चाभी ताले में फँसा कर उसने उसे घुमाया तो उसने घूमने से क़तई इनकार कर दिया। उसने दुबारा ज़ोर लगाया परंतु कोई परिणाम नहीं निकला। अपनी जेबें टटोलना शुरू कर दीं। ऊपर वाली जेब में उसे स्टील का बाल प्वाइंट पेन मिल गया। उसने उसे जेब से निकाल कर चाभी के माथे में बने सूराख़ में डाल कर, मुट्ठी की मज़बूत पकड़ में लेकर पेंचकस की तरह ज़ोर से घुमाया। खटाक की एक आवाज़ के साथ ताला खुल गया। कुंडी खोलने में भी उसे काफ़ी परेशानी हुई। जिन दिनों वह यहाँ रहता था शायद ही कभी यह कुंडी बंद हुई हो। इसीलिए उसे हमेशा ही बंद करने और खोलने, दोनों में ही, परेशानी होती थी। कुंडी खोल कर उसने दरवाज़े में ज़ोर का धक्का दिया। दरवाज़े के पल्ले काफ़ी मोटे और भारी थे। उनमें पीतल के छोटे-छोटे फूल जड़े थे, जिनमें छोटे-छोटे कड़े लगे थे, जो दरवाज़ा खुलने बंद होने में एक अजीब जलतरंगनुमा आवाज़ करते थे। दरवाज़ा खोल कर वह दहलीज़ में आ गया। घुसते ही उसने देखा, फ़र्श पर कुछ काग़ज़ आदि पड़े थे। उसने झुककर उन्हें उठा लिया। दो लिफ़ाफ़े, एक पोस्ट कार्ड और एक तह किया हुआ काग़ज़ था। शायद पोस्टमैन डाल गया हो, उसने सोचा, उसने उनके भेजने वालों के नाम पढ़ने चाहे परंतु वहाँ प्रकाश बिल्कुल नहीं था और कुछ भी पढ़ सकना असंभव था।
उसने आगे बढ़ कर जीने के पास का स्विच टटोला। अँधेरे में स्विच ढूँढने में उसे कुछ कठिनाई हुई। वैसे जब वह यहाँ रहता था तब कितना ही अँधेरा क्यों न हो कभी ऐसा नहीं हुआ कि पहली बार में ही उँगली अपने आप स्विच पर न पहुँच गई हो, उसे आश्चर्य हुआ कि स्विच ऑन करने पर भी प्रकाश नहीं हुआ। हो सकता है ज़ीने का बल्व फ़्यूज़ हो गया हो, उसने सोचा। तभी उसने ग़ौर किया कि नीचे का पाइप ज़ोरों से बह रहा है। लगभग एक वर्ष से मकान बंद था। इसके मायने इतने दिनों से यह पाइप लगातार बह रहा है। उसने अंदर वाले दरवाज़े की कुंडी टटोली। उसमें ताला नहीं था। अटैची उसने वहीं दहलीज़ में रखी रहने दी। और कुंडी खोल कर अंदर आ गया। अंदर का स्वीच दबाने से भी रौशनी नहीं हुई। केवल आँगन में हल्की चांदनी की बर्फ़ियाँ कटी हुई थीं जो ऊपर लोहे के जंगले से छन कर आ रही थीं।
वह वापस दहलीज़ में आ गया जहाँ मेन स्विच लगा था। हो सकता है वहीं ऑफ हो, उसने सोचा और जेब से माचिस निकाल कर उसके प्रकाश में उसे देखा। परंतु मेन स्विच ऑन था। ज़ीने का बल्ब भी ठीक ही लगा, तभी उसे ध्यान आया कि किसी के भी न रहने पर बिजली का बिल इतने दिनों से अदा नहीं हुआ होगा अतः हो सकता है बिजली कंपनी वालों ने कनेक्शन ही काट दिया हो। तब क्या होगा? वह रात कैसे काटेगा? देखा जाएगा, उसने सोचा और दुबारा माचिस जला कर अंदर आ गया ताकि कम-से-कम पाइप तो बंद कर दे। परंतु पाइप में टोटी ही नहीं थी। उसमें दाना निकले हुए मकई के गुट्टे का टुकड़ा खोंस कर उसे कपड़े से बाँधा गया था। कपड़ा सड़ कर फट गया था जिससे पानी बहने लगा था। उसने उसे वैसे ही पड़ा रहने दिया और अटैची हाथ में लेकर सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर के खंड में आ गया।
ऊपर छत पर काफ़ी चाँदनी थी। छल्ले से चाभी खोज कर उसने कमरे का ताला खोला और अंदर कमरे में आ गया। यहाँ का स्विच भी उसने ऑन कर के देखा परंतु कोई नतीजा नहीं निकला। अटैची एक किनारे रख कर माचिस जला कर वह इधर-उधर देखने लगा। तभी उसे अल्मारी में एक मोमबत्ती दिखायी दे गई जिसे पहले किसी ने जलाया था। उसने उसे जला कर वहीं दीवाल में बने हुए ताक में चिपका दिया।
दीवाल से लगे पलंग पर बैठकर उसने सिगरेट जला ली और नीचे से उठाकर लाए हुए पत्र देखने लगा। पहले उसने तह किए हुए काग़ज़ को देखा। वह बिजली के बिल की फ़ाइनल नोटिस थी। कोई दस महीने पुरानी। तब उसने पोस्टकार्ड देखा। उनका एक कोना फटा हुआ था। उसने जल्दी-जल्दी उसे पढ़ा। पत्र उसके ननिहाल से आया था। जिसमें उसे उसके मामा के मरने की सूचना दी गई थी। मामा के वजूद को भी भूल चुका था। ननिहाल गए हुए भी उसे आठ-दस वर्ष हो चुके थे। कार्ड वहीं खाट पर डाल कर वह लिफ़ाफ़े खोलने लगा। एक किसी शादी का निमंत्रण था। उसने उसे ही पहले खोला। किसी ‘राजकुमार’ की शादी पर उसे बुलाया गया था। उसने अपनी स्मरण शक्ति पर बहुत ज़ोर दिया परंतु उसे लगा कि न तो वह किसी राजकुमार से परिचित है और न ही कार्ड पर छपे किसी अन्य नाम से पता सीतापुर का था। उसे ध्यान आया कि सीतापुर में उसके पिता की बुआ के कोई संबंधी रहते हैं। कौन, यह वह नहीं जानता था। परंतु वे लोग ज़रूर उससे परिचित होंगे क्योंकि निमंत्रण उसी के नाम से आया था। आज से कोई आठ वर्ष पहले पिता की पहली बरसी पर माँ के रहने पर उसने अपने सभी रिश्तेदारों को बुलाया था। उनके पते उसने ताऊ के लड़के से जो उससे उम्र के काफ़ी बड़ा था, लिए थे, उसके बाद से आज तक वह उन लोगों से नहीं मिला था। माँ के मरने की उसने किसी को भी सूचना नहीं दी थी। इस प्रकार पते तो अलग, उन लोगों के चेहरे भी वह अब तक भूल चुका था। उसने कार्ड पर छपी तारीख़ देखी। वह कोई तीन महीने पुरानी थी।
उसने दूसरा लिफ़ाफ़ा खोला। वह उसके अपने मित्र विपिन का था जो पिछले दिनों इंग्लैंड चला गया था और वहीं किसी अँग्रेज़ लड़की से शादी पर ली थी। उसने लिखा था कि कुछ दिनों के लिए बहन की शादी पर वह स्वदेश लौट रहा है, वह उससे ज़रूर मिल ले। यह पत्र भी तीन-चार महीने पुराना था। विपिन उसका बचपन का मित्र और सहपाठी था। उसे अफ़सोस हुआ कि वह उससे मिलने से वंचित रह गया। ग़लती उसकी अपनी थी। अपने ट्रांसफ़र के बारे में उसने विपिन को कोई सूचना नहीं दी थी। हो सकता है विपिन यहाँ आया भी हो और घर में ताला लगा देख कर लौट गया हो।
गली की ओर का दरवाज़ा खोलकर वह बालकनी पर आ गया। एक कोने में घर की बेकार चीज़ों, जैसे ख़ाली बोतलों टूटी अँगीठियों और कनस्तरों आदि का ढेर लगा था। उसने बग़ल में एक पुरानी बाल्टी में लगा तुलसी का एक सूखा पेड़ रखा था। जो शायद इतने दिनों तक पानी न मिलने से सूख गया था। यह पेड़ उसकी माँ ने लगाया था। जब तक वह ज़िंदा थीं वह रोज़ इसमें पानी देती थीं। माँ की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी और उसके ट्रांसफ़र के बाद छोटे भाई की पत्नी यह काम करती थीं। अब छोटे भाई का ट्रांसफ़र हुए भी एक वर्ष होने आ रहा था। और इस प्रकार ख़ाली घर में पड़ा हुआ यह पेड़ पानी के अभाव में सूख गया था।
वह बालकनी की दीवार पर थोड़ा झुक कर सिगरेट पीने लगा। गली में बिजली का सरकारी बल्ब जल रहा था। परंतु काफ़ी सन्नाटा था। उसने कलाई पर बंधी हुई घड़ी देखी। पौने नौ हुए थे। अभी से इतना सन्नाटा! उसे आश्चर्य हुआ। जब वह यहाँ था तो रात देर तक गली में रौनक रहती थी। मुरली बाबू के दरवाज़े की शतरंज तो बारह बजे और कभी-कभी उसके बाद तक चलती थी। पता नहीं मुरली बाबू अभी जीवित है या नहीं। उनके घर के सामने बिलकुल सन्नाटा था। तभी उसने देखा, कोई आदमी साइकिल लिए हुए गली में आ रहा था। वह ग़ौर से देखने लगा। गली के एक-एक व्यक्ति को वह पहचानता था। जन्म से लेकर तीस-बत्तीस वर्ष तक वह इसी मकान में रहा था। परंतु वह कोई अजनबी व्यक्ति निकला, जिसे वह पहली बार देख रहा था। वह उसके मकान से आगे जा कर बच्चू बाबू के मकान के सामने रुक गया। साइकिल गली में खड़ी कर के उसने दरवाज़े की कुंडी खटखटाई। गोद में बच्चा लिए हुए किसी महिला ने दरवाज़ा खोला और वह व्यक्ति साइकिल उठा कर अंदर चला गया। शायद कोई किराएदार हो, उसने सोचा।
वह दुबारा अंदर आ गया। खाना वह स्टेशन में आते समय होटल में खा आया था। रात उसे मकान में काटनी थी। बारिश के दिन आ गए थे। भाई ने मकान छोड़ते समय उसे बेच देने का सुझाव रखा था क्योंकि वह तो मुस्तक़िल तौर से दूसरे शहर का हो गया था, भाई के भी वापस इस शहर में ट्रांसफ़र होने की कोई उम्मीद नहीं थी। और फिर मकान की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही थी। ऊपर के कमरों की छतें चूने लगी थी। परंतु उसने भाई का सुझाव नामंजूर कर दिया था। उसे उसने लिख दिया था कि मकान ख़ाली कर के चाभी वह उसे भिजवा दे। अगली बरसात से पहले आकर वह उसकी मरम्मत करा देगा। इसी उद्देश्य से वह वहाँ आया था।
उसने देखा, कमरे की दो ओर की दीवारों पर पानी बहने के निशान बने थे जो शायद अभी तक नम थे। इसके मायने दो-एक बारिशें यहाँ हो चुकी हैं। दीवार में एक जगह क्रैक भी आ गया था।
उसने छत पर निकल कर मौसम का जायज़ा लिया। आसमान साफ़ था और हवा में कोई ख़ास ठंडक नहीं थी। उसने चारपाई बाहर छत पर निकाल ली और और अटैची से दरी, चादर और तकिया निकाल कर बिस्तर लगा लिया। परंतु उसे नींद नहीं आ रही थी। न ही लेटने की इच्छा हो रही थी। वैसे उसके पास अटैची में दो-एक पुस्तकें थीं, जिसमें से एक को उसने लगभग आधा सफ़र में पढ़ा भी था और वह उसे आगे पढ़ना चाहता था। परंतु बिजली न होने के कारण दिक़्क़त थी। मोमबत्ती का प्रकाश काफ़ी नहीं था। अतः उसने बिस्तर लगा कर कपड़े बदल लिए और पाजामा बनियान पहन कर बिस्तर पर लेट गया। थोड़ी देर लेटने पर उसे लगा कि उसे सफ़र की कुछ थकान है। लेटे-लेटे ही उसने हाथ-पैरों को इधर-उधर झटका और तब सिगरेट सुलगा कर पीने लगा।
पिता ने जब यह मकान ख़रीदा था तब वह पैदा भी नहीं हुआ था। उस समय वह कच्चा था। बाद में पिता ने उसे तुड़वा कर नए सिरे से पक्का बनवाया था। उस समय वह कोई पाँच-छह वर्ष का रहा होगा। कच्चे मकान की उसे बिलकुल भी याद नहीं है। परंतु जब कच्चा मकान टूट कर नया बन रहा था, उस समय की कुछ-कुछ याद उसको है। सामने गली में ईंटों के ढेर लगे रहते थे। वह उन पर चढ़कर खेला करता। एक बार गिर भी गया था और उसके सिर में काफ़ी चोट आ गई थी, जिसका निशान आज तक उसके सिर में है। खच्चरों पर लदकर बालू, सीमेंट, मौरंग आदि आया करती और वह वहीं खड़ा-खड़ा खच्चरों को गिना करता और तब जा कर माँ को बताया करता कि कितने खच्चर आज आए हालाँकि खच्चरों को वह घोड़े कहा करता था। उस समय घोड़े और खच्चर मे फ़र्क़ करने की तमीज़ उसके पास नहीं थी।
एक बार, उसे याद है दीवार या छत का कोई हिस्सा अपने आप टूट गया था या तोड़ दिया गया था और उसने दौड़ कर माँ से कहा था कि नया मकान गिर पड़ा है। माँ ने उसकी बात सच मान ली थी और हड़बड़ाहट में गली से बाहर निकल आई थीं, उन दिनों पिता ने उसी गली में एक अन्य मकान किराए पर ले लिया था और सब लोग वहीं शिफ़्ट कर गए थे। आफ़िस से शायद उन्होंने छुट्टी ले रखी थी और नंगे बदन धोती पहने सारा दिन गली में खड़े मज़दूरों और कारीगरों को आदेश देते रहते या फिर बड़े-बड़े रजिस्टरों में गुम्मे सीमेंट या मज़दूरों की मज़दूरी का हिसाब लिखते रहते।
पूरी गली में उसका मकान अपने ढंग का एक बना था। अंदर दालान में खंभों के ऊपर दीवार में फूल-पत्तियों की जालियाँ बनाई गई थीं। दरवाज़ों के ऊपर मेहराबों तथा रौशनदानों में भी जालियाँ काटी गई थीं। हालाँकि जब वह बड़ा हुआ तो उसने अपने कमरे के रोशनदानों की इन जालियों को दफ़्ती से ढक दिया था क्योंकि उससे धूल अंदर भर जाती थी। बारिश में पानी की बौछार से उन पर रख सामान पुस्तकें आदि भीग जाती थीं। इसके अलावा उन्हें साफ़ करने में भी बड़ी कठिनाई होती थी। बाहर से सदर दरवाज़े में तो न जाने कितनी कारीगरी की गई थीं पुराने ज़माने में मंदिरों जैसी मेहराब बनी थीं। उसके अंदर दोनों और अर्ध-गोलाकार शक्ल में बड़ी बड़ी मछलियाँ बनी थीं, जिनके बीच एक बड़े-से ताक़ में गणेशजी की मूर्ति बनी थी। बाद में उसी गणेशजी की मूर्ति के ऊपर गौरौयाँ अपने घोंसले बनाने लगी थीं। पिता जब तक जीवित रहे, उन्होंने यह घोंसले कभी नहीं बनने दिए। जब भी उनकी निगाह जाती, वे घोंसला उखाड़ कर फेंक देते। परंतु उनकी मृत्यु के बाद तो चिड़िया उनमे अंडे-बच्चे भी देने लगीं। दरवाज़े के दोनों ओर खंभे बनाए गए थे, जिनमें फूल-पत्तियाँ, देव और किन्नरियों की मूर्तियाँ आदि काटी गई थी। दरवाज़े की चौखट में भी, जो ख़ासी चौड़ी थी, काफ़ी कारीगरी की गईं थीं। दरवाज़े पर गणेशजी की मूति के नीचे पिता ने उसका नाम लिखवा दिया था ‘शंकर निवास’ ऐसा शायद उन्होंने इसलिए किया कि उस समय उसके और छोटे भाई नहीं थे। अंदर दहलीज़ में सीमेंट के फ़र्श पर सोरही बनी थी। इस बात को लेकर पिताजी के मित्र अक्सर आपस में मज़ाक किया करते थे कि जगत बाबू ने सोरही इसलिए बनवाई कि मियाँ-बीवी बैठ कर आपस में खेला करेंगे। उसके बाद माँ-बाप ने कभी खेला या नहीं, वह नहीं जानता, परंतु वह ज़रूर छुटपन में अपने दोस्तों के साथ वहाँ बैठ की सोरही खेला करता था।
यह सब तो बना था, परंतु उस समय मकान कई मामलों में अधूरा रह गया था। ऊपर के किसी भी हिस्से में प्लास्टर नहीं हुआ था। एक छोटे कमरे की छत भी नहीं पड़ी थी। आँगन में जंगला नहीं लगा था। बाहर सदर दरवाज़े में पल्ले नहीं लगे थे। ऊपर तिमंज़िले पर जाने के लिए सीढ़ी नहीं बनी थी। सामने बालकनी की दीवार नहीं बनी थी। छत से आने वाली किसी भी नाली में पाइप नहीं लगा था। यह सब शायद इसलिए रह गया था, क्योंकि पिता के पास पैसों की कमी पड़ गई थी। काफ़ी दिनों तक यह इसी तरह पड़ा रहा। फिर कुछ पिता जी के रिटायर होने पर पूरा हुआ और कुछ उसकी नौकरी लग जाने के बाद। वैसे कुछ चीज़ें आज भी अधूरी ही पड़ी हैं।
एकाएक वह डर गया। विचित्र-से कोई दो पक्षी कहीं से आ कर उसकी खाट के ऊपर मंडराने लगे थे। और तब वे सामने वाली दुछत्ती की छत के पटरों के बीच किसी सूराख़ के घुस गए। उसे समझने में कुछ देर लगी कि वे चमगादड़ थे। उसका दिल अचानक तेज़ी से धड़कने लगा। वह उठकर बैठा गया और उसने नई सिगरेट जला ली।
पहली बार ये चमगादड़ जब पिताजी जीवित थे, तब आए थे और इन्हीं धन्नियों में कहीं घुसे थे। पिता ने दूसरे दिन ही धन्नियों के नीचे नीम की ढेर सारी पत्तियाँ जला कर धुँआ किया था और तब सीमेंट मौरंग से उनमें बने हुए सारे सूराख़ बंद कर दिए थे। माँ ने शायद उसके अगले इतवार को सत्यनारायण की कथा भी करवाई थी। उसके बाद चमगादड़ दुबारा नहीं दिखाई दिए थे। अब शायद वे स्थार्इ रूप से यहाँ रहने लगे थे। तभी वे फिर निकल आए। इस बार चार थे। काफ़ी देर वे आँगन में ही इधर-उधर उड़ते रहे। फिर छत के ऊपर आकाश में कही चले गए।
उसने ग़ौर किया, नीचे का पाइप अभी बह रहा था। बाहर के दरवाज़े भी, उसे ध्यान आया, उसने बंद नहीं किए थे। अंदर कमरे में जा कर उसने दुबारा मोमबत्ती जलाई और जलती मोमबत्ती लेकर वह नीचे उतर आया। बाहर के दरवाज़े खुले हुए थे। उसने उन्हें भेड़ कर अंदर से कुंडी लगा दी। तब अंदर का दरवाज़ा खोल कर मोमबत्ती पाइप के पास बनी छोटी-सी दीवार पर रख कर इधर-उधर कोई कपड़ा खोजने लगा। एक कोने में उसे फटा हुआ कोई कपड़ा मिल गाया। शायद कोई पुरानी बनियान थी। उसी से उसने एक लंबी पट्टी-सी निकाली और मुद्दे की खुखरी को पाइप में खोंस कर उसे कपड़े से कसने लगा। पानी गिरना बिलकुल बंद तो नहीं हुआ, परंतु काफ़ी कम हो गया।
वह वापस ऊपर आने लगा, तभी ध्यान आया कि बाहर का दरवाज़ा इतनी देर खुला पड़ा रहा है, हो सकता है, कोई अंदर घुस कर बैठ गया हो। वह एक बार फिर डर गया। परंतु उसने यह सोच कर अपने मन को तसल्ली दी कि इस वीरान घर में कोई क्यों घुसेगा। फिर भी उसने तय किया कि वह एक बार सारे घर को देख आएगा। मोमबत्ती अभी काफ़ी शेष थी। कम-से-कम आधेक घंटे वह जल सकती थी, उसने अनुमान लगाया।
आधी सीढ़ियों से ही वह वापस नीचे उतर आया। पहले उसने बाहर का कमरा खोला। इसे पहले, जब सब लोग यहाँ रहते थे, तो ‘दरवाज़े वाला कमरा’ कहा जाता था। जब तक वह इंटर में नहीं पहुँचा था, तब तक यह कमरा उसके पिता के क़ब्ज़े में था। उन्होंने इसमें एक तख़्त, एक छोटी मेज़ और दो-चार कुर्सियाँ डाल रखी थीं। दीवालों पर देवी-देवताओं के चित्र लगा रखे थे। अलमारियों में उनके मतलब की अनेक वस्तुएँ, जैसे- रिंच, हथौड़ी, प्लास, शतरंज की बिसात और मोहरे आदि रखे रहते। आतिशदान के ऊपर कपड़े के दो बस्तों में उनकी पुस्तकें आदि बंधी रखी रहतीं। एक कपड़े में भागवत, महाभारत, रामायण आदि रहतीं, दूसरे में अलिफ़-लैला, गुल-सनोबर आदि।
इसी कमरे में पिता अपने मिलने वालों के साथ बैठ कर बातें किया करते थे। दीवाली पर मेज़-कुर्सी आदि सब अंदर हटा दी जातीं। फ़र्श पर दरी और चादर बिछा दी जाती और लक्ष्मी पूजन के बाद से तीन दिन तक लगातार फ़्लश खेली जाती। अधिकतर तो गली के लोग ही रहते। वैसे कभी-कभी बाहर के लोग, पिता के आफ़िस के सहयोग आदि भी आ जाते, वह भी अकसर रात में पिता के लाख मना करने के बावजूद आ कर वहीं बैठ जाता। कभी-कभी रात भर बैठा रहता, क्योंकि पिता और उनके अन्य मित्र बाजी जीतने से उसे पैसे दिया करते थे। रात भर में वह दो-तीन रुपए की रेज़गारी जमा कर लेता।
परंतु जब वह इंटर में पहुँचा, तो पिता अपना सामान अन्यत्र उठा ले गए। मैं इस बात को लेकर उसमें और पिता में काफ़ी संघर्ष चला। पिता कहते—सामान वहीं रखा रहने दो, तुम्हारा क्या लेगा! परंतु वह अपने कमरे में रिंच, हथौड़ी आदि रखने के लिए क़तई तैयार नहीं था। आख़िर पिता ने हार मान ली और उसने कमरे पर अपना अधिकार जमा लिया। उसके आने के कुछ दिनों के अंदर ही कमरे की हुलिया बिलकुल बदल गई। आतिशदान पर नक़ली फूलों के गुलदस्ते लग गए। देवी-देवताओं के चित्रों के स्थान पर फ़िल्म स्टारों के चित्र और सीन-सीनरियाँ लग गई। अलमारी में रिंच और प्लास की जगह ज्योमिट्री और अलज़ेबरा की पुस्तकें सज गईं। बाद में वह इसी कमरे में तख़्त पर सोने भी लगा। अकसर छट्टियों वाले दिन वह अपना खाना भी वहीं मँगा लेता। कभी छोटा भाई दे जाता, कभी माँ।
इस कमरे में रहते हुए उसे जीवन की वह पहली अनुभूति हुई थी जिसे ‘किशोर प्रेम’ कहा जाता है। उन दिनों वह बी.ए. प्रीवियस में पढ़ा करता था। सामने वाले मकान में एक नए किराएदार आए थे। नए क्या काफ़ी दिनों से वहाँ रह रहे थे। पुरूष आर.एम.एस. में काम करता था। वह, उसकी पत्नी, एक छोटा बच्चा और उसकी किशोर बहन, जिसका असली नाम तो वह आज भूल गया है परंतु घर में उसे बिट्टी कहा करते थे, उस मकान में रहते थे। बिट्टी की आयू पंद्रह-सोलह की रही होगी। उसकी आँखें काफ़ी बड़ी और ख़ूबसूरत थीं। बदन भरा हुआ और आकर्षक था।
अचानक एक दिन उसने ग़ौर किया कि जब वह अपने कमरे में बैठ कर पढ़ता-लिखता तो बिट्टी अपनी खिड़की पर खड़ी हो कर उसे देखा करती। उसे कुछ विचित्र-सी अनुभूति हुई थी। बाद में उसने अपनी मेज़ घुमा कर इस प्रकार लगा ली कि बिल्कुल उसकी खिड़की के सामने पड़ती। अकसर दोनों एक दूसरे को देर तक देखते रहते। फिर पता नहीं कब और कैसे बिट्टी उसके घर भी आने लगी, उसकी माँ के पास। दो-एक बार ऐसा भी हुआ कि सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते दोनों एक-दूसरे से मिल गए। जान-बूझ कर तो नहीं, हाँ अनजाने में एक-आध बार दोनों के शरीर भी छू गए। उन दिनों वह शैली और कीट्स पढ़ा करता था और प्रेम की एक बहुत ही आदर्शवादी कल्पना उसके दिमाग़ में थी। पूरे एक वर्ष तक ऐसा रहा कि जब भी वह यूनिवर्सिटी से लौट कर आता, वह अपनी खिड़की पर खड़ी रहती। परंतु दोनों में कभी कोई बात नहीं हुई। माँ के सामने ज़रूर एक-आध बार इंडायरेक्ट ढंग से कुछ बात हुई। परंतु कोई ख़ास नहीं। हाँ, एक बार ज़रूर एक घटना हुई थी। जिसकी याद आज भी उसे हल्का-सा कहीं गुदगुदा जाती है। रात कोई ग्यारह बजे होंगे। वह बत्ती बुझा कर लेटा ही था कि दरवाज़े पर एक हल्की-सी दस्तक हुई। उसने उठ कर दरवाज़ा खोला तो देखा, बिट्टी खड़ी थी। दरवाज़ा खुलने के साथ ही वह अंदर आ गई और चुपचाप ख़ामोश खड़ी हो गई। उसकी समझ में नहीं आया क्या बात करे? तभी उसने पूछा—क्या बात है?
बिट्टी फिर भी ख़ामोश रही। तब बोली—आपके पास एनासिन तो नहीं है। भइया भाभी पिक्चर गए हैं। मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा हैं।
—एनासिन? मेरे पास तो नहीं है। कहो तो बाहर से ला दूँ। उसने कहा। बिट्टी फिर कुछ देर के लिए ख़ामोश हो गई। तब बोली—नहीं, रहने दीजिए और चुपचाप वापस लौट गई।
उसके जाने के बाद उसे एहसास हुआ कि बिट्टी शायद एनासिन के लिए नहीं आई थी। वह कुछ और कहना चाहती थी। बातों के बीच की ख़ामोशी ने शायद उससे कुछ कहा भी था। परंतु वह समझ नहीं सका था। अपनी इस मूर्खता पर उसे बहुत अफ़सोस हुआ था। उस सारी रात वह सो नहीं सका था। इंतिज़ार करता रहा था कि शायद बिट्टी फिर आए। परंतु वह नहीं आई। यही नहीं, इसके बाद कई दिनों तक वह अपनी खिड़की पर भी नहीं दिखाई दी।
इस घटना के कुछ दिनों बाद ही बिट्टी का विवाह हो गया। और वह गुड़िया की तरह सज कर अपनी ससुराल चली गई। वहाँ से लौटने के बाद एक-दो बार वह ज़रूर अपनी खिड़की पर दिखाई दी। उसके घर भी आई। परंतु तभी उसके भाई का ट्रांसफ़र कहीं और हो गया और वे लोग मकान छोड़ कर चले गए। उन लोगों के जाने के काफ़ी दिनों बाद तक उसे बिट्टी की याद आती रही। उसका मन किसी काम में न लगता। घंटों वह पढ़ने की मेज़ पर बैठ काग़ज़ पर बिट्टी का नाम लिखा करता। उसकी ससुराल इसी शहर में थी। अकसर वह साइकिल ले कर उधर से चक्कर भी काटा करता परंतु बिट्टी उसे नहीं मिली। हाँ, एक-आध बार बाज़ार आदि में उसने उसे अपने पति के साथ इधर-उधर आते-जाते देखा। महीनों इस तरह बिट्टी का ख़याल उसे सताता रहा। उसे लगता, जैसे उसकी अपनी सबसे क़ीमती चीज़ किसी ने उससे छीन ली हैं परंतु धीरे-धीरे सब कुछ फिर सामान्य हो गया।
मोमबत्ती लेकर उसने कमरे में प्रवेश किया। वहाँ काफ़ी गर्द और कूड़ा था। तख़्त अब भी अपनी जगह पड़ा था। मेज़-कुर्सियाँ शायद भाई अपने साथ ले गया था। अलमारियाँ भी ख़ाली पड़ी थीं। केवल आतिशदान के ऊपर गणेश-लक्ष्मी की मिट्टी की पुरानी मूर्तियाँ रखी थीं, जिनका रंग उड़ चुका था। दीवालों पर कुछ चित्र भी लगे थे। एक चित्र आठ देशों के राष्ट्र निर्माताओं, लेनिन, हो ची मिन्ह, गाँधी, सुकों, माओ आदि का था जिसे उसने कभी किसी पत्रिका से काट कर स्वयं मढ़ा था। चित्रों का उसे विशेष शौक़ था। अपने आप वह उन्हें छठे-आठवें महीने निकाला-बदला करता था। परंतु यह चित्र काफ़ी पुराना था। इसे उसने बाद में कभी क्यों नहीं बदला, इसका कोई कारण उसके पास नहीं था।
दीवालों में जगह-जगह लोना लगने लगा था। अलमारियों की चौखट में कई जगह दीमक लग गई थी। दाईं तरफ़ वाली दीवाल में काफ़ी सीलन थी। यह सीलन बहुत पुरानी थी। इसका कारण था म्युनिसिपैलिटी का पाइप, जो बाहर गली में उसकी दीवाल से मिल कर लगा हुआ था। जिन दिनों वह इस कमरे में रहा करता था, यह पाइप एलार्म का काम देता था। रेलवे वाले राधे चाचा अपना लोहे का पुराना कड़ेदार डोल लेकर ठीक साढ़े चार बजे पाइप पर पहुँच जोते ओर ‘गंगा बड़ी कि गोदावरी कि तीरथ राज प्रयाग, सबसे बड़ी अयोध्या जहाँ राम लीन औतार’ का अलाप इतनी ज़ोर से खींचते कि कानों में रूई खोंस कर सोने वाला व्यक्ति भी सोया नहीं रह सकता था। इस अलाप के साथ ही अपने सिर पर पानी की पहली धार अपने ढाई किलो वाले पीतल के लोटे से डालते और ‘हर हर गंगे महादेव’ की सम पर उतर आते।
इस पाइप की ही वजह से उसके बाहर वाले चबूतरे का काफ़ी प्लास्टर उखड़ गया था। क्योंकि अकसर लोग उस पर कपड़े छाँटने का काम करते थे। कुछ लोग तो बाक़ायदा साबुन लगा कर फचाफच धोबी घाट खोल देते। पिता जब तक जीवित रहे, अगर कभी किसी को ऐसा करते देख लेते, तो काफ़ी सख़्त सुस्त सुना कर उससे तुरंत चबूतरा घुलवा कर दुबारा कभी ऐसा न करने की कड़ी ताकीद कर देते परंतु उनकी मृत्यु के बाद तो वहाँ बाक़ायदा धोबी घाट बन गया था और अकसर लोग कपड़े छाँटने के बाद बिना उसे धोए ही साबुन का झाग वहाँ छोड़ कर चले जाते।
उसने आगे बढ़ कर दीवाल को दाहिने हाथ की तर्जनी से छुआ तो लाल चूने का ढेर-सा मुसमुसा प्लास्टर अपनी जगह गिर पड़ा। जाने किसके कहने पर पिता ने इस कमरे में लाल चूने का प्लास्टर कराया था। केवल दीवालों तक। छत और फ़र्श सीमेंट के थे। बल्कि छत में ख़ासी फूल पत्तियाँ बनाई गई थीं, जिनके बीच बड़े-बड़े लोहे के कड़े लटकाए गए थे। इन कड़ों को हाथ से खींचने वाला पंखा लगाने के लिए लगाया गया था। पिता की काफ़ी साध थी कि वह पंखा लग जाए। परंतु उनके जीवन में उनकी यह साध पूरी न हो सकी। मकान बनवाने में ही काफ़ी क़र्ज़ उनके ऊपर हो गया था जिससे वह जीवन भर उबर नहीं पाए थे।
कमरे से बाहर निकल कर उसने उसके दरवाज़े की कुंडी लगा दी और दहलीज़ से होता हुआ अंदर दालान में आ गया। अंदर दो दालानें थीं एक दूसरे से नब्बे अंश का कोण बनाती हुई। पहली दालान छोटी थी। इसमें एक ओखली बनी हुई थी, जिसमें माँ कभी-कभी दाल वग़ैरह कूटा करती थीं। वैसे इस दालान का कोई ख़ास उपयोग नहीं था सिवाय जूते-चप्पल उतारने के, या ईंधन रखने को या फिर जब वह इंटर में पहुँचा था और पहली बार घर में एक पुरानी नीलामी की साइकिल आई थी, उसके रखने हाँ, इसमें मिली हुई दूसरी दालान का, जो अपेक्षाकृत काफ़ी बड़ी थी, बड़ा विविध उपयोग होता था। शादी-ब्याह के मौक़ों पर इसमें औरतों का गाना बजाना, रतजगे और स्वांग होते थे। इसी में लोगों को खाना खिलाया जाता था। गर्मी के दिनों में घर के लोग यहीं दोपहरी काटा करते थे क्योंकि धूप यहाँ जाड़ा, गर्मी, बरसात कभी नहीं आती थीं। इसी दालान में उसके छोटे भाई का जन्म और पिता की मृत्यु हुई थी। यहीं फ़र्श पर उसके पिता की लाश बीस घंटे तक रखी रही थी और उसने सारी रात उसके बग़ल में बैठ कर जागते हुए बिताई थी।
इस दालान से मिली हुई एक छोटी कोठरी थी, जिसके अंदर दिन में भी अँधेरा रहता था। उस के अंदर एक बड़ी अलमारी थी तथा दीवाल में एक ओर लकड़ी के दो बड़े-बड़े टाँड बने थे। इन टाँडों पर उन दिनों न जाने कितने बर्तन, पीतल की बड़ी बड़ी परातें, बटुए, बाल्टे, कढाइयाँ, थाली, लोटे आदि भरे रहते थे। लोग उन्हें शादी ब्याह में माँगने आया करते थे। उसे आश्चर्य हुआ कि आज वे सब कहाँ चले गए। उसके पास तो उनमें से एक भी नहीं है। भाई के पास भी नहीं है। जाने कैसे इसी घर में वे कहीं बिला गए।
इसी कोठरी में बड़े बाल्टों में साल साल-भर के लिए अनाज भर कर रखा जाता था। यह उसे बहुत पुरानी याद है, वरना जबसे वह हाईस्कूल में पहुँचा है तब से तो महीने-महीने का राशन उसे राशन वाले की दुकान में लाइन लगा कर लाना पड़ता था। इसी कोठरी में ऊपर एक दुछत्ती बनी थी जिसमें प्राकृतिक प्रकाश नाम की कोई चीज़ सर सी.वी.रमन के सिद्धांत के बावजूद कभी नहीं पहुँची। इसके अंदर घुसना भी एक कमाल हुआ करता था क्योंकि उसका रास्ता छत में एक चौकोर सूराख़ काट कर बनाया गया था। आज तो शायद वह उसमें घुस नहीं सकता। हाँ, जब छोटा था, तो ज़रूर गेहूँ के बाल्टे पर चढ़ कर, जो ठीक उस सूराख़ के नीचे रखा रहता था। घुस जाता था। यह दुछत्ती क्यों बनाई गई, वह कभी समझ नहीं पाया। शायद पिता ने सोचा रहा हो कि कभी इस घर में सोने-चाँदी की ईंटें हुई तो उन्हें जतन से छुपा कर रखना होगा। परंतु उसे जिन चीज़ों का ध्यान इस दुछत्ती में होने का है वह कुछ इस प्रकार थीं जैसे टूटे संदूक़ पुराने कनस्तर, ख़ाली बोतलें, पुराने जूते, टूटे छाते, बाँस के डलवे आदि। उसने सोचा, कोठरी का दरवाज़ा खोल कर अंदर जाए परंतु फिर टाल गया।
इसी कोठरी की बग़ल में एक कमरा था, जिसे ‘मुन्नू दादा वाला कमरा’ कहा जाता था क्योंकि उसके चचाजाद भाई, जिनका नाम मुन्नू था, कभी इसमें रहा करते थे। उनकी सारी पढ़ाई-लिखाई, पालन-पोषण, शादी-ब्याह सब उसके पिता ने किया था। शादी के बाद मुन्नू दादा अपनी पत्नी के साथ इसी कमरे में रहा करते थे। उन थोड़े दिनों के लिए इस कमरे की हुलिया बदल गई थी। अन्यथा यह ख़ाली पड़ा रहता था। उन दिनों इसकी खिड़कियों में पर्दे लग गए थे। अंदर दीवालों पर कलेंडर तथा अन्य चित्र लगे थे। एक कोने में भाभी का श्रृंगारदान रखा रहता था। दो एक मेज़-कुर्सियाँ भी आ गई थीं।
मुन्नू दादा की शादी, जो इसी शहर में हुई थी, मुहल्ले की कुछ नामी-गरामी शादियों में से एक थी। यह इसलिए था क्योंकि उनकी बारात में हाथी-घोड़े आदि शामिल थे। डेढ़-दो दर्जन स्त्री-पुरुष हाथों में रंगीन काग़ज़ों की झाँकियाँ लेकर चल रहे थे, जिनमें नोट चिपके थे। साथ ही मुहल्ले से निकलने वाली किसी बारात में पहली बार पुलिस बैंड आया था। भाँड और तवाइफ़ भी थीं। माँ ने इन सब बातों के लिए मना किया था परंतु पिता हठी क़िस्म के आदमी थे, शुद्ध मध्यवर्गीय संस्कारों से ग्रस्त। उन्होंने अपने प्रोविडेंट फंड से क़र्ज़ लिया था। महाजनों से भी कुछ उधार लिया था और जिसे घर फूँक तमाशा देखना कहते हैं, वही किया था यह सब इसलिए ताकि रिश्ते और मुहल्ले वाले कोई यह न कह सकें कि भतीजे की शादी पर जगत बाबू कंजूसी कर गए। परंतु इसे बाद जो महाजनों का घर पर आने का सिलसिला शुरू हुआ तो पिता की मृत्यु के बाद तक समाप्त नहीं हुआ। एक महाजन तो उनकी मृत्यु के तीसरे-चौथे दिन ही आ धमका था क्योंकि उसके प्रोनोट की तारीख़ निकल रही थी और उसे भय था कि कहीं उनका बेटा प्रोनोट बदलने से इनकार न कर दे।
शादी कुछ और मायनों में भी उसके ख़ानदान में महत्व रखती थी। क्योंकि द्वारचार के समय किसी बात को लेकर मुन्नू दादा ने अपने ससुर को झापड़ मार दिया था। ससुर ने तो कुछ नहीं कहा था परंतु लड़की वालों की तरफ़ से और लोग काफ़ी बिगड़ गए थे। बात लाठी-बंदूक़ तक पहुँची थी। आख़िर किसी तरह से निपटारा हुआ और मुन्नू दादा अपनी दुल्हन लेकर घर लौटे।
परंतु इसके बाद मुन्नू दादा अधिक दिनों घर में नहीं रहे। उनकी पत्नी और उसकी माँ में कुछ अनबन रहने लगी। पहले तो घर में ही दो चूल्हे जले। और तब पहली बार नीचे के हिस्से में बनी कमरे से लगी हुई रसोई का इस्तेमाल हुआ अन्यथा जबसे मकान बना था, वह ख़ाली पड़ी हुई थी। परंतु यह सिलसिला भी ज़्यादा दिनों नहीं चला। जल्दी ही मुन्नू दादा घर छोड़ कर चले गए और धीरे-धीरे दोनों परिवारों में आना-जाना तक बंद हो गया। इस घटना के दस पंद्रह वर्षों बाद जब वह बड़ा हुआ और होली-दिवाली पर उसने मुन्नू दादा के यहाँ आना-जाना शुरू किया तो संबंध एक बाद फिर से बनने लगे।
वह आँगन में खड़ा था। इसी आँगन में शादी-ब्याह के अवसरों पर मंडप बनाया जाता था। उसके ब्याह के समय भी यही मंडप बना था और हालाँकि शादी-ब्याह की रस्मों से उसे इंतिहा दर्ज़े तक चिढ़ थी फिर भी तेल-उबटन वाले कुछ स्वाँगों में उसे भाग लेना पड़ा था।
मुन्नू दादा वाले कमरे की कुंडी बंद थी। उसने उसे खोला नहीं केवल खिड़की के सीखचों से, जिसमें दरवाज़े नहीं थे, अंदर झाँक कर देखा। अंदर अँधेरा और सीलन थी दीवाल पर गेरू से स्वास्तिक सा कुछ बना हुआ था।
कुछ देर वह इसी तरह खिड़की के सींखचे पकड़े खड़ा रहा। तब वापस मुड़ गया। बाहर दहलीज़ में आ कर उसने नीचे के हिस्से के दरवाज़े की कुंडी लगा दी और सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ ऊपर आ गया। सीढ़ियाँ चढ़ रहा था तो मोमबत्ती का पिघलता हुआ गर्म-गर्म मोम उसकी उँगली पर गिर पड़ा और वह जल गया। उसने मोमबत्ती दूसरे हाथ में पकड़ ली और जली हुई उँगली मुँह में डाल कर चूसने लगा। ऐसा करने से उसे कुछ राहत मिली।
ऊपर पहुँचते ही वह एक बार फिर डर गया। उसके बिस्तर पर एक मोटी-सी काली बिल्ली बैठी थी। उसे देखते ही वहाँ से कूद कर वह दीवाल पर जा कर बैठ गई और वहाँ से उसे अपनी चमकदार आँखों से देर तक घूरती रही। उसने उसे भगाया तभी वह वहाँ से हटी।
एक क्षण वह वहीं छत पर खड़ा रहा। तब मकान के ऊपर वाले भाग का निरीक्षण करने लगा। पहले उसने पीछे वाले हिस्से का कमरा खोला। यह काफ़ी बड़ा था। परंतु लोग इसमें रहते नहीं थे। ज़्यादातर इससे स्टोर का काम लिया जाता था। रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाला राशन, आटा, दाल, चावल आदि इसमें रखा जाता था। एक अलमारी थी, जो तरह-तरह के अचारों के मर्तबानों में भरी रहती थी। रोज़मर्रा के इस्तेमाल वाले बर्तन भी इसी कमरे में रहते थे। उसी ज़माने की लकड़ी की एक बड़ी-सी संदूक़ जिसमें देसी घी का बर्तन, तेल, मसाला आदि चूहों से बचाने के लिए रखे जाते थे। अब भी एक कोने में पड़ी थी। उसका ऊपर का ढक्कन, जो बीच से आधा खुलता था, टूट गया था। उसने निकट जा कर मोमबत्ती की रौशनी में उसमें झाँक कर देखा, उसमें कुछ कंडे और लकड़ी के टुकड़े पड़े थे।
दीवाल पर ‘हरछट’ बन हई थी। यह कौन-सी देवी हैं, वह आज तक नहीं जान पाया। माँ किसी ख़ास दिन यह पूजा किया करती थीं। जब आता था, माँ सुबह से उपवास करके बड़ी लगन से पीड़े में रूई भिगो कर दीवाल पर यह चित्र अंकित करती। देवी का पेट चौकोर होता। चारों कोनों पर छोटे-छोटे दो पैर होते। ऊपर नुकीला बर्फ़ी नुमा सिर होता। पेट के अंदर माँ जाने क्या क्या सूरज-चाँद, गंगा-यमुना, सूप-चलनी आदि बनातीं। वह सोचता, यह देवी, जिनके पेट में सारा संसार समाया होता है, ज़रूर बड़ी शक्तिशाली होती होंगी। फिर आज तक उसने उनका नाम कहीं और क्यों नहीं सुना?
इन्हीं देवी के साथ-साथ माँ एक और चित्र बनाती थीं। वह भी कुछ इसी तरह प्रकार का होता था। और उसे ऐसे स्थान पर बनाया जाता था कि देवी और धोबन एक दूसरे को देख न सके। हिंदू समाज में धोबन का भी बहुत महत्व हैं। क्योंकि उसे याद है कि किसी और त्यौहार पर धोबन माँ को सुहाग देने आया करती थीं। माँ कहती थीं कि धोबन का सुहाग अमर होता है। सारे संसार को सुहाग बाँटने पर भी उसका सुहाग कम नहीं होता। मगर बावजूद इसके कि माँ हर वर्ष धोबन से सुहाग लिया करती थीं, और उसके अलावा भी अपने सुहाग की रक्षा के लिए कितने ही तीज-त्यौहार मनाती थीं, व्रत रखती थीं, उनकी मृत्यु विधवा होकर हुई थी।
इस कमरे की छत भी चूती थी। यह तो उन्हीं दिनों से चूती थी जब वह यहाँ रहा करता था। छत की धन्नियाँ भी बोल गई थीं। उसने मोमबत्ती के प्रकाश में देखा, दीवालों पर पानी बहने के निशान थे। बीच की एक धन्नी भी काफ़ी नीचे झुक आई थी। यही एक कमरा था जिसमें पिता ने स्लैब न डलवा कर धन्नियाँ डलवाई थीं। इसके पीछे भी शायद कहीं पैसों का अभाव था।
कमरे से वह उसके बग़ल कोठरी में आ गया, जिसकी छत उसकी नौकरी लग जाने बाद पड़ी थी। इसमें खाना पका करता था जिसकी वजह से इसकी सारी दीवालें और छत धुंए से काली पड़ गई थीं। बहुत दिनों तक इसमें दरवाज़ा भी नहीं था, जिसके कारण अकसर बंदर इसमें घुस कर खाने-पीने का समान उठा ले जाते थे। बाद में ज़ीने का नीचे वाला दरवाज़ा वहाँ से उखड़वा कर यहाँ लगवा दिया गया। ज़ीने वाला दरवाज़ा उसके बाद आज तक नहीं लग सका।
कोठरी से निकल कर छत पर से होता हुआ वह गली की तरफ़ वाले कमरे में आ गया, जिसमें अटैची रखी थी। इससे मिला हुआ कमरा और था जो शुरू में काफ़ी छोटा था परंतु बाद में उसकी शादी के अवसर पर उसे तोड़कर और बड़ा किया गया। विवाह के बाद वह इसी कमरे में रहने लगा था। रहने तो ख़ैर पहले से ही लगा था परंतु विवाह के बाद यह कमरा उसका निजी कमरा हो गया था और उसकी पत्नी के अलावा शायद ही कभी कोई इसमें आता हो। पत्नी का सारा सामान भी इसी कमरे में रखने लगा था। इसका भी एक दरवाज़ा बाहर बालकनी पर खुलता था।
उसके विवाह के अवसर पर मकान में इस प्रकार के छोटे-मोटे कई परिवर्तन हुए थे। जैसे ऊपर छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी थीं। मकान में बिजली का कनेक्शन लिया गया था। ऊपर गली की तरफ़ वाले दोनों कमरों में प्लास्टर हुआ था। बालकनी की दीवाल बनी थी। और एक बार फिर घर का घटता हुआ क़र्ज़ दुबारा बढ़ गया था।
इस कमरे से होता हुआ वह फिर बालकनी पर आ गया। गली में लगा हुआ बिजली का बल्ब अब तक बुझ चुका था। केवल एक हल्की चाँदनी गली के फ़र्श और मकानों की दीवालों पर बिखरी हुई थी। इक्का-दुक्का किसी-किसी घर में प्रकाश हो रहा था। अन्यथा ज़्यादातर मकानों की बत्तियाँ गुल थीं।
काफ़ी देर तक वह इसी तरह खड़ा रहा। गली में घटने वाली कितनी ही छोटी-बड़ी अनेक घटनाओं, शादी-ब्याह, लड़ाई-झगड़े प्रेम-विद्रोह, जन्म-मृत्यु का वह साक्षी था, सारी बातें उसे एक-एक कर याद आ रही थीं। कितने और नए लोग आ गए होंगे। कुछ अजीब-सी अनुभूति में डूबा सम्मोहित-सा वह बालकनी पर खड़ा रहा।
थोड़ी देर ऐसे ही खड़े-खड़े उसने एक सिगरेट पी। तब वहाँ से हट आया। लौटते समय उसने बालकनी का दरवाजा बंद किया तो वह आसानी से बंद नहीं हुआ। दोनों पल्ले भिड़ा कर उसे ज़ोर से धक्का देना पड़ा। झटके की आवाज़ से साथ दरवाज़ा बंद हो गया परंतु साथ ही ढेर-सा प्लास्टर छत से टूट कर फ़र्श पर गिर पड़ा। मोमबत्ती, जिसे वह पहले ही बुझा चुका था, उसने अल्मारी पर रख दी और छत पर आ कर अपने बिस्तर पर लेट गया।
इस मकान को बनवाने में पिता आर्थिक रूप से टूट गए थे। और बार-बार टूटे थे। परंतु यही मकान कई बार उनकी परेशानियों में आड़े भी आया था। कई बार उसे गिरवी रख कर उन्होंने बड़े-बड़े काम निकाले थे। आख़िरी बार तो यह हाथ से निकलते-निकलते रह गया था। आख़िर इसे छुड़ाने के लिए उन्हें देहात की सारी जायदाद बेचनी पड़ी थी।
लेटे-लेटे उसने अनुमान लगाया कि इसकी मरम्मत में उसे कितना ख़र्च करना पड़ सकता है। लगभग एक हज़ार रुपए वह लेकर आया था। परंतु एक हज़ार में एक कमरे की स्लैब पड़नी भी मुश्किल थी। जिस जर्जर हालत को यह मकान पहुँच चुका था, यहाँ आते समय उसने इसकी कल्पना नहीं की थी। वैसे यहाँ उसके बहुत से मित्र थे, जिनसे ज़रूरत पड़ने पर वह क़र्ज़ ले सकता था। लेटे-लेटे वह उनके बारे में सोचने लगा।
देर तक उसे नींद नहीं आई। एक बार तो उसकी आँख क़रीब-क़रीब लग गई थी परंतु तभी सिरहाने वाली दीवाल पर बिल्ली आ कर रोने लगी और उसकी नींद उचट गई।
सुबह उसकी आँख देर से खुली। नहा-धो कर उसने कपड़े बदले और मकान में ताला लगाकर बाहर निकल आया। वह अपने किसी मित्र के यहाँ जा रहा था परंतु उससे क़र्ज़ लेने नहीं बल्कि मकानों का सौदा कराने वाले किसी दलाल का पता पूछने।
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ye sab to bana tha, parantu us samay makan kai mamlon mein adhura rah gaya tha upar ke kisi bhi hisse mein plastar nahin hua tha ek chhote kamre ki chhat bhi nahin paDi thi angan mein jangla nahin laga tha bahar sadar darwaze mein palle nahin lage the upar timanzile par jane ke liye siDhi nahin bani thi samne balakni ki diwar nahin bani thi chhat se aane wali kisi bhi nali mein paip nahin laga tha ye sab shayad isliye rah gaya tha, kyonki pita ke pas paison ki kami paD gai thi kafi dinon tak ye isi tarah paDa raha phir kuch pita ji ke retire hone par pura hua aur kuch uski naukari lag jane ke baad waise kuch chizen aaj bhi adhuri hi paDi hain
ekayek wo Dar gaya wichitr se koi do pakshi kahin se aa kar uski khat ke upar manDrane lage the aur tab we samne wali duchhatti ki chhat ke patron ke beech kisi surakh ke ghus gaye use samajhne mein kuch der lagi ki we chamgadaD the uska dil achanak tezi se dhaDakne laga wo uthkar baitha gaya aur usne nai cigarette jala li
pahli bar ye chamgadaD jab pitaji jiwit the, tab aaye the aur inhin dhanniyon mein kahin ghuse the pita ne dusre din hi dhanniyon ke niche neem ki Dher sari pattiyan jala kar dhuna kiya tha aur tab cement maurang se unmen bane hue sare surakh band kar diye the man ne shayad uske agle itwar ko satyanarayan ki katha bhi karwai thi uske baad chamgadaD dubara nahin dikhai diye the ab shayad we sthari roop se yahan rahne lage the tabhi we phir nikal aaye is bar chaar the kafi der we angan mein hi idhar udhar uDte rahe phir chhat ke upar akash mein kahi chale gaye
usne ghaur kiya, niche ka paip abhi bah raha tha bahar ke darwaze bhi, use dhyan aaya, usne band nahin kiye the andar kamre mein ja kar usne dubara mombatti jalai aur jalti mombatti lekar wo niche utar aaya bahar ke darwaze khule hue the usne unhen bheD kar andar se kunDi laga di tab andar ka darwaza khol kar mombatti paip ke pas bani chhoti si diwar par rakh kar idhar udhar koi kapDa khojne laga ek kone mein use phata hua koi kapDa mil gaya shayad koi purani baniyan thi usi se usne ek lambi patti si nikali aur mudde ki khukhri ko paip mein khons kar use kapDe se kasne laga pani girna bilkul band to nahin hua, parantu kafi kam ho gaya
wo wapas upar aane laga, tabhi dhyan aaya ki bahar ka darwaza itni der khula paDa raha hai, ho sakta hai, koi andar ghus kar baith gaya ho wo ek bar phir Dar gaya parantu usne ye soch kar apne man ko tasalli di ki is wiran ghar mein koi kyon ghusega phir bhi usne tay kiya ki wo ek bar sare ghar ko dekh ayega mombatti abhi kafi shesh thi kam se kam adhek ghante wo jal sakti thi, usne anuman lagaya aadhi siDhiyon se hi wo wapas niche utar aaya pahle usne bahar ka kamra khola ise pahle, jab sab log yahan rahte the, to darwaze wala kamra kaha jata tha jab tak wo inter mein nahin pahuncha tha, tab tak ye kamra uske pita ke kabze mein tha unhonne ismen ek takht, ek chhoti mez aur do chaar kursiyan Dal rakhi theen diwalon par dewi dewtaon ke chitr laga rakhe the almariyon mein unke matlab ki anek wastuen, jaise rinch, hathauDi, plas, shatranj ki bisat aur mohre aadi rakhe rahte atishdan ke upar kapDe ke do baston mein unki pustken aadi bandhi rakhi rahtin ek kapDe mein bhagwat, mahabharat, ramayan aadi rahtin, dusre mein alfalaila, gulasnobar aadi
isi kamre mein pita apne milne walon ke sath baith kar baten kiya karte the diwali par mez kursi aadi sab andar hata di jatin farsh par dari aur chadar bichha di jati aur lakshmi pujan ke baad se teen din tak lagatar flash kheli jati adhiktar to gali ke log hi rahte waise kabhi kabhi bahar ke log, pita ke aafis ke sahyog aadi bhi aa jate, wo bhi aksar raat mein pita ke lakh mana karne ke bawjud aa kar wahin baith jata kabhi kabhi raat bhar baitha rahta, kyonki pita aur unke any mitr baji jitne se use paise diya karte the raat bhar mein wo do teen rupae ki rezgari jama kar leta
parantu jab wo inter mein pahuncha, to pita apna saman anyatr utha le gaye main is baat ko lekar usmen aur pita mein kafi sangharsh chala pita kahte—saman wahin rakha rahne do, tumhara kya lega! parantu wo apne kamre mein rinch, hathauDi aadi rakhne ke liye qati taiyar nahin tha akhir pita ne haar man li aur usne kamre par apna adhikar jama liya uske aane ke kuch dinon ke andar hi kamre ki huliya bilkul badal gai atishdan par naqli phulon ke guldaste lag gaye dewi dewtaon ke chitron ke sthan par film staron ke chitr aur seen sinariyan lag gai almari mein rinch aur plas ki jagah jyomitri aur aljebara ki pustken saj gain baad mein wo isi kamre mein takht par sone bhi laga aksar chhattiyon wale din wo apna khana bhi wahin manga leta kabhi chhota bhai de jata, kabhi man
is kamre mein rahte hue use jiwan ki wo pahli anubhuti hui thi jise kishor prem kaha jata hai un dinon wo b e priwiyas mein paDha karta tha samne wale makan mein ek nae kirayedar aaye the nae kya kafi dinon se wahan rah rahe the purush aar em s mein kaam karta tha wo, uski patni, ek chhota bachcha aur uski kishor bahan, jiska asli nam to wo aaj bhool gaya hai parantu ghar mein use bitti kaha karte the, us makan mein rahte the bitti ki aayu pandrah solah ki rahi hogi uski ankhen kafi baDi aur khubsurat theen badan bhara hua aur akarshak tha
achanak ek din usne ghaur kiya ki jab wo apne kamre mein baith kar paDhta likhta to bitti apni khiDki par khaDi ho kar use dekha karti use kuch wichitr si anubhuti hui thi baad mein usne apni mez ghuma kar is prakar laga li ki bilkul uski khiDki ke samne paDti aksar donon ek dusre ko der tak dekhte rahte phir pata nahin kab aur kaise bitti uske ghar bhi aane lagi, uski man ke pas do ek bar aisa bhi hua ki siDhiyon par chaDhte utarte donon ek dusre se mil gaye jaan boojh kar to nahin, han anjane mein ek aadh bar donon ke sharir bhi chhu gaye un dinon wo shaili aur keets paDha karta tha aur prem ki ek bahut hi adarshawadi kalpana uske dimagh mein thi pure ek warsh tak aisa raha ki jab bhi wo uniwersity se laut kar aata, wo apni khiDki par khaDi rahti parantu donon mein kabhi koi baat nahin hui man ke samne zarur ek aadh bar inDayrekt Dhang se kuch baat hui parantu koi khas nahin han, ek bar zarur ek ghatna hui thi jiski yaad aaj bhi use halka sa kahin gudguda jati hai raat koi gyarah baje honge wo batti bujha kar leta hi tha ki darwaze par ek halki si dastak hui usne uth kar darwaza khola to dekha, bitti khaDi thi darwaza khulne ke sath hi wo andar aa gai aur chupchap khamosh khaDi ho gai uski samajh mein nahin aaya kya baat kare? tabhi usne puchha—kya baat hai?
bitti phir bhi khamosh rahi tab boli—apke pas enasin to nahin hai bhaiya bhabhi picture gaye hain mere sir mein bahut dard ho raha hain
—enasin? mere pas to nahin hai kaho to bahar se la doon usne kaha bitti phir kuch der ke liye khamosh ho gai tab boli—nahin, rahne dijiye aur chupchap wapas laut gai
uske jane ke baad use ehsas hua ki bitti shayad enasin ke liye nahin i thi wo kuch aur kahna chahti thi baton ke beech ki khamoshi ne shayad usse kuch kaha bhi tha parantu wo samajh nahin saka tha apni is murkhata par use bahut afsos hua tha us sari raat wo so nahin saka tha intizar karta raha tha ki shayad bitti phir aaye parantu wo nahin i yahi nahin, iske baad kai dinon tak wo apni khiDki par bhi nahin dikhai di
ghatna ke kuch dinon baad hi bitti ka wiwah ho gaya aur wo guDiya ki tarah saj kar apni sasural chali gai wahan se lautne ke baad ek do bar wo zarur apni khiDki par dikhai di uske ghar bhi i parantu tabhi uske bhai ka transfar kahin aur ho gaya aur we log makan chhoD kar chale gaye un logon ke jane ke kafi dinon baad tak use bitti ki yaad aati rahi uska man kisi kaam mein na lagta ghanton wo paDhne ki mez par baith kaghaz par bitti ka nam likha karta uski sasural isi shahr mein thi aksar wo cycle le kar udhar se chakkar bhi kata karta parantu bitti use nahin mili han, ek aadh bar bazar aadi mein usne use apne pati ke sath idhar udhar aate jate dekha mahinon is tarah bitti ka khayal use satata raha use lagta, jaise uski apni sabse qimti cheez kisi ne usse chheen li hain parantu dhire dhire sab kuch phir samany ho gaya
mombatti lekar usne kamre mein prawesh kiya wahan kafi gard aur kuDa tha takht ab bhi apni jagah paDa tha mez kursiyan shayad bhai apne sath le gaya tha almariyan bhi khali paDi theen kewal atishdan ke upar ganesh lakshmi ki mitti ki purani murtiyan rakhi theen, jinka rang uD chuka tha diwalon par kuch chitr bhi lage the ek chitr aath deshon ke rashtra nirmataon, lenin, ho chi minh, gandhi, sukon, mao aadi ka tha jise usne kabhi kisi patrika se kat kar swayan maDha tha chitron ka use wishesh shauq tha apne aap wo unhen chhathe athwen mahine nikala badla karta tha parantu ye chitr kafi purana tha ise usne baad mein kabhi kyon nahin badla, iska koi karan uske pas nahin tha
diwalon mein jagah jagah lona lagne laga tha almariyon ki chaukhat mein kai jagah dimak lag gai thi dain taraf wali diwal mein kafi silan thi ye silan bahut purani thi iska karan tha myunispailti ka paip, jo bahar gali mein uski diwal se mil kar laga hua tha jin dinon wo is kamre mein raha karta tha, ye paip elarm ka kaam deta tha railway wale radhe chacha apna lohe ka purana kaDedar Dol lekar theek saDhe chaar baje paip par pahunch jote or ganga baDi ki godawari ki tirath raj prayag, sabse baDi ayodhya jahan ram leen autar ka alap itni zor se khinchte ki kanon mein rui khons kar sone wala wekti bhi soya nahin rah sakta tha is alap ke sath hi apne sir par pani ki pahli dhaar apne Dhai kilo wale pital ke lote se Dalte aur har har gange mahadew ki sam par utar aate
is paip ki hi wajah se uske bahar wale chabutre ka kafi plastar ukhaD gaya tha kyonki aksar log us par kapDe chhantane ka kaam karte the kuch log to baqayda sabun laga kar phachaphach dhobi ghat khol dete pita jab tak jiwit rahe, agar kabhi kisi ko aisa karte dekh lete, to kafi sakht sust suna kar usse turant chabutara ghulwa kar dubara kabhi aisa na karne ki kaDi takid kar dete parantu unki mirtyu ke baad to wahan baqayda dhobi ghat ban gaya tha aur aksar log kapDe chhantane ke baad bina use dhoe hi sabun ka jhag wahan chhoD kar chale jate
usne aage baDh kar diwal ko dahine hath ki tarjani se chhua to lal chune ka Dher sa musmusa plastar apni jagah gir paDa jane kiske kahne par pita ne is kamre mein lal chune ka plastar karaya tha kewal diwalon tak chhat aur farsh cement ke the balki chhat mein khasi phool pattiyan banai gai theen, jinke beech baDe baDe lohe ke kaDe latkaye gaye the in kaDon ko hath se khinchne wala pankha lagane ke liye lagaya gaya tha pita ki kafi sadh thi ki wo pankha lag jaye parantu unke jiwan mein unki ye sadh puri na ho saki makan banwane mein hi kafi qarz unke upar ho gaya tha jisse wo jiwan bhar ubar nahin pae the
kamre se bahar nikal kar usne uske darwaze ki kunDi laga di aur dahliz se hota hua andar dalan mein aa gaya andar do dalanen theen ek dusre se nabbe ansh ka kon banati hui pahli dalan chhoti thi ismen ek okhli bani hui thi, jismen man kabhi kabhi dal waghairah kuta karti theen waise is dalan ka koi khas upyog nahin tha siway jute chappal utarne ke, ya indhan rakhne ko ya phir jab wo inter mein pahuncha tha aur pahli bar ghar mein ek purani nilami ki cycle i thi, uske rakhne han, ismen mili hui dusri dalan ka, jo apekshakrit kafi baDi thi, baDa wiwidh upyog hota tha shadi byah ke mauqon par ismen aurton ka gana bajana, ratjage aur swang hote the isi mein logon ko khana khilaya jata tha garmi ke dinon mein ghar ke log yahin dopahri kata karte the kyonki dhoop yahan jaDa, garmi, barsat kabhi nahin aati theen isi dalan mein uske chhote bhai ka janm aur pita ki mirtyu hui thi yahin farsh par uske pita ki lash bees ghante tak rakhi rahi thi aur usne sari raat uske baghal mein baith kar jagte hue bitai thi
is dalan se mili hui ek chhoti kothari thi, jiske andar din mein bhi andhera rahta tha us ke andar ek baDi almari thi tatha diwal mein ek or lakDi ke do baDe baDe tanD bane the in tanDon par un dinon na jane kitne bartan, pital ki baDi baDi paraten, batue, balte, kaDhaiyan, thali, lote aadi bhare rahte the log unhen shadi byah mein mangne aaya karte the use ashchary hua ki aaj we sab kahan chale gaye uske pas to unmen se ek bhi nahin hai bhai ke pas bhi nahin hai jane kaise isi ghar mein we kahin bila gaye
isi kothari mein baDe balton mein sal sal bhar ke liye anaj bhar kar rakha jata tha ye use bahut purani yaad hai, warna jabse wo haiskul mein pahuncha hai tab se to mahine mahine ka rashan use rashan wale ki dukan mein line laga kar lana paDta tha isi kothari mein upar ek duchhatti bani thi jismen prakritik parkash nam ki koi cheez sar si wi raman ke siddhant ke bawjud kabhi nahin pahunchi iske andar ghusna bhi ek kamal hua karta tha kyonki uska rasta chhat mein ek chaukor surakh kat kar banaya gaya tha aaj to shayad wo usmen ghus nahin sakta han, jab chhota tha, to zarur gehun ke balte par chaDh kar, jo theek us surakh ke niche rakha rahta tha ghus jata tha ye duchhatti kyon banai gai, wo kabhi samajh nahin paya shayad pita ne socha raha ho ki kabhi is ghar mein sone chandi ki inten hui to unhen jatan se chhupa kar rakhna hoga parantu use jin chizon ka dhyan is duchhatti mein hone ka hai wo kuch is prakar theen jaise tute sanduq purane kanastar, khali botalen, purane jute, tute chhate, bans ke Dalwe aadi usne socha, kothari ka darwaza khol kar andar jaye parantu phir tal gaya
isi kothari ki baghal mein ek kamra tha, jise munnu dada wala kamra kaha jata tha kyonki uske chachajad bhai, jinka nam munnu tha, kabhi ismen raha karte the unki sari paDhai likhai, palan poshan, shadi byah sab uske pita ne kiya tha shadi ke baad munnu dada apni patni ke sath isi kamre mein raha karte the un thoDe dinon ke liye is kamre ki huliya badal gai thi anyatha ye khali paDa rahta tha un dinon iski khiDkiyon mein parde lag gaye the andar diwalon par kalenDar tatha any chitr lage the ek kone mein bhabhi ka shrringardan rakha rahta tha do ek mez kursiyan bhi aa gai theen
munnu dada ki shadi, jo isi shahr mein hui thi, muhalle ki kuch nami garami shadiyon mein se ek thi ye isliye tha kyonki unki barat mein hathi ghoDe aadi shamil the DeDh do darjan istri purush hathon mein rangin kaghazon ki jhankiyan lekar chal rahe the, jinmen not chipke the sath hi muhalle se nikalne wali kisi barat mein pahli bar police band aaya tha bhanD aur tawaif bhi theen man ne in sab baton ke liye mana kiya tha parantu pita hathi qim ke adami the, shuddh madhywargiy sanskaron se grast unhonne apne prowiDent phanD se qarz liya tha mahajanon se bhi kuch udhaar liya tha aur jise ghar phoonk tamasha dekhana kahte hain, wahi kiya tha ye sab isliye taki rishte aur muhalle wale koi ye na kah saken ki bhatije ki shadi par jagat babu kanjusi kar gaye parantu ise baad jo mahajanon ka ghar par aane ka silsila shuru hua to pita ki mirtyu ke baad tak samapt nahin hua ek mahajan to unki mirtyu ke tisre chauthe din hi aa dhamka tha kyonki uske pronote ki tarikh nikal rahi thi aur use bhay tha ki kahin unka beta pronote badalne se inkar na kar de
shadi kuch aur maynon mein bhi uske khandan mein mahatw rakhti thi kyonki dwarachar ke samay kisi baat ko lekar munnu dada ne apne sasur ko jhapaD mar diya tha sasur ne to kuch nahin kaha tha parantu laDki walon ki taraf se aur log kafi bigaD gaye the baat lathi banduq tak pahunchi thi akhir kisi tarah se niptara hua aur munnu dada apni dulhan lekar ghar laute
parantu iske baad munnu dada adhik dinon ghar mein nahin rahe unki patni aur uski man mein kuch anban rahne lagi pahle to ghar mein hi do chulhe jale aur tab pahli bar niche ke hisse mein bani kamre se lagi hui rasoi ka istemal hua anyatha jabse makan bana tha, wo khali paDi hui thi parantu ye silsila bhi ziyada dinon nahin chala jaldi hi munnu dada ghar chhoD kar chale gaye aur dhire dhire donon pariwaron mein aana jana tak band ho gaya is ghatna ke das pandrah warshon baad jab wo baDa hua aur holi diwali par usne munnu dada ke yahan aana jana shuru kiya to sambandh ek baad phir se banne lage
wo angan mein khaDa tha isi angan mein shadi byah ke awasron par manDap banaya jata tha uske byah ke samay bhi yahi manDap bana tha aur halanki shadi byah ki rasmon se use intiha darje tak chiDh thi phir bhi tel ubtan wale kuch swangon mein use bhag lena paDa tha
munnu dada wale kamre ki kunDi band thi usne use khola nahin kewal khiDki ke sikhchon se, jismen darwaze nahin the, andar jhank kar dekha andar andhera aur silan thi diwal par geru se swastik sa kuch bana hua tha
kuch der wo isi tarah khiDki ke sinkhche pakDe khaDa raha tab wapas muD gaya bahar dahliz mein aa kar usne niche ke hisse ke darwaze ki kunDi laga di aur siDhiyan chaDhta hua upar aa gaya siDhiyan chaDh raha tha to mombatti ka pighalta hua garm garm mom uski ungli par gir paDa aur wo jal gaya usne mombatti dusre hath mein pakaD li aur jali hui ungli munh mein Dal kar chusne laga aisa karne se use kuch rahat mili
upar pahunchte hi wo ek bar phir Dar gaya uske bistar par ek moti si kali billi baithi thi use dekhte hi wahan se kood kar wo diwal par ja kar baith gai aur wahan se use apni chamakdar ankhon se der tak ghurti rahi usne use bhagaya tabhi wo wahan se hati
ek kshan wo wahin chhat par khaDa raha tab makan ke upar wale bhag ka nirikshan karne laga pahle usne pichhe wale hisse ka kamra khola ye kafi baDa tha parantu log ismen rahte nahin the ziyadatar isse store ka kaam liya jata tha rozmarra istemal hone wala rashan, aata, dal, chawal aadi ismen rakha jata tha ek almari thi, jo tarah tarah ke acharon ke martabanon mein bhari rahti thi rozmarra ke istemal wale bartan bhi isi kamre mein rahte the usi zamane ki lakDi ki ek baDi si sanduq jismen desi ghi ka bartan, tel, masala aadi chuhon se bachane ke liye rakhe jate the ab bhi ek kone mein paDi thi uska upar ka Dhakkan, jo beech se aadha khulta tha, toot gaya tha usne nikat ja kar mombatti ki raushani mein usmen jhank kar dekha, usmen kuch kanDe aur lakDi ke tukDe paDe the
diwal par harchhat ban hai thi ye kaun si dewi hain, wo aaj tak nahin jaan paya man kisi khas din ye puja kiya karti theen jab aata tha, man subah se upwas karke baDi lagan se piDe mein rui bhigo kar diwal par ye chitr ankit karti dewi ka pet chaukor hota charon konon par chhote chhote do pair hote upar nukila barfi numa sir hota pet ke andar man jane kya kya suraj chand, ganga yamuna, soup chalni aadi banatin wo sochta, ye dewi, jinke pet mein sara sansar samaya hota hai, zarur baDi shaktishali hoti hongi phir aaj tak usne unka nam kahin aur kyon nahin suna?
inhin dewi ke sath sath man ek aur chitr banati theen wo bhi kuch isi tarah prakar ka hota tha aur use aise sthan par banaya jata tha ki dewi aur dhoban ek dusre ko dekh na sake hindu samaj mein dhoban ka bhi bahut mahatw hain kyonki use yaad hai ki kisi aur tyauhar par dhoban man ko suhag dene aaya karti theen man kahti theen ki dhoban ka suhag amar hota hai sare sansar ko suhag bantne par bhi uska suhag kam nahin hota magar bawjud iske ki man har warsh dhoban se suhag liya karti theen, aur uske alawa bhi apne suhag ki rakhsha ke liye kitne hi teej tyauhar manati theen, wart rakhti theen, unki mirtyu widhwa hokar hui thi
is kamre ki chhat bhi chuti thi ye to unhin dinon se chuti thi jab wo yahan raha karta tha chhat ki dhanniyan bhi bol gai theen usne mombatti ke parkash mein dekha, diwalon par pani bahne ke nishan the beech ki ek dhanni bhi kafi niche jhuk i thi yahi ek kamra tha jismen pita ne slaib na Dalwa kar dhanniyan Dalwai theen iske pichhe bhi shayad kahin paison ka abhaw tha
kamre se wo uske baghal kothari mein aa gaya, jiski chhat uski naukari lag jane baad paDi thi ismen khana paka karta tha jiski wajah se iski sari diwalen aur chhat dhune se kali paD gai theen bahut dinon tak ismen darwaza bhi nahin tha, jiske karan aksar bandar ismen ghus kar khane pine ka saman utha le jate the baad mein zine ka niche wala darwaza wahan se ukhaDwa kar yahan lagwa diya gaya zine wala darwaza uske baad aaj tak nahin lag saka
kothari se nikal kar chhat par se hota hua wo gali ki taraf wale kamre mein aa gaya, jismen attachi rakhi thi isse mila hua kamra aur tha jo shuru mein kafi chhota tha parantu baad mein uski shadi ke awsar par use toDkar aur baDa kiya gaya wiwah ke baad wo isi kamre mein rahne laga tha rahne to khair pahle se hi laga tha parantu wiwah ke baad ye kamra uska niji kamra ho gaya tha aur uski patni ke alawa shayad hi kabhi koi ismen aata ho patni ka sara saman bhi isi kamre mein rakhne laga tha iska bhi ek darwaza bahar balakni par khulta tha
uske wiwah ke awsar par makan mein is prakar ke chhote mote kai pariwartan hue the jaise upar chhat par jane ke liye siDhiyan bani theen makan mein bijli ka connection liya gaya tha upar gali ki taraf wale donon kamron mein plastar hua tha balakni ki diwal bani thi aur ek bar phir ghar ka ghatta hua qarz dubara baDh gaya tha
is kamre se hota hua wo phir balakni par aa gaya gali mein laga hua bijli ka bulb ab tak bujh chuka tha kewal ek halki chandni gali ke farsh aur makanon ki diwalon par bikhri hui thi ikka dukka kisi kisi ghar mein parkash ho raha tha anyatha ziyadatar makanon ki battiyan gul theen
kafi der tak wo isi tarah khaDa raha gali mein ghatne wali kitni hi chhoti baDi anek ghatnaon, shadi byah, laDai jhagDe prem widroh, janm mirtyu ka wo sakshi tha, sari baten use ek ek kar yaad aa rahi theen kitne aur nae log aa gaye honge kuch ajib si anubhuti mein Duba sammohit sa wo balakni par khaDa raha
thoDi der aise hi khaDe khaDe usne ek cigarette pi tab wahan se hat aaya lautte samay usne balakni ka darwaja band kiya to wo asani se band nahin hua donon palle bhiDa kar use zor se dhakka dena paDa jhatke ki awaz se sath darwaza band ho gaya parantu sath hi Dher sa plastar chhat se toot kar farsh par gir paDa mombatti, jise wo pahle hi bujha chuka tha, usne almari par rakh di aur chhat par aa kar apne bistar par let gaya
is makan ko banwane mein pita arthik roop se toot gaye the aur bar bar tute the parantu yahi makan kai bar unki pareshaniyon mein aaDe bhi aaya tha kai bar use girwi rakh kar unhonne baDe baDe kaam nikale the akhiri bar to ye hath se nikalte nikalte rah gaya tha akhir ise chhuDane ke liye unhen dehat ki sari jayadad bechni paDi thi
lete lete usne anuman lagaya ki iski marammat mein use kitna kharch karna paD sakta hai lagbhag ek hazar rupae wo lekar aaya tha parantu ek hazar mein ek kamre ki slaib paDni bhi mushkil thi jis jarjar haalat ko ye makan pahunch chuka tha, yahan aate samay usne iski kalpana nahin ki thi waise yahan uske bahut se mitr the, jinse zarurat paDne par wo qarz le sakta tha lete lete wo unke bare mein sochne laga
der tak use neend nahin i ek bar to uski ankh qarib qarib lag gai thi parantu tabhi sirhane wali diwal par billi aa kar rone lagi aur uski neend uchat gai
subah uski ankh der se khuli nha dho kar usne kapDe badle aur makan mein tala lagakar bahar nikal aaya wo apne kisi mitr ke yahan ja raha tha parantu usse qarz lene nahin balki makanon ka sauda karane wale kisi dalal ka pata puchhne
chabhi tale mein phansa kar usne use ghumaya to usne ghumne se qati inkar kar diya usne dubara zor lagaya parantu koi parinam nahin nikla apni jeben tatolna shuru kar deen upar wali jeb mein use steel ka baal point pen mil gaya usne use jeb se nikal kar chabhi ke mathe mein bane surakh mein Dal kar, mutthi ki mazbut pakaD mein lekar penchkas ki tarah zor se ghumaya khatak ki ek awaz ke sath tala khul gaya kunDi kholne mein bhi use kafi pareshani hui jin dinon wo yahan rahta tha shayad hi kabhi ye kunDi band hui ho isiliye use hamesha hi band karne aur kholne, donon mein hi, pareshani hoti thi kunDi khol kar usne darwaze mein zor ka dhakka diya darwaze ke palle kafi mote aur bhari the unmen pital ke chhote chhote phool jaDe the, jinmen chhote chhote kaDe lage the, jo darwaza khulne band hone mein ek ajib jalatranganuma awaz karte the darwaza khol kar wo dahliz mein aa gaya ghuste hi usne dekha, farsh par kuch kaghaz aadi paDe the usne jhukkar unhen utha liya do lifafe, ek post card aur ek tah kiya hua kaghaz tha shayad postamain Dal gaya ho, usne socha, usne unke bhejne walon ke nam paDhne chahe parantu wahan parkash bilkul nahin tha aur kuch bhi paDh sakna asambhau tha
usne aage baDh kar jine ke pas ka switch tatola andhere mein switch DhunDhne mein use kuch kathinai hui waise jab wo yahan rahta tha tab kitna hi andhera kyon na ho kabhi aisa nahin hua ki pahli bar mein hi ungli apne aap switch par na pahunch gai ho, use ashchary hua ki switch on karne par bhi parkash nahin hua ho sakta hai zine ka balw fuse ho gaya ho, usne socha tabhi usne ghaur kiya ki niche ka paip zoron se bah raha hai lagbhag ek warsh se makan band tha iske mayne itne dinon se ye paip lagatar bah raha hai usne andar wale darwaze ki kunDi tatoli usmen tala nahin tha attachi usne wahin dahliz mein rakhi rahne di aur kunDi khol kar andar aa gaya andar ka sweech dabane se bhi raushani nahin hui kewal angan mein halki chandni ki barfiyan kati hui theen jo upar lohe ke jangle se chhan kar aa rahi theen
wo wapas dahliz mein aa gaya jahan mein switch laga tha ho sakta hai wahin auph ho, usne socha aur jeb se machis nikal kar uske parkash mein use dekha parantu mein switch on tha zine ka bulb bhi theek hi laga, tabhi use dhyan aaya ki kisi ke bhi na rahne par bijli ka bil itne dinon se ada nahin hua hoga at ho sakta hai bijli company walon ne connection hi kat diya ho tab kya hoga? wo raat kaise katega? dekha jayega, usne socha aur dubara machis jala kar andar aa gaya taki kam se kam paip to band kar de parantu paip mein toti hi nahin thi usmen dana nikle hue maki ke gutte ka tukDa khons kar use kapDe se bandha gaya tha kapDa saD kar phat gaya tha jisse pani bahne laga tha usne use waise hi paDa rahne diya aur attachi hath mein lekar siDhiyan chaDh kar upar ke khanD mein aa gaya
upar chhat par kafi chandni thi chhalle se chabhi khoj kar usne kamre ka tala khola aur andar kamre mein aa gaya yahan ka switch bhi usne on kar ke dekha parantu koi natija nahin nikla attachi ek kinare rakh kar machis jala kar wo idhar udhar dekhne laga tabhi use almari mein ek mombatti dikhayi de gai jise pahle kisi ne jalaya tha usne use jala kar wahin diwal mein bane hue tak mein chipka diya
diwal se lage palang par baithkar usne cigarette jala li aur niche se uthakar laye hue patr dekhne laga pahle usne tah kiye hue kaghaz ko dekha wo bijli ke bil ki final notis thi koi das mahine purani tab usne postakarD dekha unka ek kona phata hua tha usne jaldi jaldi use paDha patr uske nanihal se aaya tha jismen use uske mama ke marne ki suchana di gai thi mama ke wajud ko bhi bhool chuka tha nanihal gaye hue bhi use aath das warsh ho chuke the card wahin khat par Dal kar wo lifafe kholne laga ek kisi shadi ka nimantran tha usne use hi pahle khola kisi ‘rajakumar ki shadi par use bulaya gaya tha usne apni smarn shakti par bahut zor diya parantu use laga ki na to wo kisi rajakumar se parichit hai aur na hi card par chhape kisi any nam se pata sitapur ka tha use dhyan aaya ki sitapur mein uske pita ki bua ke koi sambandhi rahte hain kaun, ye wo nahin janta tha parantu we log zarur usse parichit honge kyonki nimantran usi ke nam se aaya tha aaj se koi aath warsh pahle pita ki pahli barsi par man ke rahne par usne apne sabhi rishtedaron ko bulaya tha unke pate usne tau ke laDke se jo usse umr ke kafi baDa tha, liye the, uske baad se aaj tak wo un logon se nahin mila tha man ke marne ki usne kisi ko bhi suchana nahin di thi is prakar pate to alag, un logon ke chehre bhi wo ab tak bhool chuka tha usne card par chhapi tarikh dekhi wo koi teen mahine purani thi
usne dusra lifafa khola wo uske apne mitr wipin ka tha jo pichhle dinon england chala gaya tha aur wahin kisi angrez laDki se shadi par li thi usne likha tha ki kuch dinon ke liye bahan ki shadi par wo swadesh laut raha hai, wo usse zarur mil le ye patr bhi teen chaar mahine purana tha wipin uska bachpan ka mitr aur sahpathi tha use afsos hua ki wo usse milne se wanchit rah gaya ghalati uski apni thi apne transfar ke bare mein usne wipin ko koi suchana nahin di thi ho sakta hai wipin yahan aaya bhi ho aur ghar mein tala laga dekh kar laut gaya ho
gali ki or ka darwaza kholkar wo balakni par aa gaya ek kone mein ghar ki bekar chizon, jaise khali botalon tuti angithiyon aur kanastron aadi ka Dher laga tha usne baghal mein ek purani balti mein laga tulsi ka ek sukha peD rakha tha jo shayad itne dinon tak pani na milne se sookh gaya tha ye peD uski man ne lagaya tha jab tak wo zinda theen wo roz ismen pani deti theen man ki mirtyu ke baad uski patni aur uske transfar ke baad chhote bhai ki patni ye kaam karti theen ab chhote bhai ka transfar hue bhi ek warsh hone aa raha tha aur is prakar khali ghar mein paDa hua ye peD pani ke abhaw mein sookh gaya tha
wo balakni ki diwar par thoDa jhuk kar cigarette pine laga gali mein bijli ka sarkari bulb jal raha tha parantu kafi sannata tha usne kalai par bandhi hui ghaDi dekhi paune nau hue the abhi se itna sannata! use ashchary hua jab wo yahan tha to raat der tak gali mein raunak rahti thi murli babu ke darwaze ki shatranj to barah baje aur kabhi kabhi uske baad tak chalti thi pata nahin murli babu abhi jiwit hai ya nahin unke ghar ke samne bilkul sannata tha tabhi usne dekha, koi adami cycle liye hue gali mein aa raha tha wo ghaur se dekhne laga gali ke ek ek wekti ko wo pahchanta tha janm se lekar tees battis warsh tak wo isi makan mein raha tha parantu wo koi ajnabi wekti nikla, jise wo pahli bar dekh raha tha wo uske makan se aage ja kar bachchu babu ke makan ke samne ruk gaya cycle gali mein khaDi kar ke usne darwaze ki kunDi khatakhtai god mein bachcha liye hue kisi mahila ne darwaza khola aur wo wekti cycle utha kar andar chala gaya shayad koi kirayedar ho, usne socha
wo dubara andar aa gaya khana wo station mein aate samay hotel mein kha aaya tha raat use makan mein katni thi barish ke din aa gaye the bhai ne makan chhoDte samay use bech dene ka sujhaw rakha tha kyonki wo to mustaqil taur se dusre shahr ka ho gaya tha, bhai ke bhi wapas is shahr mein transfar hone ki koi ummid nahin thi aur phir makan ki haalat din ba din kharab hoti ja rahi thi upar ke kamron ki chhaten chune lagi thi parantu usne bhai ka sujhaw namanjur kar diya tha use usne likh diya tha ki makan khali kar ke chabhi wo use bhijwa de agli barsat se pahle aakar wo uski marammat kara dega isi uddeshy se wo wahan aaya tha
usne dekha, kamre ki do or ki diwaron par pani bahne ke nishan bane the jo shayad abhi tak nam the iske mayne do ek barishen yahan ho chuki hain diwar mein ek jagah crack bhi aa gaya tha
usne chhat par nikal kar mausam ka jayza liya asman saf tha aur hawa mein koi khas thanDak nahin thi usne charpai bahar chhat par nikal li aur aur attachi se dari, chadar aur takiya nikal kar bistar laga liya parantu use neend nahin aa rahi thi na hi letne ki ichha ho rahi thi waise uske pas attachi mein do ek pustken theen, jismen se ek ko usne lagbhag aadha safar mein paDha bhi tha aur wo use aage paDhna chahta tha parantu bijli na hone ke karan diqqat thi mombatti ka parkash kafi nahin tha at usne bistar laga kar kapDe badal liye aur pajama baniyan pahan kar bistar par let gaya thoDi der letne par use laga ki use safar ki kuch thakan hai lete lete hi usne hath pairon ko idhar udhar jhatka aur tab cigarette sulga kar pine laga
pita ne jab ye makan kharida tha tab wo paida bhi nahin hua tha us samay wo kachcha tha baad mein pita ne use tuDwa kar nae sire se pakka banwaya tha us samay wo koi panch chhah warsh ka raha hoga kachche makan ki use bilkul bhi yaad nahin hai parantu jab kachcha makan toot kar naya ban raha tha, us samay ki kuch kuch yaad usko hai samne gali mein inton ke Dher lage rahte the wo un par chaDhkar khela karta ek bar gir bhi gaya tha aur uske sir mein kafi chot aa gai thi, jiska nishan aaj tak uske sir mein hai khachchron par ladkar balu, cement, maurang aadi aaya karti aur wo wahin khaDa khaDa khachchron ko gina karta aur tab ja kar man ko bataya karta ki kitne khachchar aaj aaye halanki khachchron ko wo ghoDe kaha karta tha us samay ghoDe aur khachchar mae farq karne ki tamiz uske pas nahin thi
ek bar, use yaad hai, diwar ya chhat ka koi hissa apne aap toot gaya tha ya toD diya gaya tha aur usne dauD kar man se kaha tha ki naya makan gir paDa hai man ne uski baat sach man li thi aur haDbaDahat mein gali se bahar nikal i theen, un dinon pita ne usi gali mein ek any makan kiraye par le liya tha aur sab log wahin shift kar gaye the aafis se shayad unhonne chhutti le rakhi thi aur nange badan dhoti pahne sara din gali mein khaDe mazduron aur karigron ko adesh dete rahte ya phir baDe baDe registraron mein gumme cement ya mazduron ki mazduri ka hisab likhte rahte
puri gali mein uska makan apne Dhang ka ek bana tha andar dalan mein khambhon ke upar diwar mein phool pattiyon ki jaliyan banai gai theen darwazon ke upar mehrabon tatha raushandanon mein bhi jaliyan kati gai theen halanki jab wo baDa hua to usne apne kamre ke raushandanon ki in jaliyon ko dafti se Dhak diya tha kyonki usse dhool andar bhar jati thi barish mein pani ki bauchhar se un par rakh saman pustken aadi bheeg jati theen iske alawa unhen saf karne mein bhi baDi kathinai hoti thi bahar se sadar darwaze mein to na jane kitni karigari ki gai theen purane zamane mein mandiron jaisi mehrab bani theen uske andar donon aur ardh golakar shakl mein baDi baDi machhliyan bani theen, jinke beech ek baDe se taq mein ganeshji ki murti bani thi baad mein usi ganeshji ki murti ke upar gaurauyan apne ghonsle banane lagi theen pita jab tak jiwit rahe, unhonne ye ghonsle kabhi nahin banne diye jab bhi unki nigah jati, we ghonsla ukhaD kar phenk dete parantu unki mirtyu ke baad to chiDiya unme anDe bachche bhi dene lagin darwaze ke donon or khambhe banaye gaye the, jinmen phool pattiyan, dew aur kinnariyon ki murtiyan aadi kati gai thi darwaze ki chaukhat mein bhi, jo khasi chauDi thi, kafi karigari ki gain theen darwaze par ganeshji ki muti ke niche pita ne uska nam likhwa diya tha shankar niwas aisa shayad unhonne isliye kiya ki us samay uske aur chhote bhai nahin the andar dahliz mein cement ke farsh par sorahi bani thi is baat ko lekar pitaji ke mitr aksar aapas mein mazak kiya karte the ki jagat babu ne sorahi isliye banwai ki miyan biwi baith kar aapas mein khela karenge uske baad man bap ne kabhi khela ya nahin, wo nahin janta, parantu wo zarur chhutpan mein apne doston ke sath wahan baith ki sorahi khela karta tha
ye sab to bana tha, parantu us samay makan kai mamlon mein adhura rah gaya tha upar ke kisi bhi hisse mein plastar nahin hua tha ek chhote kamre ki chhat bhi nahin paDi thi angan mein jangla nahin laga tha bahar sadar darwaze mein palle nahin lage the upar timanzile par jane ke liye siDhi nahin bani thi samne balakni ki diwar nahin bani thi chhat se aane wali kisi bhi nali mein paip nahin laga tha ye sab shayad isliye rah gaya tha, kyonki pita ke pas paison ki kami paD gai thi kafi dinon tak ye isi tarah paDa raha phir kuch pita ji ke retire hone par pura hua aur kuch uski naukari lag jane ke baad waise kuch chizen aaj bhi adhuri hi paDi hain
ekayek wo Dar gaya wichitr se koi do pakshi kahin se aa kar uski khat ke upar manDrane lage the aur tab we samne wali duchhatti ki chhat ke patron ke beech kisi surakh ke ghus gaye use samajhne mein kuch der lagi ki we chamgadaD the uska dil achanak tezi se dhaDakne laga wo uthkar baitha gaya aur usne nai cigarette jala li
pahli bar ye chamgadaD jab pitaji jiwit the, tab aaye the aur inhin dhanniyon mein kahin ghuse the pita ne dusre din hi dhanniyon ke niche neem ki Dher sari pattiyan jala kar dhuna kiya tha aur tab cement maurang se unmen bane hue sare surakh band kar diye the man ne shayad uske agle itwar ko satyanarayan ki katha bhi karwai thi uske baad chamgadaD dubara nahin dikhai diye the ab shayad we sthari roop se yahan rahne lage the tabhi we phir nikal aaye is bar chaar the kafi der we angan mein hi idhar udhar uDte rahe phir chhat ke upar akash mein kahi chale gaye
usne ghaur kiya, niche ka paip abhi bah raha tha bahar ke darwaze bhi, use dhyan aaya, usne band nahin kiye the andar kamre mein ja kar usne dubara mombatti jalai aur jalti mombatti lekar wo niche utar aaya bahar ke darwaze khule hue the usne unhen bheD kar andar se kunDi laga di tab andar ka darwaza khol kar mombatti paip ke pas bani chhoti si diwar par rakh kar idhar udhar koi kapDa khojne laga ek kone mein use phata hua koi kapDa mil gaya shayad koi purani baniyan thi usi se usne ek lambi patti si nikali aur mudde ki khukhri ko paip mein khons kar use kapDe se kasne laga pani girna bilkul band to nahin hua, parantu kafi kam ho gaya
wo wapas upar aane laga, tabhi dhyan aaya ki bahar ka darwaza itni der khula paDa raha hai, ho sakta hai, koi andar ghus kar baith gaya ho wo ek bar phir Dar gaya parantu usne ye soch kar apne man ko tasalli di ki is wiran ghar mein koi kyon ghusega phir bhi usne tay kiya ki wo ek bar sare ghar ko dekh ayega mombatti abhi kafi shesh thi kam se kam adhek ghante wo jal sakti thi, usne anuman lagaya aadhi siDhiyon se hi wo wapas niche utar aaya pahle usne bahar ka kamra khola ise pahle, jab sab log yahan rahte the, to darwaze wala kamra kaha jata tha jab tak wo inter mein nahin pahuncha tha, tab tak ye kamra uske pita ke kabze mein tha unhonne ismen ek takht, ek chhoti mez aur do chaar kursiyan Dal rakhi theen diwalon par dewi dewtaon ke chitr laga rakhe the almariyon mein unke matlab ki anek wastuen, jaise rinch, hathauDi, plas, shatranj ki bisat aur mohre aadi rakhe rahte atishdan ke upar kapDe ke do baston mein unki pustken aadi bandhi rakhi rahtin ek kapDe mein bhagwat, mahabharat, ramayan aadi rahtin, dusre mein alfalaila, gulasnobar aadi
isi kamre mein pita apne milne walon ke sath baith kar baten kiya karte the diwali par mez kursi aadi sab andar hata di jatin farsh par dari aur chadar bichha di jati aur lakshmi pujan ke baad se teen din tak lagatar flash kheli jati adhiktar to gali ke log hi rahte waise kabhi kabhi bahar ke log, pita ke aafis ke sahyog aadi bhi aa jate, wo bhi aksar raat mein pita ke lakh mana karne ke bawjud aa kar wahin baith jata kabhi kabhi raat bhar baitha rahta, kyonki pita aur unke any mitr baji jitne se use paise diya karte the raat bhar mein wo do teen rupae ki rezgari jama kar leta
parantu jab wo inter mein pahuncha, to pita apna saman anyatr utha le gaye main is baat ko lekar usmen aur pita mein kafi sangharsh chala pita kahte—saman wahin rakha rahne do, tumhara kya lega! parantu wo apne kamre mein rinch, hathauDi aadi rakhne ke liye qati taiyar nahin tha akhir pita ne haar man li aur usne kamre par apna adhikar jama liya uske aane ke kuch dinon ke andar hi kamre ki huliya bilkul badal gai atishdan par naqli phulon ke guldaste lag gaye dewi dewtaon ke chitron ke sthan par film staron ke chitr aur seen sinariyan lag gai almari mein rinch aur plas ki jagah jyomitri aur aljebara ki pustken saj gain baad mein wo isi kamre mein takht par sone bhi laga aksar chhattiyon wale din wo apna khana bhi wahin manga leta kabhi chhota bhai de jata, kabhi man
is kamre mein rahte hue use jiwan ki wo pahli anubhuti hui thi jise kishor prem kaha jata hai un dinon wo b e priwiyas mein paDha karta tha samne wale makan mein ek nae kirayedar aaye the nae kya kafi dinon se wahan rah rahe the purush aar em s mein kaam karta tha wo, uski patni, ek chhota bachcha aur uski kishor bahan, jiska asli nam to wo aaj bhool gaya hai parantu ghar mein use bitti kaha karte the, us makan mein rahte the bitti ki aayu pandrah solah ki rahi hogi uski ankhen kafi baDi aur khubsurat theen badan bhara hua aur akarshak tha
achanak ek din usne ghaur kiya ki jab wo apne kamre mein baith kar paDhta likhta to bitti apni khiDki par khaDi ho kar use dekha karti use kuch wichitr si anubhuti hui thi baad mein usne apni mez ghuma kar is prakar laga li ki bilkul uski khiDki ke samne paDti aksar donon ek dusre ko der tak dekhte rahte phir pata nahin kab aur kaise bitti uske ghar bhi aane lagi, uski man ke pas do ek bar aisa bhi hua ki siDhiyon par chaDhte utarte donon ek dusre se mil gaye jaan boojh kar to nahin, han anjane mein ek aadh bar donon ke sharir bhi chhu gaye un dinon wo shaili aur keets paDha karta tha aur prem ki ek bahut hi adarshawadi kalpana uske dimagh mein thi pure ek warsh tak aisa raha ki jab bhi wo uniwersity se laut kar aata, wo apni khiDki par khaDi rahti parantu donon mein kabhi koi baat nahin hui man ke samne zarur ek aadh bar inDayrekt Dhang se kuch baat hui parantu koi khas nahin han, ek bar zarur ek ghatna hui thi jiski yaad aaj bhi use halka sa kahin gudguda jati hai raat koi gyarah baje honge wo batti bujha kar leta hi tha ki darwaze par ek halki si dastak hui usne uth kar darwaza khola to dekha, bitti khaDi thi darwaza khulne ke sath hi wo andar aa gai aur chupchap khamosh khaDi ho gai uski samajh mein nahin aaya kya baat kare? tabhi usne puchha—kya baat hai?
bitti phir bhi khamosh rahi tab boli—apke pas enasin to nahin hai bhaiya bhabhi picture gaye hain mere sir mein bahut dard ho raha hain
—enasin? mere pas to nahin hai kaho to bahar se la doon usne kaha bitti phir kuch der ke liye khamosh ho gai tab boli—nahin, rahne dijiye aur chupchap wapas laut gai
uske jane ke baad use ehsas hua ki bitti shayad enasin ke liye nahin i thi wo kuch aur kahna chahti thi baton ke beech ki khamoshi ne shayad usse kuch kaha bhi tha parantu wo samajh nahin saka tha apni is murkhata par use bahut afsos hua tha us sari raat wo so nahin saka tha intizar karta raha tha ki shayad bitti phir aaye parantu wo nahin i yahi nahin, iske baad kai dinon tak wo apni khiDki par bhi nahin dikhai di
ghatna ke kuch dinon baad hi bitti ka wiwah ho gaya aur wo guDiya ki tarah saj kar apni sasural chali gai wahan se lautne ke baad ek do bar wo zarur apni khiDki par dikhai di uske ghar bhi i parantu tabhi uske bhai ka transfar kahin aur ho gaya aur we log makan chhoD kar chale gaye un logon ke jane ke kafi dinon baad tak use bitti ki yaad aati rahi uska man kisi kaam mein na lagta ghanton wo paDhne ki mez par baith kaghaz par bitti ka nam likha karta uski sasural isi shahr mein thi aksar wo cycle le kar udhar se chakkar bhi kata karta parantu bitti use nahin mili han, ek aadh bar bazar aadi mein usne use apne pati ke sath idhar udhar aate jate dekha mahinon is tarah bitti ka khayal use satata raha use lagta, jaise uski apni sabse qimti cheez kisi ne usse chheen li hain parantu dhire dhire sab kuch phir samany ho gaya
mombatti lekar usne kamre mein prawesh kiya wahan kafi gard aur kuDa tha takht ab bhi apni jagah paDa tha mez kursiyan shayad bhai apne sath le gaya tha almariyan bhi khali paDi theen kewal atishdan ke upar ganesh lakshmi ki mitti ki purani murtiyan rakhi theen, jinka rang uD chuka tha diwalon par kuch chitr bhi lage the ek chitr aath deshon ke rashtra nirmataon, lenin, ho chi minh, gandhi, sukon, mao aadi ka tha jise usne kabhi kisi patrika se kat kar swayan maDha tha chitron ka use wishesh shauq tha apne aap wo unhen chhathe athwen mahine nikala badla karta tha parantu ye chitr kafi purana tha ise usne baad mein kabhi kyon nahin badla, iska koi karan uske pas nahin tha
diwalon mein jagah jagah lona lagne laga tha almariyon ki chaukhat mein kai jagah dimak lag gai thi dain taraf wali diwal mein kafi silan thi ye silan bahut purani thi iska karan tha myunispailti ka paip, jo bahar gali mein uski diwal se mil kar laga hua tha jin dinon wo is kamre mein raha karta tha, ye paip elarm ka kaam deta tha railway wale radhe chacha apna lohe ka purana kaDedar Dol lekar theek saDhe chaar baje paip par pahunch jote or ganga baDi ki godawari ki tirath raj prayag, sabse baDi ayodhya jahan ram leen autar ka alap itni zor se khinchte ki kanon mein rui khons kar sone wala wekti bhi soya nahin rah sakta tha is alap ke sath hi apne sir par pani ki pahli dhaar apne Dhai kilo wale pital ke lote se Dalte aur har har gange mahadew ki sam par utar aate
is paip ki hi wajah se uske bahar wale chabutre ka kafi plastar ukhaD gaya tha kyonki aksar log us par kapDe chhantane ka kaam karte the kuch log to baqayda sabun laga kar phachaphach dhobi ghat khol dete pita jab tak jiwit rahe, agar kabhi kisi ko aisa karte dekh lete, to kafi sakht sust suna kar usse turant chabutara ghulwa kar dubara kabhi aisa na karne ki kaDi takid kar dete parantu unki mirtyu ke baad to wahan baqayda dhobi ghat ban gaya tha aur aksar log kapDe chhantane ke baad bina use dhoe hi sabun ka jhag wahan chhoD kar chale jate
usne aage baDh kar diwal ko dahine hath ki tarjani se chhua to lal chune ka Dher sa musmusa plastar apni jagah gir paDa jane kiske kahne par pita ne is kamre mein lal chune ka plastar karaya tha kewal diwalon tak chhat aur farsh cement ke the balki chhat mein khasi phool pattiyan banai gai theen, jinke beech baDe baDe lohe ke kaDe latkaye gaye the in kaDon ko hath se khinchne wala pankha lagane ke liye lagaya gaya tha pita ki kafi sadh thi ki wo pankha lag jaye parantu unke jiwan mein unki ye sadh puri na ho saki makan banwane mein hi kafi qarz unke upar ho gaya tha jisse wo jiwan bhar ubar nahin pae the
kamre se bahar nikal kar usne uske darwaze ki kunDi laga di aur dahliz se hota hua andar dalan mein aa gaya andar do dalanen theen ek dusre se nabbe ansh ka kon banati hui pahli dalan chhoti thi ismen ek okhli bani hui thi, jismen man kabhi kabhi dal waghairah kuta karti theen waise is dalan ka koi khas upyog nahin tha siway jute chappal utarne ke, ya indhan rakhne ko ya phir jab wo inter mein pahuncha tha aur pahli bar ghar mein ek purani nilami ki cycle i thi, uske rakhne han, ismen mili hui dusri dalan ka, jo apekshakrit kafi baDi thi, baDa wiwidh upyog hota tha shadi byah ke mauqon par ismen aurton ka gana bajana, ratjage aur swang hote the isi mein logon ko khana khilaya jata tha garmi ke dinon mein ghar ke log yahin dopahri kata karte the kyonki dhoop yahan jaDa, garmi, barsat kabhi nahin aati theen isi dalan mein uske chhote bhai ka janm aur pita ki mirtyu hui thi yahin farsh par uske pita ki lash bees ghante tak rakhi rahi thi aur usne sari raat uske baghal mein baith kar jagte hue bitai thi
is dalan se mili hui ek chhoti kothari thi, jiske andar din mein bhi andhera rahta tha us ke andar ek baDi almari thi tatha diwal mein ek or lakDi ke do baDe baDe tanD bane the in tanDon par un dinon na jane kitne bartan, pital ki baDi baDi paraten, batue, balte, kaDhaiyan, thali, lote aadi bhare rahte the log unhen shadi byah mein mangne aaya karte the use ashchary hua ki aaj we sab kahan chale gaye uske pas to unmen se ek bhi nahin hai bhai ke pas bhi nahin hai jane kaise isi ghar mein we kahin bila gaye
isi kothari mein baDe balton mein sal sal bhar ke liye anaj bhar kar rakha jata tha ye use bahut purani yaad hai, warna jabse wo haiskul mein pahuncha hai tab se to mahine mahine ka rashan use rashan wale ki dukan mein line laga kar lana paDta tha isi kothari mein upar ek duchhatti bani thi jismen prakritik parkash nam ki koi cheez sar si wi raman ke siddhant ke bawjud kabhi nahin pahunchi iske andar ghusna bhi ek kamal hua karta tha kyonki uska rasta chhat mein ek chaukor surakh kat kar banaya gaya tha aaj to shayad wo usmen ghus nahin sakta han, jab chhota tha, to zarur gehun ke balte par chaDh kar, jo theek us surakh ke niche rakha rahta tha ghus jata tha ye duchhatti kyon banai gai, wo kabhi samajh nahin paya shayad pita ne socha raha ho ki kabhi is ghar mein sone chandi ki inten hui to unhen jatan se chhupa kar rakhna hoga parantu use jin chizon ka dhyan is duchhatti mein hone ka hai wo kuch is prakar theen jaise tute sanduq purane kanastar, khali botalen, purane jute, tute chhate, bans ke Dalwe aadi usne socha, kothari ka darwaza khol kar andar jaye parantu phir tal gaya
isi kothari ki baghal mein ek kamra tha, jise munnu dada wala kamra kaha jata tha kyonki uske chachajad bhai, jinka nam munnu tha, kabhi ismen raha karte the unki sari paDhai likhai, palan poshan, shadi byah sab uske pita ne kiya tha shadi ke baad munnu dada apni patni ke sath isi kamre mein raha karte the un thoDe dinon ke liye is kamre ki huliya badal gai thi anyatha ye khali paDa rahta tha un dinon iski khiDkiyon mein parde lag gaye the andar diwalon par kalenDar tatha any chitr lage the ek kone mein bhabhi ka shrringardan rakha rahta tha do ek mez kursiyan bhi aa gai theen
munnu dada ki shadi, jo isi shahr mein hui thi, muhalle ki kuch nami garami shadiyon mein se ek thi ye isliye tha kyonki unki barat mein hathi ghoDe aadi shamil the DeDh do darjan istri purush hathon mein rangin kaghazon ki jhankiyan lekar chal rahe the, jinmen not chipke the sath hi muhalle se nikalne wali kisi barat mein pahli bar police band aaya tha bhanD aur tawaif bhi theen man ne in sab baton ke liye mana kiya tha parantu pita hathi qim ke adami the, shuddh madhywargiy sanskaron se grast unhonne apne prowiDent phanD se qarz liya tha mahajanon se bhi kuch udhaar liya tha aur jise ghar phoonk tamasha dekhana kahte hain, wahi kiya tha ye sab isliye taki rishte aur muhalle wale koi ye na kah saken ki bhatije ki shadi par jagat babu kanjusi kar gaye parantu ise baad jo mahajanon ka ghar par aane ka silsila shuru hua to pita ki mirtyu ke baad tak samapt nahin hua ek mahajan to unki mirtyu ke tisre chauthe din hi aa dhamka tha kyonki uske pronote ki tarikh nikal rahi thi aur use bhay tha ki kahin unka beta pronote badalne se inkar na kar de
shadi kuch aur maynon mein bhi uske khandan mein mahatw rakhti thi kyonki dwarachar ke samay kisi baat ko lekar munnu dada ne apne sasur ko jhapaD mar diya tha sasur ne to kuch nahin kaha tha parantu laDki walon ki taraf se aur log kafi bigaD gaye the baat lathi banduq tak pahunchi thi akhir kisi tarah se niptara hua aur munnu dada apni dulhan lekar ghar laute
parantu iske baad munnu dada adhik dinon ghar mein nahin rahe unki patni aur uski man mein kuch anban rahne lagi pahle to ghar mein hi do chulhe jale aur tab pahli bar niche ke hisse mein bani kamre se lagi hui rasoi ka istemal hua anyatha jabse makan bana tha, wo khali paDi hui thi parantu ye silsila bhi ziyada dinon nahin chala jaldi hi munnu dada ghar chhoD kar chale gaye aur dhire dhire donon pariwaron mein aana jana tak band ho gaya is ghatna ke das pandrah warshon baad jab wo baDa hua aur holi diwali par usne munnu dada ke yahan aana jana shuru kiya to sambandh ek baad phir se banne lage
wo angan mein khaDa tha isi angan mein shadi byah ke awasron par manDap banaya jata tha uske byah ke samay bhi yahi manDap bana tha aur halanki shadi byah ki rasmon se use intiha darje tak chiDh thi phir bhi tel ubtan wale kuch swangon mein use bhag lena paDa tha
munnu dada wale kamre ki kunDi band thi usne use khola nahin kewal khiDki ke sikhchon se, jismen darwaze nahin the, andar jhank kar dekha andar andhera aur silan thi diwal par geru se swastik sa kuch bana hua tha
kuch der wo isi tarah khiDki ke sinkhche pakDe khaDa raha tab wapas muD gaya bahar dahliz mein aa kar usne niche ke hisse ke darwaze ki kunDi laga di aur siDhiyan chaDhta hua upar aa gaya siDhiyan chaDh raha tha to mombatti ka pighalta hua garm garm mom uski ungli par gir paDa aur wo jal gaya usne mombatti dusre hath mein pakaD li aur jali hui ungli munh mein Dal kar chusne laga aisa karne se use kuch rahat mili
upar pahunchte hi wo ek bar phir Dar gaya uske bistar par ek moti si kali billi baithi thi use dekhte hi wahan se kood kar wo diwal par ja kar baith gai aur wahan se use apni chamakdar ankhon se der tak ghurti rahi usne use bhagaya tabhi wo wahan se hati
ek kshan wo wahin chhat par khaDa raha tab makan ke upar wale bhag ka nirikshan karne laga pahle usne pichhe wale hisse ka kamra khola ye kafi baDa tha parantu log ismen rahte nahin the ziyadatar isse store ka kaam liya jata tha rozmarra istemal hone wala rashan, aata, dal, chawal aadi ismen rakha jata tha ek almari thi, jo tarah tarah ke acharon ke martabanon mein bhari rahti thi rozmarra ke istemal wale bartan bhi isi kamre mein rahte the usi zamane ki lakDi ki ek baDi si sanduq jismen desi ghi ka bartan, tel, masala aadi chuhon se bachane ke liye rakhe jate the ab bhi ek kone mein paDi thi uska upar ka Dhakkan, jo beech se aadha khulta tha, toot gaya tha usne nikat ja kar mombatti ki raushani mein usmen jhank kar dekha, usmen kuch kanDe aur lakDi ke tukDe paDe the
diwal par harchhat ban hai thi ye kaun si dewi hain, wo aaj tak nahin jaan paya man kisi khas din ye puja kiya karti theen jab aata tha, man subah se upwas karke baDi lagan se piDe mein rui bhigo kar diwal par ye chitr ankit karti dewi ka pet chaukor hota charon konon par chhote chhote do pair hote upar nukila barfi numa sir hota pet ke andar man jane kya kya suraj chand, ganga yamuna, soup chalni aadi banatin wo sochta, ye dewi, jinke pet mein sara sansar samaya hota hai, zarur baDi shaktishali hoti hongi phir aaj tak usne unka nam kahin aur kyon nahin suna?
inhin dewi ke sath sath man ek aur chitr banati theen wo bhi kuch isi tarah prakar ka hota tha aur use aise sthan par banaya jata tha ki dewi aur dhoban ek dusre ko dekh na sake hindu samaj mein dhoban ka bhi bahut mahatw hain kyonki use yaad hai ki kisi aur tyauhar par dhoban man ko suhag dene aaya karti theen man kahti theen ki dhoban ka suhag amar hota hai sare sansar ko suhag bantne par bhi uska suhag kam nahin hota magar bawjud iske ki man har warsh dhoban se suhag liya karti theen, aur uske alawa bhi apne suhag ki rakhsha ke liye kitne hi teej tyauhar manati theen, wart rakhti theen, unki mirtyu widhwa hokar hui thi
is kamre ki chhat bhi chuti thi ye to unhin dinon se chuti thi jab wo yahan raha karta tha chhat ki dhanniyan bhi bol gai theen usne mombatti ke parkash mein dekha, diwalon par pani bahne ke nishan the beech ki ek dhanni bhi kafi niche jhuk i thi yahi ek kamra tha jismen pita ne slaib na Dalwa kar dhanniyan Dalwai theen iske pichhe bhi shayad kahin paison ka abhaw tha
kamre se wo uske baghal kothari mein aa gaya, jiski chhat uski naukari lag jane baad paDi thi ismen khana paka karta tha jiski wajah se iski sari diwalen aur chhat dhune se kali paD gai theen bahut dinon tak ismen darwaza bhi nahin tha, jiske karan aksar bandar ismen ghus kar khane pine ka saman utha le jate the baad mein zine ka niche wala darwaza wahan se ukhaDwa kar yahan lagwa diya gaya zine wala darwaza uske baad aaj tak nahin lag saka
kothari se nikal kar chhat par se hota hua wo gali ki taraf wale kamre mein aa gaya, jismen attachi rakhi thi isse mila hua kamra aur tha jo shuru mein kafi chhota tha parantu baad mein uski shadi ke awsar par use toDkar aur baDa kiya gaya wiwah ke baad wo isi kamre mein rahne laga tha rahne to khair pahle se hi laga tha parantu wiwah ke baad ye kamra uska niji kamra ho gaya tha aur uski patni ke alawa shayad hi kabhi koi ismen aata ho patni ka sara saman bhi isi kamre mein rakhne laga tha iska bhi ek darwaza bahar balakni par khulta tha
uske wiwah ke awsar par makan mein is prakar ke chhote mote kai pariwartan hue the jaise upar chhat par jane ke liye siDhiyan bani theen makan mein bijli ka connection liya gaya tha upar gali ki taraf wale donon kamron mein plastar hua tha balakni ki diwal bani thi aur ek bar phir ghar ka ghatta hua qarz dubara baDh gaya tha
is kamre se hota hua wo phir balakni par aa gaya gali mein laga hua bijli ka bulb ab tak bujh chuka tha kewal ek halki chandni gali ke farsh aur makanon ki diwalon par bikhri hui thi ikka dukka kisi kisi ghar mein parkash ho raha tha anyatha ziyadatar makanon ki battiyan gul theen
kafi der tak wo isi tarah khaDa raha gali mein ghatne wali kitni hi chhoti baDi anek ghatnaon, shadi byah, laDai jhagDe prem widroh, janm mirtyu ka wo sakshi tha, sari baten use ek ek kar yaad aa rahi theen kitne aur nae log aa gaye honge kuch ajib si anubhuti mein Duba sammohit sa wo balakni par khaDa raha
thoDi der aise hi khaDe khaDe usne ek cigarette pi tab wahan se hat aaya lautte samay usne balakni ka darwaja band kiya to wo asani se band nahin hua donon palle bhiDa kar use zor se dhakka dena paDa jhatke ki awaz se sath darwaza band ho gaya parantu sath hi Dher sa plastar chhat se toot kar farsh par gir paDa mombatti, jise wo pahle hi bujha chuka tha, usne almari par rakh di aur chhat par aa kar apne bistar par let gaya
is makan ko banwane mein pita arthik roop se toot gaye the aur bar bar tute the parantu yahi makan kai bar unki pareshaniyon mein aaDe bhi aaya tha kai bar use girwi rakh kar unhonne baDe baDe kaam nikale the akhiri bar to ye hath se nikalte nikalte rah gaya tha akhir ise chhuDane ke liye unhen dehat ki sari jayadad bechni paDi thi
lete lete usne anuman lagaya ki iski marammat mein use kitna kharch karna paD sakta hai lagbhag ek hazar rupae wo lekar aaya tha parantu ek hazar mein ek kamre ki slaib paDni bhi mushkil thi jis jarjar haalat ko ye makan pahunch chuka tha, yahan aate samay usne iski kalpana nahin ki thi waise yahan uske bahut se mitr the, jinse zarurat paDne par wo qarz le sakta tha lete lete wo unke bare mein sochne laga
der tak use neend nahin i ek bar to uski ankh qarib qarib lag gai thi parantu tabhi sirhane wali diwal par billi aa kar rone lagi aur uski neend uchat gai
subah uski ankh der se khuli nha dho kar usne kapDe badle aur makan mein tala lagakar bahar nikal aaya wo apne kisi mitr ke yahan ja raha tha parantu usse qarz lene nahin balki makanon ka sauda karane wale kisi dalal ka pata puchhne
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1960-1970) (पृष्ठ 46)
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