आयो बसंत लग्यो बरसावन
aayo basant lagyo barsawan
आयो बसंत लग्यो बरसावन नैननि तें सरिता उमहै री।
कौ लगि जीव छिपावै छपा मैं छपाकर की छवि छाइ रहै री।
चंदन सों छिरके छतियां अति आगि उठै दुख कौन सहै री।
सीतल मंद सुगंध समीर बहै दिन दूगनी देह दहै री॥
बसंत आ गया है और वह अपना अपना वैभव बिखेरने लगा है, किंतु मेरी तो आँखों, आँसुओं से जल की नदी-सी बहने लगी है। कोई अपने जीव या प्राणों को रात्रि में कहाँ तक छिपाए। चंद्रमा की छवि सब ओर छा रही है। जहाँ भी उसकी चाँदनी पहुँचती है वहीं-वहीं प्राणों को कष्ट होता है। सीने पर विरहाग्नि कम करने भले ही चंदन छिड़का जाए, किंतु उस चंदन से आग उठने का-सा कष्ट होता है। उस कष्ट को कोई कैसे सहे। बसंत ऋतु में शीतल, मंद, सुगंधित हवा चलती है। वह सुगंध को वहन कर इधर-उधर ले जाती है, किंतु उससे भी मेरा तो शरीर जलता है।
- पुस्तक : देव और उनका भाव विलास (पृष्ठ 349)
- संपादक : डॉ दीनदयाल
- रचनाकार : देव
- प्रकाशन : नवलोक प्रकाशन
- संस्करण : 2004
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