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आवारा कुत्ता

avara kutta

सादिक़ हिदायत

सादिक़ हिदायत

आवारा कुत्ता

सादिक़ हिदायत

और अधिकसादिक़ हिदायत

    नानबाई, अत्तारी, क़स्साबी की छोटी-मोटी दुकानें, दो क़हवेखाने, एक हेयर सैलून, दूसरी प्रकार की अन्य दुकानें ज़िंदगी की प्रारंभिक आवश्यकताओं की पूर्ति और भूख को शांत करने का स्रोत बनीं, मैदान बरामीन के चारों तरफ़ बिखरी, एक मामूली से बाज़ार का दृश्य उत्पन्न कर रही थीं।

    मैदान और मैदान के रहने वाले इस तपती दोपहर में सूरज की गर्मी से क़बाब हुए, दोपहर के ढलते और शाम की नर्म ठंडी बयार के साथ रात के पसरने की आरज़ू करते थे। आदमी, जानवर, पेड़, दुकानें सभी इस गर्मी से अधमरे अलसाए से पड़े थे। सारा काम ठप्प पड़ा हुआ था। आसमान पर धूल ख़ाक़ का ग़ुबार जमा था, जो ट्राफ़िक के धुएँ से बीच में और गहरा हो जाता था।

    मैदान के एक तरफ़ चिनार के पुराने पेड़ों की कतारें थी, जिनके चौड़े तने अंदर से खोखले होकर टेड़े-मेढ़े हो गए थे और आड़ी-तिरछी उनकी शाखाएँ फिर भी पत्तियों से भरी हुई थी। इन्हीं पेड़ों की छाया में एक तख़्त पड़ा था, जिस पर दो लड़के कद्दू के नमकीन बीज का टोकरा और खीर का पतीला लिए बैठे होते। ठीक उसी के सामने क़हवेखाने से निकलता गंदा काला पानी जो कूड़े की अधिकता से रुक-रुक कर बहता था, जारी रहता था।

    केवल एक इमारत यहाँ पर ऐसी थी, जो लोगों का ध्यान अपनी ओर बरबस ही आकर्षित कर लेती थी, वह थी बरामीन मैदान का प्रसिद्ध बुर्ज़ जिसका आधा हिस्सा चिटखा हुआ था और जगह-जगह से उसकी ईंटें निकली हुई थीं। इन्हीं गिरे टूटे ईंटों के सुराखों में चिड़ियों ने घोंसले बना लिए थे और इस शिद्दत की गर्मी में वह अपने घोंसलों में बैठी हाँफ रही थी। इस गर्म ख़ामोश दोपहर की निस्तब्धता को कुत्ते की रोने की आवाज़ बार-बार तोड़ रही थी।

    यह स्काटलैंडी नस्ल का कुत्ता था, जिसके थूथन का रंग सूखी जली घास जैसा था। पैर पर काले-काले बेशुमार तिल थे। जैसे वह अभी कीचड़ भरी घास पर लौट कर आया हो। खड़े बालों की दुम, गोल कान, उस पर घुँघराले उलझे-उलझे बाल जिनके बीच से झाँकती दो आँखें जिनकी रोशनी में मानव की चमक दिखती थी और कभी-कभी उसमें मानव आत्मा झाँकती नज़र आती थी। जैसे कि आधी रात ज़िंदगी ढल गई हो और उसने बेशुमार अनुभवों के पाठ पढ़ा दिए हों। एक असीमित भावनाओं का समुद्र उसकी आँखों में मौजें मारता नज़र आता था जिसकी तड़पन में एक पैग़ाम छुपा हुआ था जिसे पढ़ सकना साफ़-साफ़ ग़ैर मुमकिन-सा था। जैसे कि वह कहीं पुतलियों के बीच किसी कारणवश फँसकर रह गया था। उसे वास्तव में चमक का नाम दे सकते थे, रंग का। वहाँ कुछ और ही नज़र आता था, जो नज़र आता था वह विश्वास के क़ाबिल था। जैसे किसी घायल हिरनी की फ़रियाद हो। दो मटमैली आँखों में सारे जहाँ का दर्द सिमट आया था। यह आँखें किसी इंसानी आँखों की तरह किसी की प्रतीक्षा में, थकी, नज़र आती थीं। शायद, यह इंतज़ार किसी बेघर-बार के कुत्ते की आँखों में ही नज़र सकता था।

    मैं अक्सर सोचता हूँ कि उसकी याचना भरी आँखों की प्रार्थना का दर्दनाक भाव किसी भी ग्राहक के समझ में नहीं सकता था। नानबाई की दुकान के आगे उसका नौकर उसे लात जमाता और क़स्साब का छोकरा उस पर पत्थर फेंकता था। अगर इन दोनों से बचकर किसी मोटर के नीचे पनाह लेता तो वहाँ पर कीलदार शोफ़र के जूते उसका जीना हराम कर देते थे। फिर खीर बेचने वाले लड़के का भी कर्त्तव्य-सा बन जाता था कि वह भी उसे परेशान करके मज़ा लेता था। पत्थर जब लड़का उसके पेट पर खींचकर मारता और वह किकियाता हुआ भागता तो उस लड़के की प्रसन्नता से डूबी खिलखिलाहट सुनाई पड़ती। और ज़ोर से वह फबती कसता “साहब का कुत्ता!”

    वहाँ के सब लोगों ने जैसे उसे सताने की मन में ठान रखी थी कि जैसे वह उनका कोई पहले जन्म का दुश्मन हो, जिससे उन्हें चुन-चुन कर हिसाब चुकाना हो। ख़ासकर तब, जब उस जानवर से धर्म भी घृणा करना सिखाता हो, तब तो उसे मारना और सताना पुण्य का काम हो जाता है। उस दिन जब खीर बेचने वाले लड़के ने उसे बहुत सताया तो वह दुखी होकर बड़ी लाचारी से बुर्ज़ की ओर जाने वाली गली की तरफ़ भागा, ख़ाली पेट लिए बड़ी मुश्किल से अपने को घसीटता हुआ बहते पानी के पास गया और उसकी कुछ दूरी पर आगे के पैरों पर सर रखकर लेट गया और उदास आँखों से सामने हवा से हिलती घास को ताकने लगा। ठंडक पाकर उसके बदन में एक आरामदेह सनसनाहट फैलने लगी और वह सुस्ताने लगा। घूरे पर पड़े कूड़े विभिन्न खाद्य पदार्थों की मिली-जुली ख़ुश्बू उसके पुराने दिनों की याद ताज़ा कर रहे थे।

    यह हालत उसकी उस समय होती, जब वह इसी तरह की हरियाली को देखता जो उसकी आँखों में ठंडक बख्शती तब वह यादों के क़ाफ़िले में खोया ज़िंदगी के निकट पहुँच जाता। मगर आज उन यादों की पदचाप इतनी तेज़ इतनी व्याकुल थी कि उसे कूदने, दौड़ने, उछलने और घास पर लोटने पर मजबूर कर रही थी। यह इच्छा उसकी खानदानी थी, क्योंकि उसके बाप-दादा स्काटलैंड के बड़े-बड़े मैदानों और हरी दूब के संग पल कर बड़े हुए थे, मगर इस समय उसका जोड़-जोड़ इतना टूटा हुआ था कि उसका हिल-डुल पाना मुश्किल था। एक दर्दनाक कमज़ोरी से भरा अहसास उसके वजूद पर छाया हुआ था। स्फूर्ति, उत्तेजना सब कुछ कहीं-कहीं ग़ायब हो गई थी। जबकि उसकी ज़िंदगी में बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ थीं, जैसे मालिक के घर की रखवाली, कब किस पर भोंकना, कब किस पर प्यार दर्शाना, मालिक की एक आवाज़ पर चौकन्ना होकर उनकी मर्ज़ी मुताबिक व्यवहार करना, उनके बच्चों से खेलना, समय पर खाना खाना। प्यार जताते समय क़दमों पर लोट कर पैर चाटना, यह थी उसकी क़ैद भरी मसरुफ़ ज़िंदगी की सारी ज़िम्मेदारियों से परिपूर्ण एक झलकी, मगर अब वह हर ज़िम्मेदारी से आज़ाद था, सड़क पर फिरने वाला आवारा कुत्ता।

    अब तो अपना सारा ध्यान सारा बल इस बात पर ख़र्च होता था कि कहाँ से और कैसे वह खाने का एक टुकड़ा हाँफते, काँपते, लरजते, डरते, उड़ाने में कामयाब हो जाए। इस चतुरता भरी चोरी के बदले में उसे मार और गाली खाते सारा दिन रिरियाते हुए गुज़ारना पड़ता था। यही एक हथियार था उसके पास अपने बचाव में। पहले वह चुस्त, चालाक, फुर्तीला, साफ़-सुथरा और निडर था मगर अब डरपोक और सुस्त सा हो गया था। आवाज़ तो दूर की बात है यदि पत्ता भी फड़कता था तो वह काँप जाता था। कभी-कभी वह अपनी ही आवाज़ से भयभीत हो जाता था।

    आलस्य में डूबा वह एक गंदगी का पोट था जिसका बदन ख़ारिशज़दा था। उसके बदन में तो इतनी ताक़त भी नहीं रह गई थी कि वह कीलों को मारता या बदन को चाट-चाट कर साफ़-सुथरा बनाता। उसको इस भाव ने बुरी तरह दबोच लिया था कि वह एक कूड़ादान है, जिसमें गंदगी ऊपर तक भर गई है। इसी अहसास ने उसे सुस्त बना दिया था।

    जब वह इस नर्क में आया था पूरा जाड़ा गुज़र गया था। गर्मी शबाब पर थी, मगर अभी तक उसे भर पेट खाना नसीब नहीं हुआ था ही वह चैन की नींद सो पाया था। उसकी संवेदनाओं और काम वासना का ज्वार कब का शांत हो चुका था। कोई तो ऐसा था जो प्यार से उसे थपथपाता, उसके सर को सहलाता ऐसा कोई इंसान उसे नहीं मिला, जो उसकी आँखों में झाँककर उसके दुख का अंदाज़ा लगाता। यहाँ पर अधिकतर काम करने वाले लड़के अपने मालिकों जैसे ही थे। वह उसके दुख, दर्द को पैसा समझते थे। मगर उसका अपना मालिक इन सबसे अलग था।

    उसको जो सुगंध अधिक व्याकुल करती थी, वह थी दूध की खीर की। बड़े से बर्तन में भरी खीर उसे बचपन के उस दौर में ले जाती थी, जब माँ के स्तनों से दूध की बूँदें झलकती थीं और वह एक आरामदेह गर्माहट में डूबने लगता, जैसे वह एक छोटा-सा पिल्ला हो और माँ के स्तनों का पान कर रहा हो और माँ की लंबी मज़बूत ज़ुबान उसके बदन को चाट-चाट कर साफ़ कर रही हो। माँ के बदन से उठती विशेष ख़ुशबू और साथ दूध पीते अन्य भाई-बहनों के बदन की गर्मी उसे एक अजीब तरह से बेचैन करने लगी। फिर उसे हरा लॉन याद आया, जहाँ वह मालिक के साथ खेलता था, फिर उनके बीच मालिक का बेटा गया जो उसके कानों, उसके बालों से भरे बदन से खेलता और भोंकता हुआ उसके पीछे भागता, उसके कपड़े दाँतों से पकड़कर खींचता था। मालिक के हाथों से जो उसने ‘शुगर क्यूब’ खाए, कैसा मीठा प्यार था वह, कैसे भूल पाएगा वह यह सब?

    धीरे-धीरे सब कुछ बदला, माँ उसे छोड़कर चली गई, भाई-बहन कहीं चले गए। अब वह था और मालिक परिवार, उस परिवार के सारे सदस्यों की वह पदचाप पहचानता था। उस घर में होने वाली हर सरसराहट से वाक़िफ़ था, पकवानों की ख़ुशबू सूँघता वह चक्कर काटता था, मालिक के मना करने पर भी मालकिन एक कौर उसकी तरफ़ उछाल कर देती थी। इस बीच नौकर की आवाज़ गूँजती “पैट...पैट...पैट...” उसका खाना उसके लकड़ी के दरवाज़े के सामने रखा हुआ मिलता था।

    ***

    काम वासना की अंतरंग मस्ती ने ही पैट की यह दुर्दशा की थी, क्योंकि मालिक की इजाज़त थी कि वह घर से बाहर निकले और कुतियों के पीछे घूमे। अचानक एक दिन दो मेहमान आए, जिन्हें पैट पहचानता था। सब कार में बैठ गए। वह पतझड़ का मौसम था, इससे पहले भी वह कई बार हवाखोरी के लिए जा चुका था। मगर आज का दिन अजीब था। आज वह उत्तेजित और मस्त था। कुछ घंटों के बाद वह इसी मैदान के पास आकर रुके। सारे लोग कार से नीचे उतरे और बुर्ज़ वाली गली की ओर मुड़ गए, वह भी साथ था वहाँ पर। उसे मादा की बू महसूस हुई। उसे इस ख़ुशबू की तलाश थी। एकदम से वह दीवाना-सा हो गया, सब कुछ भूलकर वह उसी बू की ओर भागा। पानी की धारा को पार करता वह एक बाग़ के पास पहुँचा।

    सूरज डूब रहा था। दूर से मालिक की पुकार उसे सुनाई पड़ी थी ‘पैट...पैट...पैट’ उसे लगा कि यह आवाज़ नहीं बल्कि उसके दिमाग़ में गूँजती प्रतिध्वनियाँ हैं। वह सारी ड्यूटी भूलकर संवेदना में डूब गया था, जिसने उसे संज्ञाहीन बना दिया था। एक भावुकता उसके अंदर जन्म ले रही है, जो ज़ंजीर की तरह उसके गर्दन के चारों तरफ़ अपनी गिरफ़्त मज़बूत करती उस कुतिया की ओर बरबस घसीट रही है और वह बेचारा निसहाय-सा यंत्र-चलित-सा उस ओर खिंचता चला जा रहा है, उसके बस में कुछ भी नहीं रह गया था। उसका बदन उसकी भावनाएँ, उसकी माँसपेशियाँ सब कुछ बेक़ाबू-सी हो गईं और वह उस मादा के समीप होता चला गया, तभी एक शोर उठा, लकड़ी उठाए लोग उसकी ओर दौड़े और उसे पानी की नहर की तरफ़ खदेड़ दिया।

    पैट पहले चकराया, मगर धीरे-धीरे होश में गया और अब उसे मालिक का ध्यान आया और वह उसे ख़ोजने भागा। इधर-उधर चारों तरफ़ मालिक की बू सूँघता फिरा। वह जानता था मालिक मैदान की तरफ़ भी आया था, मगर वहाँ जाकर मालिक की ख़ुशबू अन्य ख़ुशबूओं में इतनी गड्ड-मड्ड हो गई कि पहचानना कठिन हो गया और वह आहत-सा सोचने लगा कि सचमुच मालिक उसे छोड़कर चले गए हैं। अब वह अकेला मालिक के बिना कैसे जिएगा? मालिक तो उसके लिए ख़ुदा था, उसका संसार, उसका जीवन अब तन्हा कैसे रहेगा? मालिक उसे ढूँढने आएँगे इस उम्मीद पर वह आसपास की सड़कों और गली कूचों का चक्कर लगाया करता था।

    रात को हर तरह से निराश होकर वह नहर के पास आया। जहाँ उस मादा का घर था। एक रास्ता था मादा तक पहुँचने का जो छोटे-छोटे पत्थरों से घिरा था एक अजीब उत्साह से भर कर वह पत्थर हटाने लगा और एक आशा विश्वास में बदल रही थी कि वह बाग़ तक जाने का रास्ता बना लेगा। मगर बेकार! थककर वह वहीं लेट गया।

    रात को पैट अपनी ही रोने की आवाज़ से चौंक कर उठ बैठा। पहले इधर-उधर कुछ सूँघा, फिर मैदान की तरफ़ चल पड़ा। गोश्त और ताज़ा रोटी की बू ने उसकी भूख बढ़ा दी। वह इधर-उधर खाने की तलाश में फिरने लगा, उसके मालिक की तरह के बहुत से लोग वहाँ थे। उसे एक आशा बँधी कि इन्हीं में से कोई उसे दोबारा रख लेगा शायद।

    डरते-डरते वह नानबाई की दुकान की तरफ़ पहुँचा, ताज़ा ख़मीर की ख़ुशबू फैल रही थी, दुकान अभी-अभी खुली थी और तंदूर में गर्म-गर्म रोटियाँ लगनी आरंभ हुई थीं। “आ...आ...च च...आ” यह पुकार उसके लिए कितनी अजनबी थी। एक गर्म रोटी का टुकड़ा उसके आगे डाल दिया। पहले पैट झिझका फिर आगे बढ़ा, रोटी का टुकड़ा उठाया, दुम हिलाई। नानबाई ने हाथ की रोटियाँ दुकान पर रखीं और थोड़ा डरते हुए पैट को सहलाया, फिर गर्दन से पट्ट खोला। पैट को लगा, कैद से आज़ादी मिल गई। हर प्रकार की ज़िम्मेदारी का बोझ उसकी गर्दन से उतर गया है और वह दुम हिलाता नानबाई की ओर बढ़ा। इस बार एक ज़ोरदार लात ने उसका स्वागत किया। फिर वह नहर के पानी में हाथ धोने चला गया, दर्द की टीस के बावजूद उसकी आँखें अपने गले का पट्टा दुकान के दरवाज़े पर लटका देख रही थीं। यही दिन था जब उसकी ज़िंदगी में लात, मार की शुरुआत हुई।

    ***

    अब वह पूर्ण रूप से समझ चुका था कि वह एक ऐसी दुनिया में गया था, जो उसके लिए नई है और जहाँ के लोग उसकी भावनाओं को नहीं समझ सकते हैं। आरंभ के दिन सख़्त थे, फिर उसे आदत पड़ गई कुछ दिनों बाद उसने कूड़े का ढेर भी ढूँढ़ लिया, जहाँ पर उसके खाने लायक हड्डी, चर्बी का टुकड़ा, खाल, मछली का सर या दूसरी चीज़ें जो सर्वदा उसके लिए पूर्ण रूप से नई थीं, मिल जाती थीं, वहाँ से खा-पीकर वह मैदान की ओर आता और क़स्साब के हाथों की ओर गौर से बैठा देखता रहता कि शायद उसे कोई छीछड़ा मिल जाए, मगर मज़ेदार कौर से पहले एक ज़ोरदार लात मिलती। मगर जब कभी उसे अपनी ज़िंदगी की कठोरता का अहसास जागता, मन रोने लगता और पुरानी गुज़री यादों में खो जाता और उन्हीं यादों से दोबारा जीने की ताक़त जमा करता था।

    पैट भूखा रह सकता था, प्यासा रह सकता था, मगर बिना प्रेम के उससे जिया नहीं जाता था। यहाँ सारे दुख के बावजूद उसे सुख की कमी इतना दुख पहुँचाती जितना प्रेम की कमी। वह लोगों का ध्यान अपनी इस भूख की तरफ़ खींच उन्हें बताना चाहता था कि वह आराधना और स्वामि-भक्ति से भरपूर है। बस, प्रेम के दो बोल के बदले वह जीवन भर ग़ुलामी करेगा, मगर उसकी यह चेष्टा लोगों में क्रोध का संचार करती और उनकी घृणा को बढ़ावा देती थी।

    पैट नहर के किनारे हरियाली देखता-देखता सो गया। फिर किसी डरावने सपने को देखकर रोता हुआ उठ बैठा। पेट ख़ाली था। अतड़ियों में मरोड़ हो रही थी, अपनी काया को खींचता मैदान की तरफ़ ले गया, जहाँ से क़बाब की तेज़ ख़ुशबू उसकी भूख को बढ़ा रही थी।

    ***

    कारें आ-जा रहीं थीं। एक कार धूल उड़ाती हुई आई और मैदान के पास रुक गई। उसमें से सूटेड-बूटेड एक साहब उतरा, पैट भाग कर पहुँचा। उसने हल्के से पैट का सर थपथपाया। वह उसका मालिक नहीं है। मालिक की बू वह ख़ूब अच्छी तरह पहचानता है। मगर यह भी कैसे मुमकिन हो सकता है कि कोई यूँ जाए और से प्यार से थपथपाए! पैट ने दुम हिलाई और संदेह भरी दृष्टि उस आदमी पर गाड़ दी। कहीं उसने धोखा तो नहीं खाया? शायद, गर्दन में पट्टा पड़े रहने के कारण ऐसा किया हो? मगर उसने फिर सर थपथपाया आगे बढ़ा फिर पलटा और उसके सर को सहलाया। यह सब कितना विचित्र था?

    अब पैट पूर्ण रूप से शक़ में पड़ गया और उसके पीछे-पीछे चलने लगा, उसका आश्चर्य पल-पल बढ़ता ही जा रहा था। वह आदमी एक कमरे में घुसा, पैट इस कमरे को अच्छी तरह से पहचानता था, खाने की ख़ुशबू की लपटें निकल रही थीं। वह आदमी एक कुर्सी पर बैठ गया। उसका खाना गया। उसने रोटी का एक टुकड़ा दही में डुबो कर उसकी तरफ़ उछाला, पैट कौर खाकर उस आदमी को अपनी मटमैली आँखों से ताकता रहा, जिसमें आश्चर्य मिश्रित धन्यवाद था, उसे लगने लगा था कि वह सपना देख रहा है। कहीं यह संभव हो सकता है कि वह खाना खाए और वह भी बिना लात-घूसों के, यह मुमकिन हो सकता है? सचमुच उसने आज एक नया मालिक पा लिया है।

    इतनी गर्मी के बावजूद वह आदमी बाहर निकला, बुर्ज़वाली गली की तरफ़ बढ़ा, फिर गली दर गली चक्कर लगाता रहा। पैट उसके पीछे दुम हिलाता चल रहा था। यहाँ तक कि दोनों आबादी से दूर निकल गए। खंडहर की दीवारों के पास पहुँच गए। उस दिन उसका मालिक भी तो यहीं आया था। शायद यह लोग भी मादा की ख़ुशबू सूँघते-सूँघते दूर निकल आते हैं। पैट बाहर ही उसकी प्रतीक्षा करने लगा, फिर वे दोनों मैदान की तरफ़ लौट आए।

    उस आदमी ने फिर अपना हाथ पैट के सर पर रखा, फिर वह चक्कर लगाता कार में बैठ गया, पैट की हिम्मत पड़ी कि वह भी अंदर जा कर बैठ जाता, वह सामने बैठा उदासी से उसे ताकता रहा। एकाएक कार स्टार्ट हुई और फ़र्राटे भरती धूल उड़ाती निकल गई। पैट बिना रुके उस मोटर के पीछे दौड़ने लगा। नहीं! नहीं! वह इस बार किसी क़ीमत पर इस आदमी को नहीं खोएगा। वह दौड़ने में बुरी तरह थक रहा था, दर्द की बेशुमार सुईयाँ बदन में चुभती महसूस कर रहा था। इसके बावजूद वह अपना सारा बल लगाकर कार तक पहुँचने की कोशिश कर रहा था।

    कार आबादी से निकल वीराने में पहुँच गई थी, पैट कई बार कार तक पहुँचकर पीछे रह जाता था। वह उछल कूद कर रहा था, मगर कार उससे दुगने वेग से भाग रही थी। एक तो वह कार के समीप नहीं पहुँच पा रहा था, दूसरे थकन से अलग चूर हो रहा था।

    एकदम से दौड़ते उसे महसूस हुआ कि उसकी माँसपेशियों में एक खिंचाव रहा है, पैट की अतड़ियाँ बाहर निकलने वाली हैं। अब वह आगे नहीं दौड़ सकता है। उसमें हिलने तक की ताक़त शेष नहीं रह गई है। इस सारी तलाश के बाद वह एकाएक सोचने लगा कि वह किसके पीछे भाग रहा था और जाना कहाँ चाह रहा था?

    अब पीछे लौटने की राह थी आगे जाने की मंजिल! वह वहीं जम गया, वह बुरी तरह हाँफ रहा था। जुबान हलक से बाहर निकल आई थी आँखों के सामने काले-काले धब्बे छा रहे थे। सर झुकाए वह अपने को घसीटता सड़क से खेत की मेड़ की ओर लाया। अपना दुखता पेट गीली गर्म मिट्टी पर टिकाया, उसकी छठी ज्ञानेंद्री ने उसे बताया कि अब वह यहाँ से हिल नहीं सकता है। चक्कर से उसका सर घूम रहा था।

    भावनाएँ और विचार धुँधले पड़ रहे थे। पेट में दर्द की टीसें बढ़ गई थीं और आँखों में दुख की चमक पैदा हो गई थी। उत्तेजना और व्याकुलता की तड़पन के बीच हाथ पैर शिथिल पड़ने लगे, ठंडे पसीने से शरीर भींग गया। एक आनंद भरा नशा पूरे शरीर में छाने लगा।

    ***

    सूरज डूब रहा था। पैट के सर पर तीन भूखे कौवे मँडरा रहे थे। वह उसकी मौत की बू दूर से सूँघ कर यहाँ आए थे। उसमें से एक कौवा बड़ी सावधानी से नीचे उतरा। धीरे-धीरे पैट के पास आया, ताकि पूर्ण रूप से उसे विश्वास हो जाए कि पैट मर चुका है या नहीं! ध्यान से देखा, पैट अभी मरा था। कौवा तेज़ी से ऊपर उड़ गया।

    दोबारा वह तीनों कौवे नीचे आए और पैट की हरी मटमैली आँखों को खाने में व्यस्त हो गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 289)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : सादिक़ हिदायत
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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