अपू के साथ ढाई साल
apu ke saath dhaai saal
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
पथेर पाँचाली फ़िल्म की शूटिंग का काम ढाई साल तक चला था! इस ढाई साल के कालखंड में हर रोज़ तो शूटिंग होती नहीं थी। मैं तब एक विज्ञापन कंपनी में नौकरी करता था। नौकरी के काम से जब फ़ुर्सत मिलती थी, तब शूटिंग करता था। मेरे पास उस समय पर्याप्त पैसे भी नहीं थे। पैसे ख़त्म होने के बाद, फिर से पैसे जमा होने तक शूटिंग स्थगित रखनी पड़ती थी।
शूटिंग का आरंभ करने से पहले फ़िल्म में काम करने के लिए कलाकार इकट्ठा करने का एक बड़ा आयोजन हुआ। विशेषकर अपू की भूमिका निभाने के लिए छह साल का लड़का मिल ही नहीं रहा था। आख़िर मैंने अख़बार में उस संदर्भ में एक इश्तहार दिया।
रासबिहारी एवेन्यू की एक बिल्डिंग में मैंने एक कमरा भाड़े पर लिया था, वहाँ पर बच्चे इंटरव्यू के लिए आते थे। बहुत-से लड़के आए, लेकिन अपू की भूमिका के लिए मुझे जिस तरह का लड़का चाहिए था, वैसा एक भी नहीं था। एक दिन एक लड़का आया। उसकी गर्दन पर लगा पाउडर देखकर मुझे शक हुआ। नाम पूछने पर नाज़ुक आवाज़ में वह बोला—'टिया'। उसके साथ आए उसके पिता जी से मैंने पूछा, ‘क्या अभी-अभी इसके बाल कटवाकर यहाँ ले आए हैं?' वे सज्जन पकड़े गए। सच छिपा नहीं सके बोले, असल में यह मेरी बेटी है। अपू की भूमिका मिलने की आशा से इसके बाल कटवाकर आपके यहाँ ले आया हूँ।
विज्ञापन देकर भी अपू की भूमिका के लिए सही तरह का लड़का न मिलने के कारण मैं तो बेहाल हो गया। आख़िर एक दिन मेरी पत्नी छत से नीचे आकर मुझसे बोली, 'पास वाले मकान की छत पर एक लड़का देखा, ज़रा उसे बुलाइए तो!' आख़िर हमारे पड़ोस के घर में रहने वाला लड़का सुबीर बनर्जी ही 'पथेर पाँचाली' में 'अपू' बना। फ़िल्म का काम आगे भी ढाई साल चलने वाला है, इस बात का अंदाज़ा मुझे पहले नहीं था। इसलिए जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, वैसे-वैसे मुझे डर लगने लगा। अपू और दुर्गा की भूमिका निभाने वाले बच्चे अगर ज़्यादा बड़े हो गए, तो फ़िल्म में वह दिखाई देगा! लेकिन मेरी ख़ुशक़िस्मती से उस उम्र में बच्चे जितने बढ़ते हैं, उतने अपू और दुर्गा की भूमिका निभाने वाले बच्चे नहीं बढ़े। इंदिरा ठाकरुन की भूमिका निभाने वाली अस्सी साल उम्र की चुन्नीबाला देवी ढाई साल तक काम कर सकी, यह भी मेरे सौभाग्य की बात थी।
शूटिंग की शुरुआत में ही एक गड़बड़ हो गई। अपू और दुर्गा को लेकर हम कलकत्ता1 से सत्तर मील पर पालसिट नाम के एक गाँव गए। वहाँ रेल-लाइन के पास काशफूलों से भरा एक मैदान था। अपू और दुर्गा पहली चार रेलगाड़ी देखते हैं—इस सीन की शूटिंग हमें करनी थी। यह सीन बहुत ही बड़ा था। एक दिन में उसकी शूटिंग पूरी होना नामुमकिन था। कम-से-कम दो दिन लग सकते थे। पहले दिन जगद्धात्री पूजा का त्योहार था। दुर्गा के पीछे-पीछे दौड़ते हुए अपू काशफूलों के वन में पहुँचता है। सुबह शूटिंग शुरू करके शाम तक हमने सीन का आधा भाग चित्रित किया। निर्देशक, छायाकार, छोटे अभिनेता-अभिनेत्री हम सभी इस क्षेत्र में नवागत होने के कारण थोड़े बौराए हुए ही थे, बाक़ी का सीन बाद में चित्रित करने का निर्णय लेकर हम घर पहुँचे। सात दिन बाद शूटिंग के लिए उस जगह गए, तो वह जगह हम पहचान ही नहीं पाए! लगा, ये कहाँ आ गए हैं हम? कहाँ गए वे सारे काशफूल। बीच के सात दिनों में जानवरों ने वे सारे काशफूल खा डाले थे! अब अगर हम उस जगह बाक़ी आधे सीन की शूटिंग करते, तो पहले आधे सीन के साथ उसका मेल कैसे बैठता? उसमें से 'कंटिन्युइटी' नदारद हो जाती!
उस सीन के बाक़ी अंश की शूटिंग हमने उसके अगले साल शरद ऋतु में, जब फिर से वह मैदान काशफूलों से भर गया, तब की। उसी समय रेलगाड़ी के भी शॉट्स लिए। लेकिन रेलगाड़ी के इतने शॉट्स थे कि एक रेलगाड़ी से काम नहीं चला। एक के बाद एक तीन रेलगाड़ियों को हमने शूटिंग के लिए इस्तेमाल किया। सुबह से लेकर दुपहर तक कितनी रेलगाड़ियाँ उस लाइन पर से जाती हैं—यह पहले ही टाइम-टेबल देखकर जान लिया था। हर एक ट्रेन एक ही दिशा से आने वाली थी। जिस स्टेशन से वे रेलगाड़ियाँ आने वाली थीं, उस स्टेशन पर हमारी टीम के अनिल बाबू थे। रेलगाड़ी स्टेशन से निकलते समय अनिल बाबू भी इंजिन-ड्राइवर की केबिन में चढ़ते थे। क्योंकि गाड़ी के शूटिंग को जगह के पास आते ही बॉयलर में कोयला डालना ज़रूरी था, ताकि काला धुआँ निकले। सफ़ेद काशफूलों की पृष्ठभूमि पर अगर काला धुआँ नहीं आया, तो दृश्य कैसे अच्छा लगेगा?
'पथेर पाँचाली' फ़िल्म में जब यह सीन दिखाई देता है, तब दर्शक पहचान नहीं पाते कि उस सीन में हमने तीन अलग-अलग रेलगाड़ियों का इस्तेमाल किया है। आज के डीजल और बिजली पर चलने वाले इंजनों के युग में वह दृश्य उस प्रकार से हम चित्रित न कर पाते।
आर्थिक अभाव के कारण बहुत दिनों तक हमें अलग-अलग समस्याओं से जूझना पड़ा। एक उदहारण देता हूँ।
मूल उपन्यास में अपू और दुर्गा के 'भूलो' नामक पालतू कुत्ते का उल्लेख है गाँव से ही हमने एक कुत्ता प्राप्त किया और वह भी हमसे ठीक बर्ताव करने लगा। फ़िल्म में एक दृश्य ऐसा है: अपू की माँ सर्वजया अपू को भात खिला रही है। भूलो कुत्ता दरवाज़े के सामने आँगन में बैठकर अपू का भात खाना देख रहा है। अपू के हाथ में छोटे तीर-कमान हैं। खाने में उसका पूरा ध्यान नहीं है। वह माँ की ओर पीठ करके बैठा हुआ है। वह तीर-कमान खेलने के लिए उतावला है।
अपू खाते-खाते ही कमान से तीर छोड़ता है। उसके बाद खाना छोड़कर तीर वापस लाने के लिए जाता है। सर्वजया बाएँ हाथ में वह थाली और दाहिने हाथ में निवाला लेकर बच्चे के पीछे दौड़ती है, लेकिन बच्चे के भाव देखकर जान जाती है कि वह अब कुछ नहीं खाएगा। भूलो कुत्ता भी खड़ा हो जाता है। उसका ध्यान सर्वजया के हाथ में जो भात की थाली है, उसकी ओर है।
इसके बाद वाले शॉट में हमें ऐसा दिखाना था कि सर्वजया थाली में बचा भात एक गमले में डाल देती है, और भूलो वह भात खाता है। लेकिन यह शॉट हम उस दिन ले नहीं सके, क्योंकि सूरज की रोशनी ख़त्म हुई और उसी के साथ हमारे पास जो पैसे थे, वे भी ख़त्म हुए!
छह महीने बाद, फिर से पैसे इकट्ठा होने पर हम फिर बोडाल गाँव में उस सीन का बाक़ी अंश चित्रित करने के लिए गए। लेकिन वहाँ जाने पर समाचार मिला कि भूलो कुत्ता अब इस दुनिया में नहीं है। अब क्या होगा?
ख़बर मिली कि भूलो जैसा दिखने वाला और एक कुत्ता गाँव में है। अब लाओ पकड़ के उस कुत्ते को!
सचमुच! यह कुत्ता भूलों जैसा ही दिखता था। वह भूलो से बहुत ही मिलता-जुलता था। उसके शरीर का रंग तो भूलो जैसा बादामी था ही, उसकी दुम का छोर भी भूलो के दुम की छोर जैसा ही सफ़ेद था। आख़िर यह फेंका हुआ भात उसने खाया, और हमारे उस दृश्य की शूटिंग पूरी हुई। फ़िल्म देखते समय यह बात किसी के भी ध्यान में नहीं आती कि एक ही सीन में हमने 'भूलो' की भूमिका में दो अलग-अलग कुत्तों से काम लिया है!
और सिर्फ़ कुत्ते के संदर्भ में ही नहीं, आदमी के संदर्भ से भी ऐसी ही समस्या से 'पथेर पाँचाली' की शूटिंग के दौरान उलझना पड़ा था।
श्रीनिवास नामक घूमते मिठाईवाले से मिठाई ख़रीदने के लिए अपू और दुर्गा के पास पैसे नहीं हैं। वे तो मिठाई ख़रीद नहीं सकते, इसलिए अपू और दुर्गा उस मिठाईवाले के पीछे-पीछे मुखर्जी के घर के पास जाते हैं। मुखर्जी अमीर आदमी हैं। वे तो मिठाई ज़रूर ख़रीदेंगे और उनका मिठाई ख़रीदना देखने में ही अपू और दुर्गा की ख़ुशी है।
इस दृश्य का कुछ अंश चित्रित होने के बाद हमारी शूटिंग कुछ महीनों के लिए स्थगित हो गई। पैसे हाथ आने पर फिर जब हम उस गाँव में शूटिंग करने के लिए गए, तब ख़बर मिली कि श्रीनिवास मिठाईवाले की भूमिका जो सज्जन कर रहे थे, उनका देहांत हो गया है। अब पहले वाले श्रीनिवास का मिलता-जुलता दूसरा आदमी कहाँ से मिलेगा?
आख़िर श्रीनिवास की भूमिका के लिए हमें जो सज्जन मिले, उनका चेहरा पहले वाले श्रीनिवास से मिलता-जुलता नहीं था, लेकिन शरीर से वे पहले श्रीनिवास जैसे ही थे। उन्हीं पर हमने दृश्य का बाक़ी अंश चित्रित किया। फ़िल्म में दिखाई देता है कि एक नंबर श्रीनिवास बाँसबन से बाहर आता है और अगले शॉट में दो नंबर श्रीनिवास कैमरे की ओर पीठ करके मुखर्जी के घर के गेट के अंदर जाता है। 'पथेर पाँचाली' फ़िल्म अनेक लोगों ने एक से अधिक बार देखी है, लेकिन श्रीनिवास के मामले में यह बात किसी के ध्यान में आई है, ऐसा मैंने नहीं सुना!
इस श्रीनिवास के सीन में ही एक शॉट के वक़्त हम बिलकुल तंग आ गए थे और वह भी उस भूलो कुत्ते की वजह से। छोटे से पुकुर के पार मिठाईवाला खड़ा है, और इस पार, अपने घर के पास अपू-दुर्गा मिठाईवाले की ओर ललचाई नज़र से देख रहे हैं। 'क्यों, मिठाई ख़रीदेंगे?' मिठाईवाले के इस सवाल का वे 'ना' में जवाब देते हैं, तब मिठाईवाला मुखर्जी के घर की ओर जाने लगता है। दुर्गा अपू से कहती है, 'चल, हम भी जाएँगे।' भाई-बहन दौड़ने लगते हैं और उसी समय पीछे झुरमुट में बैठा भूलो कुत्ता भी छलाँग लगाकर उनके साथ दौड़ने लगता है।
हमें ऐसा सीन लेना था, लेकिन मुश्किल यह कि यह कुत्ता कोई हॉलीवुड का सिखाया हुआ नहीं था। इसलिए यह बताना मुश्किल ही था कि वह अपू-दुर्गा के साथ भागता जाएगा या नहीं। कुत्ते के मालिक से हमने कहा था, 'अपू-दुर्गा जब भागने लगते हैं, तब तुम अपने कुत्ते को उन दोनों के पीछे भागने के लिए कहना।' लेकिन शूटिंग के वक़्त दिखाई दिया कि वह कुत्ता मालिक की आज्ञा का पालन नहीं कर रहा है। इधर हमारा कैमरा चालू ही था। क़ीमती फ़िल्म जाया हो रही थी और मुझे बार-बार चिल्लाना पड़ रहा था—'कट्! कट्!'
अब यहाँ धीरज रखने के सिवा दूसरा उपाय नहीं था। अगर कुत्ता बच्चों के पीछे दौड़ा, तो ही वह उनका पालतू कुत्ता लग सकता था। आख़िर मैने दुर्गा से अपने हाथ में थोड़ी मिठाई छिपाने के लिए कहा, और वह कुत्ते को दिखाकर दौड़ने को कहा। इस बार कुत्ता उनके पीछे भागा, और हमें हमारी इच्छा के अनुसार शॉट मिला।
पैसों की कमी के कारण ही बारिश का दृश्य चित्रित करने में बहुत मुश्किल आई थी। बरसात के दिन आए और गए, लेकिन हमारे पास पैसे नहीं थे, इस कारण शूटिंग बंद थी। आख़िर जब हाथ में पैसे आए, तब अक्टूबर का महीना शुरू हुआ था। शरद ऋतु में, निरभ्र आकाश के दिनों में भी शायद बरसात होगी, इस आशा से मैं अपू और दुर्गा की भूमिका करने वाले बच्चे, कैमरा और तकनीशियन को साथ लेकर हर रोज़ देहात में जाकर बैठा रहता था। आकाश में एक भी काला बादल दिखाई दिया, तो मुझे लगता था कि बरसात होगी। मैं इच्छा करता, वह बादल बहुत बड़ा हो जाए और बरसने लगे।
आख़िर एक दिन हुआ भी वैसा ही। शरद ऋतु में भी आसमान में बादल छा गए और धुआँधार बारिश शुरू हुई। उसी बारिश में भीगकर दुर्गा भागती हुई आई और उसने पेड़ के नीचे भाई के पास आसरा लिया। भाई-बहन एक दूसरे से चिपककर बैठे। दुर्गा कहने लगी—‘नेबूर-पाता करमचा, हे वृष्टी घरे जा!' 2बरसात, ठंड, अपू का बदन खुला, प्लास्टिक के कपड़े से ढके कैमरे को आँख लगाकर देखा, तो वह ठंड लगने के कारण सिहर रहा था। शॉट पूरा होने के बाद दूध में थोड़ी ब्राँडी मिलाकर दी और भाई-बहन का शरीर गर्म किया। जिन्होंने 'पथेर पाँचाली' फ़िल्म देखी है, वे जानते ही है कि वह शॉट बहुत अच्छा चित्रित हुआ है।
शूटिंग की दृष्टि से गोपाल ग्राम की तुलना में बोडाल गाँव हमें अधिक उपयुक्त लगा। अपू-दुर्गा का घर, अपू का स्कूल, गाँव के मैदान, खेत, पुकुर, आम के पेड़, बाँस की झुरमुट ये सभी बातें बोडाल गाँव में और आस-पास हमें मिलीं। अब उस गाँव में बिजली आ गई हैं, पक्के घर, पक्के रास्ते बने हैं। उस ज़माने में वे नहीं थे।
उस गाँव में हमें बहुत बार जाना पड़ा। बहुत बार रहना भी पड़ा, इसलिए वहाँ के लोगों से भी हमारा परिचय हुआ। उन लोगों में एक बहुत अद्भुत सज्जन थे। उन्हें हम 'सुबोध दा' कहकर पुकारते थे। वे साठ-पैंसठ साल के थे। उनका माथा गंजा था। वे अकेले ही एक झोपड़े में रहते और दरवाज़े पर बैठकर ख़ुद ही से कुछ-न-कुछ बड़बड़ाते रहते थे। हम उस गाँव में एक फ़िल्म की शूटिंग करने वाले है यह जानकर वे ग़ुस्सा हो गए। हमें देखने पर वे चिल्लाते—‘फ़िल्मवाले आए हैं, मारो उनको लाठियों से!’ पूछताछ करने पर लोगों ने बताया कि वे मानसिक रूप से बीमार थे। बाद में 'सुबोध दा' से हमारा अच्छा परिचय हुआ। वे हमें पास बुलाकर, दरवाज़े में बैठकर वायलिन पर लोकगीतों की धुनें बजाकर सुनाते थे। बीच-बीच में हमारे कानों में फुसफुसाते, 'वो साइकिल पे जा रहा आदमी देख रहे हो न, वह कौन है, जानते हो? वह है रुज़वेल्ट3! पक्का पाजी उनके मत से दूसरा एक था चर्चिल4, एक था हिटलर5, तो एक था अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान6 ! सभी उनके मतानुसार पाजी थे, उनके दुश्मन थे।
हम जिस घर में शूटिंग करते थे, उसके पड़ोस में एक धोबी रहता था। उसके कारण हमें बहुत परेशानी होती थी। वह भी थोड़ा-सा पागल था और कभी भी ‘भाइयों और बहनों!’ कहकर किसी राजकीय मुद्दे पर लंबा भाषण शुरू करता था। फ़ुर्सत के समय में उसके भाषण पर हमें कुछ आपत्ति नहीं थी, लेकिन अगर शूटिंग के समय वह भाषण शुरू करता, तो हमारे साउंड का काम प्रभावित हो सकता था। उस धोबी के रिश्तेदारों ने अगर हमारी मदद न की होती, तो वह धोबी सचमुच ही एक सिरदर्द बन जाता!
जिस घर में हम ‘पथेर पाँचाली’ की शूटिंग करते थे, वह घर हमें एकदम ध्वस्त अवस्था में मिला था। उसके मालिक कलकत्ता में रहते थे। उनसे हमने वह घर शूटिंग के लिए भाड़े पर लिया था। उस घर की मरम्मत करके उसे शूटिंग के लिए ठीक-ठाक करवाने में हमें लगभग एक महीना लगा।
उस घर के एक हिस्से में एक के पास एक ऐसे कुछ कमरे थे। वे हमने फ़िल्म में नहीं दिखाए। उन कमरों में हम अपना सामान रखा करते थे। एक कमरे में रिकॉर्डिंग मशीन लेकर हमारे साउंड-रिकॉर्डिस्ट भूपेन बाबू बैठा करते थे। हम शूटिंग के वक़्त उन्हें देख नहीं सकते थे, फिर भी उनकी आवाज़ सुन सकते थे। हर शॉट के बाद हम उनसे पूछते, ‘साउंड ठीक है न?’ भूपेन बाबू इस पर ‘हाँ’ या ‘ना’ जवाब देते।
एक दिन शॉट के बाद मैंने साउंड के बारे में उनसे सवाल किया, लेकिन कुछ भी जवाब नहीं आया। फिर एक बार पूछा, ‘भूपेन बाबू, साउंड ठीक है न?’ इस पर भी जवाब न आने पर मैं उनके कमरे में गया, तो देखा कि एक बड़ा-सा साँप उस कमरे की खिड़की से नीचे उतर रहा था। वह साँप देखकर भूपेन बाबू सहम गए थे और उनकी बोलती बंद हो गई थी।
वह साँप हमने वहाँ आने पर कुछ ही दिनों के बाद देखा था। उसे मार डालने की इच्छा होने पर भी स्थानीय लोगों के मना करने के कारण हम उसे मार नहीं सके। वह ‘वास्तुसर्प’ था और बहुत दिनों से वहाँ रह रहा था।...
- पुस्तक : आरोह (भाग-1) (पृष्ठ 33)
- रचनाकार : सत्यजीत रे
- प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
- संस्करण : 2022
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