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संपादक के नाम एक पत्र

sampadak ke nam ek patr

चस्वराचार्य

चस्वराचार्य

संपादक के नाम एक पत्र

चस्वराचार्य
संपादक के नाम एक पत्र
[है भी और नहीं भी]

महाशय,
विश्वास कीजिए, यह मेरा प्रथम पत्र है जो मैं किसी अख़बार के संपादक के नाम लिख रहा हूँ। यह नहीं कि पत्र लिखता ही नहीं या कि मुझे पत्र लिखना अच्छा नहीं लगता। पत्र-व्यवहार में दफ़्तरी दृष्टिकोण रखने पर भी मैं उपयुक्त वर्ग के पत्र नहीं लिख सका और आज जो इस प्रकार पत्र मैं लिखने जा रहा हूँ, क्रिया की दृष्टि से जिसे मैंने प्रारंभ कर दिया है, उसका एक विशिष्ट कारण है।

अब तक सामान्य पत्र साहित्य को (अँग्रेज़ी में कीट्स अथवा लॉरेन्स के पत्र, हिन्दी में महावीर प्रसाद द्विवेदी अथवा पद्मसिह शर्मा के पत्र) व्यापक साहित्य का अभिन्न अंग माना जाता था। पर अब मैं देख रहा हूँ कि इस प्रकार के पत्र साहित्य से प्रायः सर्वथा भिन्न संपादक के नाम लिखे गए पत्रों का साहित्य है। यहाँ शिवशम्भु अथवा विजयानन्द दुबे के छद्म नाम से लिखे गए पत्रों अथवा चिट्ठों को हमें अलग कर देना होगा। संपादक के नाम पत्र उस शृंखला की अंतिम कड़ी है 'जो नहीं छपेंगे' शीर्षक के अंतर्गत नामोल्लेख से प्रारंभ होती है।

आज के युग का सबसे बड़ा जादूगर कदाचित् उसका कम्पोजीटर है। और इसीलिए मानव जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य आज अपने नाम को 'अधिक से अधिक बार तथा बड़े से बड़े टाइप में' (तुल० 'द ग्रेटेस्ट गुड ऑव द ग्रेटेस्ट नंबर') मुद्रित कराना हो गया है। संपादक के नाम पत्र इस दिशा में प्रारंभ का अंत (End of the beginning) है, जिसे आज के प्रजातंत्र युग ने अत्यंत व्यापक बना दिया है।

संपादक के नाम पत्र सचमुच प्रजातंत्र के जेठ बेटों में से एक है। 'मुहल्ले का नाला साफ़ नहीं किया जाता' से लेकर 'एटम बम मुझसे पूछकर क्यों नहीं बनाया जाता' तक इस विशिष्ट कॉलम का क्षेत्र-विस्तार है। कभी-कभी इस कॉलम के माध्यम से अत्यंत महत्त्वपूर्ण वाद-विवाद भी संपन्न होते है, जिनके द्वारा पाठकों को विषय की जानकारी चाहे न भी हो, पर नामों की जानकारी पूरी हो जाती है।

ब्रिटिश प्रजातंत्र के विकास में वहाँ के संपादक के नाम पत्र साहित्य का महत्त्वपूर्ण योग है। एक अमेरिकन पत्रकार के शब्दों में, 'जैसे ब्रिटिश न्याय का मूल तत्त्व सामान्य क़ानून है और ब्रिटिश रन्धन-प्रणाली की आधारशिला उबाली हुई सब्ज़ी है, उसी प्रकार पत्रकारिता के क्षेत्र में ब्रिटिश का विचित्र तथा महान् योगदान संपादक के नाम पत्र है।' यह बात मेरी मौलिक मान्यता के एकदम अनुकूल पड़ती है, कई दृष्टियों से यह संपादक के नाम पत्र शैली विशुद्ध रूप में शौक़िया है, प्रस्तुत बहुत की जाती है, उपकारार्थ है और निर्मूल है। यह पारिवारिक वातावरण की एक निहायत आरामदेह अभिव्यक्ति प्रणाली है, जिसमें उस अनौपचारिक लेखन-शैली का रूप देखने को मिलता है, जो अँग्रेज़ी लेखकों की अपनी निजी विशेषता है। संपादक के नाम पत्र लेखन-विधि अँग्रेज़ी मनोवृत्ति में विशेष रूप से अनुकूल पड़ती है। पीढ़ियों के अभ्यास के कारण यह  साहित्य-रूप बहुत अधिक विकसित हो गया है, और अब विभिन्न रूपों तथा आकारों में प्राप्य है। एक वाक्यीय नोट, 'महाशय—इंग्लैण्ड को गुण की आवश्यकता है, समानता की नहीं। आपका विश्वास भाजन'… से लेकर गंभीरतम वाद-विवाद तक जो 'वर्जिन मेरी की कैथोलिक धर्म व्यवस्था में स्थिति' से संबंधित हो सकता है और जो 'द स्पेक्टेटर' में सप्ताहों तक चर्चित रहता है। वस्तुतः अँग्रेज़ी संपादक के नाम पत्रों के विषय विशेष रूप से आस्वाद्य हैं। उनके लेखक मेरी स्टोप्स से लॉर्ड एस्टर तक हो सकते है और विषय 'स्वेज क्राइसिस' से लेकर 'सरकस का गोला 42 फ़ीट के व्यास का क्यों होता है' तक परिव्याप्त रहते हैं।

सामान्यतः अँग्रेज़ी के आधुनिक गद्य साहित्य में 'महाशय,—' पत्रों की कला विशेष रूप से तथा प्रायः स्वतंत्र कृति पर विकसित हुई है। इस प्रसंग में प्रसिद्ध ग्रीक विद्वान् स्व० गिल्बर्ट मरे का यह पत्र उल्लेखनीय है, जो उन्होंने छड़ी के घटते हुए प्रयोग तथा फ़ैशन के संबंध में लिखा था—

'महाशय—क्या आपके पत्र-व्यवहारी एक चीनी संत पुरुष के अँग्रेज़ों के संबंध में प्रकट किए गए उस मन्तव्य को भूल गए हैं, कि उनमें से भद्र से भद्र पुरुष भी घूमने के समय छड़ी लेकर चलते हैं? उनका उद्देश्य क्या हो सकता है सिवा इसके कि वे निर्दोष व्यक्तियों को पीटें?'

आपका, इत्यादि इत्यादि

याट्सकोम्ब, बोअर्स हिल ऑक्सफोर्ड, गिल्बर्ट मरे

हमारे यहाँ संपादक के नाम पत्र की लेखन-कला अभी तक मुख्यतः सोद्देश्य है। ऐसे पत्रों में निजी स्वार्थ की भावना को अवश्य ही उतनी प्रमुखता नहीं रहती, जितनी कि जनता की सेवा-भावना प्रधान रहती है। सुना है कि गाजीपुर तथा कानपुर के दो संभ्रांत नागरिक अपने संपादक के नाम पत्रों का संकलन पुस्तकाकार प्रकाशित करा रहे हैं। पाठकों की सुविधा की दृष्टि से उसमें वर्गीकृत विषय-सूची तथा नामानुक्रमणिका यथास्थान रहेगी। एक प्रस्तावित संकलन की विषय-सूची देखी गई है—'अण्डों के मूल्य' से प्रारंभ होती है तथा 'सम्यक् ज्ञान की सम्भावना?' पर समाप्त होती है।

हिन्दी साहित्य के संदर्भ मे कुछ नये लेखकों का 'कैरियर' बनाने में 'महाशय,—' पत्रों ने विशेष योगदान दिया है। इतिहासकार ऐसे लेखकों को विशेष सम्मानपूर्वक देखेंगे जो किसी पत्र विशेष में पहले संपादक के नाम पत्र लिख-लिखकर अंततः उस पत्र अथवा पत्रिका के लेखक होकर ही रहें। पर जैसा मैंने कहा, यह तो 'महाशय,—' पत्रों की सोद्देश्य प्रणाली है। आशा करता हूँ कि विकास की अगली अवस्था में संपादक के नाम पत्र के लिए पत्र-शैली का अनुसरण होगा और तब इस साहित्य रूप तथा विशेष कला का समुचित विकास हो सकेगा। हमारी हिन्दी में पेशेवर संपादक के नाम पत्र लिखने वालों की बड़ी कमी है। बिना उसके साहित्य की समृद्धि घपले में है। इस कला की उन्नति के लिए संपादकों को सपारिश्रमिक पत्र छापने चाहिए! आशा है आप सहमत होंगे।

आपका, इत्यादि इत्यादि
चस्वराचार्य

[आज के बहुत से हिन्दी लेखक और संपादक अँग्रेज़ी ज्ञान को दर्शाना बड़ा बुरा समझते है। इस पत्र मे जितना अँग्रेज़ी का हवाला है, उसे यदि वे न पढ़ें तो भी मेरी बात उनकी समझ में आ जाएगी! शुभमस्तु!]
स्रोत :
  • पुस्तक : आधुनिक हिंदी हास्य-व्यंग्य (पृष्ठ 243)
  • संपादक : केशवचंद्र वर्मा
  • रचनाकार : चस्वराचार्य
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 1961

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