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टोपी

topi

संजय सहाय

और अधिकसंजय सहाय

    उस दिन जब वह अपने घर से मोती मिस्त्री के गराज की तरफ़ चला, तो उसे इस बात का अंदेशा भी नहीं हो सकता था कि दिन उसके साथ क्या खेल कर गुज़रेगा, वैसे भी, साईत निकालना और भाग्य बाँचना पोथी-पतरा वाले पंडी जी का काम है, जो इन दिनों सिर्फ़ पदाकांक्षी नेताओं के घरों में यज्ञ कराते-मंत्र फूँकते नज़र आते हैं, फिर रमई जैसी आम ज़िंदगी में सामान्यतः अप्राकृतिक उछाल की कोई गुंजाइश भी नहीं होती है।

    समय तो उसका लगातार ढीला ही चल रहा था। सबसे पहले तो कत्था कंपनी की साल भर की ड्राइवरी से अचानक जवाब मिल गया था। चोरी की ‘ख़ैर’ पर कारख़ाना चलता था और कत्थे की चोरी पर कामगारों का ख़र्चा-पानी... कि वन विभाग में एक बनमानुस टाइप का अफ़सर गया। इधर चारी की ‘ख़ैर’ कटनी कम हुई, उधर कंपनी ने छंटनी का नोटिस साट दिया, और बीस कामगारों के साथ रमई भी गेट के बाहर था। हाँ यूनियन की दया से रिट्रॅचमेंट-बेनिफिट के नाम पर एक वर्दी ज़रूर मिल गई थी। बुझा-बुझा सा घर लौटा था और ओसारे में पसर गया था।

    “डिलेभरी (ड्राइवरी) से लेकर बिछौना तक, सब काम में कंडम!” रमई की कटकटाहिन औरत ने दोहरे दाँत गड़ाए थे। छंटनी की ख़बर पछिया-सी झोंक मारती पहले ही पहुँच गई थी...“हमारे मामू दारू चुआते है... डी.एस.पी. से पूरा जान-पहचान है... सुनते हैं, सिपाही में बहाली चल रहा है... नहीं बुझाया? कइसन लबड़धोंधो से क़िस्मत जुड़ा है रे भगवान।”

    रमई का पैर रोड़े में लटपटा गया। औरत की तीखी आवाज़ रह-रह कर कानों में भीतर तक ‘किस्सऽऽऽ’ से गूँज जाती थी।

    मामा जी इलाक़े के पुराने लतख़ोर हुआ करते थे। दारू का धंधा चालू करने के बाद से कैसे तो थोड़ी प्रतिष्ठा भी पाने लगे थे। उसके साथ रमई ने डी.एस.पी. साहेब के जाने कितने चक्कर काटे डी.एस.पी. साहेब अच्छी तरह जानते थे कि मसला उनकी औकात के बाहर का है, पर शिकार ख़ुद चलकर आए, तो उसे छोड़ना परम मूर्खता ही नहीं, बल्कि पाप भी कहलाएगा। उन्होंने रमई के चेहरे पर उड़ती नज़र डाली, मामा जी से आँखों में कुछ बात की, फिर खंखार कर गला साफ़ किया, “सलामी का धर लो पाँच हज़ार और फ़ाइनल बहाली, अगर जो हुआ, तो दस हज़ार का फ़ीस... कुल पंद्रह का ख़र्चा है।” डी.एस. पी. साहेब नाप-तौलकर बोले थे।

    “पंद्रह हज़ार!” रमई के हाथ-पैर फूल गए थे, “उसमें भी पहला पाँच हज़ार को कोई गरेंटी नहीं?”

    “गरेंटी खोजता है? तुम्हारे लाईफ़ का गरेंटी है रे, चूतिया का नाती?”

    मामा जी ने उसे गुरेड़ कर देखा था और रमई हताश वापस घर लौट आया था। ऊपर से दुर्भाग्य यह कि जाने कैसे, परिजनों में चर्चा तेज़ी से फैल गई थी कि पुलिस में रमई की बहाली तय हो गई है और रमई ही क्यों, कोई भी नौजवान चाहे, तो इस अवसर का लाभ उठा सकता है मात्र पाँच हज़ार का जोखिम है। निस्संदेह यह मामा जी की कलाकारी थी। तब से लोगों की बेबात की ‘पूछताछ’ पीछे के अंग-विशेष में मिर्चाई सरीखी लहर जाती थी। इसलिए रमई सबसे कटा-कटा-सा रहने लगा था। कोई काम नहीं था, सो पुराने यार मोती मिस्त्री के मोटर गराज में दिन गुज़रता था। स्वभाव में मेहनती, अक्सर रिंच-पेचकस भी उठा लेता था, चाय-नमकीन के बदले में।

    एक सड़ी-गली-सी मोटर, काला धुआँ और किरकिराती गर्द उड़ाकर चली गई। खाँसते हुए रमई ने मोटर को अपनी आवाज़ के दायरे से बाहर जाने दिया। फिर दबी ज़ुबान से गाली बकी और आहिस्ता से कपड़ों को झाड़ा। वर्दी टेरीकॉट की थी और सुबह की धूप में चमक रही थी। दैव-इच्छा से दर्ज़ी ने नाप अच्छा काट दिया था। क्रीज़ भी तलवार की धार-सी था। कंधो पर कत्था-कंपनी का बिल्ला भी था... बस, फटे-पुराने चमरौंधे जूते ज़रा बेमेल से थे। वैसे, जो भी था, रमई पर सब फब रहा था। देखने में गोरा, लंबा और आँखें भी हल्की नीली भूरी-सी आईने में देखता था, तो अच्छा लगता था, पर सारे गोतिया बचपन से चिढ़ाते रहे हैं उसे... “कऊसअंक्खा कहीं का—दोगला साला।”

    रमई ने लंबी साँस खींची... पैरों में कुछ गड़ा... रमई ने उखड़े तल्ले की कील ठीक से फंसाई और घिसे जूते फटफटाता बाज़ार से छोर पर स्थित मोती के गराज की तरफ़ बढ़ गया।

    बाज़ार क्या, छोटा-मोटा क़स्बा ही है, शहर से बीस मील दूर, स्टेट हाईवे को दोनों तरफ़ से जकड़ता हुआ। कुछ साल पहले तक दस-पंद्रह दुकानें थी। ट्रैफ़िक भी इतना मामूली कि लोग सड़क पर ही खटिया डाल लेते थे। कीचड़-कादो के ऊपर ऐसी पक्की चिकनी जगह और कहाँ मिलती? अब तो सड़क के किनारे का कच्चा फुटपाथ या शौच-पट्टिका, जो भी कह लें, भी ईंट-गारे के जंजाल से सिकुड़ती जा रही है। लोगों को नित्य-क्रियाओं के लिए लंबा बाज़ार पार करना पड़ता है। रमई का घर नीचे है। बरसात छोड़ उसे चिंता नहीं रहती।

    क़स्बा बना, तो रंगदार भी पैदा हो गए। ललन... झुन्ना...बब्बन...बालो...फेहरिस्त लंबी है... बचपन से ही बालो से डर लगता है उसे बाप की छोटी-सी परचून की दुकान से रंगदारी वसूलता बालो हर रात नशे में धुत्त आता था और जान-बूझकर नन्हे से रमई के आगे उसके बाप को बेइज़्ज़त करता था। कभी कभी माँ-बहन की गालियाँ, तो कभी लप्पड़-थप्पड़। शुरू में बाप की हालत देख रमई रोने लगता था... धीरे-धीरे आदत पड़ गई।

    आज के वक़्त में बब्बन सत्ता संघर्ष में देह त्याग चुका है, झुन्ना महीनों से फ़रार है, ललन अनेक सहधर्मियों की तरह विधायक बनकर शहर में रहता है, बड़े दायरे में खेलता है, लेकिन बालो का टैक्स बरक़रार है...।

    मोती के टुटही गराज में बैठा वह फटे-चिंदिआए कोकशास्त्र के पन्ने पलट रहा था कि देखा, कुछ लोग बड़ी मशक्कत से एक जीप को ठेलते हुए ला रहे है। स्टीयरिंग व्हील पर डी.एस.पी. साहेब पदासीन थे और मामा जी ‘ज़ोर लगा के हईसा’ का नाद कर रहे थे। रमई ने पुस्तक रख दी और मोती के साथ बाहर निकल आया।

    “हजूर नगीच के गाँव में मौज मारने आए थे... अकेले। जीपवा बिगड़ गया है,” मामा जी रमई से फुसफुसाए, “सटने का बढ़िया मौक़ा है... कुछ-न-कुछ फ़ायदा ज़रूर मिलेगा... का समझे?” रमई बकलोल के जैसा ताकता रहा। मामा जी ने किचकिचा कर देखा। रमई ने चट से बोनट उठाया, मोती ने जीप के कल-पुर्ज़ों को टटोलना शुरू किया, मामा जी चाय-पानी की व्यवस्था में लगे और डी.सी.पी. साहेब गई रात के कच्चे अंदाज़ पर गुनगुनाते रहे, “कम-से-कम एक मर्तबा और आना ही पड़ेगा... नहीं, नहीं... सिर्फ़ एक मर्तबा क्यों?... अब एक बार से कौंची होगा जी...”

    “डाइनामो बिगड़ गया है।” मोती की आवाज़ तैरती हुई आई।

    “वही कहें कि साला सवेरे से ‘ठेलको’ काहे हो रहा है...”

    “थोड़ा टाईम दीजिए हज़ूर, तो ऐसा बना देंगे कि सहर (शहर) में कोई का बनाएगा।” मोती मिस्त्री सीना फुलाते हुए बोला।

    “जीपवा पीछे से भेजवा देंगे हज़ूर, जरीको चिंता मत कीजिए... बहुत बढ़िया चलाता है।” मामा जी ने रमई का कंधा पकड़ते हुए कहा। डी.एस.पी. साहेब के चेहरे से शिकन मिट गई।

    “ठीक है, बढ़िया से बनवा-चमका कर डेरा पर लेते आओ,” उन्होंने रमई को ऑर्डर दिया और राहज़नी के अंदाज़ में गुज़रती गाड़ी को छेक कर लिफ़्ट ले ली। मामा जी भी हिदायतें देकर विदा हो लिए।

    रमई ने ताज़े धुले कपड़े धीरे-से उतार कर रख दिए और कच्छे-बनियान में ही जीप की सफ़ाई में लग गया। जीप के एक-एक हिस्से को ऊपर से नीचे तक धोया, पाईप नहीं था। चांपा कल से पानी भर कर लाता था। दो घंटे तक वह जीप को माँजता रहा। बोनट खोलकर तेल से सफ़ाई की, फिर भीतरी हिस्से की झड़ाई-पोंछाई, उसके बाद सामने का शीशे पर अख़बारी काग़ज़ से रगड़ाई। आधे घंटे में मटमैला शीशा बिल्लौर-सा चमकने लगा था। जीप सुखा कर वह पॉलिश में लगा। मोमीया पॉलिश को उसने हरी जीप पर फैलाया, सूखे कपड़े से आहिस्ता-आहिस्ता रगड़ा, फिर सख़्ती से अंत में पीतल से हिस्सों पर ब्रासो का इस्तेमाल।

    उसने गर्व से देखा। पूरी जीप विज्ञापन-सी चमक रही थी।

    मोती भी डाइनामों ‘सेट’ कर संतुष्ट हो चला था। फिट करते-करते छः बज गए। रमई ने हाथ-मुँह धोकर कपड़े पहने, चादर ओढ़ी, जीप पर फिर कपड़ा मारा और ठेलवा कर चीप स्टार्ट की मोती के गराज से शहर उलटी तरफ़ पड़ता है। बाज़ार पार करने में जो वक़्त लगे, शहर पहुँचने में ज़्यादा से ज़्यादा पौन घंटा।

    साँझ हो चली थी, पर सूरज की अंतिम छटा तक जीप को नए तेवर दे रही थी। बीच बाज़ार पहुँचते-पहुँचते उसे कानों में ठंड लगने लगी। हवा में सिहरन थी। उसने चादर से सिर ढकने की कोशिश की। छोटी-सी शाल थी। जिधर से भी लपेटता, सर खुला ही रह जाता था। उसने बग़ल वाली सीट पर नज़र दौड़ाई... एक पी कैप (अफ़सरी टोपी) पड़ी थी उसने टोपी पहन ली और भीड़ देखकर एक्सीलेटर धीमें किया।

    अचानक कुछ हुआ—एक अटपटी-सी हरकत... चौराहे के सिपाही ने ज़ोर से सैल्यूट मारा और पहले से सिग्नल दिए रिक्शे वाले को लपड़ियाते हुए चिल्लाया, “अंधरा साला, देखता नहीं है रे... भोंसड़ी वाला।”

    रमई की अचरजभरी निगाहें पीछे देखने वाले शीशे पर पड़ी... टोपी डी.एस.पी. की थी और उसके रंग-रूप पर खिल रही थी... और तब उसे पहली बार बोध हुआ कि कमबख़्त कत्था कंपनी की वर्दी भी खाकी रंग की थी। जूते का उखड़ा तल्ला नीचे छिपा हुआ था, कंधों के बिल्ले को ढकती चादर थी, जीप भी सरकारी और सर पर टोपी थी। अजीब-सी सनसनाहट का एहसास हुआ, जैसे रक्तचाप बढ़ गया हो, जैसे मुँह में पहले ख़ून का स्वाद लगा हो... उसने दो-तीन लंबी साँसें लीं और एक्सीलेटर दबाया। रास्ते में कई परिचितों को अचरज से मुँह फाड़ते देख उसे उस दैवी आनंद की अनुभूति हो रही थी, जो सिर्फ़ सफल प्रतिशोध में ही प्राप्त होता है। “मिज़ाज फट गया सरवन का... अब तो बप्पा का दुकान बेचवा कर भी पंद्रह हज़ार कर जुगाड़ करना है... बस्सा” उसने निश्चय के साथ सोचा। फिर सबकों जैसे अनदेखा करता, निरंकुश सत्ता के रथ की तरह जीप उड़ाता, वह बढ़ता चला गया।

    बाज़ार के अंतिम छोर पर बालो दिखाई पड़ा। उसके बाप की उमर का बालो अभी तक जवान है और रंगदारी टैक्स भरता उसका बाप कब का बूढ़ा हो चला है... उसने कड़वाहट के साथ सोचा। साँझ की भीड़-भाड़ में चाहते हुए भी उसे जीप धीमी करनी पड़ी। नज़दीक पहुँचा, तो आदतन चेहरा छिपाने के लिए झुक-सा गया। बालो ने देख लिया, तो कौन-सी लहज़ुबान इस्तेमाल कर देगा, कहना मुश्किल है...

    कतराकर निकल ही चुका था बालो की नज़रें उससे टकरा गई। रमई घबरा गया। बालो का चेहरा चमका, एक कुटिल-सी मुस्कान उसके चेहरे पर तैर गई।

    “अब कुछ बोलेगा...” रमई ने अपने को तैयार किया।

    आश्चर्य! घोर आश्चर्य!! अचानक बालो की भंगिमा बदल गई।

    “रमई बाबू, परनाम।” खींस निपोरते बालो बोला और समुद्र भर हिम्मत रमई में ठाठ मार गई।

    “हँसता है रे? सार भकचोंधरा!! सीधे डंटा धाँस देंगे...” उसका बरसों से जमा ग़ुबार निकल गया। बढ़ती जीप से उसने आँखों के कोने से देखा-हाथ जोड़े बालो, स्तब्ध-सा खड़ा था।

    रमई के दिल को ठंडक मिली। नए आत्मविश्वास से भरा हौलापन उसके तर उछाल लेने लगा। सब कुछ हल्का लग रहा था। पूरी दुनिया हल्की और आसान। जैसी बालो को लगती होगी या उससे बढ़कर ललन विधायक को लगती होगी। हरे-भरे मैदान सरीखी, जिधर से चाहिए, चरते चले जाइए।

    रमई का बाप चिंता में पड़ा हुआ था, चमकती जीप पर टोपी पहने वह आदमी लगा कि रमई है, सिपाई में बहाली हो गया का? ससुरा के गोड़ नहीं छुआ। सब मेहरारू का जादू है... या फिर उसकी नज़रों का धोखा था? कुर्ते के निचले हिस्से पर थूक लगाकर चश्मा रगड़ते हुए वह घर चला, “बहू से पूछते हैं...”

    “रूपईय्या जुगाड़ कर लिए कि हमसे पूछते हैं? हमारे मामू को जो करना था, करवा दिए, बाक़ी इहाँ बेटा का मोह हो, तब ना... सब अपने सरीर धंसा लेना है”...बहू की तड़तड़ाती गोली बारी के आगे बातचीत निरर्थक थी। थरथराते से वापस बाज़ार लौटे और अपने चार बित्ता के खोखे में बैठ गए।

    हर रोज़ की तरह बालो पहुँचा... “आ गया रंगदारी तहसीलने... और नमकीन का पैकेट भी” रमई के बाप ने गल्ला खोला।

    “नाः नाः आज हमरे तरफ़ से मुँह मीठा रमई जी को देखा... बहाली हो गया है ना... हे हे... बहनचो, बतलाए नहीं...” बालो लड्डू का ठोंगा देकर बढ़ गया।

    रमई का बाप मुँह बाए देखता रहा।

    शहर यहाँ से मुश्किल से दस मिनट! अचानक रफ़्तार में विघ्न पड़ा।

    ऑटो वाले ने जब तक देखा नहीं था, रेस लड़ाने में मूड में था। देखने पर घबरा गया। हड़बड़ाहट में पास देते वक़्त उसका अगला हिस्सा रमई के पिछले फेंडर से सट गया।

    “रूक साला, रूक” टोपी चिल्लाई, ऑटो वाला चुपचाप खड़ा हो गया। रमई ने कूद कर बंपर देखा। कुछ भी नहीं हुआ था, फिर भी रमई उबलता रहा। उसने कसकर तीन-चार झापड़ मारे और खोज-खोज कर गालियाँ दी, मज़बूत जबड़ों से ख़ुद के हाथों को चोट लग रही थी, पर स्थिर रुआँसे चेहरे पर वह निर्ममता से निशाना साधता रहा, मानो बालो की आत्मा उस पर सवार हो गई हो। टोपी का जादू सर चढ़ कर बोल रहा था।

    अंत में रमई ने पाँच सौ ज़ुर्माना ठोका और थाने में बंद करने की धमकी दी, ऑटो वाले के काँपते हाथों से कुल जमा तीन सौ निकाले और रमई का पैर धर लिया। मामला फरिआया। अब बैटरी पूरी तरह चार्ज हो गई थी। डाइनामों अच्छा काम कर रहा था। जीप एक बार में ही ही घुर्रऽऽ से स्टार्ट हो गई। खेल में रोमाँच बढ़ता जा रहा था। तरह-तरह की योजनाएँ अंकुरा रही थी। उसने सलीक़े से टोपी ‘एडजस्ट’ की और दूरस्थ कुहराई शहरी रोशनियों की तरफ़ बढ़ गया।

    रमई के बाप के पास परिचितों की जमात लगाने लगी। सब रमई के बारे में जानना चाहते थे।

    “का बताएँ... ठीक-ठीक नहीं कह सकते...”

    “अरे सार, छुपाते का हो... तो डंका पर बोलने का चीज़ है।”

    “देखे, एकदम हैट पहने हुए था।”

    “दुर्र ससुर, हैट तो सीनियर अफ़सर पहनता है।”

    “नहीं भाई-हैटे था तबा”

    “अब कह दो कि एस.पी ये में बहाली हो गया है... बुड़बक कहीं का!!...” किसी ने जलन के साथ कहा।

    देखा तो रमई के बाप ने भी हैट ही था, पर संकोच में इतना ही बोला, “का हैट-कैट के फेरा में पड़ल हो तू लोग अरे, सीधे टोपी कहो ना”

    बालो के दिए लड्डू बाँट कर वह रमई की बाट जोहने लगा।

    रमई शहर में घुस गया। डी.एस.पी. साहेब का डेरा दूसरे छोर पर था। रमई को लगा, जैसे पहली बार शहर देख रहा है। एक से एक आईटम दुकानों में दिख थे। टोपी में लिपटा माथा सुरसुराया। आँखों में गिद्ध उड़ने लगे।

    “औरते भी चिढ़चिढ़ाई रहती है... छूने ही नहीं देती है... कुछ सौग़ात ले चलें, तो सायद काम बन जाए...”

    उसने जीप रोक दी।

    बीस-पच्चीस रूपए की टिकुली-चूड़ियाँ तो मुफ़्त में ही मिल गई। छोटा दुकानदार एक डाँट में ही सीधा हो गया था। छिटपुट चीज़ें तहसील कर रमई, साड़ियाँ छाँटता रहा। अंत में तीन सौ की एक साड़ी पसंद आई-चटक लाल और भदेस-सी।

    “पहन कर दुलहन लगेगी साली,” उसने सोचा। “दाम कितना दिया जाए?” उसने दुकानदार को तौला।

    “सौ रूपया लगाओ-चीन्हते नहीं हो का?” रमई का साहस बढ़ता जा रहा था।

    “मेम साहब से पसंद करवा लीजिए, तब दाम तो लगता रहेगा”, दुकान वाला संकोच के साथ बोला।

    ‘मेम साहब!! उसकी औरत को मेम साहब कहा जा रहा है।’ रमई का सीना गज भर फैला गया... ‘सब इसी का कमाल है,’ कसती हुई वर्दी के पीछे से उसने सोचा।

    “आदमी भेज देते हैं, डेरा पर ही पसंद करवा लेगा,” दुकान वाले ने जोड़ा।

    “काहे? आदमी काहे भेजोगे... सार, हम पर बिस्वास नहीं है का? सीधे भीतर चल जाओगे...” रमई ग़ुस्से में बोला।

    “माफ़ी सरकार... हुज़ूर तो बुरा मान गए...” दुकान वाले की नज़र रमई के पैर पर पड़ी।

    “नक्सलाईट सब को खदेरते-खदेरते जूतवे फट जाता है...” रमई भाँपते हुए बोला।

    “कॉफ़ी पिलाओ,” गर्मी-सी लग रही थी। रमई ने कंधों की चादर समेटते हुए कहा। दुकानदार ने ग़ौर से देखा।

    लगा कि भाव कुछ ज़ियादा ही पड़ गया। कॉफ़ी के पहले समोसे भी गए और खीरमोहन भी।

    “अब तनी जल्दी से बिलवा बना दीजिए—एक सौ में फाईनल कीजिए।”

    “बस, ज़रा कॉफ़ी हो जाए सरकार!” दुकान वाला कुछ ज़ियादा ही शहद घोलते हुए बोला। रमई, टोपी की अंगुली पर नाचते हुए मुस्कुराया।

    रात दस बज चुके थे, रमई का बाप ऊहापोह में फँसा, दुकान पर ही बैठा हुआ था कि किसी ने कर बतलाया, “बड़ा मुकुट चढ़ा कर निकले थे... चार सौ बीसी में धरा गया है...”

    उधर साड़ी वाला अपने मुनीम से कह रहा था, “कच्चा था बेचारा, सौ रूपया देने के लिए जो बोला... हमको तो उसी समय डाऊट हो गया था।”

    जब से टोपी उतर गई थी, रमई का माथा सुन्न पड़ गया था। ज़ुबान को भी जैसे लकवा मार गया था। इतनी देर तक पिटाई होती रही, पर मुँह से ‘उफ्’ तक नहीं निकला। ठंड की तीक्ष्णता और थप्पड़ों के दंश, उसे कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। यहाँ तक कि डी.एस.पी साहेब मारते-मारते बेदम हो गए, पर वह खोई हुई दृष्टि से बस, शून्य में ताक़ता रहा।

    डी.एस.पी साहेब ने हाँफते हुए धूल-धूसरित नंगी देह और अँगुलियाँ छपे चेहरे की तरफ़ हिकारत से देखा, “ढेर मन बढ़ गया था रे, हरमज़ादा कहीं का!” मेज़ पर रखी टोपी उठाते वह बोले।

    “हमारा कोई दोस नहीं है, मालिक! सब इसी का है... इसी का।” और अचानक लोथ की तरह पड़ा रमई चित्कारा, “पहनते मिजाजे घूम गया था, सरकार... गर्मीया बरदास्ते नहीं हुआ... हज़ूर लोग कैसे कर लेते हैं रे बाप...”

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000) (पृष्ठ 210)
    • संपादक : उमाशंकर चौधरी-ज्योति चावला
    • रचनाकार : संजय सहाय
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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