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दस चिड़ियाँ आती थींऔर आज जब प्रायश्चित कर रहा हूँ
दस दरवाज़े हैं इस घर मेंकम नहीं हैं झरोखे भी
पहरा देते नव राजाऔर साथ में दस परिचारिका
उद्धव!मन दस-बीस नहीं होते।
करने पर भी आने लगी शर्मदस रुपए में तो मामू की चाय की दुकान पर
लाऊग लग रहा हैचाउर राँधने वाले हाथ
अब प्रेमियों के चेहरे परवह नमक कहाँ
डर कहीं और थामैं कहीं और डर रहा था
सूखासूखा खदेड़ रहा है परदेश
यह पुकार की बेकली थीकि पत्तों के पुल से ही
एकतारा का तार तोसुरों से बँधा है
मैं बहुत दूर से थका-हरा आया हूँ।मुझे प्रश्रय दो कुमाऊँ
एक बार फिर तुम्हारीबुंदेली धरती का
यह शहर मेरे लिएचौदह बरस पुराना है
यह पहली बार मेरी ज़बान परआई थी माई के दूध की तरह
जिसने भी विदा लीफिर आने को कह गया
कभीकाटे नहीं कटती
बहुत चुप होइसलिए
बच्चे को मुस्कराते देखमुझे याद हो आया
आज धुआँ उठ रहा है।”मैं दस अगस्त 65 से दस अगस्त 75 तक,
जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली
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