महाप्राण निराला : एक संस्मरण
mahapran nirala ha ek sansmran
निरालाजी का स्मरण आते ही अक्टूबर 1936 की संध्या का एक दृश्य सहसा आँखों में उभर आता है। उस वर्ष हिंदी-साहित्य-सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन काशी में हुआ था। सभापति थे संपादकाचार्य पंडित अंबिकाप्रसाद बाजपेयी और स्वागताध्यक्ष महामना पंडित मदनमोहन मालवीय। निरालाजी साहित्य परिषद के सभापति थे। उनके अनुरूप ही उनका भाषण भी निराला था जो राग केदारा के उल्लेख से आरंभ हुआ था और तब तक के भाषणों में सबसे संक्षिप्त था। लेकिन सबसे निराली बात हुई उस संध्या को। अचानक बिजली फेल हो गई। दर्शकों में अधिकांश विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे। वे चंचल, सदा कुछ-न-कुछ करने को आतुर-व्याकुल रहते हैं, निर्वाचित था कि उस अंधकार में कुछ-न-कुछ शरारत हो जाती कि तभी उसके ऊपर होकर एक स्वर वहाँ गूँज उठा :
रवि अस्त हुआ ज्योति के पत्र में लिखा अमर
रह गया राम रावण का अपराजेय समर॥
वह अपराजेय महाप्राण स्वर महाप्राण निराला का था। जब तक प्रकाश लौट नहीं आया, बही स्वर गूँजता रहा। नर का वह ओजस्वी स्वर और 'राम की शक्ति पूजा'; उत्तेजित वातावरण स्तब्ध हो रहा। जैसे वहाँ और कुछ नहीं था, केवल एक स्वर था, जो संगीत और शक्ति का अद्भुत सम्मिश्रण था।
है अमा निशा उगलता गगन धन अंधकार
खो रहा दिशा का ज्ञान स्तब्ध है पवन-चार॥
तब वह स्वर ही सत्य था, विधाता था। उसका सशक्त जीवन-दर्शन प्राणों को गुंजल में लपेटे रहा।
फिर पाँच वर्ष बीत गए। 1945 के वसंत में अखिल भारतीय ब्रज साहित्य मंडल का अधिवेशन दिल्ली में होना निश्चित हुआ। उसी के अंतर्गत विशाल कवि सम्मेलन का भी आयोजन था। निराला के नाम की उन दिनों धूम थी। उनको पत्र लिखा। तुरंत उनके अपने हाथ का लिखा उत्तर आया :
श्री
प्रियवर,
पत्र मिला। मेरा पुरस्कार तो आपको मालूम ही है। उसके बिना नहीं होगा। अगर भेज सकें तो 10-5 दिन से पहले भेजें। तभी आना हो सकता है। राजधानी में कस्तूरबा फंड के लिए उगाहे रुपयों के इतना है। इति।
आपका
निराला
कस्तूरबा फंड! एक लाख रुपया! अकल्पनीय! साहस करके दो सौ रुपये का ड्राफ़्ट भेज दिया। 1945 में रुपए की प्रतिष्ठा इतनी नहीं घटी थी।
तीन-चार दिन बाद क्या देखता हूँ कि पूछते-पूछते निरालाजी हौजकाज़ी के पास, गली पीपल महादेव में, मेरे ग़रीबखाने पर सशरीर उपस्थित हो गए हैं। स्वागत-समिति का कार्यालय वहीं पर था। मुझे जैसे स्वर्ग मिलता है। आत्मविभोर उनके सामने आता हूँ। वही विशालकाय भव्य रूप, रेशमी कुर्ता, तहमद, लंबे बाल, हाथ में दंड, आँखें ऐसी जैसे किसी दूसरे लोक में पहुँच गए हों। मैंने प्रणाम किया। सहसा दंड उठाकर क्रुद्ध कंपित स्वर में हुँकार उठे, मुझको तुमने पैसे भेजे थे?
जी, जी हाँ।
तुमने मेरा अपमान किया है।
विस्मत-विमूढ़, स्तब्ध हो रहता हूँ। मुखम्लान हो जाता है, हृदय की धड़कन तीन होती है और वह हैं कि आँखें रक्तवर्ण किए बोले जा रहे हैं, तुमने मेरी क़ीमत आँकी? तुमने मेरा विश्वास नहीं किया?
कवि सम्मेलन के मंत्री भाई गोपालप्रसाद व्यास आए पंडित दीनानाथ दिनेश आए, लेकिन अजस्र प्रवाह की तीव्रता में रंचमात्र भी अंतर नहीं पड़ रहा। नेत्रों से रक्तिम चिंगारियाँ उड़ रही हैं। उस विशालकाय के सामने हम तीनों पिद्दी से भयातुर, कंपित, किंकर्तव्य-विमूढ़ से खड़े रह गए हैं। किसी तरह साहस बटोरकर मैं उनके साथी की ओर मुड़ा। पूछा, आख़िर बात क्या है?
साथी शरारत से मुस्कुराए। बोले, आपने इन्हें ड्राफ़्ट से रुपया भेजा, मनीआर्डर से नहीं, इसलिए नाराज़ हैं।
निरालाजी चीख़ उठे, तुमने मुझे सरकार की मार्फ़त रुपया भेजा, मुझे बैंक जाना पड़ा।
प्राण मुक्त हुए। स्थिति सुलझी। विनम्र स्वर में मैंने निवेदन किया, आपको ड्राफ़्ट से रुपया इसलिए भेजा था कि मिलने में सुविधा हो। मनीआर्डर कभी-कभी ग़लत व्यक्ति को दे दिया जाता है। बाद में बहुत झंझट होता है।
वह बोले, तुमने मेरी क़ीमत दो सौ रुपए आँकी?
व्यासजी ने कहा, आपकी क़ीमत कौन आँक सकता है? ये तो किराए-भाड़े के लिए भेज दिए थे।
सुनकर एक क्षण मौम हमें स्थिर दृष्टि से आँकते रहे, बहुत कुछ कह दिया उस दृष्टि ने। फिर धीरे-गंभीर स्वर में बोले, हूँ। अच्छा, मेरे ठहरने का प्रबंध कहाँ किया है?
तनाव दूर हो चुका था और आँखें तरल हो आई थीं। समुचित उत्तर पाकर वह अपने ठहरने के स्थान पर चले गए। फिर उस सम्मेलन में उन्हें नाना रूपों में देखा। प्रातःकालीन साहित्य गोष्ठी में यह अधिकतर मस्ती में चुहुलबाज़ी करते रहे। समाप्त होने पर बोले, संध्या को कवि सम्मेलन का क्या कार्यक्रम है?
मैंने कहा, आज के कवि सम्मेलन की अध्यक्षता श्रीमती सरस्वती देवी डालमिया
मैं अपना वाक्य पूरा कर पाता कि एकाएक ज्वालामुखी भभक उठा, यह मेरा अपमान है। यह कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करे और मैं कविता पढ़ूँ? क्या समझा है आपने निराला को...?
फिर वज्रपात। काँप उठा, पर तुरंत हाथ जोड़कर निवेदन किया, नहीं-नहीं, आप क्यों पढ़ेंगे कविता। मुख्य कवि सम्मेलन तो कल है और आप उसके अध्यक्ष हैं।
व्यासजी बोले, आपकी तो आज आना ही नहीं था। यह तो आपकी कृपा है...।
और फिर उन्होंने सम्मेलन के अध्यक्ष श्रीयुत श्रीनारायण चतुर्वेदी की ओर देखा। आँखों-ही-आँखों में प्रार्थना की। सहज भाव से हँसते हुए चतुर्वेदीजी ने निरालाजी का हाथ पकड़ लिया। बोले, आयो निरालाजी, हम तो चलें। इन छोकरों को अपना काम करने दो।
और सचमुच उस दिन वह कवि सम्मेलन में नहीं आए। लाज रह गई। अगले दिन का वह कवि सम्मेलन दिल्ली के इतिहास में अनेक कारणों से चिरस्मरणीय हो गया है। इतना बड़ा कवि सम्मेलन उससे पहले शायद ही कभी हुआ हो। गांधी मैदान में जो विशाल मंडप बनाया गया था वह खचाखच भरा हुआ था। मंच पर खड़ीबोली, ब्रज और बुंदेलखंडी के अनेक प्रसिद्ध और नवोदित कवियों के बीच में निराला जी नक्षत्र मंडल में सूर्य के समान विराजमान थे। उनकी वह सुंदर काया और वह अलबेला रूपाकर्षण का मानो केंद्रबिंदु बन गए थे। पहले दिन वह जितने उत्तेजित थे, उस दिन उतने ही सौम्य और शांत थे। आज भी याद है, निरालाजी पुकारते और एक के बाद एक कवि उठता। हवा में तैरता हुआ उनका तेजस्वी मधुर स्वर अपार जनसमूह को आलोड़ित कर देता। उर्दू के गढ़ में हिंदी की यह पहली उल्लेखनीय प्राणप्रतिष्ठा थी। जहाँ तक याद आता है, इसी सम्मेलन में बेधड़कजी ने पहली बार हिंदी में रुबाइयाँ पड़ी थीं। जनता गद्गद् हो उठी और निरालाजी तो जैसे आत्मविभोर हो रहे हों। तुरंत जेब में हाथ डाला। तीस-बत्तीस रुपए अभी शेष थे। उन्हीं को बेधड़कजी की तरफ़ बढ़ाते हुए बोले, आपने हमें प्रसन्न कर दिया। यह लो।
उस रात्रि का वह अद्भुत दृश्य अब भी आँखों में उभर-उभर आता है। हर्ष से आलोड़ित जनसमूह से भरा वह विशाल पंडाल कवियों के बीच में मंच पर बैठे हुए निरालाजी, हाथ में नोट लिए बेधड़कजी की ओर देख रहे हैं और बेधड़कजी अपने स्थान की ओर जाते हुए जनता के बीच में ठिठके खड़े हैं। हाथ जोड़कर कह रहे हैं, निरालाजी, आपकी कृपा है, यह रहने दीजिए।
निरालाजी का हाथ हिलता है। दृढ़ उत्तेजित स्वर में कहते हैं, यह हमारा आदेश है, लेने होंगे। हमारे पास इतने ही हैं, और भी होते तो दे डालते। तुमने मन प्रसन्न कर दिया।
शब्द और हो सकते हैं, पर अर्थ यही था। विवश, बेधड़कजी को नतमस्तक होना पड़ा।
उसी दिन की एक और घटना याद आती है। किसी बंधु की किसी असावधानी पर कानपुर के श्री जगदंबा प्रसाद हितैषी और आगरा के श्री अद्युतलाल चतुर्वेदी अप्रसन्न हो गए। कवि सम्मेलन में नहीं आए। पता लगने पर मैं तुरंत उनके पास गया। संयुक्त मंत्री जो था। बंधु के अपराध की क्षमा चाही और प्रार्थना की कि वे सम्मेलन में पधारें। मान लूँगा कि वे दोनों उदार थे। साथ-साथ हम लोग पंडाल में आए। अपार जनसमूह के बीच से होकर जब वे दोनों कवि मंच के पास पहुँचे तो निरालाजी ने हाथ जोड़कर उनका स्वागत किया और चतुर्वेदीजी से कहा, सर्वप्रथम आप ही कविता पाठ करें।
चतुर्वेदीजी गद्गद् हो उठे। उनका वह सुमधुर कंठ और ब्रज भाषा। बहुत देर तक पंडाल में माधुर्य बरसता रहा। उसके बाद मानव हृदय के पारखी निराला हितैषीजी की ओर मुड़े। लेकिन हितैषीजी को नहीं मानना था, नहीं माने। निरालाजी ने फिर निवेदन किया। यह नहीं माने। तीसरी बार चरण छूकर प्रार्थना की, वह फिर भी नहीं माने। हम लोग भय से काँप उठे कि अब निरालाजी भभक उठेंगे। ज्वालामुखी तो परम शांत था। शांत स्वर में वह बोले, अब आपकी इच्छा है। हम तो तीन बार कह चुके।
जिस समय वह स्वयं कविता पढ़ने खड़े हुए, जनता ने ज़ोर से करतल-ध्वनि की और वह तेजस्वी स्वर फूट पड़ा उद्दाम वेग से। 'जुही की कली,' 'जयसिंह के नाम शिवाजी का पत्र,' 'राम की शक्ति पूजा,' 'कुकुरमुत्ता,' और 'वह तोड़ती पत्थर' आदि आदि कविताएँ वह एक के बाद एक पढ़ते चले गए। जनता जैसे मूर्तिवत हो रही हो।
सर्वप्रथम मुखरित हुआ मधुर मादक शृंगार :
विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सोहाग भरी स्नेह-स्वप्न-मग्न
अमल कोमल तनु तरुणी-जुही की कली,
दृग बंद किए, शिथिल पत्रांक में
बासंती निशा थी।
और फिर 'राम की शक्ति पूजा' का वह ओजपूर्ण विषाद :
लौटे युग दल। राक्षस...पद तल पृथ्वी तल मल
विन्ध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल।
और यह कुकुरमुत्ता। विद्रोह का जीवंत स्वर :
अवे, सुन ये गुलाब
भूल मत गर पाई ख़ुशबू, रंगोआब
ख़ून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा कैपीटिलिस्ट।
कितनों को बनाया है तूने ग़ुलाम
माली कर रखा सहाया जाड़ा धास
और विवशता की मूर्ति :
वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर...
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन;
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार—
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार—
जब सबकुछ स्थिर हो गया, गूँजता रहा केवल एक नाद स्वर। इसी नाद स्वर द्वारा योगी-जन ब्रह्म की उपासना करते हैं। तन्मयता ही तो समाधि है और जब मनुष्य आत्मविभोर होता है तो अंतर की कलुषिता धुल-पुछ जाती है। बहुत से कवि वहाँ उपस्थित थे। उनमें से बहुत-सी कविताएँ आज भी याद कर सकता हूँ। पर निरालाजी सबसे निराले थे। अपनी दुर्बलताओं के बावजूद जैसे मन प्राण में वस गए हों।
सम्मेलन के बाद जब वह इलाहाबाद लौट रहे थे तब की एक छोटी-सी घटना का स्मरण और आता है। सैकिंड क्लास के डिब्बे में जिस स्थान पर वह बैठे, वहाँ पहले कोई युवक बैठा था। आज की तरह तब भी यौवन उद्धत ही होता था। लौटकर उसने बड़ी अशिष्टता-पूर्वक निरालाजी को उठाना चाहा। वह अपनी मस्ती में बैठे थे। स्थान भी काफ़ी था। युवक कहीं और बैठ सकता था, लेकिन फिर तो वह वृद्ध ही रहता। अड़ गया, निरालाजी को उठना होगा। कुछ अपशब्द भी कहे और आक्रमण की मुद्रा में आ गया। निरालाजी वैसे ही मुस्कुराते रहे। फिर हाथ बढ़ाकर उसके गले के पास से क़मीज़ पकड़ ली और उसको वहीं स्थिर कर दिया। युवक के क्रोध का पारावार न था, लेकिन सारी शक्ति लगाकर भी वह निरालाजी का हाथ हिला तक न सका, जैसे वह अंगद का पैर बन गया हो। निरालाजी मुस्कुराते रहे, युवक उनके हाथ को नोंचता रहा, कुर्ते को फाड़ता रहा और अपने असहाय क्रोध से स्वयं ही पसीना-पसीना होता रहा। कई क्षण के इस अनोखे द्वंद्व-युद्ध के बाद निरालाजी ने उसे छोड़ दिया और बड़े प्यार से कहा, बैठ जाओ, बेटा।
निरालाजी में ओज और संगीत दोनों का अद्भुत सम्मिश्रण था और उनके प्रत्येक कार्य में इन दोनों गुणों की मात्रा घटती-बढ़ती रहती थी। साहित्य-स्रष्टा की अह्मन्यता को सहज कहकर स्वीकार किया जा सकता है। कवि, पागल और प्रेमी, ये प्रायः समानधर्मा ही तो है। लेकिन मात्रा और सीमा का प्रश्न फिर भी रहता है। निराला में सीमा नहीं थी। थी अंतर में दबी पड़ी एक दुर्बलता कि मैं जिस योग्य हूँ, वैसा न तो मेरा सम्मान होता है और न मूल्यांकन। सैकड़ों वर्ष पूर्व भवभूति के साथ क्या हुआ, यह ठीक नहीं मालूम, लेकिन जहाँ तक निराला का संबंध है उपचेतना में बसी हुई मानव की शत्रु यह दुर्बलता उस विशाल को निर्बल कर देती थी। कहूँगा उनको तथाकथित विक्षिप्तता का कारण भी यही थी। दुःख यही है कि उनके तथाकथित मित्रों और भक्तों ने सदा इस दुर्बलता को सहलाया, उत्तेजित किया और अंततः उनको निस्तेज करने में बहुत कुछ सफल भी हो गए।
इस स्वार्थमय संसार में जाने-अनजाने अनेक तेज पुंजों को ऐसे ही मित्र मिले हैं। जो उनके जाल से मुक्त हुआ वह मोती हो गया, शेष योगभ्रष्ट बोधिसत्व होकर रह गए। निराला इसी श्रेणी के नरपुंगव थे। वह औघड़दानी थे। उन्होंने कभी अपना गर्वोन्नत मस्तक नहीं झुकाया, पर उनके भीतर जो तीव्र निषेध था, उसकी नींव इसी दुर्बलता पर थी, इसीलिए वह सहज न हो पाए, भीतर-ही-भीतर टूट गए।
- पुस्तक : कुछ शब्द : कुछ रेखाएं (पृष्ठ 90)
- रचनाकार : विष्णु प्रभाकर
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