प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा आठवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
सारे गाँव में बदलू मुझे सबसे अच्छा आदमी लगता था क्योंकि वह मुझे सुंदर-सुंदर लाख की गोलियाँ बनाकर देता था। मुझे अपने मामा के गाँव जाने का सबसे बड़ा चाव यही था कि जब मैं वहाँ से लौटता था तो मेरे पास ढेर सारी गोलियाँ होतीं, रंग-बिरंगी गोलियाँ जो किसी भी बच्चे का मन मोह लें।
वैसे तो मेरे मामा के गाँव का होने के कारण मुझे बदलू को 'बदलू मामा' कहना चाहिए था परंतु में उसे 'बदलू मामा' न कहकर बदलू काका कहा करता था जैसा कि गाँव के सभी बच्चे उसे कहा करते थे। बदलू का मकान कुछ ऊँचे पर बना था। मकान के सामने बड़ा-सा सहन था जिसमें एक पुराना नीम का वृक्ष लगा था। उसी के नीचे बैठकर बदलू अपना काम किया करता था। बग़ल में भट्ठी दहकती रहती जिसमें वह लाख पिघलाया करता। सामने एक लकड़ी की चौखट पड़ी रहती जिस पर लाख के मुलायम होने पर वह उसे सलाख़ के समान पतला करके चूड़ी का आकार देता। पास में चार-छह विभिन्न आकार की बेलननुमा मुँगेरियाँ रखी रहतीं जो आगे से कुछ पतली और पीछे से मोटी होतीं। लाख की चूड़ी का आकार देकर वह उन्हें मुँगेरियों पर चढ़ाकर गोल और चिकना बनाता और तब एक-एक कर पूरे हाथ की चूड़ियाँ बना चुकने के पश्चात वह उन पर रंग करता।
बदलू यह कार्य सदा ही एक मचिए पर बैठकर किया करता था जो बहुत ही पुरानी थी। बग़ल में ही उसका हुक्का रखा रहता जिसे वह बीच-बीच में पीता रहता। गाँव में मेरा दुपहर का समय अधिकतर बदलू के पास बीतता। वह मुझे 'लला' कहा करता और मेरे पहुँचते ही मेरे लिए तुरंत एक मचिया मँगा देता। मैं घंटों बैठे-बैठे उसे इस प्रकार चूड़ियाँ बनाते देखता रहता। लगभग रोज़ ही वह चार-छह जोड़े चूड़ियाँ बनाता। पूरा जोड़ा बना लेने पर वह उसे बेलन पर चढ़ाकर कुछ क्षण चुपचाप देखता रहता मानो वह बेलन न होकर किसी नव-वधू की कलाई हो।
बदलू मनिहार था। चूड़ियाँ बनाना उसका पैतृक पेशा था और वास्तव में वह बहुत ही सुंदर चूड़ियाँ बनाता था। उसकी बनाई हुई चूड़ियों की खपत भी बहुत थी। उस गाँव में तो सभी स्त्रियाँ उसकी बनाई हुई चूड़ियाँ पहनती ही थीं आस-पास के गाँवों के लोग भी उससे चूड़ियाँ ले जाते थे। परंतु वह कभी भी चूड़ियों को पैसों से बेचता न था। उसका अभी तक वस्तु-विनिमय का तरीक़ा था और लोग अनाज के बदले उससे चूड़ियाँ ले जाते थे। बदलू स्वभाव से बहुत सीधा था। मैंने कभी भी उसे किसी से झगड़ते नहीं देखा। हाँ, शादी-विवाह के अवसरों पर वह अवश्य ज़िद पकड़ जाता था। जीवन भर चाहे कोई उससे मुफ़्त चूड़ियाँ ले जाए परंतु विवाह के अवसर पर वह सारी कसर निकाल लेता था। आख़िर सुहाग के जोड़े का महत्त्व ही और होता है। मुझे याद है, मेरे मामा के यहाँ किसी लड़की के विवाह पर ज़रा-सी किसी बात पर बिगड़ गया था और फिर उसको मनाने में लोहे लग गए थे। विवाह में इसी जोड़े का मूल्य इतना बढ़ जाता था कि उसके लिए उसकी घरवाली को सारे वस्त्र मिलते, ढेरों अनाज मिलता, उसको अपने लिए पगड़ी मिलती और रुपए जो मिलते सो अलग।
यदि संसार में बदलू को किसी बात से चिढ़ थी तो वह थी काँच की चूड़ियों से। यदि किसी भी स्त्री के हाथों में उसे काँच की चूड़ियाँ दिख जातीं तो वह अंदर-ही-अंदर कुढ़ उठता और कभी-कभी तो दो-चार बातें भी सुना देता।
मुझसे तो वह घंटों बातें किया करता। कभी मेरी पढ़ाई के बारे में पूछता, कभी मेरे घर के बारे में और कभी यों ही शहर के जीवन के बारे में। मैं उससे कहता कि शहर में सब काँच की चूड़ियाँ पहनते हैं तो वह उत्तर देता, शहर की बात और है, लला! वहाँ तो सभी कुछ होता है। वहाँ तो औरतें अपने मरद का हाथ पकड़कर सड़कों पर घूमती भी हैं और फिर उनकी कलाइयाँ नाज़ुक होती हैं न! लाख की चूड़ियाँ पहनें तो मोच न आ जाए।
कभी-कभी बदलू मेरी अच्छी ख़ासी ख़ातिर भी करता। जिन दिनों उसकी गाय के दूध होता वह सदा मेरे लिए मलाई बचाकर रखता और आम की फ़सल में तो मैं रोज़ ही उसके यहाँ से दो-चार आम खा आता। परंतु इन सब बातों के अतिरिक्त जिस कारण वह मुझे अच्छा लगता वह यह था कि लगभग रोज़ ही वह मेरे लिए एक-दो गोलियाँ बना देता।
मैं बहुधा हर गर्मी की छुट्टी में अपने मामा के यहाँ चला जाता और एक-आध महीने वहाँ रहकर स्कूल खुलने के समय तक वापस आ जाता। परंतु दो-तीन बार ही मैं अपने मामा के यहाँ गया होऊँगा तभी मेरे पिता की एक दूर के शहर में बदली हो गई और एक लंबी अवधि तक मैं अपने मामा के गाँव न जा सका। तब लगभग आठ-दस वर्षों के बाद जब मैं वहाँ गया तो इतना बड़ा हो चुका था कि लाख की गोलियों में मेरी रुचि नहीं रह गई थी। अतः गाँव में होते हुए भी कई दिनों तक मुझे बदलू का ध्यान न आया। इस बीच मैंने देखा कि गाँव में लगभग सभी स्त्रियाँ काँच की चूड़ियाँ पहने हैं। विरले ही हाथों में मैंने लाख की चूड़ियाँ देखीं। तब एक दिन सहसा मुझे बदलू का ध्यान हो आया। बात यह हुई कि बरसात में मेरे मामा की छोटी लड़की आँगन में फिसलकर गिर पड़ी और उसके हाथ की काँच की चूड़ी टूटकर उसकी कलाई में घुस गई और उससे ख़ून बहने लगा। मेरे मामा उस समय घर पर न थे। मुझे ही उसकी मरहम-पट्टी करनी पड़ी। तभी सहसा मुझे बदलू का ध्यान हो आया और मैंने सोचा कि उससे मिल आऊँ। अत: शाम को मैं घूमते-घूमते उसके घर चला गया। बदलू वहीं चबूतरे पर नीम के नीचे एक खाट पर लेटा था।
नमस्ते बदलू काका! मैंने कहा।
नमस्ते भइया! उसने मेरी नमस्ते का उत्तर दिया और उठकर खाट पर बैठ गया। परंतु उसने मुझे पहचाना नहीं और देर तक मेरी ओर निहारता रहा।
मैं हूँ जनार्दन, काका! आपके पास से गोलियाँ बनवाकर ले जाता था। मैंने अपना परिचय दिया।
बदलू फिर भी चुप रहा। मानो वह अपने स्मृति पटल पर अतीत के चित्र उतार रहा हो और तब वह एकदम बोल पड़ा, आओ-आओ, लला बैठो! बहुत दिन बाद गाँव आए।
हाँ, इधर आना नहीं हो सका, काका! मैंने चारपाई पर बैठते हुए उत्तर दिया।
कुछ देर फिर शांति रही। मैंने इधर-इधर दृष्टि दौड़ाई। न तो मुझे उसकी मचिया ही नज़र आई, न ही भट्ठी।
आजकल काम नहीं करते काका? मैंने पूछा।
नहीं लला, काम तो कई साल से बंद है। मेरी बनाई हुई चूड़ियाँ कोई पूछे तब तो। गाँव-गाँव में काँच का प्रचार हो गया है। वह कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, मशीन युग है न यह, लला! आजकल सब काम मशीन से होता है। खेत भी मशीन से जोते जाते हैं और फिर जो सुंदरता काँच की चूड़ियों में होती है, लाख में कहाँ संभव है?
लेकिन काँच बड़ा ख़तरनाक होता है। बड़ी जल्दी टूट जाता है। मैंने कहा।
नाज़ुक तो फिर होता ही है लला! कहते-कहते उसे खाँसी आ गई और वह देर तक खाँसता रहा।
मुझे लगा उसे दमा है। अवस्था के साथ-साथ उसका शरीर ढल चुका था। उसके हाथों पर और माथे पर नसें उभर आई थीं।
जाने कैसे उसने मेरी शंका भाँप ली और बोला, दमा नहीं है मुझे। फ़सली खाँसी है। यही महीने-दो-महीने से आ रही है। दस-पंद्रह दिन में ठीक हो जाएगी।
मैं चुप रहा। मुझे लगा उसके अंदर कोई बहुत बड़ी व्यथा छिपी है। मैं देर तक सोचता रहा कि इस मशीन युग ने कितने हाथ काट दिए हैं। कुछ देर फिर शांति रही जो मुझे अच्छी नहीं लगी।
आम की फ़सल अब कैसी है, काका? कुछ देर पश्चात मैंने बात का विषय बदलते हुए पूछा।
'अच्छी है लला, बहुत अच्छी है, उसने लहककर उत्तर दिया और अंदर अपनी बेटी को आवाज़ दी, अरी रज्जो, लला के लिए आम तो ले आ। फिर मेरी ओर मुख़ातिब होकर बोला, माफ़ करना लला, तुम्हें आम खिलाना भूल गया था।
नहीं, नहीं काका आम तो इस साल बहुत खाए हैं।
वाह-वाह!, बिना आम खिलाए कैसे जाने दूँगा तुमको?
मैं चुप हो गया। मुझे वे दिन याद हो आए जब वह मेरे लिए मलाई बचाकर रखता था।
गाय तो अच्छी है न काका? मैंने पूछा।
गाय कहाँ है, लला! दो साल हुए बेच दी। कहाँ से खिलाता?
इतने में रज्जो, उसकी बेटी, अंदर से एक डलिया में ढेर से आम ले आई। यह तो बहुत हैं काका! इतने कहाँ खा पाऊँगा? मैंने कहा।
वाह-वाह! वह हँस पड़ा, शहरी ठहरे ना! मैं तुम्हारी उमर का था तो इसके चौगुने आम एक बखत में खा जाता था।
आप लोगों की बात और है। मैंने उत्तर दिया।
अच्छा, बेटी, लला को चार-पाँच आम छाँटकर दो। सिंदूरीवाले देना। देखो लला कैसे हैं? इसी साल यह पेड़ तैयार हुआ है।
रज्जों ने चार-पाँच आम अंजुली में लेकर मेरी ओर बढ़ा दिए। आम लेने के लिए मैंने हाथ बढ़ाया तो मेरो निगाह एक क्षण के लिए उसके हाथों पर ठिठक गई। गोरी-गोरी कलाइयों पर लाख की चूड़ियाँ बहुत ही फब रही थीं।
बदलू ने मेरी दृष्टि देख ली और बोल पड़ा, यही आख़िरी जोड़ा बनाया था ज़मींदार साहब की बेटी के विवाह पर। दस आने पैसे मुझको दे रहे थे। मैंने जोड़ा नहीं दिया। कहा, शहर से ले आओ।
मैंने आम ले लिए और खाकर थोड़ी देर पश्चात चला आया। मुझे प्रसन्नता हुई कि बदलू ने हारकर भी हार नहीं मानी थी। उसका व्यक्तित्व काँच की चूड़ियों जैसा न था कि आसानी से टूट जाए।
sare gaanv mein badlu mujhe sabse achchha adami lagta tha kyonki wo mujhe sundar sundar laakh ki goliyan banakar deta tha. mujhe apne mama ke gaanv jane ka sabse baDa chaav yahi tha ki jab main vahan se lautta tha to mere paas Dher sari goliyan hotin, rang birangi goliyan jo kisi bhi bachche ka man moh len.
vaise to mere mama ke gaanv ka hone ke karan mujhe badlu ko badlu mama kahna chahiye tha parantu mein use badlu mama na kahkar badlu kaka kaha karta tha jaisa ki gaanv ke sabhi bachche use kaha karte the. badlu ka makan kuch uunche par bana tha. makan ke samne baDa sa sahn tha jismen ek purana neem ka vriksh laga tha. usi ke niche baithkar badlu apna kaam kiya karta tha. baghal mein bhatthi dahakti rahti jismen wo laakh pighlaya karta. samne ek lakDi ki chaukhat paDi rahti jis par laakh ke mulayam hone par wo use salakh ke saman patla karke chuDi ka akar deta. paas mein chaar chhah vibhinn akar ki belananuma mungeriyan rakhi rahtin jo aage se kuch patli aur pichhe se moti hotin. laakh ki chuDi ka akar dekar wo unhen mungeriyon par chaDhakar gol aur chikna banata aur tab ek ek kar pure haath ki chuDiyan bana chukne ke pashchat wo un par rang karta.
badlu ye karya sada hi ek machiye par baithkar kiya karta tha jo bahut hi purani thi. baghal mein hi uska hukka rakha rahta jise wo beech beech mein pita rahta. gaanv mein mera duphar ka samay adhiktar badlu ke paas bitta. wo mujhe lala kaha karta aur mere pahunchte hi mere liye turant ek machiya manga deta. main ghanton baithe baithe use is prakar chuDiyan banate dekhta rahta. lagbhag roz hi wo chaar chhah joDe chuDiyan banata. pura joDa bana lene par wo use belan par chaDhakar kuch kshan chupchap dekhta rahta mano wo belan na hokar kisi nav vadhu ki kalai ho.
badlu manihar tha. chuDiyan banana uska paitrik pesha tha aur vastav mein wo bahut hi sundar chuDiyan banata tha. uski banai hui chuDiyon ki khapat bhi bahut thi. us gaanv mein to sabhi striyan uski banai hui chuDiyan pahanti hi theen aas paas ke ganvon ke log bhi usse chuDiyan le jate the. parantu wo kabhi bhi chuDiyon ko paison se bechta na tha. uska abhi tak vastu vinimay ka tariqa tha aur log anaj ke badle usse chuDiyan le jate the. badlu svbhaav se bahut sidha tha. mainne kabhi bhi use kisi se jhagaDte nahin dekha. haan, shadi vivah ke avasron par wo avashya zid pakaD jata tha. jivan bhar chahe koi usse muft chuDiyan le jaye parantu vivah ke avsar par wo sari kasar nikal leta tha. akhir suhag ke joDe ka mahattv hi aur hota hai. mujhe yaad hai, mere mama ke yahan kisi laDki ke vivah par zara si kisi baat par bigaD gaya tha aur phir usko manane mein lohe lag ge the. vivah mein isi joDe ka mulya itna baDh jata tha ki uske liye uski gharvali ko sare vastra milte, Dheron anaj milta, usko apne liye pagDi milti aur rupe jo milte so alag.
yadi sansar mein badlu ko kisi baat se chiDh thi to wo thi kaanch ki chuDiyon se. yadi kisi bhi stri ke hathon mein use kaanch ki chuDiyan dikh jatin to wo andar hi andar kuDh uthta aur kabhi kabhi to do chaar baten bhi suna deta.
mujhse to wo ghanton baten kiya karta. kabhi meri paDhai ke bare mein puchhta, kabhi mere ghar ke bare mein aur kabhi yon hi shahr ke jivan ke bare mein. main usse kahta ki shahr mein sab kaanch ki chuDiyan pahante hain to wo uttar deta, shahr ki baat aur hai, lala! vahan to sabhi kuch hota hai. vahan to aurten apne marad ka haath pakaDkar saDkon par ghumti bhi hain aur phir unki kalaiyan nazuk hoti hain na! laakh ki chuDiyan pahnen to moch na aa jaye.
kabhi kabhi badlu meri achchhi khasi khatir bhi karta. jin dinon uski gaay ke doodh hota wo sada mere liye malai bachakar rakhta aur aam ki fasal mein to main roz hi uske yahan se do chaar aam kha aata. parantu in sab baton ke atirikt jis karan wo mujhe achchha lagta wo ye tha ki lagbhag roz hi wo mere liye ek do goliyan bana deta.
main bahudha har garmi ki chhutti mein apne mama ke yahan chala jata aur ek aadh mahine vahan rahkar skool khulne ke samay tak vapas aa jata. parantu do teen baar hi main apne mama ke yahan gaya hounga tabhi mere pita ki ek door ke shahr mein badli ho gai aur ek lambi avadhi tak main apne mama ke gaanv na ja saka. tab lagbhag aath das varshon ke baad jab main vahan gaya to itna baDa ho chuka tha ki laakh ki goliyon mein meri ruchi nahin rah gai thi. atः gaanv mein hote hue bhi kai dinon tak mujhe badlu ka dhyaan na aaya. is beech mainne dekha ki gaanv mein lagbhag sabhi striyan kaanch ki chuDiyan pahne hain. virle hi hathon mein mainne laakh ki chuDiyan dekhin. tab ek din sahsa mujhe badlu ka dhyaan ho aaya. baat ye hui ki barsat mein mere mama ki chhoti laDki angan mein phisalkar gir paDi aur uske haath ki kaanch ki chuDi tutkar uski kalai mein ghus gai aur usse khoon bahne laga. mere mama us samay ghar par na the. mujhe hi uski marham patti karni paDi. tabhi sahsa mujhe badlu ka dhyaan ho aaya aur mainne socha ki usse mil auun. atah shaam ko main ghumte ghumte uske ghar chala gaya. badlu vahin chabutre par neem ke niche ek khaat par leta tha.
namaste badlu kaka! mainne kaha.
namaste bhaiya! usne meri namaste ka uttar diya aur uthkar khaat par baith gaya. parantu usne mujhe pahchana nahin aur der tak meri or niharta raha.
main hoon janardan, kaka! aapke paas se goliyan banvakar le jata tha. mainne apna parichay diya.
badlu phir bhi chup raha. mano wo apne smriti patal par atit ke chitr utaar raha ho aur tab wo ekdam bol paDa, aao aao, lala baitho! bahut din baad gaanv aaye.
haan, idhar aana nahin ho saka, kaka! mainne charpai par baithte hue uttar diya.
kuch der phir shanti rahi. mainne idhar idhar drishti dauDai. na to mujhe uski machiya hi nazar aai, na hi bhatthi.
ajkal kaam nahin karte kaka? mainne puchha.
nahin lala, kaam to kai saal se band hai. meri banai hui chuDiyan koi puchhe tab to. gaanv gaanv mein kaanch ka parchar ho gaya hai. wo kuch der chup raha, phir bola, mashin yug hai na ye, lala! ajkal sab kaam mashin se hota hai. khet bhi mashin se jote jate hain aur phir jo sundarta kaanch ki chuDiyon mein hoti hai, laakh mein kahan sambhav hai?
lekin kaanch baDa khatarnak hota hai. baDi jaldi toot jata hai. mainne kaha.
nazuk to phir hota hi hai lala! kahte kahte use khansi aa gai aur wo der tak khansata raha.
mujhe laga use dama hai. avastha ke saath saath uska sharir Dhal chuka tha. uske hathon par aur mathe par nasen ubhar aai theen.
jane kaise usne meri shanka bhaanp li aur bola, dama nahin hai mujhe. fasli khansi hai. yahi mahine do mahine se aa rahi hai. das pandrah din mein theek ho jayegi.
main chup raha. mujhe laga uske andar koi bahut baDi vyatha chhipi hai. main der tak sochta raha ki is mashin yug ne kitne haath kaat diye hain. kuch der phir shanti rahi jo mujhe achchhi nahin lagi.
aam ki fasal ab kaisi hai, kaka? kuch der pashchat mainne baat ka vishay badalte hue puchha.
achchhi hai lala, bahut achchhi hai, usne lahakkar uttar diya aur andar apni beti ko avaz di, ari rajjo, lala ke liye aam to le aa. phir meri or mukhatib hokar bola, maaf karna lala, tumhein aam khilana bhool gaya tha.
nahin, nahin kaka aam to is saal bahut khaye hain.
vaah vaah!, bina aam khilaye kaise jane dunga tumko?
main chup ho gaya. mujhe ve din yaad ho aaye jab wo mere liye malai bachakar rakhta tha.
gaay to achchhi hai na kaka? mainne puchha.
gaay kahan hai, lala! do saal hue bech di. kahan se khilata?
itne mein rajjo, uski beti, andar se ek Daliya mein Dher se aam le aai. ye to bahut hain kaka! itne kahan kha paunga? mainne kaha.
vaah vaah! wo hans paDa, shahri thahre na! main tumhari umar ka tha to iske chaugune aam ek bakhat mein kha jata tha.
aap logon ki baat aur hai. mainne uttar diya.
achchha, beti, lala ko chaar paanch aam chhantakar do. sindurivale dena. dekho lala kaise hain? isi saal ye peD taiyar hua hai.
rajjon ne chaar paanch aam anjuli mein lekar meri or baDha diye. aam lene ke liye mainne haath baDhaya to mero nigah ek kshan ke liye uske hathon par thithak gai. gori gori kalaiyon par laakh ki chuDiyan bahut hi phab rahi theen.
badlu ne meri drishti dekh li aur bol paDa, yahi akhiri joDa banaya tha zamindar sahab ki beti ke vivah par. das aane paise mujhko de rahe the. mainne joDa nahin diya. kaha, shahr se le aao.
mainne aam le liye aur khakar thoDi der pashchat chala aaya. mujhe prasannata hui ki badlu ne harkar bhi haar nahin mani thi. uska vyaktitv kaanch ki chuDiyon jaisa na tha ki asani se toot jaye.
sare gaanv mein badlu mujhe sabse achchha adami lagta tha kyonki wo mujhe sundar sundar laakh ki goliyan banakar deta tha. mujhe apne mama ke gaanv jane ka sabse baDa chaav yahi tha ki jab main vahan se lautta tha to mere paas Dher sari goliyan hotin, rang birangi goliyan jo kisi bhi bachche ka man moh len.
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gaay kahan hai, lala! do saal hue bech di. kahan se khilata?
itne mein rajjo, uski beti, andar se ek Daliya mein Dher se aam le aai. ye to bahut hain kaka! itne kahan kha paunga? mainne kaha.
vaah vaah! wo hans paDa, shahri thahre na! main tumhari umar ka tha to iske chaugune aam ek bakhat mein kha jata tha.
aap logon ki baat aur hai. mainne uttar diya.
achchha, beti, lala ko chaar paanch aam chhantakar do. sindurivale dena. dekho lala kaise hain? isi saal ye peD taiyar hua hai.
rajjon ne chaar paanch aam anjuli mein lekar meri or baDha diye. aam lene ke liye mainne haath baDhaya to mero nigah ek kshan ke liye uske hathon par thithak gai. gori gori kalaiyon par laakh ki chuDiyan bahut hi phab rahi theen.
badlu ne meri drishti dekh li aur bol paDa, yahi akhiri joDa banaya tha zamindar sahab ki beti ke vivah par. das aane paise mujhko de rahe the. mainne joDa nahin diya. kaha, shahr se le aao.
mainne aam le liye aur khakar thoDi der pashchat chala aaya. mujhe prasannata hui ki badlu ne harkar bhi haar nahin mani thi. uska vyaktitv kaanch ki chuDiyon jaisa na tha ki asani se toot jaye.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।