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भारतेंदु हरिश्चंद्र

bhartendu harishchandr

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारतेंदु हरिश्चंद्र

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    हरिश्चंद्र को जो हिंदी का जन्मदाता कहा जाता है, सो यथार्थ ही। यह बात नहीं कि उस समय हिंदी का अस्तित्व नहीं था। हरिश्चंद्र ने उसे नया जीवन दिया और उसमें समय के अनुरूप नए-नए भाव भर कर उसे नई शक्ति प्रदान की। वे होते तो हिंदी आज अपने वर्तमान रूप में विकसित हो पाती नहीं, अथवा उसको कितनी बाधाओं का सामना करना पड़ता, नहीं कहा जा सकता। आज भी उसे थोड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है। हरिश्चंद्र ने अपना कार्य किया होता तो हमारी राष्ट्रभाषा अपने पद पर प्रतिष्ठित होने में निस्संदेह पिछड़ जाती और उसके मार्ग की बाधाएँ और भी प्रबल हो जातीं।

    उस समय राजकाज में हमारे लिए जिस भाषा का प्रयोग होता था उसके शब्द ही नहीं संस्कार भी विदेशी थे। साधारण जनता को उसे समझने के लिए गिने-चुने लोगों का मुँह ताकना पड़ता था। ऐसी भाषा से किसका काम चल सकता है। परंतु सैकड़ों वर्षों की पराधीनता ने हमें आत्म-ग्लानि से भर दिया था। हम पराजित थे और हमें अपना सब कुछ तुच्छ दिखाई पड़ता था।

    परंतु किसी भिन्न भाषा के द्वारा इसका निराकरण नहीं किया जा सकता था। अपनी भाषा के द्वारा ही हमें अपने विस्मृत रूप का ज्ञान हो सकता था और वही हममें स्वाभिमान जगा सकती थी। हरिश्चंद्र ने इसे समझा और हिंदी पर अपना सब कुछ निछावर कर दिया। उनका जन्म सार्थक हुआ।

    हमारे पद्य की भाषाएँ ब्रज और अवधी पर्याप्त पुष्ट थीं परंतु अब उनके विषयों में नवीनता रह गई थी। और गद्य की गति तो मौखिक वार्तालाप तक ही सीमित थी। नए-नए विषयों के लिए समय गद्य की माँग कर रहा था। केवल पद्य लेकर हम ज्ञान के क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकते थे। अधिकारियों के प्रयत्न से दो-चार पुस्तकें गद्य में निकलीं। परंतु यह प्रयत्न वस्तुतः हमारी अपेक्षा स्वयं उन्हीं की सुविधा के लिए कहा जा सकता है। अंततः विजेताओं को भी विजितों की भाषा का थोड़ा बहुत ज्ञान आवश्यक होता है। यह दूसरी बात है, हमें भी उससे कुछ लाभ हो जाए। इसी कुछ को बढ़ाकर सब कुछ बना देने का प्रारंभिक कार्य हरिश्चंद्र ने किया।

    उनका जन्म संवत 1907 की ऋषि पंचमी के दिन काशी के एक संपन्न अग्रवाल कुल में हुआ। भारतीय इतिहास का साधारण विद्यार्थी भी सेठ अमीचंद का नाम जानता है जिन्होंने क्लाइव से साठगाँठ करके अँग्रेज़ी राज्य की जड़ ज़माने में उसकी सहायता की थी। परंतु जिन्हें पुरस्कार के समय वंचित होकर निराश होना पड़ा था। इस अपमानपूर्ण निराशा से उनका पागल हो जाना आश्चर्य की बात नहीं, थोड़े ही दिनों में उनकी मृत्यु भी हो गई। उनके पुत्र फतेहचंद बंगाल छोड़कर काशी में बसे। इन्ही के प्रपौत्र हरिश्चंद्र थे। उनके पिता का नाम गोपालचंद्र था। यह कुटुंब पहले ही यथेष्ट संपत्तिशाली था। अपने संबंधियों के उत्तराधिकार से और भी संपन्न हो गया। काशी के अग्रवाल समाज ने अपना चौधरी बना कर इसे यथेष्ट मान्यता दी। विवाहादि कार्यों में जो बँटनी बाँटी जाती है उसमें चौधरी का भाग और सबकी अपेक्षा दुगना होता है। थोड़े दिन हुए, इस कुल के प्रधान पुरुष डॉक्टर मोतीचंद्र ने चौधरी पद का परित्याग कर दिया है।

    हरिश्चंद्र को वह सब प्राप्त था जो मध्यकालीन परंपरा के किसी श्रीमान को प्राप्त हो सकता था अर्थात् भोग-विलास की सब सामग्री और सुविधा एवं राजा-प्रजा में सम्मान। परंतु उनसे भारत की दुर्दशा चुपचाप नहीं देखी गई। जैसा उन्होंने स्वयं कहा है—

    हा! हा! भारत दुर्दशा देखी जाई।

    उनके पिता पक्के वैष्णव और अच्छे कवि भी थे। अल्पायु में ही महा-प्रस्थान कर गए। इसी बीच उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की। जिनमें 'जरासंध-वध' महाकाव्य भी है। जो पूरा हो सका फिर भी महत्त्वपूर्ण, और उनकी कवित्त शक्ति का अच्छा परिचय देता है। उनके एक पद की तीन पंक्तियाँ मुझे स्मरण रहीं हैं—

    जाग गया फिर सोना क्या रे

    दाता जो मुँह माँगा देवे फिर चाँदी सोना क्या रे

    गिरधरदास उदर पूरे पर मीठा और सलोना क्या रे।

    गिरधरदास उनका उपनाम था।

    कहने की आवश्यकता नहीं हरिश्चंद्र योग्य पिता के सुयोग्य पुत्र थे। उनमें जन्मजात प्रतिभा थी। बचपन में ही उन्होंने उसका परिचय देकर पिता को आनंद दिया था और भविष्य की सफलता के लिए उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया था। उनकी शिक्षा के संबंध में यही कहा जा सकता है कि कुछ दिन स्कूल में वे अवश्य गए परंतु उन्होंने जो कुछ विद्यार्जन किया वह घर पर ही अपने परिश्रम से। वे अनेक भाषाएँ जानते थे। उनकी दीक्षा कुल के अनुसार वल्लभ संप्रदाय में हुई थी। सब धर्मों में आदर बुद्धि रखते हुए भी वे अनन्य वैष्णव थे। तुलसीदास ने अपनी अनन्यता इस प्रकार प्रकट की है—

    बने सु रघुवर सौं बने कै बिगरै भरपूर

    तुलसी बने जु और सों ता बनिबे में धूर।

    हरिश्चंद्र ने भी अपनी अनन्यता इस प्रकार प्रकट की है—

    भजौं तो गुपाल ही कौं सेवों तो गुपाले एक

    मेरो मन लाग्यो सब भाँति नंदलाल सौं।

    मेरे देव देवी गुरु माता-पिता बंधु इष्ट

    मित्र सखा हरी नातौ एक गोपाल सौं।

    हरी चंद और सौं संबंध कछु

    आसरो सदैव एक लोचन विशाल को।

    मानो तो गुपाल सौं मानो तो गुपाल ही सौं

    रीझो तो गुपाल सौं रीझो तो गुपाल सौं॥

    वे थे 'सखा प्यारे कृष्ण के ग़ुलाम राधारानी के'। इसके साथ ही उन्होंने कहा है—

    सीधेन सौं सीधे महा बाँके हम बाँकेन सौं।

    हरीचंद नगद दमाद अभिमानी के।

    हिंदी के उत्थान के लिए उन्होंने क्या नहीं किया। उनका मत था—

    निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल

    तभी उन्होंने उसके लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। केवल पद्य-रचनाओं से संतोष करके गद्य में अनेक विषयों पर लिखा और पथ-प्रदर्शन का कार्य किया। नाटक, प्रहसन, आख्यान, जीवन-चरित और यात्रा-वर्णन आदि पर अबाध रूप से उनकी लेखनी चलती रही 'कवि वचनसुधा' और 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' जैसे पत्र उन्होंने चलाए। फलतः 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' के अस्त होने के पश्चात् आधी शती भी नहीं बीतने पाई और हिंदी में 'सरस्वती' का आविर्भाव हुआ एवं आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जैसे संपादक कार्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुए। नागरी प्रचारिणी सभा की काशी में स्थापना हुई और नित्य नई-नई पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं। हिंदी का प्रदीप पहले ही जगमगाने लगा था। स्वर्गीय राधाकृष्ण-दास, अंबिकादत्त व्यास, चौधरी प्रेमघन, प्रतापनारायण मिश्र और गोस्वामी राधाचरण आदि उनके सहयोगी थे। बंकिमचंद्र चटर्जी के समान अनेक बंगीय मनीषियों से भी उनका अच्छा परिचय था।

    राजा शिवप्रसाद उनके गुरुजन थे। परंतु हिंदी के रूप के विषय में हरिश्चंद्र का और उनका मतभेद हुआ। राजा शिवप्रसाद जो भाषा लिखते थे वह उर्दू-बहुल होती थी। हरिश्चंद्र उर्दू के प्रेमी ही नहीं, लेखक भी थे परंतु हिंदी का स्वतंत्र अस्तित्व मिटा कर वे उर्दू को हिंदी नहीं मान सकते थे। दूसरे राजा लक्ष्मसिंह की हिंदी अवश्य उनके अनुकूल थी।

    राजा शिवप्रसाद जहाँ 'सितारे हिंद' थे वहाँ जनता ने हरिश्चंद्र को 'भारतेंदु' का पद प्रदान किया। हरिश्चंद्र के सामाजिक विचार बड़े उदार थे। स्त्री-शिक्षा और विदेश यात्रा का उस समय उन्होंने समर्थन किया था, जब चर्चा से भी पाप लगता था। हरिश्चंद्र ने अपनी एकमात्र कन्या को पाठशाला में भर्ती करा दिया था। स्त्री-शिक्षा संबंधिनी 'बाल-बोधिनी' नाम की पत्रिका भी निकाली थी। कलकत्ते में उन दिनों कोई बंगाली लड़की उच्च शिक्षा में उत्तीर्ण हुई थी। हरिश्चंद्र ने एक बहुमूल्य बनारसी साड़ी उसे पुरस्कार में देने के लिए भेजी थी। तत्कालीन बंगाल के लार्ड की पत्नी लेडी बेथून ने वह पुरस्कार देते हुए हरिश्चंद्र की दूरदर्शिता की सराहना की थी। वे चाहते थे—

    नारि-नर सम होहिं जग आनंद लहै।

    विदेश-यात्रा के समर्थन में उनकी निम्न पंक्तियाँ ही पर्याप्त हैं—

    रोक विलायत गमन कूप मंडूक बनायो।

    हरिश्चंद्र की देशभक्ति का कहना ही क्या। अधिकारियों के कृपा-कोप की अपेक्षा करते हुए हरिश्चंद्र अपने पथ पर चलते रहे। उनकी कामना थी—

    स्वत्ब निज भारत गहे सब दुख बहे।

    अँग्रेज़ों के संबंध में उनकी एक मुकरनी सुनिए—

    भीतर भीतर सब रस चूसे

    बाहर से तन मन धन मूसे

    जाहर बातन में अति तेज़

    क्यों सखि, साजन? नहि अँग्रेज़।

    अधिकारियों का क्षोभ स्वाभाविक था। तथापि देश के अनेक राजा-महाराजा भारतेंदु का बड़ा सम्मान करते थे। उनके कार्यों के लिए धन भी देते थे। भोपाल की बेगम साहब से भी उनका पत्र-व्यवहार होता था। मेवाड़ के महाराणा सज्जन सिंह ने हरिश्चंद्र के गुणों पर रीझ कर उन्हें लिखा था, आप इस राज्य को अपनी ही सीर समझिए।

    हरिश्चंद्र ने कितने गुणी जनों की सहायता की इसका लेखा कठिन है।

    उनकी असंयत उदारता देख कर एक बार काशिराज ने प्यार से उनसे कहा, बबुआ, घर देख कर चलना चाहिए। इसके उत्तर में हरिश्चंद्र ने कहा, महाराज, इस संपत्ति ने मेरी अनेक पीढ़ियाँ समाप्त कर दी हैं, मैं इसे समाप्त कर दूँगा। हुआ भी ऐसा ही।

    कहते हैं पन्ना के राजा अमानसिंह बड़े दानी थे। एक बार उनकी माता ने उनसे प्रश्न किया, बेटा, तुझे सोने का सुमेरु मिल जाए तो तू उसे कितने दिनों में समाप्त कर दे? बेटे ने कहा, माता, यह उसे ढोने वाले जानें, मैं तो उसे एक ही बार में दे दूँगा।

    हरिश्चंद्र एक बार कहीं जा रहे थे। मार्ग में किसी को जाड़े से काँपते देखकर अपना दुशाला उसे उढ़ा कर स्वयं ठिठुरते हुए घर आए।

    एक बार वे अपने गोस्वामी जी से मिलने गए। उनके गले में सुंदर मोतियों की माला देखकर गोस्वामी जी ने उसकी प्रशंसा की। हरिश्चंद्र ने तुरंत उतारकर वह उन्हें अर्पित कर दी।

    संभवतः एक ही बार उन्हें अपनी दानशीलता खली। उनके यहाँ एक हस्तलिखित सचित्र ग्रंथ था। एक मुसलमान सज्जन उनसे मिलने आए। उसे देखकर वे ललचा गए। हरिश्चंद्र ने कहा, आपकी नज़र है। पीछे उसके लिए वे पाँच सहस्र रुपए देने के लिए उद्यत हुए, परंतु व्यर्थ। मियां चतुर थे।

    एक बार टिकट होने से उनकी डाक पड़ी थी, एक मिलने वाले सज्जन आए और जाते समय यह कह कर उसे ले गए कि मैं पोस्ट कर दूँगा। इसके पश्चात् जब-जब वे आए तब-तब हरिश्चंद्र ने उन्हें पाँच-पाँच रुपए दिए। उनके कुछ कहने पर हरिश्चंद्र ने कहा, तुम मेरे लड़के के समान हो। जाओ, मिठाई खाना।

    अंत में ऋण लेकर काम चलाने की दुरवस्था गई। उत्तमर्णों ने भी अवसर से लाभ उठाने में कोई त्रुटि नहीं छोड़ी। एक-एक सहस्र देकर पाँच-पाँच सहस्र लिखाए।

    ऐसे ही एक महाजन ने अपने रुपए पाने के लिए न्यायालय का आश्रय लिया। सर सैयद अहमद उन दिनों बनारस में न्यायाधीश थे। वे भेद जानते थे। उन्होंने हरिश्चंद्र से पूछा, आपने कितने रुपए लिए थे? भारतेंदु ने कहा, मुझे उतने ही देने हैं जितने मैंने लिखे हैं। जज क्या करते? हरिश्चंद्र ने ठीक ही लिखा था—

    चंद्र टरे सूरज टरे टरे जगत व्यवहार।

    पै दृढ़ श्री हरिचंद्र कौ टरै सत्य विचार।

    जो हो, जब तक हिंदी का अस्तित्व है तब तक हरिश्चंद्र अमर हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रद्धांजलि संस्मरण (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साकेत प्रकाशन
    • संस्करण : 1939

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