प्रान वही जु रहै रिझि वा पर
pran wahi ju rahai rijhi wa par
प्रान वही जु रहै रिझि वा पर रूप वही जिहि वाहि रिझायौ।
सीस वही जिन वे परसे पद अंक वही जिन वा परसायौ॥
दूध वही जु दुहायौ री वाही दही सु सही जु वही ढरकायौ।
और कहाँ लौ कहौं रसखानि री भाव वही जु वही मन भायौ॥
कोई गोपी अपनी सखी से कहती है कि वे ही प्राण हैं जो कृष्ण पर रीझ जाए, वही रूप है जो कृष्ण को रिझा ले। वही सिर है जो कृष्ण के चरणों का स्पर्श करे, हृदय वही है जिसने कृष्ण का स्पर्श किया गया हो। वही दूध है जो कृष्ण ने दुहा है, वही दही है जो उसने बिखेरी है। रसखान कहते हैं कि और कहाँ तक कहूँ, भाव भी वही है जो कृष्ण को अच्छा लगता है। कहने का अभिप्राय यह है कि इंद्रियो की और भावों की सार्थकता तभी है जब वे कृष्ण को या तो अपनी ओर आकृष्ट कर सकें, अथवा उसकी ओर आकृष्ट हो जाए।
- पुस्तक : रसखान ग्रंथावली सटीक (पृष्ठ 236)
- रचनाकार : प्रो. देशराजसिंह भाटी
- प्रकाशन : अशोक प्रकाशन
- संस्करण : 1966
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