na ” arun ne haule se hastakshaep kiya det i no uske shabd kuch anakhe se the
baad mein arun ne pahaDi ko samjhaya tha ki wo use jyoti ko lekar ‘teej na kiya kare kyonki use lagta hai ki satapti jyoti ko lekar bahut tachi ho uthta hai
waise bhi kahan raja bhoj kahan gangu teli
dashahre ki pakshik chhuttiyan chal rahi theen aar t l jane ke liye main d school prawesh karne wala hi tha ki pansinh ki gumti se jhatka khakar ek awaz mujh tak pahunchi, “ankal”, ye satapti tha mere pure hosh o hawas mein wo pahli bar ankal bola tha do roz pahle hi is mamle mein hamari baat hui thi
“chay pini hai, main muDa to hath ka angutha apne munh ki taraf ingit kar usne puchha
“pi lete hain
chay khatm hone ko thi
mainne dekha wo kuch kahna chahte hue bhi nahin bol raha hai
koi khas baat,” mainne do took puchha
“khas to hai par sochta hoon puchhun ki nahin
is saspains par mujhe kahna hi paDa, “kya baat hai? bol na
kuch kshnon ke liye uske chehre par ek matami sanginiyat pasar gai ya jo pahle se baithi thi aur bhabhak gai
main bhi niःshabd raha kuch pratiksharat sa pata nahin kya hua ise?
“ganw se laitar aaya hai, bamushkil kuch shabd nikle
kya?”
“ganw mein aag lagne se kai ghar nasht ho gaye hain hamara bhi man ne kahlwaya hai ki ya to main wapas aa jaun ya kuch intijam karwa doon
”
”
“ankal kya kuch hailp ho sakti hai,” awaz mein nirih bhaw ris raha tha panw ka angutha jabran zamin se kuch mitti khurachne mein laga tha ankhen, na milne ke prayas mein, idhar udhar bhatak rahi theen
kyon nahin yar lekin yar meri haalat bhi tu janta hi hai sau pachas se ziyada ” mainne pure sahyog aur aspasht bhaw se kaha
isse hi kafi ho jayega,” kahkar usne apni jeb se ek kaghaz nikalkar mere aage kar diya koi 20 25 nam the
“d list begins wid yu,” shabdon mein anchinha sukun sana tha pahaDi, arun aur pankaj ke bhi nam the jyoti bhi thi, halanki kafi niche
der raat tak kashmakash kar list banai gai lagti thi
kuch roz baad, mauqa milne par, uski anupasthiti mein jab mainne apni chaukDi mein baat chalai to pahaDi mujh par biphar paDa
“ankal, tujhe jo help karni hai kar de wi aar not going two Dish out e singal paini ” pahaDi ka itna kroor aur nirnayak rukh
“ganw mein uska ghar jalkar rakh ho gaya hai ” mainne pahaDi ko thanDa kar, apni sanwednayen adhik prakat karte hue kaha
so what?
“so what ka kya matlab yar satapti apna yaDi to raha hi hai
“yaDi hai ankal tabhi to hamne hamesha uske liye socha hai tune mujhe kabhi nahin bataya, lekin mujhe pata hai tubhi uski madad karta raha hai dait is so good auph yu bat nau hi iz teking as phaur e raiD wi haiw auwar limiteshans ” wo jaise kuch kahte kahte jhallahat mein ruk gaya
main jaise kisi daldal mein phans gaya tha meri niyat to saf thi magar pahaDi ki baat bhi kuch kuch anch rahi thi pahaDi ka ye waky ki pata nahin is aag wali baat mein kitna sach kitna jhooth hai mujhe kharab nahin lagi
hamne tay kiya ki is babat aage koi baat nahin hogi kuch dinon satapti d school mein nahin dikha, lekin jab mila tab wishay sambandhi chhutput spashtikarnon ke alawon hamare beech koi baat nahin hui
akhiri dashak ke purwansh ki february ki ek sham thi americi arthashastri gaulbaith ka abhibhashan hua tha tab hum sabhi ne khoob mast hokar thahake lagaye the ek kone mein aath das log ghera banakar chay ke sath gapiya rahe the
“gaulabraith ko to ab gal bajana band kar dena chahiye
kyon bhai kyon
“buDDha koi nai baat to karta nahin hai ephlyuent society ke baad batao isne koi Dhang ka artikal bhi likha ho
“ab dekho pahle baat karta tha punjiwad aur samajawad ke ekikarn ki d great theory off kanawarjains dekh lo aaj kya ho raha hai ”
“bhai thyauri iz thyauri it kain go rang
“yahi to apatti ki hamara arthshastr game thyauri aur phalan thyauri bankar rah gaya hai jiwan se juDna to ise pragaitihasik lagta hai har, kisi sthapana ki neenw mein hi hamesha hawai manytayen
us hisab se to gaulabreth hi kyon aur bhi bhutere gin lo
“han, mahalaunobis bhi lekin uski sthapnayen ghalat nahin thi nehru ne unke kriyanwyan ke liye jo Dhancha chuna, wo hi un par bhari paD gaya ”
“yah tumhari sthapana nahin, manyata hai
tum kuch bhi samjho waise bhi aaj ke arthshastr ne donon ke beech koi farq kahan chhoDa hai jo aap sthapit karna chahte hain use pahle hi man lo aur phir ek khubsurat model ke zariye use sankhyiki ke anjar panjar se Dhanp do
kisi bhi nami girami hasti ke abhibhashan ke baad is tarah ki khatti mithi Dakaren aksar hi li jati thi satapti aisi kisi bhi bahs ka bhagidar na hote hue bhi pura ras leta tha
shayad inhin kshnon mein wo d school dwara use tipai gai ghinauni nakami ke dansh ko jhelne ki shakti talashta tha yahi uska jiwat tha
lekin is warsh ke natijon ne phir se hamein stabdh aur jhakjhor diya satapti kisi bhi parche mein pas nahin tha udhar pahaDi ne khoob nambar khinche the arun ke Daut chalis fisadi the, lekin isse pahle hi wo prashasanik sewa ka niyukti patr le chuka tha mera natija bhi kharab hi tha kyonki kaulij prawakta banne ka mera sapna ek pratishat nambar kam hone ki wajah se pura nahin ho sakta han, research waghaira mein zarur kahin khap sakta tha
lekin satapti wo ab kya karega hoshiyar bhi hai mehnati bhi itna phir bhi ye hashr pura tabsira karne baad hamein yahi kahkar sab karna paDa ki har sal d school jin do chaar achchhe achchhon ko thikane lagata hai, to satapti ko bhi laga diya
puar phailo, aur kya
un dinon ke baad se zindagi ruki ho ye kaun kahega balki uske baad to uski raftar aur phanya phanya ho gai thi pahaDi uchchatar shiksha ke liye inDiyana wishwawidyalay chala gaya tha arun ko manaipur kaiDar mila tha aur pankaj ne ek hi jhatke mein teen teen bainkon ko kwalifai karne ke baad state baink jwauin kar liya tha mujhe ek baDe sansthan mein shodh sahayak ki naukari mil gai thi, jiski mez kursi pustakalaya ka pur upyog mainne siwil sewa pariksha ke liye kiya tha aur ghis ghiskar us makam tak pahunch bhi gaya
prarambhik prashikshan ke liye jagah mili thi nagpur
satapti ka un dinon ke baad se hi kuch pata nahin tha
ajab sanyog yani satapti se baqayda mulaqat ho sakegi bhanDara to wahan se nazdik hi hai khat band karte karte ek pulkit bhaw mujhmen prawesh kar chuka tha mainne dilli se hi use jawab de mara nagpur akadami ka apna pata bhi sakht hidayat di thi ki apne railway mein hone ka fayda uthakar yathashighr mil le maza ayega khoob baten karenge
aur sach, meri apekshaon par wo ekdam khara utra nagpur wapsi ke dusre roz hi pattha samne tha waisi hi garmajoshi aur ‘satapti khilkhilahat (do chaar aur uDiya mitron se milne ke baad aaj kah sakta hoon, zarur iska srot wahan ki zamin hi hogi) waisa hi sanwla rang chehra pahle ki bajaye bhara hua pet thulthul hone ki adrshy taiyari mein juton ke chamDe ko dekhkar bhi lag gaya tha ki ya to sarkari hain ya saste asthaniya
samacharon aur suchnaon ke almast badla badli ke baad hum phir phir kar d school aur usse juDe har shai par apni chonch chiknate rahe
“are milna to door ab to chitthi patri bhi nahin hoti hai mera to tum jante ho wahi sthai pata hai, lekin jab sale dusre hi nahin likhte to aur kya ho sakta hai? lagta hai sab apni biwiyon mein mast ho gaye ”
“waqt hamara sab kuch badal Dalta hai aur kaise badal Dalta hai iska bhi abhas nahin lagne deta hai ab mujhe hi lo
“han yar d school ke baad tumne kya kya kiya, ye main pahle hi puchhna chah raha tha ”
mere puchhne par, batane ke pahle, usne bahut door antriksh ko dekhne jaisa bhaw kiya man hi man ek do bar shayad kahan se shuru karun jaisa prayatn kiya mujhe uksana paDa “batao batao
“d school ne jitna mujhe diya shayad utna le bhi liya prshant bhai ne wahan ka adbhut sapna mere andar jaga diya tha aur jab wahan mera eDamishan ho gaya to ewrest sikhar par chaDhne par tensinh ko hui khushi ko mainne jazb kiya tha
rawinsha kaulij ke prinsipal chhotray sahab ne meri peeth par hath phirakar shabashi di thi pichhle panch warshon mein d school jane wala main pahla chhatr tha pahaDi, arun, pankaj aur tumhare jaise dost mile ek se ek mahan aur sadgi poorn adhyapak kitna nishchhal aur kamptitiw mahaul ”
“jyoti bhatnagar jaisi dost ” uski sangin hoti pheharist ko mainne qatar ke halka kiya
“han jyoti bhatnagar bhi usne bina santulan khoye swikar kiya
ye mere liye nyooj thi
main soch raha tha ki wo meri masakhri ko har bar ki tarah apni tang khinchai roop mein hi lekar ek taraf chhitak dega
“to kya tum donon beech waqi kuch tha?” mere antas ke thahre hue ashankit Dar mein jaise kuch halchal hui jyoti apan se harafanmaula behtar thi lekin koi apne se doyam use uDa le jaye wo bhi to sarwatha anuchit tha
“tha bhi aur nahin bhi,” apni hansi ko thoDa riliz karke usne wapas kheench liya phir bola, “lekin aaj sochta hoon, bahut kuch ho sakta tha
kaise? main mudde tak pahunchna chah raha tha, utsuk aur ektak sun raha tha
“wah bahut hi samajhdar laDki thi bahut hi samajhdar ”
“ab asli baat par bhi ayega
“pratham warsh mein phlank hone ke baad ek din usne mujhe rokkar kaha tha ki apne top karne ki use utni khushi nahin hui hai jitna mere phel hone ka duःkh main hairat mein aa gaya ki jis laDki se ‘halo hay ke alawa ek shabd ka adan pradan na hua ho, wo kaise itni taral bhawna se soch sakti hai lekin usi ne bataya ki wo hamare gut mein meri maujudgi ko bahut chupchapi se lakshya karti rahi hai wo isi baat ki qayal thi ki ek nambar ke bhadeson ke sath rahkar bhi mere munh se kabhi tuchchi baat nahin nikli dusre klasmets bhi, jikr aane par, mere bare mein achchhi ray hi dete the tumhein malum nahin hoga, apne class nots bhi usne apne ghar yani gretar kailash bulakar diye the uska ghar, bap re, kya alishan tha use dekhkar mainne socha tha ki panch sitara bhi shayad aur kya hote honge uske pita fauj se brigeDiyar retire hokar do chaar baDi kampaniyon ke salahakar ho gaye the man ek kapDon ki niryat farm chala rahi thi ekmatr bhai baDa, america mein qanun ki paDhai karne ke baad kisi mashhur farm ke liye kaam kar raha tha d school mein wo jitni mitbhashai thi, apne ghar par utni ki garmjosh aur batun uski pahal ko dekhkar kai bar mainne apni qimat ko dhanyawad diya d school aana bhi jaise uske sanidhya mein hi sarthak ho gaya pata nahin kya sochkar usne mujhe dilasa di thi ki d school hi duniya mein sab kuch nahin hai main wishwawidyalay se law kar sakta hoon jiske baad kisi bhi siniyar wakil ke sath kaam mil jayega
main uske sneh se wiwash hokar us taraf jane na jane ki uhapoh mein hi tha ki tabhi ganw mein aag lagne ka hadasa ho gaya tum log to kisi karanawash kuch nahin kar pae the par main itna majbur tha ki jyoti ka hi sahara usne bina koi sawal kiye teen hazar mujhe thama diye the, jo us wipda se nibatne ke liye paryapt the
“uske baad, ankal, mujhe arthshastr jaise wishay mein ruchi kam sanshay adhik hone laga mujhe pata nahin kyon aur kaise lagne laga ki upbhokta wikreta aur arthawywastha ke jin mauDals aur samikarnon ko ikaunaumaitriks ke zariye d school hamein sikha raha tha unmen kitni mulabhut gaDbaD hai, jhooth hai jin samikarnon ki ot mein mujhe ganw mein apni jali hui jhopDi dikhti thi, ho sakta hai, jyoti ya pahaDi ko usmen, usi samay yojna aayog dikhta ho aur ho sakta hai donon hi apni jagah theek ho to phir ye majara kya hai
“main manata bhi tha ki is manasik bunawat mein ek ghatak kachchapan hai lekin apni haalat ko jab main jyoti ke sath rakhkar dekhta to yahi lagta ki taqdir ya qimat nam bhi koi cheez hoti hai jo hum sabki zindagi hi nahin zindagi ke aage pichhe ko bhi tay kar deti hai
“tumne dekha hoga, main kitni nishtha aur lagan ke sath paDhta tha dusre warsh mein to d school ki kary paddhati ki bhi kafi kuch khabar ho gai thi (kam likho, samikarnon mein baat karo) lekin us Dhalan ki raptan ne na mujhe sans lene di, na sidha hone diya natija to wahi hona hi tha jo hua ”
“phir kya hua?” mainne aise puchha jaise koi pari katha sun raha tha
“prshant bhai ko jab pata laga to bahut dukhi hue the unhin dinon madhya railway mein tarah tarah ki rikttaon ka baDa wigyapan unhonne dekha tha arhata thi barahwin mein wigyan wishyon mein kam se kam 50 pratishat ank bus bharwa diya han, sakshatkar ke samay madhya railway mein hi uchchasin uDiya afsar se parichai nikala gaya phaur yor inphaurmeshan, wahi mere sasur hain manasi nam hai patni ka shadi ka sara kharcha unhonne hi uthaya tha
itna kuch bolne ke baad bhi mujhe laga satapti kuch kahte kahte ruk gaya hai main bhi kuch nahin bola, munh latkaye dekhta bhar raha
kuch sochkar wo phir bola
“i think i shuD not hail yu dis
pata nahin kya paheli bujha raha hai nahin hi batana hai to bhumika kyon bandh raha hai
“i wil not prais all aptu yu,” mainne sahj hokar use sahj karne ke liye kaha hostel bye dopahar baad wali chay le aaya tha kamre mein kap ek hi tha apni chay mainne gilas mein bharwa li main to chup tha hi par usne bhi maun sadh liya chay ki suDak suDak bahut bhari hokar kamre ki niःshabdta bandh rahi thi
chalo tumhein apna campus dikhata hoon
mere sujhaw ne jaise bahut sulahpurn marg nikal liya tha
siDhiyon se utarkar hum layabreri ki taraf muDe hi the ki chuppi toDte hue usi ne puchha, “ankal tumhari janm tithi kya hai?
kyon?”
batao to
“gyarah june tumhari?
bees january
yahan tak ki adla badli koi burai nahin thi doston ko ye pata rahe to achchha hi hai
“tum apna ayaDiyal kise mante ho?
“waise to kai ho jayenge, lekin kisi ek ka nam loon to wo honge mahatma gandhi ” mainne uttar to diya lekin samajh nahin pa raha tha ki wo kya sootr bhiDa raha hai
honge hi usne kisi diwy gyan ke wishwas se kaha
“abe bus kar, bahut ho gaya,” darasal uske uttar mein mujhe kisi phoohD totke ki bu se adhik kuch nahin laga tha
“gyarah june hi bataya tha na ek aur ek kitne hote hain, do na aur gandhi ji ka janm diwas kya hai do aktubar ” meri kheej par usne tark kasa
usse bhiDne ki yahan kafi gunjaish thi lekin mera qati mood nahin tha teri janm tithi ke ankon ka yog bhi to do hi banta hai gandhi ji tere adarsh nahin hain kya ?
usi ke shastr se khelne par mujhe apni pragalbhata par guman ho aaya
yog to do hi banta hai lekin sath mein zero aane se sari gaDbaD ho rahi hai ”
jo ab kuch nahin to yahi shagufa khair bachkar kahan jayega?
layabreri se pahle ek sukhi hui nali thi jis par ek puliya bani thi saf sapil dekhkar hum wahi baith gaye
“kya gaDbaD ho rahi hai bhai tera jitna kathin waqt tha, guzar gaya naukari mil gai ghar hai, pariwar hai aur yoon dekho to kuch na kuch to zindagi bhar laga hi rahta hai ” mujhe laga mainne apne anubhaw se par jakar kuch kaha hai mere jawab par pratikriya ke bajaye wo bola, “wo baad mein pahle tum apni janm tithi ke ankon ka yog karo 11 june 1972 hi hai na kitna hua 27 yani nau ab gandhi ji ki janm tithi lo, 2 october 1869 hi hai na kitna hua 27 yani nau ”
main yaqin nahin karna chahta tha, lekin uske tark ne phir bhi mujhe nishkwach sa kar diya bina kisi poorw suchana ke mere aur gandhi ji ke beech usne jo sootr bandha tha wo kitna hi birbal ki kheer ho, utna be sir pair nahin tha jitna main soch sakta tha
mere munh se bus yahi nikla
to tum kya jyotish waghaira ko mante ho?
“manata nahin, janta bhi hoon apne hisab se kuch kuch, dusron ke hisab se theek theek ”
“tum iske chakkar mein kaise aa gaye yar kahan d school ka paDha arthshastr aur kahan jyotish whaut iz d kanaikshan main ” mainne sarasri chutki li
“kanaikshan bhi shayad d school hi raha hai main tumhein bata raha tha na ki dusre warsh mein khu aur duniya ke arthshastr ko lekar main ek nishchit mohbhang ki giraft mein aa gaya tha mainne bataya tha ki nai mukharji nagar mein main ek tution paDhane jata tha taki d school ke liye apna intizam sudriDh bana rahe laDki ka nam diwya tha pita ka nam dushyant kumar paDhane mein to khair mujhe boriyat hoti thi, lekin main kaun sa shauqiya paDha raha tha dushyant kumar jyotish mein gahan ruchi rakhte the diwya ko paDhane ke baad hum log roz hi jyotish par Dher sari baten karte ab dekhun to ye lagta hai ki apaki jyotish mein ruchi hogi ya nahin ye bhi apaki kunDli se nirdharit hota hai, lekin tum ye man sakte ho ki dushyant kumar ji ne hi mere rujhan ko is taraf kiya aur dushyant kumar ji tak pahunchne ke liye d school hi zimmedar tha unhonne hi pahli bar meri janm kunDli banai thi aur tabhi bhawishyawanai kar di thi ki meri naukari aur shadi lagbhag sath sath honge, surya aur shukr ke ek hi bhaw mein rahne ke karan halke ishare se hi unhonne bataya tha ki tab tak shani ki awastha shubh nahin chal rahi thi
“tabhi se pri aurDenD ya bhagya jaisi cheez par mera bharosa baDhne laga ab pichhle chaar salon mein to kafi kuch pata chal gaya hai gyan, anubhaw aur antarbodh ka jyotish mein bahut mahatw hai lekin i tail yu wan thing ha estralauji iz e mor parfaikt sains dain ikaunomiks
angrezi mein kaha antim waky kisi falsafe ki tarah nahin ek sakar jiwan ras ki tarah tapka thaः bhaw bhangima ki pitch ka giyar ekdam aage badalkar
ye ek aisa mudda tha jismen apni nai bhades manDli yani mujh samet soma shekhar reDDi, gurmit sinh, arwind jain aur ashok dahiya ki agadh dilchaspi thi thi ya mala malaya jyotishi hostel mein uplabdh hone se ho gai, nahin kah sakta sabhi abhi tak parampragat arth mein kunare the aur ek sammanit naukari ke sher par sawar hokar sundar, medhawi, amir aur pariwarik ke chaukhate mein gaDhi koi kanya bazar mein na mil pane ke karan ek anrebal egzit ke liye amada ho rahe the isiliye, jyotish sharnam gachchhami
aur sachmuch, satapti ne hamari puri manDli par apni jadui samarthy ke jhanDe gaD diye janm tithi, janm samay aur janm sthan bus inhin teen chizon ke sahare pahle wo ‘jo ho chuka hai par tippanai karta, harek ki manowritti aur manodasha ke bare mein wishisht baten kahta, uske baad aage kya hoga par hast rekhaon ka purak sahara banakar apni bebak ray deta usne ye bhi swikarokti ki ki uski bhawishyawanai, ho sakta hai, puri tarah sach na nikle kyonki jyotish ek mukammal wigyan hote hue bhi poorn se kuch kam jankari ki khurak par hi chalta hai jaise kisi shahr ke akshansh rekhansh ek hi hote hain, jabki shahr ka bhugol kafi phaila hota hai waghaira waghaira
sham bahut pahle ja chuki thi apne bhanDara lautne ka ultimatum wo bahut pahle hi de chuka tha hum donon hi hote wo kab ka nikal chuka hota magar yahan to wo afasron ki sewa karne ka punny kama raha tha
mais mein bacha khucha khana tha abhi tak darasal usne baten bhi bahut sarwajnik taur par hi ki theen jabki har koi chah raha tha ki pariwarik aur niji suchnaon ke adhar par wo pratyek se sirf niji baten kare aur ye sab raat der raat ko hi sambhaw tha din bhar to yoga piti se lekar kampyutar mein jute rahna paDta tha—bajarbattu course Dayarektar ki talkh nigahon ki pratichhaya mein
isiliye ‘ruko yar chale jana ho raha tha main kisi aur din aa jaunga enD wairi shartli kahkar usne hamein ashwast kiya lekin is mahaul mein mainne ye bhi lakshya kiya ki ek pratishthit sewa ke itne sare afasron ki sangat kahin na kahin uske aham ko bhi sahla rahi thi dopahar jab aakar abhinandan se khush hokar lipta tha tab ek gooDh waky bola tha, “yu haiw Donne d school prauD,” main chup hi raha tha lekin uske ek nakamayab d skuli hone ke santras ko shiraon ne mahsus kar liya tha
station ke liye main use ऑto tak chhoDne ja raha tha
“ruk jata yar ek raat yahan kya farq paDta masti karte pata hai, yar ko hostel mein b eph ka bhi intizam ho jata hai ” mainne anyamnask chutki li
“nahin ankal, raat ko mera ghar pahunchna zaruri hota hai
itne adarsh pita aur nishthawan pati ”
nahin ankal, wo baat nahin hai ” kahkar wo ruk gaya aise hi jaise hostel mein kuch kahte kahte ruk gaya tha lekin pal bhar mein hi mujhe uski awaz sunai de gai
“tum aipilaipsi ke bare mein jante ho?” usne, jaise shabdon ko pakaD pakaDkar kaha
mainne bus prashnakul mudra mein chalte chalte use dekha
aipilaipsi yani mirgi meri waif ko wahi hai,” kahte kahte uske gale mein jaise phans aa gai
mere qadam kisi jhatke se ruk gaye
jaise kath mar gaya ho unhen
station kahkar, bina kisi purwanuman ke main bhi uske sath tabhi aakar ruke ऑto mein dakhil kar gaya meri zuban jaise talu se chipak gai thi mujhe pata nahin kyon khayal aaya ki is shakhs ko, jise main d school ke dinon se janta hoon, jo aaj lagbhag pura din mere sath raha hai, main janta hi nahin hoon
lekin sheeghr hi main uski manःsthiti ki bhayawahta anubhaw karne laga kuch kahte hi nahin ban raha tha yaron dwara use der kara diye jane par jugupsa umaDne lagi
kuch himmat jutakar samany sa bankar, mainne dauDte ऑto mein hi uski taraf gardan pheri wo ektak bahar tak raha tha, saiD ke danton se nichle honth ki parat udheDta hua yaqinan yahi baat uski zuban par dopahar bhi aate aate rah gai thi uski janmatithi mein i zero ki gaDbaD ka rahasy bhi kahin yahi to nahin, socha
bhanDara ki taraf ki train aane mein thoDa time tha main itna wichlit tha ki chup tha kuch ubarkar chay pioge nikala to uske chalo ke sath dene mein ziyada hichak nahin ki
mere wajud par chhaye bojh se shayad wo ittifaq karne laga tha tabhi to chuppi toDte hue bola, “shadi se pahle se hi balki bachpan se hi use ye shikayat hai mujhe tab pata chala jab uske pet ko teen mahine ho gaye the pahle mahine mein hi ho gaya tha meri naukari ko chalu hue chhah ek mahine ho aaye the april ke akhir din the mausam mein thoDi ghutan si thi sham ka samay tha main track se lauta hi tha ki kichin mein Dabbon ki bhaDam bhaDam ke sath ek dhamm si awaz bhi hui mainne lapakkar dekha manasi ulte munh paDi thi pura sharir lakDi ki tarah khincha hua mainne sidha karke pani ke chhinte mare lekin uska chehra kisi mritak sa bhawahin bana raha upar se ankhen khuli huin
mainne socha zarur heart ataik paDa hai lekin naDi mein gati thi thoDi dare mein hi uske munh se thook bahar aane laga gardan ek taraf khinchne lagi sharir kisi aniyantrit shakti ke prakop tale akaDta aur shithil hota gaya praignainsi ke arambhik daur mein har istri ko ulti matli jaisi pareshani hi hai, ye main janta tha ahiste use uthakar bistar par Dala aur ek gile kapDe se chehre mathe ko sahlane laga
mainne dekha satapti us dushya ko uski ek ek bariki se ujagar kar raha tha jaise wo phir se uske muqabil ho pura sharir lakDi ki tarah khincha hua jab kaha to uski sidhi bhuja jhatke mein akaD hi gai thi
“koi aadha ghante baad jab wo samany hui aur apne ko meri jandhon par pakar kuch sashankit dekhne lagi to mainne pyar se muskurakar puchha, “kan hoithila (kya hua tha)”
“mote bajhue (ye mujhe hota hai)”
“kan hue (kya hota hai)”
mun janai ni (mujhe nahin pata)”
usne bhi tab baat ko i gai kar diya, lekin jab bhanDara railway Dispainsri ki doctor ko ‘jo jo dekha, hua bataya to usne yahi kaha “ap inke papa mammy ko bula laiye tabhi kuch pakke taur par kaha ja sakta hai
“lekin kya hua hai doctor sab?
“ ki kya problem hai
“kya problem hai
ye to tabhi kaha ja sakta hai jab puri kes history ka pata lag jaye
“mujhe laga mainne doctor se faltu mein hi puchha kes ko aur jatil bana rahi thi us thoDi der ke hadse ke siway manasi ka sab kuch samany hi tha lekin mainne apne sasur sab se baat ki to unhonne yahi kaha, main kal pahunchta hoon ”
doctor ke pas jane ki naubat hi nahin i unhonne saf swikar kiya, beta, manasi ko bachpan se hi do chaar mahine mein aisa daura paDta hai ise aipilaipsi ya mirgi kahte hain bahut ilaj karwaya hai all inDiya se lekar haridwar ke waidy hakimon tak ka kam hua hai, lekin gaya nahin bahut se Dauktron ne hamein yahi samjhaya ki shadi hone ke baad, kai martaba iska swatः nidan ho jata hai tumko Dark mein rakha ho aisa nahin hai hamara jo farz tha, kiya baqi qimat se kaun laD sakta hai
“jab unhonne sab kuch saf saf bata diya to use zara bhi chhalawe bhaw ne nahin Dasa qimat ko lekar wo jyotish mein bahut samajh samjha chuka tha abhi tak ki puri zindagi khu gawah thi manasi ke pita ne intrawyu mein madad nahin ki hoti to, d school ka chhika pita wo, kisi bhi layaq na rah gaya tha prshant bhai ne khoob margadarshan kiya, lekin shadi ho jane ke baad wo bhi kafi begane se ho gaye the waise bhi kab tak sahara dete wo man abhi bhi ghisat ghisatkar bahan ka pet pal rahi thi—meri chaar paise ki naukari lagne ki masum ummid mein ”
manasi ke pita ko kabhi doshi nahin man sakta hai satapti
train aa chuki thi, lekin nagpur baDa haalt tha isliye usne apni baton ko train mein chaDhne ki jaldi ke karan nahin sameta ulte mujhse kaha ki abhi train chhutne mein dasek minat hain main ja sakta hoon ghante bhar mein to bhanDara aa hi jana hai station par hi quarter hai, phir aunga
bhanDara aur nagpur se nazdik aur kya hoga kitna achchha raha jo aaj mulaqat ho gai chalo
satapti ke is ghatnapurn aane jane ko kai saptah ho gaye the rawinsha kaulij aur shyamlal kaulij ke ‘utpadon ke roop mein hue aapsi parichai ke samay se hi in chaar salon ke anishchit antral ke bawjud, wo hamesha apna sa laga hai bees baras baad milta tab bhi sambhwatः wahi naikaty bhaw rahta
use chhoDkar jab hostel ke apne bistar par, ek tufan ke guzar jane ki shanti se, khes tanne laga to isi bhaw ne mujhe oDha na bad qismti ne iska pallu chhoDa hai aur na isne apne jiwat ka
koi DeDhek mahina ho chuka tha apni manDli use phir se bulane ke liye kai bar agrah kar chuki thi charon uske murid the uske bare mein jo jyotish nishkarsh satapti ne diye the aur bhi kai gyaniyon ne diye the unhen ye baat bhi kam appeal nahin karti thi ki jahan wyawasayik jyotishi apni pet puja ke liye sachcha jhutha bolte hain ya bol sakte hain, satapti ke sath waisa kuch bhi nahin hai wo ekdam nishpkat hai aur jyotish mein to yahi dushprapy hota hai
aise hi ek sham ka waqt tha baiDmintan khelne jane ke liye hum apne jute janghiye tan chuke the tabhi satapti aa gaya uski teen warshaiy beti bhi sath thi pichhli bar mainne usse kaha tha ki koi tinek mahine mein nagpur prashikshan pura ho jayega ‘posting dekho kahan milti hai
lekin bhawishya mein sampark banaye rakhne ke liye hum katibaddh ho chuke the
uski beti chandrika sakuchi, jhempi hokar apne papa ke dost ke ghar ko bahut ajnabi pa rahi thi na anti, na bachche, na sofa, na t wi “tum yar is samay thoDi der baad bhagne ki baat karoge,” mainne smriti ke sakshy kaha
“no no Daunt wari main raat ko bhi yahin rukunga tabhi to beti ko bhi sath laya hoon ajkar bhanDara mein ghar se kuch log aaye hue hain mujhe shahr se kuch saman samun bhi lena tha to socha ”
manDli khush ho gai sham ki baiDi bhi miss nahin hogi
manDli chandrika ko lekar court ki taraf jane lagi to satapti ne guhara, “ankalaku hairan karibu nahin (ankal ko tang nahin karna)”
ek kaam chalau kaintin pas hi thi jismen sham ke waqt hi kuch raunaq hoti thi
zara dhyan se hum log abhi aate hain,” mainne jain ko kaha
“o Dont yu wari partnar sare log ikatthe thoDe khelenge
unke jane ke baad satapti ne apne hathon mein sambhale bhadamaile jhole se kuch kaghaz patrak nikale aur thamate hue bola, “tumhari janmapatri banai hai, ye lo
“kya kahta hai tumhara jyotish mere bare mein?” mainne upar se hansakar, antas se ashankit hokar puchha
“tumhare sath jo chizen der se ho rahi hain, jaise der se siwil sewa mein aana ya wiwah, uska karan hai tumhari lagn rashi mein chandrma ke sath sath mangal ka baithna chandrma ke karan tumhari ichhayen ya shubhkamnayen siddh to hoti hain lekin mangal ismen aDchan Dal deta hai lakili, chandrma bali hai isliye kaam bigaDta nahin hai ”
“achchha
main aur kahta bhi kya bus sunne ko samarpit ho raha tha dekho kya kahti hai apni qimat
“mangal ek papi purush grah hai jabki chandrma ek shubh istri chandrma man ka grah hota hai atः ankal tumhare andar manobhawon, sanwednaon aur kalpnashakti ki kami nahin rahegi chandrma kark rashi ka swami hai jatak ki kunDli ke wibhinn sthanon yani gharon mein hone se iska asar bhi alag alag ho jata hai kunDli ke pahle, chauthe, satwen aur dasmen grah bahut shaktishali hote hain tumhari kunDli mein, ye dekho teen jagah to wahi grah wirajman hain jo unke swami hain aur ek jagah baitha hai daswen mein, rashi ka samagrah isliye sab kuch shubh hi hota hai
“pata nahin yar, mujhe to shayad hi koi cheez bina papaD bele mili ho, mainne gahri sans khinchkar uske prarup se apni mamuli ashamti dikhai
“wah isliye hai ki tumhare barahwen grah yani dwadash mein budh ke sath sath shani bhi upasthit hai jahan se wo chauthe aur nauwen sthan ko dwipad drishti se dekh raha hai ab chautha grah nirdharit karta hai shiksha aur pariwarik sammilan aur nauwan grah tay karta hai dhan dhany aur pitrisukh is karan, ab tum is kendriy sewa ke liye ghar se bahar aa gaye ho, to wapas pariwar ke sath rahne ki kam sambhawna hai abhi tumhein dilli posting mil bhi gai to sarkari quarter mein rahne ki prabal sambhawna hai
apni jyotish ki shabdawali mein wo pata nahin kya kya ghoshnayen aur bhawishywaniyan kiye ja raha tha kabhi kunDli wale kaghaz ko phir se dekh kuch ginne lagta aur kabhi hath ki rekhaon ko ghaur se dekh apne nishkarshon ka taratamy bichhata apne jhole se panchang bhi ekadh bar nikala jismen agle pichhle sau sau salon tak ki samay saranai bani hui thi bharat ke chhote baDe chaar panch sau sthlon ke ankshash rekhansh bhi diye gaye the—wahan hone wale suryoday ke samay ke sath
“guru ye batao shadi ka kya hai,” umr ke ghalat taraf dhakiyaye jane ka bhaw bahut dil se tha
“ek sal mein ho jani chahiye ” usne kuch ganana karke bataya
mere man mein aaya kahun “maharaj, ise thoDa jaldi karne ka koi upay
lekin kaha, “aur kuchh?”
“mainne kaha na, tumhare sath achchhi chizon ke wilamb se hone ka yog hai tumhari hone wali patni sundar to hogi hi, 99wen pratishat sambhawna hai ki warking bhi ho uske do bhai hone chahiye wo sains graduate hogi aur tumhare bachche bhi der se honge lekin medhawi honge
mujhe laga usne mere (aur meri chintaon) bare mein kafi kuch bata diya hai uski kisi bhi baat ko asaty manne ki himmat nahin paD rahi thi “aur d school ki yaad aati hai kabhi” mujhe samajh nahin aaya ki khuli hui kunDli ke samaksh hi mainne ye parashn kyon kar Dala sambhwatः jyotish se bhigi hui dhundh ko chhantane ke liye ya satapti se un gungune dinon ki mithi baten karne ke liye jinse main aaj tak nahin adhaya
“auph course auph course d school mein hui ghor asphalta ke bawjud mujhe ye kahne mein koi sankoch nahin ki meri zindagi ka wahi sabse uncha maqam raha hai wahin mainne zindagi ko ek wishal paimane par uski tamam utkrishttaon ke sath dekha tha mere andar us waqt ki sunahli yadon ka aaweg aksar hiloren marta hai aur main chhatapta jata hoon in phaikt, tumhein bhi khat mainne isiliye likha tha ki
apni baat ki disha ko kuch moD sa dene ki khatir usne apna waky bhi adhura latka diya thoDa hil khisakkar diwar par let gaya, bayen kan par hatheli se tek lagakar
“ankal imandari se kahun to d school aaj bhi mere sapnon mein basta hai jyotish bhi mera jiwan dharm ho chuka hai, lekin kuch bhi d school ko mujhe nahin chheen sakta hai aur dekhana ye sapna zarur sakar hoga mujhe pura wishwas hai ki chandrika d school se paDhkar niklegi ye sab mainne uski janm kunDli mein dekha hai tumhari tarah uska bhi chandr grah bahut bali hai pratham bhaw mein aur wahan se chauthe ghar mein ashray mila hai budh ko chauthe ghar se shiksha tay hoti hai aur budh ek aisa grah hai jo shubh ke sath shubh aur papi grah ke sath papi ho jata hai isliye chandrma ke prabhaw mein ye shubh phal dega pata hai ye paida bhi somwar ko hui thi isiliye iska mainne nam chandrika mere liye to ye abhi se saubhagyashali ho rahi hai pe commission ke eriyars mujhe iske janmdin par mile uske nana ko harkaun mein Daiputeshan usi mahine mila jab wo paida hui thi pata hai hamara bhawishya hamare nakshatron aur grhon ke sath sath pariwar ke grhon nakshatron se bhi asragrast hota hai jyotish mein ye ghair wiwadaspad baat hai ”
ankal, mainne to faisla kar liya hai, ab jo kuch hai, yahi hai dusra bachcha nahin karna hain apni naukari bhi chhoti hai isi ko jitni uttam parawrish de sakta hoon, dunga main nahin chahta ye kabhi un bihaD aDachnon ko face kare jo mainne keen
chandrika ko niche gaye thoDa samay ho gaya tha use usse milne ki chinta ho i to hum niche chale gaye batch ki kuch laDkiyan chandrika ka man bahla rahi theen apne apne balbhaw ke sath
dinner ke baad manDal satapti ko lekar baith gai ye daur qarib do baje tak chala ” chandrika kab ki so chuki thi
“papa aa andhere mein uthi tikhi cheekh se utha diya mainne switch board tak ghabrate hue lait jalai
ek ajib drishya samne tha chandrika kisi buri tarah jhinjhoDe gaye shikar ki tarah satapti ki chhati se chipki paDi thi buri tarah bhayakrant aur nirih si jaise koi janwar pichha kar raha ho
hei dekh, seithi para para basidi” (wo dekho kabutar, kabutar baitha hai) laDki ne bhay se hi darwaze ki taraf ishara kiya
“pua kidi nahin kouthi nanhi” (beta kuch bhi nahin hai, kahin kuch nahin hai) peeth thapthapate hue usne ashwast kiya
“na, adi adi, hei dekh seithi basichhi (nahin, hai hai, wo dekho wahan baithe hain) laDki ne bina dhyan diye hi kaha aur phir se dubak gai thoDi der chipke rahne ke baad wo phir bidakkar boli, “dekh dekh, tum upre kete pimpuDi basidanti mote talaku onheidia” (dekho dekho tumhare upar ke liye dam lagane lagi lekin niche dekhte hi chikhi, “hei dekh kete baD musha mite kamuDibaku asudi” (wo dekho kitna baDa chuha mujhe katne aa raha hai)
ye kram koi aadha ghante chala phir uski god mein paDi paDi so gai hamne kamre ki raushani ko jalte hi rahne diya subah jab hum uthe to wo puri masumi se soi paDi thi
naiwar ” gahrai ankhon se munh umethte hue usne kaha
“shayad nai jagah i hai isliye
“ho sakta hai?
lekin doctor ko dikha denge
“han, ye theek rahega
Dau kulkarni hum donon ko bahar bithakar baDi der tak laDki ka muaina karte rahe akele hi raat ki ghatna ki jankari iski wajah thi wo mujhe bhanDara jaisi jagah par rahne ke fayde nuksan ginata raha ye bhi ki kis tarah jyotish ke karan uski daftri zindagi asan ho gai hai baDe baDe afsar use apne yahan bulate hain pe commission ke eriyars ke ek baDe hisse ka upyog usne ek friz kharidne mein kiya hai, baqi se chandrika ke liye yu t i ki rajlakshmi yojna ke kuch sheyar prshant bhai ka katak jana ekdam kam ho gaya hai
chandrika ki kunDli mein bhrad yog aur raj yog donon ban rahe hain doctor kafi time le raha hai
doctor kulkarni bahar nikle to hum donon uchakkar khaDe ho gaye isse pahle ki hum kuch puchhe, hamein sambodhit karte hue unhonne puchha, “chandrika ki faimili mein kya kisi ko epilaipsi hai?
uske baad kya hua? chhoDiye
han, ek do warsh pahle teliwizan par dikhaya gaya ek samachar phir phir kar yaad aane laga
sattar bahattar warsh poorw nirmit ek pachas sath manzi la imarat ko inglainD mein wisphot se dhwast karte dikhaya gaya tha uski rakharkhaw ka kharcha lagat se bhi ziyada paD raha tha imarat girane ki tarkib taknik ekdam adbhut thi puri imarat apne aage pichhe ya dayen bayen nahin gir rahi thi balki apne hi Dhanche mein samaye ja rahi thi goya wo koi retila bil ho
(kathadesh, mai 1999)
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000) (पृष्ठ 129)
संपादक : उमाशंकर चौधरी-ज्योति चावला
रचनाकार : ओमा शर्मा
प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
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