बूढ़ी मिसेज वाँग को भी निश्चय ही पता था कि युद्ध हो रहा था। हर व्यक्ति को ज्ञात था कि यह युद्ध एक दीर्घावधि से जारी था और जापानी चीनियों की निर्दयता से हत्या कर रहे थे। पर अभी तक यह बात प्रमाणित नहीं थी और इसको केवल अफ़वाह ही समझा जाता था, क्योंकि वाँगस का कोई आदमी नहीं मारा गया था। पीले दरिया के मैदानी किनारे पर स्थित वाँगस के गाँव ने, जो मिसेज वाँग का ख़ानदानी गाँव था, कभी किसी जापानी को नहीं देखा था। यही कारण था कि वे लोग केवल कभी-कभार जापानियों के बारे में बातें ही करके रह जाते थे।
यह आरंभिक गर्मियों की एक शाम थी। मिसेज वाँग खाना खाकर नित्य की तरह दरिया की रोकथाम के लिए बाँधे गए पुश्ते पर पानी का चढ़ाव देखने के लिए आ गई। वह जापानियों से अधिक उस दरिया से भयभीत थी। वह उस दरिया की भयंकरता से अच्छी तरह अवगत थी। एक-एक करके गाँव के बाक़ी लोग भी मिसेज वाँग के पीछे ही पुश्ते पर चढ़ गए और दरिया के पानी को देखने लगे, जो साँपों की किसी टोली की तरह लहरा-लहरा कर पुश्ते की ऊँचाई को चाट रहा था।
“इस मौसम में मैंने दरिया के पानी में इतना चढ़ाव कभी नहीं देखा।” मिसेज वाँग ने कहा, फिर वह अपने पोते लिटल पिंग के लाए हुए बाँस के स्टूल पर बैठ गई और पानी में थूक दिया।
“यह बूढ़ा शैतान तो जापानियों से भी अधिक भयानक है।” लिटल पिंग दरिया की ओर देखता हुआ बोला।
“बेवक़ूफ़!” मिसेज वाँग जल्दी से बोली, “पानी का देवता सुन लेगा, कोई और बात करो।”
फिर वे जापानियों की बातें करने लगे।
“अगर हम किसी जापानी को देखें तो उसे कैसे पहचानेंगे?” टूंग ने पूछा, जो मिसेज वाँग का भतीजा था।
“तुम फ़ौरन जान जाओगे,” मिसेज वाँग ने आत्मविश्वास से कहा, “मैंने एक बार एक विदेशी को देखा था। उसका क़द मेरे मकान की छत से भी ऊँचा था और उसके बाल मटियाले रंग के थे। और आँखें, आँखें तो बिलकुल मछली की आँखों से मिलती-जुलती थीं। कोई भी आदमी जो हम जैसा न हो, बस, वही जापानी है।”
हर व्यक्ति बड़े ग़ौर से उसकी बातें सुन रहा था, क्योंकि वह गाँव की वृद्धतम महिला थी और गाँव वालों के लिए उसकी बात में ख़ासा वज़न था।
“पर आप उन्हें देख नहीं सकतीं, दादी माँ!” लिटल पिंग बोला, “वे अपने विमानों में बैठे आकाश में छुप जाते हैं।”
मिसेज वाँग ने इस बात का तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया, हालाँकि इससे पूर्व वह एक बार बड़े विश्वास से यह कह चुकी थीं कि वह जब तक कोई विमान देख न ले, ऐसी बातों पर यक़ीन नहीं कर सकती। बहुत सारी ऐसी बातें, जिन पर उसे यक़ीन नहीं था, सच साबित हो चुकी थीं। वह इसीलिए लिटल पिंग की बात सुनकर पुश्ते पर बैठे हुए आदमियों पर केवल एक नज़र डालकर रह गई। मौसम बड़ा ठंडा और सुखद था।
“मैं जापानियों पर यक़ीन नहीं रखती!” मिसेज वाँग ने लापरवाही से कहा।
लोग उसकी बात पर ज़रा-सा हँस दिए, पर कोई कुछ बोला नहीं। किसी ने अपना पाइप सुलगाया। यह लिटल पिंग की बीवी थी, जो मिसेज वाँग की भी चहेती थी, वह चुपचाप पाइप से कश लेती रही।
“दादी माँ!” लिटल पिंग की बीवी ने अपने मधुर स्वर में कहा, “अब आप चलें। सूरज डूब चुका है और दरिया पर से कुहरा उठ रहा है।”
“हाँ, मुझे चलना चाहिए।” बूढ़ी वाँग ने अनुमोदन में सिर हिलाते हुए कहा, फिर उसने दरिया की ओर देखा।
यह दरिया! यह अच्छाइयों के साथ-साथ ख़राबियों से भी भरा हुआ था। यदि इस पर बाँध बाँध दिया जाए और पानी रोक लिया जाए तो यह खेतों को सींचता है, पर निश्चित सतह से यदि एक इंच पानी भी ऊँचा हो जाए, तो यह दहाड़ते हुए अजगर की तरह सब कुछ तहस-नहस करके रख देता है। इसी प्रकार तो वह उसके पति को भी बहा कर ले गया था, क्योंकि वह अपने हिस्से के पुश्ते की ओर से लापरवाह हो गया था। वह सदा उसकी मरम्मत कर दिया करता था और उस पर मिट्टी की तहें जमाया करता था। फिर एक दिन दरिया चढ़ा और पुश्ते को तोड़ता हुआ निकल गया। उसका पति मकान के बाहर भाग गया और वह अपने बच्चे को लेकर छत पर चढ़ गई। फिर दरिया पीछे ढकेल दिया गया और उस समय वह वहीं था। अब गाँव की ओर से पुश्ते की देखरेख मिसेज वाँग ने सँभाल ली थी। वह बिना नागा शाम को उस पर चढ़ आती और उसकी देखभाल के लिए देर तक उस पर घूमती रहती। लोग उस पर हँसते और कहते कि अगर पुश्ते में कभी कोई ख़राबी हो गई तो मिसेज वाँग उन्हें समय से पूर्व अवगत कर देगी।
आज तक किसी के मन में यह ख़याल नहीं आया था कि गाँव को दरिया से दूर ले जाते। वाँग ख़ानदान यहाँ पीढ़ियों से बसा हुआ था। बाढ़ के बाद जो लोग उसके विध्वंस से बच जाते, वे पहले से ज़्यादा जोश के साथ उससे निपटने की तैयारियों में लग जाते।
अपने बिस्तर पर नीली मच्छरदानी के अंदर लेटकर वह जल्दी ही शांतिपूर्ण निद्रा की गोद में पहुँच गई। सोने से कुछ देर पहले तक वह बड़े विस्मय से यह सोचती रही थी कि आख़िर ये जापानी क्यों लड़ रहे हैं? केवल बहुत ही वहशी क़िस्म के लोग ही युद्ध किया करते थे। फिर उसकी कल्पना में वहशी लोग घुस आते। अगर वे लोग आ भी जाएँ, तो उनका आतिथ्य-सत्कार करके उन्हें समझाया जा सकता है कि आख़िर वह इस शांत देहात में क्या लेने आए हैं! यही कारण था कि जब लिटल पिंग की बीवी चीख़ी कि जापानी आ गए, तो मिसेज वाँग बिलकुल नहीं घबराई।
“उनके लिए चाय...चाय के प्याले...” वह बड़बड़ाती हुई उठ बैठी।
“दादी माँ! अब समय नहीं है!” लिटल पिंग की बीवी फिर चिल्लाई, “वे आ गए हैं। वे यहाँ आ गए हैं!”
“कहाँ?” मिसेज वाँग बुरी तरह जागकर चिल्लाई।
‘आकाश में!” उसकी बहू रोनी-सी आवाज़ में बोली।
सब लोग बाहर निकल गए थे और साफ़ निखरी सुबह के प्रकाश में आकाश की ओर देख रहे थे, जहाँ हेमंत ऋतु में जंगली हंसों की तरह बड़े-बड़े पक्षी तैर रहे थे।
‘यह...यह आकाश पर क्या है?...यह क्या चीज़ है?” मिसेज वाँग विमानों को देखकर चिल्लाई।
उसी समय चाँदी के अंडे जैसी कोई चीज़ विमान से निकली और गाँव से ज़रा दूर एक खेत में जा पड़ी। मिट्टी का एक बड़ा फ़व्वारा-सा ऊपर उठा और वे सब उसे देखने के लिए उस ओर दौड़ पड़े। वहाँ किसी तालाब की तरह का लगभग तीस फुट गोलाई का गड्ढा बन गया था। आश्चर्य से सबकी ज़बानें गूँगी हो गईं। इससे पहले कि कोई कुछ बोलता, एक ‘अंडा’ और गिरा, उसके बाद एक और। फिर हर आदमी, जिसका जिधर मुँह उठा, भाग निकला। मिसेज वाँग के अलावा सब भाग रहे थे, जब लिटल पिंग की बीवी ने बाँह पकड़कर उसे अपने साथ घसीटना चाहा तो उसने अपना हाथ छुड़ा लिया और जाकर पुश्ते के किनारे पर बैठ गई।
“मैं भाग नहीं सकती,” वह बोली, “मैं सत्तर वर्ष के दौरान आज तक नहीं भागी। तुम चली जाओ, लिटल पिंग कहाँ है?” उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई, पर लिटल पिंग पहले ही भाग चुका था।
“अपने दादा की तरह वह भी भागने वालों में सदा सबसे आगे रहता है।” मिसेज वाँग ने कहा, पर लिटल पिंग की बीवी उसे छोड़कर नहीं जाना चाहती थी। मिसेज वाँग ने अपनी बहू को उसकी ज़िम्मेदारी का एहसास दिलाया, क्योंकि उसकी बहू एक बच्चे की माँ बनने वाली थी।
अगर इस हंगामे में लिटल पिंग तुमसे बिछड़ भी जाए और तुम्हें न मिल सके तो भी ज़रूरी है कि उसका बच्चा ज़िंदा पैदा हो!” यह सुनकर भी लिटल पिंग की बीवी वहीं खड़ी रही तो मिसेज वाँग ज़ोर से बोली, “जल्दी से भाग जाओ!”
अब वे विमानों के शोर के कारण एक दूसरे की आवाज़ भी नहीं सुन सकती थीं। फिर न चाहते हुए भी लिटल पिंग की बीवी दूसरों के साथ दौड़ गई।
अब तक हालाँकि केवल कुछ मिनट ही बीते थे, पर पूरा गाँव खँडहर बन चुका था। घास-फूस की छतें और लकड़ी के बीम जल रहे थे। घरों में से हर व्यक्ति निकल-निकलकर भाग रहा था और जब कोई मिसेज वाँग के पास से गुज़रता तो चिल्लाकर उसे अपने साथ आने के लिए कहता।
‘आ रही हूँ, आ रही हूँ।” वह वहीं बैठी-बैठी चिल्लाती, पर उसने अपनी जगह से हरकत भी नहीं की। वह अकेली चुपचाप बैठी अपने सामने असाधारण दृश्य देखती रही। अब न जाने कहाँ से कुछ अन्य विमान भी आ गए थे। और पहले वाले विमानों पर हमला कर रहे थे। सूरज अब पकी हुई गेहूँ की फ़सलों के ऊपर आ गया था और वे विमान एक-दूसरे पर झपट-झपटकर वार कर रहे थे। उसने सोचा कि जब यह लड़ाई ख़त्म हो जाए, तो वह गाँव में जाकर देखेगी कि क्या कुछ बाक़ी बच गया है! अब कहीं-कहीं इक्का-दुक्का दीवारें छतों का सहारा लिए खड़ी थीं। यहाँ से उसे उसका घर नज़र नहीं आ रहा था। पर ये दृश्य उसके लिए बिल्कुल ही अजनबी नहीं थे। एक बार उस गाँव पर डाकुओं ने हमला कर दिया था और वह भी इसी प्रकार घरों को जलाकर गए थे। और अब दुबारा ऐसा ही हुआ था। जलते हुए मकान तो उसकी समझ में आ रहे थे। पर आकाश पर चाँदी की तरह चमकते हुए विमानों की लड़ाई उसकी बुद्धि से परे थी। न जाने ये क्या चीज़ें थीं और आकाश पर कैसे ठहरी हुई थीं। वह वहाँ भूखी बैठी सोचती रही और देखती रही।
‘‘मैं इनमें से किसी एक को निकट से देखूँगी।” वह बड़बड़ाई और दूसरे ही क्षण जैसे उसकी इच्छा पूरी हो गई। एक विमान लहराता हुआ बल खाता ज़मीन पर इस प्रकार आया जैसे वह बुरी तरह ज़ख़्मी हो। वह सीधा उस खेत में जा गिरा, जिसमें पिछले ही दिन लिटल पिंग ने सोयाबीन के लिए हल चलाया था, और फिर आकाश साफ़ हो गया। अब वहाँ केवल वह थी और ज़मीन पर पड़ा हुआ विमान!
वह अपनी जगह से उठी। इस उम्र में उसे कभी किसी चीज़ से भयभीत होने की ज़रूरत नहीं थी। उसने निश्चय किया कि विमान को निकट जाकर देखना चाहिए। वह खेतों में से गुज़रती हुई उस ओर बढ़ी। गाँव के सन्नाटे में से तीन कुत्ते निकलकर उसके निकट आ गए और भय से सिकुड़ते हुए उसके साथ-साथ चलने लगे। जब कुत्ते उस विमान के पास पहुँचे तो चौंककर बुरी तरह भौंकने लगे।
“चुप!” मिसेज वाँग उन्हें बाँस के उस टुकड़े से मारती हुई चिल्लाई, जिसका सहारा लेकर वह चलती थी। वह चीख़ रही थी, “कमबख़्तो! यहाँ पहले ही बहुत शोर मच चुका है, अब तुम तो न भौंको!” यह कहकर उसने विमान पर बाँस का टुकड़ा मारा।
‘धातु!” वह जैसे कुत्तों से बोली, “निस्संदेह यह चाँदी है। अगर इसे पिघला लें तो वे सब धनी हो जाएँगे!” यह कहते हुए उसे अपने गाँव वालों की ग़रीबी का ख़याल आ गया था। उसने विमान के गिर्द एक चक्कर लगाया और सोचने लगी कि विमान आख़िर कैसे उड़ता होगा? यह तो बिल्कुल निर्जीव दिखाई दे रहा है। विमान के अंदर भी पूर्ण निस्तब्धता छाई थी। फिर जैसे ही वह विमान की खिड़की के पास आई, उसे अंदर छोटी-सी सीट पर एक नवयुवक आदमी गठरी की तरह पड़ा नजर आया, कुत्ते फिर गुर्राये, पर उसने छड़ी मारकर उन्हें दूर कर दिया।
‘क्या तुम ज़िंदा हो?’ “उसने नरमी से पूछा।
आवाज़ सुनकर नवयुवक ज़रा-सा कसमसाया, पर बोल न सका। उसने पास जाकर सूराख़ में झाँका, नवयुवक के पहलू से ख़ून निकल रहा था।
“तुम ज़ख़्मी हो?” वह विस्मय से बोली और नवयुवक की कलाई पकड़ी। जो अभी तक गर्म थी, पर उसमें कोई हरकत नहीं थी। वह नवयुवक को ग़ौर से देखने लगी। नवयुवक के बाल काले थे और त्वचा किसी चीनी की तरह पीली थी, पर वह चीनी नहीं था।
“दक्षिण प्रदेश का होगा,” उसने सोचा। ख़ैर, बड़ी बात यह थी कि वह ज़िंदा था।
“बेहतर होगा कि तुम बाहर आ जाओ,” वह बोली, “मैं तुम्हारे ज़ख़्म पर जड़ी-बूटियों का मरहम लगा दूँगी।”
नवयुवक मुँह-ही-मुँह में कुछ बड़बड़ाया।
“क्या कह रहे हो?” उसने पूछा, पर इस बार भी नवयुवक चुप ही रहा “मैं अभी काफ़ी मज़बूत हूँ” वह जैसे स्वयं से बोली और फिर नवयुवक की कलाई पकड़कर उसे धीरे से बाहर खींच लिया, पर इतने ही में उसकी साँस फूल गई थी।
सौभाग्यवश वह हलका-फुलका-सा आदमी था। जब वह ज़मीन पर आया, उसने अपने क़दमों पर खड़ा होना चाहा, पर फिर मिसेज वाँग पर झूल गया, जिसने फ़ौरन ही उसे सहारा दे दिया।
“अब अगर तुम मेरे घर तक चल सको तो मैं देखूँ, शायद वह वहाँ हो।”
नवयुवक इस बार बड़ी साफ़ आवाज़ में बोला। बुढ़िया ने ग़ौर से उसे सुना, पर एक शब्द भी उसके पल्ले नहीं पड़ा। फिर वह अचानक दूर हटकर खड़ी हो गई।
‘क्या बात है?” उसने पूछा।
नवयुवक ने कुत्तों की ओर इशारा कर दिया, जो दुमें ताने खड़े गुर्रा रहे थे। वह एक बार फिर बोला, पर अपने क़दमों पर खड़ा न रह सका और ज़मीन पर आ गिरा। कुत्ते तत्काल ही उस पर झपट पड़े और बुढ़िया ने दोनों हाथों से उन्हें पीट डाला।
“दूर हट जाओ!” वह उन पर चिल्लाई, “तुमसे किसने कहा है कि इसे जान से मार दो!”
फिर जब कुत्ते दूर हट गए तो उसने किसी न किसी प्रकार नवयुवक को अपनी कमर पर लादा और काँपती-डगमगाती, उसे घसीटती हुई गाँव के खंडहरों तक ले आई। उसने नवयुवक को एक गली में लिटा दिया। फिर वह कुत्तों को साथ लिए अपने मकान की तलाश में चल दी। उसका मकान ढेर हो चुका था। वह जगह उसे आसानी से मिल गई। यहीं उसका मकान था। पुश्ते में बने उस दरवाज़े के सामने जो पानी की निकासी के लिए बनाया गया था। जहाँ से वह सदा उस दरवाज़े को देखती रहती थी। गेट चमत्कारिक रूप से सुरक्षित था और न ही पुश्ते का कुछ बिगड़ा था। मकान को दुबारा बनाना कठिन नहीं था। हाँ, वक़्ती तौर पर वह अवश्य तबाह हो चुका था।
वह फिर नवयुवक के पास आ गई। वह नवयुवक को, जिस हालत में छोड़ गई थी, उसी प्रकार पड़ा हुआ था। वह पुश्ते की टेक लगाए बैठा था और हाँफ रहा था। चेहरे पर पीलापन फैला हुआ था। नवयुवक ने अपना कोट खोल दिया था और उसमें से एक थैला निकालकर, थैले में पट्टी और किसी चीज़ की बोतल निकाल ली थी। ज़ख़्मी नवयुवक फिर कुछ बोला, और फिर वह कुछ न समझ सकी। आख़िर उसने इशारे से पानी माँगा। गली में बिखरे हुए बर्तनों में से एक उठाकर वह पुश्ते पर चढ़ गई और दरिया से पानी भरकर ले आई। फिर उसने नवयुवक का ज़ख़्म धोया और पट्टी बाँधने लगी। इस दौरान नवयुवक न जाने उसे क्या-क्या बताता रहा, पर वह उसका एक शब्द भी न समझ सकी।
“तुम शायद दक्षिण की ओर के रहने वाले हो!” वह बोली, “मैंने सुना है कि तुम्हारी भाषा हमारी भाषा से भिन्न है।” वह उसको सांत्वना देने के लिए हँसी, पर वह उदास आँखों से उसे देखता ही रहा। अब वह काम से निपटकर हँसमुखता से बोली, “मैं अपने खाने के लिए कुछ ढूँढ़ लाऊँ। फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा।”
वह कुछ नहीं बोला, पुश्ते पर कमर टिकाकर फिर हाँफने लगा और इस प्रकार शून्य में नज़रें गाड़ दीं, जैसे वहाँ उसके अलावा कोई न हो।
‘जब तुम्हारे पेट में रोटी जाएगी तो तबीयत ठीक हो जाएगी!” वह बोली, “और मेरी हालत भी!” स्वयं उसे भी अब बड़े ज़ोर की भूख लग रही थी।
उसे यक़ीन था कि नानबाई टूंग की दूकान पर उसे रोटियाँ मिल सकती थीं। फिर उसे याद आया कि तंदूर दरवाज़े के अंदर की ओर था। वह दरवाज़े का फ्रेम अभी तक छत के एक कोने को सहारा दिए खड़ा था। वह दरवाज़े में आ खड़ी हुई और फिर बैठकर मलबे के नीचे हाथ घुसेड़ दिया। उसकी उँगलियाँ किसी चीज़ से टकराईं। उसके अंदर अवश्य गर्म-गर्म रोटियाँ होंगी! उसने सोचा और बड़ी होशियारी से अपना हाथ घुमाया। उसकी नाक में मिट्टी और चूने की गर्द घुस गई। उसे देर अवश्य लगी, पर जैसा कि उसका ख़याल था, टोकरी में गर्म रोटियाँ मौजूद थीं। उसने एक-एक करके रोटियों के चार रोल निकाल लिए।
“मुझ जैसी बूढ़ी औरत को मारना बड़ा मुश्किल है!” वह बड़बड़ाई और मुस्करा दी। फिर एक रोल खाते हुए वापसी के लिए मुड़ गई। काश! ज़रा-सा लहसुन और चाय का एक प्याला मिल जाता! वह सोच रही थी, पर ऐसे समय में सारी चीज़ें कैसे मिल सकती थीं?
अचानक उसने कुछ आवाज़ें सुनीं। जब वह पुश्ते के निकट पहुँची तो देखा कि कुछ सैनिक नवयुवक को घेरे हुए खड़े थे। न जाने वे कहाँ से आ गए थे! वे सब उस ज़ख़्मी नवयुवक को घूर रहे थे, जो आँखें बंद किए पड़ा था।
“तुम यह जापानी कहाँ से पकड़ लाईं बूढ़ी माँ?” उसे देखते ही वे चिल्लाए।
“कौन जापानी?” वह उनके निकट आते ही बोली।
“यह!” वे नवयुवक की ओर देखते हुए चिल्लाए।
“क्या यह जापानी है?” वह विस्मय से चीख़ पड़ी, “पर यह तो बिल्कुल हमारी तरह ही दिखाई देता है। इसकी आँखें काली हैं और इसकी त्वचा…”
“जापानी है यह जापानी!” उनमें से एक उसकी बात काटकर चीख़ पड़ा।
“ठीक है, होगा!” वह धीरे से बोली, “यह आकाश पर से आ गिरा था!”
“यह रोटी मुझे दो!” दूसरा सैनिक चिल्लाया।
“ले लो!” वह बोली, “पर यह एक इसके लिए छोड़ दो!”
‘इस जापानी बंदर को रोटी खिलाओगी?” किसी ने क्रोध में कहा।
“मेरे ख़याल में यह भी भूखा है।” मिसेज वाँग बोली। वह अब उन सैनिकों को नापसंद करने लगी थी। यों भी सैनिक उसे सदा से नापसंद थे। “मेरी इच्छा है कि तुम लोग यहाँ से चले जाओ!” वह बोली, “तुम लोग आख़िर यहाँ क्या कर रहे हो? हमारा गाँव तो सदा शांतिपूर्ण रहा है।”
“अब तो सचमुच यह शांतिपूर्ण दिखाई दे रहा है! यह सब इन जापानियों का किया-धरा है।
“हाँ! मेरा भी यही ख़याल है।” उसने अनुमोदन किया, “पर क्यों?” उसने फ़ौरन पूछा, “यह बात मेरी समझ में नहीं आई!”
“क्यों? इस कारण कि यह हमारी ज़मीन पर अधिकार करना चाहते हैं।”
‘हमारी ज़मीन पर?” उसने दुहराया, “नहीं, वह इस पर कभी अधिकार नहीं कर सकते।”
“कभी नहीं!” वे सब चिल्लाए।
बातें करने और बुढ़िया की बाँटी रोटी खाने के दौरान उनकी नज़रें पूर्व की ओर जमी थीं।
“तुम लोग पूर्व की ओर क्यों देख रहे हो?” मिसेज वाँग ने उनसे पूछा।
“उस ओर से जापानी आ रहे हैं!” उस आदमी ने उत्तर दिया, जिसने बुढ़िया की रोटी ली थी।
“क्या तुम लोग उनसे भाग रहे हो?”
“हम यहाँ बहुत थोड़ी संख्या में हैं,” वह याचक अंदाज़ में बोला, “हम लोग एक गाँव की रक्षा पर नियुक्त थे—पाऊ एन गाँव, जो...”
“मैं उस गाँव को जानती हूँ,” वाँग ने उसका वाक्य काट दिया, “उसके बारे में विस्तार से बताने की ज़रूरत नहीं है। मैंने अपना लड़कपन वहीं बिताया है। पाऊ कैसा है? वह जिसकी सड़क पर चाय की दुकान है, मेरा भाई है।”
“वहाँ अब एक भी व्यक्ति ज़िंदा नहीं है।” सैनिक ने बताया, “अब वहाँ जापानियों का अधिकार है, उनकी भारी सेना विदेशी बंदूकों और टैंकों के साथ वहाँ आ गई थी, इसलिए हम लोग क्या कर सकते थे?”
“निश्चय ही तुम केवल भाग ही सकते थे, “उसने गर्दन हिला दी। वह स्वयं को बीमार और दुर्बल-सा महसूस कर रही थी, ‘तो वह भी मर गया!’ उसका इकलौता भाई भी मर गया। अब अपने बाप के ख़ानदान की वह अंतिम प्राणी ज़िंदा बची थी।
सैनिक अब उसे अकेला छोड़कर पीछे हटते जा रहे थे।
“वह आ रहे हैं, काले बदमाश!” वे कह रहे थे, “अच्छा होगा, हम लोग यहाँ से चले जाएँ।”
सूर्य सिर पर आ चुका था और काफ़ी गर्मी थी। अगर उसे जाना ही था तो अच्छा होगा कि अब चली जाए, पर पहले वह पुश्ते पर चढ़कर उनको दिशा का अनुमान लगा लेगी। वे लोग पश्चिम की ओर गए थे। उस ओर दृष्टिसीमा तक मैदान फैला हुआ था। मीलों दूर उसे कुछ लोगों की भीड़-सी नज़र आ रही थी। उसने सोचा कि वह अपने गाँव वालों को दूसरे गाँव में जाकर देखेगी। शायद वे लोग वहीं गए हों।
वह धीरे-धीरे पुश्ते पर चढ़ गई। धूप बहुत तेज़ थी, पर पुश्ते पर आकर उसे हवा लगी तो ज़रा शांति आई। उसे यह देखकर एक झटका-सा लगा कि दरिया पुश्ते के किनारे तक चढ़ आया था। शायद यह पानी उस आख़िरी घंटे में बढ़ा था।
“तू बूढ़े शैतान!” वह ग़ुस्से से बोली, “पानी का देवता सुनता है तो सुन ले। यह है ही शैतान! पहले ही सारा गाँव तबाह हो गया है और ऊपर से यह भी बाढ़ की धमकियाँ दे रहा है।”
उसने झुककर अपने हाथ धोए। फिर मुँह पर पानी डाला। पानी बिल्कुल ठंडा था, जैसे बरसात का पानी हो। फिर उसने उठकर चारों ओर नज़र दौड़ाई। पश्चिम की ओर दूर, केवल भागते हुए सैनिकों की आकृतियाँ थीं। उनकी पृष्ठभूमि में अगले गाँव का धुँधला-सा नक़्शा नज़र आ रहा था, जो ज़मीन का ऊँचा-सा टुकड़ा बना हुआ था। अच्छा होगा कि वह उस गाँव के लिए चल दे। निस्संदेह लिटल पिंग, उसकी बीवी और अन्य लोग वहाँ उसकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, उसके मस्तिष्क में आया। फिर जैसे ही वह जाने के लिए मुड़ी, उसकी नज़र पूर्वी क्षितिज पर जम गई। पहले-पहल उसे केवल धूल का एक बादल-सा नज़र आया। फिर वह बादल जल्दी ही काले चमकदार धब्बों में बदल गया। ये धब्बे गतिशील थे। उसे जल्दी ही पता चल गया कि वे आदमी थे—बहुत सारे आदमी। एक पूरी सेना, और फिर वह जान गई कि यह कौन-सी सेना थी!
यह है जापानी सेना! उसने सोचा, उनके ऊपर गरजते हुए विमान थे, वे शत्रु की तलाश में उनके सिरों पर मँडरा रहे थे।
“न जाने तुम लोग किसकी तलाश में हो!” वह ऊँची आवाज़ में बोली, “अब तो केवल मैं, लिटल पिंग और उसकी बीवी ही बचे हैं, तुमने मेरे भाई को तो पहले ही मार दिया है।”
वह तो भूल ही गई थी कि उसका भाई मर चुका था, पर अब उसे याद आ गया। उसकी बड़ी अच्छी दुकान थी। साफ़-सुथरी, अच्छी चाय, अच्छा मीट। सदा एक दाम रखता था। वह बड़ा अच्छा आदमी था। उसके अलावा उसकी बीवी और सात बच्चों का क्या हुआ? स्पष्ट है कि वे सब भी मारे गए होंगे और अब ये जापानी उसकी तलाश में थे। उसे ख़याल आया कि पुश्ते पर तो वह आसानी से देख ली जाएगी, इसलिए वह तेज़ी से नीचे उतर गई।
अभी वह बीच में ही थी कि उसे पानी का फाटक याद आ गया। यह बूढ़ा दरिया सदा ही उनके लिए मुसीबत बना रहा है। अब वह अपनी सारी बदमाशियों को ज़रा-सा हरजाना क्यों न चुका दे! यह सदा साज़िशें करता रहा है। किनारे काटता रहा है। ज़मीन दबाता रहा है, तो फिर क्यों नहीं! वह एक क्षण के लिए डगमगाई। बेचारा मुरदा जापानी नवयुवक भी इस बाढ़ में बह जाएगा। बड़ा अच्छा लड़का नज़र आता है और फिर उसने नवयुवक जापानी को कटार लगने से भी तो बचाया था। निस्संदेह यह उसकी जान बचाने के समान तो नहीं था, पर उस जैसी ही क्रिया थी। वह नवयुवक के पास गई। फिर उसे खींचती हुई ऊपर ले आई और पुश्ते के किनारे पर लिटाकर दुबारा नीचे उतर गई। उसे अच्छी तरह पता था कि पानी का फाटक कैसे खोला जाता है। फ़सलों को पानी देने के लिए बाँध का एक दरवाज़ा तो एक बच्चा भी खोल सकता था, पर वह यह भी जानती थी कि पूरा फाटक कैसे खोला जाता है। सवाल यह था कि क्या वह उसे इतनी जल्दी खोल सकती थी कि पानी की लपेट से स्वयं को बचा सके!
“मैं एक बूढ़ी स्त्री ही तो हूँ, “वह बड़बड़ायी। वह एक क्षण को हिचकिचाई कैसी दयनीय बात थी कि वह लिटल पिंग की बीवी के बच्चे को नहीं देख सकती थी। न जाने वह कैसा होगा! पर आदमी सब कुछ कहाँ देख सकता है! उसने जीवन में बहुत कुछ देख लिया। आख़िर इस नज़ारेबाज़ी का कहीं तो अंत होना ही था!
उसने फिर पूर्व की ओर एक नज़र डाली। जापानी अब मैदान में से आते हुए साफ़ नज़र आ रहे थे। वे काले और चमकते हुए बिंदुओं की एक लंबी गतिशील पंक्ति दिखाई दे रहे थे। अगर वह यह दरवाज़ा खोल दे तो यह तेज़-तीखा पानी गुर्राता हुआ मैदान को लपेटता, एक बड़ी झील का रूप बनाता हुआ उनकी ओर बढ़ेगा और फिर शायद वे सब सदा-सदा के लिए पानी में खो जाएँगे। निश्चय ही ये लोग उस तक, लिटल पिंग और उसकी बीवी तक कभी नहीं पहुँच सकते थे।
वह बड़े आत्मविश्वास से फाटक की ओर मुड़ी और बड़बड़ाई, “ठीक है, कुछ लोग विमानों से लड़ते हैं और कुछ बंदूकों से लड़ते हैं। अगर तुम्हारे पास इस जैसा उद्दंड दरिया हो तो दरिया से भी लड़ो।”
उसने फाटक में से लकड़ी का एक मोटा-सा खूँटा खींच लिया। हरी काई के कारण खूँटा बड़ी आसानी से बाहर फिसल आया था। पानी की एक तेज़ धार बाहर उछल पड़ी। उसे अब केवल एक मोटी कील और खींचनी थी। फिर दरिया अपनी पूरी तेज़ी से उद्दंड बाढ़ के रूप में बाहर निकल आता। मिसेज वाँग ने ज़ोर लगाया। कील अपनी सूराख़ में से ज़रा-सी फिसली। यह काम करके तो शायद मैं अपने सारे पाप ही क्षमा करवा लूँ। उसने सोचा, शायद मेरा बुड्ढा पति भी अपनी यातना से मुक्ति पा ले। इस काम के आगे उसके एक हाथ का महत्त्व ही क्या है? फिर हम दोनों...सहसा उसके विचारों का क्रम टूट गया। अचानक कील फिसलकर उसके हाथ में आ गई। एक धमाके से पुश्ते का फाटक गिरा और पानी के भव्य रेले ने उसे अपनी लपेट में ले लिया। उसने अपना दम घुटता-सा महसूस किया, पर फिर उसे दरिया को आख़िरी बार संबोधित करने का अवसर मिल गया, “आ जा बूढ़े शैतान!”
फिर उसे ऐसा लगा, जैसे पानी ने उसे बुरी तरह जकड़कर आकाश पर उछाल दिया हो। उसके आगे-पीछे, ऊपर-नीचे हर ओर पानी ही पानी था। वह उसे किसी ऐसी गेंद की तरह इधर-इधर उछाल रहा था जो किसी नटखट बच्चे के हाथ लग गई हो। दरिया उसे अपनी लहरों में अच्छी तरह लपेटकर गुर्राता हुआ दुश्मनों की ओर बढ़ गया।
buDhi misej vaang ko bhi nishchay hi pata tha ki yudh ho raha tha. har vekti ko j~naat tha ki ye yudh ek dirghavadhi se jari tha aur japani chiniyon ki nirdayta se hattya kar rahe the. par abhi tak ye baat pramanait nahin thi aur isko keval afvah hi samjha jata tha, kyonki vangas ka koi adami nahin mara gaya tha. pile dariya ke maidani kinare par sthit vangas ke gaanv ne, jo misej vaang ka khandani gaanv tha, kabhi kisi japani ko nahin dekha tha. yahi karan tha ki ve log keval kabhi kabhar japaniyon ke bare mein baten hi karke rah jate the.
ye arambhik garmiyon ki ek shaam thi. misej vaang khana khakar nity ki tarah dariya ki roktham ke liye bandhe gaye pushte par pani ka chaDhav dekhne ke liye aa gai. wo japaniyon se adhik us dariya se bhaybhit thi. wo us dariya ki bhayankarta se achchhi tarah avgat thi. ek ek karke gaanv ke baqi log bhi misej vaang ke pichhe hi pushte par chaDh gaye aur dariya ke pani ko dekhne lage, jo sanpon ki kisi toli ki tarah lahra lahra kar pushte ki unchai ko chaat raha tha.
“is mausam mein mainne dariya ke pani mein itna chaDhav kabhi nahin dekha. ” misej vaang ne kaha, phir wo apne pote lital ping ke laye hue baans ke stool par baith gai aur pani mein thook diya.
“yah buDha shaitan to japaniyon se bhi adhik bhayanak hai. ” lital ping dariya ki or dekhta hua bola.
“bevaquf!” misej vaang jaldi se boli, “pani ka devta sun lega, koi aur baat karo. ”
phir ve japaniyon ki baten karne lage.
“agar hum kisi japani ko dekhen to use kaise pahchanenge?” toong ne puchha, jo misej vaang ka bhatija tha.
“tum fauran jaan jaoge,” misej vaang ne atmavishvas se kaha, “mainne ek baar ek videshi ko dekha tha. uska qad mere makan ki chhat se bhi uncha tha aur uske baal matyale rang ke the. aur ankhen, ankhen to bilkul machhli ki ankhon se milti julti theen. koi bhi adami jo hum jaisa na ho, bus, vahi japani hai. ”
har vekti baDe ghaur se uski baten sun raha tha, kyonki wo gaanv ki vriddhtam mahila thi aur gaanv valon ke liye uski baat mein khasa vazan tha.
misej vaang ne is baat ka tatkal koi uttar nahin diya, halanki isse poorv wo ek baar baDe vishvas se ye kah chuki theen ki wo jab tak koi viman dekh na le, aisi baton par yaqin nahin kar sakti. bahut sari aisi baten, jin par use yaqin nahin tha, sach sabit ho chuki theen. wo isiliye lital ping ki baat sunkar pushte par baithe hue adamiyon par keval ek nazar Dalkar rah gai. mausam baDa thanDa aur sukhad tha.
“main japaniyon par yaqin nahin rakhti!” misej vaang ne laparvahi se kaha.
log uski baat par zara sa hans diye, par koi kuch bola nahin. kisi ne apna paip sulgaya. ye lital ping ki bivi thi, jo misej vaang ki bhi chaheti thi, wo chupchap paip se kash leti rahi.
“dadi maan!” lital ping ki bivi ne apne madhur svar mein kaha, “ab aap chalen. suraj Doob chuka hai aur dariya par se kuhra uth raha hai. ”
“haan, mujhe chalna chahiye. ” buDhi vaang ne anumodan mein sir hilate hue kaha, phir usne dariya ki or dekha.
ye dariya! ye achchhaiyon ke saath saath kharabiyon se bhi bhara hua tha. yadi is par baandh baandh diya jaye aur pani rok liya jaye to ye kheton ko sinchta hai, par nishchit satah se yadi ek inch pani bhi uncha ho jaye, to ye dahaDte hue ajgar ki tarah sab kuch tahas nahas karke rakh deta hai. isi prakar to wo uske pati ko bhi baha kar le gaya tha, kyonki wo apne hisse ke pushte ki or se laparvah ho gaya tha. wo sada uski marammat kar diya karta tha aur us par mitti ki tahen jamaya karta tha. phir ek din dariya chaDha aur pushte ko toDta hua nikal gaya. uska pati makan ke bahar bhaag gaya aur wo apne bachche ko lekar chhat par chaDh gai. phir dariya pichhe Dhakel diya gaya aur us samay wo vahin tha. ab gaanv ki or se pushte ki dekhrekh misej vaang ne sanbhal li thi. wo bina naga shaam ko us par chaDh aati aur uski dekhbhal ke liye der tak us par ghumti rahti. log us par hanste aur kahte ki agar pushte mein kabhi koi kharabi ho gai to misej vaang unhen samay se poorv avgat kar degi.
aaj tak kisi ke man mein ye khayal nahin aaya tha ki gaanv ko dariya se door le jate. vaang khandan yahan piDhiyon se bsa hua tha. baaDh ke baad jo log uske vidhvans se bach jate, ve pahle se zyada josh ke saath usse nipatne ki taiyariyon mein lag jate.
apne bistar par nili machchhardani ke andar letkar wo jaldi hi shantipurn nidra ki god mein pahunch gai. sone se kuch der pahle tak wo baDe vismay se ye sochti rahi thi ki akhir ye japani kyon laD rahe hain? keval bahut hi vahshi qim ke log hi yudh kiya karte the. phir uski kalpana mein vahshi log ghus aate. agar ve log aa bhi jayen, to unka atithy satkar karke unhen samjhaya ja sakta hai ki akhir wo is shaant dehat mein kya lene aaye hain! yahi karan tha ki jab lital ping ki bivi chikhi ki japani aa gaye, to misej vaang bilkul nahin ghabrai.
“unke liye chaay. . . chaay ke pyale. . . ” wo baDbaDati hui uth baithi.
“dadi maan! ab samay nahin hai!” lital ping ki bivi phir chillai, “ve aa gaye hain. ve yahan aa gaye hain!”
“kahan?” misej vaang buri tarah jagkar chillai.
‘akash men!” uski bahu roni si avaz mein boli.
sab log bahar nikal gaye the aur saaf nikhri subah ke parkash mein akash ki or dekh rahe the, jahan hemant ritu mein jangali hanson ki tarah baDe baDe pakshi tair rahe the.
‘yah. . . ye akash par kya hai?. . . ye kya cheez hai?” misej vaang vimanon ko dekhkar chillai.
usi samay chandi ke anDe jaisi koi cheez viman se nikli aur gaanv se zara door ek khet mein ja paDi. mitti ka ek baDa favvara sa upar utha aur ve sab use dekhne ke liye us or dauD paDe. vahan kisi talab ki tarah ka lagbhag tees phut golai ka gaDDha ban gaya tha. ashchary se sabki zabanen gungi ho gain. isse pahle ki koi kuch bolta, ek ‘anDa’ aur gira, uske baad ek aur. phir har adami, jiska jidhar munh utha, bhaag nikla. misej vaang ke alava sab bhaag rahe the, jab lital ping ki bivi ne baanh pakaDkar use apne saath ghasitna chaha to usne apna haath chhuDa liya aur jakar pushte ke kinare par baith gai.
“main bhaag nahin sakti,” wo boli, “main sattar varsh ke dauran aaj tak nahin bhagi. tum chali jao, lital ping kahan hai?” usne charon or nazar dauDai, par lital ping pahle hi bhaag chuka tha.
“apne dada ki tarah wo bhi bhagne valon mein sada sabse aage rahta hai. ” misej vaang ne kaha, par lital ping ki bivi use chhoDkar nahin jana chahti thi. misej vaang ne apni bahu ko uski zimmedari ka ehsaas dilaya, kyonki uski bahu ek bachche ki maan banne vali thi.
agar is hangame mein lital ping tumse bichhaD bhi jaye aur tumhein na mil sake to bhi zaruri hai ki uska bachcha zinda paida ho!” ye sunkar bhi lital ping ki bivi vahin khaDi rahi to misej vaang zor se boli, “jaldi se bhaag jao!”
ab ve vimanon ke shor ke karan ek dusre ki avaz bhi nahin sun sakti theen. phir na chahte hue bhi lital ping ki bivi dusron ke saath dauD gai.
ab tak halanki keval kuch minat hi bite the, par pura gaanv khanDahar ban chuka tha. ghaas phoos ki chhaten aur lakDi ke beem jal rahe the. gharon mein se har vekti nikal nikalkar bhaag raha tha aur jab koi misej vaang ke paas se guzarta to chillakar use apne saath aane ke liye kahta.
‘a rahi hoon, aa rahi hoon. ” wo vahin baithi baithi chillati, par usne apni jagah se harkat bhi nahin ki. wo akeli chupchap baithi apne samne asadharan drishya dekhti rahi. ab na jane kahan se kuch any viman bhi aa gaye the. aur pahle vale vimanon par hamla kar rahe the. suraj ab paki hui gehun ki faslon ke upar aa gaya tha aur ve viman ek dusre par jhapat jhapatkar vaar kar rahe the. usne socha ki jab ye laDai khatm ho jaye, to wo gaanv mein jakar dekhegi ki kya kuch baqi bach gaya hai! ab kahin kahin ikka dukka divaren chhaton ka sahara liye khaDi theen. yahan se use uska ghar nazar nahin aa raha tha. par ye drishya uske liye bilkul hi ajnabi nahin the. ek baar us gaanv par dakuon ne hamla kar diya tha aur wo bhi isi prakar gharon ko jalakar gaye the. aur ab dubara aisa hi hua tha. jalte hue makan to uski samajh mein aa rahe the. par akash par chandi ki tarah chamakte hue vimanon ki laDai uski buddhi se pare thi. na jane ye kya chizen theen aur akash par kaise thahri hui theen. wo vahan bhukhi baithi sochti rahi aur dekhti rahi.
‘‘main inmen se kisi ek ko nikat se dekhungi. ” wo baDabDai aur dusre hi kshan jaise uski ichha puri ho gai. ek viman lahrata hua bal khata zamin par is prakar aaya jaise wo buri tarah zakhmi ho. wo sidha us khet mein ja gira, jismen pichhle hi din lital ping ne soyabin ke liye hal chalaya tha, aur phir akash saaf ho gaya. ab vahan keval wo thi aur zamin par paDa hua viman!
wo apni jagah se uthi. is umr mein use kabhi kisi cheez se bhaybhit hone ki zarurat nahin thi. usne nishchay kiya ki viman ko nikat jakar dekhana chahiye. wo kheton mein se guzarti hui us or baDhi. gaanv ke sannate mein se teen kutte nikalkar uske nikat aa gaye aur bhay se sikuDte hue uske saath saath chalne lage. jab kutte us viman ke paas pahunche to chaunkkar buri tarah bhaunkne lage.
“chup!” misej vaang unhen baans ke us tukDe se marti hui chillai, jiska sahara lekar wo chalti thi. wo cheekh rahi thi, “kambakhto! yahan pahle hi bahut shor mach chuka hai, ab tum to na bhaunko!” ye kahkar usne viman par baans ka tukDa mara.
‘dhatu!” wo jaise kutton se boli, “nissandeh ye chandi hai. agar ise pighla len to ve sab dhani ho jayenge!” ye kahte hue use apne gaanv valon ki gharib ka khayal aa gaya tha. usne viman ke gird ek chakkar lagaya aur sochne lagi ki viman akhir kaise uDta hoga? ye to bilkul nirjiv dikhai de raha hai. viman ke andar bhi poorn nistabdhata chhai thi. phir jaise hi wo viman ki khiDki ke paas i, use andar chhoti si seat par ek navyuvak adami gathri ki tarah paDa najar aaya, kutte phir gurraye, par usne chhaDi markar unhen door kar diya.
‘kya tum zinda ho?’ “usne narmi se puchha.
avaz sunkar navyuvak zara sa kasamsaya, par bol na saka. usne paas jakar surakh mein jhanka, navyuvak ke pahlu se khoon nikal raha tha.
“tum zakhmi ho?” wo vismay se boli aur navyuvak ki kalai pakDi. jo abhi tak garm thi, par usmen koi harkat nahin thi. wo navyuvak ko ghaur se dekhne lagi. navyuvak ke baal kale the aur tvacha kisi chini ki tarah pili thi, par wo chini nahin tha.
“dakshain pardesh ka hoga,” usne socha. khair, baDi baat ye thi ki wo zinda tha.
“behtar hoga ki tum bahar aa jao,” wo boli, “main tumhare zakhm par jaDi butiyon ka marham laga dungi. ”
navyuvak munh hi munh mein kuch baDabDaya.
“kya kah rahe ho?” usne puchha, par is baar bhi navyuvak chup hi raha “main abhi kafi mazbut hoon” wo jaise svayan se boli aur phir navyuvak ki kalai pakaDkar use dhire se bahar kheench liya, par itne hi mein uski saans phool gai thi.
saubhagyvash wo halka phulka sa adami tha. jab wo zamin par aaya, usne apne qadmon par khaDa hona chaha, par phir misej vaang par jhool gaya, jisne fauran hi use sahara de diya.
“ab agar tum mere ghar tak chal sako to main dekhun, shayad wo vahan ho. ”
navyuvak is baar baDi saaf avaz mein bola. buDhiya ne ghaur se use suna, par ek shabd bhi uske palle nahin paDa. phir wo achanak door hatkar khaDi ho gai.
‘kya baat hai?” usne puchha.
navyuvak ne kutton ki or ishara kar diya, jo dumen tane khaDe gurra rahe the. wo ek baar phir bola, par apne qadmon par khaDa na rah saka aur zamin par aa gira. kutte tatkal hi us par jhapat paDe aur buDhiya ne donon hathon se unhen peet Dala.
“door hat jao!” wo un par chillai, “tumse kisne kaha hai ki ise jaan se maar do!”
phir jab kutte door hat gaye to usne kisi na kisi prakar navyuvak ko apni kamar par lada aur kanpti Dagmagati, use ghasitti hui gaanv ke khanDahron tak le i. usne navyuvak ko ek gali mein lita diya. phir wo kutton ko saath liye apne makan ki talash mein chal di. uska makan Dher ho chuka tha. wo jagah use asani se mil gai. yahin uska makan tha. pushte mein bane us darvaze ke samne jo pani ki nikasi ke liye banaya gaya tha. jahan se wo sada us darvaze ko dekhti rahti thi. gate chamatkarik roop se surakshait tha aur na hi pushte ka kuch bigDa tha. makan ko dubara banana kathin nahin tha. haan, vaqti taur par wo avashy tabah ho chuka tha.
wo phir navyuvak ke paas aa gai. wo navyuvak ko, jis haalat mein chhoD gai thi, usi prakar paDa hua tha. wo pushte ki tek lagaye baitha tha aur haanph raha tha. chehre par pilapan phaila hua tha. navyuvak ne apna coat khol diya tha aur usmen se ek thaila nikalkar, thaile mein patti aur kisi cheez ki botal nikal li thi. zakhmi navyuvak phir kuch bola, aur phir wo kuch na samajh saki. akhir usne ishare se pani manga. gali mein bikhre hue bartanon mein se ek uthakar wo pushte par chaDh gai aur dariya se pani bharkar le i. phir usne navyuvak ka zakhm dhoya aur patti bandhne lagi. is dauran navyuvak na jane use kya kya batata raha, par wo uska ek shabd bhi na samajh saki.
“tum shayad dakshain ki or ke rahne vale ho!” wo boli, “mainne suna hai ki tumhari bhasha hamari bhasha se bhinn hai. ” wo usko santvana dene ke liye hansi, par wo udaas ankhon se use dekhta hi raha. ab wo kaam se nipatkar hansamukhata se boli, “main apne khane ke liye kuch DhoonDh laun. phir sab kuch theek ho jayega. ”
wo kuch nahin bola, pushte par kamar tikakar phir hanphane laga aur is prakar shunya mein nazren gaaD deen, jaise vahan uske alava koi na ho.
‘jab tumhare pet mein roti jayegi to tabiyat theek ho jayegi!” wo boli, “aur meri haalat bhee!” svayan use bhi ab baDe zor ki bhookh lag rahi thi.
use yaqin tha ki nanbai toong ki dukan par use rotiyan mil sakti theen. phir use yaad aaya ki tandur darvaze ke andar ki or tha. wo darvaze ka phrem abhi tak chhat ke ek kone ko sahara diye khaDa tha. wo darvaze mein aa khaDi hui aur phir baithkar malbe ke niche haath ghuseD diya. uski ungliyan kisi cheez se takrain. uske andar avashy garm garm rotiyan hongi! usne socha aur baDi hoshiyari se apna haath ghumaya. uski naak mein mitti aur chune ki gard ghus gai. use der avashy lagi, par jaisa ki uska khayal tha, tokari mein garm rotiyan maujud theen. usne ek ek karke rotiyon ke chaar rol nikal liye.
“mujh jaisi buDhi aurat ko marana baDa mushkil hai!” wo baDabDai aur muskra di. phir ek rol khate hue vapsi ke liye muD gai. kaash! zara sa lahsun aur chaay ka ek pyala mil jata! wo soch rahi thi, par aise samay mein sari chizen kaise mil sakti theen?
achanak usne kuch avazen sunin. jab wo pushte ke nikat pahunchi to dekha ki kuch sainik navyuvak ko ghere hue khaDe the. na jane ve kahan se aa gaye the! ve sab us zakhmi navyuvak ko ghoor rahe the, jo ankhen band kiye paDa tha.
“tum ye japani kahan se pakaD lain buDhi maan?” use dekhte hi ve chillaye.
“kaun japani?” wo unke nikat aate hi boli.
“yah!” ve navyuvak ki or dekhte hue chillaye.
“kya ye japani hai?” wo vismay se cheekh paDi, “par ye to bilkul hamari tarah hi dikhai deta hai. iski ankhen kali hain aur iski tvacha…”
“japani hai ye japani!” unmen se ek uski baat katkar cheekh paDa.
“theek hai, hoga!” wo dhire se boli, “yah akash par se aa gira tha!”
“yah roti mujhe do!” dusra sainik chillaya.
“le lo!” wo boli, “par ye ek iske liye chhoD do!”
‘is japani bandar ko roti khilaogi?” kisi ne krodh mein kaha.
“mere khayal mein ye bhi bhukha hai. ” misej vaang boli. wo ab un sainikon ko napasand karne lagi thi. yon bhi sainik use sada se napasand the. “meri ichha hai ki tum log yahan se chale jao!” wo boli, “tum log akhir yahan kya kar rahe ho? hamara gaanv to sada shantipurn raha hai. ”
“ab to sachmuch ye shantipurn dikhai de raha hai! ye sab in japaniyon ka kiya dhara hai.
“kyon? is karan ki ye hamari zamin par adhikar karna chahte hain. ”
‘hamari zamin par?” usne duhraya, “nahin, wo is par kabhi adhikar nahin kar sakte. ”
“kabhi nahin!” ve sab chillaye.
baten karne aur buDhiya ki banti roti khane ke dauran unki nazren poorv ki or jami theen.
“tum log poorv ki or kyon dekh rahe ho?” misej vaang ne unse puchha.
“us or se japani aa rahe hain!” us adami ne uttar diya, jisne buDhiya ki roti li thi.
“kya tum log unse bhaag rahe ho?”
“ham yahan bahut thoDi sankhya mein hain,” wo yachak andaz mein bola, “ham log ek gaanv ki rakhsha par niyukt the—pau en gaanv, jo. . . ”
“main us gaanv ko janti hoon,” vaang ne uska vaaky kaat diya, “uske bare mein vistar se batane ki zarurat nahin hai. mainne apna laDakpan vahin bitaya hai. pau kaisa hai? wo jiski saDak par chaay ki dukan hai, mera bhai hai. ”
“vahan ab ek bhi vekti zinda nahin hai. ” sainik ne bataya, “ab vahan japaniyon ka adhikar hai, unki bhari sena videshi bandukon aur tankon ke saath vahan aa gai thi, isliye hum log kya kar sakte the?”
“nishchay hi tum keval bhaag hi sakte the, “usne gardan hila di. wo svayan ko bimar aur durbal sa mahsus kar rahi thi, ‘to wo bhi mar gaya!’ uska iklauta bhai bhi mar gaya. ab apne baap ke khandan ki wo antim parani zinda bachi thi.
sainik ab use akela chhoDkar pichhe hatte ja rahe the.
“vah aa rahe hain, kale badmash!” ve kah rahe the, “achchha hoga, hum log yahan se chale jayen. ”
surya sir par aa chuka tha aur kafi garmi thi. agar use jana hi tha to achchha hoga ki ab chali jaye, par pahle wo pushte par chaDhkar unko disha ka anuman laga legi. ve log pashchim ki or gaye the. us or drishtisima tak maidan phaila hua tha. milon door use kuch logon ki bheeD si nazar aa rahi thi. usne socha ki wo apne gaanv valon ko dusre gaanv mein jakar dekhegi. shayad ve log vahin gaye hon.
wo dhire dhire pushte par chaDh gai. dhoop bahut tez thi, par pushte par aakar use hava lagi to zara shanti i. use ye dekhkar ek jhatka sa laga ki dariya pushte ke kinare tak chaDh aaya tha. shayad ye pani us akhiri ghante mein baDha tha.
“tu buDhe shaitan!” wo ghusse se boli, “pani ka devta sunta hai to sun le. ye hai hi shaitan! pahle hi sara gaanv tabah ho gaya hai aur upar se ye bhi baaDh ki dhamkiyan de raha hai. ”
usne jhukkar apne haath dhoe. phir munh par pani Dala. pani bilkul thanDa tha, jaise barsat ka pani ho. phir usne uthkar charon or nazar dauDai. pashchim ki or door, keval bhagte hue sainikon ki akritiyan theen. unki prishthabhumi mein agle gaanv ka dhundhla sa naqsha nazar aa raha tha, jo zamin ka uncha sa tukDa bana hua tha. achchha hoga ki wo us gaanv ke liye chal de. nissandeh lital ping, uski bivi aur any log vahan uski pratiksha kar rahe honge, uske mastishk mein aaya. phir jaise hi wo jane ke liye muDi, uski nazar purvi kshaitij par jam gai. pahle pahal use keval dhool ka ek badal sa nazar aaya. phir wo badal jaldi hi kale chamakdar dhabbon mein badal gaya. ye dhabbe gatishil the. use jaldi hi pata chal gaya ki ve adami the—bahut sare adami. ek puri sena, aur phir wo jaan gai ki ye kaun si sena thee!
ye hai japani sena! usne socha, unke upar garajte hue viman the, ve shatru ki talash mein unke siron par manDara rahe the.
“n jane tum log kiski talash mein ho!” wo unchi avaz mein boli, “ab to keval main, lital ping aur uski bivi hi bache hain, tumne mere bhai ko to pahle hi maar diya hai. ”
wo to bhool hi gai thi ki uska bhai mar chuka tha, par ab use yaad aa gaya. uski baDi achchhi dukan thi. saaf suthari, achchhi chaay, achchha meet. sada ek daam rakhta tha. wo baDa achchha adami tha. uske alava uski bivi aur saat bachchon ka kya hua? aspasht hai ki ve sab bhi mare gaye honge aur ab ye japani uski talash mein the. use khayal aaya ki pushte par to wo asani se dekh li jayegi, isliye wo tezi se niche utar gai.
abhi wo beech mein hi thi ki use pani ka phatak yaad aa gaya. ye buDha dariya sada hi unke liye musibat bana raha hai. ab wo apni sari badmashiyon ko zara sa harjana kyon na chuka de! ye sada sazishen karta raha hai. kinare katta raha hai. zamin dabata raha hai, to phir kyon nahin! wo ek kshan ke liye Dagmagai. bechara murda japani navyuvak bhi is baaDh mein bah jayega. baDa achchha laDka nazar aata hai aur phir usne navyuvak japani ko katar lagne se bhi to bachaya tha. nissandeh ye uski jaan bachane ke saman to nahin tha, par us jaisi hi kriya thi. wo navyuvak ke paas gai. phir use khinchti hui upar le i aur pushte ke kinare par litakar dubara niche utar gai. use achchhi tarah pata tha ki pani ka phatak kaise khola jata hai. faslon ko pani dene ke liye baandh ka ek darvaza to ek bachcha bhi khol sakta tha, par wo ye bhi janti thi ki pura phatak kaise khola jata hai. saval ye tha ki kya wo use itni jaldi khol sakti thi ki pani ki lapet se svayan ko bacha sake!
“main ek buDhi istri hi to hoon, “vah baDabDayi. wo ek kshan ko hichakichai kaisi dayniy baat thi ki wo lital ping ki bivi ke bachche ko nahin dekh sakti thi. na jane wo kaisa hoga! par adami sab kuch kahan dekh sakta hai! usne jivan mein bahut kuch dekh liya. akhir is nazarebazi ka kahin to ant hona hi tha!
usne phir poorv ki or ek nazar Dali. japani ab maidan mein se aate hue saaf nazar aa rahe the. ve kale aur chamakte hue binduon ki ek lambi gatishil pankti dikhai de rahe the. agar wo ye darvaza khol de to ye tez tikha pani gurrata hua maidan ko lapetta, ek baDi jheel ka roop banata hua unki or baDhega aur phir shayad ve sab sada sada ke liye pani mein kho jayenge. nishchay hi ye log us tak, lital ping aur uski bivi tak kabhi nahin pahunch sakte the.
wo baDe atmavishvas se phatak ki or muDi aur baDabDai, “theek hai, kuch log vimanon se laDte hain aur kuch bandukon se laDte hain. agar tumhare paas is jaisa uddanD dariya ho to dariya se bhi laDo. ”
usne phatak mein se lakDi ka ek mota sa khunta kheench liya. hari kai ke karan khunta baDi asani se bahar phisal aaya tha. pani ki ek tez dhaar bahar uchhal paDi. use ab keval ek moti keel aur khinchni thi. phir dariya apni puri tezi se uddanD baaDh ke roop mein bahar nikal aata. misej vaang ne zor lagaya. keel apni surakh mein se zara si phisli. ye kaam karke to shayad main apne sare paap hi kshama karva loon. usne socha, shayad mera buDDha pati bhi apni yatana se mukti pa le. is kaam ke aage uske ek haath ka mahattv hi kya hai? phir hum donon. . . sahsa uske vicharon ka kram toot gaya. achanak keel phisalkar uske haath mein aa gai. ek dhamake se pushte ka phatak gira aur pani ke bhavy rele ne use apni lapet mein le liya. usne apna dam ghutta sa mahsus kiya, par phir use dariya ko akhiri baar sambodhit karne ka avsar mil gaya, “a ja buDhe shaitan!”
phir use aisa laga, jaise pani ne use buri tarah jakaDkar akash par uchhaal diya ho. uske aage pichhe, upar niche har or pani hi pani tha. wo use kisi aisi gend ki tarah idhar idhar uchhaal raha tha jo kisi natkhat bachche ke haath lag gai ho. dariya use apni lahron mein achchhi tarah lapetkar gurrata hua dushmanon ki or baDh gaya.
buDhi misej vaang ko bhi nishchay hi pata tha ki yudh ho raha tha. har vekti ko j~naat tha ki ye yudh ek dirghavadhi se jari tha aur japani chiniyon ki nirdayta se hattya kar rahe the. par abhi tak ye baat pramanait nahin thi aur isko keval afvah hi samjha jata tha, kyonki vangas ka koi adami nahin mara gaya tha. pile dariya ke maidani kinare par sthit vangas ke gaanv ne, jo misej vaang ka khandani gaanv tha, kabhi kisi japani ko nahin dekha tha. yahi karan tha ki ve log keval kabhi kabhar japaniyon ke bare mein baten hi karke rah jate the.
ye arambhik garmiyon ki ek shaam thi. misej vaang khana khakar nity ki tarah dariya ki roktham ke liye bandhe gaye pushte par pani ka chaDhav dekhne ke liye aa gai. wo japaniyon se adhik us dariya se bhaybhit thi. wo us dariya ki bhayankarta se achchhi tarah avgat thi. ek ek karke gaanv ke baqi log bhi misej vaang ke pichhe hi pushte par chaDh gaye aur dariya ke pani ko dekhne lage, jo sanpon ki kisi toli ki tarah lahra lahra kar pushte ki unchai ko chaat raha tha.
“is mausam mein mainne dariya ke pani mein itna chaDhav kabhi nahin dekha. ” misej vaang ne kaha, phir wo apne pote lital ping ke laye hue baans ke stool par baith gai aur pani mein thook diya.
“yah buDha shaitan to japaniyon se bhi adhik bhayanak hai. ” lital ping dariya ki or dekhta hua bola.
“bevaquf!” misej vaang jaldi se boli, “pani ka devta sun lega, koi aur baat karo. ”
phir ve japaniyon ki baten karne lage.
“agar hum kisi japani ko dekhen to use kaise pahchanenge?” toong ne puchha, jo misej vaang ka bhatija tha.
“tum fauran jaan jaoge,” misej vaang ne atmavishvas se kaha, “mainne ek baar ek videshi ko dekha tha. uska qad mere makan ki chhat se bhi uncha tha aur uske baal matyale rang ke the. aur ankhen, ankhen to bilkul machhli ki ankhon se milti julti theen. koi bhi adami jo hum jaisa na ho, bus, vahi japani hai. ”
har vekti baDe ghaur se uski baten sun raha tha, kyonki wo gaanv ki vriddhtam mahila thi aur gaanv valon ke liye uski baat mein khasa vazan tha.
misej vaang ne is baat ka tatkal koi uttar nahin diya, halanki isse poorv wo ek baar baDe vishvas se ye kah chuki theen ki wo jab tak koi viman dekh na le, aisi baton par yaqin nahin kar sakti. bahut sari aisi baten, jin par use yaqin nahin tha, sach sabit ho chuki theen. wo isiliye lital ping ki baat sunkar pushte par baithe hue adamiyon par keval ek nazar Dalkar rah gai. mausam baDa thanDa aur sukhad tha.
“main japaniyon par yaqin nahin rakhti!” misej vaang ne laparvahi se kaha.
log uski baat par zara sa hans diye, par koi kuch bola nahin. kisi ne apna paip sulgaya. ye lital ping ki bivi thi, jo misej vaang ki bhi chaheti thi, wo chupchap paip se kash leti rahi.
“dadi maan!” lital ping ki bivi ne apne madhur svar mein kaha, “ab aap chalen. suraj Doob chuka hai aur dariya par se kuhra uth raha hai. ”
“haan, mujhe chalna chahiye. ” buDhi vaang ne anumodan mein sir hilate hue kaha, phir usne dariya ki or dekha.
ye dariya! ye achchhaiyon ke saath saath kharabiyon se bhi bhara hua tha. yadi is par baandh baandh diya jaye aur pani rok liya jaye to ye kheton ko sinchta hai, par nishchit satah se yadi ek inch pani bhi uncha ho jaye, to ye dahaDte hue ajgar ki tarah sab kuch tahas nahas karke rakh deta hai. isi prakar to wo uske pati ko bhi baha kar le gaya tha, kyonki wo apne hisse ke pushte ki or se laparvah ho gaya tha. wo sada uski marammat kar diya karta tha aur us par mitti ki tahen jamaya karta tha. phir ek din dariya chaDha aur pushte ko toDta hua nikal gaya. uska pati makan ke bahar bhaag gaya aur wo apne bachche ko lekar chhat par chaDh gai. phir dariya pichhe Dhakel diya gaya aur us samay wo vahin tha. ab gaanv ki or se pushte ki dekhrekh misej vaang ne sanbhal li thi. wo bina naga shaam ko us par chaDh aati aur uski dekhbhal ke liye der tak us par ghumti rahti. log us par hanste aur kahte ki agar pushte mein kabhi koi kharabi ho gai to misej vaang unhen samay se poorv avgat kar degi.
aaj tak kisi ke man mein ye khayal nahin aaya tha ki gaanv ko dariya se door le jate. vaang khandan yahan piDhiyon se bsa hua tha. baaDh ke baad jo log uske vidhvans se bach jate, ve pahle se zyada josh ke saath usse nipatne ki taiyariyon mein lag jate.
apne bistar par nili machchhardani ke andar letkar wo jaldi hi shantipurn nidra ki god mein pahunch gai. sone se kuch der pahle tak wo baDe vismay se ye sochti rahi thi ki akhir ye japani kyon laD rahe hain? keval bahut hi vahshi qim ke log hi yudh kiya karte the. phir uski kalpana mein vahshi log ghus aate. agar ve log aa bhi jayen, to unka atithy satkar karke unhen samjhaya ja sakta hai ki akhir wo is shaant dehat mein kya lene aaye hain! yahi karan tha ki jab lital ping ki bivi chikhi ki japani aa gaye, to misej vaang bilkul nahin ghabrai.
“unke liye chaay. . . chaay ke pyale. . . ” wo baDbaDati hui uth baithi.
“dadi maan! ab samay nahin hai!” lital ping ki bivi phir chillai, “ve aa gaye hain. ve yahan aa gaye hain!”
“kahan?” misej vaang buri tarah jagkar chillai.
‘akash men!” uski bahu roni si avaz mein boli.
sab log bahar nikal gaye the aur saaf nikhri subah ke parkash mein akash ki or dekh rahe the, jahan hemant ritu mein jangali hanson ki tarah baDe baDe pakshi tair rahe the.
‘yah. . . ye akash par kya hai?. . . ye kya cheez hai?” misej vaang vimanon ko dekhkar chillai.
usi samay chandi ke anDe jaisi koi cheez viman se nikli aur gaanv se zara door ek khet mein ja paDi. mitti ka ek baDa favvara sa upar utha aur ve sab use dekhne ke liye us or dauD paDe. vahan kisi talab ki tarah ka lagbhag tees phut golai ka gaDDha ban gaya tha. ashchary se sabki zabanen gungi ho gain. isse pahle ki koi kuch bolta, ek ‘anDa’ aur gira, uske baad ek aur. phir har adami, jiska jidhar munh utha, bhaag nikla. misej vaang ke alava sab bhaag rahe the, jab lital ping ki bivi ne baanh pakaDkar use apne saath ghasitna chaha to usne apna haath chhuDa liya aur jakar pushte ke kinare par baith gai.
“main bhaag nahin sakti,” wo boli, “main sattar varsh ke dauran aaj tak nahin bhagi. tum chali jao, lital ping kahan hai?” usne charon or nazar dauDai, par lital ping pahle hi bhaag chuka tha.
“apne dada ki tarah wo bhi bhagne valon mein sada sabse aage rahta hai. ” misej vaang ne kaha, par lital ping ki bivi use chhoDkar nahin jana chahti thi. misej vaang ne apni bahu ko uski zimmedari ka ehsaas dilaya, kyonki uski bahu ek bachche ki maan banne vali thi.
agar is hangame mein lital ping tumse bichhaD bhi jaye aur tumhein na mil sake to bhi zaruri hai ki uska bachcha zinda paida ho!” ye sunkar bhi lital ping ki bivi vahin khaDi rahi to misej vaang zor se boli, “jaldi se bhaag jao!”
ab ve vimanon ke shor ke karan ek dusre ki avaz bhi nahin sun sakti theen. phir na chahte hue bhi lital ping ki bivi dusron ke saath dauD gai.
ab tak halanki keval kuch minat hi bite the, par pura gaanv khanDahar ban chuka tha. ghaas phoos ki chhaten aur lakDi ke beem jal rahe the. gharon mein se har vekti nikal nikalkar bhaag raha tha aur jab koi misej vaang ke paas se guzarta to chillakar use apne saath aane ke liye kahta.
‘a rahi hoon, aa rahi hoon. ” wo vahin baithi baithi chillati, par usne apni jagah se harkat bhi nahin ki. wo akeli chupchap baithi apne samne asadharan drishya dekhti rahi. ab na jane kahan se kuch any viman bhi aa gaye the. aur pahle vale vimanon par hamla kar rahe the. suraj ab paki hui gehun ki faslon ke upar aa gaya tha aur ve viman ek dusre par jhapat jhapatkar vaar kar rahe the. usne socha ki jab ye laDai khatm ho jaye, to wo gaanv mein jakar dekhegi ki kya kuch baqi bach gaya hai! ab kahin kahin ikka dukka divaren chhaton ka sahara liye khaDi theen. yahan se use uska ghar nazar nahin aa raha tha. par ye drishya uske liye bilkul hi ajnabi nahin the. ek baar us gaanv par dakuon ne hamla kar diya tha aur wo bhi isi prakar gharon ko jalakar gaye the. aur ab dubara aisa hi hua tha. jalte hue makan to uski samajh mein aa rahe the. par akash par chandi ki tarah chamakte hue vimanon ki laDai uski buddhi se pare thi. na jane ye kya chizen theen aur akash par kaise thahri hui theen. wo vahan bhukhi baithi sochti rahi aur dekhti rahi.
‘‘main inmen se kisi ek ko nikat se dekhungi. ” wo baDabDai aur dusre hi kshan jaise uski ichha puri ho gai. ek viman lahrata hua bal khata zamin par is prakar aaya jaise wo buri tarah zakhmi ho. wo sidha us khet mein ja gira, jismen pichhle hi din lital ping ne soyabin ke liye hal chalaya tha, aur phir akash saaf ho gaya. ab vahan keval wo thi aur zamin par paDa hua viman!
wo apni jagah se uthi. is umr mein use kabhi kisi cheez se bhaybhit hone ki zarurat nahin thi. usne nishchay kiya ki viman ko nikat jakar dekhana chahiye. wo kheton mein se guzarti hui us or baDhi. gaanv ke sannate mein se teen kutte nikalkar uske nikat aa gaye aur bhay se sikuDte hue uske saath saath chalne lage. jab kutte us viman ke paas pahunche to chaunkkar buri tarah bhaunkne lage.
“chup!” misej vaang unhen baans ke us tukDe se marti hui chillai, jiska sahara lekar wo chalti thi. wo cheekh rahi thi, “kambakhto! yahan pahle hi bahut shor mach chuka hai, ab tum to na bhaunko!” ye kahkar usne viman par baans ka tukDa mara.
‘dhatu!” wo jaise kutton se boli, “nissandeh ye chandi hai. agar ise pighla len to ve sab dhani ho jayenge!” ye kahte hue use apne gaanv valon ki gharib ka khayal aa gaya tha. usne viman ke gird ek chakkar lagaya aur sochne lagi ki viman akhir kaise uDta hoga? ye to bilkul nirjiv dikhai de raha hai. viman ke andar bhi poorn nistabdhata chhai thi. phir jaise hi wo viman ki khiDki ke paas i, use andar chhoti si seat par ek navyuvak adami gathri ki tarah paDa najar aaya, kutte phir gurraye, par usne chhaDi markar unhen door kar diya.
‘kya tum zinda ho?’ “usne narmi se puchha.
avaz sunkar navyuvak zara sa kasamsaya, par bol na saka. usne paas jakar surakh mein jhanka, navyuvak ke pahlu se khoon nikal raha tha.
“tum zakhmi ho?” wo vismay se boli aur navyuvak ki kalai pakDi. jo abhi tak garm thi, par usmen koi harkat nahin thi. wo navyuvak ko ghaur se dekhne lagi. navyuvak ke baal kale the aur tvacha kisi chini ki tarah pili thi, par wo chini nahin tha.
“dakshain pardesh ka hoga,” usne socha. khair, baDi baat ye thi ki wo zinda tha.
“behtar hoga ki tum bahar aa jao,” wo boli, “main tumhare zakhm par jaDi butiyon ka marham laga dungi. ”
navyuvak munh hi munh mein kuch baDabDaya.
“kya kah rahe ho?” usne puchha, par is baar bhi navyuvak chup hi raha “main abhi kafi mazbut hoon” wo jaise svayan se boli aur phir navyuvak ki kalai pakaDkar use dhire se bahar kheench liya, par itne hi mein uski saans phool gai thi.
saubhagyvash wo halka phulka sa adami tha. jab wo zamin par aaya, usne apne qadmon par khaDa hona chaha, par phir misej vaang par jhool gaya, jisne fauran hi use sahara de diya.
“ab agar tum mere ghar tak chal sako to main dekhun, shayad wo vahan ho. ”
navyuvak is baar baDi saaf avaz mein bola. buDhiya ne ghaur se use suna, par ek shabd bhi uske palle nahin paDa. phir wo achanak door hatkar khaDi ho gai.
‘kya baat hai?” usne puchha.
navyuvak ne kutton ki or ishara kar diya, jo dumen tane khaDe gurra rahe the. wo ek baar phir bola, par apne qadmon par khaDa na rah saka aur zamin par aa gira. kutte tatkal hi us par jhapat paDe aur buDhiya ne donon hathon se unhen peet Dala.
“door hat jao!” wo un par chillai, “tumse kisne kaha hai ki ise jaan se maar do!”
phir jab kutte door hat gaye to usne kisi na kisi prakar navyuvak ko apni kamar par lada aur kanpti Dagmagati, use ghasitti hui gaanv ke khanDahron tak le i. usne navyuvak ko ek gali mein lita diya. phir wo kutton ko saath liye apne makan ki talash mein chal di. uska makan Dher ho chuka tha. wo jagah use asani se mil gai. yahin uska makan tha. pushte mein bane us darvaze ke samne jo pani ki nikasi ke liye banaya gaya tha. jahan se wo sada us darvaze ko dekhti rahti thi. gate chamatkarik roop se surakshait tha aur na hi pushte ka kuch bigDa tha. makan ko dubara banana kathin nahin tha. haan, vaqti taur par wo avashy tabah ho chuka tha.
wo phir navyuvak ke paas aa gai. wo navyuvak ko, jis haalat mein chhoD gai thi, usi prakar paDa hua tha. wo pushte ki tek lagaye baitha tha aur haanph raha tha. chehre par pilapan phaila hua tha. navyuvak ne apna coat khol diya tha aur usmen se ek thaila nikalkar, thaile mein patti aur kisi cheez ki botal nikal li thi. zakhmi navyuvak phir kuch bola, aur phir wo kuch na samajh saki. akhir usne ishare se pani manga. gali mein bikhre hue bartanon mein se ek uthakar wo pushte par chaDh gai aur dariya se pani bharkar le i. phir usne navyuvak ka zakhm dhoya aur patti bandhne lagi. is dauran navyuvak na jane use kya kya batata raha, par wo uska ek shabd bhi na samajh saki.
“tum shayad dakshain ki or ke rahne vale ho!” wo boli, “mainne suna hai ki tumhari bhasha hamari bhasha se bhinn hai. ” wo usko santvana dene ke liye hansi, par wo udaas ankhon se use dekhta hi raha. ab wo kaam se nipatkar hansamukhata se boli, “main apne khane ke liye kuch DhoonDh laun. phir sab kuch theek ho jayega. ”
wo kuch nahin bola, pushte par kamar tikakar phir hanphane laga aur is prakar shunya mein nazren gaaD deen, jaise vahan uske alava koi na ho.
‘jab tumhare pet mein roti jayegi to tabiyat theek ho jayegi!” wo boli, “aur meri haalat bhee!” svayan use bhi ab baDe zor ki bhookh lag rahi thi.
use yaqin tha ki nanbai toong ki dukan par use rotiyan mil sakti theen. phir use yaad aaya ki tandur darvaze ke andar ki or tha. wo darvaze ka phrem abhi tak chhat ke ek kone ko sahara diye khaDa tha. wo darvaze mein aa khaDi hui aur phir baithkar malbe ke niche haath ghuseD diya. uski ungliyan kisi cheez se takrain. uske andar avashy garm garm rotiyan hongi! usne socha aur baDi hoshiyari se apna haath ghumaya. uski naak mein mitti aur chune ki gard ghus gai. use der avashy lagi, par jaisa ki uska khayal tha, tokari mein garm rotiyan maujud theen. usne ek ek karke rotiyon ke chaar rol nikal liye.
“mujh jaisi buDhi aurat ko marana baDa mushkil hai!” wo baDabDai aur muskra di. phir ek rol khate hue vapsi ke liye muD gai. kaash! zara sa lahsun aur chaay ka ek pyala mil jata! wo soch rahi thi, par aise samay mein sari chizen kaise mil sakti theen?
achanak usne kuch avazen sunin. jab wo pushte ke nikat pahunchi to dekha ki kuch sainik navyuvak ko ghere hue khaDe the. na jane ve kahan se aa gaye the! ve sab us zakhmi navyuvak ko ghoor rahe the, jo ankhen band kiye paDa tha.
“tum ye japani kahan se pakaD lain buDhi maan?” use dekhte hi ve chillaye.
“kaun japani?” wo unke nikat aate hi boli.
“yah!” ve navyuvak ki or dekhte hue chillaye.
“kya ye japani hai?” wo vismay se cheekh paDi, “par ye to bilkul hamari tarah hi dikhai deta hai. iski ankhen kali hain aur iski tvacha…”
“japani hai ye japani!” unmen se ek uski baat katkar cheekh paDa.
“theek hai, hoga!” wo dhire se boli, “yah akash par se aa gira tha!”
“yah roti mujhe do!” dusra sainik chillaya.
“le lo!” wo boli, “par ye ek iske liye chhoD do!”
‘is japani bandar ko roti khilaogi?” kisi ne krodh mein kaha.
“mere khayal mein ye bhi bhukha hai. ” misej vaang boli. wo ab un sainikon ko napasand karne lagi thi. yon bhi sainik use sada se napasand the. “meri ichha hai ki tum log yahan se chale jao!” wo boli, “tum log akhir yahan kya kar rahe ho? hamara gaanv to sada shantipurn raha hai. ”
“ab to sachmuch ye shantipurn dikhai de raha hai! ye sab in japaniyon ka kiya dhara hai.
“kyon? is karan ki ye hamari zamin par adhikar karna chahte hain. ”
‘hamari zamin par?” usne duhraya, “nahin, wo is par kabhi adhikar nahin kar sakte. ”
“kabhi nahin!” ve sab chillaye.
baten karne aur buDhiya ki banti roti khane ke dauran unki nazren poorv ki or jami theen.
“tum log poorv ki or kyon dekh rahe ho?” misej vaang ne unse puchha.
“us or se japani aa rahe hain!” us adami ne uttar diya, jisne buDhiya ki roti li thi.
“kya tum log unse bhaag rahe ho?”
“ham yahan bahut thoDi sankhya mein hain,” wo yachak andaz mein bola, “ham log ek gaanv ki rakhsha par niyukt the—pau en gaanv, jo. . . ”
“main us gaanv ko janti hoon,” vaang ne uska vaaky kaat diya, “uske bare mein vistar se batane ki zarurat nahin hai. mainne apna laDakpan vahin bitaya hai. pau kaisa hai? wo jiski saDak par chaay ki dukan hai, mera bhai hai. ”
“vahan ab ek bhi vekti zinda nahin hai. ” sainik ne bataya, “ab vahan japaniyon ka adhikar hai, unki bhari sena videshi bandukon aur tankon ke saath vahan aa gai thi, isliye hum log kya kar sakte the?”
“nishchay hi tum keval bhaag hi sakte the, “usne gardan hila di. wo svayan ko bimar aur durbal sa mahsus kar rahi thi, ‘to wo bhi mar gaya!’ uska iklauta bhai bhi mar gaya. ab apne baap ke khandan ki wo antim parani zinda bachi thi.
sainik ab use akela chhoDkar pichhe hatte ja rahe the.
“vah aa rahe hain, kale badmash!” ve kah rahe the, “achchha hoga, hum log yahan se chale jayen. ”
surya sir par aa chuka tha aur kafi garmi thi. agar use jana hi tha to achchha hoga ki ab chali jaye, par pahle wo pushte par chaDhkar unko disha ka anuman laga legi. ve log pashchim ki or gaye the. us or drishtisima tak maidan phaila hua tha. milon door use kuch logon ki bheeD si nazar aa rahi thi. usne socha ki wo apne gaanv valon ko dusre gaanv mein jakar dekhegi. shayad ve log vahin gaye hon.
wo dhire dhire pushte par chaDh gai. dhoop bahut tez thi, par pushte par aakar use hava lagi to zara shanti i. use ye dekhkar ek jhatka sa laga ki dariya pushte ke kinare tak chaDh aaya tha. shayad ye pani us akhiri ghante mein baDha tha.
“tu buDhe shaitan!” wo ghusse se boli, “pani ka devta sunta hai to sun le. ye hai hi shaitan! pahle hi sara gaanv tabah ho gaya hai aur upar se ye bhi baaDh ki dhamkiyan de raha hai. ”
usne jhukkar apne haath dhoe. phir munh par pani Dala. pani bilkul thanDa tha, jaise barsat ka pani ho. phir usne uthkar charon or nazar dauDai. pashchim ki or door, keval bhagte hue sainikon ki akritiyan theen. unki prishthabhumi mein agle gaanv ka dhundhla sa naqsha nazar aa raha tha, jo zamin ka uncha sa tukDa bana hua tha. achchha hoga ki wo us gaanv ke liye chal de. nissandeh lital ping, uski bivi aur any log vahan uski pratiksha kar rahe honge, uske mastishk mein aaya. phir jaise hi wo jane ke liye muDi, uski nazar purvi kshaitij par jam gai. pahle pahal use keval dhool ka ek badal sa nazar aaya. phir wo badal jaldi hi kale chamakdar dhabbon mein badal gaya. ye dhabbe gatishil the. use jaldi hi pata chal gaya ki ve adami the—bahut sare adami. ek puri sena, aur phir wo jaan gai ki ye kaun si sena thee!
ye hai japani sena! usne socha, unke upar garajte hue viman the, ve shatru ki talash mein unke siron par manDara rahe the.
“n jane tum log kiski talash mein ho!” wo unchi avaz mein boli, “ab to keval main, lital ping aur uski bivi hi bache hain, tumne mere bhai ko to pahle hi maar diya hai. ”
wo to bhool hi gai thi ki uska bhai mar chuka tha, par ab use yaad aa gaya. uski baDi achchhi dukan thi. saaf suthari, achchhi chaay, achchha meet. sada ek daam rakhta tha. wo baDa achchha adami tha. uske alava uski bivi aur saat bachchon ka kya hua? aspasht hai ki ve sab bhi mare gaye honge aur ab ye japani uski talash mein the. use khayal aaya ki pushte par to wo asani se dekh li jayegi, isliye wo tezi se niche utar gai.
abhi wo beech mein hi thi ki use pani ka phatak yaad aa gaya. ye buDha dariya sada hi unke liye musibat bana raha hai. ab wo apni sari badmashiyon ko zara sa harjana kyon na chuka de! ye sada sazishen karta raha hai. kinare katta raha hai. zamin dabata raha hai, to phir kyon nahin! wo ek kshan ke liye Dagmagai. bechara murda japani navyuvak bhi is baaDh mein bah jayega. baDa achchha laDka nazar aata hai aur phir usne navyuvak japani ko katar lagne se bhi to bachaya tha. nissandeh ye uski jaan bachane ke saman to nahin tha, par us jaisi hi kriya thi. wo navyuvak ke paas gai. phir use khinchti hui upar le i aur pushte ke kinare par litakar dubara niche utar gai. use achchhi tarah pata tha ki pani ka phatak kaise khola jata hai. faslon ko pani dene ke liye baandh ka ek darvaza to ek bachcha bhi khol sakta tha, par wo ye bhi janti thi ki pura phatak kaise khola jata hai. saval ye tha ki kya wo use itni jaldi khol sakti thi ki pani ki lapet se svayan ko bacha sake!
“main ek buDhi istri hi to hoon, “vah baDabDayi. wo ek kshan ko hichakichai kaisi dayniy baat thi ki wo lital ping ki bivi ke bachche ko nahin dekh sakti thi. na jane wo kaisa hoga! par adami sab kuch kahan dekh sakta hai! usne jivan mein bahut kuch dekh liya. akhir is nazarebazi ka kahin to ant hona hi tha!
usne phir poorv ki or ek nazar Dali. japani ab maidan mein se aate hue saaf nazar aa rahe the. ve kale aur chamakte hue binduon ki ek lambi gatishil pankti dikhai de rahe the. agar wo ye darvaza khol de to ye tez tikha pani gurrata hua maidan ko lapetta, ek baDi jheel ka roop banata hua unki or baDhega aur phir shayad ve sab sada sada ke liye pani mein kho jayenge. nishchay hi ye log us tak, lital ping aur uski bivi tak kabhi nahin pahunch sakte the.
wo baDe atmavishvas se phatak ki or muDi aur baDabDai, “theek hai, kuch log vimanon se laDte hain aur kuch bandukon se laDte hain. agar tumhare paas is jaisa uddanD dariya ho to dariya se bhi laDo. ”
usne phatak mein se lakDi ka ek mota sa khunta kheench liya. hari kai ke karan khunta baDi asani se bahar phisal aaya tha. pani ki ek tez dhaar bahar uchhal paDi. use ab keval ek moti keel aur khinchni thi. phir dariya apni puri tezi se uddanD baaDh ke roop mein bahar nikal aata. misej vaang ne zor lagaya. keel apni surakh mein se zara si phisli. ye kaam karke to shayad main apne sare paap hi kshama karva loon. usne socha, shayad mera buDDha pati bhi apni yatana se mukti pa le. is kaam ke aage uske ek haath ka mahattv hi kya hai? phir hum donon. . . sahsa uske vicharon ka kram toot gaya. achanak keel phisalkar uske haath mein aa gai. ek dhamake se pushte ka phatak gira aur pani ke bhavy rele ne use apni lapet mein le liya. usne apna dam ghutta sa mahsus kiya, par phir use dariya ko akhiri baar sambodhit karne ka avsar mil gaya, “a ja buDhe shaitan!”
phir use aisa laga, jaise pani ne use buri tarah jakaDkar akash par uchhaal diya ho. uske aage pichhe, upar niche har or pani hi pani tha. wo use kisi aisi gend ki tarah idhar idhar uchhaal raha tha jo kisi natkhat bachche ke haath lag gai ho. dariya use apni lahron mein achchhi tarah lapetkar gurrata hua dushmanon ki or baDh gaya.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 130-140)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : पर्ल बक
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।