मरिबो बिसराम गनै वह तौ
maribo bisram ganai wo tau
मरिबो बिसराम गनै वह तौ यह वापुरो मीत-तज्यौ तरसै।
वह रूप-छटा न सहारि सकै यह तेज तबै चितवै बरसै।
घनआनंद कौन अनोखी दसा मति आवरो बावरी ह्वै थरसै।
बिछुरें मिलें मीन पतंग-दसा कहा मो जिय की गति कों परसै॥
मीन अपने प्रिय (जल) से बिछड़ कर मर जाता है, पर बेचारे मनुष्य का मन तो प्रिय के द्वारा परित्यक्त होने पर मरता नहीं, प्रत्युत वह मरणतुल्य कष्ट सहता हुआ निरंतर प्रिय से मिलने के लिए कलपता रहता है। पतंग दीपक के प्रेम में ही उसकी लपट में अपने को जलाकर मिलने की लालसा को पूर्ण कर लेता है; पर मनुष्य का यह मन प्रिय के रूप के तेज में जल नहीं मरता, वह उसमें तपता रहता है फिर भी न उस तेज की ओर देखना ही बंद करता है और न आँसुओं की झड़ी ही बंद होती है। हे आनंद के घन प्रिय, इस मानव वियोगी की कैसी अनोखी विरह-दशा है कि इसकी कहीं तुलना ही नहीं हो सकती। इस विरह दशा में बुद्धि वियोग से व्याकुल और संयोग के अवसर पर पगली हो जाया करती है। यह दोनों ही अवस्थाओं में त्रस्त ही रहती है। अत: विरह की स्थिति में दीपक और मीन दोनों से ही
प्रेमी की समता नहीं हो सकती। इन दोनों की दशाएँ तो प्रेमी के प्राणों की दशा का स्पर्श भी नहीं कर पातीं।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 230)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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