कान्ह भए बस बाँसुरी के
kana bhae bus bansuri ke
कान्ह भए बस बाँसुरी के अब कौन सखि! हमको चहिहै।
निसद्यौस रहे संग साथ लगी यह सौतिन तापन क्यौं सहिहै॥
जिन मोहि लियौ मन मोहन को रसखानि सदा हमको दहिहै।
मिलि आऔ सबै सखि! भागि चलैं अब तौ ब्रज में बंसुरी रहि है॥
कोई गोपी अपनी सखी से कृष्ण की बाँसुरी के प्रति सौतिया-डाह प्रकट करती हुई कहती है कि हे सखि! कृष्ण तो अब बाँसुरी के वश में हो गए हैं, अतः अब हमें कौन प्यार करेगा? अर्थात् कृष्ण तो केवल अपनी बाँसुरी को ही प्रेम करते हैं, अतः यह सौतिया दु:ख हमसे नहीं सहा जाता। इस बाँसुरी ने दूसरों का मन मोहने वाले कृष्ण का भी मन मोह लिया है, इसीलिए यह हमें सदैव दु:ख देती रहती है। इस दु:ख से छूटने का तो केवल यही उपाय है कि सारी सखियाँ इकट्ठी होकर ब्रज से भाग चलें, क्योंकि अब तो ब्रज में यह बाँसुरी ही रहेगी।
- पुस्तक : रसखान ग्रंथावली सटीक (पृष्ठ 231)
- रचनाकार : प्रो. देशराजसिंह भाटी
- प्रकाशन : अशोक प्रकाशन
- संस्करण : 1966
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