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कन्हैयालाल कपूर

kanhaiyalal kapur

कृष्णचंद्र

कृष्णचंद्र

कन्हैयालाल कपूर

कृष्णचंद्र

और अधिककृष्णचंद्र

    कृष्णचंद्र उन भाग्यशाली आदमियों में से है, जिनसे पहली बार मिल कर ख़ुशी होती है अफ़सोस, बल्कि जिनसे मिलने के बाद महसूस करते हैं, अच्छा ही हुआ, इनसे मुलाक़ात हो गर्इ। लेकिन शायद बेहतर होता अगर होती! पहली मुलाक़ात− नहीं, हर मुलाक़ात में वह दूसरों पर प्रभाव डालने के बदले उनसे प्रभावित होने के सिद्धांत को अपनाता है। चाहे मामूली कार्यकर्त्ता हों या महान कलाकार, वह आपकी बातें सुन-सुन कर बराबर मुस्कुराए जाएगा। यहाँ तक कि तंग आकर सोचने लगेंगे− हे भगवान! यह आदमी मुस्कुराए ही चला जाएगा या कोई बात भी करेगा। आप घबरा कर बातें करना बंद कर देंगे। और वह जल्दी से आपसे हाथ मिला कर कहेगा, “बहुत ख़ुशी हुई आप से मिल कर।” उसके हाथ मिलाने का तरीक़ा भी काफ़ी दिलचस्प है। प्रायः वह अपना हाथ इस बेदिली से आपके हाथ के ऊपर रख देगा, मानो कह रहा हो− इसे ज़्यादा देर अपनी गिरफ़्त में मत रखिएगा। मुझे इसकी ज़रूरत है।

    उसके चेहरे के नक़्श में सबसे अधिक आकर्षक उसकी आँखें हैं। यदि ये आँखें किसी सुंदर स्त्री के चेहरे पर होतीं तो शायद क़ियामत तो आती लेकिन राह चलते लोग उसकी ओर देख कर एक बार ठिठक कर ज़रूर रह जाते। कृष्णचंद्र को इन आँखों से अधिक-से-अधिक लाभ यह पहुँचा है कि उन्हें देखने के बाद लोग उसकी क़रीब-क़रीब गंजी चाँद या मझोले क़द को यह कह कर माफ़ कर देते हैं कि जिस आदमी के पास ऐसी ख़ूबसूरत आँखें हों उसके पास क्या नहीं! वह छरहरे बदन का नौजवान है और नहीं है तो वह अपने आपको छरहरे बदन का नौजवान कहलावाना पसंद करता है, क्योंकि उसे ‘छरहरा’ शब्द बेहद पसंद है।

    कृष्णचंद्र यूँ तो हर वक़्त दयनीय दिखाई पड़ता है, लेकिन सब से ज़ियादा उस समय लगता है, जब वह गंभीर होने का प्रयास करता है। उस समय वह अपने चेहरे पर ऐसी उदासी के चिह्न पैदा कर लेता है मानो उसे एक दम अपने सारे पाप याद गए हों। प्रायः वह गंभीर होने का प्रयास नहीं करता। लेकिन अपनी तारीफ़ करते, कहानी लिखते या पढ़ते समय उसके होंठों से मुस्कुराहट कुछ इस तरह काफ़ूर हो जाता है, मानो वह ज़िंदगी भर मुस्कुरा नहीं सकेगा।

    जब वह अपने ख़ास दोस्तों के दायरे में अपनी ताज़ा कहानी पढ़ कर सुनाता है तो अपनी ख़ूबसूरत नस्र (गद्य) को इस मुर्दा-दिली से पढ़ता है, मानो किसी अज़ीज़ की क़ब्र पर फ़ातहा पढ़ रहा हो। वह अपनी तारीफ़ सिर्फ़ उन लोगों के सामने करता है, जो उसके ख़याल में उसे समझते हैं, लेकिन जो दरअसल उसे बिलकुल नहीं समझते। ख़ुशामद से उसे बैर है इस लिए जब कोई व्यक्ति (बशर्ते कि वह नारी जाति का हो) उसकी तारीफ़ करता है तब वह झट सावधान हो कर विषय का रुख़ पलट देता है। मसलन आप कहेंगे, “आपकी अमुक कहानी उर्दू की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से है।” और वह कहानी के गुण-दोष पर बहस करने के बदले आप से पूछने लगेगा, “आपने कभी मुर्ग़ाबी का शिकार किया है? नहीं किया! तब तो आपने सचमुच यूँ ही अपनी ज़िंदगी बरबाद की।”

    वैसे तो वह बे-तकल्लुफ़ दोस्तों की महफ़िल में खुल कर हँसता भी है और कभी-कभार एकाध चौंका देने वाला फ़िक़रा भी कस सकता है। लेकिन प्रायः वह खोया-खोया सा दिखाई देता है, मानो वह भरी महफ़िल में अपने आपका बिलकुल अकेला महसूस कर रहा हो। वह प्रायः दूसरों की बातें सुनता चला जाएगा, बल्कि इस तरह की ऐक्टिंग करेगा, जैसे वह उन बातों में गहरी दिलचस्पी ले रहा है लेकिन वास्तव में वह यह सोच रहा होगा− अगर इंसान ख़ूबसूरत बातें कर सके तो बातें करने का फ़ायदा?− उसे ख़ूबसूरत बातों से मोहब्बत है। और जब तक आप सचमुच कोई मारके की बात नहीं करेंगे, वह आपकी बातें ऊपरी दिल से सुनता रहेगा। लेकिन जैसे ही कोई रूह को झकझोर देने वाली बात की, वह तत्काल समाधि की अवस्था से चौंक कर कहेगा, “क्या कहा आपने? मुझे सारी बात फिर शुरू से सुनाइए।”

    स्वादिष्ट भोजन उसे बहुत पसंद है। उसके विचार में अच्छी पत्नी का एक गुण यह भी है कि वह स्वादिष्ट भोजन बना सके और चूँकि वह जानता है कि उसके अधिकांश दोस्तों की पत्नियाँ अच्छा भोजन बनाने की कला से नितांत अनभिज्ञ हैं, इसलिए वह किसी दोस्त की दावत मंज़ूर करने से बहुत घबराता है। पहले तो कोई बहाना कर देगा, वरना दावत के दिन बीमार पड़ कर नर्सिंग होम में चला जाएगा और उस वक़्त तक वापस नहीं आएगा, जब तक दावत देने वाले की पत्नी मायके नहीं चली जाती।

    ख़ूबसूरत औरत उसकी पहली और आख़िरी कमज़ोरी है। लेकिन वह ठंडी आह भरकर कहता है, “इस दुनिया में ख़ूबसूरत औरत है कहाँ?” ख़ूबसूरत औरत से उसका मतलब अक्सर उस औरत से होता है, जिसे देखकर ग़ालिब के शेर, बिथोविन के संगीत और यूनानी मूर्तियों की याद ताज़ा हो जाए। ज़िंदगी में हमेशा उसे उस आदर्श औरत की तलाश रही है। अक्सर उसने कश्मीर को अल्हड़ कुमारियों में, बंबई की शोख़ चंचल तितलियों में उस औरत की हल्की-सी झलक देखी है। लेकिन वह औरत, जो ख़ैयाम की रुबाई से ज़्यादा ख़ूबसूरत और सुब्ह-ए-बनारस से अधिक आकर्षक हो, उसे आज तक नहीं मिली। यही उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी ट्रेजिडी है। ज़िंदगी में उस आदर्श युवती को पाने से निराश होकर उसने अपनी कहानियों में हज़ारों ‘ज़ेनियों’, ‘आँगियों’ और ‘रेशमाओं’ की रचना की है, लेकिन वह ‘ज़ेनी’ जिसे प्राप्त करने के लिए शायद वह कश्मीर की घाटी बेचने के लिए भी तैयार हो जाए, हमेशा दूर से उसको मुँह चिढ़ाती रही, मानो कह रही हो, “तुम व्यर्थ ही इस संसार में मेरी खोज में भटक रहे हो। मेरा निवास तुम्हारी कल्पना के अतिरिक्त और कहीं नहीं है।”

    हवाई क़िले बनाना उसका सबसे प्यारा शौक़ है। आज से पच्चीस बरस पहले जब वह लाहौर के एक घटिया होस्टल में रहता था तो तरह-तरह के ख़याली पुलाव पका कर दिल के ग़म को भुलाया करता था। कभी सोचता था कि राजनीति के मैदान में कूद पड़ूँ और पलक झपकाते राजनीति की बिसात को उलट कर रख दूँ।

    उसने दो-चार नहीं, बल्कि अनेक बार ‘वर्कर’ बनने की भी कोशिश की। वह मज़दूरों के जल्सों और जुलूसों में शामिल होता रहा, बल्कि एक बार तो उसने ताँगे वालों की हड़ताल को सफल बनाने की योजना भी तैयार की। लेकिन राजनीति उसके बस का रोग था। क्योंकि वह उस हद तक तेज़ और गर्म नहीं था, जिस हद तक एक राजनीतज्ञ को होना चाहिए। उसके यहाँ इन भावनाओं के अतिरिक्त महत्वपूर्ण साधनों की भी कमी थी। उसके समव्यस्क मित्रों के पास मोटर कारें थीं और उसके पास टूटी-फूटी साइकिल भी नहीं थी। फल यह निकला कि राजनीति की दौड़ में वे उसे बहुत पीछे छोड़ गए।

    और वह पुकार-पुकार कर कहता रहा, “तुमने अपनी ख़ूबसूरत मोटर कारों का नाजायज़ फ़ायदा उठाया। वरना तुम में आख़िर वह कौन सी बात थी, जो मुझमें नहीं है।” राजनीति के क्षेत्र में मात खाने के बाद उसने साहित्यिक सरगर्मियों को और भी तेज़ करने का निश्चय किया। ‘इक़बाल पर अंग्रेज़ी में थीसेस लिख कर पंजाब यूनिवर्सिटी से पी० एच० डी० की डिग्री प्राप्त करने का मंसूबा बाँधा। लेकिन इसे इक़बाल का सौभाग्य समझिए या कृष्णचंद्र का कि पंजाब यूनिवर्सिटी ने उसे थीसेस लिखने की इजाज़त नहीं दी।

    इस घटना के बाद उसने वह सब कुछ किया, जो उसे नहीं करना चाहिए था। पेशावर अध्यापक के रूप में लड़कियों को पढ़ाता रहा। एक साप्ताहिक प्रगतिशाल पत्र का सहायक संपादक बना। औरतों के लिए अंग्रेज़ी में एक पत्रिका निकाली। मुक़ाबिले की परीक्षाओं में बैठने वाले विद्यार्थियों के लिए पुस्तकें तैयार कीं। सारांश यह कि सरकस की नौकरी और सिक्रेटेरियट की क्लर्की के अतिरिक्त उसने अपनी सेवाएँ प्रत्येक पेशे के लिए अर्पित कर दीं। उस समय उसकी हालत उस नाविक के समान थी, जो भँवर से निकलने के लिए पागलों की तरह हाथ मार रहा हो, लेकिन जिसे इस बात का पूर्ण विश्वास हो कि वह डूब कर रहेगा। इन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद वह हिंदू हॉस्टल के कमरा नं० 44 में बैठ कर हवाई क़िले बनाता रहा। “तुम मुझ पर हँसते हो,” वह कई बार अत्यंत विश्वास के साथ अपने दोस्तों से कहता, “लेकिन मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ कि एक दिन इसी लाहौर की माल रोड के सीने पर मेरी मोटर दनदनाएगी। और आज जब बंबई की सड़कों पर उसकी मोटरकार फ़र्राटे भरती हुई गुज़रती है तो उसे ऐसा लगता है मानों वह सड़क पर नहीं, बल्कि उसके उन दोस्तों की छातियों पर दनदना रही है, जो उसकी हँसी उड़ाया करते थे।

    ‘निश्चिंतता’ और ‘रुपया’ इन दो चीज़ों की उसे उम्र भर खोज रही है। वह इन दोनों को एक कलाकार के लिए ज़रूरी समझता है। हिंदू हॉस्टल में वह अक्सर भाषण देने के अंदाज़ से भारतीय साहित्यकारों की दुर्दशा के संबंध में कहा करता था, “भूखे साहित्यकार ख़ाक साहित्य सृजन करेंगे। इनके पेट भूखे हैं, आत्माएँ भूखी हैं। इनसे श्रेष्ठ रचनाओं की कैसे आशा की जा सकती है? भाई, अगर तुम चाहते हो कि भारतीय साहित्य कार अमर साहित्य की रचना कर सके तो उसे रहने के लिए ख़ूबसूरत मकान दो, दो वक़्त खाना दो, सैर-तफ़रीह के अवसर प्रदान करो। साहित्यकार को पनपते देखना चाहते हो तो संसार की व्यवस्था को बदल दो और यह व्यवस्था उस समय तक नहीं बदली जा सकती, जब तक पूँजीपतियों की हराम हो जाएँ। भला इस जागीरदारी व्यवस्था में भारतीय साहित्यकार की इज़्ज़त क्या है? उसे खाने को अंगूर नहीं मिलते, बेहतरीन क्या मामूली शराब नहीं मिल पाती। वह हवा पर पलता है। क्या हवा पर पलने वाला ठोस और जीवंत साहित्य पैदा कर सकता है? मैं पूछता हूँ...”

    “हाँ मैं पूछता हूँ,” वह धनिए मिश्र को सामने से आते हुए देख कर कहता, पूछता हूँ कि आज किचन में क्या पका है?” और धनिया मिश्र एक ही साँस में एक जानी-पहचानी सूची दोहरा देता, “दाल जी, बैंगन जी, प्याज़ जी, अचार जी, चटनी जी!”

    और यह दुखद समाचार सुन वह खाना खाने की बजाए लहू के घूँट पी कर रह जाता। हिंदू हॉस्टल की राख लथपथ रोटियाँ, बैंगन की भाजी, प्याज़ और अचार उसे अब भी जब याद आते हैं तो उसके शरीर में कँपकँपी दौड़ जाती है। लेकिन यह हक़ीक़त है कि हिंदू हॉस्टल के गंदे और दुर्गन्ध-युक्त वातावरण और उसके किचन में बने हुए निकृष्टतम भोजन ने उसे समाज के विरुद्ध विद्रोह करने पर उकसाया और उसे सोचने समझने पर मजबूर किया कि इन रोटियों से राख उतारने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि प्राचीन व्यवस्था की केचुली उतार दी जाए।

    निश्चिंतता और रुपए की खोज में वह कहाँ-कहाँ नहीं भटका। उसने अपनी आत्मा का गला घोंट कर आल इंडिया रेडियो में नौकरी की। वह लाहौर से दिल्ली और दिल्ली से लखनऊ पहुँचा, लेकिन उसे उस विभाग में निश्चिंतता मिली रुपया। और वह जैसे जैसे लाहौर से दूर होता गया, नरक के निकट आता गया। लाहौर से उसे इश्क़ था। दिल्ली और लखनऊ लाख सुंदर नगर सही, उसके लिए पराए नगर थे। उसे अनेक बार महसूस हुआ कि वह एक ज़िलावतन की हैसियत से अजनबी अनजान राहों पर भटक रहा है। उसकी आत्म फ़रियाद करती रही कि मुझे वापस लाहौर ले चलो। लेकिन वह उसे लाहौर ला सका। लाहौर की बजाय वह उसे पूना ले गया। जब पूना भी अनुकूल सिद्ध हुआ तो उसने बंबई का रुख किया। यद्यपि बंबई उसकी मंज़िल नहीं थी, लेकिन वह इतना थक गया था कि उसने दम ले कर भी आगे चलने से इनकार कर दिया।

    पहले-पहल बंबई से उसे वहशत हुई, लेकिन वह धीरे-धीरे उससे हिल-मिल गया। और आज यह हाल है कि वह उस शहर को छोड़कर किसी दूसरी जगह जाना नहीं चाहता। वह कहता है “मैं अल्फ़-लैला के उस शाहज़ादे की तरह हूँ, जो खोए हुए तीर की खोज में घर से निकला था, मगर जिसे तीर के बदले शहज़ादी नूरुन्निहार मिल गर्इ थी।”

    अब वह वारसोवा के एक बंगले में, जो समुद्र के किनारे स्थित है, रहता है। उसके पास एक सेकंड हैंड कार भी है। उसके घर मेहमानों का ताँता लगा रहता है। वह तीन बच्चों का बाप और तीन दर्जन किताबों का लेखक है। प्रगतिशील लेखकों का नेता। दो एक फ़िल्में भी डायरेक्ट कर चुका है। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का मालिक है। लेकिन इन सब बातों के होते हुए भी उसके मन को शांति नहीं मिली। रात के समय जब समुद्र की लहरें उसकी कोठी की चार दीवारी से टकराती हैं तो उसे ऐसा लगता है जैसे उसकी आत्मा उसकी रूह की पीठ पर कोड़े बरसा रही है, और वह सोचने लगता है− ज़िंदगी कितनी अजीब है। कितनी शातिर है यह ज़िंदगी! ढीठ और ज़िद्दी माशूक़ की तरह हर आदमी से अपनी बात मनवाती है। अपनी कहे जाती है, दूसरों की नहीं सुनती। मैं क्या करना चाहता था, मैं क्या कर रहा हूँ। रुपया और निश्चिंतता अब भी मुझसे कोसों दूर हैं। और साहित्यिक कलाकृति− क्या सचमुच मुझे कभी फ़ुरसत नहीं मिलेगी कि मैं दुनिया की चिंताओं से मुक्त होकर एक महान उपन्यास, एक महान नाटक, एक महान कलाकृति की रचना कर सकूँ।...और यह सोचते सोचते उसकी ज़िंदगी की फ़िल्म का एक-एक दृश्य उसकी आँखों के सामने फिरने लगता है। भरतपुर− जहाँ वह आज से 37 वर्ष पहले पैदा हुआ; पूँछ, जहाँ उसका बचपन बीता; लाहौर− जहाँ उसकी जवानी और उमंगें परवान चढ़ीं; दिल्ली, लखनऊ− जहाँ उसने अपनी उम्र के तीन क्रीमती वर्ष नष्ट किए; पूना− जहाँ वह दो वर्ष डब्लू० ज़ेड० अहमद के नाज़ उठाता रहा; बंबई, देविका रानी, नेशनल स्टूडियो, सराय के बाहर, जहन्नुम के अंदर...

    और फिर उसे एक दम उन दोस्तों का ख़याल आता है, जो उसे ईर्ष्या या द्वेष की दृष्टि से देखते हैं। और वह एक ऐसी मुस्कुराहट के साथ, जिस पर आँसू का धोखा होता है, कहता है, “काश, वो मेरी रूह में ही झाँक कर देख सकते, ताकि उनके कानों में उस नए प्रलय की हल्की-सी भनक पड़ती, जिसने मेरी रूह को तह-ओ-बाला कर रखा है। काश...”

    और ‘रूसी क्रांति’ को पढ़ते-पढ़ते एक दम उसकी आँख लग जाती है और वह स्वप्न में देखता है कि भारत में भी क्रांति गई है। लाल क़िले पर लाल झंडा फहरा रहा है। हिंदू हॉस्टल को डायनामाइट से उड़ा दिया गया है। उसके अधिकांश प्रकाशकों को काले पानी या फाँसी की सज़ा दे दी गई है। उसके अनेक बेकार रिश्तेदार, जिनकी मदद करते-करते वह तंग या गया था, खेतों और कारख़ानों में काम कर रहे हैं। सरकार अपने ख़र्च से उसकी कृतियाँ छपवा रही है और उसे हर किताब पर इतनी रॉयल्टी मिलती है कि अनेक बार उसका जी चाहता है कि अब और लिखना बंद कर दे।

    और सुबह उठ कर वह ‘मजाज़’ के उदास चेहरे की ओर देख कर कहता है, “साथी! तुम उदास हो। मुझे यह अच्छा नहीं लगता। मुस्कराओ इतना मुस्कुराओ कि देवताओं के हाथों से कोड़े गिर पढ़ें और वे तुम्हारी बेपना मुस्कुराहट की ताब लाकर नतमस्तक हो जाएँ। मुस्कुराओ मजाज़! बहार ज़रूर आएगी। इंक़लाब आकर रहेगा!”

    स्रोत :
    • पुस्तक : उर्दू के बेहतरीन संस्मरण (पृष्ठ 86)
    • संपादक : अश्क
    • रचनाकार : कृष्णचंद्र
    • प्रकाशन : नीलाभ प्रकाशन
    • संस्करण : 1862

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