खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते। लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत-खलिहान की मज़दूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुलाकर? दूसरे मज़दूर खेत पहुँचकर एक-तिहाई काम कर चुकेंगे, तब कहीं सिरचन राय हाथ में खुरपी डुलाता दिखाई पड़ेगा—पगडंडी पर तौल-तौलकर पाँव रखता हुआ, धीरे-धीरे। मुफ़्त में मज़दूरी देनी हो तो और बात है।
...आज सिरचन को मुफ़्तख़ोर, कामचोर या चटोर कह ले कोई। एक समय था, जबकि उसकी मड़ैया के पास बड़े-बड़े बाबू लोगों की सवारियाँ बँधी रहती थीं। उसे लोग पूछते ही नहीं थे, उसकी ख़ुशामद भी करते थे। '...अरे, सिरचन भाई! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी रह गई है सारे इलाक़े में। एक दिन भी समय निकालकर चलो।
कल बड़े भैया की चिट्ठी आई है शहर से—सिरचन से एक जोड़ा चिक बनवाकर भेज दो।'
मुझे याद है... मेरी माँ जब कभी सिरचन को बुलाने के लिए कहती, मैं पहले ही पूछ लेता, 'भोग क्या-क्या लगेगा?'
माँ हँसकर कहती, 'जा-जा, बेचारा मेरे काम में पूजा-भोग की बात नहीं उठाता कभी।'
ब्राह्मणटोली के पंचानंद चौधरी के छोटे लड़के को एक बार मेरे सामने ही बेपानी कर दिया था सिरचन ने—'तुम्हारी भाभी नाख़ून से खाँटकर तरकारी परोसती है। और इमली का रस सालकर कढ़ी तो हम कहार-कुम्हारों की घरवाली बनाती हैं। तुम्हारी भाभी ने कहाँ से बनाईं!'
इसलिए सिरचन को बुलाने से पहले मैं माँ को पूछ लेता...
सिरचन को देखते ही माँ हुलसकर कहती, 'आओ सिरचन! आज नेनू मथ रही थी, तो तुम्हारी याद आई। घी की डाड़ी (खखोरन) के साथ चूड़ा तुमको बहुत पसंद है न... और बड़ी बेटी ने ससुराल से संवाद भेजा है, उसकी ननद रूठी हुई है, मोथी के शीतलपाटी के लिए।'
सिरचन अपनी पनियार्इ जीभ को सँभालकर हँसता—'घी की सुगंध सूँघकर आ रहा हूँ, काकी! नहीं तो इस शादी-ब्याह के मौसम में दम मारने की भी छुट्टी कहाँ मिलती है?'
सिरचन जाति का कारीगर है।
मैंने घंटों बैठकर उसके काम करने के ढंग को देखा है। एक-एक मोथी और पटेर को हाथ में लेकर बड़े जातां से उसकी कुच्ची बनाता। फिर, कुच्चियों को रँगने से लेकर सुतली सुलझाने में पूरा दिन समाप्त... काम करते समय उसकी तन्मयता में ज़रा भी बाधा पड़ी कि गेंहुअन साँप की तरह फुफकार उठता—'फिर किसी दूसरे से करवा लीजिए काम। सिरचन मुँहज़ोर है, कामचोर नहीं।'
बिना मज़दूरी के पेट-भर भात पर काम करने वाला कारीगर। दूध में कोई मिठाई न मिले, तो कोई बात नहीं, किंतु बात में ज़रा भी झाल वह नहीं बर्दाश्त कर सकता।
सिरचन को लोग चटोर भी समझते हैं... तली-बघारी हुई तरकारी, दही की कढ़ी, मलाई वाला दूध, इन सबका प्रबंध पहले कर लो, तब सिरचन को बुलाओ; दुम हिलाता हुआ हाज़िर हो जाएगा। खाने-पीने में चिकनाई की कमी हुई कि काम की सारी चिकनाई ख़त्म! काम अधूरा रखकर उठ खड़ा होगा—'आज तो अब अधकपाली दर्द से माथा टनटना रहा है। थोड़ा-सा रह गया है, किसी दिन आकर पूरा कर दूँगा... '
किसी दिन'—माने कभी नहीं!
मोथी घास और पटरे की रंगीन शीतलपाटी, बाँस की तीलियों की झिलमिलाती चिक, सतरंगे डोर के मोढ़े, भूसी-चुन्नी रखने के लिए मूँज की रस्सी के बड़े-बड़े जाले, हलवाहों के लिए ताल के सूखे पत्तों की छतरी-टोपी तथा इसी तरह के बहुत-से काम हैं, जिन्हें सिरचन के सिवा गाँव में और कोई नहीं जानता। यह दूसरी बात है कि अब गाँव में ऐसे कामों को बेकाम का काम समझते हैं लोग- बेकाम का काम, जिसकी मज़दूरी में अनाज या पैसे देने की कोई ज़रूरत नहीं। पेट-भर खिला दो, काम पूरा होने पर एकाध पुराना-धुराना कपड़ा देकर विदा करो। वह कुछ भी नहीं बोलेगा...
कुछ भी नहीं बोलेगा, ऐसी बात नहीं। सिरचन को बुलाने वाले जानते हैं, सिरचन बात करने में भी कारीगर है... महाजन टोले के भज्जू महाजन की बेटी सिरचन की बात सुनकर तिलमिला उठी थी—ठहरो! मैं माँ से जाकर कहती हूँ। इतनी बड़ी बात!'
'बड़ी बात ही है बिटिया! बड़े लोगों की बस बात ही बड़ी होती है। नहीं तो दो-दो पटेर की पटियों का काम सिर्फ़ खेसारी का सत्तू खिलाकर कोई करवाए भला? यह तुम्हारी माँ ही कर सकती है बबुनी!' सिरचन ने मुस्कुराकर जवाब दिया था।
उस बार मेरी सबसे छोटी बहन की विदाई होने वाली थी। पहली बार ससुराल जा रही थी मानू। मानू के दूल्हे ने पहले ही बड़ी भाभी को ख़त लिखकर चेतावनी दे दी है—'मानू के साथ मिठाई की पतीली न आए, कोई बात नहीं। तीन जोड़ी फैशनेबल चिक और पटेर की दो शीतलपाटियों के बिना आएगी मानू तो...' भाभी ने हँसकर कहा, 'बैरंग वापस!' इसलिए, एक सप्ताह से पहले से ही सिरचन को बुलाकर काम पर तैनात करवा दिया था माँ ने—'देख सिरचन! इस बार नई धोती दूँगी, असली मोहर छाप वाली धोती। मन लगाकर ऐसा काम करो कि देखने वाले देखकर देखते ही रह जाएँ।'
पान-जैसी पतली छुरी से बाँस की तीलियों और कमानियों को चिकनाता हुआ सिरचन अपने काम में लग गया। रंगीन सुतलियों से झब्बे डालकर वह चिक बुनने बैठा। डेढ़ हाथ की बिनाई देखकर ही लोग समझ गए कि इस बार एकदम नए फ़ैशन की चीज़ बन रही है, जो पहले कभी नहीं बनी।
मँझली भाभी से नहीं रहा गया, परदे के आड़ से बोली, 'पहले ऐसा जानती कि मोहर छाप वाली धोती देने से ही अच्छी चीज़ बनती है तो भैया को ख़बर भेज देती।'
काम में व्यस्त सिरचन के कानों में बात पड़ गई। बोला, 'मोहर छाप वाली धोती के साथ रेशमी कुरता देने पर भी ऐसी चीज़ नहीं बनती बहुरिया। मानू दीदी काकी की सबसे छोटी बेटी है... मानू दीदी का दूल्हा अफ़सर आदमी है।'
मँझली भाभी का मुँह लटक गया। मेरी चाची ने फुसफुसाकर कहा, 'किससे बात करती है बहू? मोहर छाप वाली धोती नहीं, मूँगिया-लड्डू। बेटी की विदाई के समय रोज़ मिठाई जो खाने को मिलेगी। देखती है न।'
दूसरे दिन चिक की पहली पाँति में सात तारे जगमगा उठे, सात रंग के। सतभैया तारा! सिरचन जब काम में मगन होता है तो उसकी जीभ ज़रा बाहर निकल आती है, होंठ पर। अपने काम में मगन सिरचन को खाने-पीने की सुध नहीं रहती। चिक में सुतली के फंदे डालकर अपने पास पड़े सूप पर निगाह डाली—चिउरा और गुड़ का एक सूखा ढेला। मैंने लक्ष्य किया, सिरचन की नाक के पास दो रेखाएँ उभर आईं। मैं दौड़कर माँ के पास गया। 'माँ, आज सिरचन को कलेवा किसने दिया है, सिर्फ़ चिउरा और गुड़?'
माँ रसोईघर में अंदर पकवान आदि बनाने में व्यस्त थी। बोली, 'मैं अकेली कहाँ-कहाँ क्या-क्या देखूँ!... अरी मँझली, सिरचन को बुँदिया क्यों नहीं देती?'
'बुँदिया मैं नहीं खाता, काकी!' सिरचन के मुँह में चिउरा भरा हुआ था। गुड़ का ढेला सूप के किनारे पर पड़ा रहा, अछूता।
माँ की बोली सुनते ही मँझली भाभी की भौंहें तन गईं। मुट्ठी भर बुँदिया सूप में फेंककर चली गई।
सिरचन ने पानी पीकर कहा, 'मँझली बहूरानी अपने मैके से आई हुई मिठाई भी इसी तरह हाथ खोलकर बाँटती है क्या?'
बस, मँझली भाभी अपने कमरे में बैठकर रोने लगी। चाची ने माँ के पास जाकर लगाया—'छोटी जाति के आदमी का मुँह भी छोटा होता है। मुँह लगाने से सर पर चढ़ेगा ही... किसी के नैहर-ससुराल की बात क्यों करेगा वह?'
मँझली भाभी माँ की दुलारी बहू है। माँ तमककर बाहर आई—'सिरचन, तुम काम करने आए हो, अपना काम करो। बहुओं से बतकुट्टी करने की क्या ज़रूरत? जिस चीज़ की ज़रूरत हो, मुझसे कहो।'
सिरचन का मुँह लाल हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया। बाँस में टँगे हुए अधूरे चिक में फंदे डालने लगा।
मानू पान सजाकर बाहर बैठकख़ाने में भेज रही थी। चुपके से पान का एक बीड़ा सिरचन को देती हुई बोली और इधर-उधर देखकर कहा—'सिरचन दादा, काम-काज का घर! पाँच तरह के लोग पाँच क़िस्म की बात करेंगे। तुम किसी की बात पर कान मत दो।'
सिरचन ने मुस्कुराकर पान का बीड़ा मुँह में ले लिया। चाची अपने कमरे से निकल रही थी। सिरचन को पान खाते देखकर अवाक हो गई। सिरचन ने चाची को अपनी ओर अचरज से घूरते देखकर कहा—'छोटी चाची, ज़रा अपनी डिबिया का गमकौआ ज़र्दा तो खिलाना। बहुत दिन हुए...।'
चाची कई कारणों से जली-भुनी रहती थी, सिरचन से। ग़ुस्सा उतारने का ऐसा मौक़ा फिर नहीं मिल सकता। झनकती हुई बोली, 'मसख़री करता है? तुम्हारी चढ़ी हुई जीभ में आग लगे। घर में भी पान और गमकौआ ज़र्दा खाते हो? ...चटोर कहीं के!' मेरा कलेजा धड़क उठा... यत्परो नास्ति!
बस, सिरचन की उँगलियों में सुतली के फंदे पड़ गए। मानो, कुछ देर तक वह चुपचाप बैठा पान को मुँह में घुलाता रहा। फिर, अचानक उठकर पिछवाड़े पीक थूक आया। अपनी छुरी, हँसियाँ वग़ैरह समेट सँभालकर झोले में रखे। टँगी हुई अधूरी चिक पर एक निगाह डाली और हनहनाता हुआ आँगन के बाहर निकल गया।
चाची बड़बड़ाई—'अरे बाप रे बाप! इतनी तेज़ी! कोई मुफ़्त में तो काम नहीं करता। आठ रुपए में मोहरछाप वाली धोती आती है... इस मुँहझौंसे के मुँह में न लगाम है, न आँख में शील। पैसा ख़र्च करने पर सैकड़ों चिक मिलेंगी। बांतर टोली की औरतें सिर पर गट्ठर लेकर गली-गली मारी फिरती हैं।'
मानू कुछ नहीं बोली। चुपचाप अधूरी चिक को देखती रही... सातो तारे मंद पड़ गए।
माँ बोली, 'जाने दे बेटी! जी छोटा मत कर, मानू गए। मेले से ख़रीदकर भेज दूँगी।'
मानू को याद आया, विवाह में सिरचन के हाथ की शीतलपाटी दी थी माँ ने। ससुरालवालों ने न जाने कितनी बार खोलकर दिखलाया था पटना और कलकत्ता के मेहमानों को। वह उठकर बड़ी भाभी के कमरे में चली गई।
मैं सिरचन को मनाने गया। देखा, एक फटी शीतलपाटी पर लेटकर वह कुछ सोच रहा है।
मुझे देखते ही बोला, बबुआ जी! अब नहीं। कान पकड़ता हूँ, अब नहीं... मोहर छाप वाली धोती लेकर क्या करूँगा? कौन पहनेगा? ...ससुरी ख़ुद मरी, बेटे बेटियों को ले गई अपने साथ। बबुआजी, मेरी घरवाली ज़िंदा रहती तो मैं ऐसी दुर्दशा भोगता? यह शीतलपाटी उसी की बुनी हुई है। इस शीतलपाटी को छूकर कहता हूँ, अब यह काम नहीं करूँगा... गाँव-भर में तुम्हारी हवेली में मेरी क़दर होती थी... अब क्या?' मैं चुपचाप वापस लौट आया। समझ गया, कलाकार के दिल में ठेस लगी है। वह अब नहीं आ सकता।
बड़ी भाभी अधूरी चिक में रंगीन छींट की झालर लगाने लगी—'यह भी बेजा नहीं दिखलाई पड़ता, क्यों मानू?'
मानू कुछ नहीं बोली... बेचारी! किंतु, मैं चुप नहीं रह सका—'चाची और मँझली भाभी की नज़र न लग जाए इसमें भी।'
मानू को ससुराल पहुँचाने मैं ही जा रहा था।
स्टेशन पर सामान मिलाते समय देखा, मानू बड़े जतन से अधूरे चिक को मोड़कर लिए जा रही है अपने साथ। मन-ही-मन सिरचन पर ग़ुस्सा हो आया। चाची के सुर-में-सुर मिलाकर कोसने को जी हुआ... कामचोर, चटोर...!
गाड़ी आई। सामान चढ़ाकर मैं दरवाज़ा बंद कर रहा था कि प्लेटफ़ॉर्म पर दौड़ते हुए सिरचन पर नज़र पड़ी—'बबुआजी!' उसने दरवाज़े के पास आकर पुकारा।
'क्या है?' मैंने खिड़की से गर्दन निकालकर झिड़की के स्वर में कहा। सिरचन ने पीठ पर लादे हुए बोझ को उतारकर मेरी ओर देखा—'दौड़ता आया हूँ... दरवाज़ा खोलिए। मानू दीदी कहाँ हैं? एक बार देखूँ!'
मैंने दरवाज़ा खोल दिया।
'सिरचन दादा!' मानू इतना ही बोल सकी।
खिड़की के पास खड़े होकर सिरचन ने हकलाते हुए कहा, 'यह मेरी ओर से है। सब चीज़ है दीदी! शीतलपाटी, चिक और एक जोड़ी आसनी, कुश की।'
गाड़ी चल पड़ी।
मानू मोहर छाप वाली धोती का दाम निकालकर देने लगी। सिरचन ने जीभ को दाँत से काटकर, दोनों हाथ जोड़ दिए।
मानू फूट-फूट रो रही थी। मैं बंडल को खोलकर देखने लगा—ऐसी कारीगरी, ऐसी बारीकी, रंगीन सुतलियों के फंदों का ऐसा काम, पहली बार देख रहा था।
- पुस्तक : ठुमरी (पृष्ठ 47)
- रचनाकार : फणीश्वरनाथ रेणु
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2004
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