अख़बार की नौकरी के दस वर्ष
akhbar ki naukari ke das warsh
मैंने ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी को
बीच से खोला और उसमें
बैठकर ऊँघता बीड़ी पीता रहा,
कि ऊपर के पृष्ठ उलट गए।
अचानक दस साल बाद आज,
धूल झाड़कर घड़ी ने पृष्ठ पलटे तो
‘जे’ वर्णमाला के बीच ‘मैं’ नहीं था,
मेरी त्वचा, सफ़ेद ख़ून
पंख, बालदार सूँड़ और छह पाँव
सिर्फ़ कहानी थे
वहाँ मैं नहीं, एक दाग़ था।
मैं अपनी नस्ल का संस्मरण मात्र रह गया, लो मुझसे पेज तक बिगड़ गया।
घड़ी ने मुझसे कहा—
“दस साल पहले तू यहाँ ‘चारमीनार’ पी रहा था,
आज धुआँ उठ रहा है।”
मैं दस अगस्त 65 से दस अगस्त 75 तक,
दस फ़ुट के कमरे में दस करोड़ साल तक,
काँटेदार तार पर टहलता रहा,
चलता रहा, दौड़-दौड़ कर थकता-गिरता रहा।
थकान का चरमोत्कर्ष छलाँग था।
मैं चूर-चूर होकर वेल्श पर उछला
स्कॉटिश से टकराया।
मैंने चाहा कि उछलकर,
कपाल की चोट से छत तोड़ दूँ!
यदि नहीं टूटी वह तो मैं टूट जाऊँगा।
मुझे मेरा अस्तित्व धोखा दे गया।
इरादा बुलंद था,
इसलिए क़द ओछा रह गया।
मैं एंग्लो सेक्सन अंतरिक्ष में,
संपर्कहीन उपग्रह-सा भिनभिनाता रहा,
काग़ज़ पर टूटी निब-सा पिनपिनाता रहा।
लेकिन कमरे में धूप नहीं आई,
हवा नहीं आई, धूल नहीं आई,
बौछार नहीं आई,
दरवाज़ा नहीं खुला।
बाहर से कुंडी बंद थी,
अंदर से मैं क्या करता!
सपने की खिड़की दिन की तरह ठस्स हो गई।
मुझसे मेरा अनुवाद नहीं हो सका,
दुनिया का क्या होता।
मुक्ति के सपने बुनता रहा,
वादों के विवाद में बरबाद तो हुआ,
सार्थक शब्दार्थ नहीं हो सका।
मैं शब्द की चिंता में निःशब्द कफ-सा घुलता रहा।
मैंने स्वर को बुलाया, वह बला टाल रहा था,
व्यंजन को हाँका, वह छुट्टा भाग रहा था,
सामने आ-आकर अक्षर, आँख मार रहा था,
मैं वाक्य पर सवारी क्या करता,
वह नमकहराम दुलत्ती मार रहा था।
कभी मैटर-सा घटता रहा,
की रैली की गैली बचता रहा।
पूरा तो कभी नहीं पड़ा।
मैं बार-बार कंपोज़ हुआ,
पर पूरा का पूरा पेज़ पाई हो गया।
मैं रात भर जागता रहा
अनुवाद की पोखर में नाक तक ऊबता रहा
कविता के इंजेक्शन लगाकर
भाषण की मिर्गी
वक्तव्यों के दौर झेलता रहा,
लेकिन सुबह 35 पैसे में मुड़ा-तुड़ा
उछालकर जब लोगों के तकियों पर गिरा
तो आँख मलती आँखों ने पेज पलटे
हैड लाइन की चुस्की ली
और कोने में पटक कर करवट ली
‘आज कोई ख़बर नहीं है’
दस साल तक इस ख़बर से
ख़ुद को ख़बरदार करता रहा।
बस, अब बहुत हुआ।
हमारी चोट के फुत्कार से
दीवार का चूना झड़ रहा है,
फ़र्श का त्वचा बिजली-सा तड़क रहा है,
छत का गर्डर हिल रहा है,
बस, अब बहुत हुआ।
यह कमरा अब गिरा तब गिरा,
यानी हमने इसे अभी-अभी गिराया।
यह लो मैं बाहर आया।
बंद कुंडी वाला दरवाज़ा
सूखी ठोकरों ने ढहा दिया,
खिड़की का कलेजा दरका दिया।
दस साल तक रॉन्ग फौंट
रहने के बाद
आज करेक्शन लगा रहा हूँ
पेज बना रहा हूँ
स्याही छुटा रहा हूँ
यहाँ मन भर धूप है
साँस भर हवा है
कमर तक वर्षा है
टखने-टखने धूल है
यहाँ मैं जीवित हूँ
मैं दीवारें ढहा रहा हूँ
छत को आकाश बना रहा हूँ
फ़र्श पर हल चला रहा हूँ।
- पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 40)
- रचनाकार : इब्बार रब्बी
- प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
- संस्करण : 2012
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