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जिनके नयनों में स्वर्ग है

jinke naynon mein svarg hai

विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर

जिनके नयनों में स्वर्ग है

विष्णु प्रभाकर

और अधिकविष्णु प्रभाकर

    1955 की वासंती संध्या, 22 फ़रवरी, मंगलवार, तीन बजे होंगे। सहसा टेलीफ़ोन की घंटी बज उठी, सदा बजती रहती है। पर दो क्षण बाद क्या देखता हूँ कि यशपालभाई प्रसन्न होकर मुझसे कह रहे हैं, राष्ट्रपति भवन चलना है।

    क्यों? क्या है वहाँ?

    बहुत ही महत्वपूर्ण बात है। हेलन केलर रही हैं। अभी-अभी श्रीकृपलानी का फ़ोन था। हम सब चल रहे हैं। मार्तंडजी, मालिक, तुम और मैं।

    मन उत्फुल्ल हो आया। इन्हीं के लिए तो मार्क ट्वेन ने कहा है, 19 वीं सदी के दो अत्यंत रोचक चरित्र हैं—नेपोलियन और हेलन केलर।

    वह देख सकती हैं, सुन सकती हैं, बोल भी नहीं सकतीं। फिर भी विश्वविद्यालय की स्नातिका हैं। अँग्रेज़ी भाषा में उन्होंने विशेष सम्मान प्राप्त किया है। दर्शन उनका प्रिय विषय है। लिखती हैं, मानो कविता करती हैं। हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने 300 वर्ष पुरानी परंपरा को तोड़कर उन्हें 'डॉक्टर ऑफ़ लॉ' की डिग्री प्रदान की है। नेत्रहीन होकर भी, जिनके नेत्र नहीं हैं उनकी वह दृष्टि हैं। मूक होकर भी, जो बोल नहीं सकते उनकी वह वाणी हैं। निराशा और असंभव का वह मूर्ति-मान निषेध हैं। मिल्टन अंधकार और प्रकाश के बारे में सब-कुछ जानता था। जब उसने लिखा, उसकी गति में शालीनता है, उसके नयनों में स्वर्ग है, तब निश्चय ही उसने हेलन केलर के समान किसी व्यक्ति की कल्पना की होगी। उसी हेलन केलर से मिलने जाना है। मैंने तुरंत कहा, अवश्य चलूँगा।

    इसी उत्साह में समय से कुछ पूर्व ही पहुँच गए। देखता हूँ, अभी वहाँ कोई नहीं है। कुछ क्षण बाद श्रीहुमायूँ कबीर और फिर मौलाना अब्बुल कलाम आज़ाद वहाँ आते हैं। फिर तो राष्ट्रपति भवन का यह चिर-परिचित अशोक कक्ष गतिमान हो उठता है। यह हैं उप-राष्ट्रपति, वह आते हैं डॉ. देशमुख, श्री रेड्डी, श्री देशमुख और कुछ अधिकारी भी हैं। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति सबसे बाद में आते हैं। आज विशेष नियंत्रण है, विशेष नियम-क़ानून की पाबंदी। सब कुछ स्नेह-गोष्ठी जैसा है, मानो कोई पारिवारिक मिलन हो।

    पाँच बजने में अभी भी कुछ मिनट शेष हैं। फाल्गुनी अमावस्या वासंती मादकता से पूर्ण है। सामने की खिड़की से देखता हूँ, शानदार मुगल उद्यान हलके आवरण से घिरता रहा है। शीघ्र ही सब कुछ अंधकार में छिप जाएगा, गुलाब के ये प्यारे-प्यारे सुंदर पुष्प भी। पर मेरा ध्यान आज इधर नहीं है। रह-रह कर सामने के द्वार को देखता हूँ। सहसा पर्दा हिलता है और उसके पीछे से प्रकट होती हैं दो नारियाँ। निमिष मात्र में अशोक कक्ष स्तब्ध हो रहता है। वातावरण में जैसे तरलता उमड़ आती है। पाता हूँ कि दाहिनी ओर जो नारी है, उनके मुख पर स्नेह-दीप्त है। नयनों से शाश्वत करुणा झर रही है। उन्होंने हलके नीले रंग का गाऊन पहना है। पैरों में सफ़ेद जालीदार सेंडल हैं और सिर पर जो टोपी है, मानो वह चमेली के फूलों से गुथी है। उसकी पवित्र गंध वातावरण को सुवासित कर देती है। उनके गौरवर्ण में स्पष्ट ही लालिमा दिखाई दे रही है। मैं अनुभव करता हूँ, उनके चारों ओर निस्तब्धता और अंधकार अवश्य है, पर उनके विचारों में रंगों की तरंगें हैं।

    ये उनके अपने शब्द हैं। मैंने उस दिन इन्हीं शब्दों को मूर्त्त देखा और मूक हो रहा। बोलकर अपने मन-पटल पर अंकित उस पवित्र प्रभाव को धूमिल करने की तनिक भी इच्छा नहीं हुई। उनके साथ उनकी मंत्री कुमारी पौली थॉमसन हैं जो लंबी हैं, पर शीघ्र ही देखता हूँ कि वह अत्यंत कुशाग्र बुद्धि, सजग और विनम्र हैं। यही तो हेलन केलर की दृष्टि हैं, वाणी हैं।

    धीरे-धीरे आकर कुमारी हेलन केलर मुगल उद्यान के समीपवाले कोने में एक सोफ़े पर बैठ जाती हैं। फिर बारी-बारी वहाँ उपस्थित व्यक्ति उनसे मिलते हैं। मैं उनके पास खड़ा मंत्र मुग्ध-सा केवल उन्हें देखता ही रहता हूँ। वह डॉ. राधाकृष्णन के मस्तक को छूकर कुछ कहती हैं। दर्शन के संबंध में वह उनसे विचार-विनिमय कर चुकी हैं। प्रधानमंत्री के गाल वह बड़े स्नेह से सहलाती हैं। वहीं पर तो उन्होंने उनकी सौजन्य, सादगी और विचारपूर्ण नीति को अपनी अँगुलियों के स्पर्श द्वारा पड़ा है। उनकी दृष्टि और वाणी जैसे अब उन अँगुलियों में समा गई हैं। जब कोई भी कुछ बात कहना चाहता है तो कुमारी पौली थॉमसन अपनी अँगुलियों द्वारा उनकी अँगुलियों का स्पर्श करती हैं। स्पर्श की गति इतनी तीव्र है कि बस गति ही दिखाई देती है। स्पर्श ही उनकी भाषा है, जो शब्दहीन है पर अर्थ-गर्भित है। वह स्पर्श उनके लिए उतना ही सहज है. जितना किन्हीं दो व्यक्तियों के लिए स्वर। अँगुलियाँ हिलती हैं और कुमारी थॉमसन इनकी मूक भाषा को शब्द देती हैं। कही कोई आशंका नहीं, झिझक नहीं। सहसा बीच में रुककर कुमारी केलर कुमारी थॉमसन के मुख पर हाथ रखती हैं। वह गति करता है। उस गति द्वारा वह कुछ सुनती हैं, कुछ कहती हैं।

    सोचता हूँ, मानव ने स्वर का आविष्कार किया होता तो होता शोर, होती यह अशांति; होता केवल प्यार। पर नहीं, आज स्वर से मुक्ति पाने की बात सोचना पलायन है। जो नहीं है वह बहुधा प्यारा लगता है!

    राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, शिक्षा-मंत्री और दूसरे मंत्री, सभी उनसे बातें कर चुके हैं। कुछ बैठे हैं, कुछ खड़े-खड़े बातें कर रहे हैं। अभी-अभी किसी ने पूछा था, हमारे राष्ट्रपति कैसे हैं? कुमारी हेलन केलर ने उत्तर दिया था, मेरा ख़याल है कि यह बड़े प्यारे हैं। यह केवल बढ़िया व्यक्ति हैं, बल्कि दूसरों को मोह लेने-वाले और प्रभावशाली हैं।

    सहसा मेरे पास खड़े हुए अजमेर के श्री जीतमल लूणिया मुझसे कहते हैं, इनसे कहो, मैंने इनकी जीवनी हिंदी भाषा में सबसे पहले प्रकाशित की थी।

    मैं तुरंत उन्हें कुमारी थॉमसन के पास ले जाता हूँ। उनका परिचय देता हूँ और वह अँगुलियों की भाषा में कुमारी हेलन केलर से सब-कुछ कह देती हैं। सुनकर उनके मुख पर जैसे तरल माधुर्य का ज्वार उमड़ बाता है। बोल उठती हैं, थैंक यू!

    यह क्या? वह बोल उठीं। मूक होइ बाचाल, पंगु चढ़े गिरिवर गहन। चमत्कार आज भी संभव है और मनुष्य के हाथ में है। बेशक, यह शब्द गुंफित होकर जैसे वायु में छितरा गए हों, लेकिन मेरे कर्ण, रंध्र पर जो शब्द अंकित हुए वह स्पष्ट ही थैंक यू है। तब सहसा मुझे उस क्षण की याद जाती है जब उनकी पहली अध्यापिका कुमारी एन सलीवान अनुशासनहीन बालिका हेलन के साथ संघर्ष कर रही थीं। विलियम गिब्सन ने दि मिरेकिल वर्कर में इस संघर्ष का बड़ा सुंदर चित्रण किया है :

    हेलन को दबाकर वह पिछवाड़े के पंप के पास ले गई। पंप के हैंडिल पर उसने हेलन के हाथ जमाए। उन हाथों पर अपने हाथ रखकर उसने हैंडिल ऊपर-नीचे किया, फिर हाथ उठा लिए। हेलन समझ चुकी थी कि अब वह अकेली है—शिक्षिका एन के संरक्षण में। एन के हाथ उठने के बाद भी वह हैंडिल चलाती रही। पंप से पानी निकला। एन ने हेलन को सामने लाकर पानी की धार से उसकी हथेलियाँ भिगोई, फिर उसकी हथेली पर अँगुली से लिखा, डब्ल्यू-ए-टी-ई-आर-वॉटर।

    ख़ाली बर्तन धार के नीचे रखकर उसने हेलन के हाथों से पानी भरवा लिया। केलर-कुटुंब के सभी सदस्य डाइनिंग रूम से बाहर आकर दूर खड़े सब देख रहे थे। हेलन का रिक्त चेहरा एन की ओर उठा हुआ था। एन ने बच्ची के भीतर मचे द्वंद्व को भाँपा। हेलन के ओंठ काँप रहे थे। क्यों?

    पुरानी यादें...।

    जब वह 6 मास की थी—बाबा—एक शब्द था जो लड़ रहा था—बेताब था फूट पड़ने को बाबा...।

    और सचमुच हेलन के गले से आवाज़ निकली बाबा उसके हाथ का बर्तन धरती पर गिर पड़ा। उसकी धातु झनक उठी। पानी ने हेलन के पैर भिगो दिए। वह फिर से रिरियाई—बाबा।

    एन ने आनंदावेग से पागल होकर बच्ची के हाथ थाम लिए और चीख़ उठी यस, यस, डियर—ओ माई डियर।

    हेलन ने हाथ छुड़ाए और ज़मीन पर बैठ गई। वर्षों से बंद मस्तिष्क के द्वार आज खुल गए थे और इस महान विश्व के प्रति अदम्य कौतूहल से हेलन उवल रही थी। उसने ज़मीन को छूकर देखा और प्रश्नवाचक, उत्सुक हथेली उनकी ओर बढ़ा दी ताकि वह उस पर 'अक्षर' के 'इशारे' लिखकर बताएँ कि नीचे जो चीज़ है, जिस पर वह खड़ी है, क्या है, इसे क्या कहते हैं?

    एन ने हवेली पर लिखा, जी-आर-ओ-यू-एन-डी—ग्राउंड। हेलन ने पंप को छुआ। एन ने हथेली पर हिज्जे लिखे, पी-यू-एम-पी—पंप।

    एन का हर्ष अतिरेक पर पहुँच गया था। चीख़ने लगी, श्रीमती केलर, श्रीमती केलर।

    उसके पुकारने से पहले ही पूरा केलर-कुटुंब पास चुका था। कुमारी हेलन केलर जन्मजात अंध-बधिर नहीं हैं। 18 महीने की आयु में अचानक रोग के कारण वह वाणी और दृष्टि, दोनों खो बैठी। जिस समय कुमारी सलीवान ने उनका भार सँभाला तब वह लगभग 7 वर्ष की थी। चेहरे पर भोलापन कम, शिकायत अधिक थी। अनुशासनहीन भी थीं। पर बुद्धि की कमी नहीं थी। 6 मास की आयु से ही वह बोलने लगी थीं। वॉटर को बाबा' कहती थीं। उसी बुद्धि को वापस लाने के लिए कुमारी सलीवान को घोर संघर्ष करना पड़ा और वह सफल हुई। दृष्टि और ध्वनि, दोनों को उन्होंने अँगुलियों की सांकेतिक भाषा में रूपांतरित कर दिया।

    मैं इन्ही विचारों में खोया-खोया जाने कहाँ पहुँच गया था कि सहसा चौंककर देखता हूँ, वह 75 वर्षीया करुणा मूर्ति प्रधानमंत्री के पास एक-दूसरे सोफ़े पर जा बैठी है। पंडितजी कहीं बहुत दूर विचारों के सागर में डूब गए हैं और हेलन केलर गोद में एक तकिया रखे धीरे-धीरे उस पर हाथ फेर रही हैं। सब शांत, मौन हैं। केवल पास के कक्ष से आती हुई संगीत की ध्वनि अंतर को तरंगित कर रही है। मेरी जिज्ञासा जागती है। पाता हूँ कि किसी ने उनसे पूछा था कि क्या वह बता सकती है, इस समय कौन-सा संगीत हो रहा है? वह उसी संगीत की तरंगों के स्पंदन को मृदु मंद गति से तकिए पर हाथ फेरती हुई आत्मसात कर रही हैं।

    सहसा संगीत रुक जाता है और उनकी अँगुलियाँ कुमारी थॉमसन की अँगुलियों के साथ नृत्य करने लगती हैं। वह सब कुछ बता देती हैं। स्वर, लिपि, लय, ताल, धुन सभी कुछ तो सही है।...

    स्वयं कुमारी केलर ने लिखा है, सुख का एक द्वार बंद होने पर दूसरा खुल जाता है, लेकिन कई बार हम बंद दरवाज़े की तरफ़ इतनी देर तक ताकते रहते हैं कि जो द्वार हमारे लिए खोल दिया गया है, उसे देख नहीं पाते। वह भी उस द्वार को देख पातीं यदि कुमारी सलीवान उनके जीवन में प्रवेश करके उस दूसरे खुले हुए द्वार की ओर बरबस उनका मुँह कर देतीं। उन्हीं के शब्दों में, मेरी अध्यापिका मेरे इतने पास है कि मैं कभी अपने को उनके बिना सोच ही नहीं सकती। मुझमें जो कुछ अच्छा है, वह सब उन्हीं का है। मुझमें कोई भी प्रतिभा, कोई भी उत्साह, कोई भी प्रसन्नता ऐसी नहीं है, जो उनके प्रिय स्पर्श द्वारा जागृत हुई हो।

    फिर विचारों में खो जाता हूँ—क्या इस नारी को देखते हुए जीवन में निराशा के लिए स्थान है? संसार में जो सर्वोत्तम है, वही इस अपंग नारी में मूर्त हुआ है। जिस चेहरे पर कभी शिकायत और शरारत थी वह आज ममता और करुणा का प्रतीक है। जो व्यक्ति भी उनके संपर्क में आता है, मानव भावना में एक नई शालीनता का अनुभव करता है। (मार्क ट्वेन)

    हमें पूरा एक घंटा उनके समीप रहने का अवसर मिला। उस अनुभूति को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता। उस दिन मैं स्पष्ट समझ सका कि संसार में अनिवार्य कुछ भी नहीं है। बड़ी-से-बड़ी शारीरिक अपंगता मनुष्य के मार्ग की बाधा नहीं बन सकती। वह दृष्टिहीन होकर भी दृष्टिवालों से अच्छी हैं। बहरी होकर भी वह अंतरवीणा की झँकार सुनती हैं। वह कहती है, यह सत्य है कि मैं वृक्षों की भुरपुट में से झाँकते हुए चंद्रमा के दर्शन नहीं कर सकती., लेकिन मेरी अँगुलियाँ जल की हिलोरों में अठखेलिया करती हुई चाँदनी की झलमलाहट को स्पर्श करती हुई-सी प्रतीत होती हैं। प्रायः मैंने शीतल हवा के झोंकों से बिखरे हुए कोमल पुष्प-पत्रों का शरीर पर अनुभव किया है। अतः मेरे विचार में संध्य भी एक विशाल उद्यान की भाँति है, जिसमें से असंख्य पत्ते उड़कर समस्त आकाश में बिखरे हुए हैं।

    यह है कुमारी केलर का आत्म-दर्शन। वह तैरना, घुड़सवारी करना और नाव खेना जानती हैं। वह शतरंज और ताश भी खेल लेती हैं। इसलिए यह कहना असत्य होगा कि शारीरिक अपंगता यदि बाधा है तो मानवता को जगाने के लिए है। उन्हीं के शब्दों में, अगर उल्लंघन के लिए रेखाएँ होतीं, जीतने के लिए बाधाएँ होतीं, पार करने के लिए सीमाएँ होतीं, तो मानव जीवन में पुरस्कार की तरह आनेवाले आनंद के अनुभव में कुछ-न-कुछ कमी जाती।

    उस दिन जब हम वहाँ से लौट रहे थे तो इसी आनंद का अनुभव कर रहे थे। आज भी मन जब निराशा की गुंजल में फँसने लगता है तो उस कर्ममयी की ममतामूर्ति दृष्टि में उभर आती है और उसी के साथ-साथ अंतर में उभर आता है उस अव्यक्त आनंद का अनुभव, जिसे कहते हैं आत्मविश्वास, आत्मप्रेरणा, आत्मनिष्ठा। ऐसा स्वस्थ समाज जिसकी संपदा हँसमुख बच्चे और प्रसन्न नर-नारियाँ हों, जिस की श्री-सुषमा, शांति और सृजनात्मक कार्यों से निर्मित हो, वह किसी के हुक्म से बना-बनाया हमें नहीं मिलेगा। वह तो स्वयं अपने हाथों से गढ़ना पड़ेगा।

    कुमारी हेलन केलर अपने इसी ज्वलंत विश्वास की जीवंत प्रतिमा है। इस जीवंत प्रतिमा के सान्निध्य में उस दिन कुछ क्षण बिताकर हम कृत-कृत्य हो गए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुछ शब्द : कुछ रेखाएं (पृष्ठ 70)
    • रचनाकार : विष्णु प्रभाकर
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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