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अलविदा माँ!

alavida maan!

अल्बेयर कामू

अल्बेयर कामू

अलविदा माँ!

अल्बेयर कामू

और अधिकअल्बेयर कामू

    माँ का आज देहांत हो गया या शायद कल हुआ हो; कह नहीं सकता। आश्रम से आए तार में लिखा है—“आपकी माँ चल बसी, अंतिम संस्कार कल। गहरी सहानुभूति”, इससे कुछ पता नहीं चलता, हो सकता है यह कल हुआ हो।

    वृद्धाश्रम मोरेंगो में हैं; अल्जीयर्स से तक़रीबन पचास मील दूर, दो बजे की बस से मैं रात घिरने से पहले पहुँच जाऊँगा, फिर रात वहाँ गुज़ार सकता हूँ—अर्थी के पास रतजगे की रस्म के लिए...। फिर कल शाम तक वापस, मैंने अपने मालिक से दो दिन की छुट्टी की बात कर ली है; ज़ाहिर है ऐसे हालात में वह मना नहीं कर सकता था। फिर भी लगा मानो ग़ुस्से में है। मैंने बग़ैर सोचे ही कह दिया “सॉरी सर, आप जानते हैं, इसमें मेरा कोई क़सूर नहीं है।”

    बाद में लगा, मुझे ऐसा कहने की ज़रूरत थी, माफ़ी माँगने की तो कोई वजह ही थी; दरअसल उसे मुझसे सहानुभूति दिखानी चाहिए थी। परसों जब मैं काले कपड़ों में दफ़्तर लौटू तो शायद वह ऐसा करेगा, अभी तक तो ख़ुद मुझे ही नहीं लग रहा कि माँ वाक़ई नहीं रही, शायद अंत्येष्टि के बाद यक़ीन हो जाएगा।

    मैंने दो बजे की बस पकड़ी—चिलचिलाती दुपहरी थी। हमेशा की तरह मैं सेलेस्टे के रेस्तरां में खाने के लिए उतरा। सभी स्नेह से पेश आए। सेलेस्टे ने मुझसे कहा, “माँ जैसी कोई अमानत नहीं” जब मैं चला तो वे मुझे दरवाज़े तक छोड़ने आए। मैं जल्दबाज़ी में चला था, इसलिए मुझे अपने मित्र एमेन्यूएल से उसकी काली टाई और मातम के वक़्त बाँधी जाने वाली काली पट्टी माँगकर लानी पड़ी। कुछ माह पहले ही उसके चाचा चल बसे थे।

    मैंने क़रीब-क़रीब भाग कर बस पकड़ी। इस भागदौड़, चिलचिलाती धूप और गैसोलिन की बदबू ने शायद मुझे उनींदा कर दिया था। पूरे रास्ते मैं सोता रहा, जब उठा तो देखा एक फ़ौजी पर लुढ़का पड़ा था। उसने जानना चाहा कि क्या मैं किसी लंबे सफ़र से रहा हूँ? मैंने सिर्फ़ गर्दन हिलाई, ताकि बातचीत आगे बढ़े। मैं बातें करने के मूड में क़तई नहीं था।

    गाँव से वृद्धाश्रम मील भर दूर है, मैं पैदल ही चल पड़ा। वहाँ पहुँचते ही मैंने माँ को देखने की इच्छा ज़ाहिर की, पर दरबान ने पहले वार्डन से मिलने के लिए कहा। वे व्यस्त थे। मुझे कुछ देर इंतज़ार करना पड़ा। उस दौरान दरबान मेरे साथ गपशप करता रहा; फिर दफ़्तर ले गया, वार्डन ठिगना, भूरे बालों वाला आदमी था, अपनी गीली नीली आँखों से उसने मुझे भरपूर देखा। फिर हाथ मिलाया और मेरा हाथ इतनी देर तक पकड़े रखा कि मैं ख़ासी उलझन महसूस करने लगा। उसके बाद एक रजिस्टर में तहक़ीक़ात की और बोला—

    “मदाम मेएरसॉल्ट तीन बरस पहले इस आश्रम में आई थीं, उनकी अपनी कोई आमदनी नहीं थी और पूरी तरह तुम पर आश्रित थीं।”

    मुझे लगा वह मुझे दोषी ठहरा रहा हो और मैं सफ़ाई देने लगा, पर उसने मेरी बात काट दी।

    “अरे बेटे, सफ़ाई देने की कोई ज़रूरत नहीं। मैंने रिकार्ड देखा है। उससे ज़ाहिर है कि आप उनकी अच्छी तरह देखभाल करने की स्थिति में नहीं थे। उन्हें पूरे वक़्त देखभाल की ज़रूरत थी और तुम्हारी तरह की नौकरी में नवयुवकों को बहुत अधिक वेतन नहीं मिलता। दरअसल, वह यहाँ काफ़ी ख़ुश थीं।”

    “हाँ सर; मुझे पूरा यक़ीन है।” मैं बोला।

    वह फिर बताने लगा: “जानते हैं, यहाँ उसके कई अच्छे मित्र बन गए थे। सभी उसकी उम्र के हैं, वैसे भी हमउम्र लोगों के साथ ज़िंदगी अच्छी गुज़रती है। तुम उम्र में छोटे हो; इसलिए उसके मित्र तो नहीं बन सकते थे।”

    यह वाक़ई सच था, क्योंकि जब हम साथ रहते थे तो माँ मुझे निहारती रहती, पर हम शायद ही कोई बातचीत करते। आश्रम के अपने शुरुआती दिनों में वह ख़ूब रोया करती थी। पर ऐसा कुछ ही वक़्त रहा। उसके बाद यहाँ उसका मन लग गया, एकाध महीने बाद तो अगर उसे आश्रम छोड़ने के लिए कहा जाता तो वह यक़ीनन रोने लगती, क्योंकि यहाँ से बिछुड़ने का उसे धक्का लगता। इसलिए पिछले साल मैं शायद ही उससे कभी मिलने आया। मिलने आना यानी पूरा इतवार खपा देना। बस से यात्रा करने, टिकट कटवाने और आने-जाने में दो-दो घंटे गंवाने की तकलीफ़, सो अलग।

    वार्डन बोलता ही चला गया, पर मैंने ख़ास तवज्जो नहीं दी। आख़िर वह बोला: “मेरे ख़याल से अब तुम अपनी माँ को देखना चाहोगे?”

    मैं जवाब दिए बग़ैर खड़ा हो गया, फिर उसके पीछे चल दिया, जब हम सीढ़ियों से उतरने लगे तो उसने कहा—

    “मैंने उनके शव को यहाँ के छोटे शवगृह में रखवा दिया है—ताकि दूसरे बूढ़े लोग दुखी हों, आप समझ सकते हैं न! यहाँ जब भी किसी की मृत्यु होती है तो दो-चार दिन ये सभी अधीर और विचलित हो जाते हैं। ज़ाहिर है, इससे हमारे स्टाफ़ का काम और परेशानी बढ़ जाती है।”

    हमने बरामदा पार किया, जहाँ कई बूढ़े छोटे-छोटे झुँड में खड़े होकर बतिया रहे थे। हमारे उनके क़रीब पहुँचते ही वे चुप हो गए, ज्यों ही हम आगे बढ़े उनकी फुसफुसाहट फिर शुरू हो गई। खुसर-फुसर सुन कर अनायास मुझे पिंजरे में बंद टुइया-तोतों की स्मृति हो आई। इनकी आवाज़ें ज़रूर उतनी तीखी और कर्कश नहीं थीं। एक छोटी, नीची बिल्डिंग के प्रवेश द्वार के बाहर पहुँचकर वार्डन रुक गया।

    श्रीमान मेएरसॉल्ट, यहाँ मैं आपसे विदा लेता हूँ। यदि कोई काम हो तो मैं अपने दफ़्तर में मिलूँगा। कल सुबह माँ का अंतिम संस्कार रखना तय हुआ है, इससे तुम अपनी माँ के ताबूत के पास रात गुज़ार सकोगे और यक़ीनन तुम ऐसा करना चाहोगे। एक आख़िरी बात, आपकी माँ के एक मित्र से मुझे पता चला कि उनकी ख़्वाहिश थी कि उन्हें चर्च के रीति-रिवाजों के मुताबिक दफ़नाया जाए। यूँ तो मैंने सारे इंतजाम कर लिए हैं, फिर भी तुम्हें बताना मुनासिब लगा।”

    मैंने उसका शुक्रिया अदा किया, जहाँ तक मैं माँ को जानता था, हालाँकि वह नास्तिक नहीं थी, पर उसने जीवन में धर्म वगैरह को कभी ज़्यादा तरजीह नहीं दी थी।

    मैंने शवगृह में प्रवेश किया, यह पुती हुई दीवारों और खुले रोशनदान वाला साफ़-सुथरा चमकदार कमरा था। फ़र्नीचर के नाम पर वहाँ कुछ कुर्सियाँ और मोढ़े रखे थे। कमरे के बीचोबीच दो स्टूलों पर ताबूत को रखा गया था। ढक्कन बंद था, पर पेंचों को बिना पूरा कसे ही छोड़ दिया था, जिससे वे लकड़ी पर उभरे हुए थे। एक अरबी महिला जो शायद नर्स थी, अर्थी के क़रीब बैठी थी। उसने नीला कुर्ता पहन रखा था और एक भड़कीला-सा स्कार्फ़ बालों पर बाँध रखा था, उसी क्षण मेरे पीछे हाँफता हुआ दरबान पहुँचा। ज़ाहिर था, वह भागते हुए आया था।

    “हमने ढक्कन लगा दिया था—पर मुझे हिदायत दी गई है, आपके आने पर मैं पेंच पूरे खोल दूँ, जिससे आप उन्हें देख सकें।”

    वह खोलने के लिए आगे बढ़ा पर मैंने उसे मना कर दिया।

    “क्या आप नहीं चाहते कि...?”

    “नहीं” मैं बोला।

    उसने स्क्रू ड्राइवर जेब में रख लिया और मुझे घूरने लगा, तब मुझे लगा कि मना नहीं करना चाहिए था। मैं शर्म महसूस करने लगा, कुछ पलों तक मुझे घूरने के बाद उसने पूछा—‘क्यों नहीं?’ पर उसके स्वर में उलाहना नहीं थी; वह बस यूँ ही जानना चाहता था।

    “दरअसल मैं कुछ कह नहीं सकता,” मैं बोला।

    वह अपनी सफ़ेद मूँछों को ऐंठने लगा, फिर बिना मेरी ओर देखे नमीं से बोला, “मैं समझ सकता हूँ।”

    वह नीली आँखों और लाल स्वस्थ गालों वाला भला-सा हँसमुख व्यक्ति था, उसने ताबूत के नज़दीक मेरे लिए एक कुर्सी खिसकाई और मेरे पीछे ख़ुद भी बैठ गया। नर्स उठी और दरवाज़े की ओर चल दी। जब वह जाने लगी तो दरबान मेरे कान में बुदबुदाया, “बेचारी को ट्यूमर है।”

    मैंने उसे ग़ौर से देखा, तब पता चला कि आँखों के ठीक नीचे सिर पर पट्टी बंधी थी, जिससे उसका बहुत थोड़ा-सा चेहरा दिखाई दे रहा था।

    उसके जाते ही दरबान भी खड़ा हो गया।

    “अब मैं आपको अकेला छोड़ देता हूँ।”

    मैं नहीं जानता मैंने कोई हरकत की या नहीं, पर जाने की बजाए वह कुर्सी के पीछे ही खड़ा रहा। पीठ पीछे किसी की मौजूदगी से मैं ख़ासा असहज महसूस कर रहा था। सूरज ढलने लगा था और कमरा ख़ुशनुमा, स्निग्ध रोशनी से भर उठा था। नींद से मेरी आंखें बोझिल हो रही थी। देखे बग़ैर मैंने दरबान से यूँ ही पूछा कि वह कितने बरसों से इस आश्रम में है? “पाँच बरस,” उसने झट से जवाब दिया, मानो मेरे सवाल का ही इंतज़ार कर रहा हो।

    बस वह फिर शुरू हो गया और बतियाने लगा, दस बरस पहले अगर किसी ने उसे कहा होता कि वह अपनी ज़िंदगी मोरेंगो के वृद्धाश्रम में गुज़ारेगा तो उसे यक़ीन होता। वह चौंसठ बरस का था और पेरिस का रहने वाला था।

    “ओह तो तुम यहाँ के नहीं हो?” मैं अनायास बोल पड़ा। तब मुझे याद आया कि वार्डन के पास जाने से पहले उसने माँ के बारे में कुछ कहा था। उसने कहा था कि उन्हें दफ़नाने की रस्म जल्दी से पूरी करनी होगी, क्योंकि इस हिस्से में ख़ासकर मैदानी इलाके में ख़ासी गर्मी रहती है।

    पेरिस में शव को तीन दिन, कभी-कभार चार दिन भी रखा जाता है। उसने यह भी बताया कि उसने एक लंबा अरसा पेरिस में गुज़ारा है और वे दिन उसके जीवन के बेहतरीन दिन थे, जिन्हें वह कभी भुला नहीं सकता, “यहाँ सब कुछ हड़बड़ी में निपटाया जाता है। आप अपने अज़ीज़ की मृत्यु को पूरी तरह स्वीकार भी नहीं कर पाते कि अंतिम क्रिया-कर्म की ओर धकेल दिए जाते हैं।” इसी क्षण उसकी पत्नी ने टोका, “बस भी करो” वह बूढ़ा थोड़ा सकपकाकर क्षमा माँगने लगा। दरअसल वह जो कुछ कह रहा था, वह मुझे अच्छा लग रहा था; मैंने पहले इन बातों पर ग़ौर नहीं किया था।

    फिर वह बताने लगा कि कैसे एक आम वासी की तरह वह भी इस आश्रम में आया था। तब वह काफ़ी स्वस्थ और तंदुरुस्त था, इसलिए जब दरबान की जगह ख़ाली हुई तो उसने यह नौकरी करने की इच्छा जताई।

    जब मैंने उसे कहा कि औरों की तरह वह भी तो यहाँ का एक वासी ही है, तो उसे यह नागवार लगा। वह एक ‘ख़ास’ पद पर था। मुझे ध्यान आया कि हालाँकि लगातार वह उन्हें “वे और ये बूढ़े लोग” कहकर संबोधित कर रहा था, वह ख़ुद उनसे कम बूढ़ा था, फिर भी उसकी बात में दम था। एक दरबान के रूप में उसकी एक हैसियत थी, दूसरों से ऊपर एक ख़ास तरह का अधिकार।

    इसी वक़्त नर्स लौट आई। रात बहुत जल्द उतर आई थी। अचानक लगा मानो आसमाँ पर अँधेरा छा गया है। दरबान ने बत्तियां जला दीं। रोशनी में आँखें चुंधियाने लगीं।

    उसने सलाह दी कि मुझे भोजनालय जाकर भोजन कर लेना चाहिए, पर मुझे भूख थी, उसने कॉफ़ी लेने की पेशकश की। चूँकि मुझे कॉफ़ी पसंद थी, मैंने शुक्रिया कह हामी भरी और चंद ही मिनटों में वह ट्रे लेकर आया। मैंने कॉफ़ी पी, फिर मुझे सिगरेट की तलब होने लगी, पर क्या इन हालात में सिगरेट पीना मुनासिब होगा? माँ की अर्थी के पास? दरअसल इससे ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता, यह सोच मैंने दरबान की ओर भी एक सिगरेट बढ़ाई और हम सिगरेट पीने लगे। उसने फिर बातें शुरू कर दीं, “जानते हैं, जल्द ही आपकी माँ के मित्र आएँगे, आपके साथ अर्थी के पास रतजगा करने के लिए। जब भी कोई मर जाता है तो हम सभी इसी तरह रतजगा करते हैं। बेहतर होगा, मैं जाकर कुछ कुर्सियाँ और काली कॉफ़ी का जग भर कर ले आऊँ।”

    सफ़ेद दीवारों की वजह से तेज़ रोशनी आँखों को बहुत अखर रही थी। मैंने दरबान से एकाध बत्ती बुझाने के लिए कहा—“ऐसा कुछ नहीं कर सकते, उन्हें ऐसे लगाया गया है कि सभी एकसाथ जलती हैं और एकसाथ बुझती हैं। उसके बाद मैंने रोशनी पर ध्यान देना छोड़ दिया। वह बाहर जाकर कुर्सियाँ ले आया और ताबूत के चारों ओर लगा दी, एक पर उसने कॉफ़ी का जग और दस-बारह प्याले रख दिए। फिर ठीक मेरे सामने ताबूत के दूसरी तरफ़ बैठ गया। नर्स कमरे के दूसरे सिरे पर थी। मेरी ओर उसकी पीठ थी, मैं नहीं जानता, वह क्या कर रही थी, पर उसके हाथ जिस तरह हिल रहे थे, उससे मैंने अंदाज़ा लगाया कि वह कुछ बुन रही थी। मैं अब इत्मीनान से था, कॉफ़ी ने मेरे भीतर ताज़गी भर दी थी, खुले दरवाज़े से फूलों की ख़ुशबू और शीतल हवा भीतर रही थी। मैं उनींदा होने लगा।

    कानों में अजीब-सी सरसराहट से मैं जाग पड़ा। कुछ वक़्त आँखें बंद थीं—इसलिए रोशनी पहले से भी तेज़ लगने लगी। कहीं कोई छाया या ओट थी, इसलिए हर चीज़ अपनी पूरी विराटता के साथ उजागर थी। माँ के बूढ़े मित्र चुके थे। मैंने गिने, कुल दस थे, कोई आवाज़ किए बग़ैर चुपचाप चुंधियाती रोशनी में जाकर बैठ गए थे। उनके बैठने से किसी कुर्सी के चरमराने की आवाज़ तक नहीं हुई। जीवन में आज तक मैंने किसी को इस कदर साफ़ ढंग से नहीं देखा; एक-एक अंग, हाव-भाव, नैन-नक़्श, लिबास कुछ भी छिपा था, फिर भी मैं उन्हें सुन नहीं पा रहा था। वे वाक़ई मौजूद हैं, यह यक़ीन करना मुश्किल था।

    तकरीबन सभी महिलाओं ने एप्रेन पहन रखा था, जिसकी डोरी कमर पर कसकर बंधी हुई थी। इससे उनके पेट और भी बाहर उभर आए थे। मैंने अब तक कभी ग़ौर नहीं किया था कि अकसर बूढ़ी महिलाओं के पेट काफ़ी बड़े होते हैं। इसके विपरीत सभी बूढ़े पुरुष दुबले-पतले थे और छड़ी लिए हुए थे।

    उनके चेहरों की जिस बात ने सबसे अधिक ध्यान खींचा, वह थी उनकी आँखें, जो बिलकुल नदारद थीं-झुर्रियों के जमघट के बीच बस महीन, धुँधली-सी, चमक भर थी।

    बैठते वक़्त सभी ने मुझे देखा और अजीब ढंग से सिर हिलाया। उनके होंठ दंत रहित मसूड़ों के बीच चुसकी की मुद्रा में मिंचे हुए थे। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि वे अभिवादन कर रहे हैं या कुछ कहना चाहते हैं अथवा यह उनके बुढ़ापे की वजह से है। बाद में मैंने मान लिया कि शायद किसी रिवाज के मुताबिक वे अभिवादन कर रहे हैं। दरबान के इर्द-गिर्द बैठे सभी बूढ़ों का रहस्यमय ढंग से मुझे देखना और मुंडी हिलाना वाक़ई अजीब लग रहा था। क्षण भर लगा, मानो वे मुझे कटघरे में खड़ा करने आए हों।

    कुछ देर बाद एक औरत रोने लगी, वह दूसरी पंक्ति में थी और उसके आगे एक औरत बैठी थी, इसलिए मैं उसका चेहरा नहीं देख पा रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर में उसका गला रुंध जाता और लगता वह कभी रोना बंद नहीं करेगी। कोई और उस पर ध्यान नहीं दे रहा था, सभी शांत बैठे थे—अपनी-अपनी कुर्सियों में धंसे वे कभी ताबूत को तो कभी अपनी घड़ी या किसी दूसरी वस्तु को घूरने लगते और फिर उनकी नजरें वहीं टिक जातीं। वह औरत अब भी सिसकियाँ भर रही थी। मुझे वाक़ई अचरज हो रहा था, क्योंकि मैं नहीं जानता था कि वह कौन थी? मैं चाहता था, वह रोना बंद कर दे, पर उससे कुछ कहने की हिम्मत थी, कुछ देर बाद दरबान उसकी ओर झुका और कान में कुछ बुदबुदाया। उसने महज़ सिर हिलाया। धीमे से कुछ कहा, जो मैं सुन सका और फिर उसी लय में सुबकने लगी।

    दरबान उठा और कुर्सी मेरे पास खिसकाकर बैठ गया, कुछ देर ख़ामोश रहा, फिर मेरी ओर देखे बग़ैर समझाने लगा, “वह तुम्हारी माँ के बहुत क़रीब थी, वह कहती है, इस दुनिया में माँ के सिवाए उसका कोई नहीं, वह अब अकेली रह गई है।”

    मैं भला क्या कहता, कुछ देर ख़ामोशी छाई रही। उस महिला की सिसकियाँ अब कुछ कम होने लगीं। फिर नाक साफ़ करने के बाद कुछ देर वह सुबकती रही, फिर शांत हो गई।

    हालाँकि मेरी नींद उड़ चुकी थी, पर मैं बेहद थकान महसूस कर रहा था। टाँगें बुरी तरह दुख रही थीं। माहौल में एक अजीब-सी आवाज़ थी; जो कभी-कभार सुनाई दे जाती, मैं शुरू में ख़ासी उलझन में था, पर ग़ौर से सुनने पर समझ गया कि माज़रा क्या था? दरअसल बूढ़े अपने गालों के अंदर चुसकी ले रहे थे, जिससे सुड़सुड़ की अजीब-सी रहस्यमय आवाज़ निकल रही थी। वे अपने ख़यालों में इस कदर तल्लीन थे कि उन्हें किसी चीज़ की सुध नहीं थी। एकबारगी मुझे लगा कि उनके बीच रखी यह बेजान देह कोई मायने नहीं रखती, पर यहाँ मैं शायद ग़लत था।

    हम सभी ने कॉफ़ी पी जो दरबान लाया था। उसके बाद मुझे कुछ ज़्यादा याद नहीं, रात किसी तरह गुज़र गई; मुझे बस वह एक पल याद है; जब अचानक मैंने आँखें खोली तो देखा एक बूढ़े को छोड़ सभी अपनी कुर्सियों पर झुके ऊँघ रहे थे, अपनी छड़ी पर दोनों हाथ बांधे ठोड़ी टिकाए वह बूढ़ा मुझे घूर रहा था, मानो मेरे जागने का इंतज़ार कर रहा हो। मैं फिर सो गया, थोड़ी देर बाद ही पैरों में बेइंतहा दर्द की वजह से मैं जाग पड़ा।

    रोशनदान में भोर की लाली चमकने लगी थी, पलभर बाद ही एक बूढ़ा जागकर खाँसने लगा, वह बड़े से रूमाल में थूकता और हर बार उबकाई की-सी आवाज़ आती, आवाज़ सुन कर सब जाग गए थे। दरबान ने उन्हें बताया कि चलने का वक़्त हो गया है। वे एकसाथ उठ खड़े हुए, इस लंबी रात के बाद उनके चेहरे मुरझा गए थे। मुझे वाक़ई अचरज हुआ, जब हरेक ने मेरे साथ हाथ मिलाया, मानो साथ गुज़ारी एक रात से ही हमने आपस में एक रिश्ता क़ायम कर लिया हो; हालाँकि एक-दूसरे से हमने एक लफ़्ज़ नहीं बोला था।

    मैं काफ़ी बुझ-सा गया था। दरबान मुझे अपने कमरे में ले गया। मैंने ख़ुद को ठीक-ठाक किया। उसने मुझे थोड़ी और सफ़ेद कॉफ़ी दी, जिससे मैं तरोताज़ा महसूस करने लगा। जब मैं बाहर निकला, सूरज चढ़ चुका था और मोरेंगो तथा समुद्र के बीच पहाड़ियों के ऊपर आसमाँ ललाई लिए चितकबरा हो रहा था। सुबह की बयार चल रही थी, जिसमें ख़ुशनुमा नमकीन महक थी, जो एक ख़ुशगवार दिन का यक़ीन दिला रही थी। एक लंबे अरसे से मैं देहात नहीं आया था। मन ही मन सोचने लगा कि गर माँ का मसला नहीं होता तो कितनी बढ़िया सैर हो सकती थी।

    मैं आंगन में एक पेड़ के नीचे इंतज़ार करने लगा। मिट्टी की शीतल गंध मेरे भीतर भरने लगी। मैंने महसूस किया कि अब मुझे नींद नहीं रही थी। फिर मैं दफ़्तर के दूसरे लोगों के बारे में सोचने लगा। इस वक़्त वे लोग दफ़्तर जाने की तैयारी कर रहे होंगे। दिन का यह वक़्त मुझे सबसे बेकार लगता। तक़रीबन दस मिनट मैं इन्हीं ख़यालों में गुम रहा। अचानक इमारत के भीतर से घंटी की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी। खिड़कियों के पीछे कुछ हलचल दिखी; फिर सब ख़ामोश हो गया। सूरज चढ़ आया था। तलवों में तपन महसूस होने लगी थी। दरबान ने बताया कि वार्डन मुझसे मिलना चाहते हैं। मैं उनके दफ़्तर गया। उन्होंने कुछ काग़ज़ातों पर दस्तख़त करवाए। वह काली पोशाक में था। रिसीवर उठाकर मेरी ओर देखने लगा।

    “अंत्येष्टि का प्रबंध करने वाले कुछ देर पहले यहाँ आए थे। वे लोग वहाँ जाकर ताबूत के स्क्रू कस देंगे। क्या मैं उन्हें रुकने के लिए कहूँ, ताकि तुम अपनी माँ के अंतिम दर्शन कर सकोगे।”

    “नहीं” मैं बोला।

    उसने धीमी आवाज़ में रिसीवर में कहा—“ठीक है, फिगिएफ, अपने आदमियों को अभी भेज दो।”

    फिर उसने बताया कि वह भी साथ चल रहा है। मैंने उसका शुक्रिया अदा किया। ड्यूटी पर जो नर्स है उसके अलावा केवल हम दो ही अंतिम संस्कार में शामिल होंगे। यहाँ का कायदा है कि आश्रमवासियों को अंत्येष्टि में शामिल नहीं होने दिया जाता। हालाँकि रात में ताबूत के पास बैठने से किसी को नहीं रोका जाता।

    “ऐसा उनकी भलाई के लिए ही किया जाता है,” उसने स्पष्ट किया, “ताकि उन्हें तकलीफ़ हो, पर इस मर्तबा मैंने तुम्हारी माँ के एक पुराने मित्र को साथ आने की इजाज़त दे दी है। उसका नाम थॉमस परेज है,” वार्डन मुस्कराया, “असल में यह एक छोटी-सी मार्मिक कहानी है। तुम्हारी माँ और उसके बीच गहरी आत्मीयता थी। यहाँ तक कि दूसरे सभी बूढ़े परेज को अक्सर चिढ़ाया करते कि वह उसकी मंगेतर है, वे अक्सर उससे पूछते हैं, तुम उससे कब ब्याह कर रहे हो? वह हँसकर टाल देता, ज़ाहिर है कि माँ की मृत्यु से उसे गहरा धक्का पहुँचा है, इसलिए अंत्येष्टि में शामिल होने से मैं उसे इंकार नहीं कर सका, हालाँकि डॉक्टर की सलाह पर उसे पिछली रात अर्थी के पास बैठने से रोक दिया था।”

    कुछ देर हम यूँ ही ख़ामोश बैठे रहे। फिर वार्डन खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया, अचानक बोला—

    “अरे मोरेंगो के पादरी वक़्त के काफ़ी पाबंद हैं।”

    उन्होंने मुझे चेताया था कि गाँव में स्थित गिरजाघर तक पैदल पहुँचने में एक-डेढ़ घंटा लगेगा। हम सीढ़ियाँ उतरने लगे।

    समाधि-स्थल के द्वार पर ही पादरी इंतज़ार कर रहे थे। उनके साथ दो वर्दीधारी परिचर भी थे। एक के हाथ में धूपपात्र था। पादरी झुक कर चाँदी की ज़ंजीर की लंबाई को ठीक कर रहे थे। हमें देखते ही वे सीधे हो गए और मेरे साथ कुछ बातें की। मुझे वे बेटा कह कर संबोधित कर रहे थे, फिर हमें वे समाधि-स्थल की ओर ले जाने लगे।

    निमिष भर में मैंने देख लिया कि ताबूत के पीछे काली वर्दी पहने चार व्यक्ति खड़े थे। इसी क्षण वार्डन ने बताया कि अर्थी पहुँच चुकी है। पादरी ने इबादत शुरू कर दी। काले कपड़े की पट्टी पकड़े चार व्यक्ति ताबूत के क़रीब पहुँचे, जबकि पादरी, लड़के और मैं कतार में चलने लगे। एक स्त्री, जिसे मैंने पहले नहीं देखा था, दरवाज़े पर खड़ी थी। वार्डन ने उसे मेरा परिचय दिया। मैं उसका नाम तो नहीं समझ सका, पर जान लिया कि वह आश्रम की नर्स है। परिचय सुन उसने झुक कर अभिवादन किया, पर उसके लंबे दुबले-पतले चेहरे पर हल्की-सी भी मुस्कान नहीं थी। हम एक गलियारे से होते हुए मुख्य द्वार पर आए, जहाँ अर्थी को रखा गया था। आयताकार, चमकीले, काले रंग के ताबूत को देख मुझे अचानक दफ़्तरों में रखे काले पेन-स्टैंड की स्मृति हो आई।

    अर्थी के पास अनोखी सज-धज में एक ठिगना आदमी खड़ा था। मैं समझ गया कि उसका काम अंत्येष्टि के वक़्त पूरी व्यवस्था की देख-रेख करना है—बिल्कुल मास्टर ऑफ सेरिमनी की तरह। उसके क़रीब संकोच से भरा, झेंपता मिस्टर परेज खड़ा था—माँ का ख़ास मित्र। उसने हल्की पर चौड़े किनारे वाली गोलाकार टोपी पहन रख थी। जब द्वार से ताबूत ले जाया जाने लगा तो उसने फ़ुर्ती से टोपी को ऊपर उठाया। पैंट जूतों से काफ़ी ऊपर थी और ऊँचे कॉलर वाली सफ़ेद शर्ट पर बंधी काली टाई ज़रूरत से ज़्यादा छोटी थी। उसकी मोटी चौड़ी नाक के नीचे होंठ लरज रहे थे। पर जिस चीज़ ने मेरा सबसे अधिक ध्यान खींचा, वे थे उसके कान। ललाई लिए पेंडुलमनुमा उसके कान जो पीले से गालों पर सीलबंद करने की लाख के लाल गोल छींटे की मानिंद दिख रहे थे, मानो रेशमी सफ़ेद बालों के बीच उन्हें गाड़ दिया हो।

    प्रबंधकर्ता द्वारा हर काम के लिए रखे एक नौकर ने हमें अपनी-अपनी जगहों पर खड़ा किया। अर्थी के आगे पादरी, अर्थी के दोनों ओर काले कपड़े पहने चार व्यक्ति। उसके पीछे वार्डन और मैं तथा हमारे पीछे परेज नर्स।

    आसमान पर सूरज की ज्वाला दहकने लगी थी। हवा में तपिश बढ़ गई थी। पीठ पर आग के थपेड़े महसूस होने लगे थे। उस पर गहरे रंग की पोशाक ने मेरी हालत बदतर कर दी थी। जाने क्यों हम इतनी देर रुके हुए थे? बूढ़े परेज ने टोपी दोबारा उतार ली। मैं तिरछा हो उसे ही देख रहा था, तभी दरबान मुझे उसके बारे में और बातें बताने लगा। मुझे याद है उसने बताया कि बूढ़ा परेज और मेरी माँ शाम के शीतल पहर में अकसर दूर-दूर तक सैर करने जाया करते थे। कभी-कभार चलते-चलते वे गाँव के छोर तक निकल जाते। पर हाँ, उनके साथ नर्स भी रहती।

    मैंने इस देहाती इलाके, दूर क्षितिज और पहाड़ियों की ढलान पर सरु वृक्षों की लंबी कतारों, चटख हरे रंग से रंगी इस धरती और सूरज की रोशनी में नहाए एक अकेले मकान पर भरपूर नज़र डाली। मैंने जान लिया, माँ क्या महसूस करती होंगी? इन इलाक़ों में शाम का वक़्त सचमुच कितना उदास और आतुर कर देता होगा। अलस्सुबह के सूरज की इस चिलचिलाती धूप में, जब सब कुछ तपन की व्यग्रता में लुपलुपा रहा था, तो कहीं कुछ ऐसा था, जो इस साक्षात प्राकृतिक छटा के बीच भी अमानवीय और निराशाजनक था।

    आख़िर हमने चलना शुरू किया, तभी मैंने देखा कि परेज हल्का-सा लंगड़ा कर चल रहा था। ज्यों-ज्यों अर्थी तेजी से आगे बढ़ने लगी, वह बूढ़ा पिछड़ता चला गया। मुझे वाक़ई ताज्जुब हुआ कि सूरज कितनी तेजी से आसमान पर चढ़ता जा रहा है। इसी पल मुझे सूझा कि कीड़े-मकोड़ों की गूंज और गर्म घास की सरसराहट काफ़ी देर से हवा में एक धधक पैदा कर रही है। मेरे चेहरे से बेहिसाब पसीना टपक रहा था। मेरे पास टोपी नहीं थी, इसलिए मैं रूमाल से ही चेहरे पर हवा करने लगा।

    मैनेजर के आदमी ने पलटकर कुछ कहा, जो मैं समझ नहीं सका। इसी वक़्त उसने अपने सिर के क्राउन को भी रूमाल से पोंछा, जो उसने बाएँ हाथ में पकड़ रखा था। दाएँ हाथ से टोपी तिरछी की। मैंने जानना चाहा कि वह क्या कह रहा था, उसने ऊपर की ओर इशारा किया।

    “आज भयंकर गर्मी है, है न?”

    “हाँ,” मैं बोला।

    कुछ देर बाद उसने पूछा: “वे आपकी माँ हैं, जिन्हें हम दफ़नाने जा रहे हैं? क्या उम्र थी उनकी?”

    “वे बिल्कुल तंदुरुस्त थीं” मैं बोला, ‘‘दरअसल मैं ख़ुद भी उनकी सही उम्र के बारे में नहीं जानता था।’’

    उसके बाद वह चुप हो गया, जब मैं मुड़ा तो देखा परेज तक़रीबन पचास गज पीछे लंगड़ाता चला रहा था। तेज़ चलने की वजह से हाथ में पकड़ी टोपी बुरी तरह हिल रही थी। मैंने वार्डन पर भी एक नज़र डाली, वह नपे-तुले क़दमों संतुलित हाव-भाव के साथ चल रहा था, माथे पर पसीने की बूँदे चुहचुहा रही थीं, जो उसने पोंछी नहीं।

    मुझे लगा, यह छोटी-सी शोभायात्रा कुछ ज़्यादा ही तेज़ चल रही है, जहाँ कहीं भी मैंने निगाह डाली, हर तरफ़ वही सूरज से नहाया देहाती इलाका दिखाई दिया। सूरज इस कदर चमकदार था कि मैं आँखें उठाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। चिलचिलाती गर्मी में हर क़दम के साथ पैर ज़मीं से धंस जाते और पीछे एक चमकदार काला निशान छोड़ देते। आगे कोचवान की चमकीली काली टोपी अर्थी के ऊपर रखे इसी तरह के चिपचिपे पदार्थ के लोंदे की तरह दिखती थी। यह एक अद्भुत स्वप्न-सा अहसास देता था-ऊपर नीली सफ़ेद चकाचौंध और चारों ओर यह स्याह कालापन; चमकदार काला ताबूत, लोगों की धुँधली, काली पोशाक और सड़क पर सुनहरे, काले गड्ढे और धुएँ के साथ वातावरण में घुली-मिली गर्म मकड़े और घोड़े की लीद की दुर्गंध? इस सब की वजह से और रात को सोने से मेरी आँखें और ख़याल धुँधले पड़ते जा रहे थे।

    मैंने दोबारा पीछे मुड़कर देखा, परेज बहुत पीछे छूट गया लगता था। इस तपती धुंध में तक़रीबन ओझल ही हो गया था। कुछ पल इसी उधेड़बुन में रहने के बाद मैंने यूँ ही अंदाज़ा लगाया कि वह सड़क छोड़ खेतों से रहा होगा। तभी मैंने देखा, आगे सड़क पर एक मोड़ था। ज़ाहिर है परेज ने, जो इस इलाक़े को बख़ूबी जानता था, छोटा रास्ता पकड़ लिया था। हम जैसे ही सड़क के मोड़ पर पहुँचे, वह हमारे साथ शामिल हो गया। पर कुछ देर बाद फिर पिछड़ने लगा, उसने फिर शार्ट कट लिया और फिर मिला। दरअसल अगले आधे घंटे तक ऐसा कई बार हुआ। फिर जल्द ही उसमें मेरी दिलचस्पी जाती रही; मेरा सिर फटा जा रहा था। मैं बमुश्किल ख़ुद को घसीट पा रहा था।

    उसके बाद सब कुछ बड़ी हड़बड़ी, पर इतने विशुद्ध यथार्थ ढंग से निपट गया कि मुझे कुछ याद नहीं। हाँ, इतना ज़रूर याद है कि जब हम गाँव की सरहद पर थे तो नर्स मुझसे कुछ बोली। उसकी आवाज़ से मैं बुरी तरह चौंक पड़ा; क्योंकि उसकी आवाज़ उसके चेहरे से क़तई मेल नहीं खाती थी। उसकी आवाज़ में संगीत और कंपन था। वह जो बोली, वह था: “अगर आप इतना धीरे चलेंगे तो लू लगने का डर है, पर तेज़ चलेंगे तो पसीना आएगा और चर्च की सर्द हवा से आपको ठंड पकड़ लेगी।” उसकी बात में दम था; नुकसान हर तरह से तय था।

    शव-यात्रा की कुछ और स्मृतियाँ मेरे ज़ेहन में चस्पा हो गई हैं। मसलन उस बूढ़े परेज का चेहरा जो गाँव की सरहद पर ही आख़िरी बार हमसे मिला, उसकी आँखों से अनवरत बहते अश्रु जो थकान की वजह से थे या व्यथा से अथवा दोनों की वजह से, पर झुर्रियों के कारण नीचे लुढ़क नहीं पा रहे थे, आड़े-तिरछे होकर कान तक फैल गए थे और उस बूढ़े, थके चेहरे को एक मधुर चमक से भर दिया था।

    मुझे याद है वह गिरजाघर, सड़कों से गुज़रते देहाती, कब्रों पर खिले लाल रंग के फूल, परेज पर बेहोशी का दौरा, चिथड़ों से बनी किसी गुड़िया की मानिंद उसका सिकुड़ जाना—माँ के ताबूत पर सुनहरी-भूरी मिट्टी का टप-टप करके गिरना, लोग अनगिनत लोग, आवाज़ें, कॉफ़ी-रेस्तरां के बाहर का इंतज़ार, रेल इंजन की गड़गड़ाहट, रोशनी से नहाई अल्जीयर्स की सड़कों पर क़दम रखते ही मेरा हर्ष मिश्रित रोमाँच और फिर कल्पना में ही सीधे बिस्तरे पर जाकर निढाल हो जाना, लगातार बारह घंटे बेहोशी भरी नींद! मुझे यह सब याद है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 107)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : अल्बेयर कामू
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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