हरिश्चंद्र को जो हिंदी का जन्मदाता कहा जाता है, सो यथार्थ ही। यह बात नहीं कि उस समय हिंदी का अस्तित्व नहीं था। हरिश्चंद्र ने उसे नया जीवन दिया और उसमें समय के अनुरूप नए-नए भाव भर कर उसे नई शक्ति प्रदान की। वे न होते तो हिंदी आज अपने वर्तमान रूप में विकसित हो पाती व नहीं, अथवा उसको कितनी बाधाओं का सामना करना पड़ता, नहीं कहा जा सकता। आज भी उसे थोड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है। हरिश्चंद्र ने अपना कार्य न किया होता तो हमारी राष्ट्रभाषा अपने पद पर प्रतिष्ठित होने में निस्संदेह पिछड़ जाती और उसके मार्ग की बाधाएँ और भी प्रबल हो जातीं।
उस समय राजकाज में हमारे लिए जिस भाषा का प्रयोग होता था उसके शब्द ही नहीं संस्कार भी विदेशी थे। साधारण जनता को उसे समझने के लिए गिने-चुने लोगों का मुँह ताकना पड़ता था। ऐसी भाषा से किसका काम चल सकता है। परंतु सैकड़ों वर्षों की पराधीनता ने हमें आत्म-ग्लानि से भर दिया था। हम पराजित थे और हमें अपना सब कुछ तुच्छ दिखाई पड़ता था।
परंतु किसी भिन्न भाषा के द्वारा इसका निराकरण नहीं किया जा सकता था। अपनी भाषा के द्वारा ही हमें अपने विस्मृत रूप का ज्ञान हो सकता था और वही हममें स्वाभिमान जगा सकती थी। हरिश्चंद्र ने इसे समझा और हिंदी पर अपना सब कुछ निछावर कर दिया। उनका जन्म सार्थक हुआ।
हमारे पद्य की भाषाएँ ब्रज और अवधी पर्याप्त पुष्ट थीं परंतु अब उनके विषयों में नवीनता न रह गई थी। और गद्य की गति तो मौखिक वार्तालाप तक ही सीमित थी। नए-नए विषयों के लिए समय गद्य की माँग कर रहा था। केवल पद्य लेकर हम ज्ञान के क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकते थे। अधिकारियों के प्रयत्न से दो-चार पुस्तकें गद्य में निकलीं। परंतु यह प्रयत्न वस्तुतः हमारी अपेक्षा स्वयं उन्हीं की सुविधा के लिए कहा जा सकता है। अंततः विजेताओं को भी विजितों की भाषा का थोड़ा बहुत ज्ञान आवश्यक होता है। यह दूसरी बात है, हमें भी उससे कुछ लाभ हो जाए। इसी कुछ को बढ़ाकर सब कुछ बना देने का प्रारंभिक कार्य हरिश्चंद्र ने किया।
उनका जन्म संवत 1907 की ऋषि पंचमी के दिन काशी के एक संपन्न अग्रवाल कुल में हुआ। भारतीय इतिहास का साधारण विद्यार्थी भी सेठ अमीचंद का नाम जानता है जिन्होंने क्लाइव से साठगाँठ करके अँग्रेज़ी राज्य की जड़ ज़माने में उसकी सहायता की थी। परंतु जिन्हें पुरस्कार के समय वंचित होकर निराश होना पड़ा था। इस अपमानपूर्ण निराशा से उनका पागल हो जाना आश्चर्य की बात नहीं, थोड़े ही दिनों में उनकी मृत्यु भी हो गई। उनके पुत्र फतेहचंद बंगाल छोड़कर काशी में आ बसे। इन्ही के प्रपौत्र हरिश्चंद्र थे। उनके पिता का नाम गोपालचंद्र था। यह कुटुंब पहले ही यथेष्ट संपत्तिशाली था। अपने संबंधियों के उत्तराधिकार से और भी संपन्न हो गया। काशी के अग्रवाल समाज ने अपना चौधरी बना कर इसे यथेष्ट मान्यता दी। विवाहादि कार्यों में जो बँटनी बाँटी जाती है उसमें चौधरी का भाग और सबकी अपेक्षा दुगना होता है। थोड़े दिन हुए, इस कुल के प्रधान पुरुष डॉक्टर मोतीचंद्र ने चौधरी पद का परित्याग कर दिया है।
हरिश्चंद्र को वह सब प्राप्त था जो मध्यकालीन परंपरा के किसी श्रीमान को प्राप्त हो सकता था अर्थात् भोग-विलास की सब सामग्री और सुविधा एवं राजा-प्रजा में सम्मान। परंतु उनसे भारत की दुर्दशा चुपचाप नहीं देखी गई। जैसा उन्होंने स्वयं कहा है—
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।
उनके पिता पक्के वैष्णव और अच्छे कवि भी थे। अल्पायु में ही महा-प्रस्थान कर गए। इसी बीच उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की। जिनमें 'जरासंध-वध' महाकाव्य भी है। जो पूरा न हो सका फिर भी महत्त्वपूर्ण, और उनकी कवित्त शक्ति का अच्छा परिचय देता है। उनके एक पद की तीन पंक्तियाँ मुझे स्मरण आ रहीं हैं—
जाग गया फिर सोना क्या रे
दाता जो मुँह माँगा देवे फिर चाँदी औ सोना क्या रे
गिरधरदास उदर पूरे पर मीठा और सलोना क्या रे।
गिरधरदास उनका उपनाम था।
कहने की आवश्यकता नहीं हरिश्चंद्र योग्य पिता के सुयोग्य पुत्र थे। उनमें जन्मजात प्रतिभा थी। बचपन में ही उन्होंने उसका परिचय देकर पिता को आनंद दिया था और भविष्य की सफलता के लिए उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया था। उनकी शिक्षा के संबंध में यही कहा जा सकता है कि कुछ दिन स्कूल में वे अवश्य गए परंतु उन्होंने जो कुछ विद्यार्जन किया वह घर पर ही अपने परिश्रम से। वे अनेक भाषाएँ जानते थे। उनकी दीक्षा कुल के अनुसार वल्लभ संप्रदाय में हुई थी। सब धर्मों में आदर बुद्धि रखते हुए भी वे अनन्य वैष्णव थे। तुलसीदास ने अपनी अनन्यता इस प्रकार प्रकट की है—
बने सु रघुवर सौं बने कै बिगरै भरपूर
तुलसी बने जु और सों ता बनिबे में धूर।
हरिश्चंद्र ने भी अपनी अनन्यता इस प्रकार प्रकट की है—
भजौं तो गुपाल ही कौं सेवों तो गुपाले एक
मेरो मन लाग्यो सब भाँति नंदलाल सौं।
मेरे देव देवी गुरु माता-पिता बंधु इष्ट
मित्र सखा हरी नातौ एक गोपाल सौं।
हरी चंद और सौं न संबंध कछु
आसरो सदैव एक लोचन विशाल को।
मानो तो गुपाल सौं न मानो तो गुपाल ही सौं
रीझो तो गुपाल सौं न रीझो तो गुपाल सौं॥
वे थे 'सखा प्यारे कृष्ण के ग़ुलाम राधारानी के'। इसके साथ ही उन्होंने कहा है—
सीधेन सौं सीधे महा बाँके हम बाँकेन सौं।
हरीचंद नगद दमाद अभिमानी के।
हिंदी के उत्थान के लिए उन्होंने क्या नहीं किया। उनका मत था—
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल
तभी उन्होंने उसके लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। केवल पद्य-रचनाओं से संतोष न करके गद्य में अनेक विषयों पर लिखा और पथ-प्रदर्शन का कार्य किया। नाटक, प्रहसन, आख्यान, जीवन-चरित और यात्रा-वर्णन आदि पर अबाध रूप से उनकी लेखनी चलती रही 'कवि वचनसुधा' और 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' जैसे पत्र उन्होंने चलाए। फलतः 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' के अस्त होने के पश्चात् आधी शती भी नहीं बीतने पाई और हिंदी में 'सरस्वती' का आविर्भाव हुआ एवं आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जैसे संपादक कार्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुए। नागरी प्रचारिणी सभा की काशी में स्थापना हुई और नित्य नई-नई पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं। हिंदी का प्रदीप पहले ही जगमगाने लगा था। स्वर्गीय राधाकृष्ण-दास, अंबिकादत्त व्यास, चौधरी प्रेमघन, प्रतापनारायण मिश्र और गोस्वामी राधाचरण आदि उनके सहयोगी थे। बंकिमचंद्र चटर्जी के समान अनेक बंगीय मनीषियों से भी उनका अच्छा परिचय था।
राजा शिवप्रसाद उनके गुरुजन थे। परंतु हिंदी के रूप के विषय में हरिश्चंद्र का और उनका मतभेद हुआ। राजा शिवप्रसाद जो भाषा लिखते थे वह उर्दू-बहुल होती थी। हरिश्चंद्र उर्दू के प्रेमी ही नहीं, लेखक भी थे परंतु हिंदी का स्वतंत्र अस्तित्व मिटा कर वे उर्दू को हिंदी नहीं मान सकते थे। दूसरे राजा लक्ष्मसिंह की हिंदी अवश्य उनके अनुकूल थी।
राजा शिवप्रसाद जहाँ 'सितारे हिंद' थे वहाँ जनता ने हरिश्चंद्र को 'भारतेंदु' का पद प्रदान किया। हरिश्चंद्र के सामाजिक विचार बड़े उदार थे। स्त्री-शिक्षा और विदेश यात्रा का उस समय उन्होंने समर्थन किया था, जब चर्चा से भी पाप लगता था। हरिश्चंद्र ने अपनी एकमात्र कन्या को पाठशाला में भर्ती करा दिया था। स्त्री-शिक्षा संबंधिनी 'बाल-बोधिनी' नाम की पत्रिका भी निकाली थी। कलकत्ते में उन दिनों कोई बंगाली लड़की उच्च शिक्षा में उत्तीर्ण हुई थी। हरिश्चंद्र ने एक बहुमूल्य बनारसी साड़ी उसे पुरस्कार में देने के लिए भेजी थी। तत्कालीन बंगाल के लार्ड की पत्नी लेडी बेथून ने वह पुरस्कार देते हुए हरिश्चंद्र की दूरदर्शिता की सराहना की थी। वे चाहते थे—
नारि-नर सम होहिं जग आनंद लहै।
विदेश-यात्रा के समर्थन में उनकी निम्न पंक्तियाँ ही पर्याप्त हैं—
रोक विलायत गमन कूप मंडूक बनायो।
हरिश्चंद्र की देशभक्ति का कहना ही क्या। अधिकारियों के कृपा-कोप की अपेक्षा न करते हुए हरिश्चंद्र अपने पथ पर चलते रहे। उनकी कामना थी—
स्वत्ब निज भारत गहे सब दुख बहे।
अँग्रेज़ों के संबंध में उनकी एक मुकरनी सुनिए—
भीतर भीतर सब रस चूसे
बाहर से तन मन धन मूसे
जाहर बातन में अति तेज़
क्यों सखि, साजन? नहि अँग्रेज़।
अधिकारियों का क्षोभ स्वाभाविक था। तथापि देश के अनेक राजा-महाराजा भारतेंदु का बड़ा सम्मान करते थे। उनके कार्यों के लिए धन भी देते थे। भोपाल की बेगम साहब से भी उनका पत्र-व्यवहार होता था। मेवाड़ के महाराणा सज्जन सिंह ने हरिश्चंद्र के गुणों पर रीझ कर उन्हें लिखा था, आप इस राज्य को अपनी ही सीर समझिए।
हरिश्चंद्र ने कितने गुणी जनों की सहायता की इसका लेखा कठिन है।
उनकी असंयत उदारता देख कर एक बार काशिराज ने प्यार से उनसे कहा, बबुआ, घर देख कर चलना चाहिए। इसके उत्तर में हरिश्चंद्र ने कहा, महाराज, इस संपत्ति ने मेरी अनेक पीढ़ियाँ समाप्त कर दी हैं, मैं इसे समाप्त कर दूँगा। हुआ भी ऐसा ही।
कहते हैं पन्ना के राजा अमानसिंह बड़े दानी थे। एक बार उनकी माता ने उनसे प्रश्न किया, बेटा, तुझे सोने का सुमेरु मिल जाए तो तू उसे कितने दिनों में समाप्त कर दे? बेटे ने कहा, माता, यह उसे ढोने वाले जानें, मैं तो उसे एक ही बार में दे दूँगा।
हरिश्चंद्र एक बार कहीं जा रहे थे। मार्ग में किसी को जाड़े से काँपते देखकर अपना दुशाला उसे उढ़ा कर स्वयं ठिठुरते हुए घर आए।
एक बार वे अपने गोस्वामी जी से मिलने गए। उनके गले में सुंदर मोतियों की माला देखकर गोस्वामी जी ने उसकी प्रशंसा की। हरिश्चंद्र ने तुरंत उतारकर वह उन्हें अर्पित कर दी।
संभवतः एक ही बार उन्हें अपनी दानशीलता खली। उनके यहाँ एक हस्तलिखित सचित्र ग्रंथ था। एक मुसलमान सज्जन उनसे मिलने आए। उसे देखकर वे ललचा गए। हरिश्चंद्र ने कहा, आपकी नज़र है। पीछे उसके लिए वे पाँच सहस्र रुपए देने के लिए उद्यत हुए, परंतु व्यर्थ। मियां चतुर थे।
एक बार टिकट न होने से उनकी डाक पड़ी थी, एक मिलने वाले सज्जन आए और जाते समय यह कह कर उसे ले गए कि मैं पोस्ट कर दूँगा। इसके पश्चात् जब-जब वे आए तब-तब हरिश्चंद्र ने उन्हें पाँच-पाँच रुपए दिए। उनके कुछ कहने पर हरिश्चंद्र ने कहा, तुम मेरे लड़के के समान हो। जाओ, मिठाई खाना।
अंत में ऋण लेकर काम चलाने की दुरवस्था आ गई। उत्तमर्णों ने भी अवसर से लाभ उठाने में कोई त्रुटि नहीं छोड़ी। एक-एक सहस्र देकर पाँच-पाँच सहस्र लिखाए।
ऐसे ही एक महाजन ने अपने रुपए पाने के लिए न्यायालय का आश्रय लिया। सर सैयद अहमद उन दिनों बनारस में न्यायाधीश थे। वे भेद जानते थे। उन्होंने हरिश्चंद्र से पूछा, आपने कितने रुपए लिए थे? भारतेंदु ने कहा, मुझे उतने ही देने हैं जितने मैंने लिखे हैं। जज क्या करते? हरिश्चंद्र ने ठीक ही लिखा था—
चंद्र टरे सूरज टरे टरे जगत व्यवहार।
पै दृढ़ श्री हरिचंद्र कौ टरै न सत्य विचार।
जो हो, जब तक हिंदी का अस्तित्व है तब तक हरिश्चंद्र अमर हैं।
harishchandr ko jo hindi ka janmdata kaha jata hai, so yatharth hi. ye baat nahin ki us samay hindi ka astitv nahin tha. harishchandr ne use naya jivan diya aur usmen samay ke anurup ne ne bhaav bhar kar use nai shakti pradan ki. ve na hote to hindi aaj apne vartaman roop mein viksit ho pati va nahin, athva usko kitni badhaon ka samna karna paDta, nahin kaha ja sakta. aaj bhi use thoDa sangharsh karna paD raha hai. harishchandr ne apna karya na kiya hota to hamari rashtrabhasha apne pad par pratishthit hone mein nissandeh pichhaD jati aur uske maarg ki badhayen aur bhi prabal ho jatin.
us samay rajakaj mein hamare liye jis bhasha ka prayog hota tha uske shabd hi nahin sanskar bhi videshi the. sadharan janta ko use samajhne ke liye gine chune logon ka munh takana paDta tha. aisi bhasha se kiska kaam chal sakta hai. parantu saikDon varshon ki paradhinata ne hamein aatm glani se bhar diya tha. hum parajit the aur hamein apna sab kuch tuchchh dikhai paDta tha.
parantu kisi bhinn bhasha ke dvara iska nirakran nahin kiya ja sakta tha. apni bhasha ke dvara hi hamein apne vismrit roop ka gyaan ho sakta tha aur vahi hammen svabhiman jaga sakti thi. harishchandr ne ise samjha aur hindi par apna sab kuch nichhavar kar diya. unka janm sarthak hua.
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unka janm sanvat 1907 ki rishi panchmi ke din kashi ke ek sampann agarval kul mein hua. bharatiy itihas ka sadharan vidyarthi bhi seth amichand ka naam janta hai jinhonne klaiv se sathganth karke angrezi rajya ki jaD zamane mein uski sahayata ki thi. parantu jinhen puraskar ke samay vanchit hokar nirash hona paDa tha. is apmanpurn nirasha se unka pagal ho jana ashcharya ki baat nahin, thoDe hi dinon mein unki mrityu bhi ho gai. unke putr phatehchand bangal chhoD kar kashi mein aa base. inhi ke prapautr harishchandr the. unke pita ka naam gopalchandr tha. ye kutumb pahle hi yathesht sampattishali tha. apne sambandhiyon ke uttaradhikar se aur bhi sampann ho gaya. kashi ke agarval samaj ne apna chaudhari bana kar ise yathesht manyata di. vivahadi karyon mein jo bantni banti jati hai usmen chaudhari ka bhaag aur sabki apeksha dugna hota hai. thoDe din hue, is kul ke pardhan purush Daktar motichandr ne chaudhari pad ka parityag kar diya hai.
harishchandr ko wo sab praapt tha jo madhyakalin parampara ke kisi shriman ko praapt ho sakta tha arthat bhog vilas ki sab samagri aur suvidha evan raja praja mein samman. parantu unse bharat ki durdasha chupchap nahin dekhi gai. jaisa unhonne svayan kaha hai—ha ha bharat durdasha na dekhi jai.
unke pita pakke vaishnav aur achchhe kavi bhi the. alpayu mein hi maha prasthan kar ge. isi beech unhonne anek granthon ki rachna ki. jinmen jarasandh badh mahakavya bhi hai. jo pura na ho saka phir bhi mahattvpurn, aur unki kavitt shakti ka achchha parichay deta hai. unke ek pad ki teen panktiyan mujhe smran aa rahin hain—
jaag gaya phir sona kya re
data jo munh manga deve phir chandi au sona kya re
giradhardas udar pure par mitha aur salona kya re.
giradhardas unka upnaam tha.
kahne ki avashyakta nahin harishchandr yogya pita ke suyogya putr the. unmen janmajat pratibha thi. bachpan mein hi unhonne uska parichay dekar pita ko anand diya tha aur bhavishya ki saphalta ke liye unse ashirvad praapt kiya tha. unki shiksha ke sambandh mein yahi kaha ja sakta hai ki kuch din skool mein ve avashya ge parantu unhonne jo kuch vidyarjan kiya wo ghar par hi apne parishram se. ve anek bhashayen jante the. unki diksha kul ke anusar vallabh samprday mein hui thi. sab dharmon mein aadar buddhi rakhte hue bhi ve ananya vaishnav the. tulsidas ne apni ananyata is prakar prakat ki hai—
bane su raghuvar saun bane kai bigarai bharpur
tulsi bane ju aur son ta banibe mein dhoor.
harishchandr ne bhi apni ananyata is prakar prakat ki hai—
bhajaun to gupal hi kaun sevon to gupale ek
mero man lagyo sab bhanti nandlal saun.
mere dev devi guru mata pita bandhu isht
mitr sakha hari natau ek gopal saun.
hari chand aur saun na sambandh kachhu
aasro sadaiv ek lochan vishal ko.
mano to gupal saun na mano to gupal hi saun
rijho to gupal saun na rijho to gupal saun॥
ve the sakha pyare krishn ke ghulam radharani ke. iske saath hi unhonne kaha hai—
sidhen saun sidhe maha banke hum banken saun.
harichand nagad damad abhimani ke.
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nij bhasha unnati ahai sab unnati ko mool
tabhi unhonne uske liye apna sarvasv sarpit kar diya. keval padya rachnaon se santosh na karke gadya mein anek vishyon par likha aur path pradarshan ka karya kiya. naatk, prahsan, akhyan, jivan charit aur yatra varnan aadi par abadh roop se unki lekhani chalti rahi kavi vachanasudha aur harishchandr chandrika jaise patr unhonne chalaye. phalatः harishchandr chandrika ke ast hone ke pashchat aadhi shati bhi nahin bitne pai aur hindi mein sarasvati ka avirbhav hua evan acharya mahaviraprsad dvivedi jaise sampadak karya kshetr mein avtirn hue. nagari prcharini sabha ki kashi mein sthapana hui aur nitya nai nai pustken prakashit hone lagin. hindi ka pradip pahle hi jagmagane laga tha. svargiy radhakrishn daas, ambikadatt vyaas, chaudhari premghan, prtapnarayan mishr aur gosvami radhachran aadi unke sahyogi the. bankimchandr chatarji ke saman anek bangiy manishiyon se bhi unka achchha parichay tha.
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svatb nij bharat gahe sab dukh bahe.
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bhitar bhitar sab ras chuse
bahar se tan man dhan muse
jahar batan mein ati tez
kyon sakhi, sajan? nahi angrez.
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pai driDh shri harichandr kau tarai na satya vichar.
jo ho, jab tak hindi ka astitv hai tab tak harishchandr amar hain.
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giradhardas udar pure par mitha aur salona kya re.
giradhardas unka upnaam tha.
kahne ki avashyakta nahin harishchandr yogya pita ke suyogya putr the. unmen janmajat pratibha thi. bachpan mein hi unhonne uska parichay dekar pita ko anand diya tha aur bhavishya ki saphalta ke liye unse ashirvad praapt kiya tha. unki shiksha ke sambandh mein yahi kaha ja sakta hai ki kuch din skool mein ve avashya ge parantu unhonne jo kuch vidyarjan kiya wo ghar par hi apne parishram se. ve anek bhashayen jante the. unki diksha kul ke anusar vallabh samprday mein hui thi. sab dharmon mein aadar buddhi rakhte hue bhi ve ananya vaishnav the. tulsidas ne apni ananyata is prakar prakat ki hai—
bane su raghuvar saun bane kai bigarai bharpur
tulsi bane ju aur son ta banibe mein dhoor.
harishchandr ne bhi apni ananyata is prakar prakat ki hai—
bhajaun to gupal hi kaun sevon to gupale ek
mero man lagyo sab bhanti nandlal saun.
mere dev devi guru mata pita bandhu isht
mitr sakha hari natau ek gopal saun.
hari chand aur saun na sambandh kachhu
aasro sadaiv ek lochan vishal ko.
mano to gupal saun na mano to gupal hi saun
rijho to gupal saun na rijho to gupal saun॥
ve the sakha pyare krishn ke ghulam radharani ke. iske saath hi unhonne kaha hai—
sidhen saun sidhe maha banke hum banken saun.
harichand nagad damad abhimani ke.
hindi ke utthaan ke liye unhonne kya nahin kiya. unka mat tha—
nij bhasha unnati ahai sab unnati ko mool
tabhi unhonne uske liye apna sarvasv sarpit kar diya. keval padya rachnaon se santosh na karke gadya mein anek vishyon par likha aur path pradarshan ka karya kiya. naatk, prahsan, akhyan, jivan charit aur yatra varnan aadi par abadh roop se unki lekhani chalti rahi kavi vachanasudha aur harishchandr chandrika jaise patr unhonne chalaye. phalatः harishchandr chandrika ke ast hone ke pashchat aadhi shati bhi nahin bitne pai aur hindi mein sarasvati ka avirbhav hua evan acharya mahaviraprsad dvivedi jaise sampadak karya kshetr mein avtirn hue. nagari prcharini sabha ki kashi mein sthapana hui aur nitya nai nai pustken prakashit hone lagin. hindi ka pradip pahle hi jagmagane laga tha. svargiy radhakrishn daas, ambikadatt vyaas, chaudhari premghan, prtapnarayan mishr aur gosvami radhachran aadi unke sahyogi the. bankimchandr chatarji ke saman anek bangiy manishiyon se bhi unka achchha parichay tha.
raja shivaprsad unke gurujan the. parantu hindi ke roop ke vishay mein harishchandr ka aur unka matbhed hua. raja shivaprsad jo bhasha likhte the wo urdu bahul hoti thi. harishchandr urdu ke premi hi nahin, lekhak bhi the parantu hindi ka svtantr astitv mita kar ve urdu ko hindi nahin maan sakte the. dusre raja lakshmsinh ki hindi avashya unke anukul thi.
raja shivaprsad jahan sitare hind the vahan janta ne harishchandr ko bhartendu ka pad pradan kiya. harishchandr ke samajik vichar baDe udaar the. stri shiksha aur videsh yatra ka us samay unhonne samarthan kiya tha, jab charcha se bhi paap lagta tha. harishchandr ne apni ekmaatr kanya ko pathashala mein bharti kara diya tha. stri shiksha sambandhini baal bodhini naam ki patrika bhi nikali thi. kalkatte mein un dinon koi bangali laDki uchch shiksha mein uttirn hui thi. harishchandr ne ek bahumulya banarsi saDi use puraskar mein dene ke liye bheji thi. tatkalin bangal ke laarD ki patni leDi bethun ne wo puraskar dete hue harishchandr ki duradarshita ki sarahna ki thi. ve chahte the—
nari nar sam hohin jag anand lahai.
videsh yatra ke samarthan mein unki nimn panktiyan hi paryapt hain—
rok vilayat gaman koop manDuk banayo.
harishchandr ki deshabhakti ka kahna hi kya. adhikariyon ke kripa kop ki apeksha na karte hue harishchandr apne path par chalte rahe. unki kamna thee—
svatb nij bharat gahe sab dukh bahe.
angrezon ke sambandh mein unki ek mukarni suniye—
bhitar bhitar sab ras chuse
bahar se tan man dhan muse
jahar batan mein ati tez
kyon sakhi, sajan? nahi angrez.
adhikariyon ka kshobh svabhavik tha. tathapi desh ke anek raja maharaja bhartendu ka baDa samman karte the. unke karyon ke liye dhan bhi dete the. bhopal ki begam sahab se bhi unka patr vyvahar hota tha. mevaD ke maharana sajjan sinh ne harishchandr ke gunon par reejh kar unhen likha tha, aap is rajya ko apni hi seer samajhiye.
harishchandr ne kitne guni janon ki sahayata ki iska lekha kathin hai.
unki asanyat udarta dekh kar ek baar kashiraj ne pyaar se unse kaha, babua, ghar dekh kar chalna chahiye. iske uttar mein harishchandr ne kaha, maharaj, is sampatti ne meri anek piDhiyan samapt kar di hain, main ise samapt kar dunga. hua bhi aisa hi.
kahte hain panna ke raja amansinh baDe dani the. ek baar unki mata ne unse parashn kiya, beta, tujhe sone ka sumeru mil jaye to tu use kitne dinon mein samapt kar de? bete ne kaha, mata, ye use Dhone vale janen, main to use ek hi baar mein de dunga.
harishchandr ek baar kahin ja rahe the. maarg mein kisi ko jaDe se kanpte dekhkar apna dushala use uDha kar svayan thithurte hue ghar aaye.
ek baar ve apne gosvami ji se milne gaye. unke gale mein sundar motiyon ki mala dekhkar gosvami ji ne uski prshansa ki. harishchandr ne turant utarkar wo unhen arpit kar di.
sambhvatः ek hi baar unhen apni danashilata khali. unke yahan ek hastalikhit sachitr granth tha. ek musalman sajjan unse milne aaye. use dekhkar ve lalcha ge. harishchandr ne kaha, apaki nazar hai. pichhe uske liye ve paanch sahasr rupe dene ke liye udyat hue, parantu vyarth. miyan chatur the.
ek baar tikat na hone se unki Daak paDi thi, ek milne vale sajjan aaye aur jate samay ye kah kar use le ge ki main post kar dunga. iske pashchat jab jab ve aaye tab tab harishchandr ne unhen paanch paanch rupe diye. unke kuch kahne par harishchandr ne kaha, tum mere laDke ke saman ho. jao, mithai khana.
ant mein rin lekar kaam chalane ki durvastha aa gai. uttmarnon ne bhi avsar se laabh uthane mein koi truti nahin chhoDi. ek ek sahasr dekar paanch paanch sahasr likhaye.
aise hi ek mahajan ne apne rupye pane ke liye nyayalay ka ashray liya. sar saiyad ahmad un dinon banaras mein nyayadhish the. ve bhed jante the. unhonne harishchandr se puchha, apne kitne rupe liye the? bhartendu ne kaha, mujhe utne hi dene hain jitne mainne likhe hain. jaj kya karte? harishchandr ne theek hi likha tha—
chandr tare suraj tare tare jagat vyvahar.
pai driDh shri harichandr kau tarai na satya vichar.
jo ho, jab tak hindi ka astitv hai tab tak harishchandr amar hain.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।