एहि घाट तें थोरिक दूरि
ehi ghat ten thorik duri
एहि घाट तें थोरिक दूरि अहै कटि लौं जल-थाह दिखाइहौं जू।
परसे पगधूरि तरै तरनी, धरनी धर क्यों समुझाइहौं जू॥
तुलसी अवलंब न और कछू, लरिका केहि भाँति जिआइहौं जू।
वरु मारिए मोहिं, बिना पग धोए हौं नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू॥
केवट राम से कहता है कि इस घाट से थोड़ी ही दूरी पर कमर भर पानी है, उसे मैं दिखला दूँगा। (वहाँ से आप स्वयं पार हो जाइए) आपके पैरों की धूल को स्पर्श करते ही मेरी नाव तर जाएगी; फिर मैं घर में अपनी स्त्री को क्या कहकर समझाऊँगा? तुलसी कहते हैं कि मेरी (नाविक की) जीविका का और कोई सहारा नहीं है; मैं अपने लड़कों का पालन कैसे करूँगा? इसलिए हे नाथ! चाहे आप मुझे मारिए, किंतु मैं बिना पैर धोए आपको नाव पर (कदापि) न चढ़ाऊँगा।
- पुस्तक : कवितावली (पृष्ठ 28)
- संपादक : देवीनारायण द्विवेदी
- रचनाकार : तुलसीदास
- प्रकाशन : एस.बी.सिंह, काशी-पुस्तक-भंंडार, बनारस
- संस्करण : 1999
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