पहचानै हरि कौन
pahchanai hari kaun
पहचानै हरि कौन, मो से अनपहचान कों।
त्यौं पुकार मधि मौन, कृपा कान मधि नैन ज्यौं॥
हे हरि, मुझे संसार में कोई पहचान नहीं सकता। संसार जैसों को पहचानने का अभ्यस्त है वैसा मैं नहीं हूँ। पर आप इसलिए पहचान सकते हैं कि मेरी पुकार मौन में हैं। विरह के कारण मैं इतने अधिक कष्ट में हूँ कि वेदना की पराकाष्ठा के कारण केवल चुपचाप पड़ा रहता हूँ। पर आपके नेत्रों को कृपा के कान लगे हैं जिससे आप उन कानों से मेरी पुकार सुन लेते हैं। आप केवल पुकार सुन लेते हैं इतना ही नहीं, उस वेदना की पुकार के सुनने पर उसे दूर करने के लिए कृपा भी करते हैं।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 119)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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