तुम्हारे भगवान् और मेरे भगवान्—क्या तुम या मैं जानते हैं कि कौन ताक़तवर है?
एक देसी कहावत
कुछ का मानना है कि स्वेज के पूर्व में ईश्वर की कृपा का सीधा क़ाबू ख़त्म हो जाता है, वहाँ आदमी एशिया के देवताओं और राक्षसों की ताक़त के अधीन हो जाता है और किसी-किसी अंग्रेज़ आदमी को कभी-कभी इंग्लैंड के चर्च के भगवान् की कृपा अपनी सुरक्षा देती है।
यह मत भारत में जीवन में होने वाली बेकार की डरावनी बातों के कारण है, इससे मेरी कहानी की व्याख्या हो सकती है।
इस मामले में मेरा दोस्त पुलिसकर्मी स्ट्रिकलैंड, जो भारतवासियों के बारे में उतना जानता है, जितना जानना अच्छा होता है, तथ्यों का साक्षी हो सकता है। हमारे डॉक्टर डुमो ने भी उतना देखा, जितना मैंने और स्ट्रिकलैंड ने देखा। उसने इन प्रभावों से जो निष्कर्ष निकाला, वह बिलकुल ग़लत था। अब वह मर चुका है, बड़े अजीब ढंग से मरा था; इस बारे में कहीं और लिखा है।
फ़्लीट जब हिंदुस्तान आया, तब उसके पास थोड़ा-सा पैसा और हिमालय के निकट धर्मशाला के क़रीब थोड़ी-सी ज़मीन थी। दोनों जायदादें उसे अपने चाचा से विरासत में मिली थीं। वह उन्हीं का इंतज़ाम करने आया था। वह शरीर से बड़ा और भारी भरकम, ख़ुशमिज़ाज, किसी से झगड़ा न करने वाला इंसान था। उसकी भारतीयों के बारे में जानकारी बहुत सीमित थी और वह भाषा की परेशानी की शिकायत करता रहता था।
वह अपनी पहाड़ी जगह से उस जगह नया साल मनाने के लिए आया था और स्ट्रिकलैंड के साथ ठहरा था। नए साल की पूर्वसंध्या को क्लब में बहुत बड़ी दावत थी। रात गीली-सी थी। जब लोग राज्य की सीमाओं से इकट्ठा होते हैं तो उन्हें ऊधम मचाने का हक होता है। सरहद से 'ज़िंदा पकड़ने वालों' की एक टुकड़ी भेजी गई थी जिन्होंने साल-भर में बीस गोरे चेहरे भी नहीं देखे थे। उन्हें खाना खाने के लिए पंद्रह मील दूर अगले क़िले पर जाना पड़ता था। शराब पीने की जगह खैबरी गोली खाने का ख़तरा होता था। यहाँ के सुरक्षित वातावरण में वे ख़ुश थे। बाग में मिले एक ऐंठे हुए झाऊ चूहे को लेकर सामूहिक जुआ खेलने की कोशिश कर रहे थे। उनमें से एक निशान लगाने वाले यंत्र को अपने दाँतों में दबाकर कमरे में घूम रहा था। दक्षिण से गए आधा दर्ज़न कृषक एशिया के सबसे बड़े झूठे के साथ, जो उनकी सब कहानियों को दबाने की कोशिश कर रहा था, मसखरी कर रहे थे। सब यहाँ इकट्ठा थे और पिछले साल में हमारे कितने आदमी मारे गए और कितने लाचार हुए, इसका हिसाब-किताब कर रहे थे। वह एक गीली रात थी और मुझे याद है कि हम पोलो चैंपियनशिप के कप में पैर रखकर, सितारों के बीच सिर ऊँचा किए, पुराने वक़्त की प्यारी याद में गीत गा रहे थे, और दोस्ती की क़समें खा रहे थे। फिर हममें से कुछ गए और बर्मा को साथ मिला लिया, कुछ सूडान की तरफ़ गए जहाँ सूडान के उत्तर-पूर्व में स्थित सुआक़ीम के बाहर उनकी वहाँ के लड़ाके योद्धाओं से मुठभेड़ हुई। कुछ को सितारे मिले, कुछ को पदक, कुछ ने शादी कर ली, जो कि बुरी बात थी, पर कुछ ने इससे भी बुरे काम किए। हममें से कुछ आपस में जुड़े रहे और थोड़े-बहुत अनुभवों से पैसा बनाने की कोशिश करते रहे।
फ़्लीट ने रात की शुरुआत शेरी तथा बिटर्ज (नशीला पेय) से की। भोजन के अंत में मीठे पर पहुँचने तक वह शैंपेन पीता रहा, फिर कच्ची तीख़ी कैंप्री जिसमें व्हिस्की जैसी ताक़त होती है। इसके बाद कॉफ़ी के साथ बेनेडिक्टीन ली, चार-पाँच व्हिस्की और सोडा लिए जिससे खेल की बाज़ी बेहतर हो, ढाई बजे बीयर और बोंस लिया और फिर ब्रांडी से पीना ख़त्म किया। जब सुबह साढ़े तीन बजे वह बाहर आया तो चौदह डिग्री कुहरा था। वह अपने घोड़े के खाँसने से बहुत नाराज़ हुआ और कूदकर उस पर चढ़ना चाहता था कि घोड़ा भागकर अपनी घुड़साल में चला गया। अब मुझे और स्ट्रिकलैंड को उसे घर ले जाने की परेशानी उठानी पड़ी।
हमारी सड़क बाज़ार के बीच से, एक छोटे से हनुमान मंदिर के पास से जाती थी। देवताओं में उनकी बड़ी इज़्ज़त है। हर देवता में कुछ विशेषताएँ होती हैं और हर पुजारी में भी। मैं व्यक्तिगत तौर पर हनुमान को बहुत महत्त्व देता हूँ और उनकी जाति अर्थात्—पहाड़ों के बंदरों— के प्रति दयालु हूँ। कौन जाने, कब दोस्त की ज़रूरत पड़ जाए!
जब हम मंदिर के पास से निकले, तब मंदिर में रोशनी थी और कुछ लोग भजन गा रहे थे। एक देसी मंदिर में पुजारी को रात के किसी भी वक़्त भगवान् के लिए उठना पड़ता है। इससे पहले कि हम रोकें फ़्लीट सीढ़ियाँ चढ़कर गया, दो पुजारियों की पीठ थपथपाई और बड़ी गंभीरता से सिगार के टुकड़े की राख लाल पत्थर की हनुमान की मूर्ति के माथे पर रगड़ दी।
स्ट्रिकलैंड ने उसे खींचकर हटाने की कोशिश की, पर वह बैठ गया और गंभीरता से बोला, “वह देख रहे हो? जानवर का निशान? मैंने बनाया है। अच्छा नहीं है?”
आधे मिनिट में शोर मच गया। स्ट्रिकलैंड जानता था कि देवताओं को भ्रष्ट करने से क्या होता है। अतः बोला कि अब कुछ होगा। उस प्रदेश में काफ़ी पुराना अधिकारी होने के नाते, आस-पास के लोगों से मिलने की कमज़ोरी होने के नाते, पुजारी को जानने की वजह से उसे बहुत बुरा लग रहा था। फ़्लीट ज़मीन पर बैठा था और हिलने को राज़ी नहीं था। वह बोला, “अच्छे हनुमान का तकिया बड़ा नरम बनता है।”
तभी बिना चेतावनी के देवता की मूर्ति के पीछे से एक चाँदी जैसा सफ़ेद आदमी निकला। इस तेज़ ठंड में भी वह पूरी तरह नंगा था। उसका शरीर जमी हुई चाँदी जैसा चमक रहा था। वह बाइबल में वर्णित 'एक कोढ़ी ऐसा सफ़ेद जैसी बर्फ़' जैसा था। कई सालों से बुरी तरह कोढ़ होने के कारण उसका चेहरा नहीं रहा था। हम दोनों झुके कि फ़्लीट को उठा लें, मंदिर में ऐसी भीड़ होती जा रही थी जैसे इंसान ज़मीन में से निकल रहे हों, तभी हमारी बाँहों के नीचे से ऊदबिलाव जैसा गुर्राता हुआ वह कोढ़ी आया, फ़्लीट को कमर से पकड़ा और हमारे छुड़ाने से पहले उसने फ़्लीट की छाती पर अपना सिर दे मारा। फिर वह एक कोने में चला गया और बैठा हुआ गुर्राने लगा। भीड़ ने सारे दरवाज़ें रोक दिए।
पुजारी बहुत नाराज़ थे, पर कोढ़ी के पकड़कर मारने के बाद से थोड़ा शांत हो गए थे।
कुछ मिनट की चुप्पी के बाद एक पुजारी आया और स्ट्रिकलैंड से शुद्ध अंग्रेज़ी में बोला, “अपने दोस्त को ले जाओ। उसने हनुमान से जो करना था कर लिया, पर हनुमान ने अभी नहीं किया।” भीड़ ने रास्ता बना दिया और हम फ़्लीट को उठाकर सड़क पर ले गए।
स्ट्रिकलैंड बहुत नाराज़ था। वह बोला, “हम तीनों को छुरा मारा जा सकता था। फ़्लीट को अपनी क़िस्मत सराहनी चाहिए कि वह बिना चोट खाए बच गया।”
फ़्लीट ने किसी को धन्यवाद नहीं दिया, वह बोला कि वह सोना चाहता है। वह बुरी तरह नशे में था।
हम चल दिए, स्ट्रिकलैंड चुप था पर बहुत नाराज़ था। तभी फ़्लीट बुरी तरह काँपने लगा और पसीना-पसीना हो गया। वह बोला, “बाज़ार से तेज़ बदबू आ रही है।” उसे अचरज था कि अंग्रेज़ों के घर के पास क़साईखाना कैसे मौजूद था। “क्या तुम्हें ख़ून की गंध नहीं आ रही है?” उसने पूछा।
आख़िर हमने उसे बिस्तर पर लिटा दिया, तब सुबह हो रही थी। स्ट्रिकलैंड ने मुझे एक गिलास व्हिस्की के लिए आमंत्रित किया। पीते-पीते हम मंदिर में हुई गड़बड़ी की बात कर रहे थे। पूरी घटना ने उसे बुरी तरह परेशान कर दिया था।
स्ट्रिकलैंड का काम देसी लोगों के हथकंडों का पूरा जवाब देना था। अगर उनका कोई काम उसे ताज्जुब में डाले तो उसे नफ़रत होती थी। अभी तक वह अपने काम में पूरी तरह सफल नहीं हुआ था पर पंद्रह-बीस साल में कुछ सफलता मिलने की उम्मीद थी।
वह बोला, “उन्हें तो हमें ख़त्म कर देना चाहिए था, पर उसकी जगह वे गुर्रा रहे थे। पता नहीं वे क्या चाहते थे? मुझे यह सब ज़रा भी अच्छा नहीं लगा।’’
मैंने कहा, “मेरे ख़याल से मंदिर की प्रबंधक समिति, उनके धर्म का अपमान करने के ज़ुर्म में हमारे ख़िलाफ़ कार्यवाही करेगी। भारतीय दंड संहिता में फ़्लीट द्वारा किए गए ज़ुर्म की सज़ा थी।” स्ट्रिकलैंड ने कहा कि वह यही उम्मीद और प्रार्थना करता है कि वे ऐसा करें। लौटने से पहले मैं फ़्लीट को देखने गया। देखा कि वह दाईं करवट लेटा हुआ, छाती की बाईं तरफ़ खुजा रहा था। सुबह सात बजे, उदास, नाख़ुश और सर्दी से मारा मैं भी बिस्तर पर आ गया।
एक बजे मैं फ़्लीट के सिर के दर्द के बारे में जानने के लिए स्ट्रिकलैंड के घर गया, क्योंकि मैं सोचता था कि उसका सिर बहुत दुःख रहा होगा। फ़्लीट नाश्ता कर रहा था। वह बहुत ठीक नहीं दिख रहा था। पर उसका मिज़ाज ठीक था, क्योंकि वह रसोइए को ठीक नाश्ता न देने के लिए गालियाँ दे रहा था। एक आदमी ठंडी रात के बाद कच्चा मांस खा सके, यह अचरज की बात है। मेरे यह कहने पर फ़्लीट हँस पड़ा।
इस जगह अजीब मच्छर हैं, “वह बोला, “एक ही जगह पर वे मुझे बुरी तरह खा गए हैं।”
स्ट्रिकलैंड ने कहा, “दिखाओ, कहाँ काटा है, शायद अब ठीक हो गया हो।”
जितनी देर में नाश्ता आ रहा था, फ़्लीट ने क़मीज़ खोली और हमें दिखाया। उसकी छाती पर बाईं तरफ़ चीते की खाल के से गोलाकार पाँच या छह बेतरतीब धब्बे थे, जो काले गुलाब के दुगने आकार के थे। स्ट्रिकलैंड ने देखकर कहा, “सुबह ये गुलाबी थे, अब काले हो गए हैं।”
फ़्लीट शीशे की तरफ़ भागा तथा उधर देखकर बोला, “ये तो बड़े भयानक दिख रहे हैं। क्या हैं?”
हम कोई जवाब नहीं दे पाए। इतने में नाश्ता आ गया। चापें लाल और रसीली थीं। फ़्लीट ने घृणास्पद ढंग से तीन निकाल लीं। वह दाईं तरफ़ की दाढ़ों से चबा रहा था। मांस काटते वक़्त उसका सिर भी दाएँ कंधे की तरफ़ झुका था। ख़त्म करने पर उसने अपने अजीब व्यवहार के लिए माफ़ी माँगते हुए कहा, “मेरे ख़याल से मैं जीवन में कभी इतना भूखा नहीं हुआ। मैंने शुतुरमुर्ग की तरह निगल लिया।”
नाश्ते के बाद स्ट्रिकलैंड ने मुझसे कहा, “कहीं मत जाओ। आज रात यहीं बिता लो।”
मेरा घर उसके घर से तीन मील भी दूर नहीं था, अतः उसका यह कहना बेवक़ूफ़ी भरा लग रहा था। पर स्ट्रिकलैंड ज़िद करने लगा। वह कुछ कहने वाला था कि फ़्लीट ने शर्मिंदगी से कहा कि उसे फिर भूख लग रही है। स्ट्रिकलैंड ने एक आदमी भेजकर मेरे घर से मेरा बिस्तर और घोड़ा मँगवा लिया। हम तीनों स्ट्रिकलैंड के अस्तबल की तरफ़ गए, ताकि घुड़सवारी के लिए जाने से पहले कुछ समय वहाँ बिता लें। जिसे घोड़ों से प्यार हो, वह उन्हें घंटों देखकर भी थकता नहीं है। और जब दो आदमी वक़्त काटने के लिए ऐसा कर रहे हों तो एक-दूसरे से झूठ-सच बोलते रहते हैं।
अस्तबल में पाँच घोड़े थे। जब हम वहाँ पहुँचे तो जो दृश्य था उसे मैं कभी नहीं भूल सकता। लगा कि जैसे घोड़े पागल हो गए हैं। वे ज़ोर से हिनहिना रहे थे। ऐसा लग रहा था कि खूँटे उखाड़ देंगे; वे पसीने से नहा रहे थे, काँप रहे थे। मुँह से झाग निकाल रहे थे, डर से परेशान थे। स्ट्रिकलैंड के घोड़े उसे उतनी ही अच्छी तरह पहचानते थे, जितना कि उसके कुत्ते। इसलिए और अचरज हो रहा था। उनको इतना डरा हुआ और परेशान देखकर हम वहाँ से निकल आए। फिर स्ट्रिकलैंड मुड़ा और उसने मुझे बुलाया। घोड़े तब भी डरे हुए थे, पर हमें सहलाने दे रहे थे और अपना सिर हमारी छाती पर रख रहे थे।
स्ट्रिकलैंड ने कहा, “ये हमसे नहीं डर रहे। अगर 'आउटरेज़' (घोड़े का नाम) बोल सकता होता तो मैं उसे अपनी तीन महीने की तनख़्वाह देने को तैयार हो जाता।”
पर आउटरेज़ गूँगा था। वह सिर्फ़ अपने मालिक से लिपट सकता था, नथुने बजा सकता था, क्योंकि घोड़ों का बात करने का यही तरीक़ा होता है। अभी हम अस्तबल में ही थे कि फ़्लीट दुबारा वहाँ आया। उसे देखते ही घोड़े फिर डर से परेशान हो गए। इससे पहले कि वे हमें लात मारते हम वहाँ से भागे। स्ट्रिकलैंड ने कहा, “ऐसा लगता है कि वे तुम्हें पसंद नहीं करते।”
फ़्लीट बोला, “बेकार बात, मेरी घोड़ी मेरे पीछे कुत्ते की तरह आती है।” वह उसके पास गया। वह खुले अस्तबल में थी, जैसे ही उसने डंडा हटाया, वह आगे बढ़ी, फ़्लीट को गिराया और बगीचे की तरफ़ भाग गई। मैं हँस पड़ा, पर स्ट्रिकलैंड को हँसी नहीं आई। वह दोनों हाथों से अपनी मूँछें इतनी देर तक खींचता रहा कि वे उखड़ने वाली हो गईं। फ़्लीट अपनी घोड़ी को पकड़ने जाने की जगह उबासी लेकर बोला कि उसे नींद आ रही थी। वह घर गया और लेट गया। नए साल का दिन बिताने का यह बेवक़ूफ़ी भरा ढंग था।
स्ट्रिकलैंड घुड़साल में मेरे साथ बैठा रहा। उसने मुझसे पूछा कि मुझे फ़्लीट के आचरण में कोई ख़ास बात दिखी। मैंने कहा कि वह जानवर की तरह खा रहा था, पर उसका कारण यह हो सकता है कि वह पहाड़ों पर अकेला रहता है जहाँ हमारे जैसे और ऊँचे सभ्य समाज से उसका वास्ता ही नहीं पड़ता। स्ट्रिकलैंड को हँसी नहीं आई। मुझे लगता है वह मेरी बात सुन ही नहीं रहा था, क्योंकि उसका अगला वाक्य फ़्लीट की छाती पर बने निशान के बारे में था। मैंने कहा कि हो सकता है किसी ज़हरीली मक्खी ने काट लिया हो या कोई जन्म का निशान हो, जो अब दिखाई दे रहा था। हम दोनों ने यह ज़रूर माना कि वह देखने में अच्छा नहीं था। स्ट्रिकलैंड ने मुझे बेवक़ूफ़ कहा।”
वह बोला, “मैं क्या सोचता हूँ, यह अभी नहीं बताऊँगा, क्योंकि तब तुम मुझे पागल कहोगे, पर हो सके तो अगले कुछ दिन तुम मेरे पास रहो। मैं चाहता हूँ कि तुम फ़्लीट पर नज़र रखो। पर जब तक मैं अपने नतीज़े पर न पहुँचूँ, मुझे कुछ नहीं बताना।”
मैंने कहा, “लेकिन मैं आज रात को बाहर खाना नहीं खाऊँगा।”
स्ट्रिकलैंड बोला, “मैं भी और फ़्लीट भी, अगर वह अपना दिमाग़ न बदले तो!”
हम बगीचे में घूमते रहे और पाइप पीते रहे। जब तक पाइप ख़त्म नहीं हुआ, हम कुछ नहीं बोले, क्योंकि हम दोस्त थे और बोलने से अच्छे तंबाकू का मज़ा चला जाता है। फिर हम फ़्लीट को जगाने गए। वह जाग रहा था और अपने कमरे में बेचैनी से घूम रहा था।
हमें देखकर वह बोला, “मैं कह रहा था कि मुझे कुछ और चापें चाहिए। क्या मिलेंगी?”
हम हँसे और कहा, “जाओ, कपड़े बदल लो, पल-भर में घोड़े आ जाएँगे।”
“ठीक है,” उसने कहा, “मैं चलूँगा, पर चाप मिलने के बाद—वह कुछ कम पकी होनी चाहिए।”
वह काफ़ी गंभीर लग रहा था। चार बजे थे। हमने एक बजे नाश्ता किया था, फिर भी वह काफ़ी देर से कम पकी चापें माँग रहा था। फिर उसने घुड़सवारी के लिए कपड़े पहने, बाहर बरामदे में गया। उसकी घोड़ी तो पकड़ी नहीं जा सकी—उसे पास नहीं आने दे रही थी। तीनों घोड़े बेक़ाबू हो रहे थे—डर से पागल! आख़िर फ़्लीट ने कहा कि वह घर पर ही रुकेगा और यहीं कुछ खा लेगा। स्ट्रिकलैंड और मैं घुड़सवारी के लिए निकले। हम सोच में डूबे थे। जैसे ही हम हनुमान मंदिर के पास से निकले, वह सफ़ेद आदमी आया और हम पर म्याऊँ, म्याऊँ करने लगा।
स्ट्रिकलैंड ने कहा कि “यह मंदिर के पुराने पुजारियों में से नहीं है। मेरा मन करता है कि यह मेरे हाथ लग जाए।”
उस शाम हमारा घुड़सवारी में कोई उत्साह नहीं था। घोड़े भी बिना उत्साह के ऐसे चल रहे थे जैसे पहले चलने से थके हों।
स्ट्रिकलैंड बोला, “नाश्ते के बाद का झटका इनके लिए बहुत हो गया।” बाक़ी का पूरा रास्ता वह कुछ नहीं बोला। मेरे ख़याल से एक-दो क़सम खाई होगी पर वह बातों की गिनती में नहीं होगा।
सात बजे अँधेरा होने पर हम लौट आए तो देखा कि बँगले में कोई बत्ती नहीं जल रही थी। स्ट्रिकलैंड ने कहा, “मेरे नौकर बड़े बदमाश और लापरवाह हैं।”
मेरा घोड़ा पगडंडी पर हिनहिनाया, फ़्लीट आकर ठीक उसकी नाक के नीचे खड़ा हो गया।
स्ट्रिकलैंड ने पूछा, “तुम यहाँ बगीचे में क्या कर रहे हो?”
इतने में ही दोनों घोड़े ऐसे भागे कि हमें गिरा ही देते। अस्तबल के पास हम उतरे और वापस फ़्लीट के पास आए, जो घुटनों और हाथों के बल संतरे के झाड़ के नीचे खड़ा था।
स्ट्रिकलैंड बोला, “तुम्हें क्या हुआ है?”
फ़्लीट ने जल्दी-जल्दी भारी आवाज़ में जवाब दिया, “कुछ नहीं, तुम जानते हो मैं बाग़वानी कर रहा था। मिट्टी की ख़ुशबू बहुत अच्छी आ रही है। मेरे ख़याल से मैं सारी रात सैर करने—लंबी सैर करने जाऊँगा।” तब मुझे लगा, कहीं बहुत गड़बड़ है। मैंने स्ट्रिकलैंड से कहा, “मैं बाहर खाना खाने नहीं जाऊँगा।”
स्ट्रिकलैंड ने फ़्लीट से कहा, “उठो, तुम्हें बुख़ार आ जाएगा। अंदर चलो, खाना खाएँगे, रोशनी करेंगे। हम सब घर पर ही खाएँगे।”
फ़्लीट बेमन से उठा और बोला, “लैंप नहीं-लैंप नहीं। यहाँ ज़्यादा अच्छा है। हम बाहर बैठकर खाते हैं। कुछ और चापें—ढेर सारी और कम पकी हुई—लाल और कुरकुरी।”
उत्तरी भारत में दिसंबर के महीने में काफ़ी ठंड होती है, फ़्लीट का सुझाव एक पागल का सुझाव था।
स्ट्रिकलैंड ने सख़्ती से कहा, “अंदर आओ, फ़ौरन अंदर आओ!”
फ़्लीट अंदर आया। लैंप आने पर हमने देखा कि वह सिर से पैर तक मिट्टी और गंदगी से लथपथ था। वह शायद बग़ीचे में कलाबाजियाँ खा रहा था। रोशनी आते ही वह सिमट उठा और अपने कमरे में चला गया। उसकी आँखें भयानक लग रही थीं, उनमें कुछ नहीं था, पर उनके पीछे हरी रोशनी थी। उसका नीचे का होंठ लटका हुआ था।
स्ट्रिकलैंड ने कहा, “आज रात को भयानक परेशानी आने वाली है। तुम कपड़े मत बदलना।”
हमने खाना मँगवाया और फ़्लीट के आने का इंतज़ार करते रहे। वह अपने कमरे में चक्कर लगा रहा था, पर उसने बत्ती नहीं जलाई थी। तभी कमरे से भेड़िए की लंबी रोने की आवाज़ आई।
लोग-बाग ख़ून ठंडा होने और बाल उखड़ जाने की बात बड़े हलके ढंग से लिख या कह देते हैं। पर दोनों अनुभव बड़े भयानक हैं। उन्हें हलके ढंग से नहीं लेना चाहिए। मेरा दिल ऐसे रुक गया, जैसे चाकू घुसा दिया गया हो, स्ट्रिकलैंड मेज़ पर बिछे कपड़े जैसा सफ़ेद पड़ गया।
एक बार फिर वही रोने की आवाज़ आई और खेतों के पार से उसका जवाब आया।
इससे डर और बढ़ गया। स्ट्रिकलैंड फ़्लीट के कमरे की तरफ़ भागा, मैं पीछे भागा। हमने देखा फ़्लीट खिड़की से बाहर निकल रहा था। उसके गले से जानवरों की-सी आवाज़ निकल रही थी। जब हम उस पर चिल्लाए तो वह जवाब नहीं दे पाया। उसने थूका।
मुझे याद नहीं कि फिर क्या हुआ, पर मैं सोचता हूँ कि स्ट्रिकलैंड ने ज़रूर उसे जूते उतारने वाले लंबे उपकरण से मारकर अचंभे में डाल दिया होगा, नहीं तो मैं कभी भी उसकी छाती पर नहीं बैठ सकता था। फ़्लीट कुछ बोल नहीं पा रहा था, सिर्फ़ गुर्रा रहा था। उसकी गुर्राहट भेड़िए जैसी थी, इंसान जैसी नहीं। उसके अंदर का आदमी शायद सारा दिन लड़ने के बाद मर गया होगा। अब हमारा वास्ता उस जानवर से था, जो कभी फ़्लीट था।
पूरी घटना किसी इंसान के विवेकपूर्ण अनुभव से परे थी। मैं इसे हाइड्रोफ़ोबिया (पागल कुत्ते के काटने की बीमारी) कहना चाहता था, पर शब्द मेरे गले से नहीं निकल रहा था, क्योंकि मैं जानता था कि वह झूठ है।
हमने इस जानवर को पंखे की चमड़े की रस्सी से बाँधा और उसके हाथ के अँगूठे और पैर के अँगूठे को साथ-साथ बाँध दिया, जूते पहनने के हॉर्न को मुँह में फँसा दिया, अगर उसे लगाना जानते हो तो वह बहुत असरदार होता है। फिर हम उसे खाने वाले कमरे में ले गए। और एक आदमी को डुमो डॉक्टर के पास भेजा और कहा कि वे फ़ौरन आ जाएँ। आदमी के जाने के बाद हमने साँस ली। तब स्ट्रिकलैंड बोला, “उससे कुछ नहीं होगा, यह डॉक्टर के वश का काम नहीं है।” मैं जानता था कि वह ठीक कह रहा था।
जानवर का सिर आज़ाद था। वह उसे इधर-उधर फेंक रहा था। कोई कमरे में घुसता तो यही सोचता कि हम भेड़िए की खाल पका रहे थे।
स्ट्रिकलैंड अपनी हथेली पर ठोड़ी टिकाए बैठा उस जानवर को ज़मीन पर रेंगते हुए देख रहा था, पर कुछ कह नहीं रहा था। खींचातानी में उसकी क़मीज़ फट गई थी और छाती पर बने काले निशान दिख रहे थे। वे छाले जैसे दीख रहे थे।
हम चुपचाप बैठे देख रहे थे कि हमें बाहर कोई आवाज़ सुनाई दी। वह मादा ऊदबिलाव की-सी थी। हम दोनों खड़े हो गए और चाहे स्ट्रिकलैंड के बारे में नहीं पर अपने बारे में कह सकता हूँ कि मुझे लगा, जैसे मैं बीमार हूँ, सच में शरीर से में बीमार हूँ। हमने एक दूसरे से कहा कि वह बिल्ली है।
डुमो आया। मैंने कभी किसी व्यावसायिक आदमी को इस क़दर डरा हुआ नहीं देखा। उसने कहा कि यह तो हाइड्रोफ़ोबिया का दिल दहलाने वाला केस है। इसमें अब कुछ नहीं किया जा सकता। शांति देने वाले उपायों से उसकी तकलीफ़ और लंबी होगी। जानवर के मुँह से झाग निकल रहा था। हमने डुमो को बताया कि फ़्लीट को एक-दो बार कुत्ते ने काटा था। कोई भी आदमी जो कुत्ते पालता है, कभी-कभी उनके द्वारा काटा भी जाता है। डुमो कोई मदद नहीं कर सका सिवाय इसके कि वह यह प्रमाणपत्र दे सकता था कि फ़्लीट कुत्ते के काटे से मर रहा था। तब तक जानवर शू हार्न (जूता पहनने का छोटा-सा उपकरण) थूकने में कामयाब होकर अब गुर्रा रहा था। डुमो ने कहा अंत तय था और वह उसका कारण प्रमाणित करने को तैयार था। वह अच्छा आदमी था और हमारे साथ रुकने को राज़ी था; पर स्ट्रिकलैंड ने इससे इनकार कर दिया। वह उसका नए साल का दिन ख़राब नहीं करना चाहता था। उसने सिर्फ़ इतना कहा कि फ़्लीट की मृत्यु का असली कारण लोगों को न बताया जाए।
परेशान डुमो लौट गया। जैसे ही उसकी गाड़ी के पहियों की आवाज ख़त्म हुई, स्ट्रिकलैंड ने फुसफुसाते हुए मुझे अपने मन का शक बताया। पर उसे यह ख़ुद ही इतना अविश्वसनीय लग रहा था कि वह इस बारे में ज़ोर से बोल भी नहीं पा रहा था; मैं जो स्ट्रिकलैंड के हर विश्वास को मानता था, इसे मानने पर इतना शर्मिंदा था कि अविश्वास का दिखावा कर रहा था।
“अगर कोढ़ी ने फ़्लीट को हनुमान की मूर्ति भ्रष्ट करने के लिए जादू किया भी है तो इतनी जल्दी दंड कैसे मिला?”
जब मैं यह फुसफुसा रहा था तभी घर के बाहर से फिर आवाज़ आई और वह जानवर नए सिरे से ताक़त लगाने लगा। हमें डर था कि कहीं वह चमड़े के पट्टे को तोड़ न डाले।
“देखो!” स्ट्रिकलैंड बोला, “अगर ऐसा इस बार हुआ तो मैं क़ानून अपने हाथ में ले लूँगा। मैं तुम्हें हुक्म देता हूँ कि तुम्हें मेरी मदद करनी होगी।”
वह अपने कमरे में गया और कुछ ही मिनट बाद एक पुरानी शॉटगन की नली, मछली पकड़ने वाले काँटे का टुकड़ा, एक मोटी रस्सी और पलंग के लकड़ी के भारी पाए लेकर आया। मैंने बताया था कि उस चीख़ के दो सेकेंड के बाद जानवर को दौरे पड़ते थे। अब वह कमज़ोर होता दिखाई दे रहा था।
स्ट्रिकलैंड बड़बड़ाया, “पर वह किसी की ज़िंदगी नहीं ले सकता! वह ज़िंदगी नहीं ले सकता!”
“जानते हुए भी कि मैं अपने विश्वास के ख़िलाफ़ बोल रहा था, मैंने कहा, वह बिल्ली हो सकती है। वह बिल्ली ही होगी। अगर वह कोढ़ी ज़िम्मेदार होता तो यहाँ आने की हिम्मत कैसे करता?”
स्ट्रिकलैंड ने लकड़ी के चूल्हे में रखी बंदूक की नली आग की लौ पर रखी, मेज़ पर रस्सी फैलाई और एक बेंत के दो टुकड़े किए। मछली पकड़ने वाली डंडी एक गज की थी, आगे तार लगा था, जैसा मछली पकड़ने में होता है। उसने दोनों सिरे इकट्ठे बाँधकर एक फंदा बनाया।
फिर वह बोला, “हम उसे कैसे पकड़ें? उसे ज़िंदा और सही सलामत पकड़न है।”
मैंने कहा, “हमें नियति पर विश्वास करना होगा। पोलो खेलने वाली लकड़ी लेकर धीरे से घर के सामने वाले झाड़ में जाना होगा। चीख़ने वाला आदमी या जानवर बार-बार घर के चारों तरफ़ ऐसे चक्कर काट रहा है जैसे चौकीदार हो। हम झाड़ियों में इंतज़ार करते रहेंगे और पास आने पर उस पर झपट पड़ेंगे।”
स्ट्रिकलैंड ने सुझाव मान लिया। हम ग़ुसलखाने की खिड़की से आगे वाले बरामदे में होते हुए पगडंडी पर उतरकर झाड़ियों में चले गए।
चाँदनी में हमें वह कोढ़ी घर के कोने से आता दिखाई दिया। वह बिलकुल नंगा था, बीच-बीच में गुर्राता था और रुककर अपनी परछाईं के साथ नाचता था। वह बड़ा भद्दा दृश्य था और यह सोचकर कि इस बुरे आदमी ने फ़्लीट की क्या हालत बना दी है, मैंने अपने सब शक छोड़कर स्ट्रिकलैंड की मदद करने का निश्चय किया, और तय किया कि गरम की हुई बंदूक़ की नली से लेकर फंदा बनी रस्सी—जाँघ से सिर तक वापस ले जाने—ज़रूरत पड़ने पर किसी भी तरह की यंत्रणा देने में पीछे नहीं हटूँगा।
जैसे ही कोढ़ी पल-भर को हमारे सामने रुका, हम छड़ी लेकर उस पर कूद पड़े। वह बहुत ताक़तवर था और हमें डर था कि हमारे पकड़ने से पहले भाग न जाए या घायल न हो जाए। हमारा यह ख़याल कि कोढ़ी कमज़ोर होते हैं, ग़लत निकला। स्ट्रिकलैंड ने उसकी टाँगों में धक्का मारा और मैंने उसके गले पर पैर रख दिया। वह बुरी तरह गुर्राने लगा। अपने घुड़सवारी के जूतों के नीचे से मैं भी महसूस कर रहा था कि उसकी खाल स्वस्थ आदमी की खाल नहीं है।
वह अपने हाथ-पैर के ठूँठों से हमें मारने की कोशिश कर रहा था। हमने कुत्ते की रस्सी उसकी बग़लों के नीचे से डालकर उसे फंदे में बाँध लिया था। फिर उलटा घसीटते हुए हॉल से होते हुए उसे खाने वाले कमरे में ले गए, जहाँ वह जानवर पड़ा था। वहाँ हमने उसे बक्से के कुंडे से बाँध दिया। उसने छूटने की कोशिश नहीं की, पर गुर्राता रहा।
जब हम कोढ़ी को जानवर के सामने ले गए, उस समय के दृश्य का वर्णन नहीं किया जा सकता। जानवर धनुष की तरह पीछे दुहरा हो गया, जैसे किसी ने उसे ज़हर दे दिया हो और दर्दनाक ढंग से कराहने लगा। फिर बहुत कुछ हुआ, जो मैं यहाँ लिख नहीं सकता।
“मेरे ख़याल से मैं सही था, स्ट्रिकलैंड बोला,”अब हम उससे इसे ठीक करने को कहेंगे।”
कोढ़ी केवल गुर्रा रहा था। स्ट्रिकलैंड ने अपने हाथ पर एक तौलिया लपेटा और आग से बंदूक की नली निकाली। मैंने छड़ी का आधा हिस्सा मछली पकड़ने की डोरी के फंदे में डाला और आराम से कोढ़ी को स्ट्रिकलैंड के पलंग के पाए से बाँध दिया। अब मैं समझा कि कैसे आदमी-औरत और छोटे बच्चे तक एक चुड़ैल को ज़िंदा जलाते देखना सहन कर लेते हैं; जानवर ज़मीन पर कराह रहा था। कोढ़ी का चेहरा नहीं था, पर चेहरे की जगह जो पत्थर था, उस पर भयानक भाव गुज़र रहे थे, बिलकुल ऐसे जैसे लाल गरम लोहे पर गरमाई की लहरें खेलती हैं—उदाहरण के लिए बंदूक़ की नली।
स्ट्रिकलैंड ने पल-भर के लिए अपनी आँखों पर हाथों से छाया की और हम काम में लग गए। यह क़िस्सा छापने के लिए नहीं है।
जब कोढ़ी बोला, तब सुबह होने वाली थी। उस वक़्त तक वह गुर्रा रहा था, जिससे हमें कोई तसल्ली नहीं मिल रही थी। जानवर थक कर बेहोश हो गया था। घर में सन्नाटा था। हमने कोढ़ी को खोला और उससे कहा कि वह बुरी आत्मा को ले जाए। वह रेंगकर जानवर तक गया, उसने अपना हाथ उसकी छाती पर बाईं तरफ़ रखा। बस इतना ही। फिर वह मुँह के भार गिर गया और साँस अंदर खींचते हुए रोने लगा।
हम जानवर का चेहरा देख रहे थे और देखते-देखते उसकी आँखों में फ़्लीट की आत्मा लौट आई। फिर माथे पर पसीना आ गया और उसने आँखें—इंसानी आँखें—बंद कर लीं। हमने एक घंटा इंतज़ार किया, पर फिर भी फ़्लीट सोता रहा। हम उसे उसके कमरे में ले गए और कोढ़ी से जाने को कहा, उसे पलंग का पाया, चादर, जिससे वह अपने नंगेपन को ढक सके, दस्ताने और तौलिया, जिनसे हमने उसे छुआ था और वह चाबुक, जो उसके बदन के चारों तरफ़ लपेटी हुई थी, दे दी। उसने चादर से अपने को लपेटा और बहुत सुबह बिना बोले, बिना गुर्राए चला गया।
स्ट्रिकलैंड ने अपना मुँह पोंछा और बैठ गया। दूर शहर में घंटा बजा। सात बजे थे।
स्ट्रिकलैंड ने कहा, “पूरे चौबीस घंटे! मैंने नौकरी से निकाले जाने और हमेशा के लिए पागलखाने भेजे जाने लायक काफ़ी कुछ किया है। तुम्हें विश्वास है कि हम जाग रहे हैं?”
लाल दहकती बंदूक की नली ज़मीन पर गिरकर क़ालीन जला रही थी। उसकी गंध सच्ची थी।
उस दिन सुबह ग्यारह बजे हम दोनों साथ-साथ फ़्लीट को जगाने गए। हमने देखा कि उसकी छाती पर चीते की खाल जैसे जो काले धब्बे बने थे, वे ग़ायब हो गए थे। वह थका हुआ और नींद में था। पर जैसे ही उसने हमें देखा तो बोला, “ओह! सत्यानाश! नया साल मुबारक़ हो! कभी शराब नहीं पीनी चाहिए। मैं मरने वाला हो गया था।”
“तुम्हारी कृपा के लिए धन्यवाद, पर तुम आगे निकल गए हो। आज दो तारीख़ की सुबह है। तुम पूरे चौबीस घंटे सोए हो।”
दरवाज़ा खुला, डॉक्टर डुमो ने झाँका, वह पैदल आया था। उसने सोचा था कि हम फ़्लीट को नीचे उतार रहे होंगे।
“मैं एक नर्स लाया हूँ,” उसने कहा, “मेरे ख़याल से वह जो ज़रूरत हो, कर सकती है...”
फ़्लीट ने ख़ुशी से भरकर बिस्तर पर बैठते हुए कहा, “ज़रूर, अपनी सब नर्सें ले आओ।”
डॉक्टर गूँगा हो गया। स्ट्रिकलैंड उसे बाहर ले गया और समझाया कि शायद उसे बीमारी जानने में कोई ग़लती हो गई होगी। वह चुप ही रहा और जल्दी से चला गया। उसे अपनी व्यावसायिक इज़्ज़त की फ़िक्र हुई होगी। स्ट्रिकलैंड भी बाहर चला गया। जब वह लौटा तो उसने बताया कि वह हनुमान मंदिर गया था। उसने देवता को भ्रष्ट करने का हरज़ाना देने को कहा। और बताया कि कभी किसी गोरे आदमी ने मूर्ति को नहीं छुआ और यह भी कि वह आदमी सारे गुणों से भरा है पर वह किसी धोखे में पड़ गया। स्ट्रिकलैंड ने पूछा, “तुम क्या सोचते हो?”
मैंने कहा, “और भी बातें हैं...”
पर स्ट्रिकलैंड को मेरी इस उक्ति से नफ़रत है। वह कहता है कि मैंने इसके बहुत से प्रयोग से इसे घिसा दिया है।
एक और अजीब बात हुई, जिसने उस रात को हुई सारी घटनाओं जितना ही मुझे डराया। जब फ़्लीट कपड़े पहनकर खाने वाले कमरे में आया तो सूँघने लगा। सूँघते समय वह अपनी नाक अजीब ढंग से हिलाता था। “यहाँ कुत्ते की भयानक गंध है। तुम्हें अपने इन कुत्तों को बेहतर ढंग से रखना चाहिए। स्ट्रिक, गंधक का प्रयोग करके देखो।”
स्ट्रिकलैंड ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने कुर्सी का पीछे का हिस्सा पकड़ा और अचानक बिना किसी चेतावनी के हिस्टीरिया के आश्चर्यजनक दौरे से ग्रस्त हो गया। एक ताक़तवर आदमी को इस तरह के दौरे के क़ाबू में देखकर बहुत बुरा लगता है। फिर भी मुझे याद आया कि इसी कमरे में हमने फ़्लीट की आत्मा को छुड़ाने के लिए कोढ़ी से लड़ाई की थी। हमने अंग्रेज़ों को हमेशा के लिए बदनाम कर दिया था। याद आते ही मैं भी स्ट्रिकलैंड की तरह शर्मनाक ढंग से हँसते-हँसते हाँफने और गुर्राने लगा। फ़्लीट ने सोचा, हम दोनों पागल हो गए हैं। हमने उसे कभी नहीं बताया कि हमने क्या किया था।
कुछ साल बाद स्ट्रिकलैंड ने शादी कर ली और पत्नी के प्रभाव में समाज की चर्चा में आने वाला सदस्य बन गया। हमने इस पूरी घटना के बारे में तटस्थता से सोचा और स्ट्रिकलैंड को लगा कि मुझे यह घटना जनता के सामने लानी चाहिए।
मैं नहीं जानता कि इस क़दम के उठाने से रहस्य की गुत्थी सुलझेगी; क्योंकि पहली बात तो यह है कि कोई इस अरुचिकर कहानी पर विश्वास ही नहीं करेगा, और दूसरे हर बुद्धिमान व्यक्ति को पता है कि मूर्तिपूजकों के भगवान् पत्थर और पीतल के होते हैं, उनके साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश को निश्चित रूप से निंदनीय माना जाता है।
tumhare bhagvan aur mere bhagvan—kya tum
ya main jante hain ki kaun taqatvar hai?
ek desi kahavat
kuch ka manna hai ki svej ke poorv mein ishvar ki kripa ka sidha qabu khatm ho jata hai, vahan adami asia ke devtaon aur rakshson ki taqat ke adhin ho jata hai aur kisi kisi angrez adami ko kabhi kabhi england ke church ke bhagvan ki kripa apni suraksha deti hai.
ye mat bharat mein jivan mein hone vali bekar ki Daravni baton ke karan hai, isse meri kahani ki vyakhya ho sakti hai.
is mamle mein mera dost puliskarmi striklainD, jo bharatvasiyon ke bare mein utna janta hai, jitna janna achchha hota hai, tathyon ka sakshi ho sakta hai. hamare doctor Dumo ne bhi utna dekha, jitna mainne aur striklainD ne dekha. usne in prbhavon se jo nishkarsh nikala, wo bilkul ghalat tha. ab wo mar chuka hai; baDe ajib Dhang se mara tha, is bare mein kahin aur likha hai.
fleet jab hindustan aaya, tab uske paas thoDa sa paisa aur himale ke nikat dharmshala ke qarib thoDi si zamin thi. donon zaydaden use apne chacha se virasat mein mili theen. wo unhin ka intzaam karne aaya tha. wo sharir se baDa aur bhari bharkam, ख़ushmiज़aj, kisi se jhagDa na karne vala insaan tha. uski bhartiyon ke bare mein jankari bahut simit thi aur wo bhasha ki pareshani ki shikayat karta rahta tha.
wo apni pahaDi jagah se us jagah naya saal manane ke liye aaya tha aur striklainD ke saath thahra tha. nae saal ki purvasandhya ko club mein bahut baDi davat thi. raat gili si thi. jab log raajy ki simaon se ikattha hote hain to unhen udham machane ka hak hota hai. sarhad se zinda pakaDne valon ki ek tukDi bheji gai thi jinhonne saal bhar mein bees gore chehre bhi nahin dekhe the. unhen khana khane ke liye pandrah meel door agle qile par jana paDta tha. sharab pine ki jagah khaibri goli khane ka khatra hota tha. yahan ke surakshait vatavarn mein ve khush the. baag mein mile ek ainthe hue jhau chuhe ko lekar samuhik jua khelne ki koshish kar rahe the. unmen se ek nishan lagane vale yantr ko apne danton mein dabakar kamre mein ghoom raha tha. dakshain se gaye aadha darzan krishak asia ke sabse baDe jhuthe ke saath, jo unki sab kahaniyon ko dabane ki koshish kar raha tha, masakhri kar rahe the. sab yahan ikattha the aur pichhle saal mein hamare kitne adami mare gaye aur kitne lachar hue, iska hisab kitab kar rahe the. wo ek gili raat thi aur mujhe yaad hai ki hum polo chaimpiyanship ke kap mein pair rakhkar, sitaron ke beech sir uncha kiye, purane vaक़t ki pyari yaad mein geet ga rahe the, aur dosti ki qasmen kha rahe the. phir hammen se kuch gaye aur barma ko saath mila liya, kuch suDan ki taraf gaye jahan suDan ke uttar poorv mein sthit suaqim ke bahar unki vahan ke laDake yoddhaon se muthbheD hui. kuch ko sitare mile, kuch ko padak, kuch ne shadi kar li, jo ki buri baat thi, par kuch ne isse bhi bure kaam kiye. hammen se kuch aapas mein juDe rahe aur thoDe bahut anubhvon se paisa banane ki koshish karte rahe.
fleet ne raat ki shuruat sheri tatha bitarj1 se ki. bhojan ke ant mein mithe par pahunchne tak wo champagne pita raha, phir kachchi tikhi kaimpri jismen whisky jaisi taqat hoti hai. iske baad coffe ke saath beneDiktin li, chaar paanch whisky aur soDa liye jisse khel ki bazi behtar ho, Dhai baje beer aur bons liya aur phir branDi se pina khatm kiya. jab subah saDhe teen baje wo bahar aaya to chaudah degre kuhra tha. wo apne ghoDe ke khansane se bahut naraz hua aur kudkar us par chaDhna chahta tha ki ghoDa bhagkar apni ghuDasal mein chala gaya. ab mujhe aur striklainD ko use ghar le jane ki pareshani uthani paDi.
hamari saDak bazar ke beech se, ek chhote se hanuman mandir ke paas se jati thi. devtaon mein unki baDi izzat hai. har devta mein kuch visheshtayen hoti hain aur har pujari mein bhi. main vyaktigat taur par hanuman ko bahut mahattv deta hoon aur unki jati arthat—pahaDon ke bandron— ke prati dayalu hoon. kaun jane, kab dost ki zarurat paD jaye!
jab hum mandir ke paas se nikle, tab mandir mein roshni thi aur kuch log bhajan ga rahe the. ek desi mandir mein pujari ko raat ke kisi bhi vaक़t bhagvan ke liye uthna paDta hai. isse pahle ki hum roken fleet siDhiyan chaDhkar gaya, do pujariyon ki peeth thapthapai aur baDi gambhirta se cigar ke tukDe ki raakh laal patthar ki hanuman ki murti ke mathe par ragaD di.
1. bitarj1 (nashila pey)
striklainD ne use khinchkar hatane ki koshish ki, par wo baith gaya aur gambhirta se bola, “vah dekh rahe ho? janvar ka nishan? mainne banaya hai. achchha nahin hai?”
aadhe minit mein shor mach gaya. striklainD janta tha ki devtaon ko bhrasht karne se kya hota hai. at bola ki ab kuch hoga. us pardesh mein kafi purana adhikari hone ke nate, aas paas ke logon se milne ki kamzori hone ke nate, pujari ko janne ki vajah se use bahut bura lag raha tha. fleet zamin par baitha tha aur hilne ko razi nahin tha. wo bola, “achchhe hanuman ka takiya baDa naram banta hai. ”
tabhi bina chetavni ke devta ki murti ke pichhe se ek chandi jaisa safed adami nikla. is tez thanD mein bhi wo puri tarah nanga tha. uska sharir jami hui chandi jaisa chamak raha tha. wo bible mein varnait ek koDhi aisa safed jaisi barf jaisa tha. kai salon se buri tarah koDh hone ke karan uska chehra nahin raha tha. hum donon jhuke ki fleet ko utha len, mandir mein aisi bheeD hoti ja rahi thi jaise insaan zamin mein se nikal rahe hon, tabhi hamari banhon ke niche se udbilav jaisa gurrata hua wo koDhi aaya, fleet ko kamar se pakDa aur hamare chhuDane se pahle usne fleet ki chhati par apna sir de mara. phir wo ek kone mein chala gaya aur baitha hua gurrane laga. bheeD ne sare darvazen rok diye.
pujari bahut naraz the, par koDhi ke pakaDkar marne ke baad se thoDa shaant ho gaye the.
kuch minat ki chuppi ke baad ek pujari aaya aur striklainD se shuddh angrezi mein bola, “apne dost ko le jao. usne hanuman se jo karna tha kar liya, par hanuman ne abhi nahin kiya. ” bheeD ne rasta bana diya aur hum fleet ko uthakar saDak par le gaye.
striklainD bahut naraz tha. wo bola, “ham tinon ko chhura mara ja sakta tha. fleet ko apni qimat sarahni chahiye ki wo bina chot khaye bach gaya. ”
fleet ne kisi ko dhanyavad nahin diya, wo bola ki wo sona chahta hai. wo buri tarah nashe mein tha.
hum chal diye, striklainD chup tha par bahut naraz tha. tabhi fleet buri tarah kanpne laga aur pasina pasina ho gaya. wo bola, “bazar se tez badbu aa rahi hai. ” use achraj tha ki angrezon ke ghar ke paas qasaikhana kaise maujud tha. “kya tumhein khoon ki gandh nahin aa rahi hai?” usne puchha.
akhir hamne use bistar par lita diya, tab subah ho rahi thi. striklainD ne mujhe ek gilas whisky ke liye amantrit kiya. pite pite hum mandir mein hui gaDbaDi ki baat kar rahe the. puri ghatna ne use buri tarah pareshan kar diya tha.
striklainD ka kaam desi logon ke hathkandon ka pura javab dena tha. agar unka koi kaam use tajjub mein Dale to use nafar hoti thi. abhi tak wo apne kaam mein puri tarah saphal nahin hua tha par pandrah bees saal mein kuch saphalta milne ki ummid thi.
wo bola, “unhen to hamein khatm kar dena chahiye tha, par uski jagah ve gurra rahe the. pata nahin ve kya chahte the? mujhe ye sab zara bhi achchha nahin laga. ’’
mainne kaha, “mere khayal se mandir ki prabandhak samiti, unke dharm ka apman karne ke zurm mein hamare khilaf karyavahi karegi. bharatiy danD sanhita mein fleet dvara kiye gaye zurm ki saza thi. ” striklainD ne kaha ki wo yahi ummid aur pararthna karta hai ki ve aisa karen. lautne se pahle main fleet ko dekhne gaya. dekha ki wo dain karvat leta hua, chhati ki bain taraf khuja raha tha. subah saat baje, udaas, nakhush aur sardi se mara main bhi bistar par aa gaya.
ek baje main fleet ke sir ke dard ke bare mein janne ke liye striklainD ke ghar gaya, kyonki main sochta tha ki uska sir bahut duःkh raha hoga. fleet nashta kar raha tha. wo bahut theek nahin dikh raha tha. par uska mizaj theek tha, kyonki wo rasoie ko theek nashta na dene ke liye galiyan de raha tha. ek adami thanDi raat ke baad kachcha maans kha sake, ye achraj ki baat hai. mere ye kahne par fleet hans paDa.
is jagah ajib machchhar hain, “vah bola, “ek hi jagah par ve mujhe buri tarah kha gaye hain. ”
striklainD ne kaha, “dikhao, kahan kata hai, shayad ab theek ho gaya ho. ”
jitni der mein nashta aa raha tha, fleet ne qamiz kholi aur hamein dikhaya. uski chhati par bain taraf chite ki khaal ke se golakar paanch ya chhah betartib dhabbe the, jo kale gulab ke dugne akar ke the. striklainD ne dekhkar kaha, “subah ye gulabi the, ab kale ho gaye hain. ”
fleet shishe ki taraf bhaga tatha udhar dekhkar bola, “ye to baDe bhayanak dikh rahe hain. kya hain?”
hum koi javab nahin de pae. itne mein nashta aa gaya. chapen laal aur rasili theen. fleet ne ghrinaaspad Dhang se teen nikal leen. wo dain taraf ki daDhon se chaba raha tha. maans katte vaक़t uska sir bhi dayen kandhe ki taraf jhuka tha. khatm karne par usne apne ajib vyvahar ke liye mafi mangte hue kaha, “mere khayal se main jivan mein kabhi itna bhukha nahin hua. mainne shuturmurg ki tarah nigal liya. ”
nashte ke baad striklainD ne mujhse kaha, “kahin mat jao. aaj raat yahin bita lo. ”
mera ghar uske ghar se teen meel bhi door nahin tha, at uska ye kahna bevaqufi bhara lag raha tha. par striklainD ज़id karne laga. wo kuch kahne vala tha ki fleet ne sharmindagi se kaha ki use phir bhookh lag rahi hai. striklainD ne ek adami bhejkar mere ghar se mera bistar aur ghoDa mangva liya. hum tinon striklainD ke astabal ki taraf gaye, taki ghuDasvari ke liye jane se pahle kuch samay vahan bita len. jise ghoDon se pyaar ho, wo unhen ghanton dekhkar bhi thakta nahin hai. aur jab do adami vaक़t katne ke liye aisa kar rahe hon to ek dusre se jhooth sach bolte rahte hain.
astabal mein paanch ghoDe the. jab hum vahan pahunche to jo drishya tha use main kabhi nahin bhool sakta. laga ki jaise ghoDe pagal ho gaye hain. ve zor se hinhina rahe the. aisa lag raha tha ki khunte ukhaaD denge; ve pasine se nha rahe the, kaanp rahe the. munh se jhaag nikal rahe the, Dar se pareshan the. striklainD ke ghoDe use utni hi achchhi tarah pahchante the, jitna ki uske kutte. isliye aur achraj ho raha tha. unko itna Dara hua aur pareshan dekhkar hum vahan se nikal aaye. phir striklainD muDa aur usne mujhe bulaya. ghoDe tab bhi Dare hue the, par hamein sahlane de rahe the aur apna sir hamari chhati par rakh rahe the.
striklainD ne kaha, “ye hamse nahin Dar rahe. agar autrez (ghoDe ka naam) bol sakta hota to main use apni teen mahine ki tankhvah dene ko taiyar ho jata. ”
par autrez gunga tha. wo sirf apne malik se lipat sakta tha, nathune baja sakta tha, kyonki ghoDon ka baat karne ka yahi tariqa hota hai. abhi hum astabal mein hi the ki fleet dubara vahan aaya. use dekhte hi ghoDe phir Dar se pareshan ho gaye. isse pahle ki ve hamein laat marte hum vahan se bhage. striklainD ne kaha, “aisa lagta hai ki ve tumhein pasand nahin karte. ”
fleet bola, “bekar baat, meri ghoDi mere pichhe kutte ki tarah aati hai. ” wo uske paas gaya. wo khule astabal mein thi, jaise hi usne DanDa hataya, wo aage baDhi, fleet ko giraya aur bagiche ki taraf bhaag gai. main hans paDa, par striklainD ko hansi nahin i. wo donon hathon se apni munchhen itni der tak khinchta raha ki ve ukhaDne vali ho gain. fleet apni ghoDi ko pakaDne jane ki jagah ubasi lekar bola ki use neend aa rahi thi. wo ghar gaya aur let gaya. nae saal ka din bitane ka ye bevaqufi bhara Dhang tha.
striklainD ghuDasal mein mere saath baitha raha. usne mujhse puchha ki mujhe fleet ke acharn mein koi khaas baat dikhi. mainne kaha ki wo janvar ki tarah kha raha tha, par uska karan ye ho sakta hai ki wo pahaDon par akela rahta hai jahan hamare jaise aur unche sabhy samaj se uska vasta hi nahin paDta. striklainD ko hansi nahin i. mujhe lagta hai wo meri baat sun hi nahin raha tha, kyonki uska agla vaaky fleet ki chhati par bane nishan ke bare mein tha. mainne kaha ki ho sakta hai kisi zahrili makkhi ne kaat liya ho ya koi janm ka nishan ho, jo ab dikhai de raha tha. hum donon ne ye zarur mana ki wo dekhne mein achchha nahin tha. striklainD ne mujhe bevaquf kaha. ”
wo bola, “main kya sochta hoon, ye abhi nahin bataunga, kyonki tab tum mujhe pagal kahoge, par ho sake to agle kuch din tum mere paas raho. main chahta hoon ki tum fleet par nazar rakho. par jab tak main apne natize par na pahunchun, mujhe kuch nahin batana. ”
mainne kaha, “lekin main aaj raat ko bahar khana nahin khaunga. ”
striklainD bola, “main bhi aur fleet bhi, agar wo apna dimagh na badle to!”
hum bagiche mein ghumte rahe aur paip pite rahe. jab tak paip khatm nahin hua, hum kuch nahin bole, kyonki hum dost the aur bolne se achchhe tambaku ka maza chala jata hai. phir hum fleet ko jagane gaye. wo jaag raha tha aur apne kamre mein bechaini se ghoom raha tha.
hamein dekhkar wo bola, “main kah raha tha ki mujhe kuch aur chapen chahiye. kya milengi?”
hum hanse aur kaha, “jao, kapDe badal lo, pal bhar mein ghoDe aa jayenge. ”
“theek hai,” usne kaha, “main chalunga, par chaap milne ke bad—vah kuch kam paki honi chahiye. ”
wo kafi gambhir lag raha tha. chaar baje the. hamne ek baje nashta kiya tha, phir bhi wo kafi der se kam paki chapen maang raha tha. phir usne ghuDasvari ke liye kapDe pahne, bahar baramde mein gaya. uski ghoDi to pakDi nahin ja saki—use paas nahin aane de rahi thi. tinon ghoDe beqabu ho rahe the—Dar se pagal! akhir fleet ne kaha ki wo ghar par hi rukega aur yahin kuch kha lega. striklainD aur main ghuDasvari ke liye nikle. hum soch mein Dube the. jaise hi hum hanuman mandir ke paas se nikle, wo safed adami aaya aur hum par myaun, myaun karne laga.
striklainD ne kaha ki “yah mandir ke purane pujariyon mein se nahin hai. mera man karta hai ki ye mere haath lag jaye. ”
us shaam hamara ghuDasvari mein koi utsaah nahin tha. ghoDe bhi bina utsaah ke aise chal rahe the jaise pahle chalne se thake hon.
striklainD bola, “nashte ke baad ka jhatka inke liye bahut ho gaya. ” baqi ka pura rasta wo kuch nahin bola. mere khayal se ek do qas khai hogi par wo baton ki ginti mein nahin hoga.
saat baje andhera hone par hum laut aaye to dekha ki bangale mein koi batti nahin jal rahi thi. striklainD ne kaha, “mere naukar baDe badmash aur laparvah hain. ”
mera ghoDa pagDanDi par hinhinaya, fleet aakar theek uski naak ke niche khaDa ho gaya.
striklainD ne puchha, “tum yahan bagiche mein kya kar rahe ho?”
itne mein hi donon ghoDe aise bhage ki hamein gira hi dete. astabal ke paas hum utre aur vapas fleet ke paas aaye, jo ghutnon aur hathon ke bal santare ke jhaaD ke niche khaDa tha.
striklainD bola, “tumhen kya hua hai?”
fleet ne jaldi jaldi bhari avaz mein javab diya, “kuchh nahin, tum jante ho main bagvani kar raha tha. mitti ki khushbu bahut achchhi aa rahi hai. mere khayal se main sari raat sair karne—lambi sair karne jaunga. ” tab mujhe laga, kahin bahut gaDbaD hai. mainne striklainD se kaha, “main bahar khana khane nahin jaunga. ”
striklainD ne fleet se kaha, “utho, tumhein bukhar aa jayega. andar chalo, khana khayenge, roshni karenge. hum sab ghar par hi khayenge. ”
fleet beman se utha aur bola, “lamp nahin lainp nahin. yahan zyada achchha hai. hum bahar baithkar khate hain. kuch aur chapen—Dher sari aur kam paki hui—lal aur kurkuri. ”
uttari bharat mein disambar ke mahine mein kafi thanD hoti hai, fleet ka sujhav ek pagal ka sujhav tha.
striklainD ne sakhti se kaha, “andar aao, fauran andar ao!”
fleet andar aaya. lainp aane par hamne dekha ki wo sir se pair tak mitti aur gandgi se lathpath tha. wo shayad bagiche mein kalabajiyan kha raha tha. roshni aate hi wo simat utha aur apne kamre mein chala gaya. uski ankhen bhayanak lag rahi theen, unmen kuch nahin tha, par unke pichhe hari roshni thi. uska niche ka honth latka hua tha.
striklainD ne kaha, “aaj raat ko bhayanak pareshani aane vali hai. tum kapDe mat badalna. ”
hamne khana mangvaya aur fleet ke aane ka intzaar karte rahe. wo apne kamre mein chakkar laga raha tha, par usne batti nahin jalai thi. tabhi kamre se bheDiye ki lambi rone ki avaz i.
log baag khoon thanDa hone aur baal ukhaD jane ki baat baDe halke Dhang se likh ya kah dete hain. par donon anubhav baDe bhayanak hain. unhen halke Dhang se nahin lena chahiye. mera dil aise ruk gaya, jaise chaku ghusa diya gaya ho, striklainD mez par bichhe kapDe jaisa safed paD gaya.
ek baar phir vahi rone ki avaz i aur kheton ke paar se uska javab aaya.
isse Dar aur baDh gaya. striklainD fleet ke kamre ki taraf bhaga, main pichhe bhaga. hamne dekha fleet khiDki se bahar nikal raha tha. uske gale se janvaron ki si avaz nikal rahi thi. jab hum us par chillaye to wo javab nahin de paya. usne thuka.
mujhe yaad nahin ki phir kya hua, par main sochta hoon ki striklainD ne zarur use jute utarne vale lambe upkarn se markar achambhe mein Daal diya hoga, nahin to main kabhi bhi uski chhati par nahin baith sakta tha. fleet kuch bol nahin pa raha tha, sirf gurra raha tha. uski gurrahat bheDiye jaisi thi, insaan jaisi nahin. uske andar ka adami shayad sara din laDne ke baad mar gaya hoga. ab hamara vasta us janvar se tha, jo kabhi fleet tha.
puri ghatna kisi insaan ke vivekapurn anubhav se pare thi. main ise haiDroफ़obiya (pagal kutte ke katne ki bimari) kahna chahta tha, par shabd mere gale se nahin nikal raha tha, kyonki main janta tha ki wo jhooth hai.
hamne is janvar ko pankhe ki chamDe ki rassi se bandha aur uske haath ke anguthe aur pair ke anguthe ko saath saath baandh diya, jute pahanne ke horn ko munh mein phansa diya, agar use lagana jante ho to wo bahut asardar hota hai. phir hum use khane vale kamre mein le gaye. aur ek adami ko Dumo doctor ke paas bheja aur kaha ki ve fauran aa jayen. adami ke jane ke baad hamne saans li. tab striklainD bola, “usse kuch nahin hoga, ye doctor ke vash ka kaam nahin hai. ” main janta tha ki wo theek kah raha tha.
janvar ka sir aज़ad tha. wo use idhar udhar phenk raha tha. koi kamre mein ghusta to yahi sochta ki hum bheDiye ki khaal paka rahe the.
striklainD apni hatheli par thoDi tikaye baitha us janvar ko zamin par rengte hue dekh raha tha, par kuch kah nahin raha tha. khinchatani mein uski qamiz phat gai thi aur chhati par bane kale nishan dikh rahe the. ve chhale jaise deekh rahe the.
hum chupchap baithe dekh rahe the ki hamein bahar koi avaz sunai di. wo mada udbilav ki si thi. hum donon khaDe ho gaye aur chahe striklainD ke bare mein nahin par apne bare mein kah sakta hoon ki mujhe laga, jaise main bimar hoon, sach mein sharir se mein bimar hoon. hamne ek dusre se kaha ki wo billi hai.
Dumo aaya. mainne kabhi kisi vyavasayik adami ko is क़dar Dara hua nahin dekha. usne kaha ki ye to haiDroफ़obiya ka dil dahlane vala kes hai. ismen ab kuch nahin kiya ja sakta. shanti dene vale upayon se uski taklif aur lambi hogi. janvar ke munh se jhaag nikal raha tha. hamne Dumo ko bataya ki fleet ko ek do baar kutte ne kata tha. koi bhi adami jo kutte palta hai, kabhi kabhi unke dvara kata bhi jata hai. Dumo koi madad nahin kar saka sivay iske ki wo ye pramanapatr de sakta tha ki fleet kutte ke kate se mar raha tha. tab tak janvar shu haarn (juta pahanne ka chhota sa upkarn) thukne mein kamyab hokar ab gurra raha tha. Dumo ne kaha ant tay tha aur wo uska karan pramanait karne ko taiyar tha. wo achchha adami tha aur hamare saath rukne ko razi tha; par striklainD ne isse inkaar kar diya. wo uska nae saal ka din kharab nahin karna chahta tha. usne sirf itna kaha ki fleet ki mirtyu ka asli karan logon ko na bataya jaye.
pareshan Dumo laut gaya. jaise hi uski gaDi ke pahiyon ki avaj khatm hui, striklainD ne phusaphusate hue mujhe apne man ka shak bataya. par use ye khu hi itna avishvasniy lag raha tha ki wo is bare mein zor se bol bhi nahin pa raha tha; main jo striklainD ke har vishvas ko manata tha, ise manne par itna sharminda tha ki avishvas ka dikhava kar raha tha.
“agar koDhi ne fleet ko hanuman ki murti bhrasht karne ke liye jadu kiya bhi hai to itni jaldi danD kaise mila?”
jab main ye phusphusa raha tha tabhi ghar ke bahar se phir avaz i aur wo janvar nae sire se taqat lagane laga. hamein Dar tha ki kahin wo chamDe ke patte ko toD na Dale.
“dekho!” striklainD bola, “agar aisa is baar hua to main qanun apne haath mein le lunga. main tumhein hukm deta hoon ki tumhein meri madad karni hogi. ”
wo apne kamre mein gaya aur kuch hi minat baad ek purani shautgan ki nali, machhli pakaDne vale kante ka tukDa, ek moti rassi aur palang ke lakDi ke bhari pae lekar aaya. mainne bataya tha ki us cheekh ke do second ke baad janvar ko daure paDte the. ab wo kamzor hota dikhai de raha tha.
striklainD baDabDaya, “par wo kisi ki zindagi nahin le sakta! wo zindagi nahin le sakta!”
“jante hue bhi ki main apne vishvas ke khilaf bol raha tha, mainne kaha, wo billi ho sakti hai. wo billi hi hogi. agar wo koDhi zimmedar hota to yahan aane ki himmat kaise karta?”
striklainD ne lakDi ke chulhe mein rakhi banduk ki nali aag ki lau par rakhi, mez par rassi phailai aur ek bent ke do tukDe kiye. machhli pakaDne vali DanDi ek gaj ki thi, aage taar laga tha, jaisa machhli pakaDne mein hota hai. usne donon sire ikatthe bandhakar ek phanda banaya.
phir wo bola, “ham use kaise pakDen? use zinda aur sahi salamat pakDan hai. ”
mainne kaha, “hamen niyti par vishvas karna hoga. polo khelne vali lakDi lekar dhire se ghar ke samne vale jhaaD mein jana hoga. chikhne vala adami ya janvar baar baar ghar ke charon taraf aise chakkar kaat raha hai jaise chaukidar ho. hum jhaDiyon mein intzaar karte rahenge aur paas aane par us par jhapat paDenge. ”
striklainD ne sujhav maan liya. hum ghusalkhane ki khiDki se aage vale baramde mein hote hue pagDanDi par utarkar jhaDiyon mein chale gaye.
chandni mein hamein wo koDhi ghar ke kone se aata dikhai diya. wo bilkul nanga tha, beech beech mein gurrata tha aur rukkar apni parchhain ke saath nachta tha. wo baDa bhadda drishya tha aur ye sochkar ki is bure adami ne fleet ki kya haalat bana di hai, mainne apne sab shak chhoDkar striklainD ki madad karne ka nishchay kiya, aur tay kiya ki garam ki hui banduk ki nali se lekar phanda bani rassi—jangh se sir tak vapas le jane—zarurat paDne par kisi bhi tarah ki yantranaa dene mein pichhe nahin hatunga.
jaise hi koDhi pal bhar ko hamare samne ruka, hum chhaDi lekar us par kood paDe. wo bahut taqatvar tha aur hamein Dar tha ki hamare pakaDne se pahle bhaag na jaye ya ghayal na ho jaye. hamara ye khayal ki koDhi kamzor hote hain, ghalat nikla. striklainD ne uski tangon mein dhakka mara aur mainne uske gale par pair rakh diya. wo buri tarah gurrane laga. apne ghuDasvari ke juton ke niche se main bhi mahsus kar raha tha ki uski khaal svasth adami ki khaal nahin hai.
wo apne haath pair ke thunthon se hamein marne ki koshish kar raha tha. hamne kutte ki rassi uski baglon ke niche se Dalkar use phande mein baandh liya tha. phir ulta ghasitte hue hall se hote hue use khane vale kamre mein le gaye, jahan wo janvar paDa tha. vahan hamne use bakse ke kunDe se baandh diya. usne chhutne ki koshish nahin ki, par gurrata raha.
jab hum koDhi ko janvar ke samne le gaye, us samay ke drishya ka varnan nahin kiya ja sakta. janvar dhanush ki tarah pichhe duhra ho gaya, jaise kisi ne use zahr de diya ho aur dardanak Dhang se karahne laga. phir bahut kuch hua, jo main yahan likh nahin sakta.
“mere khayal se main sahi tha, striklainD bola,”ab hum usse ise theek karne ko kahenge. ”
koDhi keval gurra raha tha. striklainD ne apne haath par ek tauliya lapeta aur aag se banduk ki nali nikali. mainne chhaDi ka aadha hissa machhli pakaDne ki Dori ke phande mein Dala aur aram se koDhi ko striklainD ke palang ke pae se baandh diya. ab main samjha ki kaise adami aurat aur chhote bachche tak ek chuDail ko zinda jalate dekhana sahn kar lete hain; janvar zamin par karah raha tha. koDhi ka chehra nahin tha, par chehre ki jagah jo patthar tha, us par bhayanak bhaav guज़r rahe the, bilkul aise jaise laal garam lohe par garmai ki lahren khelti hain—udaharn ke liye banduk ki nali.
striklainD ne pal bhar ke liye apni ankhon par hathon se chhaya ki aur hum kaam mein lag gaye. ye qissa chhapne ke liye nahin hai.
jab koDhi bola, tab subah hone vali thi. us vaक़t tak wo gurra raha tha, jisse hamein koi tasalli nahin mil rahi thi. janvar thak kar behosh ho gaya tha. ghar mein sannata tha. hamne koDhi ko khola aur usse kaha ki wo buri aatma ko le jaye. wo rengkar janvar tak gaya, usne apna haath uski chhati par bain taraf rakha. bus itna hi. phir wo munh ke bhaar gir gaya aur saans andar khinchte hue rone laga.
hum janvar ka chehra dekh rahe the aur dekhte dekhte uski ankhon mein fleet ki aatma laut i. phir mathe par pasina aa gaya aur usne ankhen—insani ankhen—band kar leen. hamne ek ghanta intzaar kiya, par phir bhi fleet sota raha. hum use uske kamre mein le gaye aur koDhi se jane ko kaha, use palang ka paya, chadar, jisse wo apne nangepan ko Dhak sake, dastane aur tauliya, jinse hamne use chhua tha aur wo chabuk, jo uske badan ke charon taraf lapeti hui thi, de di. usne chadar se apne ko lapeta aur bahut subah bina bole, bina gurraye chala gaya.
striklainD ne apna munh ponchha aur baith gaya. door shahr mein ghanta baja. saat baje the.
striklainD ne kaha, “pure chaubis ghante! mainne naukari se nikale jane aur hamesha ke liye pagalkhane bheje jane layak kafi kuch kiya hai. tumhein vishvas hai ki hum jaag rahe hain?”
laal dahakti banduk ki nali zamin par girkar qalin jala rahi thi. uski gandh sachchi thi.
us din subah gyarah baje hum donon saath saath fleet ko jagane gaye. hamne dekha ki uski chhati par chite ki khaal jaise jo kale dhabbe bane the, ve ghayab ho gaye the. wo thaka hua aur neend mein tha. par jaise hi usne hamein dekha to bola, “oh! satyanash! naya saal mubaraq ho! kabhi sharab nahin pini chahiye. main marne vala ho gaya tha. ”
“tumhari kripa ke liye dhanyavad, par tum aage nikal gaye ho. aaj do tarikh ki subah hai. tum pure chaubis ghante soe ho. ”
darvaza khula, doctor Dumo ne jhanka, wo paidal aaya tha. usne socha tha ki hum fleet ko niche utaar rahe honge.
“main ek nurse laya hoon,” usne kaha, “mere khayal se wo jo zarurat ho, kar sakti hai. . . ”
fleet ne khushi se bharkar bistar par baithte hue kaha, “zarur, apni sab nursen le aao. ”
doctor gunga ho gaya. striklainD use bahar le gaya aur samjhaya ki shayad use bimari janne mein koi ghalati ho gai hogi. wo chup hi raha aur jaldi se chala gaya. use apni vyavasayik izzat ki fir hui hogi. striklainD bhi bahar chala gaya. jab wo lauta to usne bataya ki wo hanuman mandir gaya tha. usne devta ko bhrasht karne ka harzana dene ko kaha. aur bataya ki kabhi kisi gore adami ne murti ko nahin chhua aur ye bhi ki wo adami sare gunon se bhara hai par wo kisi dhokhe mein paD gaya. striklainD ne puchha, “tum kya sochte ho?”
mainne kaha, “aur bhi baten hain. . . ”
par striklainD ko meri is ukti se nafar hai. wo kahta hai ki mainne iske bahut se prayog se ise ghisa diya hai.
ek aur ajib baat hui, jisne us raat ko hui sari ghatnaon jitna hi mujhe Daraya. jab fleet kapDe pahankar khane vale kamre mein aaya to sunghne laga. sunghte samay wo apni naak ajib Dhang se hilata tha. “yahan kutte ki bhayanak gandh hai. tumhein apne in kutton ko behtar Dhang se rakhna chahiye. strik, gandhak ka prayog karke dekho. ”
striklainD ne koi javab nahin diya. usne kursi ka pichhe ka hissa pakDa aur achanak bina kisi chetavni ke histiriya ke ashcharyajnak daure se grast ho gaya. ek taqatvar adami ko is tarah ke daure ke qabu mein dekhkar bahut bura lagta hai. phir bhi mujhe yaad aaya ki isi kamre mein hamne fleet ki aatma ko chhuDane ke liye koDhi se laDai ki thi. hamne angrezon ko hamesha ke liye badnam kar diya tha. yaad aate hi main bhi striklainD ki tarah sharmanak Dhang se hanste hanste hanphane aur gurrane laga. fleet ne socha, hum donon pagal ho gaye hain. hamne use kabhi nahin bataya ki hamne kya kiya tha.
kuch saal baad striklainD ne shadi kar li aur patni ke prabhav mein samaj ki charcha mein aane vala sadasy ban gaya. hamne is puri ghatna ke bare mein tatasthata se socha aur striklainD ko laga ki mujhe ye ghatna janta ke samne lani chahiye.
main nahin janta ki is qadam ke uthane se rahasy ki gutthi suljhegi; kyonki pahli baat to ye hai ki koi is aruchikar kahani par vishvas hi nahin karega, aur dusre har buddhiman vekti ko pata hai ki murtipujkon ke bhagvan patthar aur pital ke hote hain, unke saath durvyavhar karne ki koshish ko nishchit roop se nindniy mana jata hai.
tumhare bhagvan aur mere bhagvan—kya tum
ya main jante hain ki kaun taqatvar hai?
ek desi kahavat
kuch ka manna hai ki svej ke poorv mein ishvar ki kripa ka sidha qabu khatm ho jata hai, vahan adami asia ke devtaon aur rakshson ki taqat ke adhin ho jata hai aur kisi kisi angrez adami ko kabhi kabhi england ke church ke bhagvan ki kripa apni suraksha deti hai.
ye mat bharat mein jivan mein hone vali bekar ki Daravni baton ke karan hai, isse meri kahani ki vyakhya ho sakti hai.
is mamle mein mera dost puliskarmi striklainD, jo bharatvasiyon ke bare mein utna janta hai, jitna janna achchha hota hai, tathyon ka sakshi ho sakta hai. hamare doctor Dumo ne bhi utna dekha, jitna mainne aur striklainD ne dekha. usne in prbhavon se jo nishkarsh nikala, wo bilkul ghalat tha. ab wo mar chuka hai; baDe ajib Dhang se mara tha, is bare mein kahin aur likha hai.
fleet jab hindustan aaya, tab uske paas thoDa sa paisa aur himale ke nikat dharmshala ke qarib thoDi si zamin thi. donon zaydaden use apne chacha se virasat mein mili theen. wo unhin ka intzaam karne aaya tha. wo sharir se baDa aur bhari bharkam, ख़ushmiज़aj, kisi se jhagDa na karne vala insaan tha. uski bhartiyon ke bare mein jankari bahut simit thi aur wo bhasha ki pareshani ki shikayat karta rahta tha.
wo apni pahaDi jagah se us jagah naya saal manane ke liye aaya tha aur striklainD ke saath thahra tha. nae saal ki purvasandhya ko club mein bahut baDi davat thi. raat gili si thi. jab log raajy ki simaon se ikattha hote hain to unhen udham machane ka hak hota hai. sarhad se zinda pakaDne valon ki ek tukDi bheji gai thi jinhonne saal bhar mein bees gore chehre bhi nahin dekhe the. unhen khana khane ke liye pandrah meel door agle qile par jana paDta tha. sharab pine ki jagah khaibri goli khane ka khatra hota tha. yahan ke surakshait vatavarn mein ve khush the. baag mein mile ek ainthe hue jhau chuhe ko lekar samuhik jua khelne ki koshish kar rahe the. unmen se ek nishan lagane vale yantr ko apne danton mein dabakar kamre mein ghoom raha tha. dakshain se gaye aadha darzan krishak asia ke sabse baDe jhuthe ke saath, jo unki sab kahaniyon ko dabane ki koshish kar raha tha, masakhri kar rahe the. sab yahan ikattha the aur pichhle saal mein hamare kitne adami mare gaye aur kitne lachar hue, iska hisab kitab kar rahe the. wo ek gili raat thi aur mujhe yaad hai ki hum polo chaimpiyanship ke kap mein pair rakhkar, sitaron ke beech sir uncha kiye, purane vaक़t ki pyari yaad mein geet ga rahe the, aur dosti ki qasmen kha rahe the. phir hammen se kuch gaye aur barma ko saath mila liya, kuch suDan ki taraf gaye jahan suDan ke uttar poorv mein sthit suaqim ke bahar unki vahan ke laDake yoddhaon se muthbheD hui. kuch ko sitare mile, kuch ko padak, kuch ne shadi kar li, jo ki buri baat thi, par kuch ne isse bhi bure kaam kiye. hammen se kuch aapas mein juDe rahe aur thoDe bahut anubhvon se paisa banane ki koshish karte rahe.
fleet ne raat ki shuruat sheri tatha bitarj1 se ki. bhojan ke ant mein mithe par pahunchne tak wo champagne pita raha, phir kachchi tikhi kaimpri jismen whisky jaisi taqat hoti hai. iske baad coffe ke saath beneDiktin li, chaar paanch whisky aur soDa liye jisse khel ki bazi behtar ho, Dhai baje beer aur bons liya aur phir branDi se pina khatm kiya. jab subah saDhe teen baje wo bahar aaya to chaudah degre kuhra tha. wo apne ghoDe ke khansane se bahut naraz hua aur kudkar us par chaDhna chahta tha ki ghoDa bhagkar apni ghuDasal mein chala gaya. ab mujhe aur striklainD ko use ghar le jane ki pareshani uthani paDi.
hamari saDak bazar ke beech se, ek chhote se hanuman mandir ke paas se jati thi. devtaon mein unki baDi izzat hai. har devta mein kuch visheshtayen hoti hain aur har pujari mein bhi. main vyaktigat taur par hanuman ko bahut mahattv deta hoon aur unki jati arthat—pahaDon ke bandron— ke prati dayalu hoon. kaun jane, kab dost ki zarurat paD jaye!
jab hum mandir ke paas se nikle, tab mandir mein roshni thi aur kuch log bhajan ga rahe the. ek desi mandir mein pujari ko raat ke kisi bhi vaक़t bhagvan ke liye uthna paDta hai. isse pahle ki hum roken fleet siDhiyan chaDhkar gaya, do pujariyon ki peeth thapthapai aur baDi gambhirta se cigar ke tukDe ki raakh laal patthar ki hanuman ki murti ke mathe par ragaD di.
1. bitarj1 (nashila pey)
striklainD ne use khinchkar hatane ki koshish ki, par wo baith gaya aur gambhirta se bola, “vah dekh rahe ho? janvar ka nishan? mainne banaya hai. achchha nahin hai?”
aadhe minit mein shor mach gaya. striklainD janta tha ki devtaon ko bhrasht karne se kya hota hai. at bola ki ab kuch hoga. us pardesh mein kafi purana adhikari hone ke nate, aas paas ke logon se milne ki kamzori hone ke nate, pujari ko janne ki vajah se use bahut bura lag raha tha. fleet zamin par baitha tha aur hilne ko razi nahin tha. wo bola, “achchhe hanuman ka takiya baDa naram banta hai. ”
tabhi bina chetavni ke devta ki murti ke pichhe se ek chandi jaisa safed adami nikla. is tez thanD mein bhi wo puri tarah nanga tha. uska sharir jami hui chandi jaisa chamak raha tha. wo bible mein varnait ek koDhi aisa safed jaisi barf jaisa tha. kai salon se buri tarah koDh hone ke karan uska chehra nahin raha tha. hum donon jhuke ki fleet ko utha len, mandir mein aisi bheeD hoti ja rahi thi jaise insaan zamin mein se nikal rahe hon, tabhi hamari banhon ke niche se udbilav jaisa gurrata hua wo koDhi aaya, fleet ko kamar se pakDa aur hamare chhuDane se pahle usne fleet ki chhati par apna sir de mara. phir wo ek kone mein chala gaya aur baitha hua gurrane laga. bheeD ne sare darvazen rok diye.
pujari bahut naraz the, par koDhi ke pakaDkar marne ke baad se thoDa shaant ho gaye the.
kuch minat ki chuppi ke baad ek pujari aaya aur striklainD se shuddh angrezi mein bola, “apne dost ko le jao. usne hanuman se jo karna tha kar liya, par hanuman ne abhi nahin kiya. ” bheeD ne rasta bana diya aur hum fleet ko uthakar saDak par le gaye.
striklainD bahut naraz tha. wo bola, “ham tinon ko chhura mara ja sakta tha. fleet ko apni qimat sarahni chahiye ki wo bina chot khaye bach gaya. ”
fleet ne kisi ko dhanyavad nahin diya, wo bola ki wo sona chahta hai. wo buri tarah nashe mein tha.
hum chal diye, striklainD chup tha par bahut naraz tha. tabhi fleet buri tarah kanpne laga aur pasina pasina ho gaya. wo bola, “bazar se tez badbu aa rahi hai. ” use achraj tha ki angrezon ke ghar ke paas qasaikhana kaise maujud tha. “kya tumhein khoon ki gandh nahin aa rahi hai?” usne puchha.
akhir hamne use bistar par lita diya, tab subah ho rahi thi. striklainD ne mujhe ek gilas whisky ke liye amantrit kiya. pite pite hum mandir mein hui gaDbaDi ki baat kar rahe the. puri ghatna ne use buri tarah pareshan kar diya tha.
striklainD ka kaam desi logon ke hathkandon ka pura javab dena tha. agar unka koi kaam use tajjub mein Dale to use nafar hoti thi. abhi tak wo apne kaam mein puri tarah saphal nahin hua tha par pandrah bees saal mein kuch saphalta milne ki ummid thi.
wo bola, “unhen to hamein khatm kar dena chahiye tha, par uski jagah ve gurra rahe the. pata nahin ve kya chahte the? mujhe ye sab zara bhi achchha nahin laga. ’’
mainne kaha, “mere khayal se mandir ki prabandhak samiti, unke dharm ka apman karne ke zurm mein hamare khilaf karyavahi karegi. bharatiy danD sanhita mein fleet dvara kiye gaye zurm ki saza thi. ” striklainD ne kaha ki wo yahi ummid aur pararthna karta hai ki ve aisa karen. lautne se pahle main fleet ko dekhne gaya. dekha ki wo dain karvat leta hua, chhati ki bain taraf khuja raha tha. subah saat baje, udaas, nakhush aur sardi se mara main bhi bistar par aa gaya.
ek baje main fleet ke sir ke dard ke bare mein janne ke liye striklainD ke ghar gaya, kyonki main sochta tha ki uska sir bahut duःkh raha hoga. fleet nashta kar raha tha. wo bahut theek nahin dikh raha tha. par uska mizaj theek tha, kyonki wo rasoie ko theek nashta na dene ke liye galiyan de raha tha. ek adami thanDi raat ke baad kachcha maans kha sake, ye achraj ki baat hai. mere ye kahne par fleet hans paDa.
is jagah ajib machchhar hain, “vah bola, “ek hi jagah par ve mujhe buri tarah kha gaye hain. ”
striklainD ne kaha, “dikhao, kahan kata hai, shayad ab theek ho gaya ho. ”
jitni der mein nashta aa raha tha, fleet ne qamiz kholi aur hamein dikhaya. uski chhati par bain taraf chite ki khaal ke se golakar paanch ya chhah betartib dhabbe the, jo kale gulab ke dugne akar ke the. striklainD ne dekhkar kaha, “subah ye gulabi the, ab kale ho gaye hain. ”
fleet shishe ki taraf bhaga tatha udhar dekhkar bola, “ye to baDe bhayanak dikh rahe hain. kya hain?”
hum koi javab nahin de pae. itne mein nashta aa gaya. chapen laal aur rasili theen. fleet ne ghrinaaspad Dhang se teen nikal leen. wo dain taraf ki daDhon se chaba raha tha. maans katte vaक़t uska sir bhi dayen kandhe ki taraf jhuka tha. khatm karne par usne apne ajib vyvahar ke liye mafi mangte hue kaha, “mere khayal se main jivan mein kabhi itna bhukha nahin hua. mainne shuturmurg ki tarah nigal liya. ”
nashte ke baad striklainD ne mujhse kaha, “kahin mat jao. aaj raat yahin bita lo. ”
mera ghar uske ghar se teen meel bhi door nahin tha, at uska ye kahna bevaqufi bhara lag raha tha. par striklainD ज़id karne laga. wo kuch kahne vala tha ki fleet ne sharmindagi se kaha ki use phir bhookh lag rahi hai. striklainD ne ek adami bhejkar mere ghar se mera bistar aur ghoDa mangva liya. hum tinon striklainD ke astabal ki taraf gaye, taki ghuDasvari ke liye jane se pahle kuch samay vahan bita len. jise ghoDon se pyaar ho, wo unhen ghanton dekhkar bhi thakta nahin hai. aur jab do adami vaक़t katne ke liye aisa kar rahe hon to ek dusre se jhooth sach bolte rahte hain.
astabal mein paanch ghoDe the. jab hum vahan pahunche to jo drishya tha use main kabhi nahin bhool sakta. laga ki jaise ghoDe pagal ho gaye hain. ve zor se hinhina rahe the. aisa lag raha tha ki khunte ukhaaD denge; ve pasine se nha rahe the, kaanp rahe the. munh se jhaag nikal rahe the, Dar se pareshan the. striklainD ke ghoDe use utni hi achchhi tarah pahchante the, jitna ki uske kutte. isliye aur achraj ho raha tha. unko itna Dara hua aur pareshan dekhkar hum vahan se nikal aaye. phir striklainD muDa aur usne mujhe bulaya. ghoDe tab bhi Dare hue the, par hamein sahlane de rahe the aur apna sir hamari chhati par rakh rahe the.
striklainD ne kaha, “ye hamse nahin Dar rahe. agar autrez (ghoDe ka naam) bol sakta hota to main use apni teen mahine ki tankhvah dene ko taiyar ho jata. ”
par autrez gunga tha. wo sirf apne malik se lipat sakta tha, nathune baja sakta tha, kyonki ghoDon ka baat karne ka yahi tariqa hota hai. abhi hum astabal mein hi the ki fleet dubara vahan aaya. use dekhte hi ghoDe phir Dar se pareshan ho gaye. isse pahle ki ve hamein laat marte hum vahan se bhage. striklainD ne kaha, “aisa lagta hai ki ve tumhein pasand nahin karte. ”
fleet bola, “bekar baat, meri ghoDi mere pichhe kutte ki tarah aati hai. ” wo uske paas gaya. wo khule astabal mein thi, jaise hi usne DanDa hataya, wo aage baDhi, fleet ko giraya aur bagiche ki taraf bhaag gai. main hans paDa, par striklainD ko hansi nahin i. wo donon hathon se apni munchhen itni der tak khinchta raha ki ve ukhaDne vali ho gain. fleet apni ghoDi ko pakaDne jane ki jagah ubasi lekar bola ki use neend aa rahi thi. wo ghar gaya aur let gaya. nae saal ka din bitane ka ye bevaqufi bhara Dhang tha.
striklainD ghuDasal mein mere saath baitha raha. usne mujhse puchha ki mujhe fleet ke acharn mein koi khaas baat dikhi. mainne kaha ki wo janvar ki tarah kha raha tha, par uska karan ye ho sakta hai ki wo pahaDon par akela rahta hai jahan hamare jaise aur unche sabhy samaj se uska vasta hi nahin paDta. striklainD ko hansi nahin i. mujhe lagta hai wo meri baat sun hi nahin raha tha, kyonki uska agla vaaky fleet ki chhati par bane nishan ke bare mein tha. mainne kaha ki ho sakta hai kisi zahrili makkhi ne kaat liya ho ya koi janm ka nishan ho, jo ab dikhai de raha tha. hum donon ne ye zarur mana ki wo dekhne mein achchha nahin tha. striklainD ne mujhe bevaquf kaha. ”
wo bola, “main kya sochta hoon, ye abhi nahin bataunga, kyonki tab tum mujhe pagal kahoge, par ho sake to agle kuch din tum mere paas raho. main chahta hoon ki tum fleet par nazar rakho. par jab tak main apne natize par na pahunchun, mujhe kuch nahin batana. ”
mainne kaha, “lekin main aaj raat ko bahar khana nahin khaunga. ”
striklainD bola, “main bhi aur fleet bhi, agar wo apna dimagh na badle to!”
hum bagiche mein ghumte rahe aur paip pite rahe. jab tak paip khatm nahin hua, hum kuch nahin bole, kyonki hum dost the aur bolne se achchhe tambaku ka maza chala jata hai. phir hum fleet ko jagane gaye. wo jaag raha tha aur apne kamre mein bechaini se ghoom raha tha.
hamein dekhkar wo bola, “main kah raha tha ki mujhe kuch aur chapen chahiye. kya milengi?”
hum hanse aur kaha, “jao, kapDe badal lo, pal bhar mein ghoDe aa jayenge. ”
“theek hai,” usne kaha, “main chalunga, par chaap milne ke bad—vah kuch kam paki honi chahiye. ”
wo kafi gambhir lag raha tha. chaar baje the. hamne ek baje nashta kiya tha, phir bhi wo kafi der se kam paki chapen maang raha tha. phir usne ghuDasvari ke liye kapDe pahne, bahar baramde mein gaya. uski ghoDi to pakDi nahin ja saki—use paas nahin aane de rahi thi. tinon ghoDe beqabu ho rahe the—Dar se pagal! akhir fleet ne kaha ki wo ghar par hi rukega aur yahin kuch kha lega. striklainD aur main ghuDasvari ke liye nikle. hum soch mein Dube the. jaise hi hum hanuman mandir ke paas se nikle, wo safed adami aaya aur hum par myaun, myaun karne laga.
striklainD ne kaha ki “yah mandir ke purane pujariyon mein se nahin hai. mera man karta hai ki ye mere haath lag jaye. ”
us shaam hamara ghuDasvari mein koi utsaah nahin tha. ghoDe bhi bina utsaah ke aise chal rahe the jaise pahle chalne se thake hon.
striklainD bola, “nashte ke baad ka jhatka inke liye bahut ho gaya. ” baqi ka pura rasta wo kuch nahin bola. mere khayal se ek do qas khai hogi par wo baton ki ginti mein nahin hoga.
saat baje andhera hone par hum laut aaye to dekha ki bangale mein koi batti nahin jal rahi thi. striklainD ne kaha, “mere naukar baDe badmash aur laparvah hain. ”
mera ghoDa pagDanDi par hinhinaya, fleet aakar theek uski naak ke niche khaDa ho gaya.
striklainD ne puchha, “tum yahan bagiche mein kya kar rahe ho?”
itne mein hi donon ghoDe aise bhage ki hamein gira hi dete. astabal ke paas hum utre aur vapas fleet ke paas aaye, jo ghutnon aur hathon ke bal santare ke jhaaD ke niche khaDa tha.
striklainD bola, “tumhen kya hua hai?”
fleet ne jaldi jaldi bhari avaz mein javab diya, “kuchh nahin, tum jante ho main bagvani kar raha tha. mitti ki khushbu bahut achchhi aa rahi hai. mere khayal se main sari raat sair karne—lambi sair karne jaunga. ” tab mujhe laga, kahin bahut gaDbaD hai. mainne striklainD se kaha, “main bahar khana khane nahin jaunga. ”
striklainD ne fleet se kaha, “utho, tumhein bukhar aa jayega. andar chalo, khana khayenge, roshni karenge. hum sab ghar par hi khayenge. ”
fleet beman se utha aur bola, “lamp nahin lainp nahin. yahan zyada achchha hai. hum bahar baithkar khate hain. kuch aur chapen—Dher sari aur kam paki hui—lal aur kurkuri. ”
uttari bharat mein disambar ke mahine mein kafi thanD hoti hai, fleet ka sujhav ek pagal ka sujhav tha.
striklainD ne sakhti se kaha, “andar aao, fauran andar ao!”
fleet andar aaya. lainp aane par hamne dekha ki wo sir se pair tak mitti aur gandgi se lathpath tha. wo shayad bagiche mein kalabajiyan kha raha tha. roshni aate hi wo simat utha aur apne kamre mein chala gaya. uski ankhen bhayanak lag rahi theen, unmen kuch nahin tha, par unke pichhe hari roshni thi. uska niche ka honth latka hua tha.
striklainD ne kaha, “aaj raat ko bhayanak pareshani aane vali hai. tum kapDe mat badalna. ”
hamne khana mangvaya aur fleet ke aane ka intzaar karte rahe. wo apne kamre mein chakkar laga raha tha, par usne batti nahin jalai thi. tabhi kamre se bheDiye ki lambi rone ki avaz i.
log baag khoon thanDa hone aur baal ukhaD jane ki baat baDe halke Dhang se likh ya kah dete hain. par donon anubhav baDe bhayanak hain. unhen halke Dhang se nahin lena chahiye. mera dil aise ruk gaya, jaise chaku ghusa diya gaya ho, striklainD mez par bichhe kapDe jaisa safed paD gaya.
ek baar phir vahi rone ki avaz i aur kheton ke paar se uska javab aaya.
isse Dar aur baDh gaya. striklainD fleet ke kamre ki taraf bhaga, main pichhe bhaga. hamne dekha fleet khiDki se bahar nikal raha tha. uske gale se janvaron ki si avaz nikal rahi thi. jab hum us par chillaye to wo javab nahin de paya. usne thuka.
mujhe yaad nahin ki phir kya hua, par main sochta hoon ki striklainD ne zarur use jute utarne vale lambe upkarn se markar achambhe mein Daal diya hoga, nahin to main kabhi bhi uski chhati par nahin baith sakta tha. fleet kuch bol nahin pa raha tha, sirf gurra raha tha. uski gurrahat bheDiye jaisi thi, insaan jaisi nahin. uske andar ka adami shayad sara din laDne ke baad mar gaya hoga. ab hamara vasta us janvar se tha, jo kabhi fleet tha.
puri ghatna kisi insaan ke vivekapurn anubhav se pare thi. main ise haiDroफ़obiya (pagal kutte ke katne ki bimari) kahna chahta tha, par shabd mere gale se nahin nikal raha tha, kyonki main janta tha ki wo jhooth hai.
hamne is janvar ko pankhe ki chamDe ki rassi se bandha aur uske haath ke anguthe aur pair ke anguthe ko saath saath baandh diya, jute pahanne ke horn ko munh mein phansa diya, agar use lagana jante ho to wo bahut asardar hota hai. phir hum use khane vale kamre mein le gaye. aur ek adami ko Dumo doctor ke paas bheja aur kaha ki ve fauran aa jayen. adami ke jane ke baad hamne saans li. tab striklainD bola, “usse kuch nahin hoga, ye doctor ke vash ka kaam nahin hai. ” main janta tha ki wo theek kah raha tha.
janvar ka sir aज़ad tha. wo use idhar udhar phenk raha tha. koi kamre mein ghusta to yahi sochta ki hum bheDiye ki khaal paka rahe the.
striklainD apni hatheli par thoDi tikaye baitha us janvar ko zamin par rengte hue dekh raha tha, par kuch kah nahin raha tha. khinchatani mein uski qamiz phat gai thi aur chhati par bane kale nishan dikh rahe the. ve chhale jaise deekh rahe the.
hum chupchap baithe dekh rahe the ki hamein bahar koi avaz sunai di. wo mada udbilav ki si thi. hum donon khaDe ho gaye aur chahe striklainD ke bare mein nahin par apne bare mein kah sakta hoon ki mujhe laga, jaise main bimar hoon, sach mein sharir se mein bimar hoon. hamne ek dusre se kaha ki wo billi hai.
Dumo aaya. mainne kabhi kisi vyavasayik adami ko is क़dar Dara hua nahin dekha. usne kaha ki ye to haiDroफ़obiya ka dil dahlane vala kes hai. ismen ab kuch nahin kiya ja sakta. shanti dene vale upayon se uski taklif aur lambi hogi. janvar ke munh se jhaag nikal raha tha. hamne Dumo ko bataya ki fleet ko ek do baar kutte ne kata tha. koi bhi adami jo kutte palta hai, kabhi kabhi unke dvara kata bhi jata hai. Dumo koi madad nahin kar saka sivay iske ki wo ye pramanapatr de sakta tha ki fleet kutte ke kate se mar raha tha. tab tak janvar shu haarn (juta pahanne ka chhota sa upkarn) thukne mein kamyab hokar ab gurra raha tha. Dumo ne kaha ant tay tha aur wo uska karan pramanait karne ko taiyar tha. wo achchha adami tha aur hamare saath rukne ko razi tha; par striklainD ne isse inkaar kar diya. wo uska nae saal ka din kharab nahin karna chahta tha. usne sirf itna kaha ki fleet ki mirtyu ka asli karan logon ko na bataya jaye.
pareshan Dumo laut gaya. jaise hi uski gaDi ke pahiyon ki avaj khatm hui, striklainD ne phusaphusate hue mujhe apne man ka shak bataya. par use ye khu hi itna avishvasniy lag raha tha ki wo is bare mein zor se bol bhi nahin pa raha tha; main jo striklainD ke har vishvas ko manata tha, ise manne par itna sharminda tha ki avishvas ka dikhava kar raha tha.
“agar koDhi ne fleet ko hanuman ki murti bhrasht karne ke liye jadu kiya bhi hai to itni jaldi danD kaise mila?”
jab main ye phusphusa raha tha tabhi ghar ke bahar se phir avaz i aur wo janvar nae sire se taqat lagane laga. hamein Dar tha ki kahin wo chamDe ke patte ko toD na Dale.
“dekho!” striklainD bola, “agar aisa is baar hua to main qanun apne haath mein le lunga. main tumhein hukm deta hoon ki tumhein meri madad karni hogi. ”
wo apne kamre mein gaya aur kuch hi minat baad ek purani shautgan ki nali, machhli pakaDne vale kante ka tukDa, ek moti rassi aur palang ke lakDi ke bhari pae lekar aaya. mainne bataya tha ki us cheekh ke do second ke baad janvar ko daure paDte the. ab wo kamzor hota dikhai de raha tha.
striklainD baDabDaya, “par wo kisi ki zindagi nahin le sakta! wo zindagi nahin le sakta!”
“jante hue bhi ki main apne vishvas ke khilaf bol raha tha, mainne kaha, wo billi ho sakti hai. wo billi hi hogi. agar wo koDhi zimmedar hota to yahan aane ki himmat kaise karta?”
striklainD ne lakDi ke chulhe mein rakhi banduk ki nali aag ki lau par rakhi, mez par rassi phailai aur ek bent ke do tukDe kiye. machhli pakaDne vali DanDi ek gaj ki thi, aage taar laga tha, jaisa machhli pakaDne mein hota hai. usne donon sire ikatthe bandhakar ek phanda banaya.
phir wo bola, “ham use kaise pakDen? use zinda aur sahi salamat pakDan hai. ”
mainne kaha, “hamen niyti par vishvas karna hoga. polo khelne vali lakDi lekar dhire se ghar ke samne vale jhaaD mein jana hoga. chikhne vala adami ya janvar baar baar ghar ke charon taraf aise chakkar kaat raha hai jaise chaukidar ho. hum jhaDiyon mein intzaar karte rahenge aur paas aane par us par jhapat paDenge. ”
striklainD ne sujhav maan liya. hum ghusalkhane ki khiDki se aage vale baramde mein hote hue pagDanDi par utarkar jhaDiyon mein chale gaye.
chandni mein hamein wo koDhi ghar ke kone se aata dikhai diya. wo bilkul nanga tha, beech beech mein gurrata tha aur rukkar apni parchhain ke saath nachta tha. wo baDa bhadda drishya tha aur ye sochkar ki is bure adami ne fleet ki kya haalat bana di hai, mainne apne sab shak chhoDkar striklainD ki madad karne ka nishchay kiya, aur tay kiya ki garam ki hui banduk ki nali se lekar phanda bani rassi—jangh se sir tak vapas le jane—zarurat paDne par kisi bhi tarah ki yantranaa dene mein pichhe nahin hatunga.
jaise hi koDhi pal bhar ko hamare samne ruka, hum chhaDi lekar us par kood paDe. wo bahut taqatvar tha aur hamein Dar tha ki hamare pakaDne se pahle bhaag na jaye ya ghayal na ho jaye. hamara ye khayal ki koDhi kamzor hote hain, ghalat nikla. striklainD ne uski tangon mein dhakka mara aur mainne uske gale par pair rakh diya. wo buri tarah gurrane laga. apne ghuDasvari ke juton ke niche se main bhi mahsus kar raha tha ki uski khaal svasth adami ki khaal nahin hai.
wo apne haath pair ke thunthon se hamein marne ki koshish kar raha tha. hamne kutte ki rassi uski baglon ke niche se Dalkar use phande mein baandh liya tha. phir ulta ghasitte hue hall se hote hue use khane vale kamre mein le gaye, jahan wo janvar paDa tha. vahan hamne use bakse ke kunDe se baandh diya. usne chhutne ki koshish nahin ki, par gurrata raha.
jab hum koDhi ko janvar ke samne le gaye, us samay ke drishya ka varnan nahin kiya ja sakta. janvar dhanush ki tarah pichhe duhra ho gaya, jaise kisi ne use zahr de diya ho aur dardanak Dhang se karahne laga. phir bahut kuch hua, jo main yahan likh nahin sakta.
“mere khayal se main sahi tha, striklainD bola,”ab hum usse ise theek karne ko kahenge. ”
koDhi keval gurra raha tha. striklainD ne apne haath par ek tauliya lapeta aur aag se banduk ki nali nikali. mainne chhaDi ka aadha hissa machhli pakaDne ki Dori ke phande mein Dala aur aram se koDhi ko striklainD ke palang ke pae se baandh diya. ab main samjha ki kaise adami aurat aur chhote bachche tak ek chuDail ko zinda jalate dekhana sahn kar lete hain; janvar zamin par karah raha tha. koDhi ka chehra nahin tha, par chehre ki jagah jo patthar tha, us par bhayanak bhaav guज़r rahe the, bilkul aise jaise laal garam lohe par garmai ki lahren khelti hain—udaharn ke liye banduk ki nali.
striklainD ne pal bhar ke liye apni ankhon par hathon se chhaya ki aur hum kaam mein lag gaye. ye qissa chhapne ke liye nahin hai.
jab koDhi bola, tab subah hone vali thi. us vaक़t tak wo gurra raha tha, jisse hamein koi tasalli nahin mil rahi thi. janvar thak kar behosh ho gaya tha. ghar mein sannata tha. hamne koDhi ko khola aur usse kaha ki wo buri aatma ko le jaye. wo rengkar janvar tak gaya, usne apna haath uski chhati par bain taraf rakha. bus itna hi. phir wo munh ke bhaar gir gaya aur saans andar khinchte hue rone laga.
hum janvar ka chehra dekh rahe the aur dekhte dekhte uski ankhon mein fleet ki aatma laut i. phir mathe par pasina aa gaya aur usne ankhen—insani ankhen—band kar leen. hamne ek ghanta intzaar kiya, par phir bhi fleet sota raha. hum use uske kamre mein le gaye aur koDhi se jane ko kaha, use palang ka paya, chadar, jisse wo apne nangepan ko Dhak sake, dastane aur tauliya, jinse hamne use chhua tha aur wo chabuk, jo uske badan ke charon taraf lapeti hui thi, de di. usne chadar se apne ko lapeta aur bahut subah bina bole, bina gurraye chala gaya.
striklainD ne apna munh ponchha aur baith gaya. door shahr mein ghanta baja. saat baje the.
striklainD ne kaha, “pure chaubis ghante! mainne naukari se nikale jane aur hamesha ke liye pagalkhane bheje jane layak kafi kuch kiya hai. tumhein vishvas hai ki hum jaag rahe hain?”
laal dahakti banduk ki nali zamin par girkar qalin jala rahi thi. uski gandh sachchi thi.
us din subah gyarah baje hum donon saath saath fleet ko jagane gaye. hamne dekha ki uski chhati par chite ki khaal jaise jo kale dhabbe bane the, ve ghayab ho gaye the. wo thaka hua aur neend mein tha. par jaise hi usne hamein dekha to bola, “oh! satyanash! naya saal mubaraq ho! kabhi sharab nahin pini chahiye. main marne vala ho gaya tha. ”
“tumhari kripa ke liye dhanyavad, par tum aage nikal gaye ho. aaj do tarikh ki subah hai. tum pure chaubis ghante soe ho. ”
darvaza khula, doctor Dumo ne jhanka, wo paidal aaya tha. usne socha tha ki hum fleet ko niche utaar rahe honge.
“main ek nurse laya hoon,” usne kaha, “mere khayal se wo jo zarurat ho, kar sakti hai. . . ”
fleet ne khushi se bharkar bistar par baithte hue kaha, “zarur, apni sab nursen le aao. ”
doctor gunga ho gaya. striklainD use bahar le gaya aur samjhaya ki shayad use bimari janne mein koi ghalati ho gai hogi. wo chup hi raha aur jaldi se chala gaya. use apni vyavasayik izzat ki fir hui hogi. striklainD bhi bahar chala gaya. jab wo lauta to usne bataya ki wo hanuman mandir gaya tha. usne devta ko bhrasht karne ka harzana dene ko kaha. aur bataya ki kabhi kisi gore adami ne murti ko nahin chhua aur ye bhi ki wo adami sare gunon se bhara hai par wo kisi dhokhe mein paD gaya. striklainD ne puchha, “tum kya sochte ho?”
mainne kaha, “aur bhi baten hain. . . ”
par striklainD ko meri is ukti se nafar hai. wo kahta hai ki mainne iske bahut se prayog se ise ghisa diya hai.
ek aur ajib baat hui, jisne us raat ko hui sari ghatnaon jitna hi mujhe Daraya. jab fleet kapDe pahankar khane vale kamre mein aaya to sunghne laga. sunghte samay wo apni naak ajib Dhang se hilata tha. “yahan kutte ki bhayanak gandh hai. tumhein apne in kutton ko behtar Dhang se rakhna chahiye. strik, gandhak ka prayog karke dekho. ”
striklainD ne koi javab nahin diya. usne kursi ka pichhe ka hissa pakDa aur achanak bina kisi chetavni ke histiriya ke ashcharyajnak daure se grast ho gaya. ek taqatvar adami ko is tarah ke daure ke qabu mein dekhkar bahut bura lagta hai. phir bhi mujhe yaad aaya ki isi kamre mein hamne fleet ki aatma ko chhuDane ke liye koDhi se laDai ki thi. hamne angrezon ko hamesha ke liye badnam kar diya tha. yaad aate hi main bhi striklainD ki tarah sharmanak Dhang se hanste hanste hanphane aur gurrane laga. fleet ne socha, hum donon pagal ho gaye hain. hamne use kabhi nahin bataya ki hamne kya kiya tha.
kuch saal baad striklainD ne shadi kar li aur patni ke prabhav mein samaj ki charcha mein aane vala sadasy ban gaya. hamne is puri ghatna ke bare mein tatasthata se socha aur striklainD ko laga ki mujhe ye ghatna janta ke samne lani chahiye.
main nahin janta ki is qadam ke uthane se rahasy ki gutthi suljhegi; kyonki pahli baat to ye hai ki koi is aruchikar kahani par vishvas hi nahin karega, aur dusre har buddhiman vekti ko pata hai ki murtipujkon ke bhagvan patthar aur pital ke hote hain, unke saath durvyavhar karne ki koshish ko nishchit roop se nindniy mana jata hai.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 27-40)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : जोसेफ रड्यर्ड किप्लिङ
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
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