मोर−पखा सिर ऊपर राखिहौ
mor−pakha sir upar rakhihau
मोर-पखा सिर ऊपर राखिहौं गुंज की माला गरे पहिरौंगी।
ओढि पितंबर लै लकुटी वन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी॥
भाव तो वोहि मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी॥
कोई गोपी अपनी सखी से कहती है कि हे सखि! मैं मोर-मुकुट को अपने सिर के ऊपर पहनूँगी, गुंजों की माला गले में धारण करूँगी। पीला वस्त्र ओढ़कर और हाथ में लाठी लेकर तथा ग्वालिन बनकर जंगल-जंगल गायों के पीछे फिरूँगी। कृष्ण मेरा प्रिय है और उसे प्राप्त करने के लिए तेरे कहने से सारा स्वाँग भर लूँगी, किंतु कृष्ण की मुरली को, जो वे ओठों पर रक्खे रहते हैं, नीचे नहीं धरूँगी।
- पुस्तक : रसखान ग्रंथावली सटीक (पृष्ठ 233)
- रचनाकार : प्रो. देशराजसिंह भाटी
- प्रकाशन : अशोक प्रकाशन
- संस्करण : 1966
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